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________________ ७४ ] श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र सार्थ भव-सागर से तुम परान्मुख', भक्तों को तारो कैसे ? । यदि तागे तो कर्म-पाक के, रस से शून्य अहाँ कैस ? ॥ प्रधोमुखो परिपक्व कलश ज्यों स्वयं पीठ पर रम्ब करके । ले जाता है पार सिन्धु के, तिरकर और तिरा करके ।। इलोकार्थ-हे कृपालू देव ! जिस तरह जल में अघोमुख ( उलटा ) पक्का घड़ा अपनी पीठ पर मारून मनुष्यों को जलाशय से पार कर देता है, उसी तरह भव-यमुद्र से परान्मुख हुए आप अपने अनुयायी भव्यजनों को तार देते हो सो यह उचित ही है । परन्तु घडा तो जलाशय से यही पार कर सकता है जो विपाकसहित ( पकाया हुआ ) है; परन्तु आप तो विपाक ( कर्मफलानुभव ) रहित होकर तारते हैं। यह आपकी अचिन्त्य महिमा है ।। प्रभु भोगबिमुख तन कर्म दाह, जन पार करत भव-जल निवाह । ज्यों मादी कलश सुपक्व होय लै भार अधोमुख तिरहि तोय ।। २९ ऋद्धि-ॐ ह्रीं अहं णमो देवाणुप्पियाणं घोरगुण' बंभचारीण। मन्त्र---ॐ तेजोई सोम सुधा हंस स्वाहा । ॐ ग्रह ह्रौं ५वीं स्वाहा । विधि-भोजपत्र पर इस मत्र को लिखे और मोमबत्तो पर लपेटे फिर मिट्टी के कोरे घड़े में पानी भर कर उसमें उसे डालने से दाहज्वर नाश होता है। ॐ ह्रीं संसारसागरसारकाय श्रीजिनाय नमः । -विमुख । २-ौंधा अर्थात मुह नीचे की पोर तपा पीठ कपर की पोर ।। -धोखाधारी जिनों को नमस्कार हो
SR No.090236
Book TitleKalyanmandir Stotra
Original Sutra AuthorKumudchandra Acharya
AuthorKamalkumar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size2 MB
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