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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९)
अनुसन्धान - ७७
श्री हेमचन्द्राचार्य
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि
कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि - अमदावाद
JUNE - 2018
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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
अनुसन्धान प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक सम्पादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
७७
सम्पादक: विजयशीलचन्द्रसूरि
04 0900-060VXR
श्रीहेमचन्द्राचार्य कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद जून - २०१९
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अनुसन्धान ७७
आद्य सम्पादक : डॉ. हरिवल्लभ भायाणी
सम्पादक : विजयशीलचन्द्रसूरि
सम्पर्क : C/0. अतुल एच. कापडिया
A-9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ, अमदावाद-३८०००७ फोन : ०७९-२६५७४९८१
E-mail:s.samrat2005@gmail.com प्रकाशक : कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम
जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि,
अहमदाबाद प्राप्तिस्थान : (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर
१२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां, अमदावाद-३८०००७ फोन : ०७९-२६६२२४६५ सरस्वती पुस्तक भण्डार ११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१ फोन : ०७९-२५३५६६९२ .
प्रति : २५०
मूल्य : ₹ 150-00
मुद्रक : क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल
९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-३८००१३ (फोनः ०७९-२७४९४३९३)
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निवेदन
विद्या-अध्ययनना क्षेत्रे गुजरातमां कारमो दुष्काळ प्रवर्ती रह्यो छे. प्राकृत भाषा, व्याकरण अने साहित्य- अध्ययन तथा अध्यापन करनारा विद्यार्थी, अध्यापको के जिज्ञासु केटला ? प्राकृत भाषा तुलनात्मक अथवा भाषाशास्त्रीय अध्ययन आजे आपणे त्यां रयुं छे खलं ? जेतुं प्राकृत, तेवू अपभ्रंशनुं पण. आपणी गईकाल प्रा. चन्द्रा, डॉ. भायाणी, पं. मालवणिया समेत अनेक तज्ज्ञ विद्वानोथी भरी भरी हती. आजे तेनो एकादो अवशेष पण नथी जडतो!
___ हा, परम्परागत पद्धतिथी प्राकृत व्याकरण- अध्ययन तथा ग्रन्थोनुं वांचन करनारा-करावनारा साधुओ, साध्वीओ अने जैन अध्यापको अवश्य छे; परन्तु ते बधां पिशेलना प्राकृतव्याकरणथी तथा तेना उपयोग माटेनी सज्जताथी तद्दन वेगळा-विमुख-अजाण ! ध्वनिशास्त्र, भाषाशास्त्र, भाषाना विकास तथा परिवर्तनो इत्यादि साथे तेमने कोई ज लेवादेवा नहि होवानी. कोई नवो के अजाण्यो शब्द आवे अने कोशमां ते न जडे तो ते लोको लाचार बनी रहे.
आवी ज स्थिति संशोधनविद्यानी पण छे. आजे संशोधन क्या छ ? ऊंडु अध्ययन, अन्वेषण अने मौलिक तारणो के अर्थघटनो के पाठशुद्धि - आ बधुं क्यां छे ? युनिवर्सिटीना सरकारी नियमो प्रयाणे प्राध्यापके अमुक संख्यामां लेखो, निबंधो, शोधलेखो लखवाना होय अने छपावीने तेनी नकलो संस्था समक्ष
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रजू करवानी होय; तेना आधारे तेमने डिग्री, होद्दो, अधिकार, पगार वगेरे मळवाना होय; आ दृष्टिथी लखाता लेखोमां संशोधन केटलुं होय, मौलिक चिन्तन के ऊंडं अध्ययन केटलुं होय, ते तो लेखक पोते, तेना परीक्षको तथा तेनी साथे संकळायेला बधा ज समजता होय छे.
__ घणीवार लागे के ना पाडवानी, अस्वीकार के नपास करवानी हिम्मत नथी होती तेथी आ बधुं चाली जाय छे; तेनाथी सम्बन्धित लोकोने थोडोक स्थूल लाभ थाय ए खरं, पण हानि तो विद्याने अने संशोधनना क्षेत्रने ज थाय छे. जो आ रीते वर्तवाथी ज बधा भौतिक लाभो मळी जतां होय तो, बिनजरूरी वेदियावेडा करवानुं कोने पालवे ? आ मनोवलणनुं परिणाम छे के आजे आपणे त्यां विद्यानिष्ठ संशोधनकारोनो प्रायः सर्वथा दुकाळ छे.
डॉ. हसुभाई याज्ञिके श्रीपुण्यविजयचन्द्रक-समारोहमां टकोर करी के 'जेने तेने ऐवोर्ड आपवा जेवो नथी; काळजी राखजो' त्यारे मनमां केटलांक वर्षोथी चूंटातो सवाल होठ पर आवी गयेलो के 'तो हवे आ बधां चन्द्रक कोने आपवानां?'
हेमचन्द्राचार्य चन्द्रक होय के पुण्यविजयचन्द्रक होय के अन्य एवॉर्ड होय, ते शरु कर्या त्यारे एकमात्र भावना हती के आपणे त्यां अनेक सर्वोत्तम कक्षाना पण्डितो-विद्वानो छे, जेमनां विद्याकीय कार्यो अमूल्य-अजोड छे; तेमनुं तथा तेमनी विद्यानुं सन्मान करवू.
ना, तेमने मददरूप थवानो के तेमना पर उपकार करवानो लेश पण आशय नहोतो. हतो मात्र बहुमाननो भाव.
थोडां वर्षो तो आ भावना ठाठमाठथी फळती रही, अने तेनो हरख पण खूब रह्या कर्यो. परन्तु एक दहाडो ओचिंतुं ज भान थयु के जेमना माटे नर्यु बहुमान ज जागे ए पेढी तो समाप्त थई गई ! हवे तो रह्यो शून्यावकाश ! आजे आ एवोर्ड कोने आपवा ए प्रश्न एक समस्या बनी रह्यो छे. आना पायामां विद्याध्ययननी बाबतमां आपणे त्यां प्रवर्तेती शून्यता ज पडी छे तेम कहेवामां हवे खचकाट थतो नथी.
आ शून्यावकाश क्यारे दूर थशे ?
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अनुक्रमणिका सम्पादन वाचनाचार्य शीलशेखरगणिविरचिताः सिद्धहेमव्याकरणकतिपयोदाहरणमयाः स्तवाः ।।
- सं. उपा. विमलकीर्तिविजय गणि १ महोपाध्याय श्रीसोमविजयगणिविरचिता संस्कृतगेयपञ्चस्तवी ॥
- सं. विजयशीलचन्द्रसूरि ४८ एक संस्कृत स्तुति
- सं. विजयशीलचन्द्रसूरि ५४ बे संस्कृत पत्रो
- सं. उपा. भुवनचन्द्र ५६ १२ बोल - पट्टक : बालावबोध - सं. मुनि श्रुताङ्गचन्द्रविजय ६५ मंगलदीवो
- सं. विजयशीलचन्द्रसूरि ७८ कवि श्रीशुभवीर-कृत राजनगरसत्क चिन्तामणिपार्श्वनाथ स्तवन
- सं. मुनि मुक्तिश्रमणविजय ७९
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करमबत्रीशी तथा बे स्तवनो - सं. सा. समयप्रज्ञाश्री ८१ बे स्तवनो
- सं. रसीला कडीआ ८७ पांच हरियाळी
- सं. उपा. भुवनचन्द ९४ वाचक पुण्यसागरकृत अंजनासुन्दरी-पवनञ्जयरास (खण्ड ३) - सं. प्रा. अनिला दलाल ९८ श्रीचरमतीर्थपति दीक्षामहोत्सवाधिकार स्तवन
-सं. मुनि शीलचन्द्र विजय
(डहेलावाळा) ११९ विहंगावलोकन
- उपा. भुवनचन्द्र १२६ श्रीपुण्यविजय-स्मृति-चन्द्रक प्रदान समारोह
१२८ डॉ. भगवानदास पटेने पुण्यविजयजी संशोधन-चंद्रक अर्पण ___ - हसु याज्ञिक १२९
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जून - २०१९
वाचनाचार्य शीलशेखरगणिविरचिताः सिद्धहेमव्याकरणकतिपयोदाहरणमया: स्तवाः॥
- सं. उपा. विमलकीर्तिविजय गणि
सिद्धहेम व्याकरणना अध्ययन-अध्यापननो प्रचार मध्यकाळना जैन संघमां खूब रह्यो हशे, तेम ते विषे लखायेली-रचायेली अनेक रचनाओ जोतां लागे छे. प्रस्तुत स्तवात्मक कृति पण ते व्याकरणनां उदाहरणोने केन्द्रमा राखीने ज रचाई छे, जे आ व्याकरणना अध्येताओ माटे अभ्यासोत्तेजक शम्बल पूरुं पाडे छे. आ कृतिमां ११ 'स्तव' छे. तेमां व्याकरणना १ थी ४ अध्यायना १६ पादोनां उदाहरणोने आवरी लेवामां आव्यां छे. आवी व्याकरणमय रचना, ते पण प्रभुनी स्तुतिरूप रचना बनाववी ए केटलुं कठिन काम छे ते विद्वानोने तरत समजाशे. काव्यशास्त्र अने व्याकरणशास्त्रमा ऊंडं पाण्डित्य होय, उपरांत ते बन्नेने सांकळीने काव्यसर्जन करवा जेवी प्रतिभा पण होय, त्यारे ज आईं सर्जन थई शके छे. आ स्तवनोना रचयिता आ प्रकारना प्रतिभावंत विद्वान हता तेनो ख्याल तो आ स्तवनो जोतां ज समजाई जाय तेम छे.
कर्तानो मुख्य आशय व्याकरणना प्रयोगोनो बोध कराववानो छे. काव्यमय भक्ति करतां जतां आवो बोध थई जाय तो अभ्यासीओने वधु सुगमता थाय तेवा कोई आशयथी आ रचना थई छे. जो के कर्ता रचनाना छेडे अभ्यासीओ समक्ष आकरी शरत मूके छ : "आ स्तवनो तेणे ज जोवा, जेने व्याकरणनां सूत्रो जीभना टेरवे रमतां होय, अने तेना अर्थोनो विशद बोध होय." अर्थात् नबळा विद्यार्थी माटे आ रचना नथी.
रचनामां कुल ११ स्तव छे. ४०२ श्लोकप्रमाण सम्पूर्ण रचना छे. १ थी ५ स्तव अनुक्रमे आदिनाथ, शान्तिनाथ, पार्श्वनाथ, नेमिनाथ, महावीर – ए पांच जिननी स्तवनारूप छे. ६-७-८ मां महावीरस्तुति, तथा ९-१०-११ मां सर्व(साधारण) जिनस्तवना छे.
आ रचनाना कर्ता वाचनाचार्य शीलशेखरगणि छे; तेओ श्रीदेवसुन्दरसूरि महाराजना शिष्य हता; तेमनो सत्तासमय १४मा शतकनो उत्तरार्ध छे. तेमणे अनेक स्तोत्रोनी रचना करी छे.
जयपुरस्थित महो. स्व. विनयसागरजीए अमना अभ्यासकालमां कोईक
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अनुसन्धान-७७
ह.प्र. परथी आ स्तोत्रोनी नकल उतारी राखेली, ते तेमणे (जेरोक्स नकल) मोकलेली, ते परथी आ सम्पादन यथामति कर्यु छे. क्षति रही होय तो शक्य छे. फूटनोटमां टिप्पनक तरीके मूल कर्ताए करेल टिप्पणी छे, तो बीजी नोटमा जे ते प्रयोगना सूत्रक्रमाङ्क सम्पादक द्वारा नोंधवामां आव्या छे.
___वाचकशीलशेखरगणिविरचिताः सिद्धहेमव्याकरणकतिपयोदाहरणमयाः स्तवाः ।
॥ श्रीआदिदेवस्तवः ॥
॥ प्रथमाऽध्यायस्य प्रथमः पादः ॥ परमात्मनमाद्यं त-महंकारस्थितं स्तुवे । सिद्धिः स्याद्वादतो येना-ऽसाधि लोकान्तसंस्थिता ॥१॥ महाव्रतानि(५) तत्त्वानि(९) जीवस्थानानि(१४) च प्रभुः । हुस्व(५)-दीर्घ(९)-स्वर(१४)मिता - न्युपकृत्यै सदस्यवक् ॥२॥ आत्थ सन्ध्यक्षराऽन्तस्था, सङ्ख्या(२३) धर्मभिदः प्रभो! । समान(१०)-नामि(१२) मानाश्च, साधुधर्म(१०)-तपो (१२)-भिदः(२२) ॥३॥ भो! गुरुर्व्यञ्जन(३३)मिता-शातनाः प्रोज्झ्य सेव्यताम् । वर्ग(५)प्रमान् प्रमादांश्च, सदाऽप्यादिजिनोऽर्च्यताम् ॥४॥ देवान् धुट(२४)सङ्ख्ययाधीशो-पसर्गान्(२०) घोषवान्(२०) मितान् । त्वमघोष(१३)प्रमाणानि, क्रियास्थानानि(८) चोक्तवान् ॥५॥ चित्तं दिव्य॑ति नाऽऽप्तेषु, भवदीयवचस्सु नः । ब्रह्मीयति तमो(१२)भास्वन्, मरुत्वद्भिर्नमस्कृताः ॥६॥
टिप्पनकम् : १. दिवमिच्छति = दिव्यति । 'अमाव्यः' (३।४।२३) क्यन्प्र० । २.
__ प्राप्तेषु । ३. ब्रह्मणीवाऽऽचरति । 'आधाराच्चो०' (३।४।२४) क्यन्प्र० । श्लोकः : १. सूत्राङ्कः १।१।१-३ । २. सू० ४,५ । ३. सू० ६-८, १५ । ४. सू०
१०, १२ । ५. सू० ११, १३, १४, १७ । ६. सू० २१-२३ ।
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जून - २०१९
॥ प्रथमाऽध्यायस्य द्वितीयः पादः ॥ जिनाधीशं गुणाधारं, मुदाऽहं करुणाकरम् । बहूर्जं सुरभर्तृषि, सेव्यं सिद्धीह्यमाश्रये ॥७॥ महत्ऋद्धिसुरोपास्यं, वन्दिते(तै)कजिनर्षभम् । सज्ञानादित्रिरूपः स्याद्, यवल्कार ऋता सह ॥८॥ तथेश --- रूपो, जायते देशनां सृजन् । ऋकारो हि ऋकारेण नृ(ल)कारेण समं यथा ॥९॥ [क] मोहेन परमर्तं मां, पापं प्राण ऋणार्णवत् । दोषार्तं पीडयेद् वीक्ष्य, त्वां तु प्रार्छाम्यहं सुखम् ॥ [ख] प्राल्कारन्ति भवन्नत्या, क्षमया प्रार्षयन्ति ये । गुणौघैधौतचित्तास्ते, सदैवोद्धत्यवर्जिताः ॥१०॥ योऽपुष्यत् प्रैष्यतां प्रौढ!, प्रौह प्रौढौ त्वयि प्रभो ! । स्वैरिमोहनृपस्वैरा-ऽक्षौहिणीभयमस्यज ! ॥११॥ विद्रुमोष्ठा अवृद्धौ तु, क्रूरामा इहेव ते । ये दध्युस्त्वां मुदो रूपं, प्रेलिताः प्रोखितुं शिवम् ॥१२॥ त्वं भूत्या प्रैधसे चार्वा, दुःखे च प्रोषधीयसे । भात्रङ्गं मञ्जु आपन्नः, शिव एवोत्क ! नायक ! ॥१३।। नाव्यसेऽत्र भवाम्भोधा-वार्जवे जवनोऽनिशम् । भव्यैश्च नव्यविस्तीर्ण-स्तवौयत यशः पयः ॥१४|| टिप्पनकम् : १. प्रकृष्टं ऋणं = प्रार्णम् । २. ऋणस्य ऋणं = ऋणार्णम् । ३. दासताम् ।
४. प्रकृष्टो हस्य प्रौढिर्यस्य । ५. 'इलण् प्रेरणे' । ६. 'उख गतौ' । ७. भातीति भाता । 'णक-तृचौ' (५।१।४८) तृचप्र० । ८. जवनस्त्वरितः ।
९. नन्तृषु साधुर्नन्त्र्यः । 'तत्र साधौ' (७।१।१५) यप्र० । श्लोकः : ७. सू० १।२।१ । ८. सू० ६ । ९. [ख] सू. ७-९ । १०. सू० १०
१३ । ११. सू० १४, १५ । १२. सू० १६, १७, १९ । १३. सू० १९-२३ । १४. सू० २४-२७ ।।
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अनुसन्धान-७७
त्वां गवाक्षविमानेषः, नीहा नेमुर्गवीश्वराः । गवेन्द्राश्च गर्वाभीष्ट !, गोअय इह गोऽवन ! ॥१५।। प्रीणाते आशु रोदस्यौ, मृदू अंही इमे इन ! । तव तौ नाऽनमन्नेत्य, कुधियोऽमी अहो इह ॥१६॥ प्रभो ! इत्या इमे भेजुः, किम्वजं किमु ईश्वरम् । त्वामपास्य परेऽस्यन्तं, यशोवाग्भ्यां दधि मधुम् ॥१७॥
॥ प्रथमाऽध्यायस्य तृतीयः पादः ॥ भक्तियुङ् डुवते यस्ते, गुणान् सन्नपसद्म तान् । शश्वच्च वक्रवाग्युक्तः, स षण्णां रक्षकोऽङ्गिनाम् ॥१८॥ रुग्घीनद्विदृतौ दक्ष !, विष्वग्हित ! विपद्धर ! । वाक्छान्त ! सच्छमश्छान्तः, पुण्यैः खलु गुणैः प्रभो ! ॥१९॥ महश्शस्तः सहस्सार-षट् द्रव्यप्रचनश्चितम् । विरतश्छद्मतस्तन्या-ष्टङ्कस्त्वं मे स्मराऽश्मनि ॥२०॥ स्वामिश्चन्द्रसमांश्चारु- गुणांश्छिन्नमितींस्ततान् । शंसेत् पुमाष्टणत्कार-करान् विश्वे प्रशान् तव ॥२१॥ पुंस्कान्तको न पुंस्प॑ष्ठो-ऽपुंस्चलोऽपुंश्चलो भवेत् । त्वां पुंख्यातोऽत्र पुंशूरः, पुंष्ठकः पुंस्तमो नमन् ॥२२॥ त्वं न् प्रीणासि नूं: पासि, यथा संस्कारयुग् वचाः । सस्कर्ता भूतलं नेत-र्वच्मि कांस्कान् परास्तथा ॥२३॥
टि० : १. गोरभीष्टो गवाभीष्टः । २. गवि अग्यो गोअग्र्यः । ३. परतीर्थिकाः। ४.
डुङ् शब्दे । ५. जगत्प्रसिद्धान् । ६. विपद् हरतीति। ७. ज्ञानम् । ८.
'प्रष्ठोऽग्रगे' (२।३।३२) षत्वम् । ९. प्रकृष्टः पुमान् । ३. अन्यतीर्थिकान् । श्लो० : १५. सू० २८-३१ । १६. सू० ३४, ३५ । १७. सू० ३४, ३७, ४१ ।
१८. सू० १।३।१, २ । १९. सू० ३, ४, ६ । २०. सू० ६, ७ । २१. सू० ८, ९ । २२. सू० ९ । २३. सू० १०, ११, १३ ।
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जून - २०१९
भुवि चङ्क्रम्यते नाऽयं, सुखं जञ्जन्यतेऽस्य च । यस्त्वां वव्वन्यते कंव्वं, यम्यम्येत प्रमोदतः ॥२४॥ सोऽवश्यँल्लादते खेदं, हनुतेऽलं ह्यार्जवमम्झलेत् । सम्राड् भवेन्मुदा त्वां यो, युङ्कु सदा श्रुतंगुण्ट् श्रयेत् ॥२५॥ द्विड् त्समूहं हरन् त्साँधु, वहञ्च् शान्ति जिनोऽर्च्यताम् । धर्मो जेता भगो दैत्या, भो देवा भुव्यघो नराः ॥२६॥ त्वत्पादा अर्वति स्वच्छा-वभीत इह मार्दयः । तस्त्रोद्रतार्त्तयिद्धांश - वातन्याविभ इष्टशम् ॥२७॥ भो उत्तमायघोयिन्द्रा - येषयेव मद्धानिनः । संवि युदुऽघं भिन्द-न्नमृताध्वसुभण्णिह ॥२८॥ त्वां नत्वा सत्तनूच्छायं, प्रभो ! छद्मोज्झितं नरः । कर्म किं माच्छिदद् ब्रह्मम, गच्छेदर्हगुणहृदः ॥२९।। सध्यानगो ३ प्रिय ! श्रीमन्न्, प्रोण्णुनाव गुणैर्भवान् । दिशो वर्य ! सुधाजल्प्य, हृद्यशं क्कलितः प्प्रभो ! ॥३०॥ पुंसां निष्कम्प ! रुश्शान्त !, दर्शनेश ! वचांसि ते । बृंहयन्ति मुदं स्वाराड्, वन्द्याऽर्चीरानिविग्रह ! ॥३१॥ येन माढिः कृता ते वाग, लीढा गूढं निजं.१ मनः । सोढुं कष्टं च कायोत्थं, वोढा सैष शिवश्रियम् ॥३२॥ टि० : १. कं सौख्यं यस्यास्तीति कंव्वं । 'कं-शंभ्यां०' (७।२।१८) मत्वर्थे वप्र० ।
२. उपरमेत । ३. 'गुणण् आमन्त्रणे । श्रुतं गुणयतीति । ४. क्रियाविशेषणम् । ५. मार्दवं करोतीति मार्दवयति । णिचप्र० । मार्दवयतीति क्विप् । ६. ज्ञानेन । ७. सुष्ठ भणतीति । ८. "बृंह वृद्धौ' । ९. मद्धर्म ! (?) माढिः पूजा । १०.
स्वादिताः । ११. संवरितं । १२. 'तदः सेः स्वरे पादार्था' (१।३।४५) सेर्लुक् । श्लो० : २४. सू० १४, १५ । २५. सू० १५-१७ । २६. सू० १८-२२ । २७.
सू० २४, २६ । २८. सू० २४, २७ । २९. सू० २८, ३०, ३१ । ३०. सू० ३१, ३२, ३५ । ३१. सू० ३६, ३७, ४० । ३२. सू० ४२-४५ ।
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अनुसन्धान-७७
स त्वं पिण्ढि भयं मेऽर्ति, पिण्ड्डि तप्त सतां गुणैः । सको येन जितो मोहो-ऽनेषो भूभाग आरचि ॥३३॥ नयज्ञति भवे बुद्ध-तत्त्वो वि त्वयि भक्तिभाक् । देव उत्तमधीः प्राज्ञः, "सहः ख्यातः तपः क्षमः ॥३४॥ गी:पतिको यश स्फीतं, गीर्षु धूतपयःसु ते । गीर्पतिः स्तुत्य ! तेजोऽस्ता-ऽहर्पते ! निनताऽप्सरः ! ॥३५॥ ऊनस्तवाऽन्तिकस्थोऽन्य-स्वभावोऽपि सदृग् भवेत् । योगे यथा तवर्गो हि, स्याच्चवर्गटवर्गयोः ॥३६।। लोके मूर्द्धन्यता टव-ठव-डव-ढवस्य वत् । त्वच शासनस्य पिष्टाऽघ-तमः पूष्णोऽभवज्जिन ! ॥३७॥ जज्ञे यस्त्वत् पुमाञ् शान्त-श्चवर्गाक्षरवत्समम् । कुर्युः स्वेहि तवर्गं त-दक्षाण्येकत्र संस्थितेः ॥३८॥ यस्त्वामीट्टे तमस्तस्य, वृश्चाऽप्रश्नेऽपि सत्पथम् । बम्भण्मि स्म च षटतर्का-गमा षट् स त्वरुण ननु ॥३९॥ षण्णां विशेषं हृदि दर्शनानां, मत्वा जवात् षण्णवतिं च हित्वा । पाखण्डिनां त्वामिति नौति यस्तं, शिवं भवांल्लभयताज्जिनाय ॥४०॥
इति हैमव्याकरणकतिपयोदाहरणमयः श्रीआदिदेवस्तवः ।
टि० : १. 'पिप्लूप् संचूर्णने । २. 'तृपौच प्रीतौ' । ३. विट् पुरुषः । ४. सह-बलेन
रम.. । श्लो० : ३३. सू० ४६, ४८ । ३४. सू० ४९, ५१, ५३, ५४ । ३५. सू० ५५
५९ । ३७. सू० ६० । ३८. सू० ६० । ३९. सू० ६०-६२ । ४०. सू० ६३, ६५ ।
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जून - २०१९
॥ श्रीशान्तिनाथस्तवः ॥
॥ प्रथमाऽध्यायस्य चतुर्थः पादः ॥ शान्ति शिवाय सर्वज्ञ, मुद्यनाभ्यां जनाः स्तुत । अमीभिरिमकैर्देवैः, सदाऽतिजरसैनतम् ॥१॥ को न वाक्काययोः शुद्ध्या, गुणेभ्यः स्पृहयेत्तव । शमेन जितरोषस्य, केषां वाक्येषु नादरः ॥२॥ यस्मै हिताय सर्वस्मै, शक्राः सर्वे नता रयात् । नेशुर्यस्माच्च लोकेऽस्मिन्, दोषास्तस्मान्मुदस्तु मे ॥३॥ नतिर्गुणत्वतं हेतुं, त्वादृशे क्रियते यदि । कतमस्मै तदा त्वस्मै, कतरस्मिंश्च विस्मयः ॥४॥ युष्मादृशे नमस्कार्ये-ऽन्यतरस्मिन्नतिर्मुधा । स्वस्मिन् निःस्वे हि कः स्वाये-तरस्मिन्नादरं सृजेत् ॥५॥ भावारयो रता नेमा, जिता नेमेऽजिता गुणाः । त्वयाऽनल्पे सुरास्तुष्टा, नेमुश्च त्वां चतुष्टये ॥६॥ स्वाऽन्ये दानात् त्वया स्वाऽन्या, गिरा च प्रीणिताः प्रभो ! । जने पूर्वाऽवरेऽचिन्ति, मासपूर्वे यथाहितम् ॥७॥ स्वे पूर्वस्मिन् भवे तप्तं, यैस्तेषां त्वं हि गोचरः । भुवनेऽत्र द्वितीयस्मि-स्तृतीये विश्रुतो गुणैः ॥८॥ पर्वे जिना नृपा आस-न्नसमाः केऽपि वाऽपराः । राज्यलाभेऽप्यरज्यन्त, समस्मिन्न भवादृशाः ॥९॥ टि० : १. अल्पा इमा इमकास्तैर्व्यन्तरादिभिः । २. महर्द्धिकैरिन्द्रादिभिः । ३.
'स्पृहेाप्यं वा' (२।२।२६) चतुर्थी । ४. गुणसमूहहेतुम् । ५. अन्यस्मै ।
६. चत्वारोऽपि भवनपत्यादयः । श्लो० : १. सू० १।४।१ -३ । २. सू० ४, ५ । ३. सू० ६-८ । ४. सू० ७-९ । ५. सू०
८ । ६. सू० १० । ७. सू० ११-१३ । ८. सू० १४, १६ । ९. सू० १६ ।।
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अनुसन्धान-७७
प्रजायै हितसर्वस्यै, रमाया भाजनं भवान् । सर्वस्या देव ! सर्वस्यां, कृपायामस्ति यत्नवान् ॥१०॥ साधवो दधतः क्षान्ति-कूपे अस्ताधयस्तव । अङ्ग्रीपद्ममृदू दध्युः, श्रद्धया क्षमयोः प्रिय ! ॥११॥ यो विश्वबन्धवे तेऽति-स्त्रयेऽनंसीन्न तस्य भीः । पटोः स्फुटमतेर्दीप्त्या, रविणा मञ्जुना सम ! ॥१२॥ त्वयि त्रिजगतः पत्यौ, प्राप्ते सख्यौ गुरौ च किम् । सख्याऽन्येन क्षितौ पत्या, व्रते सख्युरकाङ्क्षक ! ॥१३॥ बुद्ध्यै योऽश्लाघत तान् वै, तवाऽतन्वां नतौ रतः । चार्वाः स गुरुबुद्धेः स्या-ज्जेता बुद्धयाः शुचेर्गुरोः ॥१४॥ रत्नस्त्रियै यथा पवै, मह्यामस्पृहयालुना । सिद्धिवध्वां त्वयाऽसञ्जि, शुच्यास्तन्या जितार्जन ! (?) ॥१५॥ शिवश्रियै श्रियास्त्यागं, स्वःश्रिये स्वर्थियोऽङ्गिवत् । व्यधा विज्ञो हि रज्येन्न, श्रियां भुवि च सुभ्रुवाः ॥१६।। अक्षोभ्यः सुभ्रुवां भीनां, भेत्ताऽग्र्याणां श्रियां गृहम् । सुराणां तद्वधूनां च, वन्द्यः षण्णां हितोऽङ्गिनाम् ॥१७॥ चतुण्ाँ पदधर्माणां, पञ्चानां स्रोतसां जयी । त्रयाणां जगता त्राता, गोः प्रियोऽसि मतेर्वरः ॥१८॥ युग्मम् ॥
टि० : १. क्षमा च क्षान्तिः, क्षमा च पृथ्वीक्षमे । समानानामेकशेषः तयोः । २.
इन्द्रियाणाम् । श्लो० : १०. सू० १७, १८ । ११. सू० १९, २१, २२ । १२. सू० २३, २४ । १३. सू०
२५-२७, ३६ । १४. सू० २३, २५, २८ । १५. सू० २४, २८, २९, ३० । १६. सू० ३०, ३१ । १७. सू० ३१-३३ । १८. सू० ३२-३५ ।
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जून - २०१९
पत्युः शिवश्रियः पत्यु-र्नेतुर्जातं नुतागमम् । पितरं नु प्रशास्तारं, भेत्तारं रतिभर्तरि ॥१९॥ सत्त्रातरचिरामातः !, शान्ते ! रक्ष गुणक्षमे ! । शमाम्बु न हि विश्वाम्ब !, मां श्रीगेहजिते ! जिन ! ॥२०॥ त्वयोर्वी रक्षिता राज्ये, शक्तीनां तिसृणां पदम् । भवान् षण्णां गुणानां चा-ऽजनि सप्रेयसी भृशम् ॥२१॥ चतुण्ाँ कायुपायानां, जेता चतसृणां दिशाम् । अपनेताऽरिनृणां च, नृणामृद्धीर्ददन् महान् ॥२२॥ सा या हन्याऽऽगमाधीति-wह्नि वर्या महात्मनाम् । त्वया न्यषेधि पथ्याय, नम्रोऽस्मि त्वयि मुन्नियाम् ॥२३|| सोऽष्टासु दिक्षु विख्यात-स्त्वं जयाऽष्टौ हरन् मदान् । अष्टानां कर्मणां भेत्ता, येनाऽष्टौ मातरः स्मृताः ॥२४॥ त्वया रक्ष्यन्ते षड्जीवा, विषयाः पञ्च दूरिताः । गुणा यति यथात्ताश्च, तथाऽन्ये तति कत्यधुः ॥२५॥
शैत्यमाधुर्यव(च)र्याणि, पयसी द्वे वचांसि ते । विजिग्यिरे जिनाऽमूनि, मुनिवृन्दं साध्वपा(सा)त् ॥२६॥ अन्यत्तेऽन्यतरद् दूरे-उजर एकतरं वचः । ददेऽतिजरसं स्थानं, बहुवारे ! भवानले ॥२७॥
टि० : १. गमं शिवश्रियः पत्युस्तीर्थङ्करान् जातं कृतं, कथम्भूतान् नेतुः परिवृढस्य
पत्युः स्वामिनः । २. जित इ:-कामो येन स जिते, तस्य सम्बोधनम् । ३. प्रभुत्वोत्साहमन्त्रजास्तिस्रः शक्तयः । ४. सन्धिविग्रहयानासनद्वैधाश्रयाः षड्गुणाः ।
५. मुदि नयतीति विप् । ६. तति गुणा अन्ये कति अधुः । श्लो०: १९. सू० ३०, ३६-३९ । २०. सू० ४०-४४ । २१. सू० ४५-४७ । २२. सू०
४७, ४८ । २३. सू० ५०, ५१ । २४. सू० ३३, ४९, ५२, ५३ । २५. सू० ५४ । २६. सू० ५५, ५६ । २७. सू० ५८-६१ ।
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अनुसन्धान-७७
अक्ष्णोः श्रिया जिताम्भोज !, बहु नो यशसः शुचेः । दध्नः क्षीराब्धिवीराणां, समा द्विश्वान्यपूरयः ॥२८॥ वचांस्यमृतसध्यञ्चि, साधुषु प्राङ् वदन् भवान् । बहूञ्जि मोहमङ्गे युङ् बुद्ध्या श्रीयुग् मुदं व्यधात् ॥२९॥ गत्याऽनड्वान् जय त्वं स, गौद्यौर्येन कृता महैः । गा यस्याऽनुपमाः पीत्वा, पुमान् द्यामपि नैहत ॥३०॥ शैवोऽदर्शि त्वया पन्था, धर्मोऽभाषि भवाम्बुधौ । मन्थास्त्वां साधवः पथ्य, ऋभुक्षाणश्च भेजिरे ॥३१॥ ऋभुक्षाऽर्च्य पदाब्जे ते, गीश्च दर्शितसत्पथी । न्यस्यतां पथि मुक्तेर्मा, शस्यबुद्ध्या जितोशनन् ! ॥३२॥ भेजुर्धर्मधुराऽनड्वं-श्चत्वारस्त्वां नतोशन ! । अतिचत्वः ! कषायैर्गोः, सखायं सुरसञ्चयाः ॥३३॥ सोऽनेहाऽऽसीत् परो नम्र-पुरुदंशानयोशना । यत्र राजा पितेवाऽभूः, प्रियकर्ता सखेव च ॥३४॥ तस्य भद्राणि भूयांसि, हारीणि स्युर्गुणैर्महान् । तमोहा येन पूषेव, त्वं यशस्वी नतः शमी ॥३५।। नतवृत्रहणौ तेऽही, श्रितौ पङ्कजराजितौ । येन तेजोऽर्यमा कुर्या-स्त्वं तमाप इवाऽमलम् ॥३६।। देव ! स्वाम्पि सरांसीव, तृष्णां त्वां हतवानिह । देहिनां सन्महाः श्रीमान्, नीरजः सर्वदोषजः ।।३७।। टि० : १. प्रथमः । २. पन्थानमिच्छवः । ३. सोऽनेहाकालः प्रकृष्ट आसीत् । ४.
'जसूच् मोक्षणे' - सर्वदोषान् जस्यतीति क्विप् । श्लो० : २८. सू० ६२, ६३ । २९. सू० ६६, ६७, ६९-७१ । ३०. सू० ७२-७५ । ३१.
सू० ७६-७९ । ३२. सू० ७६-८० । ३३. सू० ८०-८३ । ३४. सू० ८०, ८४, ८५ । ३५. सू० ८५, ८६, ८७ । ३६. सू० ८७, ८८ । ३७. सू० ८९, ९०।।
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जून - २०१९
हेलया त्वं हरन्मोहं, क्रोष्टारमिव केसरी । दुष्टक्रोष्ट्रनि तन्वर्पि, वनानाप्य तपोव्यधाः ॥३८॥ स्थीयते यत्र निःशङ्ख, हरेः क्रोष्टोरिवान्तिके । क्रोष्टा क्रोष्ट्या च सा कस्य, देशनोर्वी मुदे न ते ॥३९॥
त्यक्त्वा कलत्राणि वराणि देवदाराणि वाऽऽदत्त चतर्यमी यः । तं स्तौति यः शान्तिजिनं सुशब्द
ब्रह्माश्रितं तादृगिहापि स स्यात् ॥४०॥ इति हैमव्याकरणकतिपयोदाहरणमयः श्रीशान्तिनाथस्तवो द्वितीयः ॥छ।।
॥ श्रीनेमिनाथस्तवः ॥
॥ द्वितीयाऽध्यायस्य प्रथमः पादः ॥ यं श्रिता गुप्तयस्तिस्रः, श्रीनेमि नौमि तं गतीः । चतस्रोऽपासितुं ज्ञाना-दिश्रियां तिसृणां गृहम् ॥१॥ राभिरद्भिरिवाब्देन, तोषितं जरसोज्झिता । जगद् युष्माभिरस्माभि-स्तदर्थ्यताऽजरः पदम् ॥२॥ शळे यत्पूरिते विष्णु-र्बलमाह मया त्वया । अजय्यस्त्वयि मय्येष, हितो भावी सखाऽऽवयोः ॥३॥ कषायाधीन युष्माकं, रागद्वेषौ युवां जडौ ।
याताऽस्मभ्यं युषभ्यं य-द्धितो जेताऽस्ति वः प्रभुः ॥४॥ टि० : १. तन्व आपो येषु तानि तन्वम्पि । २. शुद्धज्ञानाश्रितम् । ३. पलायध्वं,
यत् यस्मात् अस्मभ्यं जितः प्रभुः, वो युष्माकं च जेताऽस्ति । किविशिष्टेभ्योऽस्मभ्यं युष्मानाचक्ष्महे णिजि युष्मयामः । युष्मयाम इति क्विपि यूयं
तेभ्यो युषभ्यम् । श्लो० : ३८. सू० ८९, ९१ । ३९. सू० ९१-९३ ।
१. सू० २।१।१, २ । २. सू० ३-६ । ३. सू० ७ । ४. सू० ८-१० । ५. सू० ११-१३ । ६. सू० १४-१७ ।
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१२
अनुसन्धान-७७
त्वां तद्वचोऽहकं तीर्थं, त्वदीयं नौमि रक्ष माम् । त्वं मदुःखं हर प्रीत्या, वयं यूयं यदीक्षिताः ॥५।। मह्यं हित ! नमस्तुभ्यं, तव सेवा सदा मम । कामक्रोधौ युवां मां चो-ज्झतमस्मानवेत्प्रभुः ॥६॥ अस्मभ्यं नत युष्मभ्य-मिष्टं देह्यस्मदापदम् । दूरय त्वं मुदस्माकं, स्तुत्या युष्माकमस्तु च ॥७॥ हितो वो नो जनाः सोऽव्या-दीशो वीक्ष्य यमूचतुः । दम्भलोभौ मदक्रोधौ, क्रुद्धो वां नौ निहन्त्यसौ ॥८॥ मुदे हितं मतं ते मे, नौमि त्वा रक्षया भवान् । ऊना युष्मान् जिनः पातु, सन्तो मा वोऽस्तु स प्रभुः ।।९।। नेमेऽहंस्ते नमः स्वाम्यं, तव त्वां च न कोऽर्चति । समीक्ष्य त्वां जनोऽभ्येति, भाग्यात् त्वां पश्यतीह सः ॥१०॥ धन्योऽहं पासि यन्मा त्वं, जिनस्तत्त्वाऽभजन् सुराः । जना यूयं विनीतास्तत्, प्रभुर्वो भवतोऽवति ॥११॥ पश्यैतकं नतं लोक-मथो रक्षैनमीशते । मुख्येनैतेन जिग्येऽब्ज-मेनेनेन्दुः सदा श्रिया ॥१२॥ पदोरस्त्यनयोः श्रीस्ते, जनो दृष्टा(ट्वा) तदेनयोः । प्रज्ञेमि(म)केषु वाक्येषु, तदेष्वेषां सतां रतिः ॥१३।। अयं मोह इयं माया, वचसाऽपास्यनेन ते । रागद्वेषौ हतौ चेमौ, कोऽस्मिन्नाऽतः कदा रतः ॥१४॥
टि० : १. स्तुत्या युष्मान् चक्ष्महे णिज् क्विप् ।
श्लो० : ७. सू० १८-२० । ८. सू० २१, २२ । ९. सू० २३, २४ । १०. सू०
२३,२४ । ११. सू० ३१ । १२. सू० ३१, ३३ । १३. सू० ३३-३६ । १४. सू० ३७-४०।
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१३
जून - २०१९
गते यतोऽप्युंभे ध्याने, द्वे येनाऽसि स्मरोऽसुकः । लोभोऽसुको मुदे सैष, देवः स्याऽसौ च तस्य गीः ॥१५॥ जज्ञेऽस्याऽदौमवन्नाद्रौ, विकल्पोऽमुमुयङ् न कः । अमुना भीहता दोषा, ज्ञा अमुष्यामुकेऽस्मरन् ॥१६॥ ये तेऽ[प्य]ध्यैत सिद्धान्तं, लुवं प्रीतेर्नियं पथि । युयुवुः स्वं दिवीयुस्ते, शिवं नायक ! शिश्रियुः ॥१७॥ राजीमती स्त्रियां वाञ्छन्, त्वां स्तुवन्नश्नुवीत ना । गोस्त्रियः सुभ्रवः स्त्रीश्च, मुक्तिस्त्रीमपि तां क्रमात् ॥१८॥ ये निन्युः सुधियो वस्वः, पत्यस्त्वां चिच्युरार्जवम् । दोषल्वोऽग्राथ एषां स्यु-र्गुणाः प्रतिभुवः श्रियः ॥१९॥ कारभ्वमिव वर्षाभ्व-मिव चार्तं भवेऽत्र माम् । पान्तु वाक्यानि तेऽग्याणि, तमःपूष्णो विपज्जिही ॥२०॥ भग्नरुग् दोषलून्युस्ते, वृक्णात्तेऽघं पिपिक्षतः । मते को मोक्षमारोक्ष्मन्, भवोत्तीर्ण ! न दीव्यति ॥२१॥
टि० : १. आर्त्तरौद्रलक्षणे । २. अदसो मः = अदोमः । अद्रौ अद्रिप्रत्यये यथा
विकल्पभाग् भवति तथाऽस्य न । अमुमञ्चतीति । २. विगता इच्छा यस्य । ३. वसु इच्छन्ति, क्यन् । वसूयतीति क्विप् । एवम्-पत्यः । ४. क(ह)र्तुमिच्छति जिहीर्षति, सन् । 'स्वर-हन-गम०' (४।१।१०४) दीर्घः । 'ऋतां क्डितीर्' (४।४।११६) इर् । विपदं जिहीर्षतीति विपज्जिहीः, क्विप् । 'दीर्घड्याब्०' (१।४।४५) सिलोपः । ‘पदान्ते' (२।१।६४) दीर्घः । ५. लवनं = लूनिः। 'स्त्रियां क्तिः' (५।३।९१) क्तिप्र० । दोषाणां
लूनिर्यस्मात् स, तस्य । श्लो० : १५. सू० ४१-४४ । १६. सू० ४६-४९ । १७. सू० ५०-५२ । १८.
