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आदि ३१ में पद्य से लेकर 'ध्वस्तोर्ध्वकेश विकृताकृतिमर्त्य मुण्ड' प्रादि ३३ वें पद्य तक तीन पद्यों में भगवान पार्श्वनाथ पर दैत्य क्रमश द्वारा किये गये उपसर्गों का उल्लेख किया गया है जो दिगम्बर परम्परा के अनुकूल है और श्वेताम्बर परम्परा के प्रतिकूल है; क्योंकि दिगम्बर परम्परा में तो भगवान पार्श्वनाथ को सोपसर्ग और अन्य २३ तीर्थकरों को नि प्रतिपादन किया गया है और श्वेताम्बरीय श्रागम सूत्रों तथा श्राचारांग नियुक्ति में वर्धमान ( महावीर ) को सोपसर्ग श्रीर २३ तीर्थंकरों को जिनमें भगवान पार्श्वनाथ भी हैं, निरुपसर्ग बतलाया है । जैसा कि उक्त नियुक्ति गत निम्नगाधा से प्रकट है
सम्बेसि तवोकम्मं निवसग्गं तु वण्णियं जिणाणं । पथरं तु वच्खमामहस सोषसगं सुणेपव्वं ॥ २४६ ॥
'सब तीर्थंकरों का तपःकर्म निरुपसर्ग कहा गया है और बर्द्धमान का तपः कर्म सोपसर्ग जानना चाहिए ।'
इस बारे में मेरा वह खोजपूर्ण लेख देखना चाहिए जो अनेकान्त ( वर्ष ६ किरण १०-११ पृष्ठ ३३६ । में क्या नियुक्तिकार भद्रवाहु और स्वामी समन्तभद्र एक हैं ?' शीर्षक के साथ प्रकाशित हुआ है ।
स्तोत्र के प्रारम्भ में भी भगवान पार्श्वनाथ के स्तवन की प्रतिज्ञा करते हुए उन्हें 'कमठस्मयधूमकेतुः' के नाम से उल्लेखित किया है ।
इसके सिवाय स्तोत्र में 'धर्मोपदेशसमये श्रादि १९ वें पद्य से लेकर 'उद्योवितेषु भवता' श्रादि २६
वें पद्य तक किया गया है
८ पद्यों में उसी तरह
प्रतिहार्यों का वर्णन