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________________ यंत्र मत्र ऋद्धि प्रादि सहित श्लोकार्थ- हे त्रिभुवनपते ! आपके प्रति उदार प्रभाध हृदयरूपी समुद्र से उत्पन्न हुई टिश्य-वाणी ( दिव्यध्वनि ) को संमारी जीव सुधासमान बतलाते हैं, सो यह बात सोलर पाना सच है क्योंकि धर्मानगगी भव्यजन मापकी उस अमृततुल्यवाणी का पान करके निराकुल प्रक्षय अनन्तसुख को प्राप्त करते हुए अमर पमर पद को प्राप्त करते हैं ॥२१॥ ( यह दिव्यध्वनि प्रातिहार्य का वर्णन है ) उपजी तुम हिय उदधितं, वानी मुधा-समान । जिहि पीवत भविजन लहहि अजर अमर पद थान ।। २१ ऋद्धि-ॐ ह्रीं ह्रीं अहं णमो पुफियतरुवनय गणं दिदिविसाणं। मंत्र- ॐ अरिहंतसिद्धप्रायग्यि उवज्झायमठ्यसाह {णं' ) सव्वषम्मतित्थयाण, ॐ नमो भगवईए सुमदेवयाए शानिदेवयाए सवपवयणदिवयाण. दसण्हं दिसापालाणं चउर्ह लोगपालाणं, ॐ ह्रीं अरिहतदेवाणं नमः । विधि-श्रद्धापूर्वक इस मंत्र को १०६ वार जपने से सब कार्यों की सिद्धि होती है, जय-जय होती है मौर हिंसक जानवर सर्प चौरादिकों का भय दूर होता है। ॐ ह्रीं अजरामरदिव्य ध्वनिप्रातिहार्योप-शोभिताय ( श्री ? ) जिनाय नमः । Jiga's sermon leads to immortality is proper that tay speech which springs up from the ocean of Thy grave १. युष्टि विपत्रिपारी जिनों को नमस्कार हो ।
SR No.090236
Book TitleKalyanmandir Stotra
Original Sutra AuthorKumudchandra Acharya
AuthorKamalkumar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size2 MB
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