सू० ५३-५५ । १९. सू० ५६-५९ । २०. सू० ५९-६० । २१. सू० ६१-६३ ।
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अनुसन्धान-७७
स नो दिव्यति गीर्येन्ने, गुरोः कुर्यात् तपोरजः । छुर्यात्ते समता धुर्या, गीर्येनाऽघलुवः श्रुता ॥२२॥ जगन्वान् सिद्धिमति@न्, नेमिवद्भिः सदा प्रशान् । श्रेयोरथेऽनडुद्भिस्त्वं, श्रितो विद्वद्भिरुक्तर्दिक् ॥२३।। सुदृगुष्णिक स्तुतो धीस्पृक्, स्रग्भिस्त्वं पूजितोऽमरैः । अजीवनक् नरेषु प्राङ् श्रीसजूर्युङ् गुणैर्दधृग् ॥२४॥ किं तैरहोभिरहन्न, यत्राहनिशमानतः । अहोरात्रं मनोवाग् घुट, तत्त्वभुन्नतकामधुक् ॥२५॥ भव्या यूयं न्यगूढं हृत्, सद्गिरोऽधुग्ध्वमाश्रिताः । जिन ! सम्यग् निघोक्ष्यध्वे, योगान् भोत्स्यध्व आश्रवान् ॥२६॥ बुधास्तत्त्वमबु(भु)द्ध्वं चे-न्नाघं धच्छाशये शमम् । धद्ध्वे रुन्ध च दुर्बुद्धिं, साम्यं धत्तः सदा तदा ॥२७॥ विश्वं यशोभिरस्तीव-मवृढवं मुक्तिमुन्नतिम् । ववृद्वे शर्म चेषीढ्वं, स्तीर्षीढ्वं दुःखमीश ! मे ॥२८॥ अग्रहीदवं श्रियायिट्वं, श्रेयोऽग्राहिवमुत्सवैः । जगृहिवे शमासिध्वं, सिद्धौ मेहिध्वमुत्तमैः ॥२९॥ अलविढ्वं तमोबाढं, पुपुविढ्वे स्वमुच्चकैः ।
त्रातुमुत्सहिषीढ्वमा-यिषीढ्वं हृदि मे प्रभो ! ॥३०॥ टि० : १. दिवमिच्छति = दिव्यति । 'अमाव्ययात्' (३।४।२३) क्यन्प्र० । २.
गिरिमिच्छेत् = गीर्येत् न । ३. 'णमं प्रवत्वे' नेमुर्नेमिवांसः । 'तत्र क्वसु का०' (५।२।२) क्वसुप्र० । 'अनादेशादे०' (४।१।२४) ने०, तैः । ४. उक्तो दिग्मार्गो येन । ५. सुदृग्भिः सम्यग्दृष्टिभिरुष्णिग्भिः छन्दोभिः स्तुत: सुदृ० ।
प्रगल्भः । ६. 'गुहौग् संवरणे' । ७. मनोवाक्कायान् । श्लो० : २२. सू० ६३-६६ । २३. सू० ६७-६९ । २४. सू० ६९-७३ । २५. सू०
७४-७७ । २६. सू० ७७ । २७. सू० ७८ । २८. सू० ८० । २९. सू० ८१ । ३०. सू० ८१ ।
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जून - २०१९
अनायित्वं मनोयेना-ऽस्मारिषीढ्वं स मोहधक् । लेढि ते वाक्सुधां दग्ध-तापां हस्तजिताम्बुरुट् ॥३१॥ अद्रोग्धा स्नुग्धशं स्नेढा, स्नूढसत्येष्वमूढधीः । अमुग्धस्निग्धहृद् दैत्य-धुग् रुक्मिधुड् नतो जय ॥३२॥ सत्यवाग् भक्तिभाग्भिस्त्वं, मुक्तोपानद्भिरानतः । निर्ग्रन्थैरिष्टसिद्धान्तै-स्तीर्थस्रष्टाच्छसत्पथम् ।।३३।। नम्रसम्राट् तमोमाा , श्रीविभ्राट् गुणराष्टिसृट् । लाभद्रष्टा विभो ! नन्द, यशोभ्राष्टिकृदर्त्तिमृट् ॥३४॥ पापभृट् तापवृट् कर्म-भ्रष्टा पुम्भिर्नतो भवान् । दिष्टविट् सुख आव्रष्टा, पृष्टोऽपि श्रेय आधितट् ॥३५।। स्वामिन् ! मुक्तिचिकीर्मोह-सूतमोहः सुधीरिमा । शंवान् ! श्रीधाम ! धीसद्मन् !, दयावान् शमवानव ॥३६।। मुग्धान् भास्वान् यशस्वांश्च, प्रजां राजन्वती सृजन् । लक्ष्मीवांस्त्वां हरिर्भेजे, कक्षीवान् नु मुनीवतीम् ॥३७॥ गुणोदन्वान् नताऽष्ठीर्वान्, मुन्योघो यवमत्करम् । वीक्ष्य त्वां मोहनिश्यक, हृष्टः सिंहासनि स्थितम् ॥३८॥ दतां पदोसो दोष्णो-हंदोऽस्नश्चोपमा न ते । सुधायूष्णा समा गी: स्या-दुद्नस्तुल्या तमोऽनले ॥३९॥
टि० : १. स्नुग्धमुक्तं शं येन सः । २. स्नेहवान् । ३. स्नूढ उक्तसत्येषु । ४. अमुग्धं
स्निग्धं हृत् यस्य स चासौ दैत्यधुग् वासुदेवश्च रुक्मिध्रुड् वनदेवश्च ताभ्यां नतः । ५. नु यथा कक्षीवान् ऋषिमुनीवती नदी भजति । ६. अस्थीनि
सन्त्येषां तेऽस्थीवन्तः, नता अष्ठीवन्तो यस्य मुन्योघस्य ।। श्लो० : ३१. सू० ८१-८३ । ३२. सू० ८३, ८४ । ३३. सू० ८५-८७ । ३४. सू०
८७ । ३५. सू०.८७-८९ । ३६. सू० ९०-९४ । ३७. सू० ९४-९६, ९८ । ३८. सू० ९७, ९७, १०० । ३९. सू० १०१ ।
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अनुसन्धान-७७
द्विपादस्त्वां यथा नेमु-स्तथा वन्द्यं चतुष्पदाम् । त्वं बोधयन्नुदीच्यादीन्, प्राच्यादिप्रसरद् यशाः ॥४०॥ मुनिभिस्त्वां विदुष्मन्तं, विदुष्यं विदुषां चयः । किं हित्वाऽन्यसुरान् सक्तान्, यूनः शून इव श्रयेत् ॥४१॥ मघोनोऽर्च्य मघोन्या च, सन्तोषामृतपा' त्वया । राज्ञो राश्याः समुद्रस्य, शिवायाश्च कृतं सुखम् ॥४२॥ निःसीमनि पदाब्जे स-द्धाम्नी निर्धूतकर्मणी । तव हृद्वाम्नि वार्चनः सङ्घो न्यस्यानिशं स्मरेत् ॥४३।। वन्दे सुपर्वणां सेव्यं, त्वां प्राप्तं शिवधामनि । तमोघ्नन्तं जिनाऽनन्तं, नमज्जन्तौ पितुः समम् ॥४४॥ भान्ती तनुस्ते पुनती तुदन्ती, श्यन्ती हरन्ती च तमोऽशुभाती । नेत्रे च नेमे घुसदो धुचक्रु-महैर्भुवं त्वां स्तुवतोऽप्रिया द्यौः ॥४५॥ इति हैमव्याकरणकतिपयोदाहरणमयः श्रीनेमिस्तवः तृतीयः ॥छा।
टि० : १. विदुषि साधुः - विदुष्यस्तम् । २. सन्तोषामृतं पिबतीति सन्तोषामृतपाः,
तेन । 'लुगाऽऽतोऽनापः' (२।१।१०७) आलुक् । ३. वृत्रघ्नो देवेन्द्रस्याऽयं -
वाघ्नः । ४. भान्ती तनुरस्तीति सम्बन्धः, एवं नेत्रे च । एवं सर्वत्र । श्लो० : ४०. सू० १०२-१०४ । ४१. सू० १०५, १०६ । ४२. सू० १०६-१०८ ।
४३. सू० १०९-१११ । ४४. सू० १०९, १११-११४ । ४५. सू० ११५११८ ।
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जून - २०१९
१७
॥ श्रीपार्श्वनाथस्तवः ॥
॥ द्वितीयाऽध्यायस्य द्वितीयः पादः ॥ अर्हन्तं नौऽमि तं पाश्र्वं, हेतुं कार[क]वज्जने । सत्क्रियाणां तपःकर्ता, स्वतन्त्रो योऽभवद् व्रते ॥१॥ त्वां नमन् को न दुष्कर्म, दहेदन्यांश्च मोचयेत् । मार्गं याति सतो हर्ष, गमयेद् भोजयेद् वरम् ॥२॥ त्वं बोधयन्नतो येना-ऽध्यापयन्नागमं मुनीन् । मोदयन् नाथयंस्तैश्च, व्रतं शं तेन वाहय ॥३॥ न वृषान् वाहयेद् भारं, भक्षयेन् न शुनो मृगान् । सत्क्रियां कारयेन् नान्यै-धर्मं यं त्वमचीकरः ॥४॥ देशं विहारयन् साधून्, भैक्षमाहरयंश्च तैः । भव्यान् दर्शयसे श्राद्ध-श्चाभिवादयसे तथा ॥५॥ दयमानं शिवं द्यौश्च, त्वं स्मरेन्नपरस्य ना । सर्पिषो नाथते नाथ !, न तैलं हि विशेषवित् ॥६॥ उपस्कर्तुं गुणान् क्षान्तैः, सज्जं त्वां न रुजोऽरुजन् । गोश्च प्रभावतो नोज्जा-सयतः पिषनश्च ते ॥७॥ निहन्ति नाङ्गिनां दीव्येत्, पणायेद् व्यवहृत्य च । सहस्रस्य शतं वा न, प्रदीव्यति नतस्त्वयि ॥८॥ नाऽक्षैर्देवयतेऽन्येन, जनोऽक्षांश्च न दीव्यति ।
मतमध्यास्य मार्ग ते-ऽधितिष्ठन् साम्यमाऽऽवसन् ।९।। टि० : १. त्वयि नतोऽङ्गिनां न दीव्येत्, अङ्गिक्रयविक्रयक्रियां न कुर्यात्, तथाङ्गिनां
पणायेन्नङ्गिनो धूतपणं न कुर्यात्, तथा सहस्रस्य व्यवहृत्य क्रयविक्रयं कृत्वा
न सहस्रस्य शतं वा प्रदीव्यति, रिक्तसहस्रं शतं वा पणं न करोतीत्यर्थः । श्लो० : १. सू० २।२।१, २ । २. सू० ५ । ३. सू० ५ । ४. सू० ६-८ । ५. सू० ८, ९ ।
६. सू० १०, ११ । ७. सू० १२-१४ । ८. सू० १५-१७ । ९. सू० १९-२१ ।
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१८
अनुसन्धान-७७
श्रेयोऽभिनिविशतेऽसौ, मासमास्ते च योगतः । गोदोहं यस्य हृद्यास्से, मुदं वाचा ददद् गवे ॥१०॥ दिवे न स्पृहयेत् कुप्येत्, मोहाय द्रुह्यते भुवे । स लोभाद् विरमेद् यस्य, चित्तान्नान्यत्र गच्छसि ॥११॥ स त्वं जय प्रभो ! दोषाः, समयाऽस्थुर्न यं सुराः । निकषा यं स्थिता लोकं, हा धिक् च त्वयि दुर्धियम् ॥१२॥ अन्योऽन्तरा भुवं द्यां च, प्रभुस्त्वामन्तरेण न । तेन त्वां सन्त इत्यागुः(हुः), पद्मं येनाऽलयो यथा ॥१३।। द्या उपर्युपरीयुस्त्वां, नता शक्राश्च सर्वतः । अभितोऽवीजयन् देवा-श्चामरैः परितो गुणाः ॥१४॥ अभ्यशोकं प्रभो!ऽनु त्वां, रत्नवप्रं परिस्थितम् । सन्तोऽहरहरत्येयु-र्न तुन्द्यां प्रत्यनादराः ॥१५॥ त्वज्जन्मोत्सवमन्वायुः, सुरास्तच्चा(तत्त्वा?)मुपेतरे । देवा ग्रहा इवान्वर्कं, त्वं नतान् बहुरक्षसि ॥१६।। सत्पथं पृच्छतः साधून, मनस्त्वां नयतः सदा । भवानन्वशिषद्धर्म, स्वामाह(?) नतिमग्रहीत् ॥१७॥ सर्वघस्रान् सुराऽऽनम्य, मुहूर्तेन व्यधुस्त्वया । गणेशा द्वादशाङ्गानि, ध्यानेन ज्ञानमापि च ॥१८॥ भामण्डलेन बुद्धस्त्वं, शक्रैः सह सुरैः समम् । दैत्यैः साकं नरैः सार्धं, देशनोदूँ स्थितो जनैः ॥१९॥
टि० :
श्लो० : १०. सू० २२-२५ । ११. सू० २६, २७, २९ । १२. सू० ३१-३३ । १३. सू०
३३ । १४. सू० ३४, ३५ । १५. सू० ३६, ३७ । १६. सू० ३८, ३९ । १७. सू० ३८-४१ । १८. सू० ४२-४४ । १९. सू० ४४, ४५ ।
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जून - २०१९
प्रकृत्या दर्शनीयस्त्वं, शिवेनोत्सुक! चेन्नतः । राज्येनाऽलङ्कृतं स्त्रीभि-दिवा तत्कि सृतं श्रिया ॥२०॥ सञ्जानानो गुणैः कामे-ऽवबद्धः संप्रयच्छते । द्विद्रोणेन जडो धान्यं, कुस्त्रिया ननु तेऽर्चने ॥२१॥ मह्यं देहि मुदे शं त्वं, यस्मै साम्यमरोचत । शक्रोऽश्लाघिष्ट लोकायै-क्षथा ज्ञानाय षोऽवसन् (सोऽवसत्?) ॥२२॥ वाक् ते लाभाय मुक्ताभ्यः, स्वात्यम्बुवदकल्प्यत । पात्रेऽन्यत्र तु तापाय, सा मुक्तेव तडिद् भवेत् (?) ॥२३॥ सध्यानाय वनेऽस्थास्त्वं, पुरे ग्रामं च नाऽऽगमः । नत्वा हितं सुखं चोव्य, त्वां मन्ये द्यां तृणाय न ॥२४॥ जीवेभ्योऽस्तु शमायुष्यं, लोकानां क्षेममन्वहम् । अर्थश्च सिद्ध्यतु स्वस्ति, त्वन्मतस्थितवागिति ॥२५॥ भद्रं ते त्वन्मतायाऽस्तु, नमस्यंस्ते जनः प्रभुः । मोहच्छिदे निवृत्तोऽघा-दासिद्धेः शर्म चाश्नुते ॥२६॥ न्यस्तोर्वी पर्यभव्येभ्यः, केवलात् प्रभृति त्वया । धर्मे ततो बहिर्मोहात्, कोऽन्यस्त्वत् प्रति पश्चिमः ॥२७॥ दोषा(:) स्तोकाज्जिता ज्ञानाद्, दूरे कृच्छ्रात् त्वदन्तिके । गुणास्ते स्युरदेवस्या-ऽज्ञासीत् त्वां कुधियां गणः ॥२८॥ उपर्यधः क्षतेः कीर्तिः, परस्तात् ते ययौ स्थितः । न मोहः पुरतः कामः, पुरस्ताज्जेतुरंहसाम् ॥२९॥
टि० : १. हेतुना । श्लो० : २०. सू० ४६-४९ । २१. सू० ४९-५२ । २२. सू० ५३-५५, ५८, ६० ।
२३. सू० ५५, ५९ । २४. सू० ६०, ६३-६५ । २५. सू० ६६, ६८। २६. सू० ६६ । २७. सू० ७१, ७२, ७५ । २८. सू० ७७-८० । २९. सू० ८२ ।
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अनुसन्धान-७७
॥
भेदकोऽर्तेर्द्विषन् भीते-र्नेता द्यां त्वां शिवस्य च । पुंसां तवाऽऽसिका सिद्धौ, कृतिः क्षान्तेस्त्वया धृतेः ॥३०॥ बिभित्सा भेदिकाऽघस्य, तव घात्यो मदस्त्वया । लोभो जेयोऽसनीया भी-नेंतव्यं च मुदं जगत् ॥३१॥ दयामिच्छुर्जगत्त्रप्ता, विद्वांस्त्रातुं रतो गुणान् । दधानः शर्म लेभान-स्तन्वन् ज्ञानञ्च वावहिः ॥३२॥ त्वां योगिनां मतं सद्भिः, सुलभं कारकैव॒तम् । श्रितवद्भिर्नतं देवै-स्तत्त्वं सुज्ञानमास्तिकैः ॥३३॥ शिखिनो नृत्तवत्तप्तं, निराम्नायं युधाङ्गिभिः । विधिज्ञाः कामुका मुक्तैस्तत् त्वदाज्ञां प्रपादुकाः ॥३४॥ निर्वृति गमिनोऽप्यन्ये, यान्ति मासे द्विरम्बुपाः । द्विर्भो ! जिनोऽपि मासो न, मोक्षे लक्षं नु दायिनः ॥३५॥ व्रते कुशलमायुक्तं, तपसोऽधिपति श्रियाम् । त्वां दिवि स्वामिनो भेजुः, स्वभ्रे च भुव ईश्वराः ॥३६॥ सिद्धान्तेऽधीतिनोऽतीत-पूर्विणोऽघं ततर्षयः ? । साधवः पौरुषीमाने, छायायां त्रिपदान्यदुः (?) ॥३७|| दोषेष्वसाधवः साम्ये, निपुणास्त्वयि वीक्षिते । अहृष्यन् भाष्यमाणे च, त्वया धर्मे सुनिर्मले ॥३८॥ सर्वार्थसिद्धिर्यास्त्यून - सप्तरज्जूषु गोः सुरैः । तस्या नाप्येत तेनाप्तेः, सिद्धिर्दादशयोजनी ॥३९॥
टि० :
श्लो० : ३०. सू० ८३-८६ । ३१. सू० ८७-८९ । ३२. सू० ९० । ३३. सू०
९०, ९१ । ३४. सू० ९२, ९३ । ३५. सू० ९४-९६ । ३६. सू० ९७; ९८ । ३७. सू० ९९, १०२ । ३८. सू० १०१, १०३ । ३९. सू० १०७।
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जून - २०१९
लोकस्य रुदतोऽप्यात्त-दीक्षं नृषु च नाकिनाम् । प्रशस्यं त्वां जनः पश्यन्, पक्षात् भवेन्न मासि वा ॥४०॥ पृथक्कोपेन मानाच्च, नाना दम्भेन भो ! भृतः । न त्वं भाग्यादृते पुण्यं, चाप्यसे पापहज्जनैः ॥४१॥ विनाऽऽलस्यं प्रमादेन, मोहाच्च त्वां श्रये तपः । मेरुं पूर्वेण सोत्पद्य, सिद्धयेदिन्दोः समैर्गुणैः ॥४२॥ यो वित्तेन निमित्तेन, हेतोः स्वर्गाच्छिवस्य च । राज्यार्थाय च मुद्यर्थे, त्वां भजेत्तस्य तद् भवेत् ॥४३॥ यो हेतुः सत्यवाग् हेतुं, यं सत्पूज्योऽसि हेतुना । येनाऽदोषो यतो हेतो-आनी तस्य त्वमिष्यसे ॥४४॥ दूरेण ते कर्णं मदश्च दूराद्, दूरे स्मरोऽगात् त्वदघं च दूरम् । प्रापुर्गुणास्तेऽन्तिकमन्तिकेन, क्षमान्तिकात् त्वच्च दयान्तिके श्रीः ॥४५।।
यः फल्गुनीषु गतमर्कमफल्गुवल्ग
धाम्नाऽजयस्तमिह पार्श्व ! नमाम्यहं त्वाम् । स्तुत्वा च वो वयमिति क्रमपङ्कजेषु
सद्भक्तिमेव सततं स्पृहयाम उच्चैः ॥४६।। इति हैमव्याकरणकतिपयोदाहरणमयः श्रीपार्श्वनाथस्तवश्चतुर्थः ।
टि० : १. तस्य हेतोस्त्वमिष्यस इत्यर्थः । श्लो० : ४०. सू० १०८-११० । ४१. सू० ११३ । ४२. सू० ११५-११७ । ४३.
. सू० ११८ । ४४. सू० ११९ । ४५. सू० १२० । ४६. सू० १२२, १२३ ।
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अनुसन्धान-७७
॥ श्रीमहावीरस्तवः ॥
॥ द्वितीयाऽध्यायस्य तृतीयः पादः ॥ वीरं स्तौमि तिरस्कृत-मानं भक्तिपुरस्कृतः । तिरःकृताऽघमुस्कान्तं, नमस्कृत्य पुरस्य तत् ॥१॥ श्रेयस्कारि तपस्काम-महस्पात्रं शिरस्पदम् । तत्त्वां येन पयस्कल्पं, यशस्काम्यन्नरो नमेत् ॥२॥ सुरोचिष्काऽधनुष्काम्य-न्नाथ ! निष्कोप ! दुष्कृत ! । नाविष्कृतचतुष्पुण्यं, द्विष्क(:) त्रिपूजितो दिने ॥३॥ वपुःखवितहेमार्चि-ष्प्राप्तं चतुष्प्रियं प्रभो ! । भ्रातुष्पुत्रं सुपार्श्वस्य, कस्को न त्वां नुनूषति ॥४॥ आयुःष्टोमविदो निष्णो, हवींषीव लिलिक्षति । वाक्यानुत्कः प्रतिष्णात!, प्रतिस्नातेद्धीषु ते ॥५॥ मातुःष्वसृपितृष्वस्रो-भवान्नासिष्ट विष्टरे । गविष्ठिर इवाग्निष्ट-दग्निष्टोमाय पुंस्विन ! ॥६॥ श्रीषेणााभिनिष्ठान -वृत्ताङ्गुष्ठनखस्थितः । गोष्ठे रोहिणिषेणाऽर्यः, कुष्ठले परमेष्ठधीः ॥७॥ अदुःषेधोषितप्रष्ठ !, त्वं सिषेवयिषु तिम् । अभीरुष्ठान ! निष्टप्त- रै सुषन्धिवपुष्टमः ॥८॥
टि० : १. ईषत्परिसमाप्तं पयः - पयस्कल्पम् । ईषत्परिसमाप्ते कल्पप्प्र० । एवंविध
यशस्काम्यन् । २. वपुषा खर्विता हेमाचिर्येन । ३. घृतानीव । ४. प्रतिष्णातं निर्मलं यत् प्रतिस्नातं सूत्रं तस्य या इद्धा गिरस्तासु । ५. अग्निहोतृद्विजो हि
अग्निसमूहा यान्यकुलेषु न गच्छति । ६. अभिनिष्ठानो वर्णः विसर्गः इत्यर्थः । श्लो० : १. सू० २।३।१-३ । २. सू० ४-७ । ३. सू० ८-१० । ४. सू० ११, १३
१५ । ५. सू० १५, १७, २०, २१ । ६. सू० १६-१९, २३, २५ । ७. २४, २६-२८, ३० । ८. सू० ३१-३७ ।
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जून - २०१९
त्वां सिसाहयिषु कष्टं, सिषञ्जयिषुमार्जवम् । सुस॒र्युः कर्म तुष्टषुरभिष्टुत्यं न्यघादघम् ॥९॥ मोहोऽभ्यषेण यत्त्वां ना-ऽभिषिषेणयिषुर्जगत् । भाऽधिष्ठितं निषिद्धांहो-ऽभिषिक्तं निषिषेध भीः ॥१०॥ बुद्ध्या योऽभ्यषजद् बाल्ये-ऽभ्यषिञ्चन् यं च वासवाः । वितष्टम्भ स विष्टब्ध-निस्तब्धारिजिनो भयम् ॥११॥ सावष्टम्भा अवाष्टभ्नन्, धर्मोपष्टम्भकं सुराः । यं सदा व्यष्वणद् योऽन्न-मवाषिष्वणदक्षति ॥१२॥ यः साम्ये न्यषदन् मोक्षे, निषसाद विषादहृत् । शं न्यषेवत लक्ष्म्या सा-भिष्टङ्ग परिषष्वजे ॥१३।। विषयाऽनिषितो यस्तं, विषिषेवे गुणैर्दिशः । स लि(नि)षीव्यल(त्) श्रिया नार्ति, विषहेत परिष्कृतः ॥१४॥
विशेषकम् ॥ व्यष्टौद् यस्त्वां विसोढार्ते, न्यस्तौद् गान्ते न्यषीसहन् । नान्यं संन्यषहिष्टाऽशं, पर्यष्वजत स श्रिया ॥१५।। विष्यन्दिमदनिष्यन्दे, भविष्कन्तांशु विस्फुरन् । परिस्कन्ततमो नन्द, निष्फुलद् विस्फुरद् गुणः ॥१६।। नत्वा निःषमसुस्वप्न-विषूते विषमाऽरिजित् । त्वां सुषुपेतकल्याणे, नरैः प्रादुःषदिन्दरैः ॥१७॥ सेसिच्यते नतिं यस्ते, संवरे सोऽभिसोष्यति ।
शं विष्यात् सुपिस्स्येत, शिवे तेनाऽभिसेधिना ॥१८॥ टि० : १. 'घुत् प्रेरणे' । 'णिस्तोरेवा०' (२।३।३७) षत्वाभावः । श्लो० : ९. सू० ३७-३९ । १०. सू० ४० । ११. सू० ४०, ४१ । १२. सू० ४२, ४३ ।
१३. सू० ४४-४६ । १४. सू० ४६-४८ । १५. सू० ४९ । १६. सू० ५०५४ । १७. सू० ५६-५८ । १८. सू० ५८-६२ ।
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२४
अनुसन्धान-७७
नृणां निस्तारणं पुष्णन्, दर्शनार्जववर्द्धन ! । व्रणानां क्षालनं कुर्वन्, द्रुणसाऽ?ऽस्य दुर्णसः ॥१९॥ प्रवणे गिरिनद्यन्त-र्वणे शिग्रुवणे स्थितः । क्षीरपाणमाषवन-सुरापाणाग्रणीनतः ॥२०॥ त्वं स त्रिहायणाश्वेक्षु-वाहणोर्वीशवन्दितः । अपराणान्तचारित्र-भूरिभावेन सेव्यसे ॥२१॥ प्रपक्वानि शुभानीच्छन्, दोषहाणि प्रयाणिराम् । प्रणमन् वृक्षकामेण, त्वत्पदान्यस्तदुर्नयः ॥२२॥ प्रनष्टमर्मवा[क] पाणि, वाक्पाण्यन्तर्णयामि ते । शरद्योत्तोष्णदीर्घाया-महं सद्धर्मभाविनः ॥२३।। प्रहिणोषि शिवे भव्यान्, प्रमीणासि भयं जगत् । प्रणिमाय प्रणिदाया-ऽप्रणश्यत् प्रणिपातिनाम् ॥२४॥ प्रणिगद्याऽप्रणिदेह्य, तत्त्वं प्रनिकरोषि शम् । प्रणिपच्य तमोऽसीमा, प्रणिस्यत् प्रणिहंस्ययम् ॥२५॥ यः स्थावरः प्राणिणिषेद्, योऽङ्गी पर्यणिति त्रसः । प्राणपर्यानिनयिष्येत, स त्वया न प्रहण्यते ॥२६।। प्रहणमोऽघं प्रहन्मोऽत्र्तिं, त्वां प्रहीण ! प्रनिन्दनम् । नत्वा प्रमङ्गनं पुण्य-प्रङ्खणैक ! प्रमेहणम् ॥२७|| शिवप्रयाप्यमाणाय, निविण्णाङ्गी प्रपावनम् । प्रप्यानः पुण्यप्रख्यान !, प्रभानेक ! प्रकामन ! ॥२८॥ देशेऽन्तरयने सर्पि-ष्पानेऽन्तर्हण्यते रुचिः । त्वया मुत्प्रावनद्धेन्द्र-प्रणतास्तप्रवेपना ॥२९॥
श्लो० : १९. सू० ६३-६५ । २०. सू० ६६-७१ । २१. सू०७२-७४ । २२. सू० ७५
७७ । २३. ७५-७८ । २४. सू० ७७-७९ । २५. सू० ७९, ८० । २६. सू० ८१, ८२ । २७. सू० ८३-८८ । २८. सू० ८८-९० । २९. सू० ९०-९३ ।
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जून - २०१९
२५
तेऽघं प्रजन्ति लोभं च, प्रभो ! क्षुभ्नन्ति तद्यशः । नरीनर्त्यभितो नम्रा, ये भवन्ति भवद्गुणान् ॥३०॥ सहसे ष्ठीवनष्ट्यानं, क्लृप्तसङ्कल्पितोऽङ्गिनाम् । कृपणाः सत्कृपीटत्वं, पलायन्ते स्म शत्रवः ॥३१॥ जगन्निजेगिल्यत आप्तयस्तं, मोहं लसद्दोः परिघो गिलंस्त्वम् । जवोष्ठपर्यङ्कजितर्फिलर्षे, पल्यङ्कनूतः पलियोगजीयाः ॥३२॥ इति हैमव्याकरणकतिपयोदाहरणमयः श्रीमहावीरस्तवः पञ्चमः ।
॥ श्रीवीरस्तवः ॥
॥ द्वितीयाऽध्यायस्य चतुर्थः पादः ॥ यस्याब्धिदुहितुर्दात्री, भेहिन् ! मुत्कारिणी च वाक् । रक्षन्ती विदुषां वीरं, तं प्राचीशाचितं स्तुवे ॥१॥ द्विपद्यादिवरायास्ते, गिरो धूताघधीवरी । भावरीष्ट स्मरा वाचा, प्रजासीत्तत्त्वदृश्वरी ॥२॥ कुण्डोनी पञ्चहायन्य-शिश्वी न स्याद् यथेश ! गौः । तथा शर्मानमन् मूर्ती, सुराज्ञी जनता त्वयि ॥३।। भारत्याश्रव्यसीम्ना ते, प्रीताजादिसुपर्वया । श्रुतया गुणगौर्याकै- स्यन्ते त्रिपदा ऋचः ॥४॥ कुमारादिप्रिये रात्नी, त्रयीं पर्षदि जल्पति । त्रिलोकीशेन ! रिक्तोर्वी, त्रिकाण्डी द्विपुरुष्यपि ॥५॥ नागीः कालीस्तरी गोणीः, प्रोज्झ्याश्वाः केवलीयुतम् ।
नीलीस्त्रां(स्तां) रोहिणीशास्य, समान्या स्तुवते नृपाः ॥६॥ श्लो० : ३०. सू० ९४-९७ । ३१. सू० ९८-१०० । ३२. सू० १०१-१०५ ।
१. सू० २।४।१-३ । २. सू० ४-६ । ३. सू० ७-९, १२ । ४. सू० १३-१७ । ५. सू० १८, २०, २२, २४, २५ । ६. सू० २६-३० ।
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अनुसन्धान-७७
सत्कटी कबरीयुक्ता, यं कामुक्याऽपि नाक्षिपन् । शोण्यो घुसृणधुल्यात्र, तत्र ध्यानावनौ गतिः ॥७॥ शक्ती कुपद्धती हानि-मुक्तं शक्तिं गुरुं श्रितम् । पट्वीं त्वां रोहिणी श्येनी, रुचा शक्ती सुराल्पनौत् (?) ॥८॥ सुकेश्यो भासुरक्रोडाः, कम्बुकण्ठ्यकृशोदराः । सुमुख्यः स्वङ्ग्य इद्धोष्ठयः, पलिक्नीव त्वयोज्झिताः ॥९॥ दीर्घपुच्छया मणिपुच्छया, व्यन्तर्या क्षुभित ! प्रभो ! । तव कीर्त्या गुणक्रीत्या, द्योरज्योत्स्ना विलिप्त्यभूत् ॥१०॥ भालदीप्ती शालिजग्धी, देशपत्नी महापतिः । असपत्नी सुपत्नी स्यात्, त्वया दन्तमिता प्रजा ॥११॥ अन्तर्वत्नी जहौ पाणि-गृहीती कुक्कुटीमिव । क्षत्रियां मुद्गपर्णी च, शङ्खपुष्पी तव स्मरन् ॥१२॥ वासीफली दर्भमूली, प्रष्ठी वृषाकपाप्यपि । मनावी स्यान्न शर्वाणी-न्द्राणी त्वां नमतो मुदे ॥१३॥ त्वां मातुलान्युपाध्यायी, सूर्याणी निर्ममोऽनमत् । तमोहिमान्यर्कभवाऽ-रण्यानीं लङ्घते जनः ॥१४॥ आवट्या क्षत्रियाण्यार्या, लौहित्यायन्यपासन ! । ध्यानं गाायणी दाक्षी, कौरवी(कौरव्या)यण्यधीशते ॥१५॥ मद्रबाहूः कदूलाकृ:(?) कद्रू रज्जूवदुज्झिता । करभोरूः कुरू: सुरू-र्नारी पङ्गरिव त्वया ॥१६॥ बालाक्याहतकारीष-गन्ध्या नौपगवीव ते । क्रौड्या भोज्या च पौणिक्या-ऽऽहिच्छत्री युवतिर्मनः ॥१७॥
श्लो० : ७. सू० ३०, ३१ । ८. सू० ३२-३६ । ९. सू० ३७-४० । १०. सू० ४१, ४२,
४४, ४५ । ११. सू० ४६-५० । १२. सू० ५२-५६ । १३. सू० ५७-६२ । १४. सू० ६३-६५ । १५. सू० ६६-७२ । १६. सू०७३-७६ । १७. सू० ७७-८१ ।
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जून - २०१९
दैवयश्या शौचिवृक्ष्योः, सौगन्धीपतिरीशता । सौगन्धीबन्धूरीत्वत्वा(?), मौद्गन्धीमात आनमन् ॥१८॥ मा(म)नुषीषु तथा तेऽम्बा-मुख्या मत्सी चलाक्षिजित् । सौरीप्रभासु भा यद्व-दहः पौषं दिनेषु वा ॥१९।। न गार्गकमिव स्वामिन्, गार्गीयति ततं त्वयि । अष्टरामहयं राज-न्यकं बैल्वकवैणुकम् ॥२०॥ निःशस्त्रिरतिरम्भोरु-र्भावरीनुष्णगु प्रभो ! । सक्तयसि श्रियेशोऽर्द्ध-पिप्पलीवदखण्डयन् ॥२१॥ धीन स्थिरीकृताऽधिस्त्रि, भीरुलक्ष्मिसुता स क(:) । त्वया रेवतिमित्रः श्री-गङ्गाव(म)ह ! सुरीनत ! ॥२२॥ नाजत्वं रोहिणित्वं सो-ऽश्नते त्वां गोणिशालिना । भ्रकुंशा भ्रकुटी भीमो, मालभारी यशोमहेत् ॥२३॥ लक्ष्मिका वधुका प्रीत्यै, पट्विका खट्विका न ते । सुवधूकाः सलक्ष्मीकाः, सुराः सुरमका नमन् ॥२४॥ त्वद्गीः सुधा पीकां नौती(ति), द्विकां शुद्धान्नजीवकाम् । धीस्वकां मुनिमालाकां, सदयाऽस्विकां [ज्ञकां] ज्ञिकाम् ॥२५॥ भाषा स्यान्नित्येका(यका) हन्त्ये-षिका ते दुर्गती द्वके । मामिका वर्तिका श्येनी, रुषावल्ल्यसिपुत्रिका ॥२६॥ गीर्मामिका सुनयिका ध्रुवका सका ति, वृन्दारिकां भवरिपुक्षिपकां गुणालिम् । श्रीवीर! ससतियका तव तारकेश!, रुग्वर्णकां जयति सज्जनतारिका श्रीः ॥२७॥
इति हैमव्याकरणकतिपयोदाहरणमयः श्रीवीरस्तवः षष्ठः ॥छ।
श्लो० : १८. सू० ८२-८५ । १९. सू० ८७-९० । २०. सू० ९१-९५ । २१. सू० ९६,
९७ । २२. सू० ९७-९९ । २३. सू० १००-१०३ । २४. सू० १०४-१०७ । २५. सू० १०८, १०९, १११ । २६. सू० १०८-११० । २७. सू० १०८, १०९, १११-११३ ।
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अनुसन्धान-७७
॥ श्रीवीरस्तवः ॥
॥ तृतीयाऽध्यायस्य प्रथमः पादः ॥ स्तोष्ये सुरासुरैः सेव्यं, परमेशं समासतः । जितमोहं महावीरं, त्रिलोकीहतमन्वहम् ॥१॥ तं साम्यसुस्थितं वीरं, प्रणतोऽभिष्टुवेऽभवत् । विंशतेरुपसर्गाणां, योगो यद्देहधातुभिः ॥२॥ ऊरीकृत्यादरं चित्तं, स्थिरीकृत्यावगत्य ये । सत्कारार्ह नमन्ति त्वां, मामलङ्कुर्युरीशते ॥३॥ त्वगिरं ये मनोहत्य, पुरस्कृत्य मुदं पपुः । ते तिरस्कृत्य रागादीन्, पाणौकुर्वन्ति निर्वृतिम् ॥४|| द्विनवान् ब्रह्मणो भेदा-नदिशोऽदूरषोडशान् । संयमस्याऽर्द्धविंशानि, मोहस्थानान्यहन् प्रभो ! ॥५॥ त्वमासन्नदशा ब्रह्म- गुप्तिरुपदशानिव । तत्त्वान्यवोच इद्धाङ्ग(:), सिंहमध्य स केवलः ॥६॥ दण्डादण्डि न कुर्युस्ते, तर्जनं वा कचाकचि । यान्ति पारेभवं मध्ये, चित्तं ये त्वगिरं दधुः ॥७॥ यावद् भव्यं पर्यभव्यं, तवेशा योजनं गिरा ।
अभ्यशोकं स्थितस्याधि-रत्नसालं सुधर्मधीः ॥८॥ पुष्पन् सब्रह्म साधूना-मुपयुष्मद् यथाविधि । तपः सोत्सर्गमातन्वन्, प्रत्यहं गौतमोऽवसन् ॥९॥ कुतीर्थिनस्त्वया साक्षात्, कृतमर्थं सुनिश्चितम् ।
अत्यदोषं रुषा रक्ता, न भेजुर्दुर्मतिश्रिताः ॥१०॥ श्लो० : २. सू० ३।१।१ । ३. सू० २, ४ । ४. सू० ६, ७, १०, १५ । ५. सू० १९, २० ।
६. सू० २०, २१ । ७. सू० २६, ३० । ८. सू० ३१-३३ । ९. सू० ३९-४१ । १०. सू० ४२-४५।
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जून - २०१९
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२९
प्रमुग्धे ह्यतिमर्यादे, पर्यध्ययन उत्क्रमे । गोशाले निर्दयेऽनार्येऽनुभूतस्ते न मत्सरः ॥११॥ मध्याह्नेऽप्यातप: सेहे, पूर्वकायाऽधराङ्गयोः । त्वयाऽोक्तमपि त्यक्त्वा-ऽग्रहस्तस्पृष्टजानुना ॥१२॥ क्षणजातः स्वयम्बुद्धा-ऽकम्पयः स्वर्गिरिं [तदा] । व्रतश्रितो व्यहाभुक्तः, क्षणं त्वं प्राप्तचेतनान्(त्) ॥१३॥ ईषत्ताम्रान् रुषा दुःख-गता मदपटून् स्थितान् । द्विरर्द्धचतसृष्ववी-र्योनानृभूषु नारकान् ॥१४॥ युग्मम् ॥ सैकान्नत्रिंशती षष्ठी-शते अप्यन्यदुष्करे । त्वत्कृते भूहिताऽभूतां, शिवार्ये भवतारकः ॥१५॥ परःशतायतं तेऽत्र, त्वन्मतावगता जनाः । सत्पूजका विजेतारो, मोहस्याऽघस्य भेदकाः ॥१६।। चतुर्विंशेन सार्वाणां, त्वयाऽरीणाहृतिः कृता । तृप्तार्थस्य सतां साक्षात्, परमार्थस्य तत्त्वता ॥१७॥ त्वां ज्ञातं योगिनामिष्टं, दानशौण्डं नयोऽभजत् । मर्त्यसिंहं मतिसूत्र - गता भस्मनिहुत्यभूत् ॥१८॥ न वेशो जात्यहेमाङ्ग, एकदेवस्त्वमत्यजः । दृष्टनष्टां पुराणौक- जरत्तृणमिव श्रियम् ॥१९॥ द्वैमातुर ! त्रिलोक्यावि ! त्वयाधिकदयाधन ! । नृसिहेन हतो मोहो-ऽरिव्याघ्रः पूर्वसार्ववत् ॥२०॥
श्लो० : ११. सू० ४५, ४७ । १२. सू० ५२, ५३, ५५, ५६ । १३. सू० ५७, ५८, ६२,
६३ । १४. सू० ६४-६७ । १५. सू०६९-७१ । १६. सू० ७५, ७८, ८१ । १७. सू० ८५, ८६ । १८. सू० ८६, ८८, ८९, ९२ । १९. सू० ९६, ९७ । २०. सू० ९९, १०२, १०३ ।
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३०
अनुसन्धान-७७
नासमानगुणान् श्रेणि-कृतांस्ते चरमाप्तकः । हताहतेन्द्रियो वक्ति, सद्भावोत्तमबुद्धिभाक् ॥२१॥ पुन्नाङ्गैस्त्वं श्रितो देव-वृन्दारक ! महामुने ! । सर्पिःकतिपयाक्ताग्नि-स्तोकवर्धिष्णुरोषभित् ॥२२॥ कठश्रोत्रियकालापा-ध्यायकाद्यानये नमन् । जडामुनिप्रकाण्डं त्वां, तज्जनिर्गोवशा फला ॥२३॥ नासीस्त्वं युवखलति-र्न वा युवपलसभूः (युवपलितभूः) । स्वामिन् ! युववलिनोऽन्य-पुंवद् युवजरन्न च ॥२४॥ कुमारश्रमणा तुल्य- विनीताखिल साधुषु । वन्दनाजनि ते सर्व-श्वेतकीर्तिः प्रवर्तिनी ॥२५॥ रागद्वेषौ त्वया ध्वस्तौ, देवासुरनरास्ततः । दधत वाक्त्वचं स्निग्ध-मधीश ! त्वामुपासत ॥२६॥ अक्षा मुदे यथा नाथ !, क्रीडानस्त्रिफलार्थिनाम् । त्वद्देहागमसिद्धीनां, तथाङ्गानि सतामिह ॥२७॥ गृहवासे मुदं पित्रो-व्रते ब्राह्मणयोwधाः । प्रापो वेत्ति जनो माता-पितरौ श्वशुरौ समौ ॥२८॥ गा अश्ववडवौ प्रोज्झ्य, समोऽभूः सुखदुःखयोः । लाभालाभे खरेभे च, रसालामलके प्रभो ! ॥२९॥ अश्वेभं तद्गृहे गर्ने, भेरीशङ्खस्य चारवैः । स बोध्यते शुभं तस्या, हस्तां हित्वा श्रयेत यः ॥३०॥ कुशकाशं भृशं यत्र, जज्ञे प्लक्षधवं वने ।
ऋश्यैणं हंसचक्रं च, ध्यानं तत्राऽपि तेऽधिकम् ॥३१॥ श्लो० : २१. सू० १०३-१०५, १०७ । २२. सू० १०८, १११ । २३. सू०
१११। २४. सू० ११३ । २५. सू० ११४-११६ । २६. सू० ११७, . ११८, । २७. सू० ११९ । २८. सू० १२२, १२३ । २९. सू० १३०- १३२, १३६ । ३०. सू० १३४, १३७ । ३१. सू० १३३ ।
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जून - २०१९
३१
असाहि सङ्गमोच्छाहि - नकुलस्य व्यथा त्वया । कौशाम्बी भद्रिले स्थायि, मोदकापूपमुज्झता ॥३२॥ त्वयासि मदकर्मोप-वनं सर्वमहोत्सव ! ।.. कीर्त्यास्ते दधिपयसी, राजदन्तास्तमौक्तिक! ॥३३॥ वर्षजातजडारोषा-स्युद्यता आहिताग्नयः । मुधा त्वां जिन ! हित्वेन्दु-मौलिं शूलकरं श्रिताः ॥३४॥ क्षमाप्रियं प्रियश्रेयान्, ना त्वां धर्मार्थदं श्रयेत् । श्रद्धाधीयुक् शिववंग-हेतुं सद्दमसंयमम् ॥३५॥ शीतं त्वयाऽसाहि सहस्य माययोः, स्थितं रवौ पुष्यपुनर्वसू गते । त्वां चेति यो द्वादशमासिकं स्तुते, वीरप्रभो ! द्वित्रभवैः स सिध्यति ॥३६।। इति हैमव्याकरणकतिपयोदाहरणमयः श्रीवीरस्तवः समाप्तः ॥छ।
