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________________ ३२ ] श्री कल्याणमन्दिर स्तोत्र सार्थ of Thy nature ? Is indeed a young-one of an owl blind by day capble of describina ine orb of the hot-rayed one (Sun), however presumptuous it may be ?(3) असमयनिधानवारक मोहक्षयादनुभवन्नपि नाथ ! मयों नूनं गुणान्गणयितु न तब क्षमेत । कल्पान्तवान्तपयस: प्रकटोऽपि यस्मा न्भीयेत के.न जलधे ननु रत्नराशिः ? ॥४) यद्यपि अनुभव करता है नर, मोहनीय–विधि के क्षय से। तो भी गिन न सके गुण तुब सब, श्मोहेतर कर्मोदय से । ३प्रलयकाल में जब जलनिधिका, वह जाता है सब पानी पानी। रत्नराशि दिखन पर भी क्या, गिन सकता कोई ज्ञानो ? ॥ श्लोकार्थ-हे अनन्तगुणनिध ! जैसे प्रलयकाल के समय सब पानी निकल जाने पर भी साफ दिखने वाले समुद्र के रत्नों की गणना नहीं हो सकती, वैसे ही मोहाभाव से प्रतिभासमान आपके गुणों की गिनती भी किसी भी मनुष्य द्वारा नहीं हो सकती; क्योंकि आपके गुण अनन्तानन्त हैं ।।४।। मोहहीन जानै मन मांहि तोउ न तम गुन वरने जाहि ।। प्रलय-पयोघि कर जल ४वीन, प्रगटहि रतन गिने तिहि कौन ।। १- वह कर्म जो मारमा को भुलाये रखता है और सदोष प्राप्त नहीं होने देता । २-शानावरणदि अन्य कर्म । ३- कल्पान्तकाल या परिवर्तनकाल।४-मन ।
SR No.090236
Book TitleKalyanmandir Stotra
Original Sutra AuthorKumudchandra Acharya
AuthorKamalkumar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size2 MB
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