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अनुसन्धान-७७
करमबत्तीसी
कर्ता : अनन्तसुन्दरजी ॥ ६०|| श्री ज्ञानकुसलजी गणिपरमगुरुभ्यो नमः
अथ करमबत्तीसी लिख्यते ॥
अथें ढाल - आदर जीव क्षमागुण आदर ए देसी । करम तणि गति अलख अगोचर, कहो कुंण जाणे सारजी । ज्ञानवसें मुनिसर जांणे, के जांणे किरतारजी || करम० ॥१॥ पूर्व करम लिखत जे सुख-दुःख, जीव लहें नीरधारजी । उद्यम कोडि करिजे तो पिण, न फलें इधक' लिगारजी ॥ क० ॥२॥ एक जनम लग फीरें कुमारा, एकण रें दोय नारजी । एक उदर-भर जगमांहि कहीयें, एक सहस आधारजी ॥ क० ॥३॥ एक रूपें रंभा सम दीसें, दीसें एक कुरूपजी । एक सहुना दास ज कहियें, एक सहुना भूपजी ॥ क० ॥४|| सायर लंघी गयो लंकाइ, पवनपुत्र हणमंतजी । सीता खबर करीने आयो, रांम कछोटो देतजी ॥ क० ॥५॥ वेस्या घरि वसतां रें आवी, तनु दुरगंध अपारजी । दुरगंधा नृपति पटरांणी, थायें करम प्रकारजी ॥ क० ॥६॥ चौसठि सुरपति सेवा सारें, माहावीर भगवंतजी । नीचें कुलें आवी अवतरीया, करम माहाबलवंतजी ॥ क० ॥७॥ रस कुंपी भरवाने काजें, पइठो जोगी जांमजी । भाग्यवसें आकासें वाणी, भरि रांकानें नामजी ॥ क० ॥८॥ द्वारिकादाह दीयो दीपायण, तिहां कृष्णनरेशजी । अरध भरत स्वामी चीत चितें, जइयें पंडव देसजी ॥ क० ॥९॥ नीरवह्यो चंडाल तणें घरि, रह्यो मसांण नरिंदजी । निज सूत खांपण ए तस लीधो, जे राजा हरिचंदजी ॥ क० ॥१०॥ सीता सती सीरोमणी कहियें, जांणे सहु संसारजी ।। तेहनें राम तजी वनवासें, सहुकि वचन संभारजी ॥ क० ॥११॥ १. अधिक।