॥ श्रीवीरस्तवः ॥
॥ तृतीयाऽध्यायस्य द्वितीयः पादः ॥ श्रीवीरं स्तौमि तं शक्ति-क्षमे उच्छिद्य मत्सरम् । परस्पराश्रिते ये श्राक्, द्योतिके इतरेतराम् ॥१॥ यथा प्रीणात्युपाम्भोज, प्राप्तानुपवनादलीन् । मोदस्तेऽनुपदद्वन्द्वं, तथाधिक्षिति देहिनाम् ॥२॥ त्वया विनोपलोकेना- जल्पताग्रेजने पुरा । इच्छां सुमगधं हित्वा, बद्रशोऽध्यटवि स्थितम् ॥३॥ त्वां स्वामीयति रम्याङ्गं, यस्तस्मिन् स्यान्ननु स्मरः । स्त्रियंमन्यो विशेष सो-ऽदर्शय ओजसाकृतम् ॥४॥ श्लो० : ३२. सू० १४१, १४२ । ३३. सू० १४५, १४९ । ३४. सू० १५२
१५५ । ३५. सू० १५७, १५९, १६० । ३६. सू० १६२, १६३ । १. सू० ३।२।१ । २. सू० २ । ३. सू० ३-६ । ४. सू० ७, ९, १२ ।
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अनुसन्धान-७७
तपसाकृतं सद्बोध - त्वामाराध्य नरो भवेत् । जनुषान्धोऽपि सदृष्टि-स्तमसाकृतं दोषजित् ॥५॥ प्रतिरूपात्मनातुर्या-ऽध्यायः साध्वात्मनेपदम् । प्राक् परस्मैपदमथ, लक्षणे त्वन्यथाऽरमथाः ॥६॥ स्तम्बेरमगतेऽरण्ये - तिला मध्येगुरुश्रियम् । कण्ठेकालयशोमुञ्च - स्त्वं पूर्वाह्णतनाकैमः ॥७॥ कुशेशयकरास्यान्ते - वासीन्द्रो गौतमः सदा । भेजेऽमनसिजस्तेऽही, भृङ्गः सरसिजं यथा ॥८॥ निःपश्यतोहरः प्राप, मनोजदिविजाचित ! । वाचोयुक्तिरदेवानां - प्रियस्यापि न ते स्तुतौ ॥९॥ मातापितृहितो वाच-स्पतिवास्तोष्पतिस्तुतः । सूर्याचन्द्रमसैावा-भूमी व्याप गुणैर्भवान् ॥१०॥ कीर्तिर्दिवस्पृथिव्यौ चा-दृश्यावस्करतेऽश्नुते । दर्शनीयतनोः शेता-यितेश ! पटयेन् मुदम् ॥११॥ कल्याणीभक्तयो ये स्तो, यशोदाभार्य ! तेऽस्मरन् । सद्बुद्धिः पटुजातीया, तेषां वाक्पटुताद्भुता ॥१२।। न जहुस्ते मनोराज-द्रूपाः सर्वसुराङ्गनाः । हंसी व्रजत्तरा विद्वत्-कल्पाः सौभाग्यसत्तमाः ॥१३॥ जल्पन्मता चलच्चेली, भाद्गोत्रा विदुषिब्रुवा । स्त्री पश्यन्तीहतापि स्यात्, त्वदुक्ता विदुषां मुदे ॥१४॥ महाविशिष्टमाहात्म्य !, तस्य पट्वितरा मतिः ।
महाजातीय ! वाग् येन, महेश ! त्वं हृदि स्मृतः ॥१५॥ श्लो० : ५. सू० १२, १३ । ६. सू० १४, १७ । ७. सू० १८, २०-२२, २४ ।
८. सू० २५, २६ । ९. सू० २६, २७, ३२ । १०. सू० ३६, ३७, ४१, ४४, ४७ । ११. सू० ४५, ४८, ४९ । १२. सू० ५३, ५४, ५८, ५९ । १३. सू० ६१, ६३ । १४. सू० ६३ । १५. सू० ६४, ६८, ७० ।
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जून - २०१९
३
त्वां नत्वा महतीभक्ति-महद्भूतमहं नरः । न महत्तरधीः कुर्यान्, मुष्टामुष्टि शराशरि ॥१६॥ भिनत्त्यष्टागवमनोऽ-ष्टापदः कोटरावणे । यथा तथा स्मरो विश्वा-मित्रादींस्त्वन्मतोज्झितान् ॥१७॥ दन्तावलक्षमशरा-वत्याद्यानी वृतोऽपुना । नीत्तमुन्निष्प्रतीकारो, मर्माविद्धि हरन् विभो ! ॥१८|| निःषोडशकषाय ! त्वत्रिपद्या गौतमादयः । व्यधुरेकादशाङ्गानि, षोढा षड्ढा तपः पराः ॥१९॥ व्यशीतिः प्रभृती: पापा, दोषानष्टादशाक्षिपः । त्रयोदश द्वादश वा-ऽयोगान्त्यसमये जिनाः ॥२०॥ द्वाचत्वारिंशतं नाम-भिदोऽर्हस्त्रिशतं जगौ । तथा त्रिनवतिं जित्वो-पसर्गान् द्विदशान्निशि ॥२१॥ भवत्पदातितां भूरि-हल्लेखो हृद्य ! हार्दधीः । न सत्पद्धतिभागिच्छे-न्नस्तोऽस्ततिलपुष्पकः ॥२२॥ नस्यश्वासवपुर्गन्धो-दपेषं पिष्टदर्पक ! । केशानुत्पाट्य शीर्षण्यान्, प्राव्राजी: पञ्चमुष्टिना ॥२३॥ त्वमुदध्यदविन्द्वाभ (दध्यरविन्दाभ)-गुणो मेरौ जनुः क्षणे । क्षीरोदाद्यम्भ आनीयो-दकुम्भैः स्नपितः सुरैः ॥२४॥ व्युदगाहाश्चले शब्द - पूर्वोत्तरपदे इव । कामाद्यास्त्वगिराऽजान-न्नैहिकामुष्मिके सुखे ॥२५।।
श्लो० : १६. सू० ७०-७२ । १७. सू० ७४-७६, ७९ । १८. सू० ७८, ८२, ८५,
८६, ८८ । १९. सू० ९१ । २०. सू० ९२ । २१. सू० ९२, ९३ । २२. सू० ९४०९६, ९९ । २३. सू० १००, १०२, १०४ । २४. सू० १०४, १०५, १०७ । २५. सू० १०६ ।
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३४
अनुसन्धान-७७
धन्यम्मन्यः समीपे ते, भवाब्धौ द्वीपमाप्यना । धर्मं रुजागदङ्कारं, सत्यङ्कारं शिवाप्तये ॥२६।। दिवामन्या निशा पापं, त्वयि गच्छत्यभूत् सुरैः । अग्निभिन्द्यांशुभिर्लोकं - पृणमध्यन्दिनार्कभ ! ॥२७॥ अन्यदर्थादनानङ्ग-तिमिङ्गिलवधेऽभवः । भद्रकरणं जातं त्वं, मोहरात्रिञ्चरा हतः ॥२८॥ तिर्यञ्चोऽपि सुधासध्यक्, सम्यक् तेऽपुर्वचोऽसमम् । त्वां विष्वव्यग्गुणं वाऽऽप्य, कोऽन्यदीयं मतं श्रयेत् ॥२९॥ नगधीराङ्गिकल्पाग !, पद्मरागनखानघ ! । त्वां कापथहरं प्राप्य, कद्वदो न कदर्यधीः ॥३०॥ न सो कापुरुषोऽकाच्छ-बुद्धिः कोष्णमनाः क्रुधा । कवोष्णगीश्च तेऽवश्य-कार्यदेश(शे)न य: स्मरेत् ॥३१॥ सततं हन्तुकामोऽघं, यस्त्वां श्रीसहितं श्रयेत् । मुक्तिगन्तुमनाः साम्य-समना(:) सन्ततं स ना ॥३२॥ सगुणं सहकारुण्यं, सतां सब्रह्म कारणम् । नत्वा सब्रह्मचारी त्वां, सधर्मा च महात्मनाम् ॥३३॥ वीरं तमोऽर्कसदृशं विनयासदृक्षो-ऽनन्यादृशातिशयशस्तमिति स्तुते यः । द्यौः कीदृगस्य पिहितातिरनीदृशश्रीः, सोऽतादृशं शिवमवाप्य जगद्वतंसः ॥३४॥ इति हैमव्याकरणकतिपयोदाहरणमयः श्रीवीरस्तवोऽष्टमः ॥ छ ।
श्लो० : २६. सू० १०९, १११, ११२ । २७. सू० १११, ११३ । २८. सू० ११५
११७, ११९ । २९. सू० १२१-१२४ । ३०. सू० १२७, १२८, १३१, १३४ । ३१. सू० १३५-१३८ । ३२. सू० १३९, १४० । ३३. सू० १४३, १४६, १४९, १५० । ३४. सू० १५१-१५४, १५६ ।
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जून - २०१९
॥ श्रीसर्वजिनस्तवः ॥
॥ तृतीयाऽध्यायस्य तृतीयः पादः ॥ स्याद्वादरावी गुणवृद्धिकारी, श्रीनायको यः प्रणिधीयतेऽत्र । दत्ताभय: सद्भिरिमं जिनं नौ-त्सुकायत स्तोतुमुपासरत्कः ॥१॥ अष्टादशब्रह्मणि स द्विभेदे, भवान् भिदश्चित्तकृतादियोगात् । विभक्तिषु व्याकृत वर्तमाना-दिकासु विश्वेश ! दशस्वपीव ॥२॥ सौख्यं क्रियेताऽसि शिवे त्वयाऽऽय!, जितोऽसुदानो दुरसश्च कामः । सत्पर्वमानाय उपासत त्वां, तेऽसंशयानां न्यविशन्त कृत्ये ॥३॥ व्यक्रेष्ट काचा अति अग्यरत्नं, निरस्यतेऽभ्यूहति नात्मपथ्यम् । व्यजेष्ट मोहं न शमे न्ययुक्त, यः स्वं न नत्या तव संक्ष्णुते स्म ||४|| वृषो यथाऽपस्किरते रजस्त्वं, तथाम्बुजैः सञ्चरसे कृपायाम् । संक्रीडसे तेऽशपतोऽवनन्ता, भुङ्क्ते सुखं नानुहरेत साधोः ।।५।। त्वमीश ! तत्त्वे नयसे व्यनेष्ठा-स्तमोऽमृताऽघं तव शीयते स्म । नियेत मोहो नखभूरिभासा, भूलॊहितायेत महोऽद्युतच्च ॥६॥ त्वां वय॑तीहाऽस्य विवृत्सतीश !, धर्मे रवावाक्रममाण उच्चैः । क्रमेत ते प्राक्रमत स्तुति य, आदत्त नाऽऽपृच्छत सत्पथं च ||७|| आह्वास्त मोहं शमुपायताऽसौ, यस्त्वामुपातिष्ठत शिष्टमार्गे । उत्तिष्ठतेऽवास्थित कर्म जिज्ञा-सते स्म सत्यं जिन ! सङ्गिरेत ॥८॥
टि० : १. सह द्वाभ्यां दिव्यौदारिकभेदाभ्यां वर्त्तते यत् तत् । २. तवावनन्ता ना पुरुषः
अशपत स्वरूपं प्रकाशितवान् । ३. साधुसमानशीलो भवेत् । ४. यो ना पुमान्
सत्पथं प्रादत्त पृच्छत च तस्य शं वय॑ति भविष्यतीति सम्बन्धः । श्लो० : १. सू० ३।३।१, २, ४, ५ । २. सू० ६-१६ । ३. सू० २१, २२,
२४ । ४. सू० २५-२९ । ५. सू० ३०, ३२, ३३, ३५, ३७, ३८ । ६. सू० ३९-४४ । ७. सू० ४५, ४७, ५२, ५३, ५४ । ८. सू० ५६, ५९, ६०, ६२, ६३, ६६, ७० ।
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३६
अनुसन्धान-७७
शुश्रूषते नाथ ! दिदृक्षते यः, सुस्मूर्षते त्वां च विवन्दिषेत । शिक्षेत धर्मं स विवेकमीहा-ञ्चक्रे स्मरान्नो बिभयाञ्चकार ॥९॥ तमोऽधिचक्रे शमुपस्कृतोच्च-र्भवान् गुणौघेऽवदतोपदेशे । संप्रावदन्तेश ! चतुर्मुखानि, तव स्मरान्ना समगस्त सिद्ध्या ॥१०॥ संपृच्छते संशृणुते स्म तत्त्वे, तवाङ्किते यः समवित्त सोऽत्र । विष्वक् तवाऽऽयच्छत' भाविते ये, मां नामयस्व स्मरयानिशं त्वम् ।।११।। त्वं वञ्चयेथा जिन ! भीषयेथा, मोहं सदा भापयसे गुणैश्च । विस्मापयेथाः स्मर भापनाऽरी, नायासयेथाः परिमोहयेथाः ॥१२॥ जाने तुदेथा हरसे च राग-मुद्यच्छसे ब्रह्मणि वेत्सि विश्वम् । रुच्या रविं चानुकरोषि दीपं, प्रत्यक्षिपोऽहं परिमृष्यसीह ॥१३॥ शिवं प्रभो ! पर्यवहो व्यरंसीः, प्रमादतश्चोपरमस्यवद्यात् । गव्यांसयश्चेतयसे च भव्या-नबोधयः कारयसे स्म धर्मम् ॥१४॥ अकम्पयः क्रोधमयोधयोऽध्या-पयो भयं प्रावयसीह लोभम् । तमश्च मे द्रावय नाशयाऽघं, शं भोजय त्वं जनयाऽपवर्गम् ॥१५॥
___॥ एकादशः पादः ॥
|| तृतीयाऽध्यायस्य चतुर्थः पादः ॥ यस्त्वां पणायेत्तव गां पनायेद्, गोपायिता क्ष्मा च ऋतीयते तम् । श्रीः कामयेतैष तितिक्षतेऽलं, जुगुप्सते नो विचिकित्सतीह ॥१६|| मीमांसते तत्त्वमिहाऽनसूयन्, दीदांसति त्वां भृशमीक्षते यः ।
वावन्द्यतेऽभीक्ष्णमसौ चकास्ति, नारार्यते दुःखमशाश्यते शम् ॥१७|| टि० : १. प्रससार । श्लो० : ९. सू० ७१-७५, ७७ । १०. सू० ७६-७९, ८४ । ११. सू० ८४,
८६ । १२. सू० ८९-९२, ९४ । १३. सू० ९५, ९८, १०१, १०२, १०४ । १४. सू० १०४-१०७ । १५. सू० १०८ । १६. सू० ३।४।१६ । १७. सू० ७-१० ।
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जून - २०१९
जङ्गम्यते नेह स दन्दहीति, लोलुप्यतेऽघं न गृणाति निन्द्यम् । मुच्चेच्य ! शं भावयते च कष्टं, यः साहयेत्ते कथयेद् गुणौघम् ॥१८॥ चिकीर्षतस्तारयसीह भक्तिं, भव्यास्तपःकाम्यत आर्जवीयन् । मणि तृणीयन् भवने वनीयन्, पोतन् भवे नीरनिधीयमाने ॥१९॥ देशनासदसि ते पयायितौ- जायिते रजसि मुद् भृशायते । , लोहितायति मणी महोभरै-रम्बरे पटपटायते ध्वजः ॥२०॥ वैरायते कोऽपि न गौश्च रोम-न्थायते कष्टायत उत्करो न । त्वद्देशनोदूँ न भयाज्जिनेश !, बाष्पायते किन्तु सुखायतेऽङ्गी ॥२१॥ त्वयीश ! सत्यापयता नमस्यां, न शब्दयेद्धस्तयते विरुद्धम् । लोभान्न सम्भाण्डयतेऽणयेच्चा-ऽऽरम्भं सच्चित्तं व्रतयेत्तपस्येत् ॥२२॥ शिवं दयामास भवांश्चकासा-ञ्चकार कायेन धिया समीधे । ईक्षाम्बभूवाऽमृतमतिमोषा-मास स्मरन्तो बिभयाञ्चकार ॥२३॥ त्वज्जियामास बिभाय मोहो, रागोऽपि नोर्जं बिभराम्बभूव । गुरुर्विदामास न ते विवेदो-शना बलं कोऽत्र विदाङ्करोतु ॥२४॥ ये त्वां नरोऽद्राक्षुरिहाऽतृपंस्ते-ऽस्प्राक्षुर्व्यमक्षन् वृषमध्यरुक्षन् । गिरोऽदधंस्तेऽचकमन्त ये च, तेऽशिश्रियन्नेतरऽपूपुजंस्त्वाम् ॥२५॥ सतोऽशिषद्धर्ममवोचदारन्, मुक्तिं रणे योऽसितुमाह्वताऽरीन् । कीर्त्याऽलिपद्विश्वमसिक्त शर्मा-ऽगमन्मुदं सोऽपुषदद्युतच्च ॥२६॥ तमोऽभिदत्तेनं जिनोऽजरन्न, शमऽश्वदिष्टं समपादि तस्य । धर्मस्ततोऽजन्युददीप्यबोधि, जनोऽवधीर्ष्याशिव आसि तेन ॥२७॥
टि० : १. कारणेन । श्लो०: १८. सू० ११-१३, १५, १७-१९ । १९. सू० २०-२४, २६ । २०.
सू० २७-३० । २१. सू० ३१-३५ । २२. सू० ३५-३८, ४०, ४२४४ । २३. सू० ४६-५० । २४. सू० ५०-५२ । २५. सू० ५३-५५, ५८, ५९ । २६. सू० ६०-६४ । २७. सू० ६५-६८ ।
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अनुसन्धान-७७
अदर्शिषातां तव येन पादा-वश्रायिषातां जिन ! घानितोऽघम् । घानिष्यते तेन तमः शमश्च, ग्राहिष्यते कर्म विजायितो च ॥२८॥ त्वामर्चतो धीरिन ! वारिषीष्ट, हारिष्यते कर्म च दर्शितेष्टम् । भीर्या(C)निषीष्ट क्रियते च साम्यं, दिव्यास्यते तस्य शिवं भवेच्च ॥२९॥ त्रुट्येत्तमोऽस्य त्रसति स्मरोऽस्मात्, क्रामत्यघं नो स भवे भ्रमेन्न । खिद्येत यो भ्रास्यत आर्जवात्ते, धर्मे यसन्नीश ! गिरोऽभिलष्येत् ॥३०॥ रज्येन्मते यस्तव सोऽश्नुते शं, तक्ष्णोत्यघं सन्मतिमक्ष्णुयाच्च । स्तभ्नाति लोभं कुधियं धुनाति, हिनस्ति मोहं तुदते मदं च ॥३१॥ पुषाण शं तस्य तनु श्रियं च, व्यभेदि मोहो मृदुगीरदोहि । क्षीयेत दुःखं तव सृज्यते गां, योऽसर्जि तप्येत तपांसि भक्तिम् ॥३२॥ पालं द्रवोऽपक्षत भीररुद्ध, तवान्तिके तीर्थपते!ऽहृतेति । पुष्पोत्करोऽकीट तमोऽन्वतप्ता, स्तोता जनोऽतप्त तपः शमाप ॥३३॥
॥ द्वादशः पादः ॥ इति हैमव्याकरणकतिपयोदाहरणमयः सर्वजिनस्तवो नवमः ॥
टि० : १. तेन अघं घानिष्यते इत्यर्थः । २. श्वस्तनी ता - विजेष्यते इत्यर्थः । ३.
त्वमर्चता पुंसा धीर्वारिषीष्ट । इदं दर्शितेत्यादि । श्लो० : २८. सू० ६९ । २९. सू० ६९-७२ । ३०. सू० ७३ । ३१. सू० ७४,
७९, ८१, ८२ । ३२. सू० ८०, ८३-८५, ८७ । ३३. सू० ८८-९१, ९३ ।
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जून - २०१९
॥ श्रीसर्वजिनस्तवः ॥
॥ चतुर्थाऽध्यायस्य प्रथमः पादः ॥ यस्ततान सुकृतान्यशिश्रियत्, पथ्यजीगमदघं जिगीषति । साम्यमार्जिजिषदापिपत् परं, नाप्यसूयियिषति स्तुवे जिनम् ॥१॥ योऽचलाचलमलं ददाति शं, दाश्वदङ्गिमुदमङ्गचक्नसः । ज्ञीप्सुरीप्सितपदं न धीप्सति, ब्रह्म धिप्सति स मित्सतु क्रुधम् ॥२॥ लिप्सते शमुरु यस्तवं तवा-रिप्सतां स नव रेधुरङ्गिनः । त्वां विनेमुरिन ! ये च भेजिरे, ते न जेरुरिह वेमुराश्रवम् ॥३॥ चेरिथ व्रतमयं च तेरिथ, भ्रमिथेह न मदे न रेजिथ । ग्रेथिथाऽमलगुणान्न देभिथ, त्वं भयं शशरिथेश ! देहि शम् ||४|| दिग्यिरेऽङ्गिन इन ! प्रजिघ्यिरे, निर्वृतौ गिरमपीप्यदुत्तमाम् । शं चिकाय भुवनं जिघांसतो-ऽरीन् जिगाय च भवान् जिगीषितान् ।।५।। गुर्वियेष शमघं जहौ मद-द्रूनुवोष भुवि दिद्युते भवान् । तस्थिवानिन ! शिवे चकार गां, जागदत् पथमरीश्च बेभिदत् ॥६॥ सम्पनीपदति सम्पदश्चनी-कस्यतेऽस्य भयमीश ! यः क्रमौ । नंनमीति तव चञ्चरत्तमा, बम्भजीति स च दन्दहीत्यघम् ॥७॥ संवरे स वरिवर्त्यघं चरी-कृत्य ते तप इयर्ति नेनिजन् ।
यो विवक्षति बिभर्ति ते गिरं, स्वं पिपावयिषते पिपति च ||८|| टि० : १. तं जिनं स्तुवे इति सम्बन्धः । २. दत्ताङ्गिनां मुत् येन एवंविधं शं यो
ददाति । ३. अङ्गेन चक्नसो निर्मलः । ४. अन्तर्भूतण्यर्थतया वर्द्धयितुमिच्छुः । ५. 'मींग्श् मींच् वा हिंसायाम्' । ६. प्राप्तुमिच्छति यः । ७. 'हिंट गतिवृद्ध्योः ' । 'योऽनेक०' (२।१।५६) य० । ८. चञ्चुर्यमाणं तमो यस्य स ।
९. निर्मलीकुर्वन् । श्लो० : १. सू० ४।१।१, ३, ४, ६, ९ । २. सू० १२-१६, १८, २० । ३. सू०
२१, २३-२६ । ४. सू० २४-२७, २९-३१ । ५. सू० ३२-३६ । ६. सू० ३७-४२, ४४-४६ । ७. सू० ५०-५४ ८. सू० ५५-६० ।
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अनुसन्धान-७७
क्ष्मां जिजावयिषसीह सिद्धये-ऽघं लिलावयिषसि प्रियं वचः । त्वं रिरावयिषसि त्वया च शि-श्रावयिष्यत इनागमं जनः ॥९॥ त्वं व्यलीभव इनाऽशुभानि सु-ष्वापयिष्यत इह त्वया शिवे । भुव्यजीहरदधं भवान् शमे-ऽतत्वरज्जनमजीगणत् समम् ॥१०॥ नैवं सुष्वपिथ योगतः क्रमा, मादिथानशिष आन्धुर्गुणाः । त्वां नतस्य परिवीय गां तवो-वाह यो न हि स विव्यथे स्मरात् ॥११॥ सत्यमूचुरिन ! ते य ईजिरे, त्वां प्रविद्धरुडसूषुपन्नघम् । जीनरुक् शम ! मुषन्ति भृष्टभी-गुणते च भुवि सेसिमीत्यमुम् ॥१२॥ त्वां हि वे--ति(?) बुधा अजूहवन्, सत्यमार्जवमशूशवन् भवान् । शं जुहूषति शुशाव धीश्च शो-शूयते तव शुशावयिष्यते ॥१३॥ स्फीतभाग्य ! दमपीन ! ते गुणाः, पिप्यिरे भुवि कृपां चिकीर्षसि । शीतवाणिरभिशीनभीः प्रशान्, शान्तपृष्टवृष शं तितांससि ॥१४॥ द्यूतजीनजगदूतिर्नूमद-श्चूतिचूर्णगुणयूतितूर्मणा । . प्रश्नपूर्तिकुशल ! त्वया तमो मूर्तिरासिजनजूर्ति तोर्मणा ॥१५॥ शोकमेघपवना(नौ)घपाककृद्, योग्यभोगविरसोऽस्तभोज्यधीः । प्राज्ययाज्यपटुवाच्यसद्भुजा-ऽन्युब्ज ! नाऽऽगसि जिनार्त्तिवीरुधि ॥१६॥
॥ त्रयोदशः पादः ॥
॥ चतुर्थाऽध्यायस्य प्रथमः पादः ॥ वर्म विव्ययिथ हृगिरौ व्ययं-स्त्रातविश्व ! भवतोऽदिदासत । स्फारभीरविलय प्रमाय शं, काम आमय इतो विलाय च ॥१७॥
टि० : १. स्यमू शब्दे । २. याज्य: सत्कारः । श्लो० : ९. सू० ६०, ६१ । १०. सू० ६२-६५, ६७ । ११. सू० ६८-७१, ७८ ।
१२. सू० ७९-८१, ८४, ८५ । १३. सू० ८७-९० । १४. सू० ९१, ९२, ९४, ९७, १०५, १०७, १०८ । १५. सू० १०३, १०८-११० । १६. सू० १११, ११२, ११७-१२१ । १७. सू० ४/२/१-४, ६, ८, ९।
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जून - २०१९
स्फारयन् धनुरिषून्निचापयन्, भूभृतं मनसिजो विलीनयत् । रोपयन्नघमजापि देहिनाऽ-ध्यापितेन समयं त्वया जिन ! ॥१८॥ धूनयाऽघमरतिं विलापय, प्रीणयाग्यबलपालयेश ! माम् । मोह उल्बणबलेन शायये, छाययन् व्याययतीह नो यथा ॥१९॥ पाययामृततयं च शातया-ऽऽनन्दमर्पय विधापय क्षमाम् । स्फावय श्रियमघं घटंघटं, शर्म मे घटय धीरघाटि च ॥२०॥ दुःखमाश्वऽजरिशं जनंजनं, हृत् त्वया दमितयामितं तमः । नाथ ! विज्ञपकवामिताऽरते, श्रीरजान्यशमि भीरचाहि न ॥२१॥ छद्मनाऽग्लपितशं स्नपं स्नपं, त्वां सुरा नमितमस्तका ययुः । ज्वालितक्षमजनुः क्षणे सित-च्छत्रयुक्तसमपीपदन् मुदम् ॥२२॥ नाशशासदवनीमबिभ्रजन, किं भवान् कृतमलीलपत् प्रभो ! । पथ्यतिष्ठिपद् दूषयंस्तमो-ऽचीकृतद् वृषमजिघ्रिपज्जनैः ॥२३॥ मुद् बभूव भवभीरभाजि शं, जज्ञ इद्ध ! दशन ! त्वयाऽङ्गिनाम् । सत्पदेऽघदहनास्पदाद्यत !, त्वं शिवे रत ! सजस्यरागिभिः ॥२४॥ जातसातधन ! तायते त्वया, मुद्विरत्य रजसो वितत्य शम् । तूर्णजावेचिदघं चाखायते लन्नलूनमदकर्म! तीर्णवत् ॥२५॥ भग्नरोष ! रुगदून ! पूनभीः !, स्त्यानपुण्य ! जिन ! नुन्नवित्तधीः । क्षीण(ब)राग! कृशमोह ! भिन्द्ध्य घं, क्षाम काम! हर कर्म शाधि माम् ॥२६॥
टि० : १. 'तुर्वै हिंसायाम्' । २. चमू छमू जमू अदने । मन्-वन्-क्वनिप् ततो
हिंसाविनाशि काचित् यस्य सः । श्लो० : १८. सू० १०, १२, १४, १५ । १९. सू० १६-१८, २० । २०. सू०
२०-२४ । २१. सू० २५, २६, २८-३२ । २२. सू० ३२, ३३, ३५ । २३. सू० ३५-४० । २४. सू० ४३, ४४, ४८-५०, ५४, ५५ । २५. सू० ५६, ५७, ६०, ६२, ६३, ६७-६९ । २६. सू० ६९-७१, ७६७८, ८०, ८२-८५ ।
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अनुसन्धान-७७
एधि शं तनु मुदं गिरश्च ते, सन्तु कुर्युरनयं च भिन्दताम् । कुर्महे मनसि तन्म ईशता, येऽदि(द्वि)षुः शिवययुर्न ते व्यमान् ॥२७|| येऽविदुस्तव वचांस्यऽवारिषुः, संदधति मुदमीश ! शासति । ते चकासुरजक्षुस्तमो लुन-न्त्यद्भुतं ददति जाग्रतो वृषे ॥२८॥ धत्त ईश ! हदि यो भवगिरं, निर्मिमीत इह चाऽपुनीत सः । स्वं ततो हि बिभितो मदस्मरौ, विक्रमं च जहितो दरिद्रितः ॥२९॥ मा विभो ! जहिहि मां जनन् पुनन्, येन जाररयो न भीः श्यति । जायते च मम साम्यमिच्छतो, गच्छतः शमिह जानतः शमम् ॥३०॥ ब्रह्म पश्य पथि तिष्ठ सद्वचो, धिन्वदाशृणु जिनागमं पिबन् । क्लाम मा मन शमृच्छ शाम्य भोः, क्राम दाम्य युजि यच्छ सीदताम् ॥३१॥ त्वां नमामि जिन ! तं वितन्वते, यद्गुणाः प्रमदमत्यशेरत । क्ष्माप वेद विदतुर्विदुर्नयान्, वासवो गुरुकवी सुरा बहून् ॥३२॥ संविद्रते ये तव गां तयाहु-र्नेच्छेत् क्रुधीर्नाह दधौ भजेयम् । ये त्वां नुवेयुर्जिन ! रक्षतात्तान्, यदि श्रयेत् शुशिवे त्वरेताम् ॥३३॥
॥ चतुर्दशः पादः ॥ इति हैमव्याकरणकतिपयोदाहरणमयः सर्वजिनस्तवो दशमः ॥
टि० : १. सौख्याय भवः । अव्ययत्वाच्चतुर्थी लोप: । सौख्याय मुद् । २. तस् तस्
तस् । ३. कारणेन । श्लो० : २७. सू० ८४, ८६, -९१ । २८. सू० ९२-९६ । २९. सू० ९७-१०० ।
३०. सू० १०१-१०६ । ३१. सू० १०८-१११ । ३२. सू० ११३-११५, ११७ । ३३. सू० ११६, ११८-१२१, १२३ ।
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जून - २०१९
४३
॥ श्रीसर्वजिनसाधारणस्तवः ॥
॥ चतुर्थाऽध्यायस्य तृतीयः पादः ॥ सिद्धिं करोति स्म वृणोति वेत्ति, साम्येऽसरज्जागरितः शमे यः । तत्त्वान्यदर्शत् प्रणुता जिनं तं, सञ्चस्करुः क्ष्मां नर ऐयरुः शम् ॥१॥ तेरुर्भवं ते तव सस्मरुर्ये, सास्मर्यतेऽभूद्विरतो य इष्टम् । तेनाऽर्यते सन्नय चेच्यतेऽहं, स्मर्यासमऽर्यासमृतं सुवै च ॥२॥ स्वं नेनिजानि त्वयि नाथ ! जुह्व-दयानि शं मे दुरितानि यन्तु । स्तुवन्ति ये त्वा कुटितार ईशा-ऽधियन्ति भोगोद्विजिताऽवतांस्त्वम् ॥३॥ कीर्त्या दिशः प्रोण्णुविता भवान् यै-निन्ये मनः सस्वजिरे गुणैस्ते । भङ्क्त्वा मदं सत्तपसा कृशित्वा, सदा मृषित्वा च शिरोलुचित्वा ॥४|| नुतिं ग्रथित्वा तव गां लिखित्वा, चिचेतिषन्तः सुतरां मुदित्वा । प्रद्योतिता येन च शोचितं यै-स्तेऽर्षिताः स्युः पविता गुणैश्च ।।५।। प्रस्वेदितं ते न वपुर्मदं चो-षित्वा भृशं मर्षितवान् क्षुधित्वा । स्कन्वा समत्वं शठतां मृदित्वो-षित्वा शमे तत्त्वमभा विदित्वा ॥६॥ तमो मुषित्वा विविदिष्यते यैः, पृष्ट्वा जिघृक्ष्येत विभो ! वचस्ते । तेऽघं जिगीषन्ति शमं गृहीत्वा, मोहं बिभित्सन्ति सुषुप्सितोऽहम् ॥७॥ भित्सीष्ट कष्टं स भवान् कृषीष्ट, सुखं सदा मे हृदि सङ्गसीष्ट । यः सर्वतोऽबुद्ध तमोऽहृतोऽह-मुपायतेष्टं व्यधितादित द्याम् ॥८॥ मार्टा मदं दोषभरं न्यकार्षीः, कर्माण्यभि(भै)त्सीः सुकृतान्यभाणीः ।
अजागरीानकृतेऽशसीस्त्वं, तमांस्यवादीः शिवमग्रहीच्च ।।९।। टि० : १. स्वं त्वयि जुह्वत् ददत् नेनिजानि निर्मलं करौ वे । २. गत्वा । ३.
शायितुमिष्टं अहो येन मोहेन स तम् ।
श्लो० : १. ४।३।१-४, ६-८ । २. सू० ८-१३ । ३. सू० १४-१८ । ४. सू० १९,
२१-२४ । ५. सू० २४-२७ । ६. सू० २७, २८, ३०-३२ । ७. सू० ३२३४ । ८. सू० ३५-३७, ४०, ४१ । ९. सू० ४२, ४४, ४५, ४८, ४९ ।
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अनुसन्धान-७७
सद्वाद शं दायक ! द्वारकार्ते- ब्रह्मण्यजागारि जिन ! त्वयारम् । अदायि मुद्भीरवधीतजन्ये-नाऽजन्यरोषाऽशमि कामदायिन् ॥१०॥ अगामि धीकामुक ! शं शमाढ्या-विश्रामयामोद्यमसाधुनाम । त्वया गिरं ते निनयेश ! नौमि, ब्रवीमि पापेमि तृणेमि-- ॥११॥ स्तवीमि तं त्वां जिन ! यस्य भाऽऽसी-द्दीप्रा विलासीच्च जनो वचोऽपात् । अधात् सुरौघोऽतत हृद्यसाथाः, शं यो रजोऽशाश्च भयान्यभित्थाः ॥१२।। तमोऽलविध्वं सदयोऽसि कर्मा-ऽभिनोऽचकाद्यस्तव गामलीढ । न्यगूढ योगान्न हि सोऽदरिद्रीत्, सुचेतनः सङ्कथितामृताध्वन् ॥१३॥ क्ष्मां तारयामास भवानवात्सीत्, मुक्तावजय्यं प्रशमय्य कर्म । अक्षय्यशर्मस्पृहयालुरंहः, प्रक्षीय तेऽयात् स्तनयित्नुनाद ! ॥१४|| मोहो दिदीये त्वदगुस्तमांसि, ग्लेयादघं ये च गिरोऽदधस्ते । शिवं ययुस्ते ददिथे हितं मे, स्थेया हृदि त्वं समतां च देयाः ॥१५॥ जेगीयसे तत्त्वमलिव्रजस्ते, जेघ्रीयतेऽङ्गं जिन ! पीयते वाक् । सुरै रजोघातक ! घातहीन !, जेनीयतेऽघं च जघान नन्ता ॥१६॥ तत्त्वान्यवोचस्त्वमपास्थ एन-स्त्वद्भीरनेशद् दिवि चैष शेते । शाशय्यते श्रेयसि येन ते वाक्, समुह्यते धीरुदियात् प्रसादात् ॥१७॥ त्वं नूयसे रुग्भिरिनायसे च, चेचीयसे पुण्यमिहानसूयन् । जीयाः शुचीभूतचरित्रनेत्री-यसे च पित्रीभवसि त्रिलोक्याम् ॥१८||
टि० : १. गतसंग्रामेन । श्लो० : १०. सू० ५०, ५२-५५ । ११. सू० ५५-५९, ६२-६४ । १२. सू०
६४-७० । १३. सू० ७२-७४, ७६, ७८, ७९, ८२, ८३ । १४. सू० ८५, ८६, ८९, ९०, ९२ । १५. सू० ९३-९६ । १६. सू० ९७-१०१ । १७. सू० १०२-१०७ । १८. सू० १०८, १०९ ।
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जून - २०१९
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चेक्रीयसे मोहवधं हिया मे, दुःखं दया मा द्रियसे क्षमीयन् । त्वया धृतिः स्वीक्रियतेऽदधिस्यन्, व्युदन्यचित्तेष्वरसाशनाय' ॥१९॥
॥ पञ्चदशः पादः ॥
॥ चतुर्थाऽध्यायस्य चतुर्थः पादः ॥ तत्त्वानि भव्येषु भवानवोचद्, भक्तिप्रवेये नृसमाजपूज्य ! । प्रत्ताऽङ्गिमुद्धर्मरथे प्रवेता-ऽऽचख्ये शिवं संसृतिमाख्यते सः ॥२०॥ नीत्तेष्टवीत्तामृत आत्तसाम्य !, सुदत्तधर्माऽदितशं स्थितोऽसि । हित्वा ममत्वं विहितामृतश्री-श्छिताऽघजग्धक्रुधशुद्धघास ॥२१॥ ये त्वद्गुणानूयुरघं विदद्रु-र्मदं विशश्रुः पपरुः क्षमां ते । वध्या भयं निर्वृतिमध्यगास्त्वं, कर्मावधीश्चारु जिगांस्यते शम् ॥२२॥ तवागमं योऽधिजिगांसतेऽधि-जगेऽन्यमध्यापिपदध्यगीष्ट । नार्हन् कुशास्त्रं भवहेतुमात्रा-ऽध्यजीगपच्चाभवदुत्तमोऽयम् ॥२३॥ आसन्नता ये त्वयि ते शमाय-न्नैच्छन् गुणान्नारिषुरापदं च । अवारिषुः शान्तिमशस्त्र हस्ते-हाऽऽस्से वरीतुं निगृहीतिमर्तेः ॥२४॥ भवं तरीताऽवरिषीष्ट शंसो-ऽवरिष्ट यस्ते गिरमास्तरिष्ट । स्वं गोपिता साधुगुणैरधोता, तेनाजरित्वा स्मरिषीष्ट तत्रम् ॥२५॥ मनोदमित्वाऽञ्चितवान् पवित्वा, यस्त्वां क्लिशित्वा क्षुधितोऽर्तिसोढा । शिश्रीषतेऽघं तितरीषतीह, शिवैषिता शं विवरीषते तम् ॥२६।।
टि० : १. विगता उदन्या तृष्णा यस्य स वि० । चित्तेषु । न विद्यते रसेषु अशनाया
क्षुधा यस्य । २. 'शास्त्यसू-वक्ति-ख्यातेरङ् (३।४।६०) अप्र० । श्लो० : १९. सू० १०९-१११, ११३, ११५ । २०. सू० ४।४।१-३, ५, ७ ।
२१. सू० ८, १०-१२, १५-१७ । २२. सू० १९-२३ । २३. सू० २५२९ । २४. सू० ३०-३५ । २५. सू० ३५-३८, ४१ । २६. सू० ४२४७ ॥
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अनुसन्धान-७७
भवे न पित्सेद् यियविष्यते स, श्रिया रिरिष्येत धिया च दोषान् । हनिष्यतीर्थ्यां च हरिष्यते यः, पिपृच्छिषेत् त्वाऽशिशिषेत मार्गम् ॥२७॥ विष्वग्यशो नय॑ति तस्य सोऽर्ति, कतिष्यतीहाशु गमिष्यतीष्टम् । निवर्त्यति प्रक्रमितुं शिवेऽघात्, कर्ता शमं धीवृत ! यः श्रितस्त्वाम् ॥२८॥ दयायुतस्वान्तं नुनूषति त्वां, तितिक्षते यो निजुघुक्षतेऽङ्गम् । अभ्यर्णमोक्षो दृढकष्टदान्त ! सोऽत्रस्त ! गुप्तेन्द्रिय ! वान्तदोष ! ॥२९॥ अमूर्त ! लम्भार्जव ! बाढशान्ता-ऽघध्वान्त ! पूर्णेहित ! जप्त तत्वा(त्त्व?) । अरुष्ट हृष्टेश ! ददर्शिथ क्ष्मां, पपाथ शं भेजिथ वा चकर्थ ॥३०॥ दुःत्रोथ(दुद्रोथ) धामाऽऽरिथ शं नतास्त्वां, शीर्षं च सञ्चस्करिमाऽदिवांसः । मुदं वृषं चिच्यिमहे गिरं ते-ऽनंसिष्म भाग्यादवजग्मिवांसः ॥३१॥ य इह विविदिवांसस्तत्त्वमस्ताविषुस्त्वां,
स्वमिन ! ददृशिवांसस्ते जघन्वांस एनः । गिरमभिदधिवांसस्ते ध्यानतो नाऽस्वपीद् यः,
स्वपिति दिवि शमादत्सोऽवितुं चेशिषे तम् ॥३२॥ क्ष्मां संस्करोषि स्वमुपस्करोषि, वृत्तेन धीलम्भक ! शुम्भ नन्द । मोहाऽप्रतिस्कीर्ण विमुञ्चमानो-ऽनारम्भ रन्धोरगविष्किरेश ! ॥३३|| लम्भं लम्भं त्वगिरः मोपलम्भ्या, श्रेयोलम्भ्याऽऽनन्दथुः सूपलम्भः । स त्वै स्रष्टा ते नमः सङ्गनंष्टा, द्रष्टा तत्त्वं मा भवाब्धौ न मङ्क्ता ॥३४॥ त्रप्ता जनस्तीर्थकरं नमंस्त्वां, स्रप्ता शमं स्प्रष्टा कृषीष्ट मार्गम् । श्रीशोभमानं भवमीश ! तीा -ऽऽसीनः समाधौ किरतीह कर्म ॥३५॥
श्लो० : २७. सू० ४७-४९ । २८. सू० ५०, ५१, ५३, ५५, ५७ । २९. सू०
५८-६१, ६४, ६७, ६९, ७०, ७४, ७५ । ३०. सू० ७०, ७४-७६, ७८, ७९ । ३१. सू० ८०, ८१, ८३, ८६ । ३२. सू० ८२, ८३, ८५, ८७-८९ । ३३. सू० ९१, ९२, ९४, ९६, ९८, ९९, १०१-१०३ । ३४. सू० ९८, १०५, १०६, १०८, ११०, १११ । ३५. सू० ११२, ११४-११६ ।
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जून - २०१९
.४७
यस्ते गुणान् कीर्तयतीति सिद्धिं, वुवूर्षतेऽसावशिषच्च मोहम् । न तेन शिष्येत जिन ! धुकान्ता-स्तं क्नोपयन्ति प्रथिताऽऽशिषोऽथ ॥३६॥
॥ षोडशः पादः ॥ इति हैमव्याकरणकतिपयोदाहरणमयः सर्वजिनसाधारणस्तव एकादशः ।
यस्य लक्षणसूत्राणि, जिह्वाग्रे सन्ति जाग्रति । स्फुरद्प स्तदर्थश्च, स्तवानेतान् स पश्यतु ॥१॥ कृतिरियं वाचनाचार्यशीलशेखरगणिपादानाम् ॥ छ ।
भद्रमस्तु श्रीसङ्घायेति ॥
श्लो० : ३६. सू० ११७, ११८, १२०-१२२ ।
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अनुसन्धान-७७
महोपाध्याय श्रीसोमविजयगणिविरचिता संस्कृतगेयपञ्चस्तवी॥
. - सं. विजयशीलचन्द्रसरि
उपाध्याय सोमविजयगणि ए १७मा सैकाना महान जैनाचार्य जगद्गुरु हीरविजयसूरि महाराजना अत्यन्त प्रीति-विश्वासभाजन शिष्य हता, तेवा उल्लेखो अनेक रीते जोवा मळे छे, परन्तु तेमनी विद्वत्ता विषे खास कांइ जाणवा नथी मळतुं. उपाध्यायनी पदवी अमस्ती तो न ज मळी होय, एटले तेओ पण, तेमना समकालीन अन्य उपाध्यायोनी जेम ज, विद्वत्ता अने पाण्डित्यना स्वामी हशे ज. तेनो अक आछो अंदाज, अहीं प्रगट थई रहेली, तेमनी पांच संस्कृत गेय भक्ति-रचनाओ द्वारा मळे छे.
