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रजू करवानी होय; तेना आधारे तेमने डिग्री, होद्दो, अधिकार, पगार वगेरे मळवाना होय; आ दृष्टिथी लखाता लेखोमां संशोधन केटलुं होय, मौलिक चिन्तन के ऊंडं अध्ययन केटलुं होय, ते तो लेखक पोते, तेना परीक्षको तथा तेनी साथे संकळायेला बधा ज समजता होय छे.
__ घणीवार लागे के ना पाडवानी, अस्वीकार के नपास करवानी हिम्मत नथी होती तेथी आ बधुं चाली जाय छे; तेनाथी सम्बन्धित लोकोने थोडोक स्थूल लाभ थाय ए खरं, पण हानि तो विद्याने अने संशोधनना क्षेत्रने ज थाय छे. जो आ रीते वर्तवाथी ज बधा भौतिक लाभो मळी जतां होय तो, बिनजरूरी वेदियावेडा करवानुं कोने पालवे ? आ मनोवलणनुं परिणाम छे के आजे आपणे त्यां विद्यानिष्ठ संशोधनकारोनो प्रायः सर्वथा दुकाळ छे.
डॉ. हसुभाई याज्ञिके श्रीपुण्यविजयचन्द्रक-समारोहमां टकोर करी के 'जेने तेने ऐवोर्ड आपवा जेवो नथी; काळजी राखजो' त्यारे मनमां केटलांक वर्षोथी चूंटातो सवाल होठ पर आवी गयेलो के 'तो हवे आ बधां चन्द्रक कोने आपवानां?'
हेमचन्द्राचार्य चन्द्रक होय के पुण्यविजयचन्द्रक होय के अन्य एवॉर्ड होय, ते शरु कर्या त्यारे एकमात्र भावना हती के आपणे त्यां अनेक सर्वोत्तम कक्षाना पण्डितो-विद्वानो छे, जेमनां विद्याकीय कार्यो अमूल्य-अजोड छे; तेमनुं तथा तेमनी विद्यानुं सन्मान करवू.
ना, तेमने मददरूप थवानो के तेमना पर उपकार करवानो लेश पण आशय नहोतो. हतो मात्र बहुमाननो भाव.
थोडां वर्षो तो आ भावना ठाठमाठथी फळती रही, अने तेनो हरख पण खूब रह्या कर्यो. परन्तु एक दहाडो ओचिंतुं ज भान थयु के जेमना माटे नर्यु बहुमान ज जागे ए पेढी तो समाप्त थई गई ! हवे तो रह्यो शून्यावकाश ! आजे आ एवोर्ड कोने आपवा ए प्रश्न एक समस्या बनी रह्यो छे. आना पायामां विद्याध्ययननी बाबतमां आपणे त्यां प्रवर्तेती शून्यता ज पडी छे तेम कहेवामां हवे खचकाट थतो नथी.
आ शून्यावकाश क्यारे दूर थशे ?