Book Title: Agam 07 Ang 07 Upasak Dshang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TAMA VANAVANAT अंग हितमुनि श्री अमोलक ऋषि श्रीमहाराजकृत NANAANANAL लिब्रह्मचारापंडित हिन्दी भाषांनुवाद सहित PUR उपासकदशांग सूत्र प्रसिद्ध कर्ता दक्षिण हैदराबाद निवासी. जाबहादुर लाला VANATES NANAVANA अमूल्य. पला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजा मत १० INNN AVVAVAVA NAAMKARAMIN जेन शास्त्रोद्वार मुद्रालय सीकंदराबाद (दक्षिण.) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमूल्य शास्त्र दानदाता. जैन स्थम्भ दानवीर BEEEEEE-BSE-EEEEE जैन प्रभावक धर्म धूरंधर BASHAD 5.JWAL जन शास्त्रोद्धार मुद्रालय, सिकंदराबाद, (दक्षिण.) * स्व राजा बहादुर लाला मुखदेव हायजी. जौहरी. Main Eyम संच .. वर्गस्य स०१९७४ लाया घालाप्रसादजी, जौहरी. जन्म सं.१९५० Sta www.atelibrary.org Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CXCE शास्त्र-प्रकाशक 83 आश्रयदाता ACE दक्षिण केंद्राबाद निवासी जौहरी वर्ग में श्रेष्ट दृहधर्मी दानवीर राजा वहादुर लालाजी साहेव श्री सुखदेव सहायजी ज्यालाप्रमादजी! ___ आपने साधु सेवा के और ज्ञान दान जैसे महालामके लोभी बन जैन साधुमार्गीय धर्म के परम माननीय व परम आदरणीय बत्तीम शास्त्रों को हिन्दी भाषानुवाद सहित छपाने को रु.२००००, का खर्चकर अपूल्य देना स्वीकार किया और युरोप युद्धारंभ से सब वस्तु के भाव में वृद्धि होने से रु. ४०००० के खर्च में भी काम पूरा होनेका मंभव नहीं होते भी आपने उस ही उत्साह से कार्य को समाप्त कर सबको अमूल्य महालाभ दिया, यह आप की उदारता साधुमार्गीयों की मौरख दर्शक व परमादरणीय है! झोपाला (काठीयावाड) निवासी धर्म प्रेमी कार्यदक्ष कृतज्ञ मणिलाल शिवलाल शठ! इनोंने जैन ट्रेनिंग कालेज रतलाम में संस्कृत प्राकृत व अंग्रेजी का अभ्यास कर तीन वर्ष उपदेशक रह अच्छी कौशल्यता प्राप्त की. इन से शास्त्रोधार का कार्य अच्छा होगा ऐनी सूचना गुरूार्य श्री रत ऋषिजी महाराज से मिलने से इन को बोलाये, इनोंने अन्य प्रेस में शुद्ध अच्छा और शीत्र कान होता नहीं देख शास्त्रोध्यार प्रेस काया किया और प्रेत के कर्मचारियों को उलाही कार्य दक्ष बना काम लिया.तेही भापानुवाद की प्रेकोपी बनाइ, यद्यपि यह भाइ पगार से रहे थे तथापि इनोंने इन कार्य की सेवा वेतन के प्रमाण मे अधिक की. इस लिये इनको भी धन्यवाद देते हैं. NEदाबाद सिकन्द्राबाद जैन संघ c e : पाठाप्रमाद . For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक मुनिमंडल अपनी छत्ती ऋद्धि का त्याग कर हैद्रागद सीकन्द्राबाद में दीक्षा धारक बालब्रह्मचारी पण्डित मुनि श्री अमोलक ऋषिजी के शिष्यवर्य ज्ञानानंदी श्री देव ऋषिणी. वैय्याहृत्यी श्री राज ऋषिजी. स्त्री श्री उदय ऋषिजी और विद्याविलासी श्री मोहन ऋषिजी इन चारों मुनिवरोंने गुरु आज्ञाका बहुमानसे स्वीकार कर आहार पानी आदि सुखोपचार का संयोग मिला. दो महर का व्याख्यान, संगीसे वार्तालाप, कार्य दक्षता व समाधि भाव से साव दिया जिस से ही यह महा कार्य इतनी शीघ्रता से लेखक पूर्ण सके. इस लिये इन कार्य उक्त मुनिवरों का भी बडा उपकार है. 學 सुखदेव सहाय ज्वाला प्रसाद और भी सहायदाता पंजाब देश पावन करता पूज्य श्री सोहनलालजी, महात्मा श्री मात्र मुनिबी, शतावधानी श्री रत्नचन्द्रजी, तपस्वीजी माणकचन्दनी, कबीबर श्री अमी ऋषिजी, सुबक्ता श्री दौलत ऋषिजी. पं. श्री नथमलजी, पं. श्री जोरावर मळजी. कार्बवर श्री नानचन्द्रजी. प्रवर्तिनी सतीजी श्री पार्वतीजी. गुणज्ञसतीजी श्री रंभाजी- धोराजी सर्वज्ञ भंडार, भीना सरवाले कनीरामजी बहादरमलजी बाँठीया, डी भंडार, कुचेरा भंडार, इत्यादिक की तरफ से शास्त्रों व सम्मति द्वारा इस कार्य को बहुत सहायता मिली है. इस लिये इम का भी बहुत उपकार मानते हैं. For Personal & Private Use Only सुखदेव सहाय ज्वालाप्रसाद Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LARKAR आभारी-मात्मा RAM हिन्दी भाषानुवादक 112 ___कच्छ देश पावन कर्ता मोटी पक्ष के परम - पूज्य श्री कर्मसिंहजी महाराज के शिष्यार्य महात्मा कविवर्य श्री नागचन्द्रजी महाराज! 57 इस शास्त्रोद्धार कार्य में आद्योपान्त आप श्री प्राचिन शुद्ध शास्त्र, हुंडी,गुटका और समय २पर 6] आवश्यकीय शुभ सम्मति द्वारा मदत देते रहनेसेही में इस कार्य को पूर्ण कर सका. इस लिये केवल में ही नहीं परन्तु जो जो भव्य इन शास्त्रोद्वारा लाभ प्राप्त करेंगे वे सब ही आप के भभारी श %8: 2312 शुद्धाचारी पूज्य श्री खूबा ऋषिजी महाराज के शिष्यचर्य,मार्य मुनि श्री चेना ऋषिजी महाराजके DM शिष्यवर्य बालब्रह्म वारी पण्डित मुनि श्रीअमोलक ऋषिजी महाराज आपने बडे साहस से शास्त्रोद्धार जैसे महा परिश्रम वाले कार्य का जिस उत्साहसे स्वीकार किया था उस ही उत्साह से तीन वर्ष जितने स्वप समय में अहर्निश कार्य को अच्छा बनाने के शुभाशय से सदैव एक भक्त भोजन भीर दिन के सात घंटे लेखन में व्यतीत कर पूर्ण किया. और ऐसा सरल बनादिया कि कोई भी हिन्दी भाषज्ञ सहज में समज सके, ऐसे ज्ञानदान के महा उपकार तल दबे हुओ हम आप के बडे अभारी हैं. संघकी तर्फ से. PER245२२५२५५५ । होंगे. ४२११२आपका अमाल ऋषिH४ TAH मुखदेव सहाय ज्वाला प्रसाद Move For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sasa ae मुख्याधिकारी Maa Shaha Sas परम पूज्य श्री कहानजी ऋषिजी महाराज की सम्प्रदाय के शुध्वाचारी पूज्य श्री खुवा ऋषिजी महाराज के शिष्यवर्य स्त्र. तपस्वीजी श्री केवल ऋषिजी महाराज! आप श्रीने मुझे साथ ले महा परिम से हैद्राबाद जैसा बडा क्षेत्र साधुमार्गिय धर्म में प्रसिद्ध किया व परमोपदेश से राजाबहादुर दानवीरलाला सुखदेव सहायजी आला प्रसादजी को धर्मप्रेमी बनाये. उनके प्रताप से ही शास्त्रोद्धाशदि महा कार्य हैद्राबाद में हुए. इस लिये इस कार्य के मुख्याधिकारी आपही हुए. जो जो भव्य जीवों इन शास्त्र द्वारा महालाभ प्राप्त करेंगे वे आपही के कुतज्ञ होंगे. शुभ शुद्ध शुद्ध शुद्ध शिशु अमोल ऋषि Elease उपकारी महात्ला hase asa? परम पुज्य श्री कहानजी ऋषिजी महाराज की सम्प्रदाय के कविवरेन्द्र महा पुरुष श्री तिलोक ऋषिजी महाराज के पाटवीय शिष्य वर्ग, पूज्यपाद गुरुवर्य श्री रत्नऋषिजी महाराज ! आप श्री की आज्ञाने ही शास्त्रोद्धार का कार्य स्त्रीकार किया और आप के परमाशिर्वाद से पूर्ण करसका इस लिये इस कार्य के परमोपकारी महा आप ही हैं. आप का उपकार केवल मेरे पर ही नहीं परन्तु जो जो भव्यों इन शास्त्रोंद्वारा लाभ प्राप्त करेंगे उन सबपर ही होगा. शु शु शुक्र शुद्ध दाम अमोल ऋषि शु श शु For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + सप्तमांण-उपारकदशांग सूत्र 488+ श्री उपासकदशांग शास्त्र की प्रस्तावना. प्रणम्य श्री महावीरं, महानंदकरं मुदा ॥ उपासकदशा वार्तिकं, करोति खुबोधिकम् ॥ १॥ महा आनन्द के कर्ता श्री महावीर स्वामीजी को नमस्कार करके उपासक दशा शास्त्र के अर्थ का सब जीवों को सुख से बोध होवे इसलिये इस का हिन्दी भाषानुवाद मैं कहता हूं. छठे अंग ज्ञाता सूत्र में धर्म कथामुयोग कहा है. और वही अनुयोग इस उपासक दशा शास्त्र में हैं. ज्ञाता धर्म कथा में अनेक दृष्टांत में से साधु की उत्तम क्रिया बताई है और इस सूत्र में श्रावक का उस्कृष्ट आचरण का कथन किया है. इसका पठन करना श्रावकों को अति आवश्यकीय होने से इसकी १०० मत अधिक निकाली गई है. संपूर्ण उपासक दशांग का पठन करते मालुम होगा कि इतने धुरंधर श्रावकोंने किसी स्थान तीर्थकर भगवान की मूर्ति की पूजा नहीं की है. वैसे ही किसी स्थान जैन मंदिर नहीं बनाये हैं. सूत्र पाठ स्थान २ पर जो अरिहंत इय शब्द का प्रयोग है वह प्रक्षेपा हुवा है; परंतु मूल पाठ का नहीं है. (प्रसिद्ध विद्वान ए. एफ. रडोल्फ हरन पी. एच डी. ने उपासक दशांग सूत्र का इंग्रेजी में भाषांतर किया है " For Personal & Private Use Only 444* प्रस्तावना 4984424 ( Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोजक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी । और वह इ.स. १८८५ में एसियाटीक सोसाइटी बेंगाल कलकत्ता में छपा है. मूल ग्रंथ पृष्ट २३, और भाषांतर पृष्ट ३५ नोट ९६ में वह लिखता हैं किं चेइयाइ अन्द तीन प्रत में उपलब्ध हुवा. विक्रम संवत १६२१. १८२४ और १९४५ की लिखी हुई प्रत में है. और संवत १९१६ की और संवत १९३३ की में " अरिहंत चेइयाइ" ऐसा पद है. इस से स्पष्ट होता है कि पूर्वोक्त अरिहंत चेइयाइ पाठ टीकापर से मूल में प्रक्षेप किया गया है. जेसलमेर के . भंडारों में ताडपत्र पर लीखी प्रत में “ अणउत्यिय परिप्रहियाइ चेइयाइ" ऐसा पाठ है परंतु " अरिहंत चेइयाइ" ऐसा पाठ नहीं है. इस की सिद्धता लिये खास उस के ही शब्दों का अक्षरशः उल्लेख यहां पर करता हूं ____Extract from Note 96 at Page 35 of The Wiasagadasa's Translated by A. F. Rudolf Hoernle Ph. D. "The words Cheivaim or Arihant-a-cheiyaim, which the Msg, here have, Appoar to be an explanatory inrerpalation, taken over from the commentary, which says the bjeaets for reverence may he either Arhats (or great saints) or cheiyas" if thiy had been an original portion of the text, there can be little doubt but that they wold have been chieyani. The defference ir tarmination, parigghiyami cheiain, is very suspicions." प्रकाशक-राजाबाहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादर्ज ___ इस पर से प्रतिस्पर्धियों को अपनी ज्ञान शक्ति से अवश्यमेव विचार करके शुद्ध सरल मार्ग अंगीकार करना चाहिये ! For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428+ सप्तमांग उपासक दशांग सूत्र 4 1. इस सूत्र का मूल का लेख तो कच्छ देश पावन कर्ता पडित मुनिराज श्री नागचंद्र महाराज के तरफ से मीली हुई घनपतसिंह बाबु की प्रत पर से किया है और अनुवाद मेरे पास की अर्थवाली प्रत से किया है. छपते समय प्रूफ का सुधारा पंजाब देश पावन कर्ता उपाध्याय श्री आत्मारामजी महा| राज की अनुवाद की हुई पुस्तक पर से किया है. यह पुस्तक छपती वक्त मणिलाल भाई स्वदेश गये थे, और मेरे शरीर में ज्वर व्याधि होने से प्रूफ सुधारने में प्रमादवशात् कितनेक स्थान अशुद्धियों रहने का { संभव है सो विद्वद्वर शुद्धि करके पठन करेंगे. आनंदादि श्रमणोपासकदश के तिवृत्त सुभगार्या । किशदामुवासकदशा भावदर्श ममदिशंतु सदा ॥ इस उपासक दशा शास्त्र में आनन्दादि दों श्रावकोंने जो व्रत धर्म का आचरण 'किया उस का कथन व उन व्रतों का स्वण्डन कराने को देवताओंने प्रयत्न किया, परंतु उनोंने खण्डन नहीं किये चुस्तधर्मी | जावज्जीव पर्यंत बन रहे जिन की आत्मा का कल्यान हुवा जिस का कथन सविस्तर किया गया है. उपासकदशा की अनुक्रमणिका, १ प्रथम अध्ययन आनंद श्रावक का आणंद की सम्पत्ति व स्वभाव १ ३ 1 महावीर स्वामी का आगमन श्रावक के आठ व्रतों का कथन For Personal & Private Use Only ७ * विषयानुक्रमणिका 4 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी भगवंत ने बताये ब्रतों के अतिचार १६ । आणंद श्रावक का अभिग्रह पाणंदने स्वस्त्री को भी धर्मात्मा बनाइ २७ । आणंदने इग्यारे प्रतिज्ञा का कथन २९ पाणंद का संथाराव अवधिज्ञान की प्राति३४ गौतम स्वामी का आगा व संशय ३७ आणंद का देवलोक गमन व सिद्धी कथन ४३ २ द्वितीय अध्ययन कामदेव श्रावक का ४८ कामदेव की संपत्ति व व्रताचरण पिशाच रूप का वर्णन व उपसर्ग ४९ इस्ति रूप का वर्णन व उपसर्ग सर्प रूप का वर्णन व उपसर्ग इन्द्रकृत व देवकृत कामदेव की स्तुति १२ भगवंसने भी कामदेव की प्रसंशा की ६५ ३ तृतीय अध्ययन चल्लनीपिता श्रावक को ७१ चुल्लनीपिता की संपत्ति व देवकृत उपसर्ग ७१ भद्रा माता की दी हुई हित शिक्षा ७८ ४ चतुर्थ अध्ययन मुरादेव श्रावक का संपती उपसर्ग व स्त्री की दी शिक्षा ५ पंचम अध्ययन चुल्लशतक श्रावक का ८९ ६ षष्ठम अध्ययन कुंडकोलिक श्रावक का सामायिक की दृढता मनीयतवाद. मो शाले के मत का खंडन ७ सप्तम अध्ययन सद्दालपुत्र श्रावक का १०२ देवताने भगवंत आगम दर्शाया भगवंतने नियतवाद खंडन किया ? मोशालककृत भगवंत की स्तुति ११८ ८ अष्टम अध्ययन महाशतक श्रावक का संपत्ति व व्यापार का प्रमाण रेवती स्त्री की दुष्टता महाशतकने रोहिणीको श्राप दिया १४१ महाशतकको गौतम स्वामीने प्रायश्चित्त १४४ ९ नवम अध्ययन नन्दनी पिता श्रावकका १४९ २० दशम अध्ययन सालनी पिता श्रापकका १५१ दशही श्रावकों का संक्षिप्त यंत्र काश्क-राजाबहादुरबाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी 4प्रयाजेक. बाल ब्रह्मच For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 488+ सप्तमांग- उपाशक दशा सूत्र QDo ricolo ολουλουδοπλοπολ ॥ सप्तम् - उपासक दशाङ्ग सूत्रम् ॥ * प्रथम-अध्ययन तेणंकालेणं तेणंसमएणं चंपाएनामं नयरीहोत्था वण्णओ, पुण्णभदेचेइए वण्णओ || ते काणं तेणंसमएणं अज्जसुहम्मे समोसरिए जाव जंबु पज्जुवा समाणे एकं वयासीजइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थयरेणं जाक संपतेणं उस काल चौथे में और उस समय में (जिस समय में यह भाव प्रकाशे ) चम्पा नाम की नगरी थी, पूर्णभद्र नामे यक्ष का चैत्य बगीचे युक्त था, इन दोनों का सविस्तार वर्णन उववाई उपांग से जानना । उस काल उस समय में, आर्य-शरल स्वभावी बाह्याभ्यन्तर शुद्धाचारी श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी के पांचवे गणधर श्री सुधर्मा स्वामी पधारे, गुणसिला चैत्य में यथाप्रतिरूप कल्पनिय अवग्रह ग्रहण कर तपसंयम से आत्मा भावते हुवे विचरनेलगे. परिषदा दर्शनार्थ आइ, धर्मकथा सुनाइ, परिषदा पछी गई तब For Personal & Private Use Only 4888 आनंद श्रावक का प्रथम अध्ययन Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्टुस्स अंगस्स णायधम्मकहाण अयमट्ठे पण्णत्ते, सन्तमस्त अंगस्स उवासगदसाणं के अट्ठे पण्णत्ते ? एवं खळु जंबु ! समणेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्त अंगस्स उवासग दसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा आणंदे, कामदेवे, गहावइ चुलणीपिया, सूरादेव, खुल्लसयए, गाहो वइ - कुंड कोलीए, सद्दालपुत्ते, महासए, नंदनिपिया, सालहीपिया ॥ १ ॥ जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं दस अज्झअर्थ धर्मास्वामी के ज्येष्ट शिष्य आर्य. जम्बू स्वामी गुरु के अदर सामंत [ पास ] रहे हुवे संशय उत्पन्न हुवा तत्काल उठकर सुधर्मा स्वामी की पास आये वंदना नमस्कार कर प्रश्न पूछने लगे-यदि अहो भगवन् ! श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी धर्मादि के करता, तीर्थ के करता यावत् मुक्ति प्राप्त हुबे उनोंने छठा अंग ज्ञाताधर्मकथा का यह अर्थ कहा वह मैंने श्रवण किया, आगे सातवा अंग उपासक दशा सूत्र का क्या {अर्थ कहां है ? यों निश्चय, हे जम्बू ! श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी मुक्ति पधारे उनोंने सातबा { अंग उपासकदशा के दश अध्ययन कहे हैं, उन के नाम-१ आनंद का, २ कामदेव का ३ गाथापतिखुलणीपिता का, ४ सूरादेव का ५ चुल्लशतक, का ६ गाथापति-कुंड कोलिक का, ७ सकडाल पुत्र का, ८ महाशतक का, ९ नन्दनी पिता और १० साल ही पिता का ॥ १ ॥ यदेि अहो भगवन् ! श्रमण यावत् । मुक्ति पधारे उनोंने सातवे अंग उपासक दशा के दश अध्ययन कहे तो अो भगवद 42 अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 420 सप्तमांग-उपाशक दशा सूत्र 486 यणा पण्णत्ता, पढमस्सणं भंते ! अझयणरस समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्रे पण्णत्ते ? ॥ २ ॥ एवं स्खल जंबु ! तेणंकालेगं तेणंसमएणं वाणियगामे नाम नयरे होत्था वण्णओ ॥ तस्सणं वाणियगामस्स जयरस्स बहिया उत्तर पच्छिमेणं ईईपलासे णाम चेइएहोत्था ॥ तत्थणं वाणियगामरस णयरस्स जियसत्तूणाम रायाहोत्था वण्णओ ॥ तत्वणं वाणियगामे आणंदेणाम गाहावई परिवसइ अढे जाव अपरिभूए ॥ ३ ॥ तस्सणं अणंदस्स गहाईस्स चत्तारि हिरण्णकोडिओ निहाण श्रमण भगवंत श्रीमहावीर स्वामीने प्रथम अध्ययन का किरूप्रकारका अर्थकहा ॥२॥ यो निश्चय, हेज उस काल उस समय में वाणिज्य ग्राम नाम का नगर था. उस वाणिज्य ग्राम नगर के बाहिर उत्तर दिशा के मध्य ईशान कौन में शुति पलास नामे यक्ष का यक्षालय बगीचे युक्त था. तहां वाणिज्य ग्राम नगर का जिसशत्रु नाम का गजा राज्य करता था, वह भी कोणिक राजा के जैसा वर्णन योग्य था. वहां वाणिज्य ग्राम नगर में आणंद नाम का गाथापति रहता था. वह ऋद्धिवंत यावत् अन्य से अपराभवित14 थाः उस की जाति में उस के समान धनवान ऐश्वर्यवान अन्य कोई भी नहीं पा ॥३॥ उस आणंद १ जिसके खेती और व्यपार दोनों प्रकार के रुजगार हो उसे गाथापति कहते हैं. यह बुद्ध कथन है. आणंद श्रावक का प्रथम अध्ययन 488+ 488 For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + पउत्ताओ, चत्तारि हिरण्णकौडिओ बुढिपउत्ताओ, चत्तारि हिरण्णकोडिओ पवित्थर पउत्ताओ, चत्तारि वया, दसगो साहस्सिएणंवएणं होत्था ॥ ४ ॥ सेणं आणंदेगाहावइ घहुणं राईसर जाव सत्थवाहाणं बहुसुकजेसूय, कारणेसूय, गूझसूय णिस्थएसूय ववहारेसूय. मंतेसूय, कुटुंबेसुय आपुच्छणीजे पडिपुच्छणिजे सयस्सवि य णं कुटंबस्स मेढिप्पमाणे आहारे, आलंबण चक्खूभए(पाठांतर-मेढिभूए) सबकजबढावएयाविहोत्या. गायापति के चार हिरण्य की कोडी का द्रव्य निधान (जमीन) में गाडा हुवा था, चार हिरण्यकोडी वृद्धि करने में व्यापार में था, और चार हिरण्य क्रोडी का पायरा-घर विखेरा था. यो सब श्रा. और चार वर्ग (ज)गाइयों के अर्थात् एक वर्ग दशहजार गायका होता है. इसप्रकार चालीम हजार गौओं जिन के थी ॥ ४ ॥ वह आणंद माथापति बहुत राजा ईश्वर [युवराज ] यावत् सार्थवाही प्रवृत्तिक (व्यापारीयों) इनोंके बहुत कार्यों में कारन में, गुप्तकामों में, निश्चय के काम में, व्यवहार के काम में, मंत्र-आलोचन-विचार करनेमें, तैसे अपने भी कुटुंब में भी आंखोसमान मेंढीसमान-स्थम्भ समान अधार + शास्त्र में हिरण्य नाम चांदी का कहा है. किन्तु यहां सर्व प्रती में अर्थकार हिरण्य कोडी का अर्थ सुवर्ण कोडी ( सुवर्ण मुद्रा-सोनेयेही ) लिखते है. वह बृद्ध परम्परा से कहते भी है.. . . प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी antrawwwwwwwwwwwwwww Post PR For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र 42 46 सप्तपांग-उपाशक दशा सूत्र 48 ॥ ५ ॥ तस्सणं आणंदरस सिवाणंदाणामं भारिया होत्था. अहीणा जाव सुरूवा; आणंदस्स इट्ठा, आणंदेणं गाहावतिणासद्धिं अणुरत्ता अविरत्ता इट्टेसद्दे-रूवे गंधे-रसे फासे पंचविहणं माणुस्सए कामभोगे पच्चणुब्भवमाणी विहरइ ॥ ६ ॥ तस्सणं वाणियगामस्स णगरस्स बहिया उत्तर पुरथिमे दिसीभाए एत्थणं कोल्लाएणामं संन्निवेसे होत्था, रिद्धत्थमिय समिद्धे जाव पासाइए॥७॥ तत्थणं' कोल्लाएणाम सन्निसे आणंदेणाम गाहावइ, तस्सणं आणंदस्स गाहावईस्स बहएमित्तणाति णियग सयणं संबंधि परिजणे परिवसइ. अढा जाव अवरिभूया ॥ ८॥ तेणंकालेणं तेणंसमएणं समणे भूत, आलम्बन भृत, सर्व कार्यों में प्रवृतानेवाला था ॥ ५॥ उस आणंद गाथापति के शिवानन्दा नाम की भार्या थी, वह पूर्ण अंगोपांग की धारक सुशीला, मुरूपवति, आनन्द को इष्टकारी, आनन्द गाथापति के के साथ अनुरक्त अत्यन्त प्रेमवन्त इष्ट-मनोज्ञ शब्द रूप गंध रम स्पर्श पांचों इन्द्रिय सम्बन्धी मनुष्य के काम भोग भोगवती हुइ विचरती थी ॥६॥ उस वाणिज्यग्राम नगर के बाहिर ईशान कौन में तहां कोलाक नामका सन्निवेस ( महल्ला-पुरा) था, वह ऋद्धि युक्त चिसको अहलाद हर्ष का, उत्पादक दखने योग्य था ॥७॥ उस को लाके सन्नीवेस में आनन्द गाथापति के बहुत मित्रजन, ज्ञातिजन, स्वयं के सज्जन सम्बन्धी, सामाजिकजन व परजन दास दामी आदि रहते थे, वेभी ऋद्धिवन्त यावत् अपरा। wwwwwwnaamwammmmmm आणंद श्रावक का प्रथम अध्ययन 488 | For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 22 भगवं महावीरे समोसरिए, परिसाणिग्गया, कोणिएराया जहा तहाजियसन्तु निगच्छइ जाव पज्जूवासइ ॥ ९ ॥ तएणं से आणंदे गाहावइ इमीसे कहाए लढे समाणे एवं खलु समणे जाब विहरइ, तं महाफलं गच्छामिणं समणं जाव पज्जुवासामि, एवं संपेहेइ २ त्ता हाए मुद्धमजावेइ २ त्ता सुद्धप्पवेसाइ ‘वत्थाई अप्पमहग्गा भरणालंकियसरिरा सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ २ ता सकोरंट मल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं मणूस्स वग्गुरा परिक्खत्ते पायविहारचरेणं, वाणियगामं नयरं मझंभवित थे ॥ ८॥ उस काल उस समय में श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी पधारे, परिषदा दर्शनार्थगइ, कोणिक राजा की तरह जितशत्रु राजा भी दर्शनार्थ गया, यावत् वंदना नमस्कार कर सेवा भक्ति करने लगे ॥ ९ ॥ तब आनन्द नाम के गाथापति को भगवंत पधारने की खबर मिली, उसे अवधारी-कियों निश्चय श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी दुतीपलास चैत्य में यावत विचर रहे हैं वहां जाना यावत् उन की भक्ति करने से महाफल का कारण है. यों विचार किया, विचार कर स्नान किया शुद्ध मंजन किया। " उत्तम स्थान-शभा में प्रवेश करने योग्य अल्प भार वाले और बहुत मूल्प वाले वस्त्र भूषण धारन किये, इस प्रकार शरीको अलंकृतकर अपने घरसे निकला, निकलकर कोरंट वृक्षके फुलोंकी मालाका छत्र धारन .