शुद्ध देशी ढाळोमां गवाती गुर्जर रचनाओ जेवी ज गेय रचनाओ, ते पण संस्कृत भाषाना बधां नियम-नियन्त्रणो जाळवीने, अक्षर तथा मात्रानो सुमेळ साचवीने रचवानुं काम सरल नथी. व्याकरण-काव्य-कोश आदि हस्तगत होय, रजूआतमां सहज माधुर्य तथा प्रसाद आणवानी सक्षम प्रतिभा होय, त्यारे ज आवी सरस रचनाओ शक्य बने छे. आ स्तवनो जोईशुं तो ख्याल आवशे के क्यांय शब्दो के मात्राओ के भावो मेळववा जतां खेंचताण नथी करवी पडी; क्यांय कोई पंक्ति कष्टथी के श्रमथी साध्य नहि जणाय; बधुं भीतरथी अनायासे ज, सहजताथी ज, फूटी आवतुं अनुभवाय.
आ उपाध्यायजीनी अन्य कोई रचना होवानुं के प्रगट थई होवा- प्रायः जाणमां नथी. ते जोतां तेमनी आ रचनाओ प्रथम वखत प्राप्त थई छे. आ रचनाओ शोधीने प्रकाशमां लाववानो यश मित्र अने कविवर्य मुनिराज श्रीधुरन्धरविजयजीने घटे छे. तेमना निजी संग्रहगत, २ पानांनी, सम्भवतः कर्ताना हस्ते लखायेली प्रतिना आधारे आ पांच गेय कृतिओ अहीं मुद्रित थई रही छे, आ माटे आपणे तेओना ऋणी रहीशुं.
कर्तानो समय १७मो सैको छे ते स्पष्ट छे.
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जून - २०१९
महोपाध्याय-श्रीसोमविजयगणिविरचिता
संस्कृत-गेय-पञ्चस्तवी
श्रीगुरुपदकमलं निजे, मानससरसि निधाय रे श्रीजिनवीरमहं नुवे, भविजनसङ्घशिवाय रे ॥ शिवशान्तिकारकचलननलिनं कमलकोमलकरतलं केवलालोकविलोकिताखिलनाकमर्त्यरसातलम् । संसारसागरपारगामी त्वमसि वीरविभो ! यथा तदपारपारावारतरणे स्यामलं मम कुरु तथा ॥१॥ देहि विभो ! मम शिवपदं, त्वं करुणारससिन्धो ! । भवभयनीतिमतो यते(तेः), समजगतीजनबन्धो ! ॥ . बन्धुवदमरशूलपाणे रोषदोषनिवारको विकटदृष्टिविषोऽपि भोगी कौशिकोऽमरनायको(कः) । भवता कृतो जिनराज ! पीडाऽतीव सोढा सुरकृता अपराधवत्यपि सङ्गमे जिन ! कृपादृष्टिरुदीरिता ॥२॥ मोहमहीधरकरगतं मामुद्धर जिन ! वीर ! रे हेतुमृते हितकारको मेरुमहीधरधीर ! रे ॥ धीरिमादिगुणौघबन्धुर-गतिजितामरसिन्धुरो विकटसंकटकोटिकारकवामकाममुधाकरो(रः) । मयि किङ्करे कुरु भूरिकरुणामिह भवेऽपि भवान्तरे त्वमकारि जगदुपकारविधये वेधसा भवनोदरे ||३|| यदि मम मानसमन्दिरे वस सलवं जिन वीर ! रे अहमतरं भवसागरे लब्धभवोदधितीर ! रे ॥ भवतीरदायक ! योगिनायक ! जन्तुतायक ! शुभविधे ! समभीतिवारक ! भुवनतारक ! शान्तिकारक ! शमनिधे ! । हरिहरसुरासुरवशीकारककामकुञ्जरकेसरी(रिन् !) करवाणि तावकवाणिमनिशं कुरु तथा भवतरुकरी(रिन् !) ॥४॥
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अनुसन्धान-७७
यदि मम मानसमानसे क्षणमपि हंससि देव ! रे । किं बहुना तपसा तदा सुरनरपतिसकृतसेव ! रे ॥ सेवासु हेवाकिनो जीवा लभन्ते शिवसम्पदं किमु भविकलोका ! विगतशोका ! भजत नो गुणसम्पदम् ?। मम भवतु देव ! सदैव सेवकपावनं तव शासनं तथा श्रीगुरुहीरसूरेरपरमिह किमु याचनम् ! ॥५॥
इति श्रीमहावीरस्तवनम् ॥
(२) त्रिशलासुत! रे वाञ्छितफलमन्दार! रे
हरिपूजित! रे करुणामृतभृङ्गार! रे जनजीवन! रे त्रिभुवनजनताधार! रे
नतसुरनर! रे गतभवपारावार! रे ॥ भववारपारावारतरणे देव ! शरणं देहि मे श्रीवीरजिनवर ! भुवनहितकर ! रुचिरसूरो हि स हि मे (?) । संसारकारागारपतितं मोहराजवशीकृतं मां मोचयाऽऽशु जिनेश ! तावकसेवकं शरणागतम् ॥१॥ गतदूषण! रे त्रिभुवनभूषण! वीर! रे
सुखसागर! रे मेरुमहीधरधीर! रे समताकर! रे मारदवानलनीर! रे
___ममताहर! रे आसादितभवतीर! रे ॥ भवतीरयायी भुवनपायी पाहि पाहि कृपानिधे ! भवरूपकूपादतिविरूपादीश ! साधितशुभविधे ! । भविकामितामितसिद्धिदाने त्वमसि दैवततरुनिभो निजचलननलिने लीनमनिशं मानसं मम कुरु विभो ! ॥२॥ विकराले रे कलिकाले तव शासनं
जिन ! लेभे रे कथमपि भवभयनाशनम् । मम कुरु कुरु रे सौवगिरा मतिवासनं
मा पुनरपि रे भवतु मनोभवपाशनम् ॥
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जून - २०१९
मनोभवभवपाशनं मेऽनन्तशोऽजनि जिनपते ! तदभावकरणे देव ! शरणे समेतोऽहं शुभमते ! । अथ यथोचितकरणचतुरे नाथ ! किं कथनेन मे ? तथा कुरु न भवन्ति रोषादयो दोषा मयि समे ॥३॥ करुणापर! रे नागरवन्दितपाद! रे
भविराशे रे नाशितसकलविषाद! रे । जिनपुङ्गव! रे विदलितवादिविवाद! रे
निजवचसा रे विफलितवीणानाद! रे ॥ तव नादलीना देवदानवमानवा विकचानना आयान्ति पातुं भावपीना दोषहीना देशनाम् । तथा छागमृगारिवारणवाजिराजिमुखा घना बहुजातिवैरविनाशकरणे समवसरणे ते सना ॥४॥ त्वयि गतवति रेऽमितसुखसंगतशिवपुरे
दीपाले रे दिवसे देव ! शिवङ्करे । संजाते रे भारतनरि विरहातुरे
कथमेवं रे समता गुणमणिसागरे । गुणसागरे जिन ! कथं समता शिवे नाथ ! तथा भवे ? समताधरो जिनराजवीरो भवन्तं इति किमु नुवे ? । अथ विरहवारणकृते सौवं सेवनं दिश यतिपते ! श्रीहीरविजयमुनीशशिशुना नुतो वीरो हितकृते ॥५।।
इति श्रीवीरस्तवनम् ॥
(३) चेतन ! कुरु सीमन्धरशरणं, भवसागरतरणे वरकरणम् । यदि तव भाति भयङ्करमरणं, किं बहु विलपसि मूढ ! सकरुणम्? ॥१॥ चेतन० संप्रति काले यानसमानो, राजति सीमन्धरभगवानो । मनुजभवो नहि पुनरपि सुलभो, निजहितसाधनमिति कुरु भो भोः ! ॥२॥ चेतन० शरणागतमङ्के निजबालं, मामव भवतो भूगतभालम् । त्वमसि विभो ! करुणारससिन्धो !, समजनसुखदोऽकारणबन्धो ! ॥३॥ चेतन०
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अनुसन्धान-७७
संयमयोगाकरणविगानो, भवसागरपतितो जिनभानो ! । संप्रति तव पदसेवनलीनो, मां किमु पारग ! तारयसे नो ? ॥४॥ चेतन० तव पदपङ्कजभजनविहीना, भवमटन्ति मनुजा अतिदीनाः । ये पुनरनिशं सेवनलीनाः, ते भवन्ति सुखसागरमीनाः ॥५॥ चेतन० मां विधेहि निजसेवालीनं, सीमन्धर ! भवसङ्गतिदीनम् । नैव समीहे सुरनरभोगं, किन्तु विभो ! तव सेवनयोगम् ॥६॥ चेतन०
चेतन ! कुरु सीमन्धरशरणम् ॥ इति सीमन्धरजिनवरशरणं ये सततं विरचन्ति जातिजरामृतिसन्ततिभीतिं ते भविका न करन्ति । मुनिजनचरिताराधनविषये निजचेतसि विकसन्ति श्रीहीरविजयसूरीशविनेयो वदति शिवे निवसन्ति ॥७॥
इति श्री सीमन्धरस्वामिस्तवनम् ॥
॥३॥
(४) श्रीगुरुचरणमुदारं, स्मारं स्मारं स्वमानसे भक्त्या । मेरुमहीधरधीरं, वीरं नुतिगोचरीकुर्वे ॥१॥ केवलकमलालीलागारं, शमदमगुणमणिपारावारम् । भविजनवाञ्छितफलमन्दारं, वन्दे श्रीजिनवीरमुदारम् ॥२॥ भववनगहने निशितकुठारं, भरतभूमिललनागलहारम् ।। मुनिमरालकोटीकासारं, वन्दे० ॥ मदनदवानलविपुलासारं, त्रिभुवनजनतावरशृङ्गारम् । उपशमरसभरभृतभृङ्गारं, वन्दे० ॥ हेलाटालितमारविकारं, भवकूपे पततामाधारम् ।। रूपाकम्पितकमनाकारं, वन्दे० ॥
॥५॥ भविककोटिकृतभवनिस्तारं, त्रिजगति विकसितगुणविस्तारम् । कृतिततिमानसशुकसहकारं, वन्दे० ॥ ॥६॥ काञ्चनकजकृतपादविहारं, सुरनरशंसितगुणसम्भारम् । समजनलोचनसुखदातारं, वन्दे० ॥
॥४॥
॥७॥
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जून - २०१९
भविजनवारं तारं तारं, सिद्धिमितो(तं?) दितपुनरवतारम् । हदि निधाय तं वारंवारं, वन्दे० ॥
॥८॥ एवं जिनकोटीरो, विनुतो रागादिजित्वरो वीरः । श्रीहीरविजयसूरेः शिष्येण शिवप्रदो भूयात् ॥ ॥९॥
इति श्रीवीरस्तोत्रम् ॥
स्वस्ति श्रीदातारं, ज्ञातारं विश्ववस्तुनः सारम् । नतसुरनरनेतारं, नवीमि वीरं शमागारम् ॥१॥ जयति सदा जिननायकवीरो, जिनमतभासनभानु रे । केवलकमलालीलावासो, धीरतया गिरिसानु रे ॥१॥ जयति सदा० ॥ त्वमसि विभो ! भवपारावारे, भविजनतारणसेतु रे । ज्ञातकुलावासेऽमलभूषा-करणे बन्धुरकेतु रे ॥२॥ ज० ॥ देहि विधेराराधनमनघं, संयमविषये देव ! रे । शिवगतिसङ्गतिसाधनमनिशं, सुरनरपतिकृतसेव ! रे ॥३॥ ज० ॥ त्वमसि पिता माता मम नेता, कामितदाता वीर ! रे । वितर विभो ! निजचरणे वासं, काञ्चनगौरशरीर ! रे ॥४॥ ज० ॥ अशोकतरुतलमणिसिंहासन-आसीने जिनराजि रे । आतपवारण-चामर-दुन्दुभि-भासुरभूतिविराजि रे ॥५॥ ज० ॥ कुसुमनिकर-भामण्डलभासति, भविकजना विकसन्ति रे । वीणानादविनादितलोके, के समुदो न भवन्ति ? रे ॥६॥ ज० ॥ जिन ! तव सेवालीनं लोकं, समकमला विलसन्ति रे । जगदुपकारे जिनपविहारे, ईतिगणा न भवन्ति रे ॥७॥ ज० ॥ चिदानन्दरूपे त्वयि नाथे किमु मयि ननु भवभीति ? रे । करुणारत ! शरणागतवत्सल !, नैवं भवतो रीति रे ॥८॥ ज० ॥ नो विफला विमला जिन सेवा, मा भव विधुरो धीर ! रे ।। एवं सातकृते मम वचनं, देहि कृपापर ! वीर ! रे ॥९॥ ज० ॥ एवं त्रिभुवनजनता-नेता विनुतो जिनाधिपो वीरः । श्रीहीरविजयसूरेः शिशुना सङ्घस्य भद्रकृते ॥१०॥ इति श्रीमहावीरस्तोत्रं, कृतं महोपाध्याय श्रीसोमविजयगणिभिः ।।
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अनुसन्धान-७७
एक संस्कृत स्तुति
- सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
आ शकेश्वरपार्श्वनाथनी स्तुति छे. गुजरातीमां 'थोय' तरीके ओळखाती तथा धर्मक्रियामां बोलाती ते रचना छे. जैनोमां प्रसिद्ध 'वरस दिवसमां अषाढ चोमास, तेमां वळी भादरवो मास, आठ दिवस अति खास' आ तथा आवी थोयोना ढाळमां रचायेली आ संस्कृत थोय छे. आवी रचना प्रायः प्रथमवार जोवा मळी छे. थोयनां बधां लक्षणो आमां जोवा मळे छे.
समासप्रचुर, प्रासमधुर अने पाण्डित्यदर्शक आ रचना कवि कान्तिविजयजी नामना कवि-साधुए करी छे. तेमना गुरुनु नाम प्रेमविजयजी छे. १८मा शतकना ते कवि छे. तेमनी गुजराती गेय भक्ति-रचनाओ जैनो खूब गाय छे. तेमनी रचनाओ अत्यन्त भाववाही अने भक्तिमय होय छे. तेओ संस्कृतमां पण आवी विलक्षण अने प्रगल्भ रचना करी शकता हशे ते तो आ थोय जोई त्यारे ज ख्याल आव्यो.
____ आ रचनाना प्रकीर्ण पत्रनी जेरोक्स मुनिश्रीधुरन्धरविजयजीए आपी छे. तेमनो आभारी छु.
'थोय' ना पत्रमा छेवटे व्याकरणने तथा न्यायने लगती अभ्यासनोंध हती. ते पण यथातथ, थोयनी साथे ज - पाछळ प्रगट करवामां आवे छे. जो थोयनं पानु कर्ताए पोते ज लख्युं होय तो, आ अभ्यासनोंध तेमना विशद बोधनी साहेदी आपी जाय छे.
स्वस्ति श्रीकुलगृहमभिराम -- प्रकटोद्धरगुणमणिगणधाम स्ववशहषीकग्रामः, योऽगमदव्ययपदमतिवाम-प्रकृतिमदाद्रिभिदात्याधामस्तजितदुर्जयकामः । निष्ठितमोहमहासंग्रामः कृतसमुदञ्चत्प्रतिघाचामः कल्पितशोकविरामः, भक्त्युल्लसदाशयसूत्राम-प्रमुखस्तुतसितकीयुद्दामस्तं पार्वं प्रणमामः ॥१॥ अविनश्वरसुखभूरुत्ताला-यतदुरितागवि दरजलबाला परममहोदयशालाऽविघ्नवती नवदहनज्वाला-शोषितकलुषविषयजम्बाला रचिताऽजन्योच्चाला । प्रत्यादिष्टभवभ्रमिफाला ज्ञानादर्शफलत्समकाला शमितकषायाङ्गाला, चरणप्रणमदमरनरपाला त्रिजगज्जाग्रद्वचनरसाला वन्द्याऽसौ जिनमाला ॥२॥
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जून - २०१९
नवरसपूरसुधासन्धान-प्रसरन्नवतत्त्वीविज्ञान-व्यतिकरनूत्नप्रतानः, सुकृतविटपरचनाद्यसमानः कोविदमधुकररचितोद्गानः कृतसुमनःसम्मानः । दारियोद्धरणाद्यवदान-प्रस्तुतचित्रपवित्रविधानः स्थितिमुच्चैर्लभमानः, चारित्रामोदं विदधानः स जयति सिद्धिफलं चिन्वानः श्रीप्रवचनसन्तानः ॥३॥ कोमलतनुभासा विकचानि च्छलयन्ती श्यामलकमलानि प्रथितारिष्टज्यानिः, धरणीधरदयिता सकलानि व्यथयन्ती प्रतिपक्षकुलानि क्षपितागाधम्लानिः । श्रीशकेश्वरपार्श्वपदानि ध्यायन्ती विदलितपापानि प्रेमविजयसुखदानि, पद्मावत्यभिधा विपुलानि प्रदिशतु सा देवी सुखखानिः कान्तिविजयकुशलानि ॥४॥
इति शकेश्वरपार्श्वनाथस्तुतिः समाप्तेति ॥
सोपसर्गोऽन्यार्थवृत्ति-रन्तर्भूतक्रियान्तरः । णिगर्थोऽन्तर्णिगर्थो वा, पञ्चोपायैः सकर्मकः ॥१॥ फल-व्यापारयोरेक-निष्ठतायामकर्मकः ।
धातुस्तयोद्धर्मिभेदे, सकर्मक उदाहृतः ॥२॥
'देवदत्तः पचती'त्यत्रौदनविक्लित्यादिकं फलं फूत्कृत्यग्निसमिच्चालनादिना व्यापारेणैकनिष्ठं विवक्ष्यते इत्यकर्मता ।
विवक्षातः कारकविभक्तयो नाना भवन्तीति शाब्दिकाः । अत एव 'आत्मानमात्मना वेत्ती'त्यादौ तृतीया ।
____ साध्यतावच्छेदकसम्बन्धेन यादृशप्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोग्यनधिकरणभूतं यत्प्रतियोगिताश्रयं सद् हेतुतावच्छेदकसम्बन्धेन हेतुत्वावच्छेदकावच्छिन्नहेत्वधिकरणवृत्त्यभावप्रतियोगितावच्छेदकतानवच्छेदकसाध्यसामानधिकरण्यं हेतोर्व्याप्तिः ॥
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अनुसन्धान-७७
बे संस्कृत पत्रो
- सं. उपा. भुवनचन्द्र
जैन श्वे० श्रमणसङ्घ तथा श्रावकसङ्घनी छेल्ला ३००-४०० वर्षनी गतिविधिस्थितिनी झांखी करावता बे संस्कृत पत्र संकलित करीने अहीं रजू कर्या छे. प्रथम पत्र नागोरी वडतपगच्छना (पार्श्वचंद्रगच्छना) श्रीपूज्य भट्टारक श्रीविवेकचन्द्रसूरि (वि.सं. १८३७मां आचार्य पद) उपर लखायेलो छे. लांबा विज्ञप्तिपत्रना प्रारम्भना श्लोको ज छे. ऊतारो अपूर्ण रह्यो छे. पत्रमा लखनार साधुनी प्रौढ प्रतिभा तरवरी रहे छे.
बीजो पत्र खम्भातथी भट्टारक विद्यासागरसूरि तरफथी मुन्द्रानगरमां चातुर्मास रहेल श्रीवृद्धिसागर गणि ऊपर लखायेलो छे. साधुओ गच्छाधिपतिने क्षमापनापत्र । विज्ञप्तिपत्र लखता, तेमां पर्युषण, चातुर्मास सम्बन्धी वृत्तान्तनिवेदन करता. श्रीपूज्य भट्टारक वलता पत्रमा पोताने त्यांनो वृत्तान्त लखता. पत्र अने तेना उत्तर उत्कृष्ट संस्कृत भाषामां, काव्यमय आलङ्कारिक भाषामां लखाता. प्रस्तुत पत्र आवो ज एक प्रत्युत्तर पत्र छे. पत्रमा संवत्नो उल्लेख नथी, परन्तु पत्र पूरो थया बाद, खाली जगामां, अन्य हस्ताक्षरमां बीजो पत्र छे अने तेमां १७८१नो उल्लेख छे, तेथी आ पत्र एनाथी पूर्वनो (संभवतः १७८०नो) छे एवं तारवी शकाय छे.
श्रमणोनी गुरुभक्ति, संस्कृतभाषा परनुं प्रभुत्व, श्रावकोनी श्रद्धा, चातुर्मास । पर्युषणनी तत्कालीन परिपाटी, श्रमणोनी आन्तरिक व्यवस्था वगेरे तथ्यो आवा पत्रोमांथी सांपडे छे. पर्युषणना वृत्तान्तमां स्वप्नदर्शननी के अन्य उछामणीओनो उल्लेख नथी. बन्ने पत्रो अमारा निजी संग्रहमां छे.
(१)
नमः श्री सरस्वत्यै ॥ स्वस्तिश्रीश्रेणियुक्तो वृषभजिनपतेऽगण्यनैपुण्यपुण्यलावण्यानल्पजल्पप्रवरगुणगणैर्गीयमानः सदानः । ज्ञानध्यानप्रतानः कुमदधरणिभृद्वज्रिवज्राग्रजाग्रत्सामग्योदग्रकाग्रस्तबहुलविलसत्सत्प्रभावप्रभाव ॥१॥
कर्तृ-कर्म-क्रियागुप्तम् । स्रग्धराछन्दः ।
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इन्द्रद्वैवेन्द्रचन्द्रप्रकरहिमभरक्षीरधिक्षीरहीरडिण्डीरक्षीरनीरप्रभवशुचिलसत्कान्तिशुक्लीकृताशः । नित्यानन्तैकवासो जगति परिसरद्ध्वान्तविध्वंसदक्षः, श्रीमन्नर्हन्मृगाङ्क प्रथितपृथुयशः कौमुदं वर्द्धय त्वम् ॥२॥
[श्लेषालङ्कारः] स्रग्धराछन्दः । वीरं हेमाद्रिधीरं नमदमरभरं यादवश्रेणिवयं सामोदं मेदिनीनं विहितविहितकृद्विश्वविश्वप्रकाशम् । शश्वत्कृष्णश्ववंती द्विपपतिविलसत्सत्प्रभावैजयन्तीरुद्यद्दीप्तीर्दधानं प्रवरजिनपति नीरजाङ्कं नमामः ॥३॥
प्रसिद्धनाममालानामगर्भितम् । वो वण्यै(ण्य)कवर्यो विमलकमलभद्वर्णवर्णैकवर्ण्यः निहिँसो हंसहंसो दुरिततमतमोहंसहंसैकहंसः । श्रीपार्श्वः पार्श्वपार्श्वः कुमदविटपभृत्पार्श्वपार्श्वः सुपार्यो राज्याद्राजाधिराजः शठकमठहठाभ्राजिराजैकराजः ॥४॥
[वर्णालङ्कारः] सिद्धार्थोऽद्धार्थवेत्ता प्रवरनृपतिसिद्धार्थसिद्धार्थपुत्रः तीर्थाधीशः सुधीशप्रणतपदयुगः साधुतीर्थोपदेष्टा । प्रोद्यत्प्रोद्दामधामधुमणिपरिसरत्स्वर्णवर्णप्रवर्णं श्रीमच्छ्रीवर्धमानो भवतु भवभिदे श्रेयसे वर्धमानः ॥५॥
[वर्णालंकारः] स्रग्धरावृत्तम् । अथाग्रतो नगरप्रवरवर्णनं प्रारभ्यते -
यस्मिन् संलिह्यतेऽहर्निशममि(म)लरुचामभ्रमभ्रंकषाभिर्येषां सत्केतनानां ततिभिरथ चलद्वस्त्रजिह्वाछलेन । गंगारंगत्तरंगस्फुरदमलचलत्काशसंकाशभासः प्रासादास्ते विभान्ति प्रचुररणरणद्घण्टिकान्तःप्रदेशाः ॥६॥ अखर्वगर्वहर्वैश्च दुर्दान्तोद्दान्तदन्तिभिः । रथैः पादातिकैर्यत्र, प्राज्यं राज्यं विराजते ॥७॥
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अनुसन्धान-७७
क्रीणन्ति क्रयिणः क्रयाय किरणवातावृतान् सुन्दरान् । । सर्वोत्कृष्टतरान् मयूखनिकरध्वस्तान्धकारव्रजान् । रत्नांश्चारुविचित्रचित्रनिचयैश्चारूणि वस्त्राणि च यत्रानल्पसुकल्पतल्पकलितः शृङ्गाटकः शोभते ॥८॥ अतिलसत्कनकाभरणस्फुरन्मणिगणद्युतिदीपितदिग्गणाः । गुणगणप्रथिताः पृथुपौरुषा अपरुषाः पुरुषा प्य(अ)रुषान्विताः ॥९॥ विमलकमलनेत्रं प्रस्फुरच्चन्द्रवक्त्रं मृदुतरतलहस्तं रूपसम्पत्प्रशस्तम् । कलितललितगात्रं स्फीतिमत्प्रीतिपात्रं अविरतमभिरामं स्त्रीकुलं यत्र कामम् ॥१०॥ तदुपकण्ठमहीकमलाकरा गतसनत्कमलाः कमलाकराः । ददति यत्र मुदं कमलाकराः विमलचारुलसत्कमलाकराः ॥११॥ सदकदम्बकदम्बकदम्बकं मतिविशालविशालविशालकम् । विमलपुष्करपुष्करपुष्करं भवति यत्र च काननकाननम् ॥१२॥ कलहंसकृतारावा वाप्यः पीनपयोधराः । विटपीताः सदा भान्ति यत्र वारांगना इव ॥१३॥ [श्लेषालङ्कारः] ये तं जगति विख्यात-मुत्तममुत्तमप्रदम् ।
प्रकामं वीरमग्रामं सुप्रतिष्ठमधिष्ठिताः ॥१४॥ अथ श्रीपूज्यानां प्रशस्तिः -
पवित्रं यद्गात्रं रुचिररुचिपात्रं प्रकृतितः कलाभिः संयुक्तं विमलधवलांशुकवृतम्(?) । बभौ रत्नश्रेणीयुतकनकसिंहासनवरे, यथा चान्द्रं बिम्बं प्रवरमुदयाख्ये शिखरिणी ॥१५।।
शिखरिणीवृत्तमेतत् । रजतपरिसरद्रोचिःस्तोमप्रकाशितदिङ्मुखे, नयनसुखदे दृष्टे दोषाभिराजियदानने । क इह मनुजः सम्पूर्णि_(म्नि?)न कौमुदवर्द्धिणि प्रदधति भृशं प्रीतिं स्फीतां मनोहरिणीप्सिते ॥१६॥ हरिणीवृत्तम् ॥
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जून - २०१९
येषां वै प्रवलदशुक्रतारकान्तनेत्रे द्वे दधत इह प्रभूतशोभाम् । भ्राम्यत्कभ्रमरसुकेतकद्वयस्य अत्यर्थं सुजनमनः प्रहर्षिणीष्टे ॥१७॥ प्रहर्षिणीछन्दः । प्रवररससमेता प्रोल्लसद्वर्णवा , बहुतरसुमनोभिर्निर्भरं स्तूयमाना । विलसति खलु येषां वाक्सनत्सूत्रसंगा वरतरगुणमालामालिनी मालिकेव ॥१८॥ मालिनीछन्दः । सद्यो हृद्यानवद्यप्रबहुलविलसद्गद्यपद्यादिविद्या सामस्त्यध्वस्तगर्वा कृतजितबहुलोन्नादिवादिव्रजानाम् । येषां येषां हि तेषां पदकमलयुगं वन्द्यतेऽहर्निशं वा क्षामक्षेमक्षमाभृत्ततिभिरथ लसन्मौक्तिकस्रग्धराभिः ॥१९॥ स्रग्धरावृत्तम् । सिद्धान्तसिद्धान्तविचारसारान् कूपारसंप्राप्तसमस्तपारान् । उद्यबहूद्दाममदाद्रिवृन्द-भेदेन्द्रवज्रामितसत्प्रभावान् ॥२०॥ इन्द्रवज्रावृत्तम् । अथातिमात्रं चरणोज्झितांश्च सदा स्फुरत्कोकनदाहियुग्मान् । कोपक्रमान्वीतसुमानसानपि(सांश्च) समस्तविध्वस्तकुकोपजातीन् ॥२१॥
उपजातिवृत्तम् । प्रवरपञ्चमहाव्रतधारकान् सकलमानवमानवपूजितान् । विहगराजिविराजिविराजितान् द्रुतविलम्बितसद्गतिसुन्दरान् ।।२२।।
द्रुतविलम्बितवृत्तम् । सद्गच्छमानससरोवरराजहंसान् अज्ञानतानतिमिरैकविघातहंसान् ।। कार्यघ्नविघ्नबलवत्तरदन्तिहिंसासिंहोद्धतान् परिसरक्षितिसत्प्रशंसान् ॥२३॥ सिंहोद्धताछन्दः । षट्त्रिंशद्गुणभूरिसम्भृतयशःशुक्लीकृताशामुखान् सिद्धिव्योमनिशाकरप्रमितिभृच्छ्रीभिः सदा संयुतान् । श्रीमत्पूज्यविवेकचन्द्रमुनिभृन्मुख्यानमानोपमान् तान् सन्देहमृगौघघातनविधौ शार्दूलविक्रीडितान् ॥२४||
शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ।
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अनुसन्धान-७७
(२) मुन्द्रानगरे श्रीवृद्धिसागरगणिवरान् प्रति पत्रम् स्वस्तिश्रियां धाम महाविराम-श्रीकामसुत्राम--- धामा । श्रीगौडिकाख्यः प्रभुपार्श्वनाथः सदा श्रिये स्तात् प्रभुतासनाथः ॥१॥ इन्दुं कैरविणीव कोकपटलीवाम्भोजिनीबान्धवं मेघ चातकमण्डलीव मधुपश्रेणीव पुष्पाकरम् । भव्यानां नयनालिकामृतधिया द्रष्टुं यमुत्कण्ठते । स श्रीमानमराब्धिसूरिसुगुरुः कल्याणमाकल्पताम् ॥२॥ श्रीस्तम्भतीर्थादलकासतीर्थ्यात् सूरीश्वरा वार्षिकपर्वलेखम् । लिखन्ति विद्यादिमसागराः श्रीसमस्तभट्टारकचक्रचक्रिणः ॥३॥ श्रीमुनराबंदिरे वा.श्रीवृद्धिसागरगणिवरेषुसुखसंयमयात्रात्र सत्रा कल्याणमालया ।
श्रीगुरूणां कृपादृष्टेः सत्प्रभावात् प्रवर्तते ॥४॥ अथ प्रस्तुतम् ।
विहर्तुमुत्कमानसो(सा) सदा बभूविमो वयं, सुदाक्षिणात्यजालनापुरस्थसुस्थभाविनाम् । त्रिवार्षिकी निमन्त्रणां चिकीर्षवः फलोन्मुखीं तदैहिकाऱ्यागेहिनामिति प्रवृत्तिरागमत् ॥५॥ श्रीपूज्या यद्यस्मान् सौवान् सुश्रावकान् विजानीथ । तदवश्यं वन्दाप्यः संघोऽयं किं बहूक्तैः स्यात् ॥६॥ तेषामत्यादरतः सुदिने प्रस्थाय तरणिपुरनगरात् । वैशाखमासि कृष्णेऽप्येकादश्यां भृगोवरि ॥७॥ उपतीर्थमिता यावत्तावत् सङ्घन पू:प्रवेशार्थम् । आनीतोऽहमहमिकोत्कलिकाकलितः सुपौरजनः ॥८॥ युग्मम् गलद्दानोद्रेकभ्रमदलिकदम्बा: करटिनः, हया वेला(लो)द्वेलज्जनप्रगुणवेलावलगिताः । नृवाहिन्योऽनन्योपमघनरुचो (चः) स्रस्तकवचा, रथा सच्चीत्काराः प्रबलबलपादातिकगणाः ॥९॥
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जून - २०१९
नीताः सङ्घरभिमुख-मातोद्याल्यस्तथा मगधजाल्यः । जातो जयजयशब्दः पूरितदिङमण्डलोऽविकलः ॥१०॥ तलस्तनि[त]गाननिःस्वानसकर्णीकृतशचीपतिजाहं, सौवर्णराजतमुद्रिकामानदानखर्वितवारिवाहं; नृत्यत्सुगात्रपात्रानेकवाद्यातोद्यध्वनिबधिरितदिगन्तं; लोकलोचनचकोरास्तोका(क) बिब्बोककारित[त]न्महोत्यन्तम् ॥
__ चित्रदण्डकपद्यं । एवं महोत्सवं कृत्वा नीत्वा महदुपाश्रयम् । श्रीफलपूगादीन्दत्त्वा संघो लेभे महाकीर्तिम् ॥१२॥ पञ्चभिः कुलकम् । श्रीश्रीस्तम्भनमण्डन-जीरापल्लीशपार्श्वनाथौ च ।। अन्या अपि तीर्थाल्यो नमस्कृताः कीर्तिताश्च ततः ॥१३॥ अथ प्रभाते प्रारब्धं व्याख्यातुं संघसंसदि । नन्दीसूत्रं वृत्तियुक्त-मस्माभिर्बहुभेदतः ॥१४॥ देशनया पेशलया पुष्करवरमेघसारधारिकया । इव गृहभृत्कल्याण-माणिक-सचवीरसंज्ञानाम् ॥१५॥ सश्रीकानां हृदयेऽप्यभिलाषाबीजमङ्कुरितमित्थम् । तत्किचिदाचरामो येन स्यान्नु जनुः सफलम् ॥१६॥ युग्मम् । चन्द्रप्रभतीर्थेश्वर-श्रीमच्छीशान्तिनाथमूर्तेश्च । जैनागमगुरुवचनैः प्रारब्धा तैः प्रतिष्ठा वै ॥१७॥ सधवनववधूनां किङ्किणीक्वाणरम्या, प्रबलधवललूलूध्वानसन्मानगम्या । नवनवरवजाग्रद्गात्रसत्पात्रनृत्यप्रकरणकरणैर्दाग् धूनिताचार्यशीर्षा ॥१८॥ गणपतिस्थितिजुष्टा देवताध्वानश्रेष्ठा, कृतशुभजलयात्रा शुद्धनिर्माणमात्रा । श्रितनयनशलाका स्वीयवंशे पताका भविकमिलनशिष्टास्तैः कृता श्रीप्रतिष्ठा ॥१९॥ आषाढमासे विमले नवम्यां शुक्रवासरे ।
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अनुसन्धान-७७
कृत्वा प्रतिष्ठां ते प्रापुः प्रतिष्ठां भुवि भूयसीम् ॥२०॥
चतुर्भिः कलापकम् । तस्यां प्रतिष्ठिकायामस्माभिः सच्च यद्यदुपदिष्टम् ।
वाचामगोचरतरं तत्कियल्लिख्यते यत्र (पत्रे) ॥२१॥ अथ च -
कुर्वत्सु च क्रियाकाण्डं विनेयान् पाठयत्सु च । कारयत्सु जिनेन्द्रार्चा जिनेन्द्रभुवनेऽनघे ॥२२॥ त्रिभिविशेषकम् । भाणयत्सु च श्राद्धार्भान् षडावश्यकमुत्तमम् । श्राविकाणां जिनेन्द्राणां गीताद्युपदिशत्सु च ॥२३॥ एवमनारतमाविःकृतसस्नेहं सरणरणकं च । प्रचलत्सु धर्मकर्मसु समागमत् पर्वणां नेता ॥२४॥ त्रिभिर्विशेष्यकम् । तदागमेऽथ श्रीसङ्घः सर्वत्रामारिघोषणाम् । अवादयज्जगज्जन्तु-जीवातृकसहोदरीम् ॥२५॥ तदा दोसी गुलालाख्यः कल्पसूत्रं निजे गृहे । नीत्वा तस्य महो जागादि सर्वमचीकरत् ॥२६॥ प्रातर्गजारूढकुमारहस्त-संन्यस्तपुस्तः ससमस्तसंघः अनस्तभावः स च कल्पसूत्र-मस्मत्करेऽदाद्विशदागमं तत् ॥२७॥ अस्माभिस्तत्सदाख्यातं व्याख्यातं संघसंसदि । व्याख्यानदशकैः पूजा-प्रभावनाप्रभावितैः ॥२८॥ सांवत्सरिकपर्वाहे सूत्रितं ज्ञानसिन्धुना । सूत्रतः श्रीकल्पसूत्रं गच्छसूत्रविदा हृदा ॥२९॥ चैत्यप्रपाटिकामथ बंधुद्वानं गुरोश्च गुणगानम् । क्षामणदानपुरस्सर-सांवत्सरिकप्रतिक्रमणम् ॥३०॥ मोदकपेटकपूगैः सांवत्सरिकप्रदानमुत्तानम् । सविवेकी श्रीसङ्घः सदा सुरङ्गः प्रकुरुते स्म ॥३१॥ युग्मं पारणाधिकारः । राधामायाः पारणकं गान्धिको वीरपालोऽपि । लोपितकर्मवितानः सत्पक्वान्नैर्ददाति स्म ॥३२॥
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जून - २०१९
दत्ते स्म सवजीया पारणकं ज्येष्ठशुद्धराकायाः । ज्येष्ठवदिपाक्षिकस्य च सा. सचवीरो महाभक्त्या ||३३|| आषाढचतुर्मास्याः पारणकं सप्तभेदपक्वान्नैः । अददात् सा. वेलजीको रत्नं सा. रत्नजिद्वंशे ॥३४॥ आषाढवदिकपाक्षिक-पारणकं सा. अभा प्रददौ । श्रावणराकाभुक्तिं सा. पनजी हेमजित् प्रददे ॥३५॥ असितश्रावणपाक्षिक- पारणकं सत्सुखी सखीगोडी । त्रेलाधरपारणकं प्रत्तं माणिक्यसंज्ञेन ||३६|| अदित श्रेष्ठी (ष्ठि) कल्याणो दीपचन्द्रः सुबान्धवः । श्रीवार्षिकपारणकं मनोमोदकमोदकैः ॥३७॥ सबलीकर्तुं पारणगर्वं स्वधर्मचन्द्रच्छ्रेष्ठी । पनजीपुत्रः प्रादात् पारणकं दुर्बलाष्टम्याः ||३८|| तप्तं तपः सुजप्तं द्वाभ्यां विधिना च विंशदुपवासं । श्राद्धीपञ्चकमर्घ्यं पक्षक्षपणं तपस्तेपे ॥३९॥ तद्वद्दशोपवासं श्राद्धीदशकं तपः प्रतपते स्म । सप्तदशाष्टाहिकका दशभक्तं पञ्चदशसंख्यम् ॥४०॥ संख्यातीतानि जातानि षष्ठाष्टमतपांस्यपि । जज्ञे विविधपक्वान्नैर्भक्तिरष्टमकारिणाम् ॥४१॥ संशीलयन्ति शीलं सत्यं धना: (न्याः) श्रावकाः श्राद्भूयोऽपि च महासत्यः सत्यं शीलं न भिन्दन्ति ॥४२॥ दातव्यं लातव्यं परिहर्तव्यं तथा च कर्तव्यम् ।
दानं ज्ञानं मानं ध्यानं स्याद् भावना भविनाम् ॥४३॥ एवमत्रत्यं सत्कृत्यं पार्वणं नु निवेदितं । भवद्भिस्तच्च, तत्रत्यं कर्त्तव्यं पत्रगोचरम् ॥४४॥
अत्रत्यानां मुनिश्रीसुन्दरसागरगणि-मुनिश्रीललितसागरगणि-मु.
