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थी कल्याणमन्दिर स्तोत्र सार्थ
become in this birth an object of humiliations and an abode of frustrated hopes (36)
नूनं न मोहतिमिरावत-लोचनेन,
पूर्व विभो ! सकृदपि प्रविलोकितोऽसि । मर्माविधो विधुरयन्ति हि मामनर्थाः,
प्रोचप्रबन्धगतयः कथमन्यथै ते ! १३७।। दृढ़ निश्चय करि माह-तिमिर से, मुद मुंदे से 4 लोचन । देख सका ना उनसे तुमको, एकवार हे दुखमोचन ॥ दर्शन कर लेता गर पहिले तो जिसकी गति प्रबल अरोक । ममंच्छेदी महा अनर्थक, माना कभी न दुख के थोक ।।
श्लोकार्थ-हे कष्ट निवारक देव ! मोहरूपी सघन अन्धकार से प्राच्छादित नेत्रसहित मैंने पूर्वजन्मों में कभी एक बार भी निश्चयपूर्वक आपको अच्छी तरह नहीं देखा, ऐसा मुझे दृढ़ विश्वास है ! यदि मैंने कभी प्रापका दर्शन किया होता तो उत्कट संसारपरम्परा के वर्द्धक मर्मभेदो अनर्थ मुझे क्यों दुखी करते ? क्योंकि मापके दर्शन करने वालों को कभी कोई भी अनर्थ दुःख नहीं पहुंचा सकता ॥३७॥ मोह तिमिर खायो दुग मोहि, जन्मान्तर देख्यो नहिं तोहि । तो दुर्जन मुझ संगति ग, मरूमछेद के कुवचन कहैं ।
३७ ऋद्धि-ॐ ह्रीं यह पमो सन्वराज-पयावसीयरणकुसलाणं कायबलीणं ।।
१-नेव । २--कायबली जिनों को नमस्कार हो ।