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श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र सार्थ
Muditation of Jina leads to equality witw Him.
Oh Lord of the Jina ! by mediting upon Thee, mundane beings attain in a moment the supreme status leaving aside their body, as is the case in this world with pieces of ore which soon cease to be stones and become gold by the application of severe heat. ( 15 )
गहन वन-पर्वत भय विनाशक
प्रन्तः सदैव जिन ! यस्य विभाव्यसे त्वं, भव्यः कथं तदपि नाशय मे शरीरम् ? । मध्यविवर्तिनो
स्वरूपमथ
हि. यद् विग्रहं प्रशमयन्ति महानुभावाः ।। १६ ।।
जिस तन से भवि चिन्तन करते, उस तन को करते क्यों नष्ट ? | अथवा ऐसा ही स्वरूप है, है दृष्टान्त एक उत्कृष्ट ।। जैसे 'बीचवान बन सज्जन, बिना किये ही कुछ "आग्रह । झगड़े की जड प्रथम हटाकर शान्त किया करते " विग्रह ||
एमत्
शरीर के मध्य में करते हैं, उस शरीर
श्लोकार्थ हे देवाधिदेव ! जिस स्थित करके भव्यजन सदेव बापका ध्यान को ही आप क्यों नाश करा देते हो ? जिस शरीर में आपका ध्यान किया जाता है, श्रापको उसकी रक्षा करना चाहिये, परन्तु प्राप इससे विपरीत करते हैं । अथवा ठीक ही है, कि
१ पश्य । २३ विद्वेषयः मापनी कलह ।