मु. वलभसागरजी मु.
गुलालसागरगणि मुनिश्री कपूरसागरगणि ज्ञानसागरगणि मु. हितसागरगणि मु. विमलसागरगणि चिरं. कृपाचंद-कस्तूरचंदप्रभृतीनां वन्दना ज्ञेया । संघस्य धर्मलाभो लाभ्यः ।
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अनुसन्धान-७७
मुनिश्री ललितसागरगणिलिखितं । मु. कपूरसागरगणिनी वंदणा ।
[अहीं पत्र पूरो थाय छे. ते पछी सं. १७८१नी पर्वतिथिनी टीप लखी छे. तेनी नीचे अन्य हस्ताक्षरमां एक पत्र लखायेलो छ :]
तथा तुमे योग्य, गीतारथ, गरढा, डाहा, चतुर पाटभक्त छो. तुमनै श्री मांडवीनौ आदेश छे ते प्रीछजो. तथा तमारुं पत्र १. हीरसागर हस्ते आव्युं तेहथी समाचार सर्व जाण्या, पणि तुमे डाहा हता अनै एहनै इहां मोकल्यौ ए नहतुं घटतुं । क्षेत्रनुं समाधान करीनैं मूक्यो होते तो जिम तुमे लिखत तिम करत, पणि क्षेत्रनुं समारवै तुमे सर्व वातै समर्थ हता अनैं पडतुं मेल्युं ते तुमनै न घटै. माटै एहनौ उद्यम करवो सही २. मु. प्रेमसागर - मु. सहजसागरनै साता पूछवी । वलता पत्र संभारी लिखवा । पोस वदि १३ गुरौ. ठा. वीरानै उपगार करावजौ ।
जैन देरासर नानी खाखर-३७०४३५
कच्छ, गुजरात
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जून - २०१९
१२ बोल - पट्टक : बालावबोध
- सं. मुनि श्रुताङ्गचन्द्रविजय (सोमशिशुः)
__ प्रस्तुत कृति 'बार बोलनो पट्टक'ना बालावबोधरूप छे. जगद्गुरु श्रीहीरविजयसूरीश्वरजीओ सं. १६४६ना पोष शुदि १ने दिवसे शुक्रवारे पाटणमां तपगच्छनो चतुर्विध संघ एकठो करी जैन संघनी अकता माटे बार बोलनो पट्टक बनाव्यो हतो.
आ पट्टक पर पंडित श्रीशुभविजयजीओ सं. १६८०मां बालावबोध रच्यो छे. पंडित श्रीशुभविजयजी जगद्गुरु श्रीहीरविजयसूरीश्वरजीना शिष्य छे. (जैन परम्परानो इतिहास, भाग-३ पुस्तकमां पृष्ठ ३६४ पर पण्डित श्रीशुभविजयजीने महो. श्रीकल्याणविजयजीना शिष्य बताव्या छे परन्तु श्रीशुभविजयजी रचित 'सेनप्रश्न'नी अने प्रस्तुत कृतिनी प्रशस्तिमां ग्रन्थकार श्रीशुभविजयजी पोताने श्रीहीरविजयसूरीश्वरजीना शिष्य ज दर्शावे छे, महो. श्रीकल्याणविजयजीनो नामोल्लेख पण नथी करता.) 'सेनप्रश्न'नी प्रशस्ति अनुसार श्रीशुभविजयजीओ तर्कभाषावार्तिक, काव्यकल्पलतामकरन्द, स्याद्वादभाषासूत्र तथा तेनी वृत्ति, काव्यकल्पलतावृत्ति इत्यादि ग्रन्थोनी रचना करी छे.
प्रस्तुत कृतिनी रचनाशैली आ प्रमाणे छ : पहेलां जे-ते बोलनी जरूर शा माटे छे ते जणावी, त्यारबाद बोलनुं समर्थन करनारा शास्त्रपाठो आपी, ते शास्त्रपाठोनुं यथायोग्य विवेचन करी, अन्ते बोलनो उल्लेख कर्यो छे. शास्त्रपाठोने जोता ग्रन्थकारश्रीनी विद्वत्तानो सहजताथी ख्याल आवी जाय छे.
आचार्य श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिजी महाराजे प्रस्तुत कृतिना सम्पादन माटे पोताना अंगत संग्रहमांथी प्रत आपी छे. पूज्य आचार्य महाराजे तथा मुनिश्रीत्रैलोक्यमण्डनविजयजी महाराजे प्रस्तुत कृतिनुं सम्पादन करवामां घणी मदद करी छे. ते माटे हुं तेओश्रीनो खूब ऋणी छु.
अन्ते, हस्तप्रत-सम्पादननो आ मारो पहेलो ज अनुभव छे. तेथी आमां घणी बधी क्षतिओ रही गई हशे. ते माटे क्षमा करवा अने ध्यान दोरवा विद्वज्जनोने नम्र विनंति.
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अनुसन्धान-७७
भट्टारकपुरन्दरभट्टारकश्रीहीरविजयसूरीश्वरपट्टालङ्कारहारभट्टारकभट्टारकश्रीविजयसेनसूरीन्द्रतत्पट्टपूर्वाचलसहस्रांशुसमानसम्प्रतिविजयमानभट्टारकश्रीविजयदेवसूरिगुरुभ्यो नमः ।
___ बार बोलनुं अर्थ लिखीय छइ । यथा - "फरुसवयणेण दिणतवं अहिक्खिवंतो हणइ मासतवं । वरिसतवं सवमाणो हणइ हणंतो अ सामन्नं ॥३४॥"
इत्युपदेशमालाद्वितीयशतके । एहनुं अर्थ लिखीय छइ । कठिन वचन बोलइ तेह- आखा दिवसनुं तप कीधु हुइ, ते फोक थाइ । तिरस्कार- वचन बोलइ तेहनु मसवाडा- तप फोक थाइ । शापर्नु वचन बोलइ तेनु वरस दिवस, तप फोक थाइ । जे क्रोधि करीनइं रचरस्ति पर प्रति हणइ-मारइ तेहy चारित्र फोक थाइ ॥१॥ तथा - "कुंभभित्तिशकलेन किल्बिषं बालकस्य जननी व्यपोहति । ओष्ठतालुरसनाभिरुष्टता दुर्जनेन जननी तिरोहिता ॥"
इति सूक्तावलीग्रन्थे ( )। एहनु अर्थ - माता बालकनी विष्टा बि ठीकरानइ पटंतरइ करीनइ ऊसारइ छइ पणि जे परन्नु अपवाद बोलइ छइ ते पोतानइ बेहु होठे तालुई जिह्वाइं करीनइ परना अवगुणरूप विष्टा ऊसारइ छइ । ते माटि विष्टानी ऊसारनार माताथी अधिक अपवादनु बोलनार ज्ञानवंति कहउ ।।२।। तथा - "तहेव काणं काणित्ति पि(पं)डगं पि(पं)डगत्ति वा । वाहिओ(अं) वा वि रोगित्ति तेणं चोरित्ति नो वए ॥"
इति दशवैकालिके (सप्तमाध्ययनम्-१२) एहनु अर्थ लिखीय छइ । काणानई काणो न कहीइ । नपुंसकनई नपुंसक न कहीइ । रोगिआनई रोगिओ न कहीइ । चोरनइ चोर न कहीइ ॥३॥
तथा - "देवे(वा) णं भंत(ते) ! संजय त्ति वत्तव्वं सिया? गोयमा ! णो यम(तिण)ढे समटे, अब्भक्खाणमेयं । [देवा णं भंते !] असंजय त्ति वत्तव्वं सिया? गोयमा ! णो यम(तिण)ढे समढे, निट्ठरवयणमेयं । [देवा णं भंते !
१. मासक्षमणर्नु ।
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जून - २०१९ संजयाऽसंजया(य) त्ति वत्तव्वं सिया? गोयमा ! णो तिणढे समढे, असब्भूयमेयं ।] देवा णं भंते ! किं खाइ णं देवा वत्तव्वं सिया? (से किं खाइ णं भंते ! देवा इति वत्तव्वं सिया ?) गोयमा ! देवा णं नोसंजया इति (इ) वत्तव्वं सिया ।" इति श्रीभगवतीसूत्रपञ्चमशतकचतुर्थोद्देशके ।
एहनु अर्थ – श्रीमहावीर प्रति गौतम पूछइ छड् – “जे देवता संयति कहीइ?" भगवंत कहइ छइ - "ए अभ्याख्यान कुडुं आल वचन थाइ ते माटइ संयति न कहीई" | तिवारइ गौतमइं पूछिउं - "असंयति कहीइ ?" भगवंत कहइ - "निठ्ठरवचन-कठिनवचन ते माटइ असंयति न कहीइ।" "खाइ कहतां वली देवतानइ स्युं कही बोलावीइ ?" एहवं गौतमइ पूछिउं । तिवारिं भगवंति कहउं - "देवतानइ नोसंयति कहीइ" । इत्यादिक सिद्धांतप्रकरणनइ विषइ कठिन वचन बोलवू निषेध्युं छइ । अनई कुणि किं "परपक्षीनी प्रतिमा होलीना राजानइ सरखी" एहवां घणां कठिन वचन पोतानां कीधां शास्त्रनइ विषइ लिख्या छइ । ते माटई श्रीहीरविजयसूरीश्वरइं प्रथम बोलनइ विषइ लिख्यउं छइ - "परपक्षीनइं कुणिं कठिन वचन कहिवू नही ।" ॥ ए प्रथम बोल ॥
तथा आपणां पिआरां धर्मकार्य अनुमोदवाना अक्षर लिखीयइ छइ । यथा - "जिणजम्माइ[सु] ऊसव-करणं तह महरिसीण पारणए ।
जिणसासणंमि भत्तीए(भत्ती)-पमुहं देवाण अणुमन्ने ॥३०८|| तिरिआण देसविरई पज्जंताराहणं च अणुमोए । सम्मइंसणलंभं अणुमन्ने नारयाणं पि ॥३०९।। सेसाणं जीवाणं दाणरुइत्तं सहावविणिअत्तं । तह पयणुकसायत्तं परोवगारित्तभव्वत्तं ॥३१०॥ दक्खिन्नदयालुत्तं पियभासित्ताइ विविहगुणनिवहं । सिवमग्गकारणं जं तं सव्वं अणुमयं मज्झ ॥३११।। इय परकयसुकयाणं बहूणमणुमोअणा कया एवं । अह नियसुचरियनियरं सरेमि संवेगरंगेणं ॥३१२॥ एमाइ(ई) अण्णं पि अ जिणवरवयणानुसारि जं सुकडं । कय कारिअ अणुमोइअ महयं तं सव्वमणुमोए ॥३१३ (३६९)।
इत्याराधनापताकायाम् ।
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एहनु अर्थ - जिणशासननइ विषइ भक्ति करीनइं तीर्थंकरना जन्ममहोत्सव, महाऋषीश्वरना पारणाना महोत्सव प्रमुख देवता करइ छइ, ते अनुमोदउं छु । तिर्यंचनी देशविरतिपर्यंताराधन तथा नारकीनइ सम्यक्त्वनु लाभ अनुमोदउं छु । बीजा जीवना दानरुचिपणुं, स्वभावि विनीतपणुं, अल्पकषायिपणुं, परोपकारीपणुं, भव्यपणुं, दाखिणालुपणुं, दयालुपणुं, प्रियभाषीपणुं इत्यादिक विविध गुणना समूह मोक्षमार्ग, कारण ते सघलुं मुझनइ अनुमोदq होइ । [इ]णि मेलि परनां कीधां घणां जे सुकृत, तेहनी अनुमोदना कीधी । अथ पोताना कीधा सुकृतनो समूह, ते संवेगरंगि करीनई संभारुं छु इत्यादिक । अन्यइ पणि जिनवचननइ अनुसारि जे पुण्यकरणी कर्यु, कराव्युं, अनइं अनुमोदिउं हुइ; ते सघलुं अनुमोदउं छउं॥ तथा - "अहवा सव्वं वि चिय वीयरायवयणाणुसारि जं सुकडं । कालत्तए वि तिविहं अणुमोएमि तयं सव्वं ॥४७॥"
इति चतुःशरणप्रकीर्णके । एहनु अर्थ - सघलुं वीतरागवचननइ अनुसारि जे सुकृत जिनभवनबिंब कराववां, तेहनी प्रतिष्ठा, पुस्तक लखाववां, तीर्थयात्रा, संघवात्सल्य, जिनशासनप्रभावना, ज्ञानादिकनु उपबंभ धर्मसांनिध्य क्षमा-मार्दव-संवेगादिरूप, मिथ्यादृष्टिसंबंधि पणि मार्गानुसारि धर्मकार्य, त्रण्य कालनइ विषइ मनवचन कायाई करीनइं कर्यु, कराव्युं, अनुमोदिउं हुइ, ते सघलुं अनुमोदउं छु ॥२॥
तथा - "अणुमोएमि सव्वेसि अरहंताणं अणुठा(ट्ठा)णं, सव्वेसि सिद्धाणं सिद्धभावं, *एवं सव्वेसि इंदाणं, सव्वेसि जीवाणं मग्गसाहणजोगे होउ मे एसा अणुमोअणा सम्मं विहिपुव्वी(व्वि)आ।" इति पञ्चसूत्रके प्रथमसूत्रे ।
एहनु अर्थ - सघलाइ अरिहंतनुं अनुष्ठान धर्मकथादि, सघलाइ सिद्धनु सिद्धपणुं अव्याबाधादिरूप इत्यादि, तथा सघलाइ जीवना मार्गसाधन योगसातत्यइ कुशल व्यापार ते अनुमोदउं। मिथ्यादृष्टिना पणि गुणस्थानकनी अनुमोदना सम्यग् विधिपूर्वक शास्त्रनि अनुसारि हो ॥३॥
‘एवं सव्वेसिं इंदाणं' इति पाठः सम्प्रति पञ्चसूत्रे न दृश्यते । तथा चाऽस्य पाठस्याऽर्थोऽपि अत्र न कृतः ।
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तथा - "पञ्चमतिशाववधिकतरोद्योतक(?)श्चरकपरिव्राजकादिधर्मस्तस्य मिथ्यात्वतमोभृत्त्वेऽपि तादृक् क्षमाशमेन्द्रियदमसर्वजीवानुकम्पापरिणामभवनिर्वेदादिरूपाधिक्योद्योतकत्वात् । एतद्धर्माराधकास्तामलिऋष्यादयो बहुशुद्धि]परिणामाः प्रतिपादिताः स्वागमेऽपि ।" इत्युपदेशरत्नाकरे ।
एहनुं अर्थ श्वेत पंचन नीरादिनी (?) परि अधिकतर उद्योतक चर[क]परिव्राजकादिकनु धर्म छइ जे मार्टि ते धर्मतइं मिथ्यात्वरूप अंधकारिं व्यापवापणुं थकइ पणि तथाविध क्षमा, उपशम, इंद्रियदमन, सर्वजीवदयापरिणाम, भवनिर्वेदादिरूप अधिक उद्योतकपणा थकी ए धर्मना आराधक तामलि ऋषीश्वर प्रमुख घणुं शुद्धपरिणामवंत कह्या छइ सिद्धांतनइ विषइ ॥४॥ तथा- "पावंति जसं असमंजसा वि वयणेहिं जेहिं परसमया । तुह समयमहोअहिणो ते मंदा बिंदुनिस्संदा ॥"
इति धनपालपञ्चाशिकायाम् । एहनु अर्थ - विसंस्थ(स्थु)लपणि परना सिद्धांत चंद्रसूर्यग्रहणादिकरूप जिणि वचनि करीनइ यश पामइ, पछइ ते वचन मंद स्तोक प्रकाशक ताहरा सिद्धांतरूप महासमुद्रना बिंदुआनो रस ॥५॥ तथा- "सव्वप्पव्वायमूलं दुवालसंगं जओ समक्खायं । रयणायरतुल्लं खलु तं सव्वं सुंदरं तम्मि ॥"
इति श्रीह[रि] भद्रसूरिकृतोपदेश[पद]प्रकरणे [६९५]। एहनु अर्थ - सघलाई प्रवादनुं मूल बा(बौ)द्ध, न(नै)यायिक, सांख्यादिदर्शननु आदि कारण ते कुंण? द्वादशांग कहउं सिद्धसेनदिवाकरादिकई । एतला माटइं रत्नाकरनई तुल्य क्षीरोदधिप्रमुख समुद्रनई सरखं खलु-निश्चयिं । ते माटई सघलुंइ जे काइ प्रवादांतरनइ विषइ सुंदर दीसइ ते द्वादशांगीमाहिलं जाणवू । तेहनी अवज्ञा करतइ तीर्थंकरनी अवज्ञा थाइ ।।६।।
तथा
"मिथ्यादृशोऽपि हि वरं कृतमार्दवा ये सम्यग्दृशोऽपि न वरं(राः) कृतमत्सरा ये । ते मेचका अपि शुकाः फलशालिभोज्या भव्याः सिता अपि बका न हि मीनभक्ष्याः ॥
इति सूक्तावलीग्रन्थे ।
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अनुसन्धान-७७
एहनु अर्थ - सरलस्वभावी मिथ्यादृष्टिइ भला, पणि मत्सरवंत सम्यग्दृष्टीइ भला नही । जिम काला सूडला भला जे मार्टि फल, शालि खाइ, पणि उजलाई बगलां भला नही जे मार्टि माछलां खाइ ॥७॥
तथा जे कहइ छइ मिथ्यात्वीप्रमुखनुं धर्मकरणी अनुमोदीइ नही, ते खा(खो)टुं । जे कोइनो थोडोइ गुण होइ ते शास्त्रि अनुमोदवु कहउं छइ । यथा- "दंसणनाणचरित्ते तवविणयं जत्थ जत्तियं जाण । जिन(ण)पन्नत्ते भत्तीइ पूअए तं तहिं भावं ॥"
इति बृहत्कल्पभाष्यतृतीयखण्डे । एहनु अर्थ - ज(ज्ञा)न, दर्शन, चारित्र, तप, विनय पार्श्वस्थादिकनइ विषइ ते(जे)तलु जाणीइ तेतलु भाव-भक्ति करीनई पूजवउं मानवउं ॥८॥
तथा नयसार, धनश्रेष्ठि, संगमादिक मिथ्यात्वि- पणि दान घणा ग्रंथनइ विषइ अनुमोदीउं दीसइ छइ ॥९॥
तथा तीर्थंकरना पारणानइ विषइ, सातिशय साधुना पारणानइ विषइ, पंचदिव्यनी वेलाइ "अहो दानम् अहो दानम्" ए उद्घोषणापूर्वक अभिनवश्रेष्ठिप्रमुखनां दान देवताई शास्त्रनइ विषइ अनुमोद्या दीसइ छइ । तिमज साक्षात्पणि श्रीआचारांगवृत्त्यादिकनइ विषइ साधुइं अनुमोदीउ दीसइ छइ । जे शीतकालिं साधुनइं अग्निशकटी, निमंत्रण कीg तिवारइ साधुइ कउं- "मुजनइ न कल्पइ पणि ति पुण्यप्राग्भार उपराज्यु" ॥१०॥
____ तथा श्रीमुनिसुंदरसूरिं उपदेशरत्नाकरग्रंथनइ विषइ जिनशासनना प्रभावक कह्या छइ, ते मध्ये सातिशयचारित्री श्रीजिनप्रभसूरि आण्या छइ । एतला माटइ कुणिं किं अज्ञानपणि कदाग्रहबुद्धि करीनइ स्वकृतग्रंथनइ विषइ श्रीमुनिसुन्दरसूरीश्वरनइ अज्ञानी कह्या छइ । ते कहनार केवल अभिनिवेशग्रस्त जाणवू ॥११॥ तथा- "श्रीसूरयः केऽपि कलौ युगेऽभवन् दीपा इव श्रीजिनशासनौकसि। ___ अत्रोच्यते म्लेच्छपतिइ(प्र) बोधकृ-ज्जिनप्रभः सूरिवरो निदर्शनम्॥[६८]
इत्यादिक अक्षरनइ अनुसारइं श्रीसोमप्रभसूरिं उत्सूत्रभाषी श्रीजिनप्रभसूरिनी अनुमोदना कीधी छइ । इति श्रीसोमसुन्दरसूरिशिष्योपाध्यायश्रीचारित्ररत्नगणितच्छिष्यपण्डितश्रीसोमधर्मगणिविरचिता
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यामुपदेशसप्ततौ तृतीयगुरुतत्त्वाधिकारे ॥१२॥
इत्यादिक ग्रंथाक्षरनि अनुसारइं करीनइ मिथ्यात्वीनां परपक्षीनां पोतानां धर्मकर्तव्य अनुमोद्यां दीसइ छइ । ते माटि श्रीहीरविजयसूरीश्वइं बीजा बोलनइ विषइ लिख्युं छइ - "जे परपक्षीकृत धर्मकार्य सर्वथा अनुमोदवा योग्य नही इम कुणिं कहवू नही । जे मार्टि दानरुचिपणुं, स्वभावि विनीतपणुं, अल्पकषायिपणुं, परोपकारिपj, भव्यपणुं, दाखिणालुपj, दयालुपणुं, प्रियभाषीपणुं इत्यादिक ये ये मार्गानुसारी धर्मकार्य ते जिनशासनथी अनेरां समस्तजीवसंबंधीआं शास्त्रनइ अनुसार अनुमोदवा योग्य जणाइ छइ । तो जैनपरपक्षीसंबंधी मार्गानुसारी धर्मकर्तव्य अनुमोदवा योग्य हुइ ए वातनुं स्युं कहवू ?
इहां 'मार्गानुसारि' शब्दनुं स्यु अर्थ ते लिखीइ छइ - "जीवदया, दानादिक ये ये वीतरागवचननई अनुसरतां साधारण धर्मकार्य ते मार्गानुसारि कहीइ ।" तथा- "मार्ग-तत्त्वपथमनुसरति-अनुयातीत्येवंशीलं मार्गानुसारीति ।"
___ इति तृतीयपञ्चाशकवृत्तौ । एहनु अर्थ- 'मार्ग'शब्दइ तत्त्वमार्ग-जिनप्रवचन, तेहनइ अनुसरतांआश्रयतां ये ये धर्मकार्य ते 'मार्गानुसारी' कहीइ । अनइ उपदेशपदवृत्तिनइ विषइ पणि 'मार्गानुसारी' शब्दनु इम ज अर्थ वखाणु छइ । ते मार्टि शास्त्रवीइं 'मार्गानुसारी' शब्दनु एह ज अर्थ सत्य करी मानवु || ए बीजो बोल ॥
___ तथा पोसामाहिं बिसणुं करवु आवश्यकचूर्णिवृत्तिप्रमुख ग्रंथनइ विषइ कहउं छइ । तथा शास्त्रमध्ये सोपर्मि-नोपकर्मि' आउखानो विचार कहउं छइ । इत्यादिक बोल शास्त्रनइ विषइ कह्या छइ । ते जाणवास्वरूप पणि प्रकासवास्वरूप नही । अनि कोएक नवी नवी प्ररूपणा करता ते मार्टि श्रीहीरविजयसूरीश्वरइ त्रीजा बोलना(न)इ विषइ लिखिउं छइ जे- "गच्छनायकनइ पूछ्या विना किसी शास्त्रसंबंधिनी नवी प्ररूपणा कुणइ न करवी ।" ॥ ए त्रीजो बोल ॥
तथा हवडां गच्छनायकनी दीक्षा विना योगवहनादिक क्रियानुष्ठान करिउं न सूझइ, ते अक्षर किहा सूत्रमांहि छइ ? ।१।
१. सोपक्रम-निरुपक्रम ।
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तथा सभामध्ये नववखाणे कल्पसूत्र वांचु छु ते अक्षर किहां सूत्रमांहि छइ ? साहामु निशीथचूर्णिमांहिं नववखाणे सभासमक्ष श्रीकल्पसूत्र वांचइ तेहनइं प्रायश्चित्त कहउं छइ । तउ सभासमक्ष किम वांचउ छउ ।२।
तथा कालग्रहणपूर्वक रात्रि श्रीकल्पसूत्र वांचवु कहउ छइ, अनइ हवडां कालग्रहण पाखि दिवसि कल्पसूत्र वांचउ छउ, ते अक्षर किहां सिद्धांतमांहिं छइ? ॥३॥
तथा "ठवणी मांडु छु', ते अक्षर किहा सिद्धांतमांहि छइ ! ।४।
तथा मोरपीछानां डंडासणां वावरो छउं, ते अक्षर किहां सिद्धांतमांहि छइ ? ५।
तथा शलीइं कान वधारवा कीद(हां) सिद्धांतमांहिं छइ ? ।६।
तथा स्वर्गप्राप्त साधुनुं शरीर परठववाना अक्षर सिद्धांतमध्ये छइ अनि हवडां अग्निसंस्कार थाइ छइ, ते अक्षर किहां सिद्धांत किहा प्रकरणमांहिं छइ ?
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तथा "उपधान वह्या विना नमस्कारादिक सूत्रां भणइ तु अनंत संसार वधारइ" एहवा अक्षर महानिशीथमध्ये छइ अनि हवडां उपधान वया विना नुकारप्रमुख सूत्रां समस्त श्रावक-श्राविका भणइ छइ अनइ भणावु छु, ते अक्षर किहा सूत्रमांहिं छइ ? ।८
तथा "छासि त्रिविहारमांहिं कल्पइ" एहवा अक्षर श्राद्धविधिप्रमुखनि विषइ छइ अनि हवणां पाणीना आहारमांहिं छासि नथी लेवाती ते स्युं कारण? ।९।
तथा 'गुल दुविहारमांहिं कल्पई' एहवा अक्षर भाष्यादिक ग्रंथमध्ये छ। अनि हवडां गुल अशनमध्ये गणइ छइ, दुविहारं कल्पावती नथी, ते अक्षर किहां सूत्रमांहि छइ ? ।१०।
इत्यादिक बोल सिद्धांतमध्ये कह्या नथी, अनि हवडां केटलाएक बोल शास्त्रमाहिं कह्या छइ, ते करतां नथी । ते आचरणाइं गुरुनी परम्परा जिम मानीय छइ तिम ज श्रीहीरविजयसूरीश्वरइं चोथा बोलनइ विषइ लिखिउं छइ । जे दिगंबरना चैत्य (१) केवल श्राद्धप्रतिष्ठित चैत्य (२) द्रव्यलिंगीनइं द्रव्यइं निष्पन्न
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चैत्य - ए त्रण्य टालीनई, बीजां खरतरप्रमुखनां चैत्य वांदवा-पूजवा योग्य कह्यां छइ ते मानवा । ए वातनी कुणि शंका न करवी । जे माहि आचरणानुं लक्षण कल्पभाष्यनइ विषइ कहउं छइ - यथा - "असढेण समाइन्नं जं कत्थ य केणइ असावज्जं ।
न निवारिअमन्नेहिं बहुमणुमयमेयमायरिअं ॥" एहनु अर्थ – अशठ गीतार्थि-अमायि गीतार्थि कुणिं कि जिणइं कालिं क्षेत्रिं असावद्य-पापरहित कार्य आचर्यु हुइ, अनई बीजि कुणि गीतार्थि वारिउ न हुइ, अनि घणि मान्युं हुइ, ते 'आचरणा' कहीइ, अनि एहवी जे आचरणा ते जिनाज्ञा-समान ज कहीइ, एहवं भाष्यादिकनइ विषइ कहउं छइ । यथा - असाढइन्नणवज्जं गीअत्थअवारिअं ति मज्जत्था ।
'आयरणा वि हु आण'त्ति वयणओ सुबहु मन्नंति" ॥४९॥ इति ।
एहनु अर्थ - अशठ गीतार्थि आचर्यु जे कार्य, अनि गीतार्थिं वारिउं न हुइ, मध्यस्थपणा जिननी आज्ञा कहीइ । एहवां वचन मार्टि घणुं ज आचरणा मानवी ते माटिं पहला १० बोल जे न मानइ ते गुरुपरम्परालोपी, तीर्थंकरनी आज्ञाना विराधक कहीइ तिम श्रीहीरविजयसूरि चैत्य ३ टालीनइ बीजां चैत्य वांदवा-पूजवां कह्या छइ अनइं जे न वांदइ - न पूजइ ते गुरुपरम्परालोपी, तीर्थंकरनी आज्ञाना विराधक कहीइ ।
तथा 'द्रव्यलिंगीनइ द्रव्यइ निष्पन्न चैत्य' एहनु अर्थ कोइक विपरीत करइ छइ । जे द्रव्यलिंगी खरतरप्रमुखना यति अनि तेहनु द्रव्य श्रावक तेहनां कराव्यां चैत्य निषेध्या छइ ए अर्थ खोटु जाणवु । जे मार्टि खरतरप्रमुखनां चैत्य निषेध्या तु बीजां वांदवा-पूजवां योग्य कह्यां ते किहा - ए पूर्वापर विरोध उपजइ, ते मार्टि एहनु अर्थ द्रव्यलिंगी माहात्मा तेह- द्रव्य कामण, टुमण, वशीकरण, पुस्तकलिखनादिकथी उपनु, तेहइ नीपनी प्रतिमा ते वांदवी निषेधी छइ । तिवारिं पूर्वापर विरोध टल्यु । अनइ जिम प्रश्नव्याकरणांगिं प्रथम आश्रवद्वारिं 'विहार' शब्द अ(आ?)ण्यु छइ, एहनु अर्थ कल्पसूत्र नाममालाप्रमुख ग्रंथमध्ये 'विहारो जिनसद्मनि' ए वचन माटिं जिननु प्रासाद, ते 'विहार' कहीइ । तिवारं जिनप्रासाद पापनुं हेतु थाइ, अनि तृतीय संवरद्वारि 'चेइअढे निज्जरडे' इम कहउं छइ, तिवारं जिनप्रासाद पुण्यनुं हेतु थाइ, तिवारि पूर्वापर विरोध
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उपजइ अनि सुधर्मस्वामिनां वचन तु पूर्वापरि विरोधी न हुइ, ते मार्टि इहां 'विहार' शब्दि 'बौद्धना घर' कहीइ एहवु अर्थ वखाण्यु छइ, तिवारि पूर्वापर विरोध टलु । अनि ए अर्थ मुकीनइ शास्त्रनि अनुसारइ 'विहार' शब्दि 'जिनप्रासाद' अर्थ करइ ते उत्सूत्रभाषी कहीइ। तिम 'द्रव्यलिंगी' शब्दि इहां 'महातमा' ज कहीइ ए अर्थ मुकीनइ बीजु अर्थ करइ ते उत्सूत्रभाषी कहीइ । तथा कोएक 'द्रव्यलिंगीनइ द्रव्यई निष्पन्न चैत्य'नु एहवु अर्थ करइ छइ जे द्रव्यलिंगीनउ द्रव्य श्रावक तेणइ करावी प्रतिमा वांदवी-पूजवी नही । तेहनइ मति वृद्धशालिक-लघुशालिक-कमलकलसा प्रमुखनी वांदवानु निषेध थाइ जे माटइ उपाध्यायश्रीधर्मसागरगणि स्वकृत-षोडशकश्लोकीवृत्तिनइ विषइ कहउं छइ जे "तपोवन्नाममात्रधारकपार्श्वस्थादिलक्षणे तीर्थाभासे तीर्थो" इणि पव(ठ)निं करीनइ वृद्धशालिक-लघुशालिकप्रमुखनइ पासत्था कह्या छड़, अनि पासत्था तु द्रव्यलिंगी कहीइ तिवारिं तेहनी प्रतिमा वा(वां)दवानु निषेध थाइ तु तेहनी प्रतिमा किम वांदउ छउ ? ते पूछयूँ । अनइ लघुशालिकप्रमुख तु सुविहित छइ सहु को तेहनी प्रतिमा वांदइ छइ । ते मार्टि ए स्वमतिकल्पित अर्थ जाणवु । अनि वली तेहना घरनो आहार लीइ तेहनइ द्रव्यलिंगीना द्रव्यनु भक्षण थाइ अनि जे द्रव्यलिंगीनो द्रव्य खाइ तेहनइं महादूषि]ण कहउं छइ अनि आपणे पूर्वाचार्यि खरतरप्रमुखना घरनु आहार लीधु छइ अनि हवडाइं पणि आपणा वडा लीइ छइ ते माटि इहां द्रव्यलिंगीनु द्रव्य ते माहात्मानु द्रव्य ए अर्थ इहां सत्य करी मानवु । जिम भोजनवेलाई सैंधव मागइ तिवारिं 'सैंधव' शब्दि बिड-लवणनु अर्थ जाणवु । अनि गामि जाता सैंधव मागइ तिवारि 'सैंधव' शब्दि घोडानु अर्थ जाणवो । तिम इहां 'द्रव्यलिंगीनु द्रव्य' इंणि शब्दि 'माहात्माद्रव्य' ए अर्थ जाणवु ।
. तथा जिम श्रुतदेवता अव्रती, अपच्चखाणी अनि स्त्री; तेहनइ पंचमहाव्रतधारी बहुश्रुत श्रीहरिभद्रसूरि आवश्यकबृहद्वृत्तिनइ धुरइ नमस्कार कीधुं छइ इत्यादिक विषइ पूर्वाचार्यि नमस्कार कीधु छइ, ते सिद्धांतमांहि नथी कहउं, पणिं आचरणाइं पूर्वाचार्यपरंपराई प्रमाण जा[ण]वु । तिम ज 'खरतरप्रमुख परपक्षीनां चैत्य गुरुपरंपराइं वांदवा-पूजवा' ते प्रमाण जाणवां । जे माटि कहउं छइ- "न खलु आज्ञाराधनतोऽन्यः पथः" इति पञ्चसूत्रे तृतीयसूत्रप्रान्ते ।
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तथा जिम लोकनइ विषइ कलंबिनां घरना, रबारिना घरना पाणिइ सहित छासि-दूध, तथा तंबोलिना घरनइ पाणइं छाटा पानवडानी प्रवृत्ति माटइं उत्तम वर्ण सहु को वावरइ छइ, पणि तेहना घरनुं पाणी पिय तु नातिबाहरिनुं दूषण ऊपजइ, तिम खरतरप्रमुखनी प्रतिमा वडानी परंपरा माटइं वांदवी-पूजवी, पणि तेहना यतिप्रमुखनइ वांदवा नही, वांदइ तु दूषण ऊपजइ, ए दृष्टांत सांभलीनइ हठवाद मुंकीनइ धर्मार्थी हुइ, तेणइ गुरुनी आज्ञा प्रमाण करवी । केवल-श्राद्धप्रतिष्ठित चैत्य, इहां 'केवल' शब्दि गुरुना उत्थापक श्राद्ध कडुआमति जाणवा । तिणि प्रतिष्ठि जे प्रतिमा, तेह न वांदवी-पूजवी निषेधी छइ, पणि बीजी कोए निषेधी नथी ते प्रीछयो ॥ ए चोथो बोल ॥
तथा दिगंबरनी प्रतिमा (१), केवलश्राद्धप्रतिष्ठितप्रतिमा (२), द्रव्यलिंगीनइ द्रव्यइ निष्पन्न प्रतिमा (३) कटकमाहिथी आवी हुइ, देवाथी लीधी हुई तथा पडी लाधी हुइ ते गीतार्थ पासिं प्रतिष्ठावीनइ वांदवी-पूजवी शास्त्रमांहिं कही छइ । ते माटि श्रीहीरविजयसूरीश्वरई पांचमा बोलनइ विषइ लिखिउं छइ - "जे स्वपक्षीना घरनइ विषइ पूर्वोक्त त्रण्यनी अवंदनीक प्रतिमा हुइ, ते साधुनइं वासक्षेपि वांदवा-पूजवा योग्य थाइ ॥ ए पांचमो बोल ॥
___तथा रखे कोइनइं एहवी शंका ऊपजइ जे खरतरप्रमुखनी प्रतिमा वांदवी-पूजवी कहिउ तेहनी प्रतिष्ठाइ मानवी थइ तिवारइं खरतरप्रमुखनी प्रतिष्ठाई प्रतिमा प्रतिष्ठावीइ तेहइ वांदवी पूजवा योग्य थाइ, ए शंका टालवानइ काजि अनि खरतरप्रमुखनी प्रतिष्ठा मानवी निषेधवानइ काजि श्रीहीरविजयसूरीश्वरज्ञ छठ्ठा बोलनइ विषइ लिखिउं छइ जे "शास्त्रिं साधुनी ज प्रतिष्ठा छइ" हवइ ए बोल ऊपरि कोएक कदाग्रह करीनइं विपरीत अर्थ करइ जे इणि बोलई खरतरप्रमुख असाधुनी प्रतिष्ठा प्रतिमा वांदवा-पूजवानु निषेध कर्यु छइ, ए अर्थ इहां खोटु जाणवु । जे मार्टि चोथा बोलनइ विषइ श्रीहीरविजयसूरीश्वरज्ञ खरतरप्रमुखनी प्रतिमा वांदवी कही अनई पोतई वांदी तो इहां ते प्रतिमा वांदवानु निषेध किम कहइ ? अनि आपणा पूर्वाचार्य तो एहवा नथी, जे कहइ जुदुं अनइ करइ जुएं । ए पूर्वापर विरोध थाइ अनइं गणधरनां वचन पूर्वापरविरोधि न हुइ । ते माटि ए बोल खरतरप्रमुखनी प्रतिष्ठा मानवी निषेधवानइ कार्यि'
१. काजि ।
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लिखउ छइ, पणि तेहनी प्रतिमा वांदवी-पूजवानी निषेधनइं काजि नथी लिखु, ए अर्थ इहा सत्य करी मानवू । तिवारं पूर्वापरविरोध टलइ अनइ खरतरप्रमुखनी प्रतिमा श्रीहीरविजयसूरीश्वरइ, श्रीविजयसेनसूरीश्वरई वांदी, अनइं संप्रति श्रीविजयदेवसूरीश्वर वांदइ छइ । ते माटि ए बोलनु विपरीत अर्थ करइ छ। ते उत्सूत्रभाषी कहीइ, अनइं उत्सूत्रभाषीनइ तु अनंत संसारनी वृद्धि थाइ । यथा - "उस्सुत्तभासगाणं बोहिनासो अणंत संसारो ।
पाणच्चये वि धीरा उस्सुत्तं ता न भासंति" ॥१॥ इति । तथा देवलोक, भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क, मेरुप्रमुखनइ विषइ जे प्रतिमा छइ ते किहा तीर्थंकरनी ? अनइं किहा साधुनी प्रतिष्ठी छइ ? जिम ते प्रतिमा अणप्रतिष्ठि वडानी आज्ञाइं वांदवा-पूजवा योग्य छइ तिमा(म) कदाग्रहबुद्धि मुकीनई वांदवी-पूजवी, ए वातनी श(शं)का न करवी, गुरुनी आज्ञा सघलइ प्रमाण करवी । यथा - जं किंचि नाम तित्थं सग्गे पायाले(लि) माणसिए (माणुसे) लोए ।
जाइं जिणबिंबाई ताई सव्वाइं वंदामि ॥१॥ यथा वा - कारणविउ(ऊ) कयाइ(ई) सेअं कायं [वयं]ति आयरिया । तं तह सद्दहिअव्वं भविअव्वं कारणेण तहिं ॥ [उपदेशमाला ९५]
॥ ए छठो बोल ॥ तथा श्रावक परपक्षीनी पुत्री परणइ, तेहना हाथनु राध्यु जिमइ छइ अनि पोतानी पुत्री परपक्षीनइं परणावइ छइ, तिहां तेहनो धर्म करइ छइ, ते पोतानइ घर आवी जिमइ छइ, तिवारि सम्यक्त्वादिक धर्म फोक थातो नथी । अनि ए कार्यनइ विषइ सहु को प्रवर्तइ छइ । अनि कोएक कहइ जे परपक्षीनइ जिमवा तेडइ, तेहनु साहामीवत्सल फोक थाइ; ते मार्टि श्रीहीरविजयसूरीश्वरई सातमा बोलनइ विषइ लिखुं छइ - "जे साधर्मिकवात्सल्य करतां स्वजा(ज)नादिक संबंध भणी कदाचित पर[प]क्षीनि जिमवा तेडइ तु ते मार्टि साहमीवत्सल फोक [न] थाइ" ॥ ए सातमो बोल ॥
___तथा आवश्यक प्रवचनसारोद्धारप्रमुख ग्रंथनइ विषइ आठ निह्नव कह्या छइ, अनि कोएक समस्त परपक्षीनइं निह्नव कहइ छइ ते मार्टि आठमा
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बोलनइ विषइ लिरव्यु छइ जे - "शास्त्रोक्त देशविसंवादी निह्नव सात, सर्वविसंवादी निह्नव एक; ए टालिनई बीजा कुणनई निह्नव न कहिदुं ।" ॥ ए आठमो बोल ॥
तथा परपक्षी संघाति दीवाण' जइनि वाद करतां ते थकी घणु कलेस वाधतो, ते माटि नूमा बोलनइ विषइ लिखिउं छइ जे – “परपक्षी संघाति चर्चानी ऊदीरणा कुणिं न करवी । परपक्षी कोइ ऊदीरणा करइ तु शास्त्रनि अनुसार ऊतर देवो, पणि कलेस वाधइ तिम न करवू ।" || ए नूमो बोल ॥
तथा उत्सूत्रकंदकुद्दालग्रंथमांहिला बोलनी कोइक प्ररूपणा करवा लागा ते मार्टि दसमा बोलनइ विषइ लिख्यउं छइ जे - "श्रीविजयदानसूरिं वीसलनगरमध्ये बहुजनसमक्ष जलशरण कीधु जे उत्सूत्रकंदकुद्दालग्रंथ ते, तथा ते माहिलु असंमत अर्थ बीजा कोइ शास्त्रमांहिं आण्यो हुइ तु तिहां ते अर्थ अप्रमाण जाणवू ।" ॥ ए दसमो बोल ॥
तथा कोइक कहइ छइ "[पर]मतीनां संघ साथि श्रीशत्रुजयादिक तीर्थनी यात्रा करइ, तेहनइ यात्रानु फल हुइ नही ते पग घसी आव्या ।" ते मार्टि अग्यारमा बोलनइ विषइ लिखिउं छइ जे – “स्वपक्षीना सार्थनि अयोगि परपक्षी सार्थि यात्रा कर्या मार्टि यात्रा फोक न थाइ ।" || ए अग्यारमो बोल ॥
तथा कोएक कहइ छइ - "जे मतिकृत स्तुतिस्तोत्रादिक मांडलिं कहइ तु पडिक्कमणुं सूझइ नही !" ते माटि श्रीहीरविजयसूरीश्वरई बार[मा] बोलनइ विषइ लिखिउं छइ जे - "पूर्वाचार्यनइ वारइ जे परपक्षीकृत स्तुतिस्तोत्रादिक कहवातां ते कहतां कुणिं ना न कहवी ।" ॥ ए बार बोल ॥
इति श्रीहीरविजयसूरिप्रसादितद्वादशजल्पपट्टकस्याऽयं बालावबोधस्तत्शिष्यश्रीशुभविजयगणिना भट्टारकश्रीविजयदेवसूरीश्वरनिर्देशात् संवत् १६८० वर्षे चैत्रसितद्वितीयायां गुरुवासरे राजनगरे च विहितः स्ववाचनकृते ।
॥ शुभं भवतु ॥ ॥ कल्याणमस्तु ।
१. सरकारी न्यायालये ।
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मंगलदीवो
- सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
कवि देपालकृत 'मंगलदीवो' जैन मन्दिरोमां सदीओथी गवाती एक मंगलमय कृति छे. आरती साथे के अकलो मंगलदीवो उतारवानो (करवानो) होय त्यारे जैन मन्दिरमां आ गीत ज गवातुं के बोलातुं होय छे. ओ रीते आ लघुगीत ने तेना कर्ता कवि देपाल अमर बनी गयां छे. प्रचलित गीत-पाठ करतां जरा जुदो अने लंबाणवाळो पाठ एक फुटकळ पुराणा ह.लि. पत्रमा प्राप्त थतां ते अहीं आपेल छे.
