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________________ त्योंही अदृश्य वाणी हुई कि दूसरा पृष्ट तुम्हारे भाग्य में नहीं है और स्तम्भकपाट पुनः पूर्ववत् बन्द हो गया..... I अम्नु जितना मिला उतना ही क्या कम था, जो आगे जाकर कल्याणमन्दिर की भक्तिरस पूर्ण चमत्कार सिद्धि में कारण बना । यह घटना एक ऐसी घटना थी जो अक्सर उनके प्रात्मस्थर्य के समय उनकी आँखों में चित्रपट के समान अङ्कित हो जाया करती थी। महाकालेश्वर का विशाल प्राङ्गण-जहाँ करोड़ों की संध्या में प्राज शंव और शाक्त बैठे हैं, नानाप्रकार के वैदिक यौगिक चमत्कारों का जिन्हें गर्व है। वे देखना चाहते हैं कि यह क्षपणक हम से बढ़ियां ऐसा कौनसा समस्कार दिखलाने का दावा कर रहा है, तथाकथित पाठों रस्न इसलिये प्रसन्न है कि आज उन्हें उनके अपने ही द्वारा पाली हुई ईष्या का साकाररूप देखने का सुयोग प्राप्त हो रहा है। उज्जयिनी मरेश विवेकी और परीक्षाप्रधानी थे। प्राभाविक शक्तियाँ हो उन्हें अपने वश में कर सकती थीं। हाँ, तो देदीप्यमान चेहरा अपनी ओर बढ़ता देख मानो शिवमूर्ति निस्तेज पड़ने लगी थी। राजा का संकेत पाकर कपिल द्विज बोला -. "तो क्षपणक जी करिये न नमस्कार शिवजी को; देखें आपका प्रारमवैभव।" श्रद्धा वास्तव में बलवती होती है, उसके पागे सोचने या विचारने का कोई मूल्य नहीं । बस प्राचार्य जी की प्रांखों से वही चित्तौड़गढ़ का भव्य जिनमन्दिर. उसमें विराजमान वही सौम्यमूति पाश्र्वनाथ जी का बिम्ब, वही स्तम्भ और वहीं चमत्कारी पृष्ठ उस शिवमूर्ति के स्थान में दिखाई देने लगे !! एकाएक उनके मुह से भक्ति के आवेश में निम्न-श्लोक निवाल पड़ा
SR No.090236
Book TitleKalyanmandir Stotra
Original Sutra AuthorKumudchandra Acharya
AuthorKamalkumar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size2 MB
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