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प्राप्त होता है और निन्दा करने वाला दुःस को पाता है। किन्तु वीतराग देव दर्पण की तरह दोनों में राग-द्वेष रहित रहते हैं। जैसा कि स्वामी समन्तभद्र और प्राचार्य धनंजय के निम्न पद्यों से प्रकट है:(क) मुहत्त्वयि श्रीसुभगत्वमरुनुते, द्विषा त्वयि प्रत्ययवरबलीयते । भवानुदासीनतमस्तपोरपि, प्रभो! परं चिमिदं तबेहिसम् ।।
--स्वयम्भूस्तोत्र ।। ६६1| (ख) उपति भल्या सुमुख: सुखामि, स्वपि स्वभावाहिमुखएक बुखम् । सबाऽवदातातिरेकरूप - स्सयोस्वमादर्श वामभासि ॥
...नियाहार : इस सब कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि परम वीतराग देव की भक्ति से संसारी जीवों को दुःखों का नाश प्रादि अभीष्टफल अवश्य प्राप्त होता है। अत: भक्ति को लेकर जैनधर्म में जैनाचार्यों द्वारा विपुल साहित्य की रचना होना सर्वथा उपयुक्त एवं स्वाभाविक है।
प्रस्तुत स्तोत्र के विषय मेंप्रस्तुत कल्याणमन्दिर स्तोत्र भक्तामरस्तोत्र की तरह अतिशयपूर्ण एवं भावगर्भ भक्तिविषय की एक श्रेष्ठ रचना है। इसके भाव और भाषा दोनों बड़े ही विशद है। इसमें भक्ति की जो धारा प्रवाहित है वह अनठी है। अनुश्रु तियों तथा स्तोत्र के अन्तःपरीक्षण से ज्ञात होता है कि इसकी रचना उस समय हुई है जब प्राचार्य महोदय पर कोई विपत्ति आई हुई थी। स्पष्ट है कि जैनाचार्यों ने जो स्तवन रचे हैं वे उन पर संकट पाने पर जिनशासन का प्रभाव और चमत्कार दिखामे के लिये ही रचे हैं। जैसे समन्तभद्र