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________________ ( २४ } करितोsपि महितोऽपि निरीक्षनोऽपि नूनं न चेतसि मया विद्युतोऽसि भवत्या । जातोऽस्मि तेन जन्बान्धव ! दुःखपात्र, यस्मात्क्रिया: प्रतिफलन्ति न भावन्याः ॥ कल्याणमन्दिर श्लोक नं० ३० .. इन भक्तिरस पूर्ण पंक्तियों में कहिये अथवा माचार्य श्री के उस पौगलिक वाणी में कहिये, कौन से ऐसे तत्त्व भरे थे, जिन्होंने कि उस समस्त विशाल जनसमूह को एक वारगो ही मन्त्रमुग्ध सा कर लिया। सब के नेत्र उसी एक व्यक्ति पर ही गड़े थे, उस मूर्ति की ओर कोई नहीं देखता था, जिसका कि एक २ परमाणु पराग मुद्रा में परिणत होने लग गया था। हाँ, समुदाय के चर्मचक्षु तो उस समय उस ओर मुड जबकि सर्वाङ्ग पूर्ण मुद्रा के प्रकाश पुञ्ज को तंज रश्मियां उनके पलकों से जा भिड़ी और फिर दांतों तले अंगुली दबाने के शिवाय उन्हें रह ही बया गया था, जो कि वास्तव में दयनीय था । परिणाम यह हुआ कि राजा समेत सभी उपस्थित जनता तत्काल समीचीन जैन-धर्म को अनुयायिनी हो गई। ओकारेश्वर का विशाल महाकालेश्वर का मन्दिर इसका ज्वलन्त प्रतीक है | समयानुसार राजा की प्रेरणा पाकर श्री कुमुदन्द्राचार्य जी ने भक्तिरस से प्रतिप्रीत इस कलापूर्ण अद्वितीय चमत्कारी कल्याणमन्दिर स्तोत्र की रचना कर जन साधारण का महान कल्याण किया 1
SR No.090236
Book TitleKalyanmandir Stotra
Original Sutra AuthorKumudchandra Acharya
AuthorKamalkumar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size2 MB
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