प्रकाशक-राजाबहादुरलाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी . ॐ अनुवादक-बालब्रह्म For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र 488 सप्तमांग-उपाशक दशा सूत्र 428 मज्झेणं णिग्गच्छइ २ ता जेणेव दुइ पलासेणामं चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ ता, तिक्खुत्तो आयाहीणं पयाहीणं करेइ२त्ता वंदइ नमसइ जाव पज्जुवासइ ॥ १० ॥ तएणं समणे भगवं महावीरे आणंदस्स गाहावईस्स तीसेय. महति महलियाए जाव धम्मकहा, परिसा पडिगया, रायापडिगओ ॥ ११ ॥ तएणं से आणंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतीए धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ठ? जाव हियए, एवं वयासी-सहहामिणं भंते ! णिग्गंत्थं पावयणं, पत्तियामिणं भंते ! णिग्गंत्थं पावयणं, रोयामिणं भंते ! जिग्गंत्थं पावयणं,एक्वमेयं भंते ! करता, मनुष्यों के वृन्द से परिवरा हुवा. पावसे चलताहुवा वणिज्याग्रामके मध्यमेंसे निकलकर जहां दूतिपालास चैत्य जहां महावीरस्वामी थे तहांगया, जाकर तीनवक्त हस्तद्वय जोड मस्तकपर प्रदक्षिणावर्त फिरताहुवा वंदना नमस्कार किया यावत् सेवा करमेलगा ॥१०॥ तब श्रमण भगवंत श्रीमहावीर स्वामीने आनन्द गाथापति को और उस महा परिषदा को धर्मकथा सुनाइ, परिषदा पीछी गई. जितशत्रु राजा भी गया ॥ ११ ॥ तब। आनन्द गाथापति श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी के पास धर्मश्रवण कर अवधार करं हृष्ट तुष्ट हुवा। हृदय विक्सायमान हुवा. यों कहने लगा-अहो भगवन् ! मैंने निर्ग्रन्थ के वचनों का श्रद्धा न किया है, १ मुझे निर्ग्रन्थ प्रवचन की प्रतीत हुइ है, निर्घन्ध प्रवचन ग्रहण करने की रुची हुइ है, अहो भगवन् ! जिस . आणंद श्रावक का प्रथम अध्ययन 488 50 For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिजी १ अमोलक 4 तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! इच्छियमेयं भंते ! पडिच्छियमेयं भंते ! इच्छिय पडिच्छिमेयं भंते ! से जहेयं तुब्भे बयहत्ति कटु, जहाणं देवादेवाणुप्पियाणं अंतिए बहवेराईसर तलबर माडंबिय कोडंबिय सेट्रि सत्थवाह प्पभिईया मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइया, नो स्खलु अहं तहा संचाएमि मुंडे जाव पव्वतित्त, अहन्नं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणूव्वतियं सत्तसिक्खावइयं दुवालस्सविहं गिहिधम्म पडिबज्जइस्सामि ॥ अहासृहं देवाणुप्पिया ? मापडिबंधं करेहि ॥ १२ ॥ तत्तेणं से आणंदे गाहावती समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतीए प्रकार आप कहते हो वैसा ही है, अवितथ्य-सत्य है, अहो भगवन् ! आपके वचन मैंने इच्छे हैं विशेष इच्छे हैं-चारम्बार चाह की है, जैसा आप फरमाते हो वैसा ही है, याद अहो देवानुप्रिया ! आपके पास बहुत से राजा युवराजा सेनापति कोतवाल मांडविय कुटम्बिय शेठ सार्थवाही व्यारीयों प्रमुख मुण्डित होते हैं, गृहस्थावास छोड साधु वनते हैं, परन्तु मैं तैसा मुण्डित होने, दीक्षा लेने, असमर्थ हूं. मैं तो देवानुप्रियके E पास पांच अनुव्रत सात शिक्षाव्रत यह बारह प्रकार का जो गृहस्थ का धर्म है उसे अंगीकार करना चहा ता हूं. भगवन्तने कहा. हे देवानुप्रिया! जिस प्रकार मुख हो वैसा करो परन्तु प्रतिबन्ध (बिलम्ब-ढील) मत करो ॥ १२ ॥ तब आनन्द गाथापति श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी के पास-प्रथा व्रत स्लथू * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी . 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 嗌 अर्थ 4 सप्तांग उपाशक दशा सूत्र तप्पढमताते धूलयं पाणातिवायं पच्चक्खाति, जावजीवाए दुविहं तिविहेणं नकरेति कति मणा वयसा कायला ||१३|| तयाणं तरंचरं थूलयं मुसावायं पच्चक्खाति जात्र जीवाए दुविहं तिविहेणं नकरेति नकारवेति मणसा वयसा कायसा ॥ १४ ॥ तदाणं तरंचणं थूलयं अदिष्णादाणं पचक्खाति जाव जीवाए दुविहं तिविहणं करेति नकारखेति मणसा वयसा कायसा ॥ १५ ॥ तयाणं तरंचणं सदार संतोसिते परिमाणं करेति - ननत्थ एक्काए सिवाणंदाते माहियाते अबसेसं मेहुणविहं पच्चक्खाति बडे त्रस जीव की हिंसा करने के प्रत्याख्यान किये, जावजीव पर्यन्त दो करन और तीन योग करः दो करन मैं स्वयं त्रस जीव की घात करूंगा नहीं, और अन्य के पास सजीव की घात करावंगा नहीं, तीनजोग-मनकर, वचन कर, और कायाकर ॥ १३ ॥ तदनन्तर दूसरा व्रत स्थूल- बडा मृषावाद-झूट बोलने का प्रत्याख्यान किया जावजीव दो करन तीनयोगकर, मैं झूट बोलूं नहीं अन्य से झूट बोलवूं नहीं, मनसे वचन ते और कायासे ||१४|| वदन्तर तीसरा व्रत स्थूल-बडा अदत्तादान विनादी वस्तुलेनेका प्रत्याख्यान किया दो करन तीनजोगकर, उक्त प्रकार ॥१५॥ तदनन्तर चौथाव्रत स्वस्त्री को सन्तोषने मैथुन सेवन का प्रमाण किया, फक्त एक शिवान्दा भार्या उपरान्त अपरशेष मैथुन संवनका प्रत्याख्यान ||१३|| तदनन्तर पांचचात्रत For Personal & Private Use Only 4.38*- आनंद श्रावण का प्रथम अध्ययन Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ॥ १६ ॥ तदाणं तरंचणं इच्छापरिमाणं करेमाणे-हिरण्ण सुवण्ण विहिपरिमाणं करेति,ननत्थ चउहिं हिरण्ण कोडीहिं निहाण पउत्ताहि,चउहिं हिरण्ग कोड्डिहिं बडिपउत्ताहि, चउहिं हिरण्ण कोडीहिं पवित्थर पउत्ताहि, अवसेसं सव्वं हिरण्ण सुवण्ण विहं पच्चक्खाति ॥१७॥ तदाणं तरंचणं चउप्पयविहिं परिमाणं करेति, ननत्थ च उहिं वग्गेहिं दसगोसाहस्सिएणं वतेणं, अवसेसं सव्वं चउप्पयविहिं पच्चक्खाति ॥ १८ ॥ तदाणंतरचणं खित्तवत्थुविहं परिमाणं करेति, ननत्थपंचहिं हलसतेहि नियत्तणसतेण हलेणं अवससं सन्न खित्तवत्थु पञ्चक्खाति ॥१९॥ तदाणं तरंचणं सगडविहं परिमाणं इच्छा-तष्णा का परिमाण करना है जिसमें प्रथम हिरन्य-चान्दी का और सवर्ण-सोने का परिमाण किया। चारहिन क्रोड निधान में हैं, चार हिरन्य क्रोड व्यापार में हैं, चार हिरन्य क्रोड पाथारा विखरा है. यों बारे क्रोड के द्रव्य उपरान्त अपर शेष हिरन्य मुवर्ण के प्रत्याख्यान ॥१७॥ तदन्तर चउपद-पशू-जानवर का प्रमाण किया फक्त दश हजार गौका एक वर्ग ऐसे चार वर्ग (चालीस हजार गौ) उपरान्त सर्व प्रकार के चतुष्पद का प्रत्याख्यान ॥ १८॥ तदन्तर क्षेत्र खुल्ली भूमिका-खेत बगीचे आदि, बत्थु-ढकी भूमिका धरादि का प्रमाण किया फक्त पांचसो इलकी जमीन नियभित भूमी है. उससे अपर शेष सब क्षेत्रों वत्थु के प्रत्याख्यान *॥ १९ ॥ तदन्तर सगड-गाडा * भोक-दशकरे भवते बंश, वंशवीसे निर्वतन, निर्वतन शतमान हलं, क्षेत्र स्मते बुद्धे ॥१॥ अर्थात १० हायका *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी mmmmmmm For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 488+ सप्तमांग- उपाशक दशा सूत्र 48+ करेति, नाथ पंचहिंसगड सतेहिं दिसायत्तिएहिं, पंचहिंसगड सएहिं संवाहणिएहिं अवसेसं सगडविहं पञ्चवक्खाइ ॥ २० ॥ तयाणं तरंचणं वाहणविहिं परिमाणं करे नत्थच हुहिं दिसायणिएहिं वाहणेहिं, चउहिं संवाहणिएहिं अवसेसं वाहणविहं पञ्चक्वाति ॥ २१ ॥ तदाणं तरंचणं उवभोग परिभोगविहिं पच्चक्खतिमाणा उल्लणियाविहिं परिमाणं करेति नन्नत्थ एगाते गंधकासातीते अवसेसं उल्लणियाविहिं पञ्चक्खाति ॥ २२ ॥ तदाणं तरचणं दंतणविहं पञ्चक्खाति- नन्नत्थ एमेणं अल्लट्ठीमहुएणं अवसे सं गाडी का प्रमाण किया, इतना विशेष - पांचसो गाडे गाडी ( थळपंथी ) खेत में से या बाहन में से तृष्ण {काष्ट माल लाने केलिये, और पांचसो गाडे देशान्तर में व्यापरर्थ माल लाने पहोंचाने केलिये; यों एक { हजार गाडे अपर शेष गाडा गाडी के प्रत्याख्यान ॥ २० ॥ ( प्रमाण किया - फक्त चार वाहन ( जहाज ) परदेश जाने आने तदनन्तर वाहन जल पंथी ) का के और चार वाहन माललाने के अपर शेष वाहन के प्रत्याख्यान ॥ २१ ॥ तदनन्तर उपभोग परिभोग के प्रत्याख्यान करते हुवे - उला भीजा हुवा शरीरको पूंछने के वस्त्रका प्रत्याख्यान किया- फक्त एक कषायित रंगका सुगन्धी नस्त्र, अपर शेष अंगूछे वस्त्र का प्रत्याख्यान ।। २२ ।। तदनन्तर दांतन की विधि का प्रत्याख्यान किया-फक्त एक हरा जेष्टिकमद १ वंश, २० वंश का १ निर्वतन, १०० निर्वतन का एक इल, ऐसा लीलावती ग्रन्थ में है. For Personal & Private Use Only 48;+ आनंद श्रावक का प्रथम अध्ययन 488+ ११ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुभदक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + दंतणविहिँ पच्चक्खाति ॥ २३ ॥ तदाणं तरंचणंः फलविहि. परिमाणं करेति-नन्नत्थ एगेणं खीरामलएणं, अवसेसं फलविहिं पच्चक्खाति॥ २४ ॥तयाणं तरंचणं अभिगणविहिं परिमाणं करेति-नन्नत्थ सयपाक सहस्स पागेहिं तेल्लेहिं अवसेसं अभिगण, विहिं पञ्चाक्खति ॥ २५ ॥ तयाणं तरंचणं उवणविहिं परिमाणं करेति-नन्नत्थ एगेणं सरहिणा' गंधवहिएणं. अवसेसं उवणविहं पञ्चक्खति ॥२७॥ तयाणं तरंचणं मंजण विहिं परिमाणं करेति-नन्नत्य अट्ठहिं उट्ठितेहि उदगस्स घडेहिं, अवसेसं मजणनिहिं का दांतन उपरान्त दांतने के प्रत्याख्यान ॥ २३ ॥ तदनन्तर फलविधी का परिमाण किया-फक्त एक क्षीर आमला (गुठली विन बन्धा) अपर नाम रायण ( खिरनी.) उपरान्तः सर्व प्रकारे के फल का प्रत्याख्यान ॥ २४ ॥ तदनन्तर अभ्यंगन अंग को तेल मर्दन का प्रमान किया-फक्तः शतपाक सोद्रव्यों का बना और सहश्रपाक-हजार द्रव्यों का बना दोनों तरहके तेल उपरान्त अभ्यंगन के प्रत्याख्यान ॥२५॥ तदनन्तर उबट्टन-पीठी मर्दन की विधीका प्रमाण किया-फक्त एक कोष्टक गंध गोधूम (गहुके आटे के साथ) बट्टी बनाइ सुगंधी गोलीयों उपरान्त उद्दर्तन विधिके प्रत्याख्यान ॥ २६ ॥ तदनन्तर मंजन-मान विधिका परिमाण किया-फक्त आठ पानी के उदिष्टक घडे(कळश)उपरान्त स्नानमें पानी वापरनेके प्रत्याख्यान॥२ तब फिर वस्त्र का परिमाण किया-फक्त एक क्षोमयुगल जाति के कपास के कपडे उपरान्त अपर श्रेष प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स - सप्तमांग उपशिक दशा सूत्र पचक्खाति॥२॥तदाणं तरंचणं वत्थविहि परिमाणं करेति-नन्नत्थ एकेणं खोमजुयलणं, अवसेसं वत्थविहं पच्चक्खाइ ॥ २८ ॥ तदाणं तरंचणं विलेवणविहिं परिमाणं करेति. नन्नत्थ अगर कंकम चंदण मादितेहि, अवसेसं विलेवणविहं पचक्खाति ॥२९ ।। तदाणे तरंचणं पुप्फविहिं परिमाणं करेइ-णण्णत्थएगणं सुद्धपउमेणं मालइयं कुसुमदामेणं, अवसेसं पुप्फविहिं पञ्चक्खाती ॥३० ॥ तदाणं तरंचणं आभरणविहिं परिमाणं करेइ-णण्णस्थ मटकण्णेजातेहिं नाममुद्दाएय अवसेसं आभरणविहिं पञ्चक्खाती॥३१॥ तदाणं तरंचणं धूवविहिं परिमाणं करेइ-नन्नत्थ अगरुतुरुक्क धूवमादितेहिं, अवसेसं. धूवणविहिं पञ्चाक्खाति ॥ ३२ ॥ तदाणं तरंचणं भोयणविहिं परिमाणं करेमाणे - जाति के वस्त्र को प्रत्याख्यान ॥ २८ ॥ तदनन्तर विलेपन विधीका परिमाण किया-कृष्णागार कुंकुम चंदन का मर्दन उपरान्त विलेपन विधिका प्रत्याख्याना॥२६॥ तदनन्तर फूलकी विधिका परिमाण किया-फत्त सुगन्धी पौंडरिक कमल और मालती का फूल इन की माला. इन उपरान्त फूल की विधी का प्रत्याख्यान ॥ ३० ॥ तदनन्तर आमरण (भूषण) विधी का परिमाण किया-फक्त चित्रवन्त आठ खूनेवाले कान के कुंडल और नामांकित मुद्रिका, इन दों भूषण उपरान्त भूषण के प्रसाख्यान ॥ ३१॥ तदनन्तर धूप का परिमान किया. फक्त अगर भौर कृष्णागर सेल्हारस धूप इन सिवाय धूप के प्रत्याख्यान ॥ ३२ ॥ तद 8+ आणंद श्रावक का प्रथम अध्ययन 488 For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4. अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पिजविहिं परिमाणं करेंति- नन्नत्थ एगाते कटुपिजाते अत्रसेसं पिजविहिं पञ्चखाति, ॥ १३ ॥ लदाणं तरंचणं भक्खणविहिं परिमाणं करेड् नन्नत्थ एगेहिं घयपुण्णेहिं खंडखजे एहिंबा, अवसेसं भक्खणविहिं पञ्चक्खालि ॥ ३४ ॥ तदाणं तरंचणं ओदणत्रिहिं परिमाणं करेइ-मन्नस्थ कलमसालि ओदणेणं अवसेसं ओदणविहिं पञ्चक्खाति ॥ ३५ ॥ तदाणं तरंचणं धूपविहिं परिमाणं करेइ नन्नत्थ कलयसूहेणवा मुग्गमाससूएणवा, अत्रसेसं सूपविहिं पञ्चकखाति ॥ ३६ ॥ तदाणं तरंचणं घयविहिं परिमाणं करेति - ननस्थ { नन्तर भोजन की विधी का परिमाण करते हुवे - पिज्ज तली हुई वस्तु का परिमान किया- फक्त घृत से तले हुवे चांवल के पोया उपरान्त अपर शेष पेज विधी का प्रत्याख्यान ॥ ३३ ॥ तदनन्तर भक्षण विधी ( पक्वान ) का प्रमाण किया- फक्त एक घृत पूरित घेवर खांड— सक्कर से गलेपित किये मैदे के खाजे उपरान्त पक्वान के प्रत्याख्यान ॥ ३४ ॥ तदनन्तर ओदन --- चावल का परिमाण किया फक्त एक कमल शाल के चांवल के उपरान्त ओदन के प्रत्याख्यान ॥ ३५ ॥ तदनन्तर संप-दाल का प्रमाण किया- फक्त कलयर (कावली ) चीने की दाल, मूंग की दाल, उडद की दाछ, तीन उपरान्त अपर शेष सूंप के प्रयाख्यान ॥ ३६ ॥ तदनन्तर घृत की विधी का प्रमाण · For Personal & Private Use Only प्रकार की दाल किया. फक्त एक ● प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी १.४ ( Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4882 सप्तमांग- उपाशक दशा सूत्र 43+ सारइएण गोघयमंडेणं अवसेसं घयविहिं पञ्चक्खाति ॥ ३७ ॥ तदाणं तरंचणं सागविहिं परिमाणं करेइ- नन्नत्थ वत्थुसाएणंवा, सुत्थियसाएणंवा मंडूक्कियसाएणंवा, अवसेसं सागविहिं पञ्चवक्वाति ॥ ३८ ॥ तदाणं तरंचणं माहुरयविहिं परिमाणं करेतिनत्थ एगे पालुंकामाधुरएणं अवसेसं माहुरयविहिं पच्चक्खाति ॥ ३९ ॥ तदाणं तरंचणं जेमणविहिं परिमाणं करेति नन्नत्थ सेहंवदालियंचेहिं, अवसेसं जीमणविहि पच्चक्खाति ॥ ४० ॥ तदाणं तरंचणं पाणियविहिं परिमाणं करेति - नन्नत्थपुगेणं अंत शरद ऋतु-अश्विन कार्तिक का निष्पन्न हुवा गाय का घृत उपरान्त घृत के प्रत्याख्यान ॥ ३७ ॥ वदनन्तर शास्त्र का प्रमाण किया - फक्त बत्थवे का, सूर्वे (सूत्रा पालखा) का शाख, मंदुकी का शास्त्र (भाजी) इन तीन प्रकार के शाख उपरान्त अपर शेष शाख के प्रत्याख्यान||३८|| तदनन्तर मधुरफल का परिमाण करते फक्त एक पालंका-बल्लीका फल उपरान्त अपर शेष बल्ली के फल के प्रत्याख्यान ॥ ३९ ॥ तदनन्तर जेमने की विधी का प्रमाण करते फक्त दाल के बडे तथा पुडे और जेमन के प्रत्याख्यान ॥४०॥ | तदनन्तर पानीका प्रमाण किया- फक्त एक आकाशका पडा हुवा अधर झेला हुवा ( टंके प्रमुख में) १ कितनेक शरद ऋतु का अर्थ नित्य फजर का बनाया हुषा घी का भी कहते हैं For Personal & Private Use Only 488+ आनंद श्रावक का प्रथम अध्ययन + १५ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I 경기 अर्थ 43 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी लिक्खोदणं अवसेसं पाणिविहिं पञ्च्चक्खाति ॥ ४१ ॥ तदाणं तरंचणं मुहवासविहिं परिमाणं करेति नन्नत्थ पंचसेोगंधितॆणं तंबोलेणं अवसेसं मुहवासविहिं पच्चक्खाति । ४२ । तदाणं तरंचणं चउविहं अणट्ठादंड पच्चक्खाति तं जहा -अवज्झाणचरियं, पमायच - रित्तं, हिंसप्पयाणे, पावकम्नोवदेसं ॥ ४३ ॥ आनंदाति समणे भगवं महावीरे आणंद समणोवासर्ग, एवं वयासी एवं खलु आणंदा ! समणोवासतेणं अभिगय जीवाजीवेणं उवलद्ध पुण्णपाचेहिं आसव-संवर- निजरा - किरिया अहिगरण-यध मोक्ख-कुस लेणं संचकर रखा हुवा ) पानी उपरान्त अपर शेष पानी पीनेका प्रत्याख्यान ॥ ४१ ॥ तदनन्तर मुखवास का परिमान किया—फक्त पांच सौगन्धिक द्रव्य -१ इलायची, २ लवंग, ३ कर्पूर, ४ कंकोल और ५ जाय फल, इन उपरान्त मुखवास ( सम्बूल) के प्रत्याख्यान ( यहां तक सब उपभोग परिभोग परिमाण व्रत जानना ) ॥ ४२ ॥ तदनन्तर चार प्रकार का अनर्थ दंडके प्रत्याख्यान किया उनके नाम- १ अपंध्यान का आचरन अर्थात् आर्तव्य ध्यान व्याना किसी का बूराचितवना, २ प्रमाद चरित - अर्थात् घृतादि ( प्रवाही (पतले पदार्थों के बड़े रखना आदि, २ हिंशाकारी उपकरन जैसे तलवार चक्कू विष वगैरे किसी को देना, और ४ पापकर्म का उपदेश अर्थात् कृषी कर्मादि का उपदेश करना | इसप्रकार आठवत जावज्जीवके धारनकिये ||४३|| फिर आनंद से श्रमण भगवंत श्रीमहावीर स्वामी कहने लगे कि हे आनन्द ! For Personal & Private Use Only * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुर्खदेवसहायजी ज्वाप्रिलदजासी १६ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र असहिज देवसुर नागसुवन्न जक्ख रक्खस किन्नर किंपुरुष गरुल गंधव्य महारगाइ. एहि निगंथाओ पावयणाओ जाव अणतिक्कमणिजेणं, सम्मत्तस्स पंच आइयारा पेयाला जाणियव्वा न समायरियव्वा तंजहा-संका, कंखा,वितिगिच्छा, परपामंडप्पसंसा परपासंड संथवो ॥ १४ ॥ तदाणं तरंचणं थूलगपाणातिवाय वेरमणस्स समणोवास सप्तमांग टाक दश सूत्र 488 रण वध इनके अतिचार पाताकरना अर्थात यह शिवितगिला करना पसंस्था कार्य में कुशाल होमले जाने वाले हैं उनणित कथनपत्य है या संदेह लावे. श्रमणो पासक श्रावक को जीव अजीव को जानना. पुण्य पाप को उपलब्ध करना, आश्रय संवर निर्जरा क्रिया अधिकरण बंध इनके कार्य में कुशाल होना, कदाचित देवता दानवादि धर्म से चलावे तो चलना नहीं और सम्यक्त्व के पांच अतिचार पाताल में ले जाने वाले हैं उनको जाने परंतु आदरना नहीं, उन के नाम-१ श्री जिनेश्वर के वचन में शंका का करना अर्थात् यह जिन प्रणित कथनपत्य है या मिथ्या है ऐमा विकल्पकरै, २ कांक्षा-अन्य तीथिकपना आदरने की इच्छाकरे,२ वितिगिछा-करनी के फलका संदेह लावे, तवा साधु की अस्नान वृत्ति की दुगंछा करे, ४ पाखंडियों के आडम्बर की परसंस्था करे अन्य काई मन उसतम की तरफ लगा और ५ पाखंडियों-मिथ्यात्वीयों या भ्रष्टाचारीयों का सदैव परिचय ईमित्रता करे ॥४४॥ तदनन्तर श्रावक को स्थूल ग्रथम प्राणातिपात वेरमण व्रत के पांच अतिचार पातल में लेजानेवाले जानना. किन्तु आदरना नहीं, उनके नाम-१बन्ध जीव (पशु मनुष्य) को मजबूत बंधन से १. त्याग की वस्तु की-१ इच्छा करे वह अतिक्रम, २ लेने जोव वह व्यतिक्रम, ३ ग्रहण करे वह अतिचार, है और ४ भोगवे वह अनाचार. 8805 आणंद श्रावक का प्रथम अध्ययन 48 2 . For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेणं पंच अइयारा पेयाला जाणियन्या नसमायारयन्वा, तं जहा-बंधे, वहे, छविच्छेए अतिभारे, भत्तपाणवोच्छेते ॥ ४५ ॥ तदाणं तरंचणं थूलगमुसावाते वेरमणस्स पंच अईयारा जाणियन्वा नसमायरिसन्वा तंजहा-सहस्सा भक्खणे; रहसाभक्खणे, सदारमंतभेए, मोसोवएसे, कूडलेहकरणे ॥ ४६ ॥ तदाणं तरंधणं थूलग अदिण्णादाण । घेरमणस्स पंचअईयारा जाणियन्वा नसमायरियन्वा तंजहा-तेनाहडे,तकरप्पओगे,विरूद्ध. कर अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी+ अर्थ • प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी धना, २ मजबूत प्रहार से मारना, ३ अवयव अंगोपांग का छेदन करना, ४ शक्ति उपरान्त बमन लादना, और ५ आहार, पानी का व्यच्छेद करना-भूखे-प्यासे रखना ॥४५॥ तदनन्तर दूसरे स्थूल वृषावाद' बेरमण व्रत के पांच अतिचार जाने पर आदरे नहीं उनके नाम-१सहसत्कार-जानकर किसीपर आल चडार दोषारोपन करना, २किसी की रहस्य-गुप्त वार्ता प्रगट करना,३खी के गुप्त भेद अनट करना, मिथ्या-झूट उपदेश देना, तथा खोटी साक्षी भरना, औरण खोटे लेख लिखना ॥४६॥तदनन्तर तीसरे अदत्तादान प्रत के 11 पांच अतिचार जाने परंतु आदरे नहीं, उन के नाम- चोर की चुराइ हुइ वस्तु लेना, २ चोरी का प्रयोग बताना, तथा चोर को सहायता करना, ३ राज्य विरुद्ध करे-राजा की आज्ञा [ कानून ] को उल्लंघना, ४ खोटा तोलना,खोटे मापना और५तत्मतिरूप अच्छी वस्तु में खराब वस्तु मिलाकर व्यवहार, 1 For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + सप्तमांग-उपशाक दशा सच रजातिकम्मे, कडतल्लकडमाणे, तप्पडिरूवगवहारे ॥४७॥ तदाणं तरंच सदार संतोसीए पंचअइयारा जाणियवा नसमायरियव्वा तंजहा-इत्तिरिय परिग्गहीयागभणे, अपरिगहियागमणे, अनंगकीडाकरणे, परविवाहकरणे, कानभोगानिबामिल से ॥ ४८ ॥ तयाणं तरचणं इच्छापरिमाणस्स समाचासएणं पंचअइयारा जाणियव्वा नसमारियव्वा तंजाह-खिन्नवत्थु प्यमणातिक्कम्मे,हिरण्णसुवा प्परगाणातिकमे, धणधन्न च्यापार करना॥४७॥ तदनन्तर चौथा स्वदारा (स्वखी) सन्तापित व्रत के पांच अनिवार जाने परंतु पादरे नहीं, उन के नाम- इतर छोटी उमर की स्वस्त्रीस गमन करे अपरणित सगाइ दुइ स्वस्त्री से गमन करे .. पर स्त्री से-या प्रत्याख्यान के दिन ससस्त्री से योनि छोड कुचादि अनङ्ग के साथ क्रीडा करे, ४ अन्य के विवाह करावे, तथा अन्य की मांग से आप विवहा कर और ५ काम भोग की तिम्र अभिलाषा करे भोग में आशक्त बने अनियमित भोग भोगवे.॥४८॥ तदनन्तर पांचवा इच्छा परिमाण व्रत के पांच अतिचार जाने परंतु यादरे नहीं उनके नाम--१ खेत्र-खली भूमि वत्थुढकी भमिका जो प्रमाण किया हो उसे उल्लंघ,२हिरण्य-चादी, सुवर्ण-मोने का परिमाण उलंघ, द्विीपद मनुष्य पक्षी, चतुष्पद-पशु का __* इन दोनों आतिचार का कितनेक ऐसा अर्थ करते है बेश्याआदि को कुछ स्वल्प काल का लिये द्रव्य दे कर है अपनी स्त्री बनाये, २ कुमारिका विधवा से गमन करे, परन्तु यह तो अनाचार होते हैं. इस लिये यह स्वस्त्री ही जानना > आणंद श्रावक का प्रथम अध्ययन 498+ 8 For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ maaaaaaaaaaaaawara अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्पमाणातिक्कमे, दुप्पयचउप्पय प्पमाणातिक्कमे, कुविय प्पमणातिकमे ॥ ४९ ॥ तदाणं तरंचणं दिसिव्वयस्स पंचअइयारा जाणियब्वा नसमायरियव्वा तंजाह-उद्वदिसि प्पमाजातिक्कमे, अहोदिसि प्पमणातिकमे, तिरियदिसि प्पमाणातक्कमे,खेत्तबुढीसइ, अंतरद्धा ॥ ५० ॥ तदाणं तरंचणं उवभोगे परिभोगे दुविहे पन्नत्ते तंजहा-भोयणाओय, कम्मओय ॥ तत्थणं भोयणाओ समणावासतेणं पंचअइयारा जाणियन्वानसमायरियव्या . परिमाण उल्लंघे, ४ धन-नगददाणा, धान्य-अनाज का परिमाण उल्लंघे और ५ कुप्प-घर के विखरे का प्रमाण किया हो उसे उल्लंघे ॥ ४२ ॥ तदनन्तर छठा दिशी व्रत के पांच अतिचार जाने परंतु आचरे उन के नाय-१ऊर्ध्व-ऊंची दिशा में गमन करने का परिमाण उल्लंघ, २ अधो-नीची दिशी में गम का परिमाण उलंघे, ३ तिरछी दिशी में गमन करने का परिमाण उल्लंघे, ४ पूर्वादि दिशी का प्रमाण पश्चिमादि दिशा में मिलाकर क्षेत्र की वृद्धि करे, और ५ परिमाण को भूलकर आगे जावे ॥ ५० ॥ तदनन्तर सातवा उपभोग परिभाग ब्रत के दो भेद उन के नाम-१ भोजन आश्रित और २कर्म आश्रित. भोजन आश्रित के पांच आतिचार जाने परंतु अदरे नहीं उन के नाम-१ सचित्त. वस्तु का आहार करे, १२ सचित्त प्रतिबन्ध (सचित्त से लगी हुइ) अचित्त वस्तु का आहार करे, ३ अपक्व वस्तु का आहार wwwwwwwwwwwwmarwas • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहाय . wwwwwwwwwwww ज्वालाप्रसादजी For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ? अर्थ सप्तमांग-उपशाक दशा मूत्र तंजहा-सचित्ताहारे, सचित्त पडिबडाहारे, अपोलित्तोसहिभक्रवणया, दुप्पउलित्तो सहिभक्खणया, तुच्छोसहि भणया ॥ मम्मओणं समणोनासएणं पण्णरस्स कम्मा दाणाति जाणियवाति नसमारियव्वाति तंजहा-इंगालकम्मे, वणकम्मे साडीकम्म, भाडीकम्मे, फोडीकम्मे; दंतवणिजे, रसबणिज्जे, केसवणिजे, विस्वणिज, लक्खीणजे करे, ४ दुपक्य-पककर विगडगइ-सडगइ वस्तु कामाहारकरे, ५ तुच्छ-असार खाना थोडा डालना बहुत ऐसी वस्तु का आहार करे । और कर्म-व्यापर मे पन्नरे प्रकार के कर्म आने के कारन रूप व्यापर जानना. परंतु आदरना नहीं उनके नाम-१ अग्निकर्म-अनि प्रयोगकर व्यापार कर-लोहकार सुवर्णकार कुंभ कारादिका या कोयले बेंचनेका व्यापारकरेअनकी-वन कटाकर-काष्टपत्र फुल फलादिका व्यापरकरे, ३ साडी कर्म गाडा गाडी आदि वाहन का व्यापर करे, ४ भाडी कर्भ-गाडी वेल अश्चादि पासुओं को भाडे देने का व्यापर करे, ५ फोडी कर्म-खदान खोदाने का, दालादि दलाने का पिलाने का, धातुओं के आगरों का व्यापर * करे, ६ दंत-वणिज्य दान्तो का दरों का नवका चमड़े का व्यापरकरे, ७ रस वणिज्य-घत तेल दूग्ध दही गुडसकर प्रमुख परवाही वस्तुका व्यापर को,८ विष वाणिज्य-अफीम वच्छनागादि जहरी वस्तु काया व शस्त्र का व्यापर करे, ९ केस वणिज्य-चमरी गायके वालों ( चमरों) का तथा मनुष्य पशु को बेचने का व्यापरकरे, १० लक्ख वणिज्य-लाख, चपडी, धावडी, गुली, हरताल, मणसिल, वगैर का व्यापरकरे, ११ 46 आणंद श्रावक का प्रथम अध्ययन + + For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी जैतपीलणकम्मे, निलंछणकम्मे, दवग्गिदावणया, सरदह तडाग परिसोसणिया, अस. ईजण पोसणया ॥ ५१ ॥ तदाणं तरंचणं अणदण्ड वेरमणस्स समणोवासएणं पंचअइयारा जाणियव्वा नसमायरियब्वा तंजहा-कंदप्पे, कुक्कुए, मोहरिए, संजुत्ता हिकरणे, उवभोग परिभोगातिरत्ते ॥ ५२ ॥ तदाणं तरंचणं सामाइयस्स समणो वासएणं पंचअइयारा जाणियवा नसमायग्विव्या तंजहा-मण दुप्पणिहाणे, वय । यंत्र पीलन कर्भ-पही ऊखल चरखे कोल्हू धानी मीउ गिरनी आदिका व्यापारकरे, १२ निलंछन्न कर्म घेल अश्वादि का पुरुष चिन्द का छेदन-मर्दन करे, अङ्गो पाङ्ग के छेदने का व्यावार करे, १३ वन में खेतमें आनि लगाने का कर्म करे १४ तलाव कूप वादही आदि सरोवर के पानी उलीचने का व्यापर करे, और १५ अससिजन-स्त्रीयों का पोषन कर उनके पार दिया जैसे कर्म करा उनकी कमाइ का द्रव्य आप ग्रहण करे, या कुत्ते बिल्ली सिकारी बना उनका व्यापार करे, ॥५१॥ तदनन्तर आउया अनर्थ दंड: बेरमान व्रतके पाच अतिचार जाने परंतु आदरे नहीं उनके नाम-१ कंदर्प-कामराग जागृत होवे ऐसी कथा करे, २ भांउ जैसे अंग की कुचेष्टा (उपहास्य) करे, ३ पुव अरी-वैरी जैसे (पर्मिक) वचन बोले, ४ अधिकरण-हथीयार को संयुक्त करे, मंयोग मिलाव, इक और ५ उपभोग परिभोग में अतिरक्त बने ॥५२॥ तदनन्तर नववे सामायिक त के पांच अतिवार जाने परंतु आदरे नहीं, उनके नाम-१ मन से • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सक्षयजी ज्वालाप्रसादनी. For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ सप्तमांग- उपाशक दक्षा सूत्र + ++ दुष्पाणिहाणे, काय दुष्पाणिहाणे, सामाइयस्स सइ अकरणयया, सामाइयरस अण्णवट्ठियरस करणया ॥ ५३ ॥ तदाणं तरंचणं दिसावगासियरस समणोवास एवं पंचअइयारा जाणिव्वा नसमयरियन्वा तंजहा आणवणप्पओगे, पेसवणप्पओगे, सदाणएवा, रूवाणूवाए, बहिया पुग्गाले पक्खेवे ॥ ५४ ॥ तदाणं तरंचणं पोसहोत्र वासरस समणो वासणं पंचअइयारा जाणियव्वा नसमायरियवा तंजहा- अप्पडिलेहिए दुष्पडिलेहिय सिज्जासंथारे, अप्पडिलहिए दुप्पडिलेहिय उच्चारपासवणभूमी, अप्पम - जिय दुप्पमजिय सिज्जासंथारे, अप्पमजिय दुप्पमजिय उच्चार पासवणभूमी, पोसहोव - { से खराब विचार करे, २ वचन से खराब उच्चार करें, ३ काय अयत्ना से परवरतावे, ४ सामायिक काल पूर्ण हुवे पहिले पारे, और २ सामयिक किये वाद उसकी शुद्धी भूलजावे ॥ ५३ ॥ तदनन्तर दशवा दिशाब काशीक व्रत के पांच अतिचार श्रमणो मासक जाने परंतु आदर नहीं, उनके नाम- १६ मर्याद की हुई भूमीका के वाहिर की वस्तु मंगाये, २ मर्यादा के वाहिर वस्तु भेजावे, ३ शब्दनुपात करे, ४ रूपानुपात करे, और५मर्याद बाहिर कारादि पुगलानुपात करे ॥५४॥ तदनन्तर इग्यारवा पौषध व्रतके पांच अतिचार जाने परंतु आदरे नहीं उनके नाम-पौषध करने का मकान व बिछोना की प्रतिलेखना नहीं करे, व खराबतरे करे, २ पोषध का मकान व बिछोना की प्रमार्जना नहीं करे. व खराबतरेकरे, ३लघुनीत व वडीनीत की. भूमी For Personal & Private Use Only 4088+-- यानंद श्रावक का प्रथम अध्ययन 48 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासस्स सम्म अणणूपालणया ॥ १५॥ तदाणं तरंचर्ण अतिहि समविभागस्स . है समणोवासएणं पंचअइयारा जाणियव्वा नसम्मारियव्वा तंजहा-सचित्तनिक्खेवणया,, सचित्तपेहणया, कालातिकम्मे, परउवदेसं, मच्छरिया ॥ ५६ ॥ तदाणे तरंचणं . : अपाच्छम मारणंतिय संलहणा असणाराहणाए पंच अइयारा जाणियन्वा नसमायMP रियब्बा तंजहा-इहलोगे संसण्पओगे, पस्लोग्मे संसप्पओगे, जीवियाः संसप्पओगे, ... की प्रतिलेखना नहीं करे, व खरावतरेकरे, ४ वडीनीत लघुनीत की भूमी का प्रमाले नहीं व खरावतरे। " प्रमार्जे. और पौषध उपवास का यथाविधि पालन नहीं करें ॥५५॥ तदनन्तर बारवा अतिथी-जिन के आने की तिथी का नियम नहीं ऐसे साधुओं को देने के लिये आहार आदि का संविभाग करे,, जिसके पांच अतिचार जाने परंतु आदरेने नहीं, उन के नाम-साधु को देने योग्य फासुकवस्तुः१ सचित के ऊपररखे, २४ मचित्त के नीचेरखे, २ गोचरी का काल उल्लघे विनंतिकरे, ४ आप देते योग्य हो पस्के पास . दिलावें, और ५ अन्यदातरों से मात्सर्य भाव-ईर्षा करे व दानदेते कृपणताकरे.. ॥५६॥ तदनन्तर अपश्चिम अन्तिम परणतिक सलेषना, पापकी झोसना धर्म की आराधना के पांच अतिचार, जानमा परंतु आदरना की . उन के नाम- इस लोक के मुख की इच्छा करे,२ परलोक के मुख की इच्छा करे. ज्यादा 1. जीते रहने की इच्छा करे, ४ जल्दी मरने की इच्छा करे, और ५. काम भोग-पांचों इन्द्रियों के सुख । For Personal & Private Use Only प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी चालाप्रसादजी Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 सप्तमांग-उपाशक दशा सूत्र 428 मरणासंसप्पओगे, कामभोगासंसप्पओग, ॥ ५॥ तएणंसे आणंदेगाहावइ समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुबईयं सत्तसिक्खावइथं दुवालसविहं सावगधम्म पडिवजहि २त्ता समणं भगवं महावीरं वदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी वल मे भंते ! कप्पड़ अजप्पभइओ. अण्णउत्थिएवा अणउत्थिय देवयाणिवा अणउत्थिय पंरिग्गहियाणिवाई चेइयाति १ वंदित्तएवा नमंसित्तएवा पुद्विअणालवतेणं आलवित्तएवा संलवित्तएवा, तेसिं असणं या पाणंवा खाइमंवा साइमंवा दाउवा अणुप्पमाप्ति की इच्छा करे ॥ ५७॥ (इस प्रकार ब्रतों को शुद्ध रखने भगवंतने आणंद को सम्यक्त्व मूल बारह बत अन्तिम सलेपना सहित ८५ अतिचारों का स्वरूप दर्शाया) तब आण नामक गाथापतिनै श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी के पास पांच अनुव्रत सात शिक्षाबत रूप बारे प्रकार का श्रावक का धर्म अंगीकार किया. पण भगवंत श्री महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार किया और यों कहने लगा. अहो भगवन् ! मुझे आज पीछे अन्य तीर्थकों को अथवा अन्य तीथिक के धर्मदेव शाक्यादि साधुओं, अथवा अन्य तीथिकने ग्रहण किये जैन के चैत्य-साधु भृष्टचारी को पंदना नमस्कार करना उनके बोल पहिले उन से बोलना वाम्बार बोलना, उन को अशन पान खादिम स्वादिम चार प्रकार का आहार १ बगाल देश के कल कत्ते की तरफ से प्राप्त हुइ जूनप्रित में ऐसा ही पाठ है. किन्तु अधुनिक प्रतों में बहुत स्थान “ अरिहंत चेइपाइ, ऐसा पाठ देखाता हे वह प्रक्षिप्त संभवता है. आणंद श्रावक का प्रथम अध्ययन 48 +8 | For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + दाउवा, नन्नत्थ-रायाभिओगेणं, गणामिओगेणं, बलाभिओगेणे, देवाभिओगेणं, गुरुनिग्गहेणं, वित्तीकंतारेणं ॥ कप्पतिमे समणे निम्गथं पासूएसणिजेणं असणं पाणं खाइमं साइमं वत्थ पडिग्गह कंबल पापुंच्छणेणं पीढ फलग सिज्जा संथारएणं ओसह भेसज्जेणं पडिलाभेमाणस्स विहरित्तए त्तिकटु ॥५८॥ इमे एतारूवं अभिग्गहें गिणितिरत्ता पसिणाई पच्छति२त्ता अटाइ मादियतिरत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं वंदति नमसंति वंदित्ता नमंसित्ता समणरस भगवतो महावीरस्स अंतियातो दुईपलासाओ चेइयालो पडिणिक्खमइ २त्ता जेणेव वाणियागाम धर्मार्थ ] देना, ब (धर्म होगा ऐसा उपदेश कर ) दिलाना, नहीं कल्पे. निस में ? राजा के अम्रह कर, २ जाति के अग्रह कर, ३ बलवन्त के अग्रह करे, ४ देवता के कारण कर, ५ मातपितादि जेष्ट जानों के निग्रहकर, और कन्तार अटवी में पड़े हुवे या दुर्भिक्षादि विपाते में पडे हुवे को देनेका आगार है. और अहो भगवन् ! मुझे श्रमण-तपस्वी-निर्ग्रन्थ को फ्रासुक एषनिक-शुद्ध अशन पान खादिम स्वादिम वस्त्र पात्र कम्बल रजोहरण, पाट, पाटला, स्थनक, विछोना औषध सूठ लवंमादि भेषधा--तेल चरणादि प्रतिलाभता-देता हुवा विचरना कल्पता है,॥५८॥ यों इतने प्रकारके अभिग्रह-नियम धारन किये, इसमें या अन्य किसी प्रकार की शंका थी उस के प्रश्न पूछे, पूछकर अर्थ धारन किये. अर्थ धारन कर भ्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी को तीन वक्त हाथ जोड प्रदक्षिणावर्त फिराकर वेदना नमस्कार किया, वंदना . प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी For Personal & Private Use Only www.ainelibrary.org Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 - 427 सप्तांग-उपाशक दशा सूत्र णगरे जेणेव सएगिहे, तेणेव उवागच्छइत्ता सिवाणंदा भारियं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिए ! मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म णिसंते, सेवियधम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुतिते, तंगच्छहणं तुमंदेवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीर वंदइ जाव पज्जुवासाइ समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतीते पंचाणुवतियं सत्तसिक्खायतियं दवालसविहं गिहिधम्म पडिवजाहि ॥ ५९ ॥ तएणं सासिवाणंदा भारिया अणंदे समणोवासएणं एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा कोडुंबिय पुरिसे सहावेई २ नमस्कारकर श्रमण भगवन्त श्री महावीर स्वामी के पास से द्युतिपलास चैत्य से निकला, निकलकर जहाँ । वाणिज्यग्राम नगर जहां स्वयं का घर था तहां आया, आकर शिवान्दा भार्या से यों कहने लगा-यों निश्चय हे देवानुप्रिय ! मैंने श्रमण भगवन्त श्री महावीर स्वामी के पास धर्म श्रवन किया, वह मर्च इच्छा विशेषच्छा सार भूत जाना, इसलिये हे देवानुप्रिय ! तुम भी जावो श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार करो यावत् पर्युपासना-सेवा करो, श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी पास पांच अनुव्रत सात शिक्षाप्रत बारह प्रकार का गृहस्थ का धर्म अङ्गीकार करो ॥५९॥ तब वह शिवानन्दा भार्या आनन्द श्रमणो पासक के उक्त वचन श्रवणकर हृष्ट तुष्ट हुइ कुटुम्बिक पुरुष को बोलाया, बोलाकर यों कहने लगीशीघ्रता से शीघ्रगति वाला अश्चोंका धर्मरथ तैयार कर लावो, वह राथ तैयार कर लाया यावत् भगवन्त के आणंद श्रावक का प्रथम अध्ययन 6 For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी त्ता एवं घयासी-खिप्पामेव लहुकरण जाव पज्जुवासति ॥ ६ ॥ तएणं समणे भगवं महावीरे सिवानंदाते तीसेयमहति धम्मंकहेति ॥६॥ ततेणं सासिवाणंदा समणस्स भगवओ महावीर अंतिए धम्मसोचा हट्ट जाव गिहिधम्म पडिवज्जति २त्ता ।। तमेव धम्मियं जाणप्पवरं दुरुहति २ त्ता जामवदिसं पाडन्भूया तामेवदिसं पडिगया ॥ ६२ ॥ भंतेत्ति भगवं गोयमे-समणं भगवं महावीरं वदति नमंसति वदित्ता नमंसिचा एवं क्यासी-पभणं भंते ! आणंदे समणेवासए देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पव्वचित्ते ? नोतिण? समटे ॥ गोयमा ! आणंदेणं सभणोवासते बहुई समीप आई यथाविधी वंदना कर सेवा भक्ति करने लगी ।। ६० ॥ तब श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी उस शिवानन्दा को उस महा परिषद को धर्म कथा सुनाई ॥ ६१ ॥ तब वह श्रमग भगवंत श्री महावीर स्वामी के पास धर्म श्रवण कर शिवानन्दा हृष्ट तुष्ट हुई यावत् बारेव्रत रूप ग्रहस्थ का धर्म अङ्गीकार किया, उस ही धर्म रथ पर स्वार हो जिस दिशा से आई थी उस दिशा पीछी ( अपने घर ) गई ॥६॥ भगवंत, भगवन् गौतम ! श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी को बंदना नमस्कार किया, और यों कहन लगे-अंहो भगवन् ! आनन्द श्रावक देवानुप्रिया के पास मुण्डित हो यावत् दीक्षा धारन करने समर्थ है ? गवन्नने कहा, यह योग्य नहीं है अर्थात् दीक्षा लेने समर्थ नहीं हैं. परंतु हे गौतम ! आनन्द श्रावक, * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी* For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 सप्तमांग-उपाशक दशा मूत्र 4088 वासाई समणोवासग परियागं पाउणिति २ सा जाव सोहम्मेकप्पे अरुणभ विमाणे देवत्ताए उववजिहिति ॥ तत्थणं अत्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइ द्विती पण्णत्ता, तत्थणं आणंदस्सवि चत्तारिपलिओवमाइं द्विती पण्णत्ता ॥ ६३ ॥ तत्तणं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ बहिया जाव विहरइ ॥ ६४ ॥ तत्तणं से आणंदे समणोवासतेजाते, अभिगय जीवाजीवे जाव पडिलाभेमाणे विहरति ॥६५॥ तत्तणं सा सिवाणंदा भारिया समणो वासियाजाया जाव पडिलाभमाणिविहराते॥६६॥ तत्तेणं तस्स आणंदस्स समणोवासयस्स उच्चएवतेहिं सीलब्वयएस्स गुणवेरमणस्स बहुत वर्षतक श्रमणोपासक की पर्याय का पालन कर यावत् सौधर्मा कल्प के अरुणाभविमान में देवतापने उत्पन्न होगा, तहां कितनेक देवताओं की चार पल्योपम की स्थिति कही है, तहां आनन्द की भी चार पल्यापम की स्थिति होगी ॥६३ ॥ तव श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी यावत् बाहिर जनपद देश +विचरने लगे ॥ ६४ ॥ तब वह आनन्द श्रावक जीवाजीव का जान हो यावत् श्रमण निर्ग्रन्थ को चउदह प्रकार का दान प्रतिलामता हुवा विचरने लगा ॥६५॥ तब वह शिवानन्द अनन्द की भार्या श्रमणोपासिका हुई यावन् प्रतिलाभती हुइ विचरने लगी ॥ ६६ ॥ तब उस आणंद श्रमणोपासक को ऊंचवृत्ति-वृद्धमान परिणाम से शीलव्रत गुणव्रत में प्रवृत्त न करते पोषध उपवास कर अपनी आत्मा को भावते विचरते है । - आणद श्रावक का प्रथम अध्ययन 428 For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + पञ्चक्रवाण पोसहोववाससेहि अप्पाणभावमाणस्स चौदस संवच्छरातिं वतिकताति पणरसमस संवच्छरस्स अंतरावमाणस्स अन्नयाकथाइ पुव्वरत्तावरताकाल समयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेएयारूवे अज्झत्थीए चिंतीए मणोगएसंकप्पे समुप्पजित्था-एवं खलु अहं वाणियगामेणयरे बहुणं राइसरा जाव सथस्स कुडंबस्स जाव आधारे, तं एतेणं वक्खवेणं अहं नो संचाएमि समणस्स भगवओ महावीरस्स अंत्रियं धम्म अण्णत्तिं उत्रसंपजिवाणं विहरतत्ते, तंसेय खलु ममं कल्ले जाव जलंते विपुलं असणं .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * हुवे चौदह वर्ष व्यतिक्रन्त हुवे, पारवे संवत्सर-1 वर्ष के अन्तर में वर्तते अन्यदा किसी वक्त आधी रात्रि व्यतीत हुवे धर्म जागरणा जागते हुवे इस प्रकार अध्यवसाय-चिन्तयना समुत्पन्न । हुइ-यों निश्चय में वाणिज्य ग्राम नगर में बहु ईश्वारादि चा सयं के कुटुम्ब में यावत् आधार भूत इसलिये इन के कार्य में लगका मैं श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी के पास ग्रहण किया हुवा धर्म कोई E अंगीकार कर शुद्ध पालने समर्थ नहीं हूं. इसलिये मुझे प्रातःकाल होत जाज्वल्यमान सूर्यो दय होते विस्तीर्ण अशनादि चारों प्रकार का आहार निष्पन्न कराके यावद् भगवती सूत्र में कहे पूर्ण शेठ की तरह मित्राज्ञाती जनों को जीमा के सत्कार सम्मान करके बड़े पत्र को कुंडल का भार अर्पन करके For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Nagit सनमांग-उपाधक दशा सूत्र 488+ वाणं राइयं खाइमं जहा पूरणे जाव जेटुपुत्तं कुटुंबेदवित्ता, तंमित्तणाइ जेटुपुत्तं आषु. च्छित्ता कोल्लागसन्निवेसे नायकुलंसि पोसहसालं पडिलेहित्ता समणं भगवं महावीरस्स अंतियं धम्मं पण्णंति उवसंपजित्ताणं विहरित्तए,एवं संपटेतिरता कल्लंविउलं तहेव जिमिय भतुत्तरागए,तमित्त जाब विपुलेणं पुप्फवत्थ जाव सकारेति समाणेति २त्ता तस्सेव मित्तणाति पुरओ जेट्रपुत्तं सदावेइ२त्ता, एवं वयासी एवं खल ते पुत्ता ! अहं वाणियगामे बहुर्ण राइसरी जहा चिंतित्तं जाव विहरित्तए तं लेयं खलु मयइदाणिं तुम सयस्स कुटुबस्स आलबंणठवेत्ता जाव विहारत्तए ॥६७॥ तत्तेणं जेटे पुत्ते आणंदरस समणोवासयस्स उन मित्र ज्ञातीयों को पूछकर बडे पुत्र को पूछकर कोल्लाक मन्नीवेश (पुरे) की पौषधशाला में श्रमण भगवंत श्रीमहावीरस्वामी का कहाहुवा धर्म अंगीकार करके विचरना श्रेयहै. ऐसा विचारकिया, विचार करके प्रातः काल होते ही चारों प्रकारका आहार निष्पन्न कराके मित्रादि को वोलाकर,उन मित्र जाती आदि के लो को जीमारकर विस्तीर्ण फूल,माला,गंध अलंकारसे सत्कार सन्मान कर,उनही मित्र ज्ञातीके सन्मुख बडे पुत्र बोलाया बोलाकर यों कहने लगे-यों निश्चय हेपुत्र! निश्चयसे इसवाणिकग्राम नगरमें बहुत राजा इश्वरादिको आधार भूतहूं इत्यादि सब कहा,अब तुम को कुटुम्बका आधार स्थापनकर यावत् पोषध शाला में धर्मध्यान करता रहूना मुझे श्रेष्ठ है।।६७||तब जेष्ट पुत्र आनन्द श्रमणोपासकका उक्त कथन तहिती-हितकारक जानकर ।' Annannnnnwww आणंद श्रावक का प्रथम अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - mmmmwwwmarwar र अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी तहित्ति एयमटुं विणएणं पडिसुणेति ॥ ६८ ॥ ततेणं से आणंदे समणोवासए तस्सेवमित्त जाव पुरत्ते जेटुं पुत्तं कुटंबे हुवेइ २त्ता एवं वयासी-माणं तुम्हे अज्जप्पभिई कति ममं बहुसुकजेसुय जाव आपुच्छिओवा, पडिपुच्छिओवा ममं अट्ठाए असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडेउ २. वा ॥६९॥ तएणं सेआणंदे समओवासए जेलू पुत्तं मित्तणाति आपुच्छति २, सयातो गिहातो पडिणिक्खमति २ ता वाणियगामं नगरं मझ मज्झेणं निग्गच्छइ २त्ता जेणेव कोल्लाते सन्निवेसे जेणेव मित्तनाय कुले जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ २ त्ता, पोसहसालं पमज्जति २त्ता उच्चारपासवणं भूमि यह अर्थ विनय भाव से अङ्गीकार किया ॥ ६८ ॥ तब आनन्द अपणोपासक उन मित्र ज्ञातीओं के आगे बडे पुत्रको कुटम्ब का भार सुपरत कर यों कहने लगा-आज पीछे तुम मुझे किसी भी कार्य का यावत् पूछना नहीं मेरेलिये अशनादि चारों आहार निपजाना नहीं ॥ ६९ ॥ तर आणंद श्रमणोपासक-बडा पुत्र और मित्र ज्ञातीजनों को पूछकर अपने घर से निकलकर वाणिज्याग्रम के मध्य २ में होकर जहां कोल्लाक सनीवेस जहां मित्र ज्ञाती के लोगों थे जहां पौषध शाला थी तहां आया, आकर पोषध शाला का परमार्जन किया, उच्चार-बडी नीत की पाश्रवण-लघुनीतकी भूमिकाका प्रतिलेखन किया, दर्भ-घासका बिछोना विछाया, *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी मालाप्रसादजी । For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र nnnwirine 48. सप्तमांग-उपाशक दशा सूत्र 438 पङिलहेति २त्ता दम्भसंथारयं संथरइ २ ता दन्भसंथारयं दुरुहति २ सा पोसहसालाए पोसहिए दब्भसंथारोवगते समणस्स भगवतो अंतिए धम्मपण्णत्तियं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ ॥७०॥ तएणं से आणंदे समणोवासए पड्डमं उवासगपडिमाणं उत्रसंपजित्ताणं दर्भ-घास के बिछोने पर बैठे पोषधशालामें पोषध सहित दर्भ-घास के संथारेपर रहे हुवे श्रमण भगवंत महावीर स्वामी के पास अङ्गीकार किया हुवा धर्म का विशेष शुद्ध विधीसे पालन करते विचरने लगे ॥ ७० ॥ तब आनन्द श्रमणोपासक प्रथमादि इग्यरह श्रावक की प्रतिमा अङ्गीकार कर विचरने लगे-उन के नाम११सम्यक्त्व प्रतिमा-एक महिने तक ले छंडी पांच भतिचार रहित सम्यक्त्व निर्मल पाले, २ व्रत प्रतिम दो महीने तक सम्यक्त्व युक्त अतिचार रहित व्रत निर्मल पाले, ३ सामायिक प्रतिमा-तीन महीने तक सम्यक्त्व व्रत युक्त ३२ दोष रहित त्रिकाल की सामायिक अवश्य करे, ४ पौषध प्रतिमा-चार महीने तक उक्त गुणयुक्त १८ दोष रहित एक महीने में छ (दो अष्टमी, चार चतुदर्शी अमावस्य चतुदर्शी पूर्णिमा) का व उदिष्ट तिथीयोंका पोषध जरूरकरे,नियम प्रतिमा पांच महिनेतक उक्तगुणयुक्त-१ दिनका ब्रह्मचर्य पाले,२ . स्नानकरे नहीं ३ पगरखी पहने नहीं, ४ धोतीकी लांग खुल्लरिक्खे, और पोषध में चार प्रहर रात्रिका का-* युत्सर्गकरे, यह पांच नियम धारे, ६ ब्रह्मचर्य प्रतिमा-उक्त गुणयुक्त छ महीने तक सर्वथा ब्रह्मचर्य पाले, १७ सचित्त त्याग प्रतिम-युक्त गुणयुक्त सात महीने सक सचित वस्तु का आहार करे नहीं, · उदिष्ट । आणंद श्रावण का प्रथम अध्ययन 48 For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ अमालक ऋषिजी विहरति, पढम उवासग पडिमं अहासुत्तं अहाकप्पं अहामन्गं अहातचं, सम्मकाएणं . फासेति पालति, सोहेति, तीरति कित्तति आराहेति ॥ तत्तेणं से आणंदे समोवासए दोच्चं उबासगपडिमं एवं. तचं, चउत्थं, पंचम, छटु, सत्तमं, अट्ठमं, नवमं, दसमं, एक्कारसम, जाव आराहेति ॥७॥ ततेणं से आणंदे समणोवासए इमेणं एतारूवेणं प्रतिमा-उक्त गुणयुक्त आठ महिनेतक आपस्वयं आरंभकरे नहीं, ९ पेसारंभ-उक्त गुणयुक्त नव महीने तक अन्य के पास आरंभ करावे नहीं, १० अनारंभ-उक्त गुणयुक्त दश महीने तक अपने वास्ते प्रारंभ किया हो उस वस्तु को ग्रहण करे नहीं और ११ समण भूत प्रतिमा-उक्त गुणयुक्त इग्यारे महीने तक साधु जैसा भेष धारन करे, पांचसमिती युक्त विचरे, सिरमुंडन करावे, शिखारक्खे, स्वयं कुल में गौधरीकरे, E कोइ पूछेतो कडेकि में प्रतिमा बाहक अपणोपासकहूं * यों अनयोगद्वार सूत्रानुसार इग्यारेही प्रतिमा प्रतिज्ञा सूत्रोक्त विधी प्रामने, श्रावकके कल्प प्रमाने, जैन मार्गकी रीति प्रमाने, यतिथ्य सम्यक् प्रकारपाल स्पर्शा शुद्ध पार पहोंचा कीर्ति मुक्त भगवंत की आज्ञाका आराधन किया * ॥ ७१ ॥ तब आणंद श्रमणोपासक * पहिली प्रतिमा में में एक महिने तक एकान्तर उपवास दूसरी, में दो महिने तक बेले २ पारना यावत् इग्यारवी प्रतिमा में इग्यारे महीने तक इग्यारे २ उपवास के पारने करे ऐसा बुद्धकथन हैं. ___+ प्रथम आकाश से ग्रहण किये हुवै पानी सिवाय अन्य पानी पीने का नियम किया था उस नियम का प्रतिमा में भी पालन किया, जो वैसा पानी उष्ण किया ब धोवन किया मिलता उसे ही ग्रहण करते, अन्य नहीं. . प्रकाशक राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामसादनी अनुवादक-बालब्रह्मचा १ For Personal & Private Use Only www.iainelibrary.org Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IG अर्थ 46 सप्तमांग- उपाशक दशा सूत्र + लेणं पयतेर्ण पग्गहितेणं तवो कम्मेणं सुके जात्र किसे धम्मणिसंतेजाए ॥ ७२ ॥ तरणं तस्स आणंदस्स समणोवासगस्त अन्नयाकयाई पुव्वरत्तावरतकाल समयंसी जात्र धम्म जागरियं जागरमाणस्स अयं अज्झथिए ४ एवं खलु अहं इमेणं जाव धम्मणि संतिते जाते, तं अत्थितामे उट्टा कम्मे चले चिरिए पुरिसकार परकम्मे, सद्धाद्धिई संवेगे, तं जाय ताव में अस्थि उट्ठाणे सद्धाधिई संवेगे जाव मेव मम धम्मा आयरिय धम्मो सय समणे भगवं महाबीरे जिणेसुहत्थि विहरति तावता मेव सेयकले जात्र उत्पन्न हुवा -य { इस प्रकार उदार प्रधान विस्तीर्ण प्रयत्नयुक्त सावधानता युक्त महातप करके शरीर से मूक गये रक्त बांस ( रहित यावत् धमनी से वने नशा जल दिखने लगी || ७२ || तब अन्यदा किसी वक्त आनंद श्रमणोपासक अर्धरात्रि व्यतीत हुवे यावत् धर्म जागरणा जागते हुवे इस प्रकार अध्यवस्याय निश्चय में इस तपश्चर्य कर सूकगया, नशाजाल दिखने लगी ऐसा अशक्त हुवा इसलिये जहांतक मेरे में उत्थान कर्म वल वीर्य पुरुषात्कार पराक्रम श्रद्धा धैर्यता संवेग है तहांतक मैं होते उत्थान कर्म बल वीर्य पुरुषास्कार पराक्रम श्रद्धा धैर्य संवेग और जहांतक मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी रामद्वेष का जयकर गंध हस्ति के जैसे विचरते हैं तहांतक मुझे अर्थात प्रातःकाल जाज्वल्यमान For Personal & Private Use Only 49 आनंद श्रावक का प्रथम अध्ययन 48 ३५ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AnArmaanm मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी जलंते अपच्छिम मारणंतिय संलेहणा झूसणा झूसितस्स भत्तपाणे पडियाक्खितए काल अणवकंक्ख माणस्स विहरित्तए,एवं संपेहेहि.कलं पाउ जाव अप्पच्छिम जाव कालं अणव कंक्खमाणे विहरंति॥७३॥तएणं तस्स आणंदस्स समणोवासगस्स अन्नयाकयाइ सुभेणं अज्झवसाणेणं, सुभेणं परिणामेणं, लेसाहि विसुज्झमाणीहि, तहावरणिजाणं कम्माणं खउवसमेणं ओहिणाणे समुप्पन्ने-पुरच्छिमेणं लवणसमुद्दे पंचजोयण सयाइं खेत्तंजाणति पासति, एवं दक्खिणेणं पञ्चत्थिमेणं; उत्तरेणं जाव चुल्ल हिमवंतवासधरपवयं जाणति पासति,उर्दु जाब सोहम्मेकप्पे आणतिः पासति, अहे. जाव इमीसे स्यणप्पभाए. सूर्योदय होते अपाश्चिम मारणान्तिक सलेषसना मे पाप की झोंसना धर्म की आराधना कर भक्त प्रत्याख्यान कर काल की वांच्छा नहीं करता हुवा विचरना श्रेय है. यों विचार कर प्रातःकाल हुवे अपश्चिम मारणांतिक सलेषना कर यावत् काल की वांच्छा नहीं करता हुवा विचरने लमा ॥७३॥ तत्र अन्यदा किसी वक्त उस आणंद श्रावक को शुभअध्यवसाय कर शुभपरिणाम कर लेश्याकीविशुद्धि कर अवधि ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होने से अवधिज्ञान की प्राप्ति हुइ, जिस से पूर्व में पश्चिम में औ दक्षिण में तो लवण समुद्र में ५०० योजमतक क्षेत्र. उत्तर में चूल हिमवन्त पर्वत तक क्षेत्र, तैसे ही ऊपर * सौधर्म देवलोक और नीचे. पहिली नरक का लोलुचुत नरकावास.में चौससी हजार वर्ष की स्थिति तक क्षेत्र *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी.ज्वालाप्रसादजी For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. + समांग-उपशाक दशा सूत्र 488 पुढवाए लोलुयन्चुते नरयवा से चउरासति वाससहस्स ट्ठितियं जाणति पासति॥५४॥ तेर्ण कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरिते, परिसा निग्गया, जाव पडिंगते॥७५॥तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्सा भगवओ महावीरस्स जो अंतेवासी इंदभूई नामं अणगारे, गोयम गुत्तणं, सत्तुस्सेहे, समचउरंस संट्ठाण संट्टीए, बजरिसहनारायसंघेयणे, कणगपुलगनिघसपम्हगोरे, उग्गतवे, दित्ततवे, तत्ततवे, घोरतवे, महातवे, उराले, घोरगुणे, घोरतवसी, घोरबंभचेरवासी, उच्छुढसरीरे, संक्खित्त अज्ञान कर जाना अवधिदर्शन कर देखा ॥ ७४ ॥ उस काल उस समय में श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी पमरे, परिषदा वंदने गई, धर्मकथा श्रवण कर पीछी गई ॥ ७५ ॥ उस काल उस समय में श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी के बड़े शिष्य इन्द्र भूनी नामक अनगार, गौतम गौत्र के धारक, सात.हाथ के * ऊंचे, समचतुरस्र संस्थान से संस्थित, बज वृषभ नाराच संघमनी, सुवर्ण के अन्दर के विभाग जैसे पन में गौर वर्ण शरीर के धारक, उप तप के करनेवाले, दिन तप के करनेवाले, तन तप के करनेवाले, महा तपस्त्री, उदार तपस्वी, घोर बहुत क्षमादि गुन के धारक, कायर को कम्पनी उत्पन करे ऐसे तप के करनेवाले, शरीर की ममत्व रहित, विस्तीर्ण सेजोलेश्या को संक्षिप्त कर रखनेवाले, सदैव निरंतर छठ २ आणंद श्रीवक का.. मथम अध्ययन 488 N For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिमी विउल तेऊलेसे, छठुछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तबोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥ ७६ ॥ तएणं से भगवं गोयमे उट्ठक्खमण पारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, विईय.ए पोरसीए ज्झाणंझियाइ, तईयाए पोरिसीए अतुरियं अचवल मसंभंते मुहपत्तियं पडिलेहइ, २त्ता भायण वत्थाई पडिलेहेइ, भायणं पमज्जइ २ त्ता, भायणाइं उग्गाहेइ२ या जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागाछइ २त्ता समणं भगवं महाबीर बंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी-इच्छामिण भंते ! तुभेहि अब्भणुण्णाए समाणे छट्ठ खमणस्त पारणगांस वाणियगामे नयरे उचनीय (बेले२)पारने करनेवाले, संयम तप कर अपनी आत्मा को भावते हुवे विचरने थे ॥ ७६ ॥ तब भगवंत गौतम ! बेले के पारने के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया, दारे में ध्यान किया, तीसरे प्रहर में आतुरता रहित, चपलता रहित, घबरावट रहित, मुहपति को, पडिलेहणा की, पाने की प्रतिलेदणा की, पात्रे को गांछे से पूंजे, पात्रे ग्रहण किये, ग्रहण कर नहां श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी ये तहां आये. श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर यों कहने लगे-अहाँ भगवन् ! जो आपकी भाज्ञा हो तो छठ (बेले के पारण के लिये वाणिज्य ग्राम नगर में ऊंच नीच मध्यम कुल के घरों में प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालदमासी. For Personal & Private Use Only www.ainelibrary.org Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमांग-उपाशक दशा सूत्र मझिम इं कुलाई घर समुदाणस्स भिक्खायारयाए अडित्तए ? अहासह देवाणप्पिया! . मापडिबंधं करेह ॥७॥ तएणं भगवं गोयमें समणेणं भगवया महावीरणं अब्भुणु. णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ दुईपलासाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइत्ता अतुरिय मचवल मसभंतजुगार परिलोयणाए दिट्ठीए पुरतो इरियं सोहेमाणे जेणेव वाणियगामे गयरे तेणेव उबागच्छरित्ता वाणियगामे णयरे उच्च नीय मज्झिमाई कुलाई घर समुदाणियस्स भिक्खायरियाए अडई ॥ ७८ ॥ तएणं से भगवं गोयमे वाणियगाम नपरे जह पण्णतीए तहा भिक्खायरियाए जाब अडमाणे अहपजतं सामुदानिक-बहुत घरों की भिक्षाचरी के लिये जाना पहाता हूं? भगवंतने कहा-अहो देवानुमि ! यया-1 सुख करो प्रतिबन्ध मत करो ॥७॥ तब भनवंत गौतम श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की आज्ञा मांस होते श्रमण भगवंत महावीर स्वामी के पास से उम धुतिपलास चैत्य से निकल कर, अत्तरित अचपल घबगवट रहित चार हाथ प्रमाणे दृष्टी से मागे की जमनी देखते हुवे, ईर्या पंथ सोधते हुने जहां वाणिज्य ग्राम नगर था तहां आये, वाखिज्यग्राम नगरके ऊंचनीच मध्यमकुलों में भिक्षा केलिये फिरनेलगे ॥ ७८ ॥ तब भगवंत मौतम भगवती में कहे मुजबरीत्थानुसार भिक्षा ग्रहण की यथा प्रज्ञान-यथारूचि आहारपानी ग्रहण किया, अहण, करके वाणिज्पग्राम के मध्यर में दो निकल, कोलाक सबीवेस के पाससे जातेहुवे बहुतलोमोंका सन्द" 46.मानद श्रावक का प्रथम अध्ययन 444 492 For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 भत्तपाणसम्म पडिगाहेति रत्ता वाणियगामाओं पडिगिगच्छदरता कोलगसन्निवेसस्स अदूर सामतेणं वीतिवयमाणे बहुजण सइंणिसामेति बहुजणो अन्नमन्नस्स एवं आइ. क्खंति ४ एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी आणंदे णाम समणोवासए पोसह सालाए अपच्छिम जाव अणवकखमाणे विहरति॥७९॥तएणं तस्स गोयमस्स बहजणरस अंतिए एयमष्टं सोचा णिसम्म अयमयारूवे अज्झथिए जाव समुवजिता-तं गच्छामिणं आणंदं समणोवासयं पासामि, एवं संपेह २ त्ता जेणे कोल्लाए संन्निवेसे जेणेव आणंदे समणोवासए जेणेव पोसह साला तेणेव उगच्छइ ॥ ८॥ तत्तेणं से आशंदे समणावासए भगवं गोयमं एजमाणं : पासति २. त्ता हट्ट जाव हियते भगवं गोयमं वंदति नमसति एवं क्यासी--एवं खलु सुननेमें आया,बहुत लोगों परस्पर इसप्रकार वार्तालाप कररहेथे-योनिश्चय अहो दबानुप्रिय! अमण भगवंत श्री. महावीर स्वामी के शिष्य आणंद नामक श्रपणापासक पौषधशाला में अपश्चिम मारणांतिक मलेषना कालकी वांच्छा नहीं करते हवे विचरह हैं.॥७२॥ उन गौतम स्वामीने बहुत लोगों के पास उक्त अथे श्रवण किया, इस प्रकार का अध्यवसाय बावत् समुत्पन्न हवा जावू मैं आणंद श्रमणोपासक को देखें, विचार करके जब कोल्लास समावेश जहां पोपत्र शाला तहां आये।॥ ८॥ तब वह आणंद श्रमणापासक . प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ ·BYO सप्तगि उपायेक दशा मूत्र भंते ! अहं इमेणं उरालेणं जा धम्मणितंतए जाते, णो संचाएति देवाणुप्पियरस अति तं पाउ भवित्ताणं तिखुत्तो मुद्धाणेणं पाए अभिवंदामित्त ॥ तुम्भेण भंते ! इच्छा कारण अणभिओएणं उपवेएट, जाने देवाणुपियाणं तिक्खत्तो मुडाणेणं पाएस वदामि नम॑सामि ॥ ८१ ॥ तरुणं भगवं गाधम जेणेव आनंद समाणो वासए तेणेक उबागच्छ ॥८२॥ तत्तेणं से आनंद समणो वासए भग्रवं गोयमं तिक्खत्तो मुडाणेणं पादे बंदति णमंसति, २त्ता एव व्यासी-अत्थिणं भंते! गिहिणो गिहिमज्झे वसंतस्स भगवंत गौतम स्वामी को आते हुवे देखकर हृष्ट तुष्ट हुवा हृदय में आनंद पाया, भगवंत गौतम स्वामी को (वंदना नमस्कार किया और यों कहने लगा-यों निश्चय अहो भगवन् ! मैं इस उदार तप करके दुर्बल हुवा हूं यावत् नाशाजाल हुवा हूं. इसलिये अहो देवानुप्रिय ! आपके पास आकर आपके पत्रको तीन वक्त मस्तक लगा कर वंदना नमस्कार करने को समर्थ नहीं हूं. इसलिये अहो भगवन् ! आपही कृपाकर इधर पधारो, तो आपके चरण को तीन वक्त मस्तक लगा कर वंदना नमस्कार करूं ॥ ८१ ॥ तब भगवंत गौतम जहां आनंद श्रावक था तहां निकट गये ॥ ८२ ॥ तब आनंद श्रमणोपासकने तीन वक्त ॐ मस्तक लगाकर भगवन्त गौतम स्वामी के पांव को वंदना नमस्कार किया. और यों कहने लगा-अहो भगवन्! गृहस्थावास में रहते हुवे गृहस्थो को अवधि ज्ञान समुत्पन्न होता है क्या? भगवन्त गौतमने कहा- हां आनंद श्रावक का प्रथम अध्ययन For Personal & Private Use Only ( Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 हिमाणे समुप्पजइ ? हेता अस्थि ॥४३॥ जइणं भंते! गिहिणी जाव समुपनी, एवं खलु भंते ! ममंवि गिहिणो गिहिमज्झ वसंतस्स ओहिणाणे समुप्पण्णे, पुरथिमेणं लवण समुद्दे पंच जोयण सयाई, जाव लोलुए नरयं जाणामि पासामि ॥ ८४ ॥ तएणं से गोयमे आणंदे समणो वासएणं एवं वयासी-अत्थिणं आणंद!! गिहिणो जाव समुप्पजति, णो चेवणे एवं महालए! तणं तुम्हं आणंदा ! एयरस ट्ठाणस्स आलोएहि जाव तवोकम्म पडिवजाहि ॥ ८५ ॥ तएणं से आणंदे भगवं गोयम एवं क्यासी होना है।८३॥ यदि अहो भगवन्! गृहस्थावास में रहते हुवे गृहस्थको अवधिज्ञान होता है तो अहो भगवन् ! मुझे भी गृहस्थावास में रहते हुवे को अवधि ज्ञान समुत्पन्न हुवा है, जिस से पूर्व दक्षिण और पश्चिम में तो लवण समुद्र में पांच सो २ योजन तक जानता देखता हूं. उत्तर में चूल्ल हेमवन्त पर्वत तक उपर प्रथम देवलोक और नीचे रत्न प्रभा नरक का लोलुचुत नरकावास में चौरासी हजार वर्ष की स्थितितक क्षेत्र मानता देखता हूं ॥८४॥ तब वे गौतम स्वामी आणंद श्रमणोपासक से ऐसा बोले-हे आणंद ! गृहस्था में रहते हुवे को अवधि ज्ञान तो होता है परंतु इतना बडा, इतना क्षेत्र देखे जितना नहीं होता है, इस तुम यह मिथ्यालाप किया इस की आलोचना निन्दना कर यावत् प्राय:श्चित ग्रहण करो ॥८५ 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी+ प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सझयजी ज्वालाप्रसादजी.' For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4883- सप्तमांग- उपाशक दक्षा सूत्र अत्थिणं भंते ! जिणत्रयणं संताणं तचाणं तहियाणं सम्भूतभावाणं आलोइज्जति जाव पडिवजिअंति ? जो इट्टे समं ॥ ८६ ॥ जइणं भंते! जिणवयणे संताणं जाव भावाणं जो आलोई जंति जाब तबकम्मनी पडिवजियंति एवं संते!तुब्ने चेत्र एयरस ट्ठास्त आलोएह जात्र पायवित्तं पडिवजह ॥ ८७ ॥ तएण से भगवं गोयमे आणंदेणं एवं वृत्तसमाणे संकिए कंखिए वितिमिच्छा समावणे आणंदरस अंतियाओ पडिनिक्खमइ २ ता जेणेव दुतिपालाले चेइए जेगेव समणे भगवं महावीर तेव आनंद भगवन्त गौतम स्वामी से इस प्रकार कहने लगा-अहो तथ्य सद्भूत भाव जैसा देखा वैना कहा उसे आलोचनात् स्वामी बोले- यह अर्थ योग्य नहीं. अर्थात् पच्चे को प्रायश्चित ! जिन वचन मधे सही यथा चित कुछ है क्या ? भगवन्त गौतम है ॥८॥ यदि हो भगवन् ! जिन (वचन सत्य सही यावत् सद्भाव हैं कहनेवाले को आलोचना यावत् प्रायश्चित नहीं है, तब तो अहो भगवन् ! आपही इस स्थानक की आलोचना करें यावत् प्रायःक्षित लेवें ॥ ८७ ॥ तब वे भगवंत गौतम आनंद श्रावक का उक्त कथन श्रवण कर शंकाशीळवने, उत के निर्णय के अभिलाषी बने, ग्रहस्थ को भी इतना ज्ञान होता है ऐसे करनी के फल में त्रितिगिच्छ बने, आणंद श्रावक के पास से निकलकर For Personal & Private Use Only + आनंद श्रावक का प्रथम अध्ययन ४३. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिजी + उवागच्छइ सत्ता समणस भगवओ महावीरस्त अदूर सामंते गमणागमणाए पडिकमाइ एसणं मन्नेसणं आलोएई भत्त पाणं पडिदंसेइ २ त्ता समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति एवं क्यासी-एवं खलु भंते ! अहं तुब्भेहि अब्भणणाते तंचव सव्वं कहेति जाव तेणं अहं संकिए कंखिए वितिगच्छ समावणे आणंदस्स समणोयासगस्स अंतियाओ पडिनिक्खमति २त्ता जेणेव इहं तेणेव हब्वमागए, तेणं भंते! किं आणंदणं समणोवासएप तस्सट्ठाणस आलोएथव्वं जाव पडिवजियव्वं उदाहुमए? ८८|गोयमाति, जहाँ द्युतिपलास चैत्य जहां श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी थे तहां आकर श्रमण भगवंन महावीर स्वामी के पास ममनागमन के पाप को प्रतिकमा, एपणिक गद्ध आहार ग्रहण किया या अशद्ध आहा छोड दिया उस की आलोचना की, आहार पानी भगवंत को बताया, बताकर श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार किया, और यों कहने लगे-अहो भगवन् ! मैं आपकी आज्ञा मे वाणिज्य ग्राम में मौचरी गयाथा इत्यादि वीती हकीगत सब कह सलाहगारत आणंद श्रावक के वचन श्रवण से में संकित कांक्षित वितिगिच्छित दुवा आणंद श्रावक के पास से निकलकर यहां शीघ्र आया, इसलिये अहो भगवन् ! कहिये-उस मिथ्या उच्चार स्थानक की आणंद श्रावक आलोचना निन्दना कर प्राय:श्चित्त ले कि मैं लूं? ॥४८॥ गौतम स्वामी से श्रमण भगवंत महावीर स्वामी एमा बोले-अहो गौतम ! नुम ही प्रकाशक-राजाबहादुर लालामुखदेवसहायजी चालाप्रसादजी* 40 अनवादक-बालबा For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र narenmmmmnannnnnnnnnnwom सप्तमांग-उपासक देशाः सूत्र समणे भगवं महावीरे एवं वयासी-एवं खलु गोयमा ! तुम चेवणं तस्स टाणस्स आलोएहि जाव पायच्छित्त पडियजहि, आणंद समणोवासयं एयमढें खामोहि ॥८९॥ तत्तणं से भगवं गोयमे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहत्ति एयमढें विणएणं पडिसूणेति २ चा. तस्स टाणस्स आलोईए जाव पायच्छित्तं पडिवजहि, आणंदस्स समणोवासयं एयम? खामेति ॥ ९० ॥ तएणं समणे भगवं महावीर अण्णयाकयाइ बहिया जणवय विहारं विहरइ ॥ ९१ ॥ तएणं से आणंदे ममणोवासए बहुहिं सोलबएहिं जाव अप्पाणं भावेत्ता वीसं वासाहि समणोवासग परियाग पाउणीत्ता . उस स्थानक की आलोचना करो यावत् प्रायःश्चित्त ग्रहण करो, और आनन्द श्रावक को इसलिये क्षमावो ॥ ८९ ॥ श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी का वचन भगवन्त गौतम तहति कर, उस आज्ञा को विनय युक्त मान्य की उस मिथ्या उच्चार की आलोचना निन्दा कर यावत् प्रायःश्चित्त लिया, आनन्द श्रावक के निर्दोष वचन को दोषन दिया जिस की क्षमा याची ॥९॥ अन्यदा किसी वक्त श्रमण भगवन्न महावीर स्वामी ने वहां से बाहिर जनपद देश में विहार किया. ॥ ९१ ।। वे आनन्द नामक है मोलासक बहुन विशुद्ध परिणाम से पांच अणुवत सात गुणवत सामायिक पौषधोपचाप्त श्रावक है 8- आणंद श्रावक का प्रथम अध्ययन अथ - - For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी एगारस्सग उवासग पडिमाओ सम्मं काएणं फासिता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सर्द्धि भत्तंति अणसणाई छेदित्ता आलोइए पडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालंकिच्चि सोहम्मे कप्पे सोहम्मेवाडंसगस्स महाविमाणस्स उत्तरपुरस्थिमेणं अरूण विमाणे देवताते उववण्णे।।९२॥ तत्थणं अत्थेगतियाण देवाणं चत्तारि पलिओ षमाइ ट्रिति पण्णत्ता, तत्थणं आणंदरसवि देवस्स चत्तरि पलिओवमाइ द्विति पण्णत्ता ॥ ९३ ॥ आणंदेणं भंते ! ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. की इग्यारह प्रतिमा आदि का आराधन कर बीस वर्ष श्रावकपना की पर्याय का पालन कर, इग्यारह श्रावक की प्रतिमा सम्यक् प्रकार से स्पर्श कर, एक महीने की सलेषना कर आत्मा की तप मार्ग में झोंसनाकर साठ भक्त अनशन का छेदन कर, लगे हुवे दोपों की आलोचना निन्दना ग्राण प्रतिक्रमना कर, समाधी भाव को प्राप्त होकर काल के अवसर में काल पूर्ण कर-मृत्यु पाकर प्रथम सौधर्म देवलोक के मौधर्मावतंसक महाविमान के ईशान कौन में अरुण नापक विमान में देवतापने उत्पन हु ।। ९२॥ तहाँ अरुण विमान में कितनेक देवताओं की चार पल्पोपा की स्थिति कही है. तहां आनन्द देवता भी चार पल्योपम की स्थिति पाये ॥ १३ ॥ अहो भगवन् ! आनन्द देव उस देवलोक से-यहां का बंधन For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 है द्वितक्खएणं अणंतरं चइत्ता कहिंगच्छहिंति कहिं उववजहिति ? ॥ गोयमा ! महा विदेह वासे सिज्झिहिंति बुझिहिंति मुचिहित्ति परिनिव्वाहिति सन्वदुक्खाणं मंतं करेंति ॥ ९४ ॥ निक्खेवओ उवासग दसाणं पढमझयणं सम्मत्तं ॥ ॥ किया हुवा आयुष्य का क्षय कर, देवता का भा और देवता की स्थिति का क्षय कर कहां जावेगा कहा उत्पन्न होगा ? अहो गौतम ! महा विदेह क्षेत्र में ऋद्धियंत गृह में जन्म लेकर संयम लेकर कर्म क्षय कर सिद्ध होगा बुद्ध होगा, मुक्त होगा, निर्वान मान होंगा, शारीरिक मानसिकादि पर्व दुःखका क्षय करेगा. F॥९४ ॥ निक्षेप, उपाशक दशांग का आनन्द प्रावक प्रथम अध्ययन संपूर्ण ॥१॥ +8+ समांग-उपचाक दशा सूत्र आणंद श्रावक का प्रथम अध्ययन 418 For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी + ॥ द्वितीय-अध्ययनम् ॥ जतिणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस अंगस्स उवासग दसाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमट्रे पन्नते दोच्चसणं भंते ! अज्झयणस्स के अट्टे पण्णत्ते ? ।। १॥ एवं खलु जवू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपाएंणामं नयरीए: होत्या, पुण्णमद्देचेइए, जियसत्तुराया, कामदेवे गाहावती, भद्दाभारिया, छ, हरिण कोडीओ निहाणपउत्ता, छ हिरण्ण कोडीओ बुद्विपउताओ, छ हिरण कोडीओ 'अहो भगवन ! यदि श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी यावत् मोक्ष पधारे उनोंने सातवे अंग उपाशक दशांग का प्रथम अध्ययन का उक्त अर्थ कहा. तो अहो भगवन् : दूसरे अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? ॥