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दिवो रे दिवो मंगलीक दिवो, भुवनप्रकासी जिन चरण(चिरं)जीवो १ चंदा सुरज प्रभु तुम केरा, लुछण करता देइ नित फेरा.. जिन तुज ... सरनी अमरी, मंगलदीपक देती भमरी जिम जिम धुपघटी प्रगटावे, तिम तिम दोहग दूरे जावे नीर अक्षत कुसुमांजली चंदन, धुप दीप फल नेवद वंदन इण परे अष्ट प्रकारी कीजे, पुजा सनात मोच्छव फल लाहो रे लीजे । दीवो उतारणहार बहु चरण(चिरं)जीवो, सोहामणी ए परब दीवाली, ओछव मली मली अबला बाली जे घरे मंगलीक ते घरे मंगलीक, मंगलीक चतुरविध सरव सींघमें कवी दीपालो भणे रंगरसालो, आरती उतारी राजा कुमारपाले
दीवो० इती आरती सम्पूर्ण ॥
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कवि श्रीशुभवीर-कृत राजनगरसत्क चिन्तामणिपार्श्वनाथ स्तवन
- सं. मुनि मुक्तिश्रमणविजय
कविपण्डित श्रीवीरविजयजी-कृत चिन्तामणि पार्श्वनाथर्नु एक अप्रगट स्तवन अत्रे प्रगट थई रयुं छे. आ स्तवनमा केटलीक ऐतिहासिक विगतो नोंधाई छे ते आ प्रमाणे :
१. चिन्तामणि पार्श्वनाथनी श्यामवर्णनी प्रतिमा राजनगरमां छे. २. तेना देरासरनो जीर्णोद्धार वखतशाहना पुत्र सूरजमले कराव्यो हतो. ३. आ प्रतिमा समक्ष देवराज नामक गृहस्थे श्रुतना सागर एवा कोई ज्ञानी आचार्य तरफथी पोताने मळेल १८ अक्षरनो मन्त्र जपीने पोता, दारिद्म शमावेलुं. आ वात पौराणिक कालनी हशे. केम के देवराज राजा होवानो तथा मंत्रजपबळे राज पार्छ पाम्यानो संकेत कविए कर्यो छे. ४. मंत्रसाधना वनखण्डमां वसीने थई होवा- पण कवि दर्शावे छे. तो 'अजपाजापर्नु ठाण मूल गभारो रे' ए पंक्तिथी देरासरना मूळगभारा सन्मुख मंत्रजप नो संकेत पण थाय छे. ढूंकमां, आ स्तवन कोई वीसरायेला इतिहास प्रत्ये आपणुं ध्यान दोरे छे.
आ स्तवननी प्रति पलांसवा (कच्छ)ना श्रीकनकसूरिज्ञानभण्डारमाथी प्राप्त थई छे. ते प्रति आपवा माटे त्यांना कार्यवाहकोनो आभार मानुं छु.
पंडितश्री वीरविजयजीकृत
श्रीचिंतामणि पार्श्वनाथ- सत्वन ॥ ६०॥ प्रेमे गावो रे श्री चिंतामण पास संपद पावो रे सहजानंद विलास ॥ ए आंकणी ॥ गुणीजन गावो सरस मल्हावो ज्ञानदिवाकरना गुण गावो । पासजिनेशर जगमां चावो । पुरिसादाणी रे नीलवरण जस काय भक्तिभराणी रे गीरवाणी गुण गाय समय खमाणी रे चउगुण पडिमा ठराय ॥ प्रेमे ॥१॥
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देवराज दलदरसें नडीओ, भमतां देशांतर रण चडियो श्रुतसागर सूरी पाए पडिओ ।। करुणानिधि रे मुनिवर विश्वदयाल, विधिस्युं दियो रे चिंतामणि मंत्रसार विनये लियो रे अक्षर बीज अढार ॥ प्रेमे० ॥२॥ पार्श्वनाथ नजरें आराध्यो, वशि वनखण्डे विधिस्युं साध्यो सुरसानिध बहु पुण्ये वाध्यो ठकुराइ छाजे रे भोगवे राज्य पडुर, दांन अवाजे रे नासे दलदर दुर ए प्रभु राजे रे आज ते नयन हजुर | प्रेमे० ॥३॥ राजनगर रसरंग रहावे, सामलि मुरति सांई सुहावें । चिंतामण प्रभु नाम धरावे वंछित पूरे रे रयण चिंतामणि जेम, चिंता चुरे रे रवि उदये जिम हेम, रेहत हजुरे रे दर्शन फर्शन प्रेम || प्रेमे० ॥४॥ सेठ वखतसा पूत्र नगीनो, सेठ सुरजमल्ल प्रभु गुणनीलो, जिणे उद्धार कियो जिनजीनो मूल गभारो रे अजपा जापर्नु ठाण, मंडप सारो रे मां- स्वर्गविमान, दिलमां धारो रे प्रभु गुणनां बहुमान ॥
प्रेमे० ॥५॥ नौतन चैत्य करावें सार, तेहथी अष्टगुणुं निरधार, फल पामें ते जिरण उधार पण एक प्राणि रे न्याय द्रव्य अनुसार, खरचे जाणि रे, निजधन चित्त उदार, समये वांणी रे संप्रतीने अधिकार
॥ प्रेमे० ॥६॥ वामानंदन नित नित वंदन, दर्शन निर्मल शीतलचंदन भवतति संचित पाप निकंदन ध्यायकताइं रे अन्वय ने व्यतिरेक, ध्यानघटाई रे भवजल तरिया अनेक विश्वगवाइं रे श्रीशुभवीरनी टेक... ॥ प्रेमे० ॥७॥
इति श्री चिंतामणिपार्श्वनाथ स्तवनं ॥
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करमबत्रीशी तथा बे स्तवनो
- सं. सा. समयप्रज्ञाश्री
कर्मनो सिद्धान्त जैन धर्म-दर्शननो प्रमुख सिद्धान्त छे. जीवमात्रने जे सुख के दुःख सांपडे छे ते तेणे पोते उपार्जन करेलां शुभ के अशुभ कर्मोनुं ज फळ छे – एवं आ सिद्धान्तथी सिद्ध थाय छे. आ सिद्धान्तने साबित करे तेवां अनेक पौराणिक-धार्मिक-ऐतिहासिक उदाहरणोनी सचोट रजूआत आ करमबत्तीसीमां थई छे. गमे तेवा धीठ के नफट जनने पण आ वातो वांचीने पाप करतां बीक लागे तेवी आ रजूआत छे.
तपगच्छपति श्रीविजयदेवसूरिना पट्टधर श्रीविजयसिंहसूरिजीना शिष्य श्रीअमरसुन्दर गुरु, तेमना शिष्य मुनि श्रीअनन्तसुन्दरजीए आ करमबत्तीसी रची छे तेवं छेल्ली बे कडी वांचतां फलित थाय छे. तेमनो समय १८मो सैको हशे तेम आ उपरथी नक्की थाय छे. एक गुटका जेवी पण अधूरी अने त्रुटक प्रति परथी आ कृति उतारेल छे.
___'बे स्तवनो'मां पहेलू गोडी (गुडी) पार्श्वनाथनुं स्तवन छे. ते ज्ञानसागर नामना मुनिराजे बनावेलुं छे. सात कडीना आ स्तवनमा ‘नमिऊण'ना स्फुलिङ्ग मन्त्रनो निर्देश नोंधपात्र छे (क. ४) अने तेनी साधना द्वारा सेवकनां वांछित सिद्ध थवानी प्रार्थना थई छे.
बीजुं स्तवन सुखसागर पार्श्वनाथनुं छे, तेनी रचना ललितसागर नामे कविए करी छे. आ सुखसागर पार्श्वनाथ खम्भातमां बिराजमान छे ते ज लागे छे. एक प्रकीर्ण पत्र, जे सं. १७१०मां स्तम्भतीर्थमां लखायुं छे, ते परथी आ बन्ने स्तवनो उतार्यां छे.
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करमबत्तीसी
कर्ता : अनन्तसुन्दरजी ॥ ६०|| श्री ज्ञानकुसलजी गणिपरमगुरुभ्यो नमः
अथ करमबत्तीसी लिख्यते ॥
अथें ढाल - आदर जीव क्षमागुण आदर ए देसी । करम तणि गति अलख अगोचर, कहो कुंण जाणे सारजी । ज्ञानवसें मुनिसर जांणे, के जांणे किरतारजी || करम० ॥१॥ पूर्व करम लिखत जे सुख-दुःख, जीव लहें नीरधारजी । उद्यम कोडि करिजे तो पिण, न फलें इधक' लिगारजी ॥ क० ॥२॥ एक जनम लग फीरें कुमारा, एकण रें दोय नारजी । एक उदर-भर जगमांहि कहीयें, एक सहस आधारजी ॥ क० ॥३॥ एक रूपें रंभा सम दीसें, दीसें एक कुरूपजी । एक सहुना दास ज कहियें, एक सहुना भूपजी ॥ क० ॥४|| सायर लंघी गयो लंकाइ, पवनपुत्र हणमंतजी । सीता खबर करीने आयो, रांम कछोटो देतजी ॥ क० ॥५॥ वेस्या घरि वसतां रें आवी, तनु दुरगंध अपारजी । दुरगंधा नृपति पटरांणी, थायें करम प्रकारजी ॥ क० ॥६॥ चौसठि सुरपति सेवा सारें, माहावीर भगवंतजी । नीचें कुलें आवी अवतरीया, करम माहाबलवंतजी ॥ क० ॥७॥ रस कुंपी भरवाने काजें, पइठो जोगी जांमजी । भाग्यवसें आकासें वाणी, भरि रांकानें नामजी ॥ क० ॥८॥ द्वारिकादाह दीयो दीपायण, तिहां कृष्णनरेशजी । अरध भरत स्वामी चीत चितें, जइयें पंडव देसजी ॥ क० ॥९॥ नीरवह्यो चंडाल तणें घरि, रह्यो मसांण नरिंदजी । निज सूत खांपण ए तस लीधो, जे राजा हरिचंदजी ॥ क० ॥१०॥ सीता सती सीरोमणी कहियें, जांणे सहु संसारजी ।। तेहनें राम तजी वनवासें, सहुकि वचन संभारजी ॥ क० ॥११॥ १. अधिक।
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जात मात्र उराकासें भमाडी, सुर भाखें वनमांहिजी । कुमर प्रभंजन पांनडांमांहें, राख्यो करमे साहिजी ॥ क० ॥१२॥ साधू बचन सांभली सागरदत्त, दमनकनें दोय वारजी । मारण माड्यो पणि नवि मुक्यौ, हूउ गृहपति सारजी ॥ क० ॥१३॥ विविध रतन मणि-माणिक देखी, ब्राह्मण एक अनाथजी । रतनागरनी सेवा कीधी, डेर्डक लागो हाथजी ॥ क० ॥१४॥ सोमदेव निज भगनी परणी, पिण छांडी ततकालजी । निज माता गणीकासु लुबधो, करम तणे जंजालजी ॥ क० ॥१५॥ अलपकाल व्रत पाली पहुत्तो, पुंडरीक भवपारजी । व्रत विराद्धी चिरकालें जायें, कुंडरीक नरक मझारजी ॥ क० ॥१६॥ एकणि वार गया मयगल वर, चवदेंसें चमालजी (१४४४) । करमवसें तें भीक्षा मागें, जोइ मुंज भुपालजी ॥ क० ॥१७॥ मुनि वचनें ब्राह्मण रंधावें, मंजर मस्तक खीरजी ।। सेठ तनय तेह ज जीमीनें, राजा थाय सधीरजी || क० ॥१८॥ नापेकघरि दासीनो बेटो, जाति हीन कुलमंदजी । ते पाडलि नयरनो स्वामी, नवमो नंद नरींदजी ॥ क० ॥१९॥ यात्रा करण बारें व्रतधारी, श्रावक वीरो नामजी । मारग वाघणि-सिंघ बिलूधो, करम तणा ए कांमजी ॥ क० ॥२०॥ सूर चोवीस सहस नीसवासर, रहता जेणें पासजी । तेह संभूम लवण सायर विचें, वहत गयो नीरासजी ॥ क० ॥२१॥ दुरभागी पुरव भव हुतो, नंदीषेण इण नामजी । स्त्रीवलभ वसुदेव कहांणो, करम तणो ए कामजी ॥ क० ॥२२॥ ऋषभदेव त्रिभुवननो नायक, लीधी नीरुपम दीषजी । वरस लगें आहार न पांम्यो, करम दीयें इम सीखजी ॥ क० ॥२३॥ प्रसनचंदऋषी काउसगमांहि, नरकतणा दल मेलीजी । ततखीण निरमल केवल पांम्यो, करम करें इम केलजी ॥ क० ॥२४॥
१. देडको । २. नापित-हजाम ।
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अनुसन्धान-७७
मृगापुत्र पर्लखंड पलासमें, पुरव करम वीसेषजी ।। कडुआ करम विपाक कहीजे, चितें गोयम देखीजी ॥ क० ॥२५॥ ब्रह्मदत्त जोगी उपदेसें, पेठो वीवर मझारजी । तो पीण धन लव लेस न लाधो, कीधा कोड प्रकारजी ॥ क० ॥२६॥ हरीहर ब्रह्मादिक जोगीसर, राजा ने वली रंकजी । बिवध प्रकारें करम वीटंबन, न करें केर नीसंकजी ॥ क० ॥२७॥ करम लिखी सुख संपति लहीयें, अधिक न कीजें सोचजी । । आप कमाया फल पामीजें, अवर न दीजें दोसजी ॥ क० ॥२८॥ इणपर करम विपाक विचारी, छांडो करम कलेसजी । जिम अविचल सवि सुख पामीजे, प्रणमें पाय सुरेसजी ॥ क० ॥२९॥ सोलकलासुं पुरण सू(सुं)दर, जांणी बिवध विचारजी । करम बत्तीसी नीसभर कीधी, धरी संवेग उरपारजी ॥ क० ॥३०॥ श्री तपगछ नायक जग जयवंता, जुगप्रधान वीजेंदेवजी । तास पटोधर दीन दीन सोभे, श्रीवीजेंसिंहमुनीसजी ॥ क० ॥३१॥ अमरसुंदर गुरु सीस पयंपें, अनंतसुंदर सुविचारजी । भणतां गुणतां वली सांभलतां, थायें हरख अपारजी ॥ क० ॥३२॥
इति करमबत्तीसी संपूर्ण ॥
१. मांस-खंड।
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बे स्तवन
(१) ॥ ६०॥ राग - सारिंग मल्हार - ढाल - कडखानी स्वामी तुं ही साधार दुःखपार ऊतारिवा, भगतवच्छल दुःख तुंहिं भाजइ । जय तु परमेसर गौडिका पासजी, धवल धिंग सत्य तुम बिरुद छाजइ ॥
स्वामी० ॥१॥ ध्यान तुमचइ अरि करि हरि थरहरइ, प्रेत पिशाच सवि दूरि नासइ । डायणी-सायणी व्यंतर-व्यंतरी, तेहना भय तुम नामि त्रासइ ।। स्वा० ॥२॥ जे दरिद्री दुःखी(खि)आ हुइ जन्मथी, पास तुम नामि ते ऋद्धि पावइ । वयर विरोध विखवाद वारी करी, वीछड्यां सजन तुंहीं मिलावइ । स्वा० ॥३॥ ॐ ह्रीं श्रीं ह्रीं नमीउण पास विसहर, वसह जिण फुल्लिंग मंत्रइं आराधइ । धूप दीप आचरी आंबिल तप करी, ते प्रभु अष्ट महासिद्धि साधइ ॥ स्वा० ॥४॥ आणि करुणा करु सार सेवकतणी, पहिली जिम सेवकां सार कीधी । आवती आउली विकट वारी करी, सेवकां वंछित सिद्धि दीधी ॥ स्वा० ॥५॥ कामदुघा थकी अधिक सुख तुं दीइ, कल्पद्रुम थकी पणि तुं ही दीपइ । वंछितदायक पास गुडी धणी, सेवकां सार करयो समीपइं ॥ स्वा० ॥६॥ तुम चरणांबुजई मधुकरनी परिं, राति-दिवस रहुं ध्यानि लीनु । न्यानसागर कहि सार करयो सदा, ध्यान तुमचइ रहुं रंगि भीनु ॥ स्वा० ॥७॥
इति गुडी पार्श्वनाथ स्तवनं समाप्तं ॥
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अनुसन्धान-७७
(२)
राग- धन्यासी सकल कला सुंदरि स(श)शिवयणी, मृगनयणी सुकमालाजी । बावन चंदन भरिअ कचोलां, पूजु पासकुमारजी ॥१॥ सुखसागर जिनवरनई पूजि, दुरगतिनां दुःख छोडइजी । स्वर्ग-मृत्यु-पातालई जोतां, नहीं को एहनी जोडइंजी ॥२॥ प्राणेशर ए प्रभावतीनु, नीलवरण प्रभु सारजी । निधन वियोग ज दूरि नासइ, पासइ जय-जयकारजी ॥३॥ भवबंधनचा फेरा वारु, तारु भवचा पारजी । महिमासागर गुणनु आगर, वामादेवी मल्हारजी ॥४॥ त्रिभुवनस्वामी पास जिनेसर, वी(वि)नतडी अवधारुजी । करजोडी पंडित ललितसागर कहि, गर्भवास दुःख वारुजी ॥५॥
इति श्री सुखसागर पार्श्वनाथ स्तवनं समाप्तं ॥
संवत् १७१० वर्षे, फाल्गुन मासे, शुक्ल पक्षे, द्वादसी तिथौ विविस्वान-सुनुवासरे लिखितं श्री स्थंभतीर्थनिवासिनी
श्राविका रतन पठनार्थम् ॥
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बे स्तवनो
- सं. रसीला कडीआ
(१) श्री शान्तिनाथ भगवाननुं स्तवन. (२) श्री शङ्केश्वर पार्श्वनाथ भगवाननुं स्तवन.
प्रस्तुत बन्ने स्तवनो मने ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अमदावाद पासेथी प्राप्त थया छे. प्रथम स्तवननो नंबर ला.द. ले.सू. ३२७०९ छे. बीजा स्तवननो नंबर ला.द.भे.सू. २२४३२ छे. श्री दशार्णभद्र ऋषिरायनी सज्झाय पहेलां आ स्तवनो लिपिबद्ध थयेला छे. प्रथम स्तवन अर्वाचीनकाळनुं छे. बीजुं स्तवन मध्यकालीन समय, अर्थात् प्राचीन छे.
श्री शान्तिनाथ भगवान- स्तवन ७ कडीनुं आ सुन्दर स्तवनने पं. मणिविजयना शिष्य रत्नविजये रचेलं छे. रचना साल आपी नथी. अनुमाने ते २०मी सदीनी होवार्नु जणाय छे.
अन्तनी कडीमां श्यापुर मे स्थळविशेषना जिनालयना शान्तिनाथनी प्रतिमाजीना स्तवन अर्थे रचायेल कृति होवा जणाय छे. ते शाहपुर पोळ होई शके.
आपणा स्तवनसाहित्यमां आ कृति उमेरारूप छे.
शांति जिणेसर पूजइ, आणी अधिको हे निज मननो रंग के, कवीत्त(कामित?) पूरंण सुरतरु वली, आपइ हे शिवरमणी संग कै ॥१॥ शां० ।। हस्तीनापुर राजीओ, राजा विश्वशेन हे कुलकमळे दिणंद कै, अचिरा कुखि शर हंसलो, दाशे मनि केरो हे तुपति सुख कंद कै ॥२॥ शां० ।। सुंदर मूरति तारी जोतें, उपजइ हे मुझ अति घणो प्रेम के, चंद चकोर तणी परइ, मोरानइं हे मनि जलधर जेम कै ॥३॥ शां० ॥ निसदिन सुता जागता, जिनजीनु हे मुझ आलि हमें ध्यान के, दरिसण दीजइ साहिबा, हु मागु हे प्रभु तणुं मान कै ॥४॥ शां० ॥
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अनुसन्धान-७७
मेघरथ राजानइ भवि, कीधी करुणा के पारेवा काजि कै, सरणागत साथ ओ तुमइ परख्यो हे दिल मइ जिनराज कै ॥५॥ शां० ॥ गिरुओ ठाकुर ताहरो, सेवकनी हे करो सार संभाल कै,। उत्तम प्रीति ज ते सही, जाणीनइ हे पालइ सुविशाल कै ॥६॥ शां० ॥ श्यापुर सुखकर शांतिजी, मृगलंछन शेवइ जित जास कै, मणिविजय बुधराजनो सीस रत्ननी हे प्रभू पूरो अरस कै ॥७॥
शांति जिणेसर पूजइ । इति श्री शांतिनाथ स्तवन सम्पूर्णम् ॥
श्री शङ्केश्वर पार्श्वनाथ भगवाननुं स्तवन
(श्रीहंसभवनसूरि रचित)
४६ गाथाना आ दीर्घ स्तवनमा ३ ढाळो छे. अन्ते कलश छे. स्तवनमां श्रीपार्श्वनाथनो महिमा गावामां आव्यो छे. शङ्केश्वर पार्श्वनाथनी प्रतिमा साथे जोडायेली कथा अहीं कहेवाई छ. श्री नेमिनाथना समयमां आ प्रतिमा हती अने तेना न्हवणजळथी श्रीकृष्णे जरासंधनी जराथी अचेतन थयेल सैन्यने शुद्धिमां आण्युं हतुं तेनी कथा अहीं मनोहर रीते कहेवाई छे..
कलशमां रचनाकारे पोतानुं नाम श्रीहंसभवणसूरि दर्शावेल छे. स्तवन सम्पूर्ण कर्या बाद आपेली माहिती जणावे छे के प्रस्तुत काव्य श्रीस्थम्भण पार्श्वनाथना प्रसादथी सं० १८३७नां भादरवा वद पांचमना सोमवारे पं. कुंअर सौभाग्यगणि द्वारा लखायेलुं छे. स्तवननी रचनासाल सं. १६१० छे.
स्तवनमां रचनाकारे क्यारेक एक शब्द उपर बीजो शब्द सुधारीने लख्यो छे. क्यांक हुस्व इ अने दीर्घ ई बन्ने करेल छे. अकने भूसवा माटेनुं चिह्न करवानुं रह्यं होय तेम जणाय छे. स्तवनने अन्ते गाथा कुल ४७ जणावेल छे. परन्तु, ओक स्थळे अंकलेखनमा दोष छे : २८मी गाथामां नंबर लखायो नथी ए जो क्रम में आपेल छे. फरीथी एवी भूल ४३ गाथा पछी ४४मी लखवाने बदले ४५ लखायेली छे. लिप्यन्तर करतां आ बन्ने क्रम सुधार्या होवाथी स्तवन कुल ४६ गाथाओ वाळू बने छे. कृतिमां ज्यां ष छे त्यां ख ना अर्थमां होय तो ख करी लीधेल छे.
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श्रीपार्श्वनाथ जिननां स्तवनो विपुल प्रमाणमां लखायां छे. तेनो अनेरो महिमा गातुं, स्थळविषयक आ दीर्घस्तवन अमां उमेरारूप छे.
श्री पं. कुंअरसौभाग्यगणि आ ज हस्तप्रतमां, आना पछी, आ ज सालमां, अन्य दिवसे, श्रीलालविजय रचित दशार्णभद्रनी सज्झाय लखी होवानुं जोवा मळे छे.
श्रीपार्श्वनाथाय नमः शासनदेवीय मन धरी अ, गाउं पास जिणंद संखेश्वर पुर मंडणो अ, दीठे परमानंद ॥१॥ अश्वसेन कुलचंदलो ओ, वामा देवीय मात नील वरण सोहे सदाओ, लच्छन नाग विख्यात ॥२॥ जेहनो महिमा विस्तर्यो मे, जगमां[हि] अभिरांम संकट सवि दूरे टलें मे, जपतां जेहनुं नाम ॥३॥ मूरति मोहन वेलडी मे, जोतां त्रिपती न पामें हरखें नयणे निरखतां ओ, ओपम नविं आवें ॥४॥ मस्तक मुगट सोहामणो ओ, कांने कुंडल सोहें भाल तिलक दीपें भलो अ, रूपें जन मन मोहें ॥५॥ लोचन अमीअ कचोलडां अ, नास्या वंश सुचंग वदन कमल जीत्यो चंदलो अ, अधर प्रवाली रंग ॥६॥ आरी सम बहें कपोल [अ], भुज बेहु अनोपम रतन जडीत दीपें बेहेरखा ओ, तेज शशीहर रवि सम ॥७॥ हइडइं हिसें बहबही अ, श्रीवत्स सुचंग हार हीइं सोभे नवलखो , [अ] बीजो रे रंग ॥८॥ रतन जडीतें बिहु बाहडी ओ, वली फूलनी माल परिमल बहके कुसुमना अ, गुण गाई रसाल ॥९॥ आवें श्री संघ कुल द्या अ, करें पासनी खात्र भावैस्यु पूजा करें अ, करे नीरमल गात्र ॥१०॥
सुचग
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अनुसन्धान-७७
॥ ढाल ॥ [१]
मृत्युलोक जिन मूरति आवी, संघ प्रति संखेश्वर भावी श्रावी दें नितु राज तो जयो जयो नितु राज तो ॥११॥ पहिले देवलोक सुरराज पूछ्या चंद्रप्रभु जिनराज सामी मुगतिनुं राज तो, जयो जयो स्वामी मुक्तिनुं राज तो ॥१२॥ कहीइं होसइं मुझने देव, वलतुं सामी कहें सुणि हेव देवराज संखेपतो जयो जयो देवरा[ज संखेपतो] ॥१३॥ त्रेवीसमा होसें श्री पास तहीइं होसें मुगतिनुं [नी]वास तस गणधर तुं होसि तो जयो जयो तस गणधर ॥१४॥ हरी हरख्या देवलोके जाइं पास तणी प्रतिमा नीपाई पूजें मनि उल्हास तो जयो जयो पूजें मनि उल्हास ॥१५॥
चउपन्न लाख वरस हरी पूजी पयपंकज प्रणमें सुरराजी कंचण बलाणे मुंकी तो जयो जयो कंचण बलाणें ॥१६॥ चंद सुर पूछे तीर्थंकर कहीइं मोक्ष जास्युं परमेश्वर पार्श्वनाथने वारें तो जयो जयो पार्श्वनाथने वारें ॥१७॥ असुंअ सुणी हरख्या हरख्या रविचंद कंचण बलाणे पास जिणंद तिहांथी प्रतिमा आणी तो जयो जयो तिहांथी... ॥१८॥ चउपन लाख वरस प्रमाण जुआ पूजें चंद ने भांण वळी तेणे थानकें मुकी तो जयो जयो वली तेणें... ॥१९॥ घणे इंद्रे ईम पूजा कीधी तेहनें अविहड मुगति ज दीधी सीझें आवे सीध तो जयो जयो सीझें... ॥२०॥ नागनाथ कहीइं धरणेन्द्र तेणें पूछ्य श्री जिनचंद्र कहीइं भवनो पार तो, जयो जयो कहीइं... ॥२१॥ मुझनई होसें कहो भगवंत, तव बोल्या जगगुरु अरिहंत त्रेवीसमांने वारे तो जयो जयो त्रे० ... ॥२२॥
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असुं कही जिणवर जव रहीया, नागराज हीयडइ गहगहीया आव्या आपणे ठामि तो जयो जयो आ० ॥२३॥ कंचण बलाओ(0) गमो(यो) हे जाणी, पास तणी प्रतिमा तिहां आंणी देहरासर नित पुजतो जयो जयो देहरासर नित पूजतो ॥२४॥
॥ ढाल ॥ [२] हवे निसुणो इ हो आवीया ओ श्री संखेसर पास तो ते संखेपे हुं कहुं ओ जिम विधन विनास तो ॥२५॥ द्वारिका नयरी कृष्ण नृप मे, राजगृही जरासंधि तो वयर भाव बेहुने घणां अ, पूरव कर्मनो बंध तो ॥२६॥ दूत मोकल्यो जरासंधि मे, मानो माहरि आंण तो के सज्ज थाओ झूझवीओ, के लेइं नासो प्राण तो ॥२७॥ वचन सुंणी वयरी तणा अ, केसव कीध प्रयांण तो कटक लेईने संचर्या मे, जरासंधिनि आंण तो ॥२८॥ दल बे हुई झूझें भला , पडें सुभटनी कोडि [तो] कायर केती ईम कहें ओ, सामी संकट छोडि तो [॥२९।।] जरासंधि मुकी जरा अ, कटक थयुं अचेत तो श्रीपति मनि चि(चिं)ता थइ अ, जिनने पूछे कहें संकेत तो ॥३०॥ नेमिनाथ कहें कृष्ण सुणो अ, ओ छे विषम विरोध तो अन्न पांन सवि परिहरो अ, नागराज आराधी तो ॥३१॥ तेहनें देहरासरि अछे ए पार्श्वनाथ, बिंब तो तेणें न्हवणे जरा अ, काज सीजे अविलंब तो ॥३२॥ मुणि वचन हरि हरखीयो ओ, कीधा त्रण उपवास तो नागराज तव आवीआ अ, तुठा आपण पास तो ॥३३।। न्हवण करी च्छाट्युं सहु अ, ऊठी सुभटनी कोडि तो दामोदर प्रणमी करीओ रहीआ बे कर जोडी तो ॥३४॥
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अनुसन्धान-७७
जरासंधि जीती करीओ, केसव पालें राज तो लखमी लीला भोगवे ओ, करी वली धर्मनां काज तो ॥३५॥ नगर संखेश्वर वासीउं अ, तिहां थाप्या श्रीपास तो जे जिन पूजे भावस्युं अ, पूरे मननी आस तो ॥३६॥ रोग सोग संकट टलें अ, नासे विषम विराध तो भूत प्रेत ते नवि छलें अ, महिमा न लहु पार तो ॥३७॥
॥ ढाल ॥ [३]
पास मूरति सोहामणी ओ माहालंतडईं पूजा करइ मनरंगसु सुणि सुंदरी पूजा करो मनरंग गुण गाती स्वामी तणा अम,
आणंद उपजइ अंगि ॥३८॥ सु० छपन्न कोडि जादव तणी अ, मा० जरा उतारणहार सु० कुष्ट अढारें उपशमे अ, मा० विश्वनें करें उपगार सु० ॥३९॥ अग्नि चोर भय राजना ओ मा० जलनिधि जलमा पूर सु० वाघ संघ राजना ओ मा० भय नासे सवि दूर सु० ॥४०॥ तुझ गुण रयणायर समो मे मा० तुझ गुण न लहुं पार सु० ताहरा गुंण गाइं सदा ओ मा० तिहां घरि जय जय कार सु० ॥४१॥ कांमगावी तुं सुरतरु से मा० तुं चिंतामणि सार सु० . तुझ समोवडि जगि को नहि ओ मा० गुणह तणो भंडार सु० ॥४२॥ कर जोडीने वीनतुं ओ मा० वीनती सुणो मुझ देव सु० भवसागरमां हुं भम्यो » मा० भवि भवि द्यो तुम्ह से० ॥४३।। त्रिणकाल पूजें सदा ओ मा० संखेसरो श्री पास सु० । श्रीहंसभवनसूरि इंम भणे ओ मा० पूरे मन तणी आस ॥४४|| संवत सोल दाहोतरें मा० तवन रच्युं अती सार सु० संभवनाथ पसाउल ओ सा० बनीआ रे नयर मझार सु० ॥४५॥
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जून - २०१९
॥ कलस ॥ संखेसरो श्री पास जिन जिणवर विश्व सुखकर सुंदरूं अश्वसेन नरपति वंशमंडण दूरित खंडण जयकरूं जे जिन आराहि स्वामी ध्याइं पाप जाइं भव तणां श्रीहंसभवणसूरिस जंपें शास्वतां सुख लहें घणां ॥४६।।
इति श्री संखेसर पार्श्वनाथ स्तवन सम्पूर्णम्
संवत १८३७ना भाद्रवा वदि ५मी सोमे लि० पं. कुंअरसौभाग्यकेन श्रीस्तंभनपार्श्वप्रासादात्
शुभं भवतु लेखकपाठकयोः श्री ॥
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अनुसन्धान-७७
पांच हरियाळी
- सं. उपा. भुवनचन्द्र
प्राचीन प्रकीर्ण पत्रो तथा हस्तप्रतोमां प्राप्त थती केटलीक हरियाळीओ आगळना अङ्कोमा प्रगट थई छे. ते ज शृङ्खलामां बीजी पांच अप्रगट रचनाओ अहीं प्रस्तुत छे.
एक नारी ते अति भली रे, देशाउरथी आणी रे; मुह मीठी ते जाणीइं, हृदय कठिण कहाणी रे... पं० १ पंडित ए हरिआलडी, चतुर होइ ते लहयो रे; अवधि देउं दिन सातनी, हीइं विचारी कहयो रे... पं० २ नाहा मोटा नइ वल्लही, पाम्यई हर्ष न थावई रे; मानविजय कहई जाण्यो, ते दाम विना न पावइ रे... पं० ३
[
]
राग : केदारो नारी बत्रीस जगि विस्तरी रे, जनम्या पुरुष ज च्यार; च्यार मिली वली उपनु रे, पुरुष एक विचारी रे... ०१ पंडित कहू कुण नर ते सुणीइं, ए तो हृदय विमासी भणीइं... पं० नरनइं हाथे अति भलु रे, काम होइ संसारी; जिन पूजादिक जाणयो रे, ते विण न होइं निरधार रे... पं० २ ते नर होइ जेहनइं पाधरो रे, तेहनइं न गंजइ कोइ, मानविजय कहइं पाधरो रे, पुण्य करो जिम होइं रे... पं० ३
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जून - २०१९
नरनारीथी उपनी रे, नारी अनोपम एक, बालकनइं ते वालही रे, जाणइं पंडित एक सुंदर कहू कूण नारी कहइ, जाणपणाथी लहीइ... १ नारी जव श्रवणे सुणी रे, लागई अतिहिं रसाल, नारी ते वलि थीर नही रे, विणसई ते ततकाल रे... सुंदर० २ देह विना ते बोलती रे, रूप नहीं लगार; मानविजय कहइ जाणयो रे, जिन हुँलावण सार रे... सुंदर० ३
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सहीयर हे में तो अभिनव दीठं, पनर जीभ सोल लोयणा ए, बेहनर हे आठ माथा एक पूंछडूं ए; । सहीयर हे काया होय ते जिनवर नमुं ए, बेहनर हे कीडीइं मेरु उपाडीओ ए... सहीयर हे लाख पुरुसें नारी घडी ए, बेहनर हे परनारीथी शिव लह्यो ए: सहीयर हे हाथी माथें मसो चढ्यो ए, बेहनर हे हेडमां पेठो चउटें फरै ए... सहीयर हे सुके काष्ट अनेक फलां ए, बेहनर हे परनिंदा सुख लह्यो रे; सहीयर हे केवलनांणी देखे नहिं रे, बेहनर हे तरुणी विना सामायक करें ए... सहीयर हे सीआलें सीहने वश कर्यो ए, बेहनर हे राजा सेवकनें नमै ए; सहीयर हे तांतणे बांध्यो सिंह फरै ए, बेहनर हे अगनि विना तपतो गिरी ए...
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अनुसन्धान-७७
सहीयर हे विण सूर्ये उदय थयो ए, बेहनर हे विण पाणी तृषा मिटै ए; सहीयर हे विण पइडें रथ चालिए ए, वेहनर हे कंथुआ पेटमां हाथीउ ए... सहीयर हे दीवो अजुआलुं नवि करै ए, बेहनर हे एक मगर सायर गिलै ए: सहीयर हे जल विण नाव तरी गयुं ए, बेहनर हे अंग विनानी सेवा करें ए... सहीयर हे कोयल उपर आंबलो ए, बेहनर हे समली आकाशनें रोकीउ ए; सहीयर हे गाय दुहें दो नारने ए, बेहनर हे एकलो सहूनें जीपतो ए... सहीयर हे काया विना भोगवें सहु ए, बेहनर हे रूप विना हंस बोलिउ ए; सहीयर हे लोयण विण देखें सहु ए, बेहनर हे पग विन चालें मलपतु ए... सहीयर हे चक्र भमाडें कुंभारनै ए, बेहनर हे पंख विना उडै पंखीउं ए; सहीयर हे भमरा उडी बगला थयां ए, बेहनर हे तो पिण प्रभु न संभारिया ए... सहीयर हे नव पाइयें एक सेजडी ए बेहनर हे नारी रमाडै कंतनै ए; सहीयर हे पुत्र हींचोले बापने ए, बेहनर हे सुखशय्या पोढ्या मुनिवरा रे...
[
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जून - २०१९
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रंग सुरंगी हो नारी दीसइ, तिण पूठई नर पंच... रंग सुरंगी हो भवियण सुंदरी, नारी मन मोहंति; पुत्र सरीखा हो भवियण तेहना, पंचे नर सोहंति,
रंग० १ तिन अनेरा हो नव(र?) जेहनइ, चउथी कन्या होइ; राजा महतउ हो सेठ सेनापती, तसु नामइ सहू कोय,
रंग० २ तसु नारीना हो भवियण पोतरा,... छइ तेवीस; तीन भुवनइ हो भवियण..., व्यापी रह्या निसदीस,
रंग० ३
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अनुसन्धान-७७
वाचक पुण्यसागरकृत अंजनासुन्दरी-पवनञ्जयरास (खण्ड ३)
__ - सं. प्रा. अनिला दलाल
वाचक श्रीपुण्यसागरे वि.सं. १६८९मां रचेला 'अञ्जनासुन्दरीपवनञ्जयरास'ना पहेला २ खण्डो आ पूर्वेना अङ्कोमा क्रमशः प्रगट थई गया छे. अत्रे तेनो त्रीजो अने छेल्लो खण्ड आपवामां आवेल छे. कर्ता वादिवेताल शान्तिसूरिना पीपलगच्छना उपाध्याय छे.
त्रिभुवनपति प्रणमी करी शिवरमणी दातार बहूंली मति कर बोलस्युं त्रीजउ खंड उदार. पडसू धी घृत अकठां मोला खाद अखाद मीठाई त्रीजी मलई तो हवेइ सखर सवाद. त्रीजा खंड कह्या विना कोई स्वाद न होइ सांभलतां पंडित मने रंग न लागइ कोई. तिणि कारणे भवियण सुणो सरस कथा संकेत पाप पणासण सुखकरण गुणहीत कारण हेत. अंजना तिहां रहितां हुआ कोई दिह वितीत इहाथी आगलि सांभलो किम वाधा परतीत.
___ ढाल झूबखारी प्रथमा - राग केदारउ गिरि परिसर रहतां थकां केइक वउल्या दीह सोभागी सांभलो जलनई कारण ओकली दासी जाय अबीह... सो... ६ परबत उपरि पेखिउं मुनिवर ओक महंत... सो. ध्यान धरी ऊभो रह्यो त्रिकरण गप्ति ओकंत... सो... ७ दासी करइ तसु वंदना आवी राणी पासि... सो. बाई मई अंक पेखीउं गरुवो साधु सुवास... सो....
