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श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र सार्थ श्री कल्याण
for, great personages bring the discord (the body ) to an end (or this is the nature; for, great pergona who are impartial, remove the quarrel). (16)
युद्धविग्रह विनाशकपारमा मनीषिभिरयं त्वदभेदबूद्धया,
यातो जिनेन्द्र भवतीह भवत्प्रभावः । पानीयमप्यमृतमित्यनुचिन्त्यमानं,
कि नाम नो विषविकारमपाकरोति ।।१७।। है जिनेन्द्र सुम में अभेद रख, योगीजन निज को ध्याते। तव प्रभाव से तज विभाव वे. तेरे ही सम हो जाते ।। केवल जल को दत-श्रद्धा से, मानत है जो सुपासमान । क्या न हटाता विष विकार वह निश्चय से करने पर पान?।।
श्लोकार्थ हे जिनेन्द्रदेव ! जैसे पानी में "यह अमृत है" ऐसा विश्वास करने से मंत्रादि के संयोग से वह पानी भी विविका रजन्य पीड़ा को नष्ट कर देता है। वैसे ही इस संसार में योगीजन प्रभेदबुद्धि से जा प्रापका ध्यान करते हैं तब वे अपने प्रात्मा को प्रापके समान चिन्तवन करने से माप ही के समान हो जाते हैं ॥१७॥ करहि विवुध चे प्रातम ध्यान, तुम प्रभाव से होय निदान । जैसे नीर सुषा अनुमान । पीवत विविकार की हान ।
१७ ऋद्धि- ॐ ह्रीं मई णमो कुटुबुद्धिणालयाणं चारणाणं'।
१-पारण शिपारी जिनों को नमस्कार हो।