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यंत्र मंत्र ऋद्धि प्रादि महित वैसे ही प्रभु के सु-ध्यान से, वह परिणति आ जाती है। जिसके द्वारा देह त्याग, परमात्मदशा पा जाती है ।।
श्लोकार्थ हे अलौकिकवानपुंज ! जैसे संसार में जिन धातुओं से सोना बनता है. वे नाना प्रकार की धातुएँ तेज अग्नि के हाव मे अपने पूर्व पाषाणरूप पर्याय को छोड़कर शीघ्र स्वर्ण हो जाती हैं, वैसे ही आपके ध्यान से संसारी जीव क्षणमात्र में शरीर को छोड़ कर परमात्मावस्था को प्राप्त हो जाते हैं। जब तुह ध्यान धरे मुनि कोय, तब विदेह परमातम होय । में धातू शिलालन त्याग, कनकस्वरूप धर्व जब प्राग।
१५ ऋद्धि-ॐ ह्रीं ग्रह णमो अक्खरधणप्पयाण विश्वगपत्ताण'।
मन्त्र--ॐ ह्रीं नमो लोए सम्वसाहूण, ॐ ह्रीं नमो उवज्झायाण, ॐ ह्रीं नमो प्रायरियाण, ॐ ह्रीं नमो सिद्धाण, ॐ ह्रीं नमो अरिहताण, एकाहिक, अहिक, चार्थिक, महास्वर, क्रोधज्वर, शोकज्वर, भयज्वर, कामज्वर, कलितरव, महायोरान्, बंष बष ह्रीं ह्रीं फट् स्वाहा ।
__विधि-इस अनादिनिधन महामन्त्र का मन में स्मरण करते हुए नूतन श्वेत वस्त्र के छोड़ में गांठ बांधे, उसको गूगल तथा घी की धूनी देवे; तदुपरान्त उस वस्त्र को ज्वरपीडित रोगी को उढावे । मन्त्रित गांठ रोगी के शिर के नीचे दबाने से सब तरह के ज्वर दूर होते हैं और रोगी को सुख की नीद भाती है।
ॐ ह्रीं जन्ममरणरोगहराय ( श्रीजिनाय ) नमः । 1-क्रियिक ऋविधारी विनों को नमस्कार हो ।