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जून - २०१९
सांभली वाणी सीअली अंजना हरखी चित्त... सो. चालउ बाई वांदीये पय पंकज सुभ मित्त... सो... बेउ जण उंची चडी सुतनइ तेडी खंधि... सो. जिहां रिषि ऊभो ध्यानस्युं आवी तेणइ संधि... सो... १० देई त्रिणि प्रदक्षणा नमणी करई पंचांग... सो. तुं जंगम सुरतरु जिसिउ निर्मल जल गुणगंग... सो.... आज सफल दिन माहरो आज चिंतामणि लाध... सो. दरिसण दीठउ ताहरो मणिमय मोटा साध... सो... यो साची ध्रम देसणा किम सुख पामई जीव... सो. दुरगति जातां ऊधरो छोडावो दुख रीव... सो.... काउसग पार्यो मुनिवरई बईठो द्रढ आसन्न... सो. द्यई मधुर धृतिदेशना शंशय हरण वचन्न... सो... अनित्य पदारथ ओ सह तिणरी केही आस... सो. जीवित जलरउ बुदबुदउ संध्या राग प्रकास... सो... काया बहू रोगई भरी खिणतई विणसी जाई जे पुदगल दीहई होइं ते निशि न वली थाई...सो... मोह तिमरवसि जीवडो अंध रहई निसदीस... हावकोतो(?) फिरतो रहई मनि नाणई जगदीस... सो... १७ प्राणीनई यम संहरई काया होवई छार तन धन जन पूठई रहई कोई नावई लार... कीध कमाई भोगवई न खरी सखरी आप... सरणई को राखई नही आडउ आवई पाप... सो.... दुर्लभ भव मानव तणो वली आगमरउ जोग सद्दहणा जिन धर्मनी किरिआ करण प्रयोग... सो... दसे प्रकारे दोहिला च्यारिये परमांग थावरत्रस भव पूरणा करवी कर्मप्रसंग... सो... किणही दोस न दीजीइं सुखदुःख सिरज्या होइ ईम जाणी धर्म आदरो जिम दुःख नावई कोई. सो... २२
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अनुसन्धान-७७
रोग जरा घट जा नहीं तां आदरि धर्म सुद्ध इंद्री पडस्यइं बलहीणां रहस्यइ जीव अबुध... सो... २३ अहवी अमृत देसना दीधी पर उपगार सतीइ अकमना सुणी आतमहित सुखकार... सो... कर जोडी ऊभी थई दुई प्रभु संयम भार ओ संसार बीहामणो हूं छोडिसि निरधार... सो... वलतुं अम कहई यती अवसर तुझ नही आज भोगकर्म घणो ताहरइ पामिस घण रिधि तु साज... सो... २६ चारित्र लेई खंडतां पाप असंख बंधाई चउगति माहि रडवडई दुर्नवा(दुर्नठी?) प्राणी थाइं... सो...२७ तिण कारण हिवणां नहीं दीक्षारउ प्रस्ताव ईम सांभली अंजना सती बइठी निश्चल भाव... सो... २८ त्रीजइ खंडई ओ कही पहिली ढाल रसाल कवि कहइ जे सूधा जती वंदण तासु त्रिकाल सो...
दूहा विनय करी पूछइ यती भगवन करो प्रसाद कर्म फलाफल दाखवो टालो मन विखवाद... तुं समरथ मोटो जती जिनशासन सिंणगार विमल कमाई ताहरी शिव मंदर दातार... दोस पखई हूं ईण भवि पाम्या कष्ट अघोर पव्व भवंतर मई किस्यां कीधा कर्म कठोर... सुणि सुंदरि जंपय जती तुझ पूव्व अवतार ज्ञान प्रमाणई हू कहूं वीतक सघली वात...
ढाल - राग - कालहरउ
सांभली रे सामलीया सामी... ए देशी पूरवभव गुरु ज्ञानी बोलई सांभलि सत्य सोभागणि नारी पृथवीभूषणनगर निरोपम राज करई नामई जयसार...
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अणेख अदेखाई फल भंडां जे करस्यई ते लहस्यई आप अपयश अणकिधां शिर चडस्यइं भवि भवि पामिस्यई संताप... ३४ तिण पुर ओक वसि व्यवहारी नामि धनावो निधि भण्डार सकल कलागुण जाण विचक्षण दाता भुगता परम उदार... ३५ तसु घरि प्रत्यक्ष दो अनोपम रांणी इंद्राणी परतखि अवतार विजया नाम जया बीजीरो माहोमाहि द्वेष अपार.... विजया अति घण जिनधर्म विद्वेषण, जय(जया) धर्म तणो प्रतिपाल सूधो समकित मन आराधइ जिन प्रतिमा पूजइ त्रिणकाल... ३७ जया करइ प्राणीरी जयणा अकमनी सूधइ आचारि जया असत्य न भाषइ माया कपट करइ परिहार... प्रतिमा जिनरी नित पूंज्या विण अगड वहइ अनपाणी लेणी फासू अन पडिलाभई मुनीवर सुकृत भंडार भराइ जेणि... ३९ जिम जिम करणी माडइ अधिकी तिमतिम सोकि करइ अनुराग राति दिवस तसु छिद्र निहालइ जोइ दोस चडावण लाग... ४० दुर्जन काला नाग सरीखो मत सयण करोई वेसास बार वरस जो खीर पाईजई तउही विखरो न थायउ नास... ओक दिवस ते धर्मणि नारी बाहिर करण गई घरकाम तिणि तसु देहरासररी प्रतिमा चोरीनइ सांती अन्यठाम... प्रतमा अर्चण आवी नारी जोइ पणि नवि लाधी ठाणि बार पहोर लगइ सांती राखी तां मुख अंनजल न लीडे आणि.. ४३ वली तसु मनि अनुकंपा आवी काढीने तसु प्रतिमा दीध भाव घणासउं पूजा कीधी मानव भवरउं लाहो लीध... ४४ ते भव तिहांथी पूरण कीधो बिचपणि भव कीधा केई राजसुता हुई अंजना श्री जिन मारग चित्त धरेइ... बार पुहोर जिनमूरति सांति तिणनई अनजल कीध वियोग ते तुझ करणी आडी आवी बार वरस लगि पडीउ वियोग... कर्म तणी गति विसमी दीसई कर्मइ नरक तणी गति होई कर्म न छूटा सुर नरराणां हलधर चक्रवर्ति नहीं कोइ...
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अनुसन्धान-७७
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रणभूहि ते रावण रलीयो नीच तणइ घरि हरिचंदराउ लखमण राम हुआ वनवासी कोरव हणीया रणवट घाउ... पांडव पांचइ कुल नीगमीयो नलनृप कूबड रूपसू आर द्वारिका दाह नारायण निरख्यो कर्म तणी गति पार अपार.... रुषिरो श्राप लह्यो सुरराजाइ चंद्रइ पाम्यो श्याम कलंक प्रथमोदधिरउ पाणी खारउ कर्मे नडीआ राउ नइ रंक.. इम सुरनर बहु कर्मइ जीत्या कहिता पार न लाभइ कोइ सुगुरु कहइ सुणि इणि परि बाई भोगवीया विण अंत न होइ... ४९ कर जोडी इम बोलइ अंजना मइ दुःख पाम्यां अणि विराम पणि य(ये) दासी माहरइ केमइ बहु दुःख सेवइ ते किम सांमि..५० तई प्रतिमा सांती ऊकरडइ तारई तुझ ए हूंती पासि पूरण ढांकि ऊघाडी दीसई ओ ईम बोली वचन प्रकासि... ५१ तेह वचनथी अह पणि तोस्युं सुख दुःख सेवइ आप शरीर लघु दीरघ जे कीध कमाई आडी आवइ सोई उदार... ५२ अतिघण संपद पामिस सुंदरी म करइ कांइ विमासण अंग राजऋधि घण लीला पामिसि मिलसइ प्रीतम तोस्यु रंग... ५३ अहवा वचन सुणी ज्ञानी मुखि हरख घणो मन माहि कोईक अभिग्रह लीधा सूधां जां प्रीउ न मिलइ रंग उच्छाह... ५४ त्रीजा खंड तणी ओ बीजी ढाल कही फल कर्म विचार कवि कहइ ज्ञानी गुरु विण संसय कोई न दीसइ टालणहार... ५५
दहा
तुं जंगम मोटो यती करणी तो सुकयत्थ पर उपगारी परम गुरु संसय हरण समत्थ... तवना करी बइठी सती गावंती गुण ग्राम हवई अकमना थई सांभलउ किम पामी विश्राम.. रविध्वज नामई माउलो अंजना केरो अक यात्रा नंदिसर करी वल्यो निज घरि नई सुविवेक...
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ते गिरि ऊपरि आवीयो विद्याबलि असमांन साध तणा अपमानथी थंभ्यो तेथि विमान... दृष्टि अधो तिणि खेचरई दीधी दीठो साध नीचो तिहांथी उतरी वंदन करइ अबाध... धरमलाभ मुनिवर दीयु वली दीधउ ऊपदेस ओह अथिर संपद थकी पामइ जीव कलेस... देसण सांभलि ऊठीयो ते विद्याधर राय तिणि अवसरि सा संदरी दीठी वदन विछाय... वंदण हेतई आवीउ साहमिणि बुधिं पास अंग अवयवे उलखी भाणेजी सुविलास... हे वच्छे! तुं ओकली किम दीसई ईणि ठाय साच प्रकासो अम्ह भणी मनिमई अचरिज थाई... तेणई मामउ ओलख्यो जाइ वलगी कंठ हुबकनइ रोइ घणुं गरुइ सगपणी गांठि... वात सहू धुरथी कही मामई सुंणी उच्छाह परणी छांडी आदरी वली मेल्ही वनमाहि... मामई अकमनइ सुणी वीतक सघली वात आदर करी आसासना दीधि दिल संघात... ते त्रिणइ विमानमई लेई चाल्यो बईसारि वाटइ चालंतां थयुं ते सुणज्यो निरधार.. ढाल - आउ म्हारा रामजी, तो विण सूनो राज्य... देशी
राग-मल्हार गयण विमाणे चालतांजी रणकी घंटालाल बालक झालंतां पड्योजी उछलीनई ततकाल... ६९ म्हा० माहरा पुत्रजी कवण अह्म आलंब झूरी मरेस्यई मावडीजी कोई नहीं आलंब... ७० म्हा० हा हा करीनई झलफलीजी पडतां घाली बाथ पिण फलसी नीचो गयोजी ग्रह न सक्या पग हाथ... म्हा० ७१
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अनुसन्धान-७७
तडफड करतो रडकतोजी पडतो जातो दीठ माता देखी आरडईजी हा धिग् प्राणी धीठ... म्हा० ७२ प्राण नहीं किम कीजीइंजी धरती खोह अपार पडस्यई खागल खादरेजी किंकर लहिस्यां सार... म्हा० ७३ माथु फाटस्यई गडेजी पडत समो ततकाल आडा कर कुण मांडस्यईजी ताहरई काजि बाल... म्हा० ७४ बचुकारी बोलाविस्यइजी तुझ नई कवण सपूत्र फुक देई काने खरीजी कुण तेडस्यई अंगूत्र... म्हा० ७५ यदपि न रहस्यई जीवतोजी पिण जो रहस्यइ कदापि तो कुण पय पायस्यईजी वली कुलस्यई थणताप... म्हा० ७६ हालरडां कुंण गाईस्यईजी पालणइ पोढाडि बेटा तो माता पखइजी कुण हेलवस्यइ हाडि... म्हा० ७७ हुं पुण्यहीणी पापिणीजी कर्म घणी मुझ घोर दुःख उपरि दुःख उपजईजी कोई न हालई जोर...म्हा० ७८ पुव्वभवंतर मई कीयांजी कडूआं कर्म कठोर इणि भवि आडां आवीयांजी प्राणी परिहरि सोर... म्हा० ७९ थापिणमोसा मई कीयांजी दीधा कूडां आल चाडी खाधी चूंपसुंजी पेटई पाडि झाल... म्हा०
८० गर्भ अधूरा गालव्याजी पाम्या मित्र वित्रोट कामण करिनई मारियाजी दीधा विष मनखोट... म्हा० ८१ नंदा कीधी पारकीजी परगट चडी बाजार अकर करीनई पाडव्याजी कुमणि मारि मारि... म्हा० ८२ गुरुमुख ले व्रत भांजीआजी बोली कूडी साखि माल गमाड्या पारकाजी चोर चरड घरि राखि... म्हा० ८३ मत्सर गुरुसुं माडीयोजी पाम्यो गच्छ विचि फांट श्रावक कीधा दोहिलाजी चूकावी धर्म वाट... .म्हा० ८४ द्वेष करी जिन देवसुंजी थाप्यो कुमती धर्म ईणि भवि मुझनई ओ सहूजी आडां आयां कर्म... म्हा० ८५
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हाथ थकी नंग खोसिनइजी दैवई लीधो आज रांक न फिर पामीस कईजी रोयां नावई राज... म्हा० ८६ दुःख घणा संसारडेजी ओक ओकथी अणताग । राति दिवसि बालई घणुंजी पेट तणी वज्रांगि... म्हा० अणजाइ अक वातडीजी न हुआनइ निस्तार पिण जाइ परणी मरइजी ते बालेवो जिमवार... म्हा० ८८ दुःखरी दाधी अंजनाजी रुदन करई वारवार जिणरइ घटि वीती हूस्यइजी ते दुःख जाणणहार... म्हा० ८९ मामइ बा बीसी घणुंजी बाई म करिअ दोह परभवि तइं दीधु हस्यइजी ते तुझ लागो छोह... म्हा० ९० हटकी ल्यइ मन आपणुंजी सरजित न टलइ वात अह अवस्था से लखी इणि वेलां मे घात... म्हा० ढाल भणी त्रीजी इहांजी करमतणी निरधार बेटा किम जगी जीवस्यांजी जे कुल थोभणहार... म्हा० ९२
दूहा ऊछलतो भूमइ पड्यो हनुमंत नाम कुमार तुरत विमान रखाविउ आकासइ निरधार... धाई वांसइ ऊतर्यो कुमर पडतो देखि विसमा डुंगर खोहला सोझंतो सुविसेस... पडतारी अटकल करी आवी जोवई जाम कूमर सिला ते ऊपरई पडीयो दीठो ताम... पडतई घाडीलइ तणइ सिला करी चकचूर रमल करई आणंद घणई बेठो हरख पडूर... देखीनई अचरिज थयो मामांनई ततकाल ओ मानवरूपी नही दैव सरूपी बाल... बांह धरी बोलावीयो तेडी चुंब्यो मुख हृदय लगाडी भीडियो भागो मननो दुःख...
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अनुसन्धान-७७
गयो विमाननई ऊडिनई तेडी कुमर सुजाण ल्यइ बाइ मइ आणियो ओ तुझ जीवन प्राण... नयणे माइं निरखीयो ठरियां सघलां गात्र तेडि हियडे भीडियो तुं मुझ जीवन पात्र... रविध्वज कहई हे अंजना ओ छई मोटो वीर पाथर चकचूरी किओ पडिउ भूमि शरीर... हणमंतरा तिहां थापिउ वीर बिरुद विस्तार शिलाचूर दीधो वली बीजो नाम उदार... नाम तणी करी थापना आगई चाल्यो वेगि कुशले मामो पुरि गयो टलीयो मनह उदेग... ऊतरिनइ मुहुले जई भागो भ्रमण कलेस सयण सहू आवी मिल्या पूछी लह्या अंदेस... मामो कहई हे अंजना बइठी करि ध्रमध्यान दान तणी शाला करी द्यइ षट् दरिसण दान... संतोषाणी अंजना सांभली वाणी सीत अकमना बईठी करइ दांन पुण्यस्युं प्रीति... पुरुष प्रसंसा जे लहइ अस्त्री त्रिणि विसरांम पतिपख मापख तातपख चोथी काइ न ठाम... सुत उछेरइ आपणो वली सुकृत सांचो करेई वात सुणो हिवइ पाछली रूडइ चित्त धरेई...
ढाल - फागनी राग तोडी पवन कुमर लसकरथी आयो दिगपति वरुण हराय दशशिरकी बगसीस लहीनइं निज पुरि आयो नूर वजायो.
रंगीले पीआ रस सांभलो हो... १०८ राजप्रमुख सब पुरिजन हरख्या जय जय शबद वधाय हय गय रथ संजोड करीनइ सब मिली सनमुख आय. रं० १०९ अभिमुख आवि चरणे लागो तात तणे ततकाल कुशलागम पूछी परवरीआ गावत मोहन गीत रसाल.
रं० ११०
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आनंदस्यु मंदिरमइ आवइ आप-मित खवास पूछइ वल्लभा कयुं दीसइ नही बोलाई ल्यावो वेगि आवास. रं० १११ सयण कहइ प्रभु नाम न लीजई ऊणि पापणिको आज कुकरम करीनइ वंस विटाल्यो काई न राखी कुलवट लाज. रं० ११२ जिण दिन कटकी तुम्ह सीधाओ इणिकुं विण बोलाई तिणि दिन जार संघातइ खेली आपणइ जीउ रंग लागाइ. रं० ११३ गर्भ धर्यो तिणकेरइ योगई पाप हुउ परगट्ट राजा राणी भेद लहीनइ काढीनइ मेल्ही जंगलवट्ट... रं० ११४ वलती काई खबरि न पाइ मुई गई किहा रेख कुमर सुणीनइ अंगणइ ढलीउ है है लागो दुःख अलेख... रं० ११५ राजारांणी आवीया पवन ढलाया सीअ टाढा जलस्युं अंग छंटायो चेतनवाली सूरति कीअ... रं० ११६ कुमर कहे रे मूढ गमारो ओ कुण कारिज कीध। सतीयां सिरि अंजना नारी अपजस सीर कोई न लीध... रं० ११७ कइ मुझ नारी वेग मिलावो कइ हुं छंडिस प्राण हासी करता विखासी होसई विरहरा लागा मुझ बाण... रं० ११८ नारि पाखइ सब अलूणो छयल पुरुष कुं होय मूरख खर पडि पाय पछाडइ पयछाडइ तइं सा दोइ... रं० ११९ हा हा प्रिया तुझ अमृतवाणी कब सांभलीस्यां कांनि चपल नयण कव देखसि नयणे कब कंठि लाइ सप्राणि... रं० १२० कनकलता चंदनकई रूखइ कब चढसइ लपटाइ प्रीति सजलसुं कब सींचीस्यइं हा दिग् पापी जगत राय... रं० १२१
आगइ पणि मुझ विरहइ दाधी वली ओ ऊपरि दाह प्राण गया होइ वन भमतां मेल्हतां मोटी धाह... रं० १२२ मइ ओ नारी राखे न जाणी हारवी नाखी आलि कर्महीन नर मोहनवेली केम ऊछेरइ पालि...
रं० १२३ सूनां मंदिर मालीआं हो तो विण सुगणी नारी बइठां ऊठ्यां चयन न पायुं आओ मिलीजई हृदयबारि... रं० १२४
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अनुसन्धान-७७
जे माणसस्युं रंग विलूधओ सो घटहुं तन जाय मूढ गमार करइ पर निंदा भेद न जाणइ अंतर भाय... रं० १२५ हां रे प्रिया तइ दाह उपायो मिलि गुणरस देखाय जउ हुं जाणुं दुःख देइस तो कुण रहई प्रीति लगाइ... जिणसुं प्राण विलाई रहिउ दे कुल लज्जा छेह ते साजण विरचीनई बइसई ते दुख लहीइ केतेह... पवनकुमार मनमांहि झूरइ नाखइ भरि नीसास प्राणप्रिया तो दरिसण पाखइ क्षिण अक वरस छ मास... रं० १२८ पवनकुमर दुखीओ देखी समझावइ माइ तात दुख किसो आण नइ नारीनो अवर भलेरी परणे सात... रं० १२९ जे नर अबला पूठिं झूरइं ते नर अधम कहाइ लोक करइ परपूंठइ निंदा राखीजइ मन धीर धराइ... रं० १३० जो नारि तो इणि भवि अंजना नहींतर सरण अगन्नि जो वलइ तो वेगी ल्यावओ बीजी छइ मेरीइ मात बहिन्नि... रं० १३१ कुमर जइ वनमांहई बइठो करवा अगन प्रवेश सकल लोक है है पुकारई महाजन मंत्री नरेश... रं० १३२ ऋषभदत्त आवीनइं बोलई अम्ह ओक मानी वचन्न त्रिणि दिवस माहि जो नाणुं तो करि जे जे होइ मन्नि.... रं० १३३ मित्र वचन्न मानीनई रहीयो विरही पवनकुमार चोथी ढाल थई ओ पूरी प्रीति ऊपरि पडो धिकार... रं० १३४
दूहा मंत्री तिहांथी चालीउ अवधि कही त्रिण दीह गिरि पुर वन जोतउ फिरइ सासवंत अबिह... पूछइ वनचर वानरा वली वनतणा पुंलिंद ढूढइ आश्रम ऋषि जती जोगी जंगम वृंद... को न कहइ दीठी किणइ इणि मन घणुं दलगीर फिरत फिरत आवीयो मातुलपुरनई तीर... १३७
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सजल सरोवर देखिओ ते पुर निकटइ प्रौढ नरनारी आवइ घणां क्रीडा करण निगूढ... १३८ ऋषभदत्त तिहां आवीओ निरमल कीध सनांन पाछइ वडवृक्षनइ तलइ बइठो मेल्हि विमान... काचित्त आवती जावती वात करइ पणिहार धन्य से बाइ अंजना जिणरइ वीरकुमार... ऋषभइ वाणी सांभली पायो मन संतोष सुगुं वात अंजना तणी गुण बोलइ किइ दोस... १४१ ते इहां निश्चल अछइ पणि छइ कवण सरूप छानइ रहिनइ सांभलुं नाम गाम गुण भूप... हूई हो अणहार जे वात देसाउर जेह पणि पणिहारी वाटडी सघली लहीइ तेह...
ढाल : वधावा गीतनी जाति - राग : मल्हार ऋषभदत्त बइठो सांभलइ अक जाती हे वली वलती नारि कहंति सोभागी साजण सांभलो अंजना नइ हनुमंत वात विरतंत... सो...
१४४ काचित् बोलइ कामिनी अंजना नइ हे मांनी आपणइ कंति-सो. आपणि सासरिए परिहरी शिर देई हे कूडो दोस कलंक.... एक सतवंती सुंदरी एण मोहिं हे नही वले वंक कुवंक सो. १४५ काइक वली नारि कहइ बहु दीहाहि राख्युं शीलरतन्न... सो. पणि धणीइं नवि आदरी तब छेहडइ हइ विणसाड्युं मन्न... १४६ काचित इम कहइ सती इणइ अवडां हे कां दुःख दीउ शरीर... कोइ शिर करवो हूंतो जोईनइ दिल्ल हीर...
सो०. १४७ काइक वात इसि कहइ नारीनइ हे सुंदर रूप विणास...सो. भ्रमर नर भमता रहइ पाखतीयां हे माडइ पास वेसास... १४८ काचित नारी इम कहे झख मारओ हे जो मन द्यइ साखि खूटामाहिं खेडीइं न बुलावइ हे को ऊभां थिर राखि. १४९
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अनुसन्धान-७७
काचि नारी इम कहे अन्न रांध्या हे नारी कवण पराण तो वलती बीजी कहइं पय पड्या हे आपे राउ न राण... १५० काइक बोलइ कामिनी नरसेती हे चूकी अकवार तउ हवइ बइसी सु रही कां निगमइ हे आलइ जमवार... १५१ स्युं बोली बीजी कहइ जाणइ छे हे आदरस्यइ भरतार ओ सरिखो किहांथी मिलइ नर बीजो हे को नही ओणि संसार. १५२ हणुमंत जेहवा जाईआ पति भगती हे काई अहवी न नारि सो गिरि वसतु रही जीवती तो इणने हे छइ सील आधार ओक कहइ नारि इस्यो सुत इणरो रे वरी अणुहारि सही तूठो हे तिणनइ देव मुरारि... काचित मोही कामिनी देखीनइ हणुमंत कुमार सुंदर नर देखी करी नारीनइ हे वाधइ प्रेम अपार. जिण घरि नारी रूअडी घरि तेणइ हे रूडा नाहनी खोडि पुरुष भमर नारी पखइं जग माहि हे नहि सारिखी जोडी. १५४ . मनमाहइ इम चीतवइ जे बोली हे पर-घर-भंजी नारि तो प्राण उणरो साबतो जाणे ज्यो हे पंडित हृदय विचार... १५५ आप तिहांथी ऊठिनइ मन चिंतइ हे अंजना लाधी मइ अथि तो हवि मुझ चिंता टली जइ जोवू हे हिवइ रहिछइ जेथि... १५६ इम चीतवि तिहांथी चल्यो पुरमांहि हे आयो राजदुआरि ढाल भणी अ पांचमी नारीनां हे कुतूहलरो कुण पार... १५७
दूहा राजसभाइ आवीयो ऋषभदत्त परधान हरख धरी सहु को मिल्या दीधो आदर मान... १५८ साइं दे(?) राजा मिल्यो पूछी कुसली खेम बाहि धरी बइसारीयो आंणी अंतर प्रेम... केम हुउ तुम्ह आवणो प्रकट करो संकेत मिलवा कारणि मजलसइं कि को बीजो हेत...
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ऋषभ कहइ राउजी सुणो मिलणउ धरि काम अंजना कारणि आवीयो जोतो पुर वन गाम... कुमर सिधाया कटकीयइं राजा रावण साथि वांसइ दोस देई शिरइ काढी वाह्य अनाथ... कइ खाधी वन सावजे कइ मूइ त्रस भूख कइ नर खेचर ले गयो कइ दाधी प्रिय दूखि... १६३ काइक सूधि लाधी इहां ते सुणि आयो अथि छती वतावओ जु हुई नहीतर भमवओ केथि... १६४ अवधि कही त्रिण दीहनी ते दीन हुआ आज मिलतां रहस्यइ माहरी पूंठइ सघली लाज... १६५ चहि रचावी वेदिमइ बइठो पवनकुमार मिलियां विण जीवइ नही ओ निश्चय निरधार... १६६ जो होइ तो ते वाउडो म करो ढील लगार तिणइ कह्यो अह्म घरि अछइ करिज्यो दिल्ल करार... १६७
ओ बइठी निरखो जई दानसाल द्यइ दांन पुण्य तणो पोतो भरइ पुत्र सहित सावधान... १६८ ऋषभदत्त तिहांथी ऊठिनइ आयो तेणइ ठाम सतीइ देखी उलस्यो ओ मुझ पति मित्र मान... १६९ अंजना ऊठी देखिनइ आणी लाज विवेक ऋषभ जुहार करी तिहा आगइ रह्यो सु छेक... १७० मन उल्हास धरी घणो पूछी प्रिय कुशली वात्त कुशलेखेमे आयनि मिलीयां निज माय तात... १७१ ऋषभ कहइ सहू को मिल्या पाम्यो घण आणंद पिणि तुझ पाखइ तुझ पति झांखो रयणि विना जिम चंद १७२ हुं तुम्ह आयो तेडवा म करो कोई विलंब जाणिउं प्रीउ जीवतातणो देखां मुखी प्रतिबिंब... १७३
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अनुसन्धान-७७
ढाल : भलइ रे पधार्या तुझे साधजी रे... अहनी देसि वयण सुण्यां प्रीउ मित्रना रे मन अति पाम्यो घण रंग रे हूउ रे उमाहो मन मिलवा तणो वली जाग्ययो मयण तरंग रे.. १७४ जोवो साची महिमा शीलनी रे जिणि हुंती भवभीडि जाय रे फलइ मन केरी आसा घणी रे आपद टलनइ सुख थाइ रे...जोवो. १७५ वात सांभलीनइ चाली अंजना रे बइठी बइठी आवी मामा अंति रे अह्मनइ प्रीतमरउ आणो आवीयो रे हिवि संप्रेडो मनि खंति रे.. जोवो. १७६ भलइ बाइ थारइ आणओ आवीयो रे अम्हे पाम्यो परमाणंद रे दोस उतरस्यइ शिरथी कारिमो रे वलि पामेस्यइ सुख जिंद रे...जोवो. १७७ मामइ संप्रेडी रूडइ सुंदरी रे बहला दीधा हीरा लाल रे हार मोतीना दीधा नवलखा रे वली दीधी सोवन माल रई... जोवो. १७८ नंग जडित दीधा बहिरखा रे वली दीधा बाजु बंध रे चीर पटोला नारीकुंजरी रे वली दीधा कसबी संध रे... जोवा. १७९ वीर कुमरनइ आपीयां रे वागा डील प्रमाण रे सोवन कडली सांकली रे वली सीसइ खुंप मंडाण रे... जोवा. १८० इणइरे साहमांणी चाली अंजना रे वली दीधा साथि जोद्धार रे मामो पणि चाल्यो साथइ चूंपस्युं रे हय गय रथ परवार रे... १८१ केइ नर बइस रूडी पालखी रे के नर आगेऊ जाय रे केइ गगनि उंचा वहइ रे केइ अश्व पलाय रे... जोवो.. १८२ इणि परि रूडइ मारग चालती रे पुहता निज पुर तीर रे गयो रे वधाओ कुमर आगलइ रे बइठो छइ जिहा दिलगीर रे... जोवा. १८३ जाईनइ वधाऊ इम बोलीउ रे आवी अंजना नारि रे कुमर सुणीनइ ऊठ्यो झलफली रे अवलोकइ वारोवारि रे... १८४ राजानइ राणि बेहु रंगसुं रे वजडावइ निसाणा रे भेरि नफेरी भुंगल भरहरइ रे ठाण माड्यो रंग मंडाण रे... १८५ पंचमंगल गूड उछालइ रे वली बांध्या तोरण बारि रे कलस जवारा शिर कामिनी रे हालइ गजगति सार रे... १८६ सन्मुख जाई सहु को मिल्या रे वागां वरमंगलतूर रे मधुरा गावइ गोरी सोहला रे हुवो पुरी सकलो नूर रे... जोवो. १८७
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११३ पवनकुमर नारि अंजना रे हूआं बे गज आरूढ रे खलक लोगाई आगइ संचरी रे के पाछलि के वली गूढ रे... १८८ इम गहगहतां पुर मइ आवीयां रे मोहल मइ कीध प्रवेश रे । वाजानइ वधाइ केरां वाजीयां रे हरख्यो नगर नरेस रे.... १८९ जोउ अंजनानइ प्रीउडो मिल्यो रे वाध्यो हरख अपार रे ढाल छठी कही रंगमइ रे कवियण हर्ष धरंत रे... जोवा... १९०
दहा
पवनकुमर नइ अंजना मिलियां पुण्य प्रमाण दुःख भागो सुख उपनो घरि घरि हर्ष मंडाण... १९१ राय प्रह्लादन कुमर भणी सुंप्यो सघलो राज बापइ दीक्षा आदरी सगुरु समीप सुकाज... संयम पाली सुभ मनइ पुहतो स्वर्ग मझारि पवनकुमर सुख भोगवई राज रमणि सुखसार.. अंजना पटराणी करी दीधा अर्थ भंडार रमइ रली रसमालीओ नाना भोग प्रकार... राजनीति विधि साचवइ पालइ राज प्रचंड साधु संत प्रजा साचवइ दीइ अन्याइ दंड... चोर चरड नट विट जिके त्रासवी काढई मूल दाता कवि गुणवंतनइ दीठइ मन अनुकूल... इणि परि राजा आपणो, पालइ शुभ मति राज हिवइ भवियण इक मनि सुणो किणि परि सारइ काज १९७
ढाल : तुंगियागिरि शिखरि सोहई - ए देशी
राग : कालहरओ वा परजिओ विचरता भूपीठ पावन विशुध तपजप काय रे पुर प्रह्लादन तणइ उपवनि आविआ ऋषिराय रे... साधु वाणी भवीक प्रांणी सांभलो चित्त लाय रे अनंत करमनी राशि त्रूटइ विमल आतम थाइ रे...
१९८
१९९ साधु
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अनुसन्धान-७७
२०२
२०३
२०४
२०५
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सुमति सुमता गुपति गुपता अज्जव मद्दव खंति रे सहस दह अठ शीलरथधर धीरनइ धीमंत रे... २०० साधु तुरत जाइ द्यइ वधाई रायनइ वनपाल रे आविया प्रभु साधु वनमइ वांदिया त्रिणि काल रे... वचन सांभली राय हरख्यो ऊठीयो ततकाल रे स्नान कृतबलिकर्म कीधा रंग मंगल रोल रे... अंजना नइ पवनराजा बेउ वंदन काजि रे चालियां मंडाण मोटइ साथि हय गय साज रे... पाय वंदी पासि बइठा सांभलइ उपदेश रे सुगुरु बोलइ हरण संसय वाणि अमृत लेस रे... काम नइ संभोगसुख रस सारिखा मधु बिंद रे अंतकालइ नरकि घालइ भोगवइ दुःख जिंद रे... जीवहिंसा करइ रसवसि मनइ नाणइ संक रे निगोद मांहि तेह प्राणी लिप्त थासइ पंक रे... कम्म अट्टह सत्त पयडी अट्ठावन बांधइ जीव रे लखि चोरासी योनि फरस्यइ करत अति घण रीव रे... २०७ चौद खाणी तणइ योगइ भोगवइ गति च्यार रे सुध किरिया विण न पामइं पांचमी गति पार रे... २०८ संसार सागर कूप उंडो मणुअ मीन कहोइ रे नेह मायाजाल बंधन काल धीवर जोइ रे... बहु परिग्रह बहु आरंभी बंध करतो अह रे तुच्छ आरंभ तुच्छ परिग्रह मोक्ष कारण अह रे... आय तूटी नही संधइ देव दाणव कोइ रे ओ जनम वली पढावला आवती हम जोइ रे... ओहवा मृदु वचन सांभलि आवीयो वैराग रे सती ऊठी हाथ जोडी देखि रूडो लाग रे... संसार कडूआ थकी सामी ऊभगी निरधार रे... अनुमति मांगी प्रीउ पासई लेइस्यु व्रत सार रे...
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रस
उपजइ सुख जिम तुम्हनइ करो तेह विचार रे धर्मनो प्रतिबंध म करो गई नावइ वार रे... आदेश मागइ कंत पासइ देखिनइ प्रस्ताव रे गुरुनी लाजइ बोल न सक्यो देखीओ मनभाव रे... वंदना करि ऊठि चाल्यां आवियां पुर माहिं रे पवनराजा इम चिंतइ लेउं दीख उछाह रे... ओ प्रिया मुझ प्राणवल्लभ छंडि मो मई जाय रे संसार सूनो ओह पाखई कहो कीम रहाय रे... अम चिंतवि तेडि हनुमंत सुपीयो राजभार रे करइ महोत्सव घणइ हरखई लीयई व्रत सुविचार रे पालखीइ बेइसी चाल्या घणा नर हय थाट रे भेरि भुंगल संख वाजइ पडह दुंदुभि झाटि रे... आवियां इम करतां गहमह सगुरु पासइ खंत रे संकोच करि मन वचन काया लोच कीध अभ्रांत रे... अंगनइ उपांग भणिनइ आदरइ तप घोर रे । करइ सूधी कठिन किरीआ हणइ मनमथ चोर रे... घणा वरसां लगई इण विधि सुद्ध चारित पालि रे अंजनानइ पवन मुनिवर लहई स्वर्ग विशाल रे... सार सुख सुर तणां भोगवि तिहां थकी चवि तेह रे महाविदेह ले चारित्र सीजस्यइ निसंदेह रे... आठमी ओ ढाल सुणतां कर्म तटइ कोडि रे पुण्यसागर कहइ प्रांणीया सुणो मच्छर छोडि रे...
ढाल : फागनी होलीइं गावइ सो जाणिज्यो आ हे अंजना केरी चोपई, पूरण हुई अह जे नर भणस्यइ भावस्युं मंगल लहस्यइ तेह... आ हे सतीयांरइ सिरइ अंजना बोलइ कविराय सांभलता ऊलट लहसइ हईयडइ हरख न माय...
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२२१
२२३
२२४
२२६
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अनुसन्धान-७७
षट् दरसणरा ग्रंथमांहि अंजना केरी वात पवनसुतन हणुमंत राय प्रगट्या अवदात आ हे गुणे सती सु वण्णियइ जासु वदइ संसार जैन माहिं ठामे घणी दीसइ अत्थ अधिकार... पिण परमारथ जूजूआ नाम तणा निरधार... शीलतरंगणी ग्रंथथी ए रचिओ संकेत कांइक कवि मति केळवी भिन्न कियो अछइ हेत... आ हे ते दूषण मत काढिज्यो गुणग्रह करज्यो रंग सोभतो मइ आणियो लागइय सरस सुचंग... श्री मुनिसुव्रत सामिरइ वारइ हूइ वात च्यार वही जिन वचि गया कुण जाणइ अवदात... युगप्रधान श्रीजिणेसरइ कह्यो ज्ञान तणा (वाण?) तासु वचन सत्य मांनीयई जउ वहीयइ आंण... तासु वचन लोपी करी जे कह्यइ मतिसार ते मुझ मिच्छा दुक्कडं सुणिज्यो नरनइं नारि... पिपलगच्छइ जाणीइ शांतिसूरि गणधार चकेसरी पदमावती सेवइ वारोवार... भंग छ वट्टण भाखीइ धूलि कोल संकेत कुटुंब श्रीमाली सातसई ऊगार्या गुणहेति... भोजछ(स)भानइ सातसइ जीता वाद विशाल जिनशासन शोभावीयो वादी बिरुद वेताल... तिण गच्छ पीपल थापियो आठ शाख विस्तार संवत रुद्र बावीस मइ दसइ दीपइ हुई सुखकार... ते गच्छ दीपता साचोर मझार वीर जिणेसररो जिहां तीरथ अछई उदार... तासु पाटि अनुक्रम हुआ लछीसागर सूरि विनय राज कर्म सागरु वाचक सदाइ सनूर... तास सीस पुण्य सागरु वाचक भणइ अम अंजनासुंदरी चोपई पुरण वधतइ हेज...
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संवत सोल नेव्यासइ श्रावण मास रसाल सुद तिथि पंच वृधि मंगल माल...
२४१ इतिश्री अंजनासुंदरी पवनंजयकुमार संबंधे पूर्वभव वर्णन, मातुलपुरे समागमन, पवनजय पुनरपि गृहागमन, अंजनासुंदरीय दर्शन विरह विलाप, ऋषभदत्त सद्धिकरणाय ............,* अंजनासुंदरी पवनजयकुमार मीलन, .....* समीप दीक्षाग्रहण, सुरलोक गमनाधिकार वर्णनो नाम तृतीयखंड संपूर्ण. संवत १७१५ वर्षे मागशिर सुदि अष्टमी सोमवासरे लिखितं, अहमदनगर मध्ये, गणि कीर्तिसागरेण. लेखक पाठकयो सुभं भवतु. श्रीरस्तु कल्याणमस्तु श्रीः ।।
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अनुसन्धान-७७
केटलाक शब्दोना अर्थ
पणासहा = नाश करनार अबीह = बीक विना दुःखरीव = (दुष्कृत्य ?) अणेख = अत्यंत परतखि = प्रत्यक्ष अगड = प्रतिज्ञा फासू = अचित्त पदार्थ सोकि = सपत्नी विखरो = विष सांती (सांतइ) = छुपावq तवना = स्तवना घुरथी = घेरा अवाजथी, हृदयपूर्वक झलफलीजी = आरडई = दुःखी थq, रडवू खागल खादरे = खाडा-टेकरा वित्रोट = त्रुटित, तोड्यां अ-कर = न करवा जेवां कुमणि = ? बालई = दुःखथी वलोयाई सयण = स्वजन हारेख = ? अलूणो = अ-रसिक
छयल = रसिक पाखइ = विना पाखतीयां = आजुबाजु फरता हार = समान पंक्तिमां । छत्त = होवू ते अणहार = -ना जेवां, -ना जेवी देसाउर = देशावर भांघिर = अलग, जुदी ? निगमई आलई = निष्फळताथी पसार
करे छे. जमवार = जीवनकाळ खोडि = क्षति खंति = क्षमाभाव, समभाव खुंप = माथा परनो शणगार खलकलो = रणकार करतुं अज्जव = आजेय ? खाणी = जीवयोनि (?) ऊभगी = निर्वेद अनुभववो पढावला = समजण ? सीझस्यइ = सिद्ध करे, सीझशे भंग छ वट्टण = छ पाटण (नगर)नो
ध्वंस
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श्री चरमतीर्थपति दीक्षामहोत्सवाधिकार स्तवन
-सं. मुनि शीलचन्द्र विजय (डहेलावाळा)
पू. मुनिश्री गुणविजयनां शिष्य श्री सुमतिविजयजीओ ५६ कडीओने पांच ढाळमां वहेंचीने आ स्तवननी रचना करी छे. शैली सरल अने सुन्दर छे. छेल्ले कळशमां पोताना गुरु अने दादागुरुनां नामनो उल्लेख कर्यो छे ते सिवाय बीजी कोई वात जणावी नथी. जैन गुर्जर कविओ भा. ६मां सुमतिविजयनां शिष्य मुनि उत्तमविजयजीओ ४५ आगमनी पूजा रची होवानो उल्लेख छ सं. १८३४मां. आटली विगतना आधारे प्रस्तुत स्तवन पण १८३४नी आसपासमां सुमतिविजयजी द्वारा रचायु हशे एम अनुमान थई शके.'
स्तवनने अन्ते लख्युं छे के "इति श्री चरमतीर्थदीक्षामहोत्सवाधिकारस्तवनम्" अमां तीर्थ पछी पति शब्द लखवो रही गयो होय अम लागे छे. त्यार पछी सुभाषितना बे श्लोक लख्या छे.
स्तवननी १ली ढाळनी ६ठ्ठी अने ७मी कडीमां वीरप्रभुना मोटाभाई साटे नन्दीवर्धन अ प्रमाणे नामोल्लेख करायो छे त्यार पछी दरेक ठेकाणे नन्दीराज अने नन्दीनृप ओ प्रमाणेनो शब्द प्रयोजायेल छे.
स्तवननी १ली ढाळमां प्रभुवीरनो गृहवास सम्बन्धी परिचय करावी दीक्षा माटेनी नंदीवर्धन राजाओ करेल अभिषेक सम्बन्धीनी व्यवस्थानुं वर्णन छे.
२जी ढाळमां विविधजातिना अने नाना प्रकारनां द्रव्योथी संयुक्त अवा जलभृत कळशो द्वारा सुर-नरोओ करायेल प्रभुने स्नान त्यार पछी प्रभु पर करायेल विशिष्ट प्रकारनो शृङ्गार ने अन्ते नन्दीराजाओ प्रभु माटे केवा प्रकारनी शिबिका तैयार करावी तेनुं रोचक वर्णन छे.
३जी ढाळमां प्रभुनु शिबिकामां आरोहण साथे साथे कुलमहत्तरा अवं धावमाता आदिनी व्यवस्था ने त्यारपछी इन्द्र वगेरेओ शिबिकाने केवी रीते वहन करी इत्यादिनुं क्रमशः वर्णन छे.
४थी ढाळमां प्रभुनां वरघोडानी विशेषताओ अने तेमां राजा वगेरेनो क्रम बताववामां आव्यो छे ने छेल्ली ५मी ढाळमां ज्ञातखण्ड नामना वनमां जईने प्रभु
१. स्तवननी ५६मी कडीमां तथा कलशमां स्पष्ट उल्लेख छे ते प्रमाणे, उपा. यशोविजयजीना शिष्य पं. गुणविजयना शिष्य सुमतिविजयनी आ रचना छे. -शी.
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अनुसन्धान-७७
कई रीते दीक्षा स्वीकारी अनुं जीवंत वर्णन छे. त्यारपछी प्रभुनो विहार, स्वजनोनी विदाय, अनुक्रमे केवलज्ञान अने अन्ते शिववधू साथेनो अन्तिम विवाह इत्यादि सर्व विगतो आवरी लेवाई छे.
___आ हस्तप्रतनी प्राप्ति वि.सं. २०६७मां कलकत्ताना चातुर्मास दरम्यान गुरुदेव श्री आ.भ. जगत्चन्द्रसूरिजी म. (डहेलावाळा) द्वारा ९६ केनिंग स्ट्रीटना संपूर्ण उधईग्रस्त हस्तलिखित ज्ञानभंडारना जीर्णोद्धार, कार्य हाथ धरायुं त्यारे आ स्तवन हाथमां आव्युं. तरत ज तेनुं लिप्यन्तर करी दीधेल. ते अत्रे प्रगट थई रह्यु
॥ ० ॥ श्री वीतरागाय नमः ॥ अलबेलानी देशी ॥ प्रथम ढाल ॥ वंदु वीर जिणेसरू रे लाल तीरथपति अरिहंत मेरे प्यारे रे दीक्षा कल्याणक गायस्युं रे लाल महिमावंत महंत मेरे प्यारे रे वंदु १
ए आचली । त्रिशलानंदन चंदलो रे लाल तात सिद्धारथ राय मेरे प्यारे रे हेमवरण हरिलंछलो(नो) रे लाल जस पद सेवे सुरराय मेरे प्यारे रे. २ यौवनवय जिन आवीया रे लाल परण्या यशोदा नारी मेरे प्यारे रे पंचविषय सुख भोगवु रे लाल त्रिभुवननो शिणगार मेरे प्यारे रे. ३ त्रीस वरस गृहमे वस्या रे लाल व्रत ग्रहवा धरे भाव मेरे प्यारे रे ते समये देव लोकांतिका रे लाल आवी कहे सदभाव मेरे प्यारे रे. ४ भोगकरम पूरे थये रे लाल स्वयंबुद्ध भगवान मेरे प्यारे रे उ(पू)रण सवि पृथवी करी रे लाल दीधु वरसीदान मेरे प्यारे रे. ५ नंदीवर्धनभ्रात ने रे लाल प्रभु पूछे करुणावंत मेरे प्यारे रे राजन अवधि पूरी थइ रे लाल हवे व्रत लेस्युं गुणवंत मेरे प्यारे रे ६ दीक्षा महोछव मांडियु रे लाल नंदीवर्धन नेह मेरे प्यारे रे । कुंड:पुर शिणगारियु रे लाल स्वर्ग समोवडी तेह मेरे प्यारे रे. ७ मंडप मोटो मांडियु रे लाल तोरण बांध्या बार मेरे प्यारे रे ध्वज आरोप्या लहकता रे लाल रचना कीधी सार मेरे प्यारे रे ८
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नंदीराज शक्रादिके रे लाल अष्टभातीना कलशा कीध मेरे प्यारे रे एक एकनी जातिनां रे लाल अष्टोत्तर सहस प्रसिद्ध मेरे प्यारे रे ९ सोवनमयी रूपामयी रे लाल कलश मणिमय चंग मेरे प्यारे रे सोवन रूप्यमयी सहि रे लाल करे कनक मणिमय रंग मेरे प्यारे रे १० रजत मणिमय दीपता रे लाल कनकरजत मणिकुंभ मेरे प्यारे रे अष्टम मृन्मयी जाणिइ रे लाल खीरसिंधुनुं भरियु अंभ मेरे प्यारे रे.
वंदु वीर... ११ . ॥ ढाल देशी ॥ मनरा मान्या ॥ द्वितीय ढाल ॥ *** चोषष्टि हरि अच्युतादिके कीधा कलश वरिष्ट मनरामान्या
नंदीराज कृत कुंभमां रे दिव्यानुभवे पविट्ठ मनरा मान्या प्रभु अहनिशि धरु तुम्ह ध्यान मुजने आपो समकितदान जेहथी लहीइ मुगति निदान मनरा मान्या ४ आ० पूर्वाभिमुख बेसारी ने रे स्वामीने नंदीराज मनरा मान्या सुरानीत क्षीरोदके रे सर्वौषधि मृत्तिका समाज मनरा मान्या. स्नान करायु तेणे जले रे हरिकर आदर्श शृंगार मनरा मान्या प्रभु आगे उभा रह्या रे बोले जयजयकार मनरा मान्या अंगविलेपन चंदने रे कंठे कल्पतरु पुप्फमाल मनरा मान्या श्वेतवस्त्रावृत गात्रस्यु रे वर हार किरीट विशाल मनरा मान्या काने कुंडल शोभता रे कटक मंडित भुजदंड मनरा मान्या कंठपीठ बहुमूल्यनुं रे धारित वस्त्र अखंड मनरा मान्या. नंदीराजकृत शिबिका रे चन्द्रप्रभा जे पवित्र मनरा मान्या बहु थंभशत जेहमारे मणि मोती कनक विचित्र मनरा मान्या पणवीस धनु विक्खंभ छ रे लांबी धनुष पचास मनरा मान्या छत्रीस धनुनी उच्चतारे सुरे तिम कीधा उल्लास मनरा मान्या
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अनुसन्धान-७७
२०
॥ ढाल - रामपूरा बाजारमां ॥ तृतीय ढाल ॥ मनु शिबिकामा समावता सुर वि(पि)णते ततकाल मेरे लाल तेहमा पुरव संमुखे सिंहासन बेठा कृपाल मेरे लाल
सुगुण सनेहि साहिबो | ए आंकणी ॥ १९ कुल महत्तरिका अंगना दक्षिण बेठी तेह मेरे लाल हंस लक्षण पट सा ग्रही प्रभु सुख ज्योति ससनेह मेरे लाल. दीक्षोपकरण लेइने अंब धात्री वामांग मेरे लाल एक पुंठे छत्र कर ग्रही वरतरुणी मनरंग मेरे लाल २१ सु० ईशान कुण एक स्त्री रही कर पूर्ण कलश विस्तार मेरे लाल अग्निकोण मांहि तथा वींजणो लेइ एकनारि मेरे लाल २२ सु० बेठी सहु भद्रासने हवे नंदीनृप आदेश मेरे लाल सहस गमे शिबिका प्रते उपाडे हरखे अशेष मेरे लाल उपरली बाहा वहे दक्षिण सौधर्मेन्द्र मेरे लाल उत्तरनी बाहा तिहां अग्रेतन ईशानेन्द्र मेरे लाल तिम चमरेन्द्र अधस्तनी ए दक्षिणबाहा वहंत मेरे लाल उत्तरनी ते पाछली बलीन्द्र वहे हरखंत मेरे लाल भवनपति व्यंतर ज्योतिषी वली वैमानिक इंद्र मेरे लाल यथायोग शिबिका वहे धरतां विनय अमंद मेरे लाल २६ सु०
॥ ढाल देशी ॥ मोहननी ॥ चतुर्थ ढाल ॥ पुष्पवृष्टि सुरवर करे गाजे दुंदुभिनाद मोहननी ते समये सुख स्वर्गना तृण समणता आह्लाद मोहननी
वारी हुं वीर जिणंदनी ए आंकणी शक्र इशानेन्द्र बे दिशे चामर ढाले सश्रीक मोहननी सुरवृंदे नभ शोभतो भूतल विण रमणीक मोहननी २८ वारी मंगलतूर वजावते भंभा भेरी प्रधान मोहननी संख मृदंग ने झल्लरी वाजे ढोल निशान सोहननी २९ वारी०
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जून - २०१९
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इम अनेक वाजिंत्रनो प्रसर्यो त्रिभुवननाद मोहननी प्रभु गुण गीत गोरी मीली गावे सरले साद मोहननी ३० वारी वाजिंत्र शब्द सुण्यो तदा मीलीया नारीना थोक मोहननी जिन मुख अति हरखे करी निरखे नागरिक लोक मोहननी ३१ वारी० शोभित प्रभु मुख आगले अष्ट मंगलिक चंग मोहननी पुंठे नंदीनृप चालता सेना लेइ चतुरंग मोहननी . ३२ वारी० इम अनुक्रमे जाणिइ पूर्ण कलश भंगार मोहननी चामर ने मोटी धजा ते आगे छत्र सफार मोहननी ३३ वारी० सिंहासन सणि हेमनु पादपीठ संजुत्त मोहननी अष्टोत्तर शत गज तुरी आरोहक रहितज वुत्त मोहननी ३४ वारी० घंट पताका मनोहरू शस्त्र भृतरथ चंग मोहननी अष्टोत्तर शत नखरा मन धरता अतिहि उमंग मोहननी ३५ वारी० चार अनिक चाले वहि लघु सहस पताका हुँत मोहननी जोयण सहस उंचो सहि महेन्द्रध्वज लहकंत मोहननी ३६ वारी वीरजिणंदनी अष्टोत्तरशत मालता चइवधर(?) कुंतना धार मोहननी पीठफलग हास्यकारका नर्मवचन कहणार मोहननी ३७ वारी० उग्रभोगादिक वंशना तलवर माडंबि जोय मोहननी शेठ कोटुंबिक सामटा सारथवाह बहु जोय मोहननी ३८ वारी० मंजुल मन करी आविया सुर मानव केई कोडी मोहननी जइ जइ शब्द प्रयुंजता प्रभुने नमे कर जोडी मोहननी ३९ वारी० हुं वीर जिणंदनी ढाल २॥ मुखने मरकलडे ए देशी ॥ पंचम ढाल ॥ श्री वर्धमान जिन रायाजी जिनमुख भामण महे (छे) सुरपति सेवित जस पायाजी जिन. दीक्षाकल्याणक जुओजी जिन. मागसिर वदी दशमी हुओजी जिन मुख. ४०
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अनुसन्धान-७७
कुंडपुरथी उद्यानेजी जिन. ज्ञातखंडवन शुभ थानेजी जिन. राखे शिबिका करुणा इठजी जिन. अशोक तरुवर हेठजी जिन. ४१ स्वामि तिहाथी उतरीयाजी जिन. उपशमरसना दरियाजी जिन. आभरणादिक स्वयमेवजी जिन. प्रभु उतारे ततखेवजी जिन. ४२ कुलनी महत्तरिका नारिजी जिन. प्रभुने कहे जाउं बलिहारीजी जिन. क्च्छ प्रमाद न करजोजी जिन. केवल सिरि वेगे वरज्योजी जिन. ४३ प्रभुने इम कहती वाणीजी जिन. प्रणमे जोडी दोय पाणीजी जिन. लोच ते पांचमुष्टि कीधोजी जिन. तप बहु को सुप्रसिद्धोजी जिन. ४४ वामखंधे देवदूष्य भूकेजी जिन. शक्र समय नवि चूकेजी जिन. इन्द्रे वार्यां वाजिंत्रजी जिन. तव कोलाहल संप्यो तत्रजी जिन. ४५ स्वामि सिद्धने करेय प्रणामजी जिन कहे करेमि सामाइय तामजी जिन. मनःपर्यव उपनु ज्ञानजी जिन.चउनाणी सुगुण निधानजी जिन. ४६ इन्द्रादिक जिनने वंदीजी जिन. नंदीश्वर पहोता आनंदीजी जिन. यात्रा करी अभिरामजी जिन. सुर पहोता निज ठामजी जिन. ४७ बंधुवर्गनइ पुछी स्वामिजी जिन. विहार करे शिवगामीजी जिन. वीर वीर इम मुख कहताजी जिन. नंदीनृप निज घर पहोताजी जिन. ४८ लसि बहुलने दीधोजी जिन. माहे पारणु कीधुजी जिन.(?) छद्मस्थपणे निरधारजी जिन. अनुक्रमे साधिक वर्ष बारजी जिन. ४९ घातीकरम खपायाजी जिन. केवलज्ञान उपायाजी जिन. समवसरण प्रभु राजेजी जिन. भविजननां संशय भाजेजी जिन. जलधरनी परि ध्वनि गाजेजी जिन. तीन छत्र शिर छाजेजी जिन. वाणीगुण पणतीसजी जिन. प्रातिहारज युत जगदीसजी जिन. स्वामि चोत्रीस अतिसयवंतजी जिन. भविभयभंजन भगवंतजी जिन. बिहोत्तरी वरसनु आयजी जिन. प्रभु पूरण पालीय मायजी जिन. ५२
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जून - २०१९
पुर अपापइ उत्साहजी जिन. करे सिद्धि वधुनो विवाहजी जिन. प्रभु जनमनरंजन रूपजी जिन. अंजन रहित स्वरूपजी जिन. शान्तिसुधारस सिंधुजी जिन. शासननायक जगबंधुजी जिन सुरतरु चिन्तामणि सारजी जिन. एतो भगत मुगतिदातारजी जिन. ५४ प्रभु भवदव मेह समानजी जिन. दिओ समकित अखय निधानजी जिन. इम वीरजिनेसर गावोजी जिन. स्याद्वादरस पायोगी जिन.
५५ तार्किक आचार्य कहायाजी जिन. जसविजय उवज्झायाजी जिन. गुणविजय विबुध तस शिसजी जिन. कहे सुमतिविजय सुजगीशजी जिन. ५६
कलश इय वीर दीक्षा समय वर्णन वर्णव्यो भावे करी अजर अमर अकलंक निर्मम तरण तारण चित्त धरी श्री जसविजय उवज्झायनो सुशिस गुणरयणायरु गुणविबुध सेवक सुमतिविजये संथुण्यो परमेसरु
॥ इतिश्री चरमतीर्थ(पति)दीक्षामहोत्सवाधिकार स्तवनं ॥
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अनुसन्धान-७७
विहंगावलोकन
- उपा. भुवनचन्द्र
अनु० ७६नी विशिष्ट अने रसप्रद कृति छ : विजयसेनसूरीन्द्र स्वाध्याय. हरियाली स्वरूपनी आ सज्झाय पर कर्ताए पोते संस्कृतमा व्याख्या करी छे. खरेखर, व्याख्या विना आ कृति समजाय एम नथी. कृति शुद्ध छे. क्यांक म.गू. भाषानी दृष्टिए वाचनभूल छे. क. १ घुरघुरई, क. २ देखिइं वगेरे स्थानोमां बिन्दु-अनुस्वार न होय. अनुस्वार होय तो बहुवचन थाय, ज्यारे अहीं एकवचन अपेक्षित छे. आवां स्थानो सम्पादके शुद्ध करवां जोईए.
प्रकीर्ण स्तोत्रादिमां प्रथम ब्रह्मर्षिकृत स्थंभनपार्श्वनाथ स्तवन छे, ते प्रकाशित छे, पार्श्वचन्द्रगच्छमां प्रसिद्ध छे. बीजुं 'जिनस्तवन' नोंधपात्र छे. आ कूटकाव्य प्रकारनी प्रहेलिकावाळु स्तवन छे. श्लोक २ थी शरु करी क्रमशः सात विभक्तिनी कर्तृगुप्त, कर्मगुप्त वगेरे प्रहेलिका आमां छे. स्त. ७, क. २ - 'हुआ आयती' छे त्यां एक आ वधारानो छे. 'हुआ यती' पाठ होय. स्त. ९, कडी ५ – 'अव्यां सात' ने स्थाने 'आव्यां सात' एम वांचतां अर्थसंगति थाय छे, (अव्याघात)नी कल्पना करवी जरूरी नथी. क. ६मां 'सामिणउं'ने स्थाने 'सुमिणउं' वांचq योग्य रहे. क. ३९मां 'दह-ताप' नहि, पण 'दुहताप' होवू घटे.
खम्भातना चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालयना इतिहासने तथा सेठ राजियावाजियाना सुकृत्योनी विगतने समावती गुजराती रचना महत्त्वपूर्ण छे. रचना प्रायः शुद्ध छे. सम्पादके पूर्वापर विगतो आपी छे अने जरूरी चर्चा पण करी छे. ढा. ३ क. ९३ : छोति, शब्दनोंधमां आनो अर्थ 'छोतरां' आप्यो छे पण तेम नथी. अर्थ छे : छूताछूत, आभडछेट. ढा. ५ क. ४ त्रूटकमां 'खांपर्यु' छे. अर्थ खोड, खामी, कचाश जेवो समजवानो छे. गुजरातीमां आजे 'खोड़खांपण' प्रचलित छे ज. ए ज कडीमां 'सो,' छे ते स्थाने 'पो,' शब्द सम्भवित छे. पोढुं = मोटुं. 'खांपणुं धननइ एह पोहूँ' : धननी मोटी खोट. शुभवीर कृत पूजाओमां ढाळने अन्ते श्लोको बोलाय छे तेमांना अमुकना. रचयिता विबुधविमलसूरि छे ए वात आ अङ्कमां छपायेल अष्टक थकी जाणवा मळे
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छे. बाकीना श्लोको शुभवीरना ज छे के वळी कोई अन्यना छे - ए प्रश्न ऊभो रहे छे. पूजानी जूनी हस्तप्रतो तपासवी जोईए.
बालचंदकृत शिखामणबत्तीसी एक बोधक कृति छे अने पोताना समयमां ते सारी लोकप्रियता पामी हती. आ वाचनामां दरेक छन्दना प्रारम्भे एक (अड़धी) पंक्ति वधारानी छे, जे शीर्षक जेवी लागे छे. गावानी ढबमां ए पंक्ति कदाच उपयोगी थती हशे.
बारमासानी बे कृतिओ शुद्धप्रायः छे. विरहभावने यूंटती शब्दावली अने तेवी ज देशी, जे बारमासीनी विशेषता छे, ते आमां पण छे.
'अंजनासुन्दरीरास'मां केटलीक वाचनभूलो छे. पृ. ९९ नीचेनी पंक्ति : 'सनथवध', 'सनधबध' जोईए. पृ. १०१ नीचेथी ५ अने ६ पंक्ति : 'हेजालु ध' एम छपायुं छे. प्रासनी जरूरत प्रमाणे 'हेजालुध' जोईए. पृ. १०२, पं. ७ : 'धणि'. अहीं 'धण' शब्द छे. राजस्थानीमां 'धण' एटले वधू.
___'कमलावती रास'नी भाषा जूनी छे, तेथी वाचनभूल थवी सहज छे. दा.त. क. ५० : 'तिहा थ(छ)काय' एम वांच्युं छे. त्यां छकायनी कोई वात छे ज नहि. 'काय' वांच्युं छे त्यां 'की य' हशे. आ शब्दो आम वांचवाथी अर्थ स्पष्ट थशे :- "तिहां थकीय'. क. १० : 'वसु' - 'वस्तु' क. ११ 'विडइसि' - 'विहडसि' क. २४ : 'सतीइ बाप' - 'सतीइं [ज]बाप'. क. २४ : 'पांवसइ' - 'पांच सइ'.
चतुर्थ देवलोकमां अल्पबहुत्वनी चर्चानो लेख विषयने स्पष्ट करे छे, साथे साथे लेखक मुनिश्रीना आगमिक विषय परना प्रभुत्वने पण प्रकाशित करे छे.
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श्रीपुण्यविजय-स्मृति-चन्दक
प्रदान समारोह
आगमप्रभाकर श्रुतशीलवारिधि मुनिराज श्रीपुण्यविजयजी महाराजनी स्मृतिमां, तेमनी दीक्षा-शताब्दीनी उजवणी प्रसंगे सं. २०६५मां, आ० श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिजीनी प्रेरणाथी, 'श्रीपुण्यविजय स्मृति चन्द्रक' प्रदान करवाना कार्यनो प्रारम्भ करवामां आवेलो. आ निमित्ते एक स्थायी फण्ड करावीने ते 'गुजरात विश्वकोश ट्रस्ट' संस्थाने सोंपावेलुं, तेमज 'चन्द्रक प्रदान समिति'नुं गठन करेलुं, जेमां श्रीपंकजभाई शेठ तथा डो. कुमारपाल देसाईने नियुक्त करेला. आ चन्द्रकनो समारोह, दर बीजे वर्षे, विश्वकोश भवनना उपक्रमे योजवानुं तथा मनोनीत विद्वानने ते चन्द्रक अर्पण करवानुं पण निश्चित थयेलं. तदनुसार, प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, गुजराती इत्यादि विविध भाषाना प्राचीन या मध्यकालीन साहित्यना क्षेत्रमा संशोधन-अध्ययनादि द्वारा मूल्यवान प्रदान करनार कोई एक विद्वज्जनने ते चन्द्रक अपातो थयो. अत्यार सुधीमां पांच विद्वानोने आ चन्द्रक अर्पण थयो छे..
सं. २०७५ना चालु वर्षे आ चन्द्रक माटे, साबरकांठा (गुजरात)ना आदिवासी विस्तारनी प्रजाना साहित्य, भाषा, बोली इत्यादि उपर अद्वितीय काम करनार तथा ते विषयोना ५०थी अधिक शोध-स्वाध्याय ग्रन्थो आपनार विद्वज्जन डो. भगवानदास पटेलने पसंद करवामां आवतां, तेमने ते चन्द्रक-प्रदाननो एक सुन्दर समारोह, ता. १९-५-१९ने रविवारे सवारे १० कलाके, गुजरात विश्वकोश भवन - अमदावादमां, आ. श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिजीनी निश्रामां, योजायो हतो. आ प्रसंगे चन्द्रकनी साथे, परम्परागत रीते, सरस्वती-प्रतिमा, शोल, प्रशस्तिपत्र तथा रु. ५१/-हजारनो चेक अर्पण करवामां आवेल.
आ प्रसंगे डो. हसु याज्ञिक सहित विविध क्षेत्रना विद्वानो, स्थपति श्री बालकृष्ण दोशी वगेरे सम्भावित सज्जनो, श्री प्र.क. लहेरी वगेरे राजनीति क्षेत्रना अग्रणीओ, श्रीसंवेग लालभाई वगेरे श्रेष्ठीवों सहित जिज्ञासु श्रोताजनोनी विशाल हाजरी रही हती.
उल्लेखपात्र छे के आ पूर्वे आ चन्द्रक श्रीरूपेन्द्र पगारिया, श्री चिमनलाल त्रिवेदी, श्री कान्तिलाल बी. शाह, श्री रमणीक म. शाह, श्री भारतीबेन शेलत - आटला विद्वज्जनोने अर्पण थयेलो छे.
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डॉ. भगवानदास पटेलने पुण्यविजयजी संशोधन-चंद्रक अर्पण (ते प्रसंगे अपायेल वक्तव्य)
___ - हसु याज्ञिक
डॉ. भगवानदास पटेलने पू. पुण्यविजयजी संशोधन-अवॉर्ड प्रदान थई रह्यो छे ते प्रसंगे उपस्थित रहेवाना आनन्द साथे सन्मित्र भगवानदासने हृदयपूर्वक अभिनन्दन आपुं छु, तेम ज संस्थाए उचित रीते ज आदिवासी साहित्यकृतिना मौखिक पाठ - oral text-ना सम्पादन-संशोधननो पण भारतीय-प्रच्यविद्या Indological studyनी संलग्न शाखा रूपे स्वीकार कर्यो अने प्रारम्भमां ज सर्वथा योग्य एवा अभ्यासीनी पसंदगी करी ते माटे मुख्य सूत्रधार अने संशोधनशास्त्री एवा पू. श्री विजयशीलचन्द्रसूरीश्वरजीने, डॉ. कुमारपाळ देसाई तथा पसंदगी समितिना सदस्यश्रीओने आनन्द साथे अभिनन्दन आपुं छु. अहीं पू. श्री विजयशीलचन्द्रसूरीश्वरजी विशे 'संशोधनशास्त्री' एवं नर्बु ज पर्यायवाचक विशेषण हुं सहेतुक सार्थक रूपमा ज प्रयोगँ छु. इन्डोलोजिकल स्टडीमां पाठनिर्धारण-संशोधित-सम्पादन अनेक थया, परन्तु आ प्रकारनां संशोधनना हेतु अने स्वरूपनी शास्त्रीयतानी मिताक्षरी चर्चा तो मारी जाणकारी प्रमाणे विजयशीलचन्द्रसूरीश्वरजी द्वारा ज 'अनुसन्धान'ना माध्यमे आलेखाई. आ बधी ज चर्चाओ, विशद छणावट, सुवर्ण वाक्योमा निबंध संशोधननां बधां ज पासांओना सिद्धान्तो तारवती तत्त्वचर्चाओ ज, जे आपणे त्यां हजु सुधी थई नथी, अन्यत्र पण जोवामां आव्युं नथी, ते संशोधन शास्त्र बांधवानो पायो नाखे छे. आथी ज मारा प्रेरणामार्गदर्शनमां ए तंत्रीलेखोनुं विषयानुसारी सम्पादित स्वरूप तैयार करवानुं सूचन करेलुं छे.
भगवानदास पटेलने अवोर्ड अपाय छे तेना मारा बेवडा आनन्दनुं कारण ए छे के एमनां बधां ज सम्पादनो-संशोधनोमां हुं प्रत्यक्ष रीते ज संकळायेलोसंडोवायेलो रह्यो. मुखपरम्परानी महाकाव्यकुळनी सुदीर्घ कृतिओना स्वरूप, प्रकार, लक्षणो, रजूआत -Performance मुखपाठनुं लिपिबद्ध रूप, transcription of oral text, एनी पद्धति, एनां भयस्थानो, इन्डोलोजिकल स्टडी
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अन्ड टेकस्ट एडिटिंगनी पद्धति, संशोधन प्रकार-पद्धति, आदिवासी कंठ्यपरम्पराना सम्पादननो इतिहास, ग्रामीण-नागरिक परम्पराथी एनी भिन्नता अने ओळख, ए माटेनां परिबळो ने.कारणो : आ बधुं जे इतिहास अने संशोधननी भूमिकाए में चच्र्यु के आ कण्ठप्रवाहनी विशिष्ट के लाक्षणिक एवी जातिओ अने स्वरूपो genres & forms, एनो छेक ऋग्वेदकाळ साथेनो अनुबन्ध वगेरे तारव्यु एमां मने बधी ज अभ्यासक्षम सामग्री घेरबेठा खुरशीटेबल पर काम करतां भगवानदासना सम्पादनमांथी मळी छे. अमे बन्ने आ रीते पारस्परिक मित्र अने एकबीजाना गुरुशिष्य जेवा ज छीए. बन्ने एकबीजामांथी ज घj जाणीने शीखी शक्या. आमचेर रिसर्च ने फिल्डबेइझ्ड रिसर्च जोडिया छे.
ई. स. १९४३ना नवेम्बरनी १९मीए जन्मेला आ पटेल ई. स. १९८३मां, एमनी चालीसनी वये, भील गोठिया गीतोनुं सम्पादन 'लीलामोरिया' आपे छे. तेनां त्रण वर्ष पहेला ज एटले के ई. स. १९८०ना फेब्रुआरीमां भील आदिवासीनी भाषा-संस्कृतिनी दीक्षा ले छे. कहो के खेडब्रह्माना आदिवासी भील पटेल बने छे. अने मिलेनियमना आरम्भना दसका सुधी एक ज जाति अने एक ज प्रदेशनी आदिजातिनी भाषा-संस्कृतिमां रत रहे छे. कहो, बे पूरा 'तप'. एमणे एक ज निश्चित प्रदेश, जाति, भाषा-संस्कृतिनो अभ्यास कर्यो. आवा सातत्यपूर्ण कार्यमां एमना पहेलां गुजरातमा मात्र शंकरभाई अने रेवाबहेन तडवी छे. परंतु तेओ तो सम्बन्धित भाषा-संस्कृतिमां ज उछरेलां. स्वजाति पर काम करवानुं मुश्केल न गणाय. अहीं भाषा-संस्कृति अने जाति एकदम जुदां ने पाछा आ तो कृषिकार पटेल ! बीजा पूर्वसूरिओमां दक्षिण गुजरातना राजपीपळा विस्तारना प्रेमगीत 'छेलिया' पर काम करनारा डो. जयानन्द जोशी अने यु.जी.सी.ना प्रोजेक्ट पर आदिवासी बोलीओ पर काम करी चूकेला भाषाशास्त्री एवा समर्थ लोकविद्याविद डॉ. शान्तिभाई आचार्य. ए तो गुजरात विद्यापीठना प्रोफेसर एटले गुरु पण खरा. भगवानदासनी विशेषता ए के एमणे युनिवर्सिटी कक्षाना अभ्यास वगर ज भीली भाषा परम्पराना साहजिक प्रेम-लगावथी ज काम कर्यु – निजानन्दे ! शास्त्र अने सिद्धान्तो एमणे अनुभवे ज आत्मसात् कर्यां.
लोकसाहित्यना कोई पण क्षेत्रना के प्रकारना कण्ठप्रवाहनी सामग्री मेळववी मुश्केल. तेमां पण जेनी मातृभाषा, जाति, संस्कृति भिन्न छे उपरांत
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प्रमाणमां अजाणी छे तेना पर काम करवू तो खूब ज मुश्केल. माहितीदाता शोधवा, पसंद करवा, एने माहिती आपवा संमत करवा, खुश राखी खीलववा, ढंढोळवा, जरूर पड्ये छंछेडवा, मनाववा, अजाण्यो कोई 'पोते ज जेनो मालिक छे' ते लई जाय छे, ध्वनि मुद्रित करे छे, लखी ले छे एथी जे क्षोभ-संकोचविरोध जन्मे तेने समजी समाधान करवं, दुर्गम प्रदेशोमां आवागमननां टांचा साधनो द्वारा पहोंचवू, व्यक्तिगत-सामाजिक-रूढि-विधि-मान्यतागत विरोधजन्य प्रश्नो अने संघर्षोनो सामनो करवो, मनावी-पटावी ध्वनि मुद्रित करवू, एकनी एक केसेट वारंवार सांभळी तेने लिपिमा उतारवी, केटलाक तद्दन अजाण्या अने स्पष्ट तेना उच्चारो सांभळीने जेमां बधा ज उच्चारो माटेना अक्षरो नथी, निश्चित चिह्नो नथी तेनो पाठ बांधवो, नथी ज्यां कोई मुख्य शीर्षक के खंड अने पंक्ति क्रम, कयां मूळ गान-कथन अने प्रोत्साहक ध्वनिओ, होंकारा-पडकारा, शिष्टमां बोली पण न शकाय एवा गालिप्रदानो छे ते बधुं जाळवी एनो पाठ बांधवो, आ बधी सामग्रीने ए जातिनी अने अन्य शिष्ट मनाती परम्पराओ साथेना अनुबन्धो तारववा, कोई पण कारणे माहितीदाता छेडाय, मनहृदय चोरतो थाय त्यारे साहजिक प्रेम-लागणी-निष्ठाथी वारण करवू, ए सामग्रीनो सांस्कृतिक सम्बन्धअनुबन्ध तपासवो - ए पण जेने आपणे जाणता नथी, जाणीए तो तिरस्कार करी नीति नाक चडावी छोडवा तत्पर थई एवी स्थिति निवारवा ग्रन्थिमुक्त थर्बु : केटकेटला अगणित तबक्के केवी-केवी-केटकेटली मुश्केलीओ ! जे अनुभवी होय ते ज जाणे !
- आ स्थिति वच्चे आ सम्पादक-संशोधके कार्य कर्यु छे. एमनी संस्कृतिने समजी, ग्रंथिमुक्त बनी काम कयुं छे. खास तो बहु ज महत्वनी बाबत ए छे के भगवानदासे भीलो पोते पोतानी आ सामग्रीने जे पर्याये जाणे-ओळखावेउल्लेखे छे ते ज आपे छे. ए बधांनुं प्रशिष्टीकरण करवू ए मोटुं भयस्थान छे. अने भीलो पोते आ सामग्रीने, कृति, परम्पराने जे नाम आपे छे ते ज नाम आपे छ ! 'अरेलो'- ए 'लोकमहाकाव्य' नथी करता के केवळ 'वारता' प्रयुक्त छे ते माटे 'रामायण' के 'रामकथा' नथी प्रयोजता. मात्र अभ्यास-भूमिकामां आख्यान/लोकाख्यान वगेरे पर्यायो प्रयोजे छे. एमनी आ शिस्तने कारणे ज 'अरेलो' शब्दना मूळमां वैदिक समयनो 'ईळे' एवो पराक्रमगाथानो ज मूळ पर्याय छे ते तथ्य प्रगट थाय छे.
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डॉ. भगवानदास सम्पादित लगभग समग्र सामग्री कुल पांत्रीसेक जेटली छे. एमां प्रेमगीतो, वहीनी वार्ताओ-डाकणकथा वगेरे पुराकथाओ, मरणोत्तर विधिसंलग्न कथाओ अने सुदीर्घ महाकाव्यना कुळनी राठोर वारता (१९८२), गुजरांनो अरेलो(१९८३) रोमसीतमानी वारता (१९९५) भीलोनुं भारथ (१९९७), गोपीचंद-भरथरीनी वारता (२००५) वगेरेनो समावेश थाय छे. भीलोना जीवनचक्र अने ऋतुचक्र बन्ने साथे संकळायेली महत्त्वनी लगभग बधी ज सामग्री भारतीय संस्कृति अने साहित्य तथा तेनी विविध धाराओ अहीं छे. इन्डियन कल्चर अने इन्डियन लिटरेचर अन्ड कनेक्टेड आर्ट्स – आ समजवू होय, अभ्यासq होय तो एमां अनिवार्य रूपमा उपयोगी बने एवी आ अभ्याससामग्री छे, जे अणमोल छे. आमांथी मोटा भागनी सामग्री कथा-साहित्य अने कथनकला - नेरेटोलोजी दृष्टिए खूब ज महत्त्वनी छे. आवी कथाओना घटकोनुं आ लखनार-बोलनारे लगभग पूर्ण एवं पृथक्कण करी हजारेक कथाघटको तारवी तेनी चर्चा करी छे अने डो. पिनाकिन दवेए आ घटकोने स्टीथ थोमसननी मोटीफ-इन्डेक्स साथे सम्पादित करी छे. आनो अर्थ ए छे के आ बधी ज कथाओनो अनुबंध मात्र भारत साथे के एनी संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश-धारा साथे छे एवं नथी, विश्वप्रचलित अने प्रवर्तित कथाओ साथे छे. एटले के वैश्विक क्षेत्रना कथा-साहित्यना अभ्यासनी दृष्टिए आ महत्त्वनी सामग्री छे. बीजूं, साहित्यसमेतनी संगीत, नृत्य, नाट्य, चित्रादि साहित्य संलग्न भगिनी कलाओए भारतनी संस्कृतिने घडी, पोषी, समयानुसार एमां जे कंई अवनवा प्रवाहो आव्या, लुप्त थया, वळांको आव्या - स्थित्यन्तरो प्रगट थता गयां ए जाणवानी पण अनिवार्य- रूपनी उपयोगी मूर्त अने दस्तावेजीकृत आलेखgraph - अहीं छे. मानवशास्त्र-ह्युमनोलोजी साथे संकळायेली कोई पण विद्या अने तेनां तत्त्वो, लक्षणो, स्वरूपो, शास्त्रो साथे अने व्यापकरूप धर्म अने संस्कृति साथे संकळायेली अनेक बाबतो आ संपदा ट्रेझरमां छे.
____ अंते अहीं संशोधन अने ए माटेना अवोर्डो साथे संकळायेली नवी ऊभी थयेली परिस्थितिगत समस्या अधिकारी विद्वानोना ध्यानमा लाववा जेवी छे. पहेली बाबत, ए तो स्पष्ट छ ज के लिखित हस्तप्रतना रूपमां जळवायेली अने सम्पादित थयेली सामग्रीना आधारे पाठ-निर्धारण अने सम्पादन करवू : एनो सीधो संबंध इन्डोलोजी साथे छे. आ ज वात मौखिक परम्पराथी सम्पादित थतो
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संशोधित एवो पाठ-text छे. हाल परिस्थिति ए छे के आमां शोधित पाठनी तारवण अने ए माटेनुं संशोधन लगभग लुप्त छे. परिणाम ए आव्युं छे के आवां बधां ज सम्पादनोने संशोधन मानी लेवामां आवे छे. लिखित परम्परानी कृतिओना सम्पादननी वात करीए तो बे-त्रण हस्तप्रतो उपरचोटिया जोई एकने पसंद करी अने लिपिबद्ध करी लाडु परनी खसखसनी जेम टीपमां अन्य हस्तप्रतोनां पाठान्तरो नोंधवा ए शुं संशोधित सम्पादन छे ? पाठ-निर्धारणनी सज्जता क्यां छे ? ए माटेनी पद्धति विशे केटलुं जाणीए छीए ? स्वीकृत मूळ पाठनी पण चकासणी केम करवी एनी जाणकारी केटलाने ? कोई पण हस्तप्रतना अक्षरो, एना शब्दो, पंक्तिओ उकेली तेना आधारे पाठ मूकी आपवो के पूर्वसूरिए आपेला पाठने ज पुनर्मुद्रित करी उपरटोचिया अभ्यास साथेनां, अधकचरा टिप्पण साथेनां संपादनोनो संशोधित सम्पादनमा समावेश थाय ? आस्वादन-विवेचन(प्रवाह/ प्रकार/कर्ता/कृतिनिष्ठ) वगेरेनो पण संशोधनमा समावेश करीशुं ? 'स्टडी इन', के अन्य बीजा प्रकारो – जे कंई अध्यापकीय विवेचनामां थाय ए बधानो समावेश पण Re-serchमां शुं थई शके ? संस्कृत-प्राकृत-पालि, अर्धमागधी जेवा प्रकारो, अपभ्रंश, नवी जन्मेली आर्यभाषाओना प्राचीन-मध्यकालीनअर्वाचीन जेवा तबक्का, एमां थयेला शब्द अने अर्थनां परिवर्तनो, एना परना तत्कालीन संजोगो अने कारणोनी जाणकारी, कोई पण अभ्यस्य कृतिनां जातिकुळ अने स्वरूपनां समयानुसारी परिवर्तनो वगेरेनी जाणकारी वगर कोई पण कृतिपाठ परो निर्धारित थई शके ? के. बी. व्यास, भोगीलाल सांडेसरा, के. ह. ध्रुव, हरिवल्लभ भायाणी ए आपणी नजीकनी पेढी अने पछीना जयंत कोठारी के रमणिकभाई के कान्तिभाई शाह जेवा संशोधकोनी परम्परा हवे छे ? संशोधक अवॉर्डो कोने आपवा? अपाया के अपाय तो कोने ? मारी मान्यता, जिनविजयजी कुळना ज एक छात्र तरीके एवी छे (कदाच खोटी के रूढिचुस्त) के आ दृष्टिए केटलाक संशोधक-अवॉर्ड चीलो चातरी गया छे. मारी रूढ दृष्टिए तो इन्डोलोजिकल स्टान्डर्ड - दृष्टि, धोरण, पद्धतिए जे अभ्यास पार पाडे ते ज संशोधन गणाय.
हवे ज्यारे मौखिक परम्परानी कृतिओनां सम्पादनोने संशोधक तरीके निश्चित करवानां थाय त्यारे परिस्थिति अने निर्णय विशेष मुश्केल छे. कंई पण सांभळवू, नोंधq के ध्वनिमुद्रित करी लिपिमा उतारवू मात्र ट्रान्सस्क्रीप्शन छे.
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लिपिबद्धीकरण छे. संशोधित पाठनिर्धारण - सम्पादन नथी. नवी के जूनी कंठ प्रवाहनी श्रुत-रचनानुं लिप्यन्तरण करवू ते संशोधन नथी. नवी हवा 'लिप्यन्तर' मात्रने आछा-थोडा-छीछरा अभ्यास-रसदर्शन साथे आपी 'संशोधक-सम्पादक' रूपे प्रस्तुत थवं, तेम ज तेनो लिखित रूपमा उल्लेख करवो उचित न गणाय. कथक-गायननी मूळ रजूआतना स्वीकृत पाठना कौमार्यने जाळवq, एमां क्यांय पण संशोधक-सम्पादके हस्तक्षेप न करवो ए स्वीकृत सुवर्णनीति छे. केम के ए माहितोदाता कलाकार कथक-गायकनी प्रोपर्टी छे. तेमां हस्तक्षेप न थाय, परंतु ए जाळवीने पण मूळना क्रममां एनी तर्कबद्ध एवी घटनाशृंखलामां, गृहीत के स्मृतिदोषने कारणे थती विसंगतिने सम्पादके टीपनोंधमां के कौंसमां जणाववी पडे. एना ए माहितीदातानी अन्य रजूआतने पण ध्यानमा लेवी पडे, ए कृतिपरम्पराना अन्य कलाकारना प्रस्तुतीकरणना सम्पादित पाठ के पाठो ध्यानमां लेवा पडे अने नोंधवा पडे. भारतना सुदीर्घ कथाओना डॉ. जे. डी. स्मिथ जेमणे पाबुजी-कथा आपी के श्याम मनोहर पांडेय जेमणे चनैनी(चन्द्रा) कथाना आठ रूपान्तरित पाठोनां क्षेत्रकार्य, ध्वनिमुद्रण, सम्पादनो कर्यां एमणे मौखिक रजूआतना पाठनी चकासणी अने निर्धारणमां आ पद्धति अपनावी छे. लिखितमां जेम मुख्य रूपमा स्वीकृत नथी एवी हस्तप्रतोना पाठने पण जेम ध्यानमा लेवा पडे छे, तेम मौखिक पाठना सम्पादनमां पण आ प्रकारनी पद्धतिनो आधार लेवो पडे छे. हकीकत ए छे के इन्डोलोजिकल स्टडीनी ज पद्धति लिखित अने मौखिक बन्ने पाठ निर्धारणमा समान छे.
एक सन्मित्र साथीना अवॉर्डमां मने सामेल थवानी, बोलवानी तक मळी ए बदल हुं संस्थानो आभार मानू छु अने श्रोताओनो पण. अंते मारा जे विचारो व्यक्त कर्या एमां मुख्य हेतु संशोधननी आपणी विभावना स्पष्ट बने अने सम्पादनमा शास्त्रीय धोरणो जळवाय ए स्पष्ट करवानो ज छे. इच्छीए के लिखित होय के मौखिक एवी कृतिना सम्पादनमा विशेष सावधानी वरताय अने अभ्यासधोरण जळवाय.
आभार. खास तो 'योजक : तत्र दुर्लभ' उक्ति ज बधे प्रयोजी शकीए एवी वर्तमान स्थितिमा विश्वकोश जेवी आदर्श-सर्वोत्तम कलासंस्था अने तेना मुख्य सूत्रधार डॉ. कुमारपाळ देसाई त्रण त्रण कार्यक्रमोने पण पूरी कार्यदक्ष आयोजन दृष्टिए योजी पूर्ण सफळ बनावे छे.
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