१॥यों निश्चय अहो जम्बू ! उस काल उस समय में चम्पा नगरी थी, पूर्णभद्र यक्षाका यक्षालय बगीचे युक्त था; तहां जीत शत्रु नाम का राजा राज्य कस्ता था. तहां चम्पा नगरी में कामदेव नाम का गाथापति रहता था, उस की भद्रा भार्या थी. उस कामदेव गाथापति के छ हिरण्य कोडी का द्रव्य तो निधान में जमीन में गडा हुवा था, छे हिरण्य कोडी का द्रव्य व्यापार में वृद्धि करने में लगाया हुवा था, और छ हिरण्य कोडी का द्रव्य का पाथरा घर विखेरा था; छ-वर्ग गाई के दश हमर गाई. का एक वर्ग ऐसे साठी *प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 48+ सप्तमांग - उपाशक दशा सूत्र पवित्थर पउत्ताओ, छत्रया दसगो साहस्सिएणं वएणं ॥ २ ॥ तेणं कार्लेणं तेणं समएणं भगवं महावीरं समोसढे जहां आणंदो तहा निरंगतो, तहेव सावय धम्म पाडवज्जति, सन्चत्तव्या जा। जेटु पुत्तं मित्तनाइ आपुच्छइ २ ता जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छ २ सा जहा आणंदो जाव समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म पण्णति उवसंपजित्ताणं विहरित्तए ॥ ३॥ ततेनं तस्स काम देवरस पुव्वरत्तावरता काल समयंति एमेदेवे माईमिच्छद्दिट्ठी अंतियं पाऊन्भूते ॥ ४ ॥ तएणं सेदेव एगमहं • पिसायरुवं विव्वति, तरसणं देवस्स रिसायख्वस्स इमेएतारू वन्नावा पण्णत्ते- सीसं से 3 | हजार गौ थी || २ || उस काल उस समय में श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी पधारे, जिस मकार आनन्द महावीर स्वामी के दर्शनार्थ जा धर्म श्रवण कर श्रावकपना अंगीकार किया था, जैसे ही इसने बी { यावत् श्रावक धर्म अंगीकार किया, सर्व वक्तव्यता तैसी ही कहना, यावत् पुत्र को घर का भार सुपरत कर जहां पौधशाला थी, तहाँ आया श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी के पास ग्रहण किया हुवा धर्म विशुद्ध प्रकार पालता हुवा विचरने लगा ॥ ३ ॥ तत्र उस कामदेव श्रावक के पास आधीरात्रि व्यतीत दुवे बाद एक माया मिध्यादृष्टि देवता मगर हुवा || ४ || तब उस देवताने एक वडा पिशाच का रूपं वैक्र बनाया, उस देवदा का पिशाच का रूप इस प्रकार का कहा है— प्रस्तक तो गाय के चरने का (घाँट For Personal & Private Use Only * कामदेव श्रावक का द्वितीय अध्ययन Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... अनुवादक-पालनमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी gr+ गोकिलंज संठाणं संठियं, सालिभसेल्ल सरिसे केसा कविलतेएणं दिपमाणा, महल .. उहिया कभल्ल संठाणं संठियं णिडालं,मुगुंसपुच्छंवतस्स भूमुगाओ फुग्गफुग्गओ विगय विभत्थ ईसणओ, सीसंघडिविणिग्गयाइं. अत्थीणि विगय बीभत्थ दसणाओ, कण्णाओ जहसुप्पकत्तरंचेव विम्य वीभत्थ दंसणिज्जा, उरभपुडसन्निभासे' नासा, • झूसिरा जमल चुल्ली संठाण संठिया दोवितरस नासा पुडया, घोडयपुच्छं वतस्स मंसूई कविलकविलाई, विगय विभत्थ दसणाई, उट्ठाउटस्सचेवलंश, फालसस्सिासेदंता, रखानेक ) सुंडला ऊंचा किया हो इस प्रकार के संस्थान से संस्थित था, काले कपिले करे विखरे हुवे । शाल्यधान्य के तुप्स के जैसे भयंकर मस्तक के केश थे, तेज कर दी हुवा रोटी बनाने का कडाहला तवा जैसा निलाइ-ललाट था, गिलेरी की पूछके जैसे परस्पर नहीं मिलते अलगर भयंकर विभत्स दर्शनी भी-भांकारे थे, मस्तक रूप घदे को अतिक्रम भकर विभत्स दर्शनी दोनों आंखों थी, सूप (धान्य झाटकनेका) के टुकड़े के जैसे लम्बे २ कान , उरभ्र मेंहे ] के जैसा चपटा तथा उरभू वाणित्र तथा बडे उदिरादि के दिलों के जैसी नाशिका थी, नाशिका के दोनों पुड चूले के दोनों ठीये के संस्थान जैसे संस्थित थे, घोडे के पूंछ के बाल जैसे कठोर खड़े हुवे भयंकर दादी मूंछों के बाल थे,, इंठ के जैसे प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी . For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र 428+ सप्तमांग उपाशक दशा सूत्र 43 जिन्भा जहा सुष्पकत्तरंचैत्र, विगय विभत्थ देसणिजा, हलकुद्दाल संठित्ता सेहणया, गल्लकडिल्लंच तस्स खडुंफुटुं कविलं फरसं महलं मुइंगाकारोवमेसे खंधे, पुरवरकवाडोरमे सेवत्थे, कोटिया संठाण संठिया दोवितस्स वाहा, निसापाहाण संठाण संढिया दोवित्तरत अग्गहस्था, निसालोढ संठाण संठियाओ हत्थेसु अंगुलीओ, सिप्पिपुडग संठाण संठिया सेणक्खा, पहविय पसेवओळ उरसि लंवंति दोत्रितस्स थणया, पोहे अयको ओव्ववई, पाणकलंद सरिसा सेणाही; सिक्का संठाण संठिते सेनेते, संडव नगर के लम्बे होंट थे, लोह की काउ (हल्लका दांता ) जैसे दांत थे, सूर्य-कैंची जैसी जिव्हां थी, कंदरा पर्वत की गुफा जैसा मुख था, हलके लक्कड जैसी बाँकी हडवची-जवाडे थे, फूटा कडीला या खड्डे के जैसे मध्य में शल्य पडे हुने कठोर खराब कपोल गाल थे, मृदंग के आकार स्कन्ध था, द्वार के कमाडों के पटके जैसा हृदय (छाती) था, धातु की मटी को धमने के कोठे समान भुजा थी, निसा धोर के हाथे {जैसी हाथ की हथेलियों थी, निसा के अग्र जैसी हाथ की अंगुलियों थी, सीप के पुट पिक के शस्त्र रखने की थेली जैसे लटकते स्तन थे, लोहार के कोठार जैमी गोल पृष्ट थी, जैसी ऊंडी डूंठी थी, शिखा जैसे सेकना पूट था, सांड के वृषण के संस्थान दोनों वृषण (मुद्दे) जैसे नख थे, नापानी की कुंडी For Personal & Private Use Only 4986- कामदेव श्रावक का द्वितीय अध्ययन Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी सण संठाण मोठयादोवितस्स बसणा, जमल कोठिया संठाण सठिया दोबीतस्सउरु, अजणगुटुं व तस्स जाणति, कुडिल लकुडिलाई विगय बीभत्थ दंसणाई जंघाओ, करकडिओ लोमेहिं उवचियातो,अहिरी संठाण संठिया दोवीतस्सपाया,अहिरीलोढ संठाण संठित्ताओ प.देसु अंगुलिओ, सिप्पियुड संठण संठिया सेणक्खा, लडहमडह जाणूए विगय भाग भुग्गय भमहे,अवदालित वदणविरे,निल्लालियग्गजीहे,सरडकय मालियाए, उंदुरमालापरिणड सुकचिंधे, उलकय कण्णपुरे, सप्पकयविगच्छे, अफोडते अभिधाम्य के भरे हुवे दो कोठे जैसी दोनों जंघा थी, अर्जुन वृक्षकी गांठ के जैसे दोनों जानू-घुटने थे, मंघापर बांके कुटिल भयंकर दर्शनवाली कठिन रोमावाली थी, अधर सिला समान पगथलीयों थी, अहिरन के लोहे (बचे) के संस्थान पांचकी अंमुलीयों थी, सीपके एर संस्थान व स्थिल पदांगुलीके नख थे. दोनों नानू . कते हुवे भयंकर लालगलित बांका मुख के बाहिर जान निकाला हुवा था, सरदा का-कांकीडे माला मस्तकमें पहने हुवे, ऊंदर के भूषन गलेमें बंधे हुर, नवलके आभरण कानों में पहने हुबे, सर्पका उत्तरासन कियाहुवा, या हाररूप पाने हुवे. इस प्रकार रूावनाकर आकाश को फेोहे ऐसे अटहास्य करता करस्फोट ता-वालीयों पीटता. मेघज्यों गर्जनाहगावहत प्रकार के पांचों वर्णक रोमकर उपचित-पुष्ट बना, ऐपाए • प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी . ETOT For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमांग-उपाशक दशा सूत्र 4 गजते भीममुक्कट्टहासे, नाणाविहं पंचत्रणेहि लोमहि उवचित्ती, एगमहंनिलुप्पलुगवल गुलिय अयसि कुसुमप्पगासं असिंखुरधारं गहाय ॥ ५ ॥ जेणेव पोसहासाला जेणेव कामदेव समोवासए तेणेव वागच्छइ २त्ता असुरुत्ते रुठे कुविर चाण्डक्किए मिसिमिसीय माणं कामदेवं समोवासयं एवं वयामी-हंभो ! कारादेवा ! समणोवासया! अपत्थिय पत्थिया, दुरंतपत्तलक्खणा, हीपणषुण्णा, चाउदीया, हिरीतीरिधिईकित्ति परिवज्जिया, धम्मकामया, पुण्णकामया, सम्गकामथा, मोरखकामया; धम्मकंखिया. पुण्णकंखिया, सम्गकंखिया, मोक्खकंखिया; धम्मपिासीया, पुण्णपियासिया, सग्गपिनासीया, कर एक बडा निलोत्पल कमल समान महिष समान गली के वर्ण ममान अलसी के फूल समान प्रकाशवाला तीक्षण धारा का धारक स्वङ्ग हाथ में धारन किया ॥५॥ उक्त प्रकार पिशाच का रूप बनाकर जहां पौषधशाला है जहां कामदेव श्रारक है तहाँ आया, आकर क्रोध में धपधमायमान होता कामदेव श्रपणोपासक से इस प्रकार बोला-भो का देव श्रमणोपासक ! अपार्थिक के प्रार्थिक-मृत्यु के इच्छक दुरंत-खराब प्रांत-नीच लक्षण के धारक, हीन पुण्यवाला, काली चतुर्दशीका जन्मा, ही-लजा श्री-शोभा, धर्यता वकीर्ति रहित, धर्म-पुण्य-स्वर्ग, और मोक्ष के कारी, धर्म पुग्ध, स्वर्ग और मोक्ष के वांछक, 4980- कामदेव श्रावक का द्वितीय अध्ययन अर्थ - For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी विवासिया, नखलुकप्पइ तव देवाणुप्पिया ! जंसीलवयाई वेरमणाई, पच्चक्खाणाई, पोसहोववासाई, चलितएवा खोभित्तएवा; खंडित्तएवा, मंजित एवा, उझित्तएवा, परित्ता ( पाठांतर - परिच्चइत्तएवा ) तंजतिणं तुमं अज्जसीलाई जाव पोसहोव वासति नछंड्ङ्केसि नंभंजेसि तो ते अहं अज्ज इमेणं नीलुप्पल जाव असिणाई खंडाखंडि करोमि, जहणं तुमं अट्ट दुहट्टवसह अकाले चेत्र जीवीयाओ विवरोविज्जसि ॥ ६ ॥ तत्ते से कामदेव समणोवासए तं देवेणं पिसायरूयेणं एवं वृत्ते समाणे अभीए अतस्थे अणुविग्गे अक्खुभीए अचलिए असंते तुसणीए धम्मज्झाणो गए विहरति धर्म-पुण्य स्वर्ग और मोक्ष के प्यासे, अहो देवानुप्रिय ! तुझे तो सील व्रत वैरमण प्रत्याख्यान पौषध उपवास से चलना सोभित होना खण्डित करना, भंग करना, न्हाखना, छोडना कल्पता नहीं है, परंतु जो आज तू पौषध उपवासादि को नहीं छोड़ेगा, नहीं भंग करेगा तो मैं आज तेरे शरीर के इस निलोल जैसे (खकर टुकडे २ कर डालूंगा, जिम से तू आहट दोहट चित्तकर अकाल में जीवित रहित होवेगा ॥ ६ ॥ तब कामदेव श्रावक, उस मायावी मिथ्यात्वी देवता का उक्त कथन श्रवण कर डरा नहीं, त्रास पाया नहीं, उद्वेग पाया नहीं, व्याकुल हुवा नहीं, स्वस्थान से चलायमान भी हुवा नहीं; मौनस्य धर्म ध्यान ध्याता हुवा | For Personal & Private Use Only * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी ५४ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 + सप्तमांग-उपासक दशा मूत्र.488 ॥ ७॥ तएणं से देवे पिसायरूवे कामदेवं अभीयं जाव धम्मं ज्झाणावगयं विहरमाणं पासइ २त्ता दोच्चंपि तच्चपि कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी-हंभो कामदेवा ! अपस्थिय पच्छिया जइणं तुमं अज जाव वयरोवज्जसि ॥ ८ ॥ तत्तेणं से कामदेव सम जोवासए तेणं देवेणं दोच्चंपि तच्चपि एक्वत्ते समणे अभीते जाव धम्मज्झाणावगए विहरइ ॥९॥ तएणं से देरे पिसायरूवे कामदेवं अभीए जांव विहरमाणं पासइ २त्ता आसूरुत्ते तिवलियंभिउडिणिलाडे साहटु कामदेवं समणोवासए नीलुप्पल जाव असिणा खंडाखंडिंकरति ॥ १० ॥ तत्तेणं कामदेवे तं उजलं जाव दुरुहियासं वेयणं विचरने लगा ॥७॥ तब वह पिशाच रूपमें देव कामदेवको निडर यावत् धर्म ध्यान ध्याता हुवा देखकर, दो वक्त तीन वक्त ऐसा चोला-भो कामदेव ! अप्रार्थिक के प्रार्थिक मृत्यु के इच्छक यावत् तुझे आज जीवित रहित करूंगा॥८॥तब कामदेव श्रावक उस दिव्य पिशाच रूपधारी देव के दोवक्त तीन वक्त उक्त वचन श्रवनकर निर्भय पने धर्म ध्यान ध्याता विचरने लगा ॥ ९ ॥ तब वह पिशाच रूपीदेव कामदेव को निटर यावत् धर्मध्यान में स्थिर देखकर असुरक्त कोपायमान हुवा त्रिवली निलाडपर चढाइ कामदेव श्रावक के शरीर पर निलुत्पल कमल समान यावत् तलवार के घाव किये-शरीर का खंडोखंड किया ॥ १० ॥ तब काम देव को उस खत के महार से अति उचल यावत् सहन करना दुष्कर हो-ऐमी वेदना हुई जिसको सम्यक कामदेव श्रावण का द्वितीय अध्ययन I " For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ री मुनि श्री अमोलक ऋपनी nainamainamainamainama सम्मंसहति जाव अहियासेति ॥ ११॥ तणं ते देवे दिव्वं पिसायरूवे कामदेवं अभीयं जाब विहरमाणं पासइ२ त्ता जाव नोसंचाएति कामदेवं समणावासयं जिग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तएवा, खोभित्तरग, विप्परिणामित्तएवा, त हे संते तंते परितते, सणिथं २ पोता पोमहालालातो पडिमिखमति २ या दिव्वं पिसायरूव विप्पजहर महं दिख हत्यिरूवं पिउव्वेई सतंगहा , सम्म संठियं सूजाए पूरओ आ धाराहं अयाकच्छि अलंयकुछि एलंब लंबोदराधरकरं । अब्भुग्गय मउलमल्लिया विमल धवल दंत, कंचकोसी कट्ठदंतं आणावामय चाबल. समभाव से त्रिकरण शुद्ध सहन की ॥१॥ नब नियपिशाच रूपीदेव कामदेव को मिर्भय यावत् धर्मध्यान ध्याता हुवा देखकर कामदेव श्रावक को निम्रन्य के प्रवचनले चलाने क्षीय उत्पन्न करने जराभी परिणाम पलटाने समर्थ नहीं हुवा, तब यका बहुत ही थका, शन २ पीछाहटकर पौषध शाला बाहिरा आकर दिव्य पिशाचका रूप छ.डा, और दिव्य एकहाथी का रूप वैक्रय दिया, जिसके सात अं (चार पांच सूंड इन्द्रि और पूंछ) जमीन को लगे हैं समस्थान मांसकर पुष्ट आंग से मस्तक ऊंचा अच्छा पुष्ट, पीछेसे बराह (सूबर) के समान पृष्ट कूक्षी, बलवंत कूक्षी, लम्बीकूक्षी लम्बी सूंड, नवीन उत्पन्न होती मालती के फूल समाव उज्वल दांतों, जिसके अग्रयर सुवर्ण की स्याम उस मे प्रवेश किये हुवे दांतों, प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदयस हायजी ज्याला प्रसादजी* For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 - सप्तांग-उपाशंक दशा सत्र 488 - लियं संविल्लियग्गसौंडं कुम्भिव पाईपुण्ण चलणं, वीसतिणक्खं अल्लीणपमाण जुत्त पुच्छं, मत्तंमेहमिव गुलगुलिवं मणपवण जईगवेगं दिव्वं हत्थिरूवं वेउवेइ २ ॥ १२॥ जेणेव पोलहसालाए जेणेव कामदेवे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ २ ता कामदेव एवं व्यासी-हंभो कामदेवा ! तहेव भगति जाव नभंजसि, ततो अज्ज अहं सोडाए गिण्हामि रत्ता पोसहसालातो णीणेमिरत्ता उद्रं वेहासं उविहामिरत्ता तिक्खेहि दंतमुमहिं पडिच्छ मि २ त्ता अहे धरणितलंसि तिक्खुचो पाएसु लोलेमि जहाणं नम्र किये वक्र किये धनुष्य समान, संकोचित किया यंड का विभाग, काछके समान प्रतिपूर्ण पांव, बीसनरख प्रतिपूर्ण, अलीन प्रयानोपेत युक्त पूंछ, पदमस्त स अंगोपांग से सुजात भाद्रा के मंघ समान गरगुलाट शब्द से गोरव करता हुवा मन और पवन जैनी शीघ्र गतिका धारक एका दिव्य हाथीका रूप वैक्रय किया।॥ १२ ॥ उक्त प्रकार हाथी का रूपबनाकर पौषधशाला में जहां कामदेव श्रमणोपाशक था, तह आया. आकर कामदेव श्रमणो पासक से इस प्रकार कहने लगा-भी कामदेव ! यावत् जो तं पोषधोपवासादि व्रतों का भङ्ग नहीं करेगा तो आज में तुझे इस मूंड में पकडकर पौषध शाला से बाहिर लेजाकर अंचा आकाश में फेंकदूंगा, नीचे पडनेको तीक्षण दांतों पर झेलकर दांतों से तेरे शरीर में केन्द्रकर 7 कामदव श्रावक का द्वितीय अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी तुमं अदु सट्टे अकालेचैव जीवियाओ वक्रोविजसि ॥ १३ ॥ एणं ते कामदेव समणोवासए तेणंदिव्वेणं. हरिथरूवेणं एवंत्तं समाणे अभीए जाव विहरई ॥ १४ ॥ तरणं से देवंदिये हथिरूवं कामदेव अभीयं जात्र बिहरमाणं पासित्ता दोच्चपि तच्चपि कामदेव समगोवासयस्स एवं व्यासी-हंभो कामदेवा ! तहेव जाव विहरइ || १५ || तएवं से संदेवे हत्थिरूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जात्र विहरमाणं पासति २ ता आसू कामदेव वासए सोडाए गिण्हति २त्ता उड्ड वेहास उविहामि २त्ता तिक्खेहिं दंतनूसलेहिं पडिच्छइ २त्ता अहे धरणितलांस तिक्खुत्तो फिर धरतीपर डालकर तीनवक्त पत्रों कर लुंगा मर्दन करूंगा जिससे तू आहट दोहट चित्तहोकर अकाल { में मृत्यु पावेगा ॥ १३ ॥ तत्र कामदेव श्रावक उन दिव्य हस्तिरूप देवता के उक्त बचन श्रवनकर डरा नहीं, त्रास पाया नहीं, तैसे ही धर्म ध्यान में स्थिर रहा विचरने लगे ॥ १४ ॥ तब उस हस्ति रूप देवता कामदेव को निडर यावत् धर्मध्यान ध्याता हुआ देखा, देखकर दोक्त तीनवक्त ऐसे वचन कहे भो कामदेव !! यवत मागा, तोभी कामदेव धर्मध्यान ध्याता विचरने लगा ||१५|| तब वहदेव अत्यन्त कोपाय मान होकर कामदेव श्रमणोपासक को मुंडमें ग्रहणकर पौषत्र शाला के बाहरेलाकर आकाशमै छालदिये, पडतेको तीक्षण For Personal & Private Use Only * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी # ५८ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र aninancarnamaAhmannar - 4887 सप्तमांग-उपाशक दशा मूत्र 4882 पदेसुलोलेति॥१६॥तत्तेणं से कामदेवे तं उज्जलं जाव अहियासेति ॥१७॥ तएणं से देवे हत्थिरूवे जाव नों संचालक संते तंते जाव सणियं २ पच्चीसक्कइ रत्ता पोसह सालाओ.. पडिनिक्खमइ २त्ता दिव्वं हत्यिरूवं विप्पजहइ रत्ता एगं महं दिव्वं सप्परूवं विउन्बई, . ते उग्गविसं,चंडविसं धोरविसं दिदिविसं,महाकाय,मसिमुसःकालगं नयणविसंरोसंपुर्ण, अंजणपुंज निगरप्पगासं, रत्तच्छं लोहियलोयणं,जमलजुयल चंचलजीहं धरणीयलवेणी दांतोपर झेलकर, शरीर में छिद्र कर जमीन पर डालकर पांवों से गेलने ( मर्दने ) लगा ॥ १४ ॥ जिस से भी कामदेव को अत्यन्त उज्वल सहन करना दुष्कर ऐसी वेदना हुई उसे समभावकर सही ॥ १७ ।। तब बह हस्तिरूप देव यावत् कामदेव को किंचित मात्र भी चाय मान नहीं करसका, तब थका बहुत ही थका यावत् शनैः २ पीछा हटकर पौषध शाला के बाहिर निकला, दिव्य हाथी का रूप छोडकर, एक दिव्य सांप का रूप बनाया, वह सर्प उग्रीवप का धारक, रौद्र विषका धारक घौर भयंकर विषका धारक, दृष्टी विपका धारक, महामवर शरीर बाला, मस्ती-काजल. या सोनार की मूम के समान आखों की किक्की (पुनली) वाला, रक्तप्रांखों वाला, अंजन-काजल के दम जैसा प्रकाश वाला, क्रोध पूर्ण रक्त आखों वाला, यमल युगल दोनों चंचल चपल जिव्हा बाला, लम्बाइ में और कृष्णता में धरती की वेनी (शिखा-चोटी) ममान, उत्कट अन्य को पराभव करने केलिये स्फुट 48+ कामदेव श्रावक का द्वितीय अध्ययन प्रगट Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 42 अनुादक ब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी नूयं उक्कड फुड कुडिल जडिल कक्स्स वियड फुडाडोब करण दच्छं, लोहागर धम्मागमा अगागालय विंडो सम्यरूपं वेउव्येइ २ ॥ १८ ॥ जेणेव सहसाला जेणेव कामदेवे तेणेव उपागच्छइ २त्ता कामदेवं एवं वयासी हंभो कामदेवा ! जात्र णभंजसितो ते अब अहं सरसरस्तकाय दुरूहामि २ ता पत्थिमेणं भायणं तिक्खुत्तोगी मि २. न्ता तिक्खाहिं विस परिगयहिं दाढाहिं उरंसिषेत्र नकुहेमि, जहणं तुमं अवसहे अहात्र जीवियाओ बबरोविजसि ॥ १९ ॥ तणं अतिकुटिल जटाजुट विकट फणकार करने में कुशल, लोहकी भट्टी में अग्री घमघमायमान होती है वो घमघमायमान होता हुवा अथवा लोहार की धौंकनी समान २ भयंकर शब्द करता हुवा अतिप्रचंड रोशकर भराहुआ. इस प्रकार कालंदर सर्पकारूप वैकय किया। १८॥ उक्तप्रका सर्पका रूप वैक्क्रयक पोषध शाला में जहां कामदेव श्रावकथा तहा आया, आकर कामदेव श्रावक से इसप्रकार कहने लगा भो- कामदेव ! { अमार्थिक के मार्थिक यावत् जो तू व्रत नियमादि का भंग नहीं करेगा तो आज मैं सरसराट करता हुवा तेरे शरीर पर चढकर - मेरे शरीर के पश्चात् भाग पूंछ करके तरे सर्व शरीर को त्रिवलीकर वैष्टित करूंगा मेरी विष भरी हूइ तीक्षण दांढों कर तेरे उर-हृदय को दंश करूंगा, जिस कर तू आउट दोहट वस्य हो अर्थात तार्थ ध्यान ध्याता दुःखी हो अकाल में ही मृत्यु पावेगा ॥ १९ ॥ तब वह कामदेव उस दिव्य For Personal & Private Use Only * प्रकाशक- राजा वहादुर लाला सुखदेवसहाय जी ज्वालाप्रसादजी * Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 28+ सप्तमांग-उपाशक दशा सूत्र से कामदेवे तेणं देवेणं सप्परूवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरइ, सोवि दोचंपि तच्चपि भणति, कामदेवोवि जाव विहरति॥२०॥तएणंसेदेवे सप्परूबे कामदेवं __ अभीयं जाव पासतिरत्ता आसुरत्ते,कामदेवस्स समोवासगस्स सरसरस्सकायं दुरुहंतिः २त्ता पत्थिम भाएणं तिक्खुत्तो गीवं ढेति २त्ता तिक्खाहिं विसप्परिमयाहिं दाढाहिं उरंसिच्व निकुटेति ॥ २१ ॥ तएणं से कामदेव तं उजलं जाव अहियासेति॥२२॥ । तएणं से देवे सप्परूवे कामदेवं अभीयं जाव पासंति, जाहे नो संचाएति कामदेव सर्प के रूप देख के उक्त वचन श्रवण कर किंचित् मात्र भय नहीं पाये. त्रास नहीं पाये. आसन मे नळा. यमान नहीं हवे, यावत् धर्मध्यान ध्याते स्थिर रहे विचरने लगे. तब उस सर्प रूप देवने दो वक्त तीन वक्त उक्त वचन कहे तो भी कामदेव पूर्वोक्त प्रकार ही धर्मध्यान ध्वाते हुवे विचरने लगे ॥ २० ॥ तब वह दिव्य सर्प रूप धारी देवता कामदेव का निडर याक्तू विचरता हुवा देख कर आसुरक्त धमधमायमान अत्यन्त कोपित हुवा, उसही वक्त कामदेव के शरीर पर सरसराट करता आरूढ हुवा अपने शरीर के पश्चिम में (पच्छ) भाग कर कामदेष की ग्रीवा में तीन आंटे दिये-ग्रीवा वैष्ठित की, तीक्षण विषारी दांतों कर हृदयमें दंशदिया॥२१॥ तब उस कामदेव श्रावक को उस की अति उज्वल सहन न हो ऐसी वेदना हुइ, उसे समभाव कर सहन की ॥२२॥ तव दिच्य सर्प रूप धारी देवता कामदेव को निडर यात धर्मध्यान में कामदेव श्रावक का द्वितीय अध्ययन 482 498 For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिजी + मुनि श्री अमोलक समणोवासयं निग्गंथाओ पात्रयणाओ चालितएवा खोभितएवा विष्परिणामिएवा, ताहे संते तंते परितते सणियं २ पच्चोसकति, पोसहसालाओ पडिनिक्खमइ २ त्ता दिव्वं सप्परूवं विप्पजहति २ त्ता, एगं महं दिव्वंदेवरूवं वेउबई-हारविराईय वत्थं 2 जाव दसविसाओ उज्जोवेमाणं पभासेमाणं पासाइयं ४ ॥ २३ ॥ दिव्वं देवरूवं बेउव्बित्ता कामदेव समणोवासयरस पोसहसाल अणुप्पविसति २त्ता अंतलिक्ख पडि. वण्णे सखिखिणीयाति पंचवण्णाई वत्थाई परिहिते कामदेवं समोवासयं एवं स्थिर देखा, देख कर पा देव उस कामदेव को निर्ग्रन्थ प्रवचन से चलाने क्षोभित करने परिणाम मात्र भी विपरीत प्रवृताने समर्थ नहीं हुना, तब थका अति ही थका हार गया, शनै २ पीछा सरक कर पौषध माला के बाहिर आया, वाहिर आकर वह दिव्य सर्प का रूप छोडा, और एक महा दिव्य प्रकाशित देवता का रूप कैक्रय किया, जिम देवता का हारों कर हृदय विराजमान है, सावत् दशोदिशा में उद्योत करता हुषा प्रभा डालता हुवा-प्रकाशता हुवा चित्त को प्रसन्न करनेवाला देखने योग्य अभीरूप प्रतिरूप वना ॥ २३ ॥ उक्त प्रकार दिव्य देवता का रूप वैक्रय कर जहां कामदेव श्रावक पोषधशाला में था। तहां आया, आकर आकाश में अधर खडा हुवा नन्हीरघुघरियों धमकाता-मधुर आवाज करता हुवा, पांचों है। * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * अर्थ १ अनुवादक-बालब्रह्मचा For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमांग-उपासक दश मूत्र 48 क्यासी-हंभो कामदेवासमणीवासिया! धणेसिणं तुम देवाणुप्पिया! संपन्ने,कयत्थे कयल. क्खणे,सुलद्धेणं तब देवाणुप्पिया! माणुस्सए जम्मजीवीयफले,जस्सणं तव णिग्गंथे पावयणे इमेयासवे पडिविती लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया|एवं खलु देवाणुप्पिया! सक्के देविंदे देवराया गाव सकसि सिहासणंसि चउरासीते सामाणिय साहस्सीणं जाव अनसिंच बहुणे देवाणय देवीणय मझगते एवमाइक्खति ३-एवं खलु देवाणुप्पिया ! जंबूद्दीववीवे भारहेवासे पाएनयराए कामदेवे समणोवासए पोसहसालाए पोसहिते बंभचेरवासी वर्ण के वस्त्र पहने हुवा कामदेव श्रावक से यों कहने लगा-अहो कामदेव अपणोपासक ! धन्य है। तुमारे को, अहो देवानुप्रिय ! तुम संपूर्ण प्रतिज्ञा के पालक हो, अहो देवानुप्रिय ! तुम उत्तम लक्षण के धारक हो, कृतार्थ हो, अहो देवानुप्रिय ! तुमारेको मनुष्य जन्म जीवित का फल अच्छा प्राप्त हुवा, जिस कर तुमारेको निर्ग्रन्थ प्रवचनकी इस प्रकार दृढता माप्त हुइ, सन्मुख आई, इसलिये ही तुमारी शक्र देवेन्द्र देवता के राजा शक्र सिंहासनपर बैठेहुवे चउरासी हजार सामानीकदेव और भी बहुत से देवता देवीयों की परिपदा के मध्य में ऐसा कहा ऐस प्ररूपा प्रसिद्ध किया कि-यों निश्चय हे देवानुप्रियाओं। जंबूद्वीप नामक द्वीप के भरत क्षेत्र की चम्पा नगरी में कामदेव श्रावक पौषध शाला में पौषध ग्रहणकर ब्रह्मचर्य युक्त दर्भ के विछोनोंपर बैग । 48 कामदेव श्रावक का द्वितीय अध्ययन 4220 448 For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी -- जाव भसंथरोवगए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म पण्णति उवसंप. जित्ताणं विहरंतिणो खलु से सक्का केणइ देवेणवा दाणत्रेणवा जाव गंधवणवा निग्गं. थाओ पावयणाओ चालिसएवा खोभित्तएवा विप्परिणा मित्तएवा ॥ तत्तेणं अहं सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो एयमटुं असदहमाणे ३ इहे हवमागए।तं अहोणं देवाणुप्पिया! इड्डी लडा पत्ताणं तं दिट्ठाणं देवाणुप्पिया! इड्डि जाव अभिसमण्णागया, तंखामेमिणं देवाणुप्पिया! खमंतु मज्झ देवाणुप्पिया! खंतुमरुहंतिणं देवाणुप्पिया! नाइ भुजो २ करणयाए हुवा श्रमण भगवन श्री महावीर स्वामी के पासे अङ्गीकार किया हुवा धर्म की विशेष प्रकार से पालन, करता हुवा विचरता है, उसे कोई भी देवता दानव-असुर कुमारदी यावत् गंधर्व पर्यंत कोई भी निग्रन्थ के प्रवचन (धर्म) से चलाने शोभितकरने विपरीत परिणमाने सपर्थ नहीं है. हे देवानुप्रिया ! माक्रदेवेन्द्र देवता के राजा का उक्त कथन को में नहीं अधता नहीं परतीत करता हुवा यहां शीघ्र आया, अहो । इतिश्चर्य मनुष्य जाति में ऐसी दृष्टता ? हे देवानुप्रिया ! अच्छी तुमारे को धर्मसम्बन्धी ऋद्धि प्राप्त हुई है। वह माज मैं ने प्रत्यक्ष देखी, जिस प्रकार की तुमारी धर्म दृढता की इन्द्रन व्याख्या की उसही प्रकार की तुमारी दृढता है, इमलिये ये तुम को क्षमताहु आप मेरा अपराध क्षमकगे, तुम पूज्य हो बडे हो तुमेक्षमा करना उचित्त है, हे देवानुपिया ! अब फिर ऐसा अपराधन नहीं करूंगा; यों बोलता हुवा वह • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालाप्रमादजी . For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4 सप्तमांग- उपशाक दशा सूत्र 403 तिकडु पायवडिए पंजलिउडे एयमटुं भुज्जो खामेइ २ ता जामेवदिसिं पाउब्भूए तादिसं पडिंग ॥ २४ ॥ तणं से कामदेवे समणोवासए निरूवसग्गं तिकहु पडिमंपारेइ ॥ २५ ॥ तेणंकालेणं तेणंसमएणं समणे भगवं महावीरं समसढे जाव विहरइ ॥ २६ ॥ तत्तेणं से कामदेवरस इमीसे कहाए लडट्टे समाणे एवं खलु समजाव विहरइ, तं संयंखलु मम समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नमसित्ता ततो पडिनियत्तस्स पोसहं पारितए तिकट्टु, एवं संपइ २त्ता सुद्धप्पार्कसाई बत्थाई जाव अप्पमणुस्स देव कामदेव के चरणों में पड गया, दोनों हाथ जोडे हुवे उक्त कृत अपराथ को वारम्वार क्षमाकर जिस दिशा से आया था उस दिशा (देवलोक में पीछा गया || २४ || तब उस कामदेव श्रावकने उपसर्ग की समाप्ती हुई जानी- उपसर्ग दूर हुवा जाना, वह उपसर्ग दूर हो वहां तक ध्यान पारना नहीं, इस { प्रकार जो पहिले अभिग्रह धारन किया था वह पूरा होनेसे उस प्रतिज्ञाकों पारी ||२५|| उस काल उस समय में श्रमण भगवन्त श्री महावीर स्वामी चम्पा नगरी के पूर्णभद्र वर्गीचे में पधारे, तप संयम कर आत्मा भावते हुवे विचरने लगे ॥ २६ ॥ तत्र कामदेव श्रमणो पासक को महावीर स्वामी पाधारने के समाचार प्राप्त हुत्रे, उसे अवधार कर हृष्ट तुष्ट हुवा विचार करने लगा कि यों निश्चय श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी ( विचरते हैं इसलिय श्रेय है मुझे श्रमण भगवन्त श्री महावीर स्वामीको वंदना नमस्कारकर धर्मकथा श्रवण For Personal & Private Use Only 4958 कामदेव श्रावक का द्वितीय अध्ययन ६५ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - धग्गुरा परिक्खित्ते सयातो गिहातो पडिनिक्खमति २ ता चंपानगरी मझमझेणं निगछति २ ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए जहा संखो जाव पज्जुवासति ॥ २७ ॥ तत्तेणं स्मणे भगवं महावीरे, कामदेवस्स तीसेय जाव धम्मकहा सम्मत्ता ॥ २८ ॥ कामदेवा,त्ति समणं भगवं महावीरे कामदेव समणोवासयं एवं वयासी-सेणूणं कामदेवा! तुब्भे पुन्वरत्तवरत्तकाल सभयंसि एगेदेवें अंतिए पाउन्भूए, तएणं ते देथे एगं महं दिव्यं पिसायरूवं विउव्वई २ स्ता आसुरुत्त ४, एगं महं निलुप्पल अगिहाय तुमं एवं कर फिर पीछा यहां आकर पौषध पारना श्रेय है. यों विचार किया, ऐसा विचार कर शुद्ध पवित्र शभा में प्रवेश करने योग्य वस्त्र धारन किये, अल्प मनुष्यों के परिवार से परिवरा हवा स्वयं के घर से निकला,निकलकर चम्पामगरी के मध्यरमें होकर जिस प्रकार भगवती सूत्र में कहे शंख श्रावक आयाथा तैसे आकर यावत् सेवा भक्ति करने लगा ॥ २७ ॥ तब श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामीने कामदेव श्रावक को और उस महा पस्षिध को धर्म कथा सुनाइ, धर्म कथा पूर्ण हुई॥२८॥ तब सर्व परिषदा सन्मुख कामदेव से श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी इस प्रकार कहने लगे-हे कामदेव ! अधीरात्रि व्यतीत हुवे बाद तेरे पास एक देवता प्रगट हुवा था, उस देवताने एक बडा पिशाच का रूप बनाया था। वह असुरक्त कोपाथ मान होकर एक महानिलोत्पल कमल समान खड्ग हाथ में धारनकर तेरे से यों बोला । अर्थ | • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. सप्तमांग-उपाशक दशा सूत्र 488. वयासी-हंभो कामदेवा ! जाव जीवीयाओ ववरोविज्जसि तं तुमे तेणंदेवेणं एवंवुत्ते समाणे अभीए जाव विहरति, एवं वण्णगरहिया तिणविउवसग्गा, तहेव पडिउच्चार यव्वा, जाव देवो पडिगओ ॥ सेणूणं कामदेवा ! अटेसमटे ? हंता अन्थि ॥ २९॥ अज्जोति समणे भगवं महावीरे बहेवे संमणे णिग्गंथेय निग्गंथीओय आमंत्तत्ता एवं वयासी-जति ताव अजो ! समणोवासगा गिहिणी गिहिमझावसंता, दिव्वमाणुस्स तिरिक्खजोणिए उवसग्गो सम्मं सहंति, जाव अहियासेंति,सक्कापुणाइ अजो! समणेहिं 48. कामदेव श्रावक का द्वितीय अध्ययन 488 भो कामदेव ! जो तनियम व्रत का भंग नहीं करेगातो तुझ को आज इस निलोत्पल समान खगकर जी रहित करूंगा, उस देवता के ऐसे वचन श्रवणकर तू निरडरपन यावत् धर्मध्यान ध्याना हुवा स्थिर रहा. यों तीनों (पिशाच का, हाथी का और सर्प का) उपसर्गों जिस प्रकार पडेथे उस प्रकार कहं मुनये यावत् देवता क्षमामांगकर पीछा गया. हे कामदेव! यह कथन सच्चा हैं ? कामदेव बोला-हां भगवंत ! सच्चा १॥२९॥ आर्यों ! श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी बहुत श्रमण निग्रन्थ व निग्रन्थीयोंको बोलाकर यों कहने लगे-हे आर्यों श्रमणोपासक गृहवास में रहा हुवा हो देवता मनुष्य तिर्यंच सम्बन्धी उपसर्ग को सम्यक् प्रकार से सहन किया यावत् अहीयामा तो. हे आर्यों तुम श्रमण निर्ग्रन्थ होकर द्वादशांग । 802. For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ marwarewariya 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी निग्गंथेहिं दुवालंसंगं गणिपिडगं अहिजमाणेहिं दिव्य माणूस्सेहिं तिरिक्खजोणिए सम्मं सहित्तए जाव अहियासित्तए॥३०॥तओ ते बहवेसमणा निग्गंथाय णिग्गंधीओय समणस्स भगवओ महावीरस्स तहित्ति एयमटुं विणएणं पडिसुगंति ॥ ३१ ॥ तत्तेणं से कामदेवे हटे तुढे जाव समणं भगवं महावीर पसिणाति पुच्छति, अट्ठमादिया, समणं भगवं महावीरं तिक्खूत्तो वंदति नमंसति जाव पडिगता ॥३२॥ तत्तेणं समणं भगवं महावीरे अन्नपाकयाइं चंपाओ पडिनिक्खमइ, २ त्ता बहिया जणवय विहारं विहरति ॥ ३३ ॥ तएणं से कामदेवे पढमं उवासग पडिमं उवसंपज्जित्ताणं शास्त्र के जान मुक्ति पन्य के साधक हो समर्थ हो इसलिये तुमेतो अवश्यही देवता मनुष्य तिर्यंच सम्बन्धी उपसर्ग समभाव से सहना यावत् अहियमना चहिये ॥ ३० ॥ तब बहुन श्रमण निर्ग्रन्थनेनिर्ग्रन्थीओने श्रमण भगवंत श्रीमहावीर स्वामीजी का कथन प्रमाण किया बहित किया, आपका कहना सत्य है यों कह सविनय मान्य किया ॥ ३१ ॥ तब कामदेव श्रावक हृष तुष्ट आनन्दित हो वंदना नमस्कार कर प्रश्न पूछे अर्थ धारन किये, फिर श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को तीन वक्त वंदना नमस्कार कर । से आया था उस ही दिशा पीछा (अपने घर) गया ॥ ३२॥ तब वे श्रपण भगवंत महावी स्वामी अन्यदा किसी वक्त चम्पा नगरी से विहार कर बाहिर जनपद देश में विचरने लगे ॥ ३३ ॥ तब प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवमहायजी ज्वामदजासी * For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . M - 88t सप्तमांग-उपशाक दशा सूत्र विहरंति ॥ ३४ ॥ तएणं से कामदेव समणोवासए वहुहिं जाव भावेत्ता वीमंवासाई समणोवासगं परियागं पाउणीत्ता, एक्कारस उवसग्ग पडिमाओ सम्मं कारणं फासित्ता, मासिथाए, सलेहणाए. अप्पाणं ज्यूसित्ता , सर्द्धिभत्ताई अणसाइं छेदित्ता, आलोइय पहिवंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा, सोहम्मे कप्पे सोहम्मवाडमयस्स महा विमाणेस्स उत्तर पुत्थिमेणं अरूणाभेविमाणे देवत्नाए उबवण्णे, तत्थेणं अत्]गइयाणं देवाणं चचारि पलिओवमाइंटिइ पण्णत्ता, तत्थणं कामदेवस्सवि देवस्स चत्तार पलिओ वमाई लिई पण्णता ॥ ३५ ॥ सेणं भंते ! कामदेवेताओ दवलोगाओ वे कामदेव श्रावक पहिली श्रावकी प्रतिमा से लगाकर यावत् इग्यारे प्रतिमा आनन्द श्रावक की तरह अंगीकार की ॥ ३४ ॥ तब कामदेव श्रावक बहुत प्रकार के तप करते हुये यावत् आत्मा को भावते हुवे *बीम वर्ष आवकपने की पर्याय का पालन किया, इग्यारे श्रावक की प्रतमा का सम्यक् प्रकार से पालन किया, अन्तिम अवसर में मंथारा किया साठ भक्त अनशन का छदन किया आलोचना प्रतिक्रमण कर समाधी से काल के अवसर काल पूर्ण कर सौधर्म कल्प वैमान के ईशान कौन में अरुणाभ विमान में देवता अपने उत्पन्न हुने. तहां कितनेक देवताओंकी चार फ्ल्पोपम की स्थिति है, कामदेवदेवकी भी चार पल्योपमकी कामदेव श्रावक को द्वितीय मध्ययन-4 अर्थ 428 For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चईत्ता कहिंगछंति,कहि उववजहिंति? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झहिंति जाव सत्र दुक्खाणं अंतं करेंति ॥ ३६ ॥ निक्खेबो कामदेस्स उवासक दसाणं वीयज्झयणं सम्मत्तं ॥ २ ॥ . स्थिति कही है. अहो भगवन् ! कामदेव उस देवलोक से आयुष्य भव का स्थिति का क्षय कर निरन्तर चव कर कहां जायगा कहां उत्पन्न होगा ? अहो गौतम ! महा विदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा. यावत् सर्व दुःख का अन्त करेगा ॥ इति कामदेव श्रावक का द्वितीय अध्ययन संपूर्ण ॥२॥ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + .प्रकाशक-राजाबहाद्दर लाला मुखदेव सहायजी पालाममादजी . For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमांग-उपाशक दशा सूत्र Nali ॥ तृतीय-अध्ययनम् ॥ उक्खओ तइयरस अञ्झयणस्स एवं खलु जंबू ! तेणंकालेणं तेणंसमएणं वाणारसी नाम नयरीहोत्था. कोट्ठगनामचेइए, जितसतराया ॥ १ ॥ तत्थणं वाणारसीए चुलणी पिता नाम गाहावती परिवसति, अट्ठ जाव अपरिभूए; सामाभारिया ॥ अटु हिरण्ण कोडीओ निहाण पउत्ताओ, अट्ठहिवुढीपउत्ताओ, अट्टहिं पवित्थरपउत्ताओ, अटुवया दसगो साहस्सिएणं वएणं, जहा आणंदो राईसर जाव सव्वकज वढावएगावि होत्था उक्षेप तीसरे अध्ययन का-यों निश्चय, अहो जम्बू ! उस काल उस समय में बानारसी नाम की नगरी थी. कोष्टक नाम के यक्ष का यक्षालय बगीचे युक्त था, बानारसी नगरी में जित शत्रु माम का राजा राज्य करता था ॥ १॥ तडा बानारसी नगरी में चुल्लनीफिता नाम का गाथापति रहता था, वह ॐ ऋद्धिबन्त यावत् अपराभवित था, उस के शामा नाम की भारिया थी. चुलनी पिता गाथापति के आठ ४० हिरण्य कोडी द्रव्य तो निध्यान (जमीन) में था, आट हिरण्य कोडी का द्रव्य व्यापार में, आठ हिरण्य कोडी का पाथरा घर बिखेरा था और दश हजार माय का एक वर्ग ऐसे आठ वर्ग गायों के (८० हजार गौ) थे. जिस प्रकार आनन्द गाथापति राजा ईश्वरादि में मान में योग्य सबको आधारभूत था, उस है, चल्लनी पिता श्रावक का तृतीय अध्ययन - For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +8 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 सामी समोसड्डेपरिसानिग्गया चुलीपिताकि जहा आणंदोतहानिग्गओ,तहेव गिहिधम्म पडिवजति॥गोयम पुच्छा,तेहेत्र सेसं जहा कामदेवस्स जाव पोसहसालाते पोसहिए बंभचारी समणस्स भगवओमहावीरस्स धम्म पण्णति उवसंपजित्ताणं विहरति ॥३॥तएणं तस्स चुलणीपियस्स समणोवासयस्स पुव्वरत्ता वरतकाल समयसि एगेदेवे अंतियं पाऊन्भवेता ॥ ४ ॥ तत्तेणं से देवे एग नीलुप्पल. जाव असिंगहाय चुलीणीपितं समणोवा सयं एवं क्यासी-हंभो चुलणीपिया ! जहा कामदेखे जाव नभंजसी तो ते. अहं अज प्रकार चुलनी पिता भी आधारभूत यावत वृद्धि का करनेवाला था ॥ २ ॥ श्रमण. भगवन्त महावीर स्वामी पधारें,कोष्टक नामके उद्यानमें तप संयमसे आत्मा को भावते हुवे विचरने लगे परिषदा दर्शनार्थ आई, चुल्लनी पिता मायापति भी आया, धर्मकथा सुनाइ, परिषदा पीछी गइ, चुल्लनीपिता गाथापतिने आनन्द श्रावक की परेही गृहस्थकाधर्म वागवृत अंगीकार किये,गौतमः स्वामीने झन्न पूछा-दीक्षालेवेगा- क्या ? उत्तर आणंद के जैसा ही दिया, भगवन्त विहार. कर गये, चुल्लनी फ्तिाने बडे पुत्र को गृहभार संभलाया,. आपः पौषध जशाला में आकर विशुद्ध प्रकार से धर्म ध्यान करता हुवा विचरने लगा॥शातब अन्यदाचुल्लनीपिता श्रमणो पासक के पास अर्ध रात्रि व्यतीत हुने एक देवता प्रगट हुवा ॥ ४ ॥ तब उस देवताने कामदेव के अध्यबन में कह्म बसौ ही रूप बनाया यावत् हाथ में निलोत्पल कमल समान खङ्ग ग्रहण कर चुल्लनीपिता . प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4880 जी पूर्व सातों मिहातो गीणी तब अग्गोघाएमि, स्त्ता ततो मसंसोहोकरेमि, रताः । आाण भरियसि कडाइयंसि अहाहमि, स्त्चा तवगात मंसेणय सोपिएणय आचामि, जहाणं तुमं अह दुहट्टे वसट्टे अकाले चेव जीबीयाओ ववरोविजासि॥५॥ तएणं से चुलामीपीए तेणं देवेणं एवं कुत्ते समाणे अभीए.जाव विहरंति॥६॥ तएणं से देव घुलनी पियं अभीयं जाव पासती दोबंपि, तच्चपि बुलणीपियं समणोशसयं एवं क्यासी-हंमो. - सतमांग-उपाशक दशा मूत्र48+ wwwwwwwwwwwwwwwmanawani श्रमणोपासक से वो कहने लगा-मो चुल्लनीपिता ! जिस प्रकार कामदेव से कहा था उस ही प्रकार पावर तू जो पौधोपासादि व्रत का भंग नहीं करेगा तो में आज तेरे जेष्ठ पुत्र को तेरे घर में से पर कर यहां लावंगा, तेरे सन्मुख लाकर उसे मारूंगा, उस के मांस के तीन तुकडे करूंगा, भटी पर कडाइ चा कर उसक तैलादि से आदन आवे वैसी बनाकर उन कडाइ में मांस को तलूंगा, वह सम मसि रक्ता तेरे भरीर पर छांगा, जिस से तू आइट दोहट वश्य हो आर्तध्यान ध्याता हुवा दुःखी हुना, अकाल में है। मृत्यु को प्राप्त होमा ॥५॥ तब उल्लनीपिता उस देवता का उक्त वचन, श्रवण करके निडर रहा, लोमिती 'नहीं दुका, स्वस्थान से चला भी नहीं पावत् पर्पध्यानमें स्थिर हो विचरने लगा ॥६॥ चुलनीपिता श्रमणो. । पासक को निर्भय यावत धर्मध्यान ध्याता हुवा देखकर वह देव दो बक तीनवक्त ऐसा बोला-मो मुलुनीपिता चुल्लनपिता श्रावक का भूतीय अध्ययन 48 4 For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 48 अनुवादक बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी efit ! या पत्या जाव नभंजसी तं क्षेत्र भणइसी जाव विहति ॥ ॥ तणं से देवे चुणी पियाण अभीयं जाव पासिता आसुरुते, चुलणीपितरस समो बासगस्स जेट पुत्तं गिहातो णणिती २त्ता आग्गतो धाएती रत्ता तओ मंससोल्लए करेति २ ता आदण भरियंसि कासि अहेति २ ता चुल्लणीपियरस गायं मंसेणय सोणीएणय अइति ॥ ८ ॥ तणं से चुलनीपिया समणोवासाया तं उज्जलं जाव अहियासंती ॥ ९ ॥ ततेणं से देव चुल्लणिप्पियं समणे वासयं अभीयं जाव पासइ २त्ता : अार्थिक के प्रार्थिक यावत् व्रत को नहीं भंगेगा तो तेरे बड़े पुत्र को मारूंगा इत्यादि कहा तो भी खुलुनीषिता धर्म ध्यान ध्याता ही रहा | ७ || सब वह देवता चुहनीपिता को निडर यावत् धर्म ध्यान ध्याता देखकर आसुरक्त घमघमायमान कोपातुर हो हनीपिता के जेष्ठ पुत्र को पकडलाया, चुल्लनीपिता के सम्मुख उसे मारा. उस के मां के तीन टुकड़े किये, मांस रक्त कडाइ में तेलकर बुद्धनीपिता के शरीर पर छांटा ॥ ८ ॥ तत्र चुल्लनीपिता को महा उज्वल वेदना हुई उस को सम्यक् प्रकार से सही परंतु किंचित भी चलायमान नहीं हुवा ॥ ९ ॥ तब वह देवता श्रावक को निडर यावत् धर्म ध्याता हुदा देखकर दूसरी वक्त फिर यों कहने लगा-भो चुझनीपिता ! अार्थिक के मार्थिक यावत् जो तू आज तेरे व्रत का भंग नहीं करेगा तो मैं तेरे मध्यम पुत्र को तेरे घर मे हनीपिता • प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी For Personal & Private Use Only 18% Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 48+ सप्तमांग- उपाशक दशा सूत्र दोन चुलणिपियं समणो वासयं एवं क्यासी- हंभो चुल्लणीपिया ! अपस्थीया पत्थीमा जात्र नभंजसि तो ते अहं अज मज्झिमं पुत्तं साओगिहातो नीणेमी २ ता तव अग्गओ घाम जहा जेठं पुत्तं तहेव भणइ, तहेव करेइ ॥ एवं तचं कणियासंपि जाब अहियासेति ॥ १० ॥ एणं से देवे - चुलुणीपिया ! अभीयं जाव पासाइ २ हा उत्थंपि खुलणीपियं एवं बयासी - हंभो चुल्लणिपिया ! अपत्थीया पत्थीया अणं तुम्हं जात्र नभंजसि ततो अहं अज्ज जा इमा तत्र माया भद्दासत्यवाहीणी देवयं गुरु [पकड कर लालूंगा, तेरे आगे मारूंगा, मांसके तीन तुकडेकर कडाइमें तलकर मेरे शरीरपर छांदूंगा; जिससे तू अकालमै मृत्यु पावेगा. ऐसा सुनकर भी चुल्लनीपिता चलायमान नहीं हुवा. तब वह देवता मध्यम पुत्र को भी पकडलाया मारकर तीन टुकडे कर उस का मांस रक्त कडाइ में तलकर चुल्लनीपिता के शरीर पर छांटा, जिस से चुल्लनीपिता को अति उज्जल बेदना उत्पन्न हुई, परंतु किन चेम्मान भी चलायमान नहीं हुवा. जिस प्रकार दूसरे पुत्र की घात की उस ही प्रकार तीसरे कनिष्ठ-छोटे पुत्र को भी मारकर तलकर शरीर पर छांटा तो भी चलायमान नहीं हुवा, यावत् धर्म ध्यान ध्याता हुवा विचरने लगा || १० | तब वह | देवता हनीपिता को निर्भय यावल धर्व ध्यान ध्याता हुबा देखकर चौंधी वक्त वह देवता चुल्लनीषिता से For Personal & Private Use Only चलनीपिता श्रात्रक का तृतीय अध्ययन 4 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म अनुवादक-बालब्रह्मचारीबुनि श्री अमोलक ऋषिजी + जणणी दुकररकारिया तास सआ गिहाओ नीमि २ त्ता तव अग्गी घाएमि २ वा तओ भंस सोलए करेमिरत्ता आदाणं भरियसि कडाहयंसि अहहेमि २त्ता तवगाथ मंसेणय सोणिएणं अइचामि, जहाणं तुम्हं अट्ट दुहट्ट बसढे अकाले चर जीवियाओ धवरोवजसि ॥१॥ तत्तेण चुल्लणीपिया तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरंति ॥ १२ ॥ तएणं से देवे चुल्लणिपिय समणोबासयं अभीयं जाव पाप्सति २ ता चुलमीपियं समजो वासयं दोच्चप्पि तचंति एवं वयासी-हभो ! चुल्लणीपिया ! तहेब जाब विविरोविबसि ॥ १३ ॥ तएणं तस्स चुलणीपियस्स तेणं देवेणं दोचंपि यो बोला-भो चुल्लनीपिना: अभाधिक के प्राधिक मो आन पौषधोवास प्रत नियम का भंग नहीं करेगा तो मैं आज यह तेरी माता भद्रा सार्थवाहीनी तेरे देव समान गुरु समान जनिता-जन्मदाता तेरेलिय दुक्कर परिश्रमकी करनेवाली, उस तेरे घरमम तेरे सन्मुख लाकर मारूंगा, उसके मांस के तीन टुकडे करमांम रक्त कडाइमें सलकर तेरे शरीरपर छढुिंगा, जिससे तू आतध्यान ध्याकर दुःखी होकर अकाल में मृत्यु पावेगा॥११॥ तब जुल्लनीपिता एस देवता का उक्त वचन सुनकर भी चलायमान नहीं हुवा यावत् धर्म ध्यान ध्याता हुवा विचरब लगा । १२॥ सब वह देवता चलतीपिता को निखरपने यावत् धर्म ध्यान ध्याता इवा देखकर दो वक्त तीन यस यों बोचा-बैसे ही खेरी माता को मारूंगा जिस से तू अकालमें मृत्यु पावेगा ॥१३॥ तब 21 प्रकाशक राजाबहादुर लाला दुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 सप्तपांग-उपाशक दशा सूत्र +8 तच्चपि एवं वुत्ते समाणे इमेयास्त्रे अज्झत्थिा जाव समुप्पजित्ता-अहोणं इमे पुरिसे अणारिए अणारिय बुद्धी अणायरियाई पावाई कम्माई समायरंति-जेणं मम जेद्रं पुतं साओ गिहाओ णीणेति मम अग्गओ घाएति २ सा जहा कयं तहा चिंतीयं जाव आइचेति ॥ जेणं मम मझिम पुत्तं साओ गिहाओ णीणति जाव आइचंति, जेणं मम कणीएसं पुत्तं साओगिहाओ तहेव जाव आइति, जा ति यणं, इमा मम माया भद्दा सत्यवाही देवगुरु जणणी दुकर २कारिया तं पि य गं इच्छंति सयाओ गिहाओ जीणेत्ता मम अग्गओ घाइत्ताए, तं संयंखलु मम एवं पुरिसं गिहितए तिकटु,उट्ठाइए, चुल्लनीपिता उस देवता के दो वक्त तीन वक्त उक्त वचन श्रवण कर इस प्रकार अध्यवसाय उत्पन्न हुवा. अहो. इति आश्चर्य ! यह पुरुष अनार्य (अधी) है, अनार्य बुद्धिवाला है, अनार्य कर्म का ममाचरनेवाला है कि-जिसने मेरे बड पुत्र को घर से लाकर मेरे सामने मारकर मेरे शरीर पर छांटा, इस ही मेरे विचले पुत्र को और इस प्रकार ही मेरे कनिष्ट-छोटे पुत्र को मारकर तलकर मेरे शरीर छांटा, अब यह मेरी माता भद्रासार्थवाहीनी देव गुरु समान जनीता दुक्कर २ कष्ट की सहनेवाली उसे भी घर से पकडकर लाकर मेरे सन्मुख मारना चहाता है. इसलिये इस पुरुष को पकडना मुझे श्रेय है. ऐमा विचारकर ठा, इतने में वह देव आकाश में भग गया, और चुल्लुनीपिता के हाथ में स्थंभ आया, तब वह चुल्लनी-११ 48 चुलनीपिता श्रावक का तृतीय अध्ययन 48 Monawanmanner | Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ ॐ अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + सेविय आगासे उप्पइए, तेर्णय खंभे आसादिते महया २ सद्देणं कोलाहलेणं कए ॥ १४ ॥ तत्तणं सगभद्दा सत्थवाहीणी तं कोलाहलसदं सोच्चा निसम्म जेणेव चुल्लणीपिता समणोनासए तेणेव उवागच्छइ २ ता चुल्लणीपियं समणोवासयं एवं वयासी- किणं पुत्ता ! तुम्हं महया २ सद्देणं कोलाहलकए ? ॥ १५ ॥ एणं से चुल्लया अम्मयं भसत्यवाहीणीयं एवं वयासी एवं खलु अम्मो ! णयाणा मे केइ पुरिसे आसुरुते, एगंमहं निलूप्पल जाव असिंग्गहाय मम एवं वयासी हंभो चुल्लणीपिया ! अपत्थीया पत्थीया जइणं तुम्हं जाव ववरोविजारी, तत्तेणं अहं तेणं पुरिसे पिता बडे २ शब्द कर कोलाहल (पुकारा ) किया ॥ १४ ॥ तत्र वह भद्रासार्थवाहीनी ( चुल्लनीपिता की (माता) चुल्लनीपिता का कोलाहल शब्द सुनकर अवधारकर जहां चुल्लनीपिता श्रमणोपासक था त आई, आकर यों कहने लगी- हे पुत्र ! क्यों तेने महा २ शब्द कर कोलाहल किया ? ॥ १५ ॥ तब चुल्लनीपिता अम्मा भद्रासार्थवाहीनी से ऐसा बोला—यों निश्चय, हे अम्मा ! मैं नहीं जानता हूं किं-कोई पुरुषको निलोत्पल कमल जैसा रंगवाला तीक्षण खङ्ग हाथ में धारन कर मेरे से यों कहने लगा-मोनीपत ! अमार्थिक के प्रार्थिक जो तू आज व्रतों का भंग नहीं करेगा तो तेरे बड़े पुत्र को तेरे आगे मारकर कडाइ में उस का रक्त मांस तलकर तेरे पर छांदूंगा, जिस से तू आर्तध्यान ध्याकर For Personal & Private Use Only * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहाबजी ज्वालाप्रसाद जी * ७८ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4 सप्तमांग- उपाशक दशा सूत्र 498+ एवं वृत्ते समाणे अभीए जाव विहारमी । तएणं से पुरिसे मम अभीयं जाव विहर माणं पासंति दोच्चंपि तच्चपि एवं वयासी-हंभो चुल्लणीप्पिया ! तहेव जात्र आइचंति, तत् अहं तं उज्जलं जाव अहियासमि, एवं तहेव जात्र कर्णायसं जाव अहिया से मि तणं से पुरिसे मम अभिते जाव पासति २ ममं चरत्थंपि एवं वयासी हंभो चुल्लणी पिया ! अपत्थीय पत्थीया जाव न भंजसि तो ते अज्जाजा इमा तत्र माता भद्दा गुरुदेवे जात्र ववरोविज्जासी ॥तत्तेणं अहं तेणं पुरिसेणं एवं वृत्ते समाणे अभीए जाव विहरामी अकाल में मृत्यु पावेगा, तब मैं उस पुरुष का उक्त वचन आपणकर डरा नहीं यावत् धर्म ध्यान ध्याता हुवा विचरने लगा. तब वह पुरुष मुझे निर्भय धर्मध्यान ध्याता हुबा देखकर दूसरीवक्त तीसरीवक्त उक्त प्रकारके वचन किये, तो भी मैं चलायमान न हुवा, तब बडे पुत्र को यहां लाकर मारा, उसका रक्त मांस कढाई में तलकर गरमागरम मेरे शरीरपर छांटा, जिसेकी उज्वल वेदना मुझे हुई तो भी मैं चलायमान नहीं हुआ, तीनों पुत्रों को मारकर कडाइ में तलकर मेरे शरीर पर छोटे, उस की उज्वल वेदना मैंने सही परंतु चलायमान नहीं हुवा. तब वह पुरुष मुझे निडर देखे चौथी वक्त मेरे से या बोला- भो चुल्लनीपिता ! अप्रार्थिक के पार्थिक यावत् व्रतों का भंग नहीं करेगा तो भद्रा माता देव गुरु समान आज यह तेरी For Personal & Private Use Only चुल्लनपता श्रावक का तृतीय अध्ययन ७९ ( Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिमी * तंएणसे पुरिसे दोच्चंपि तच्चंपिमम एवं क्यासी-हंभो चुल्लणिया अज जाव ववरोविजसितएणं . तेणं पुरिसेणं दोच्चपि ममं तचंपि एवं वृत्त समाणेस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जात्र समुप्पजित्ता-अहोणं इमे पुरिसे अणारिए जाव अणायरिय कम्माइं समायरति.जेणं मम जेटुंपुत्तं सातोगिहातो तहेव कणियसं जाव आइयति, तुझेवियणं इच्छीत सातोगिहातो णीणेत्ता मम आगाओ घाएति. तं संयंखलु ममं एयं पुरिसं गिण्णत्तए त्तिकटु उट्ठाइए, सेविय आगासे उप्पत्तिए, मएविय, खंभे आसाईए महया२ सदेणं कोलाहलेकए॥१६॥ यावत् उस को भी तेरे सन्मुख मारकर रक्त मांस तलकर तेरे शरीर पर छांदूंगा. तब मैं चौथी वक्ता उस का यह वचन श्रवण करके भी डरा नहीं यावत् धर्म ध्यान ध्याता हुवा विचरने लगा. तब वह पुरुष दो वक्त तीन वक्त उक्त प्रकार वचन बोला, तब मेरे मन में विचार हवा कि-यह पुरुष अनार्य है। यावत् अनार्य कर्म का करनेवाला है, इसने मेरी तीनों पत्रों को मारकर उन का पांस रक्त सलकर मेरे शरीर पर छांटा, अघ चौधी वक्त यह मेरी माता भद्रा मार्थवाहीनी देव गुरु समान जनीता दुक्कर २ कष्ट की। उठानेवाली उसेमारना चहाता है, इसलिये इस पुरुषको पकडना मझे श्रेय है. यों विचारकर उठा,इतनेमें यह पुरुष भी आकाश में उड गया, और मेरे हाथ में स्थंभ आगया, जिस से मैंने महा २ सध्द कर कोलाहल * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी. । For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्र अर्थ 4 सप्तशंग उपाशक दशा सूत्र तण सामा सत्यवाहीणी दीपय एवं क्यासीनो खलु केइ पुरी तब जा कणीय पुनं साओगिहाओ नाव अग्गओ घाति एस केइ पुरिसे नव उवसग्गं करोति. सणं तुम्मविदम् इदाणि भगव्य, भग्ग नियम, भग्गेपसहोवा से बिहस, तरणंतुमं पुत्ता! एयरस द्वाणस्स आलीएहि जावयास पडिवजाहिं ॥ १७ ॥ नणं चुपिया समया शस अम्मगाए महाए सात्यवाहीणिएतदृत्ति, एयमट विणणं सुई २ता तर ठाणस्स आलांएइ जात्र पडिवज्जइ ||१८|| तत्तणं मे चुलणीप्पिया ! पढमं उवासँग उपजित्ताणं विहरइ. पढमं उबालग पहिनं अहासुत्तं जहा किया || १६ || तब भद्रा मार्थवाहीनी चुनीपिता मे यो बोली – निश्चय किसी पुरुषने भी तेरे बड़े पुत्र को यावत् छोटे पुत्रको घर लाकर मारा नहीं है, फक्त यह तो किसी पुरुषने तेरेको उपसर्ग उपजाया है, (या किसी देवता गायनाकर तेरी परिक्षा के वास्ते तुझे बताया है.) इसलिये हे पुत्र ! तेरे इस व्रत का मंग हुवा, नियम ( अभिग्रह ) का भंग हुवा, पोपत्र व्रत का भंग हुवा, हे पत्र ! तू इस दोषस्थान की आलोचना निन्दना कर प्रायःश्चित ग्रहण कर शुद्ध होवो ॥ १७ ॥ हनीपिता श्रवण पासक भद्रा माताका उक्त वचन सविनय मान्य किया, उस दोष स्थानककी आलोचना निन्दना की, प्रायः श्चिमले शुद्ध पिता श्रमणोपासक आवककी इग्यारे प्रतिमा अनुक्रममे जंगी ॥ फिर For Personal & Private Use Only * हनीपिता श्रावण का तृतीय अध्ययन Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. अनुपादक-घालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी आणंदो जाव इक्कारस्स उवासग्ग पडिमा आराहेइ॥१९॥तएणं से चुल्लणीपिया समणोवासए जहा कामदेवो जाव सोहम्मे कप्पे सोहम्मघडिंसगस्स महाविमाणरस उत्तर पुरथिमेणं __ अरूणपठभे विमाणे देवत्ताए उववन्नो, चत्तारि पलिओवमाई दिई जाव महाविदेहेवासे सिझंति॥२०॥ निक्लेवो तहेव ॥ उवासग दसाणं तइयं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ ३ ॥ कार की, जिस प्रकार आनन्द श्रावकने की थी उम ही प्रकार इग्यारे प्रतिमा का सम्यक् प्रकार मे किया ॥ १९ ॥ तब चुल्लनीपिता जिस प्रकार कामदेव श्रावकने अनशन किया था उसही। अनशन संथारा कर, साठ भक्त अनशन छद, बीस वर्ष श्रावकपना पाल, काल के अवसर में काल कर, प्रथम सौधर्म देवलोक में सौधर्म वैमान से ईशान कौनमें अरुणाभ नामक विगनमें देवतापने उत्पन्न हुवा॥२०॥ वहां चुल्लनीपिता देव का भी चार पल्योपम का आयुष्य कहा है. तहां से आयुष्य का क्षय कर, भव का क्षय करें, स्थिति का क्षय करं, निरन्तर चवकर महा विदेह क्षेत्र में जन्म ले. यावत् सिद्ध बुद्ध होगा सर्व दुःख का अन्त करेगा. निक्षेप तैसे ही कहना ॥ इति तीसरा चुल्लनीपिता श्रावकका अध्ययन संपूर्ण ॥३॥ * प्रकाशक-सनाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी , ज For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwinner * चतुर्थ-अध्ययनम् * उक्खेवओ चउत्थरस अज्झयणस्स–एवं खलु जबूं ! -तेणं कालेणं तेणं समएणंवाणारसीणामं नथरी, कोट्टए चंइए, जियसत्तुराया, सुरादेवे गाहवइ! अडेजाव अपरिभूए... छहिरण्ण कोडीओं निहाणपउत्ताओं, छ वुड्डी पउताओ,, छपावित्थर पउताओ, छवग. ___ दसगो साहस्सिएणं वएणं ॥ धन्ना भारिया ॥ सामी समोसवें ॥ जहा आणंदो तहेव । गिहधम्म पडिवजंति जाव समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मंपण्णति जाब विहरइ॥३॥ उक्षेप चौथा अध्ययन का-यों निश्चय, हे जम्बू ! जस काल उस समय में बनारसी नाम की नगरी, cal कोष्टक चैत्य उद्यान, नित शत्रु राना राज्य करता था. वहां बनारसीन्नगरीमें मुरादेव नामका गाथापति रहता | था, जिम के छ हिरण्य कोडी द्रव्य निधान में, छे कोही द्रव्य व्यापार में छ कोडी द्रव्य का पाथरी, छे वर्ग गायों के +और धन्ना नाम की स्त्री थी. श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधारे परिषदावंदने मइ, सूरादेव भी गया, धर्मकथा । मुनाई, परिषदा पीछीगइ, सूरादेवने गृहस्य का धर्म श्रावक के व्रत आनंद श्रावक के जैसे ही अङ्गीकार किये, 'धन्ना रिया को भी अङ्गीकार कराये, भगवं गौतम स्वामीने प्रश्न किया, आणंद के जैसा ही उत्तर दिया ॥2 भगवंतने विहार किया ॥ सूरादेव बड़े पुत्रको पर का भार सुपरतब्कर पौषष शाला में धर्म ध्यान ध्याता।" H+ सप्तमांग-उपाशक दशा-सूत्र 488 ranninnarwww 48 सूरादेव-श्रावक का चतुर्थ अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + - म अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी तएर्ण तस्स सुरादेवस्स समणोकसयस पुव्यरचा वरतकाल. समयंसी एगेदेवे अंतियं.. पाउन्मुवित्ता, से देवे एमं महं निलुप्पल जाव असिंग्गहाय सूरादेवं समणोवासयं एवं वयासी-हंभी सरादेव समणोंवासया! अपस्थिय पत्थियाजइणं तुम सीलन्वयाइं जाव न भंजास,तो ते जेठं पुत्तं सातो गिहातो णीणेमी रत्ता तव अगातो घाएमी, २त्तापंच मंस सोलए करेमि, रचा आयाणं भारयसि कडाहयंसि अहमि,स्त्ता तव गाय मंसणय सोणिय-- OR आइंचभि, जहाणं लुमंः अकाले चेव जीवियाओ. विनरोक्जिसि ॥ एवं मझिमं हुवा विचरने लगा ॥१॥ तच. मुरादेव. श्रावक के पास पूर्वरात-आधी रात व्यतीत हुने एक देवता प्रगट हुचा उसने कामदेव के अध्यपन में कहा जैसा ही रूप बनाया यावत्. निलोत्पल समान खा.हाथ में लिये । हुवे यों काने लगा-भों सुगदेव ! अपार्षिक के प्रार्थनेवाले यावत्- जो तू.शील व्रत पौषधादि करेगा तो आज तेरे बड़े पुत्र को तेरे आगेः लाकर मारूंगा, उस के शरीर के मांस के पनि ? टुकडे करा आदन से उकलती कडाई में तलकर तेरे शरीर पर छांदूंगा, जिस से तू- आर्स. ध्यान ध्याता दुःखी हो - काल में मरेगा.. उक्त वचन देवताका श्रवण कर मूरादेव चलायमान नहीं हुवा, तब देवता कोपायमान हो जिस प्रकार सुखानीपिता के तीनों पुत्रों को मारकर तलकर उस. के शरीर पर छठे थे तैसे मुरादेर के *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवप्सहायजा ज्वालापसादजी - For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. * सममांग-उपाशक दशा सूत्र कीय नवरं, एकके पंचसोलया तहेव करेंइ जहा चुलणीपियस्स ॥ २ ॥ तएणं । से देवे सूरादेवरसमणीवासघं चउत्थंपि एवं बयासी-हंभो सूरादेवा ! अपत्थिय पत्थिया४. जाव न भंजसि ततो अहं अज तत्र सरीरंसी जममसभगमेव सोल. सोगार्यको पक्खिवेमि तं जहा-सासे खांसे, जवरा, दाहे, कुत्थिसूल, भगंदर, आरिसा, अजीरए, दिट्ठीसूल, मुहसूल, ओकारए, अस्थिस्यणा, कण्णवेयणा, कंडवे, उदरे, कोढए, जहणं तुब्भे अढ दुहह वसहे अकाले चेव जीवियाओ ववरोवजसि ॥ ३ ॥ तएणं से तीनों पुओं को मारे इतना विशेष एक के पांच २ टुकडे करे, तलकर सूरादेव के शरीर पर छोटे, परंतु सूरादेव किंचित मात्र भी चलायमान नहीं हुवा ॥ २ ॥ तब वह देव चौथी वक्त यों कहने लगा-भी सूरादेव ! अार्थिक प्रार्थिक यावत् जो तू व्रत नियम का भङ्ग नहीं करेगा तो आजतेरे शरीर में एक ही साथ सोले रोग प्रक्षेप करूंगा, उन के नाम-१ श्वास, २ खांस ३ ज्वर ४ दाहाजर ५ कुक्षी भूल, को भगंदर, ७ अर्ष-मस्सा, ८ अजीरन, ९ दृष्टी सूल, १० मस्तक सूल, ११. वमन, १२ आँख की वेदना, १३ कानकी वेदना, १४ कमर की वेदना, १५ उदर वेदना और १६ कुष्टरोग. इस प्रकार सोलेही रोग एक ही साथ में प्रक्षेप करूंगा; जिस से तूं आहट दोहट चित्त के. वश्यहो अकाल में मृत्यु पावैगा ॥३॥तब वह सूरादेव श्रावक का चतुथे अध्ययन aantic 498 For Personal & Private Use Only in Education Intern al Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अनवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - सूरादेव जाव विहरति ॥४॥ एवं देवो दोच्चंपि तच्चपि भणंति, जाव ववरोवज्जास ॥५॥ तएणं तस्स सुरादेवस्स तेणं देवेणं दोच्चंपि तच्चंपि एवं वुत्तसमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए ४ समुप्पन्ने अहोणं इमे पुरिसे अणारीए जाव समायरंती,जेणे ममं जेटुं पुत्तं जाव कणीयासं जाव आइचंति, जेविय इमे सोलरोगायके तेविय ईछंति ममसरीरगंसि पविखवित्तए, तं सेयं खलु मम एवं पुरिसं गिव्हीत्तए तिकटु, उढाएतिए सेविय आगासे उप्पईए. तेणयखंभे आसादेति, महता सद्देणं कोलाहलेकए ॥ ६ ॥ तएणं साधन्नाभारिया कोलाहल सईसोचा निसम्म जेणेव सुरादेव समणोवासए तेणेव सरादेव श्रानक देवका उक्त वचन श्रवण कर किचिन भी चलायमान नहीं हवा धावत विचरने लगा|तब वह देव दो वक्त तीन वक्त उक्त वचन कडे यावन मोलह संग से अतिदुःखी होकरमर जावेगा ॥ ५ ॥ तब उस मुरादव को उस देवता का दो वक्त तीन वक्त उत वचन श्रवन कर इस प्रकार विचार हुवा अहो यह पर अनार्य है, इसने मेरे तीनों पुत्रों की घात की.अब यह मेरे शरीर में एक ही माथ सोले प्रकार के रोग प्रक्षेपना चहाता है. इसलिये इम पुरुष को पकडना श्रृंय है. ऐमा विचार कर उठा, कि वह देव तत्काल * आकाश में भगगया. सूगदेव के हाथ में म्यंमा आगया, मरादेवने कोलहल शब्द किया ॥६॥ तद • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवमहायजी ज्वालापमादजी . अर्थ For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40+ सममांग-उपशाक दशा सूत्र 488+ उवागच्छइ त्ता एवं वयासी-किण्णं देवाणुप्पिया ! तुब्भेहिं महता २ सहेण कोलाहलेकए? । ॥ ७ ॥ तएणं से सूरादेवे धणं भारियायं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! केइ पुरिसे, तहेव कहेति ॥ जाह चूलणिप्पिया धण्णावि पडिभगति जाव कणियस्स, नो खलु देवाणुप्पिया ! तुब्भे केइ पुरिसे सरीरंसी जमगसमगं सोलस रोगायके पक्खिवइ, एसणं केइ पुरिसे तुब्भं उवसांगकरेति, सेसं जहा चूलणीपिवरस तहा भणति ॥ ८ ॥ एवं सेसं जहा चुलणीपियस्स णिरवसेसं जाव सोहम्मकप्पे अरुणं मरादेव की धन्ना भार्याने वह कोलाहल शब्द सुना सूरादेव के पासा आकर पूछा-हे देवानुप्रिया! कोलाई हल शब्द क्यों किया?॥७॥ तव सूरादेवने सब हकीगत कह सुनाइ. तब जिसप्रकार भद्रामाता 'घुल्लनीपिर १को बोलीथी, उस ही प्रकार धन भार्याने भी सूरादेव से कक्षा-कि निश्चय हे देवानुप्रिया ! किसी पुरुषने * तुमार पुत्रकी घातकी नहीं है, कोई तुमारे शरीरये रोगप्रक्षेप करसक्ताभी नहींहैं यह तो किसी पुरुषने उपसर्ग : किया, (किसी देवताने मायावताकर तुमारी परिक्षा की है,) इसने तुपारे नियम का पोषाका भंग हुवा उसकी आलोचनाकर प्रायश्चितले शुद्ध होवे. मूरादेव प्रायःविाले अद्ध हुवा ॥ ८ ॥ और सब कथन चुलनीपिता। {जैसा कहना, इग्यारे प्रतिमा का सम्यक प्रकार आराधन किया, एक महीने का संथारा आया, आयुष्य __

सरादेव श्रावक का चतुर्थ अध्ययन +8 in Education International For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ २०६ अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी कंसेविमाणे चत्तारि पलिओ माहिती, महाविदेहवासे सिज्झहिति जात्र सव्त्र दुखा अंतं करोति ॥ ९ ॥ निक्खेवो उवाएगदसाणं चउत्थं अज्झयणं सम्मरां ॥ ४ ॥ { पूर्ण कर, प्रथम बेवलोक के अरूणकत विमान में देवता मन उत्पन्न हुवा. चारपल्योपय का आयुष्य पाया वहां से आयुष्य का भव का क्षयकर महाविदेह क्षेत्र में जन्म धारनकर यावत् सिद्ध बुद्ध मुक्त हो सब दुःख का अन्त करेगा || ९ || इतिचौथा सूरादेव श्रावक का अध्ययन समाप्तम् ॥ ४ ॥ ० For Personal & Private Use Only • प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी ● ૯૯ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 4 सप्तमांग उपाय दशा सूत्र ॥ पञ्चमं - अध्ययनम् ॥ उक्खेवो पंचमंस्स अज्झयणरस एवं खलु जंबू ! तेणंकालेणं तेणंसमएणं आलंभियानामं नयरी होत्था; संखत्रणे उज्जाणे; जियसत्तूराया ॥ चुल्लसयएगाहावई परिवसई, अड्डे जा छहिरण कोडीओ निहाणपउत्ताओ, छबुड्डीपरत्ताओ, छपवित्थरपउत्ताओ, छन्वया दसगोसाहस्सिएणं, बहुलाभारिया || सामीसमोसड्डे, जहा आनंदो तहा धम्मं सोचा गिहि धम्मं पडिवज्जति सेसं जहां कामदेवे जाव समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मं उक्षेप पचिचे अध्ययन का—यों मिश्चय, हे जम्बू ! उस काल उस समय में आरंभिका नाम की नगरी थी, शंख वन उद्यान था, जित शत्रू राजा था, चुलनी शतक गाथापति रहता था. उस के छ (हिरण्य कोडी निध्यान में थी, छे हिरण्य कोडी व्यापार में थी, छे हिरण्य कोडी का पाथरा था; दश हजार गौ का एक वर्ग ऐसे छ वर्ग गौ के थे, साठ हजार गौ थी. बहुला नाम की भार्या थी. श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधारे, आनंद भाबक की तरह चुलती शतक भी वंदने गया, धर्मकथा श्रवण की, गृहस्थ का धर्म व्रत धारन किये, अपनी स्त्री को भी श्रावक व्रत धारन कराया, गौतम स्वामीने प्रश्न किया तैसा ही उत्तर दिया, भगवंतने बिहार किया. खुल्लशतक श्रावक बडे पुत्रको गृहमार संभलाकर पौषधशाला For Personal & Private Use Only * चुलशतक श्रावक का पंचम अध्ययन Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 49 अनुवादक - बालवह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी उवसपजित्ताणं विहरति ॥ १ ॥ तणं तस्स चुल्लगसयगस्स पुवरन्त्तवरतकालसमयसी एगेदेवे अंतियं पाउ भवित्ता, जाव असिंग्गहाय एवं वयासी-हं भोच्च सयग्गा जाव नमजसि तो ते अज जेटुं पुत्तं साओ गिहाओ णीणेमी; एवं जहा चुलणीपियं. नवरं एक्वेक्क सत्तमंससोल्लया जाव कणियंसं जाव आइचामि ॥ २ ॥ तएवं से चुल्लसए अभीए जाव विहरति ॥ ३ ॥ एणं से देवे चुल्लसयं चउत्थंपि एवं वयासी हंभो चुल्लसयग्गा ! जाव नभंजसि तोते अज्र जाओ इमाओ छहिरण्णकोडीओ, णिहाणपउताओ, छबुडीपउताओ, में श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी पास अंगीकार किया धर्म विशेष शुद्ध पालता विचरने लगा।।१ ॥ तत्र चुल्ल शतक के पास आधी रात व्यतीत हुवे एक देवता प्रगट हुवा, कामदेव के अध्ययन में कहा जैसा रूप बनाकर हाथ में खड्ग धारन कर कहने लगा-भो चुल्लशतक ! जो व्रत का भंग न करेगा तो तेरे बड़े पुत्र को तेरे सम्मुख मारकर उस के मांसके सात टुकडे कर कडाईम तलकर तेरे शरीर पर छांदूंगा. यों चुल्लनीपिताकी विशेष एकेक के सात २ टुकडे किये कडाइ में तलकर चुल्लशतक के शतक डरे नहीं यावत् धर्म ध्यान ध्याते हुवे विचरने लगे ॥ ३ ॥ तब यों बोला भी लशतक ! जो तू व्रत नहीं भंगेगा तो तेरा आज तरह तीनों पुत्रों को मारे, इतना शरीर पर छांटे || २ || तब चुल्ल वह देव चुल्लशतक से चौथी वक्त For Personal & Private Use Only * प्रकाशक - राजा बहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * ९० ( Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 48 सप्तमांग-उपशाक दशा मूत्र + छपवित्थरपउताओ,सव्वाओ गिहाओणीणेमि २ त्ता आलंभियाए णयरीए सिंघाडग जाव पहेसु सव्यओ समत्ता विप्पइरासि, जहणं तुमं अट्ट दोहट्ट वसट्टे अकालेचेव जीवियाओ ववरोवजसि ॥ ४ ॥ तएणं से चुल्लगसए तेणेदेवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरति ॥५॥ ततेणं से देव चुलगलयं अभीयं जाव पासित्ता दोच्चंपि तचंपि तहेव भणंति जाव ववरोविजासि ॥६॥ तएणं तस्स चुल्लगसयस्स तेणं देवेणं दोच्चंपि तच्चपि एवं वृत्त समाणे,अयमे प्र! रूवे अज्झथिए जाव समुपजित्था-अहोणं इमे पुरिसे अणारिए जहा चुल्मणिपिता तहा चिंतेति जाव कणियसे जाव आइचति, यह छे हिरण्य कोही का दव्य निध्यान में है सो, छे कोडी व्यापार में है सो, और छ कोडी का बखेरा है मो यों अठाराही कोडी का द्रव्य ग्रहण कर इस आलंभिका नगरी के त्रीवट १ चौवट यावत् महा पंथ में चारों तरफ विखर देवूगा-फेंक देवूगा ; जिस से तू आर्तध्यान ध्याकर दुःखी हो अकाल मृत्यु पावेगा ॥ ४ ॥ तब चुल्लशतक उस देवताका उक्त वचन श्रवण कर डरा नहीं यावत् । धर्म ध्यान ध्याता विचरने लगा॥ ५ ॥ तब वह देव चुल्लशतक को निडरपने धर्म ध्यान ध्याता देख, दो वक्त तीन वक्त कहा तेरा अठारा क्रोड का धन विखेर देवूगा, जिस से तू अकाल मृत्यु पावेगा ॥६॥ तब चुल्ल शतक उस देव का. दो तीन वक्त उक्त बचन श्रवण कर यों विचारने लगा-अहो । चुल्लशतक श्रावक का पंचम अध्ययन 48 - For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचरी मुनि श्री अकोलक ऋषिजी जाब वियणं इमाओं मम छहिरपण कोडीओ णिहाणपउत्ताओ, छबुटिपउत्ताओं, छपवित्थरपउताओ, तओवियणं इच्छंति मम सातोगिहातो णीणेता आलभियाए नगरीए सिंघाडाएय जाब विप्पइरित्तते, ते सेयं खलु मम एत्तं पुरिसं गिण्या-तए तिकटु उट्ठतिते, जहा सूरादेवे तहेव भारिया पुच्छति, तहेव कहेति॥७॥सेसं जहा चुल्लणीपियस्स जाव सोहम्मे कप्पे अरुणसिटे विमाणे उवयन्ने चत्तारिपालओवमाइं द्विती, सेसं तंचव जाव सिज्झिहिति॥ ८॥ निक्खवो उवसगदसाणं पंचमं झयणं सम्मत्तं ॥ ५॥ x यह कोई अनार्य पुरुप है इसने मेरे तीनों पुत्रों को भी मारे और मेरा १८ क्रोडका धन आलंभिका नगरी के श्रीवद यावत् महा पंथ में विश्वेरने का कहता है, इस लिये इसे पकडूं ,यों विचारकर उठे, वह देव आकाश में भग गया,स्थंभ हाथमें माया,कोलाहल शब्द किया, इसकी बहुला भार्या वहां आई, उसे सब वृत्तांत मुनाया, उसने मुरादेव की तरह समझाकर प्रायःश्चित्त लेने का कहा, चुल्ल शतक प्राय:श्चित्त ले शुद्ध हुवा ॥७॥ शेष चल्लनी पिता के जैसे यावत् इग्यारे प्रतिमाका आराधन किया,एन महीनेका संचारा, प्रथम देवलोक अरुण विशिष्ट विधान में देवता हुवे, चार पल्योपम का आयुष्य, महा विदेह में सिद्ध होगा यावत् सर्व दुःख का क्षय करेंगे ॥ इति पांचवा चुल्लशतक श्रावक का अध्ययन संपूर्ण ॥५॥ . . काश्क-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्यापलद जासी* For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - winneHAMPA सप्तमांग-उपाशक दशा सूत्र ॥पष्टम अध्ययनम् ॥ छट्ठस्स उक्खेवओ-एवं खलु जंबू ! तेणंकालेपण तेणंसमएको जिपर न घरे. सहसंबणे उज्जाणे, जित सत्तूराया, कुंडकालीए गाहावती, पुंसा भारिला हिरण कोटीनिहाण पउत्ताओ,छ बुढिपउत्ताओ के पवित्थरपउताओ, छब्बया दराम साहसीएमं वएणं ॥ सामीसमोसढे अहाकामदेवोतहासावयधम्म पडिवजह सेसवेवन्तवनयाजाव पडिलामेमाणे विहरति ॥ १ ॥ तएणं से कुंडके लिए समणोवासए अन्नयाकायाइ पुवावरण्ह काल छठे अध्ययन का उक्षेप-यों निश्चय हे ज! उस काल उस समय में कम्पिरपुर नगर था, सहश्रम्ब उद्यान. था, जितशत्रु राना था, वहां कुंडलिक गाथापति रहता था, उसकी पुसा नामकी भार्या थी, कुंडकोलिक गाथापति के छ हिरन्य कोडीत निधान में था, छ हिरन्य कोडी व्यापर में था, छे हिरन्य कोही का घरबखेरा था, दशहजार गाय का एक वर्ग के वर्ग का साठ हजार गौथी, ॥ श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी पधारे, साश्रम्म उध्यान में अपग्रह ग्रहण कर विचरने लगे, परिषदा दर्शनार्थ आइ कुंडकोलिक गाथापति भी माया, धर्म कथा सुनाई, परिषदा पीलीप, कुंडकालिक गाथापतिने आणंद श्रावक की तरह गृहस्थ धर्म बारा व्रत धारन किया, और मई से ही यादत् चवदह प्रकार का दान देता हुवा विचर रहा था, ॥१॥ तब कुंडकोलिया श्रमणो पासक अन्यदा 2980कुंड कोलिक श्रावक का षष्टम अध्ययन 1 4.80 For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी समयसि (पाठान्तर-पुन्धरत्ता वरत्तकालसमयसी)जेणेव अमोगवणिया,जेणेव पुढविसिला पट्टए तेणेव उवागच्छइ २ त्ता, नाममुद्दगंच उत्तरिजंगंच पुढवीसिलापट्टए ठवेइ २त्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अतियं धम्मं पण्णंति उवसंपजित्ताणं विहरंति ॥ २ ॥ तएणं तस्स कुंडकोलियरस समणोवासयस्स एगदेवे अंतियं पाउभवित्ता ॥ ३॥ तएणं . से देवे णाममुदगंच उत्तरियंच पुढवीसिला पट्टयाओ गिण्हति २ त्ता संखिखिणीयं ___ अंतलिक्खं पडिवन्ने कुंडकोलियं समणोवासयं एवं क्यासी-हंभो कुंडकोलिया! सुंदरीणं किसीवक्त मध्यान्ह काल (दोपहर) में कितनेक कहते हैं अर्धरात्रि व्यतीतहुवे) जहां आशोक बडीमें पृथ्वीसिलापट्ट था,तहां आया,आकर नामांकित मुद्रिका और उतारने योग्य वस्त्रको उतार कर एकान्तमें रक्खे, रक्खकर श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी के पास धारन किया धर्म को अङ्गीकार कर विचरने लगा ॥२॥ तब उस कुडकोलिक श्रावक के पास एक देवता प्रगट हुवा ॥ ३॥ तब वह देवता पृथ्वीसिला पट्टके ऊपर रखे हुवे नामांकित मुद्रिका और वस्त्रों उठाकर घुपरीयों घपकाता हुवा आकाश में ख़डारहा और कुंडकालिक श्रमणो पासक से यों कहने लगा-मो कंडकोलिया श्रमणो पासक ! गौशाला मंखली का कहा हुवा धर्म बहुत अच्छा है क्यों कि जिस में उत्थान-कर्म * बल-वीर्य-पुरुषाकार पराक्रम नहीं हैं। * किस बजन दार वस्तु को उठाने का विचार करना वह उत्थान, २ उस के सन्मुख जाना व कर्म, ३ उठेगा । मश राजावहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* 1 For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमांग-उपाशक दशा मृत्र 498 अर्थ देवाणुप्पिया ! गोसालस्स मक्खलिपुत्तरस धम्मपण्णत्ती, नत्थिउट्ठाणेइवा, कम्मेइवा, बलेइवा,विरिएइवा,पुरसकारपरक्कमेइवा जाव नियतासव्वभावा, मंगलीणं समणस्स भगवओमहावीरस्स धम्मंपण्णत्ती अत्थिउठाणेइवा जाव परक्कमेइवा,अनित्तयासब्वभावा ॥४॥ तत्तेणं से कुंडकोलिए तं देवं एवं वयासी-जइणं देवाणुप्पिया ! सुंदरी गोसालस्स मंखलि पुत्तस्स धम्मं पण्णत्ती, णत्थि उट्ठाणेवा जाव णितए सव्व भावा, मंगुलीणं समणस्स भगवओ महावीररस धम्म पणत्ती अस्थि. उट्ठाणेईवा जाव अणितया जैसा नियत भाव होनहार होता है तैसा ही होता है. और श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी प्ररूपित धर्म अहित कारी है; क्यों कि जिसमें उत्थान कर्म बल वीर्य पुरुषाकार पराक्रम है. अर्थात् सर्वकार्य उद्यम किये सेही होते हैं, ऐपा अनियत भाव है, ॥ ४ ॥ तब कुडंकोलिया श्रावक उस देवतासे ऐसा बोला-यादे हे देवानुप्रिय ! गौशाला पखली पुत्र प्ररूपित धर्म बहुत १ अच्छा है क्यों कि जिस में उत्थान कर्म बल वीर्य पुरुषात्कार कुछ नहीं है, सब काम होनहार मुजब ही होता है ऐसा नियत भाव है, और श्रमण भगवंत महावीर स्वामी के मरूपित धर्म 4 है या नहीं ! ऐसा अजमाना वह बल, ४ उठान. वह वीर्य, ५ स्कंध मस्तकादि चिन्तित स्थान रखना वह पुरुषात्कार, .. और जिस स्थान रखना है पहोंचादेना वह पराक्रम, कुण्डकोलिक श्रावक का षष्ठम अध्ययन कर 482 For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वभावा, तुमेणं देवाणुप्पिया ! इमा एयारूवा दिव्वादेविट्ठी, दिव्वादेवजूई, दिव्वे देवाणुभावे किंणालद्धे किणापत्ते किणा अभिसमणागए, किं उट्टाणेणं जाव पुरिसक्कार परक्कमेणं उदाहु अणुट्ठाणेणं जाव अपरिसक्कारेणं ? ॥ ५ ॥ तएणं से देवे कुंडकोलियं समणो वासय एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! इमेयारुवा दिव्या देविट्ठी अणुट्टाणेणं जाव अपुरिसकार परक्कमेणं लद्धा पत्ता अभिसमणागया ॥ ६ ॥ तएणं से कंडकोलिय तं देवं एवं वयासी-जइणं देवाणप्पिया ! तुमे एयारूवे दिव्या देविड़ी 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी में अमंगल है क्योंकि जिसमें उत्थान कर्म बल वीर्य पुरुषात्कार पसक्रम है, कार्य किय से होता है ऐसा अनियत भाव है. तो हे देवानुप्रिय ! तुमारे को यह दिव्य देवता सम्बन्धी ऋद्धि, दिव्य देवता सम्बन्धी द्युतिक्रान्ती, दिव्य देवता सम्बन्धी भाव, किस प्रकार मिला है, किस प्रकार प्राप्त हुवा है, किस प्रकार सन्मुख आया है, क्या उत्थान कर्म बल वीर्य पुरुषात्कार पराक्रम के फोडने से मिला है, कि विना उठान कर्म बल वीर्य पुरुषात्कार पराक्रम फोडने से मिला है कहो?॥५॥ तब वह देव कुंड कोलिक श्रमणोपासक से इस प्रकार बोला-यों निश्चप, हे देवानुप्रिय ! मुझे यह इस प्रकार की दिव्य देवता सम्बन्धी ऋद्धिमा १द्युति-भाव विना उत्थान कर्म बलवीर्य पुरुषात्कार पराक्रम किये ही मिला है, प्राप्त हुवा है, सन्मुख आया है॥६॥ तब कंडकोलिक श्रावक उस देवता से इस प्रकार बोला-यदिहे. देवानमिय! तुमारे को इस • प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी जी ज्वालाप्रसादजी For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के 4:-*सहयोग-उपासक दशा सूत्र 488+ ३ जाव अणुट्ठाणे जाव अपुरिकारपारक्कमेवा ला पचा अभिमनाथमा ॥ जेसिणं जीवाणं नत्थि उट्ठाणेइवा जाव परकमेइवा तर्किणं देवा ? अहेणं देवाणुप्पिया ! "तुमे इमाएयारुवा दिव्वादेविठ्ठी ३ उट्ठाणेणं जाव परक्कमेणं लापत्ता अभिसन्नागया; एव न भवति तो जंवदसि सुंदरीणा गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स धम्मपण्णसी, जत्ि "उठावा जाव नितीया सन्व भावा मंगुलीणं ? समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मपणती अस्थि उट्ठाईवा जाव अणित्तया सव्वभावा तं ते मिच्छा ॥७॥ तरणं से देवे - कुंडलिएणं समण वासएणं एवंवृत्ते समाणे संकीए जाव कलुससमावण्णे, की देवता की ऋद्धि बिना उत्थान कर्म वल वीर्य पुरुषात्कार पराक्रम से मिली है, वो मिन उत्थान कर्म दल बीर्य पुरुषात्कार पराक्रम नहीं है अर्थात् जो जीव तपर्सवमादि करनी नहीं करते हैं जीव देवता क्यों नहीं होजाते हैं, इस लिये हे देवानुमिय: तेने यह दिव्य देव सम्बन्दी ऋदि सुवि {इस्थादि जो श्राप्त की है वह उत्थान यावत् पराक्रम से ही उपलब्धन्यास हुई है और इस लिये हे देवानुप्रिया ! जो सु बोला कि गोसला मंखली पुत्र का धर्म बहुत अच्छा है. बिना उत्थानादि, का नीयत भाव मामाने होता है और श्रमण भगवम्त श्री महावीर का रूप्पा धर्म उत्थानादि बुक यावत् अनीयत भाष का बुरा है. यह तेरा कहना मिथ्या है ॥ ७ ॥ तव देवता कुंडकोलिक श्रमणोपासक का जीवों के For Personal & Private Use Only ++++ कुँडकोलिक श्रावक का पहन अध्ययन 44 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । अनुवादक- लिब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + नो संचाएति कुंडकोलीए समणोवासबस्स किंचि पामुक्ख मातिक्वितित्ते, नामसुदयं । उत्तरिजयंच पुढविसिलाषटए ठवेइ २ सा जामेय दिसिंपाउञ्भूया तामेवदिसि पडिगयां ॥ ८ ॥ तेणंकालेणं तेणंसमएणं सामीसमोसड्डे ॥ २ ॥ तत्तेणं से कुंडकोलीए इमीम कहाएलट्ठे हट्ठ तुढे जहा कामदेवो तहा निग्गच्छति जाव पाजुवासति ॥धम्मकहा। कुंडकोलीयाइ, समणे भगवं महावीर कुंडकोलिय समणोवासयं एवं क्यासी-सेनणं कुंडकोलिया! कल तुम्भं पुवावरण्ड कालसमयंसि(पा. पवस्त्तवस्त्त कालसमयंसि) उक्त अर्थ श्रवण कर शंकित हुवा कांक्षित हुवा भ्रमर जाल में पहा यावत् चित्त में कलुषता भाव उत्पन्न हो. कुंडकोलिक श्रावक को किंचित भी प्रत्युत्तर देने समर्थ नहीं हुवा,वह नाम कित मुंद्रिका और वख पीछे ही स्थान मिलापर रक्खकर जिस दिशा से आयाथा उसदिशाा पीछा चलागया | उस काल उस समय में श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी पधारे ॥२॥ तब कुंडकोलिक श्रव भगवंत आगम सुन खुशी हुका जिस प्रकार कामदेव दर्शन करने आया था तैसेही कुंडकोलिक भी आया यावत् सेवा करने लगा. भगवंतने धर्म का कही,फिर सर्व परिषदा के सन्मुख कुंडकोलिक से श्रमण भगवन श्री महावीर स्वामी यों कहने लगे हे कुंड कोलिक ! काल तुमारे पास मध्यान्ह काल में (स आधीरात्रि व्यतीत हूँ के) अशोक. वाडी में एक , काश बाबहादुर लाला मुखवसहायजी बालाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 488+ समांग उपाशक दशा सूत्र 4 · आसोमवर्णियाए, एगेदेवे अंतियं पाउन्भवित्था; ततेणंसे देवे नाम मुद्दच जाव पडिगए, से कुंडोलिया ! अट्ठे समट्ठे ? हंताअस्थि ॥ तं धण्णेसिणं तुमे, जहाँ काम देवो ॥ १० ॥ अज्जोति, समणे भगवं महावीर णे णिग्गंथाय णिग्गंथीओय तो एवं वयासी- जइताव अजो ! गिहिणो गिहिमज्यसंत्ताणं अण्णउत्थिए अट्ठेहिय ऊहिय पसिहिय कारणेहिय वागरणेहिय णिपटुपसिंणबागरेणं करेंतए; सक्कापुणाई अजो! समणेहिं ग्गिंथेहिं दुबालसंगं गणिडिगं अहिज्जमाणेहिं अण्णउत्थिया अट्ठेहिय जाणिव परिकरित्तए ||११|| तएवं समणा णिग्गंथाय णिग्गस्थिओय समणस्स [देवता मगर हुवा था याबद तुमने उम को निरुत्तर किया, तब वह पीछा गया. यह अर्थ है सच्चा है क्या ? कुंडकोलिक बोला- हां भगवन्त ! सच्चा है. भगवान ने कहा- हे कुंडछोलिक ! इस लिये तुपारे को धन्य है ? जिस प्रकार कामदेव की प्रशंसा की उसी प्रकार इसकी भी प्रशंसा की ॥ १० ॥ अहो आर्यो! श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने निर्ग्रन्थ (साधु) ओको और निर्ग्रन्यी (साध्वी) को आमंत्रणकर कहने लगे-यदि हे आर्यों! यह गृहस्थावास में रहा हुवा गृहस्थ ही अन्य तीर्थिक देवता को शास्त्रार्थ कर, हेतु दृष्टान्तकर, प्रश्नोत्तर कर, (वचन की वागरणाकर, निरुत्तर मिटकिया, तो हे आर्यो! तुमतों समर्थ हो द्वादशांग शास्त्रके पठिक हो, तो तुम भी अन्य सीर्थिक को सार्थ कर यावत् निकृष्ट-उत्तर रहित करना चाहिये ||११|| तब श्रम निर्ब्रन्थ For Personal & Private Use Only 488+ कुंडकोलिक आपक का षष्टम अध्ययन 488* Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mimmmmmmmmmmmmmmmm भगवओ महावीरस तहत्ति एयमटुं विणएणं पडिसुणेतिः ॥१२॥ तएणं से कुंडकोलिए। समणं मगवं महावीरं वंदति णमंसतिरचा पसिणाइ पुछंतिरत्ता अट्ट मादियंतिरचा जामेव दिसि पाउम्भूया तामेत्रदिसि पडिगए॥१३॥सामी बहिया जणवयं विहारं विहरंति ॥११॥ तएणं तस्स कुंडकोलियस्स बहुहिंसीलन्वय जाव भावेमाणस्स बौदस संवराति वितिकता, पारसमंसंवश्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स अण्णया कयाइ जहा कामदेवो T +8 अनुवादक-बालबमचारी मुनिश्री अबोसन पिणी: E निप्रन्पीयोंने श्रपत्र भगवंत महावीर स्वामी का पचन तहति इसमकार उक कथनको सविनय प्रमानकिया nब कुंडकोलिक श्रावक श्रमण भगवंत महावीरस्वामीको चंदना नमस्कार किया प्रश्नपूणे, उत्तर पारन किये, फिर जिस दिशा से आयाया उसदिशा पीछागया॥१३॥ अन्यदा श्रमण भगवंत महावीरस्वामीने भी माहिर विहार किया ॥ १४ ॥ सब कुंडकोलिक श्रावक बहुत सील प्रत पोषधोपवासादि करनी करते है चौदा वर्गबतीत हुवे, सब पनरहवा वर्ष बरतते आधीरात्रि व्यतीत हुने धर्म जागरणा जागते हुने कामदेव के जैसा विचार हुवा, यावत् प्रातःकाल ज्ञातीयादी को भोजन करा बडे पुत्र को घर का भार सुपरन राती को पुत्रको पूछकर पौषधशाला में जाकर दर्भयारे पर बैठकर महावीर स्वामी प्रार्म विभुदन शेती से पासता इस विचरने लगा. इग्यारे श्रावक की प्रतिमा का सम्पर कार में आराधन किया, एक -राणायादुर लामा मुखदेवसानी नालासादमी. ma For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 तहा जेटुं पुत्वं कुटुंबटुवित्ता, तहा पोसहसालाए जाय धम्मपणंति उवसंपनिसान विहरति ॥ एवं एकारस्स उवासम्ग पडिमातो ॥ तहेव सोहम्मेकप्पे अरुणझते विमाणे जा अंतकाहिति ॥ १५ ॥ निक्खेबो उपासगदसाणं छटुं अज्झयणं सम्मत्तं ॥६॥ भीने की मलेपना की, साठ भक्त अनशन छक कर काल के अक्सर काल पूर्ण कर प्रथम सौधर्षा देव सोक के अरुपवा विमान में देवत्तापने उत्पन्न हुवा, चार फल्योपम का आयुष्य पाया ॥ १५ ॥ सहा से मायुष्य का भव का स्थिति का क्षय कर महा विदेड क्षेत्र में अवतार ले सिद्ध बुद्ध मुक्त होगा ॥१६॥ निक्षेप वपासक दांग का सब कहना ॥ इति छठा कुंडकोलिक श्रावक का अध्ययन संपूर्ण ॥६॥ माम-उपासक दशा भून Arrivanswmmmmwwwwwwwwwwwwwwwwwww मासिक श्रावक का बययन 3 Hit For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GaramM ११ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋपिजी + * सप्तम-अध्ययनम् * सत्तमरस उक्खेवी-पोलासपुरनासं नगरे, सहसंबणं उज्जाणं, जियसत्तुराया, ॥ १ ॥ तत्थणं पोलासपुरणयरे सहालपुत्ते नामं कुंभकारे आजीवितोवासए परिवसइ,आजीविय समयंसि लडढे, गहियटे, पुच्छियटे, विणिच्छियटे. अभिगयटे, अट्टिमीजापेमाणुरागरत्तेय; अयमाउसो! आजीवियसमए अटे, अयंपरमटे, सेसे अण?त्ति; एवं आजीविय समएणं अप्पाणं भवेमाणे विहरई ॥ २ ॥ तस्सणं सद्दालपुत्तस्स आजीवि उवासगरस सानवा अध्ययन का उक्षेप-उस काल उस समय में पोलासपुर नामका नगर था, तहां सह श्रम्ब नामका उध्यान था, जित शत्रु नामका राजा था ॥१॥ उम पोलासपुर नगर में सदालपुत्र नामका कुंभकार आजिविका पंथी (गोशाले के मतका उपासक) रहता था, आजीविक धर्मका अर्थ को ग्रहण किया था. संदेह सो पुच्छा था, नि:संदेह निश्चितार्थ हुवा था, ग्रहण किये अर्थमें विशेषज्ञ बना था,उसकी हड्डीयों मीजीयों है आजीविका पंथ में प्रेमानुराग रक्त वनीथी, वह कहता था हे आयुष्यमान! आजीविका धर्म है वही अर्थ है, वही परमार्थ है, इससिवाय शेष अनर्थ है, इस प्रकार आजीविका (गोशाले प्रणित ) धर्म में अपनी आत्मा को । हुवा विचरता था ॥ २॥ उस सदाल पुत्र आजीविका के उपशाक के एक हिरन्य कोडी निधान । प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी, सभाव in Education International For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486 सामांच-उपाशक दशा सूत्र 488 एकाहिरण्य कोडीनिहाणपउत्ता, एक्कबुढीपउत्ता, एकपवित्थरपउत्ता, एगेवए दसगोसाहस्सिएणं वएणं ॥ तस्सणं अग्गिमित्ताणामं भारियाहोत्था ॥३॥ तस्सणं सद्दालपुत्तस्स आजीवि उवासयरस पोलासपुरस्प्त णगरस्स बहिया पंच कुंभकारावणसयाहोत्था, तस्सणं वहवे पुरिसा दिण्णभइभत्तवेयणा कल्लाकलिं यहवेकरएय, वारण्य, पिहडएय, घडएय, अधघडएय, कलसएय, अलिंजरएय, जंबूएय, उहियाओय करेंति, । अण्णेय से वहवे पुरिसा दिण्णभइभत्तिवेयाणा, कलाकलिं तेहिं बहुहिं करएहिय जाच उट्टियाहिं थी, एक डिरम्य कोही व्यापार में थी, एक हिरन्य कोडी का पाथारा (बिखेरा ) था, दशहजार गौका एक वर्ग ऐसा एक वर्ग गौका था और उसके अग्निमित्रा नामकी भार्या थी ॥३॥ उस सद्दाल आजीविका उपाशक की पोलास पुर नगर के बाहिर पांचसो कुंम्हार की दुकानो थी, उस में बहुत । *पुरुषों को भोजन काविभाग दिया था, और पगार-वेतन देना ठेराया था, वे कालो काल बहुत करवे ( छोटे तूत्ती वाले लोटे). कराचा (बडे लोटे) घडे, आधे घडे, कलश, कुंडे, कोठी, जंबु (कुज्ज) 4 उदिय ऊटकी गरदन के आकार के घड़े इत्यादि और भी बहुत वरतनों बनाते थे, और अन्य बहुत पुरुषों भोजन के विभागी बेतन बाले उन बरतनो को ग्रहण कर श्रीक्ट चौवद यावत् राज्य पंथ में mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmma महोलपुत्र श्रावक का मप्तम अध्ययन 49 For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तं रायमगंसि वित्तंकप्पेमाणा विहरंति ॥ ४॥ तत्तमं से सद्दालपुत्ते आजीवितोवासए अण्णयाकयाइ पुवावरणकाल समयंसि (पाठान्तर-पुव्यरत्तवरत्त कालसमयंसि) जेणेव आसोगणिया तेणेव उवागच्छइ २ त्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंतिय धम्म पण्णति उनसंपजित्ताणं विहरंति ॥५॥ तएणं तस्स सदालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स एगेदेवं अंतियं पाउब्भवित्था ॥ ६ ॥ ततेणं से देवे अंतलिक्खपडिवन्ने सखिखिणि- . याइंवत्था जाव पवरपरिहिए सद्दालवुपुत्तं आजीविआवासयं एवं वयसी-एहीतिणं देवाणुप्पिया! कल्लं इह महामाणे उप्पण्णणाण दंसंणधरे, तीयप्पडूप्पणमणागयं जाणए, पंचकर अपनी वृती-उपजीविका करते हुवे विचरते थे ॥४॥ तब वह सद्दालपुत्र अन्यदा किसी वक्त मध्यान में दो पार दिन की वक्त (पाठन्तर-आधीरात्रि व्यतीत हुवे ) जहाँ आशोक वाडी थी तहां आया, तहाँ आकर गोशाला मेखलीपुत्र का कहा हुवा धर्म अंगीकार करके विचरने उगा ॥५॥ तब उस सद्दालपुत्र आजिविका पंथी के पास एक देवता प्रगट हुवा ॥ ६ ॥ तब वह देवता आकाश में ऊभारहा घुघारीयों धमकाता (पजाता) हुवा प्रधान पंचवर्ण के वस्त्र धारन किये हुवा सद्दालपुत्र आजिवका उपासक से इस प्रकार बोला-हे देवानुप्रिया! कल प्राप्तःकाल हुवे यहां महा माहन जिनो को केवल ज्ञान केवल दर्शन उत्पमा महुवा ऐसे जो अतीत-भूत काल,प्रत्युपन्न वर्तमान काल और अनागत-भविष्यकाल तीनो में काल के बानने वाले, 4. अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी काधक-राजावादरखसाखदवसहायजी ज्वालामसादनी अर्थ For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4181- सप्तर्मान- उपाशक दशा सूत्र 418+ अरहाजिणे केवली, सव्वष्णू सव्यदरिसी, तिलोक हिय महिय पूईए, सदेवमणूया सुररस लोयरस अचणिचे वंदणिज्जे पूयणिजे सकारणिजे सम्माणणिजे, कल्लाणं मंगलं, देवयं चेइयं जात्र पज्जुवासणिज्जे, तवोकम्मं संपया संपत्ते, तष्णं तुम्मं वंदेज्जाहि जाव पज्जत्रासेज्जाहि, परिहारिएणं पीढफलगसिज्जा संथारएण उवणिमंतेजाहिं. दोपि तप एवं चपासी जामेवदिसिं पाउन्भूए तामेवदिसिं पडिगए ॥ ७ ॥ तरणं तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीविय उन्चासगरस तेणं देवेणं एवं वृत्तसमाणस्स इमेयारूत्रे अज्झत्थिय जईन्स जिनेश्वर केवल ज्ञानी- निर्दोष, तीन लोक के जीवों के अर्चनीक पूज्यनीक सब देवता मनुष्य सुरलोक के अर्चनीक बंदनीय पूज्यनीय कल्यान के करता, मङ्गल के करता, देवाधीदेव यावत् सेवा मति { करने योग्य जिनको तपकर्म से प्राप्त हुइ सम्पदा उस युक्त अर्थात् विशुद्ध तप के प्रभाव से घन पातिक { कर्म का नाश हो अनन्त चतुष्य अतिशयादि ऋद्धि के धारक हुवे हैं, वे यहां आयेगे. उनको तू वंदना { नमस्कार करना, उनकी सेवा भक्ति करना, उन को पडिहारे ( पीछे ग्रहण किये जावे ऐसे) पाट पाटले मकान की आमंत्रणा करना. इस प्रकार वह देवता दोतीनवक्त कहकर जिसदिशा से आया उस दिशा (देवस्थान) में पीछा गया। तब सदासपुध जजीविका उपाशक उसदेव के पास उक्त कथन श्रबनकर मन में विचार करने लगा For Personal & Private Use Only 438+ सहालपुत्र श्रावक का सप्तम अध्ययन 48+ ( Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अनुवादक-कालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक पिजी . जाव समुप्पन्ने-एवं खलु मम धम्मायरिए धम्मोयएसए गोसाले मखलीपुत्ते, से णं महामाणे उप्पण्णणाणं दसणधी जाव तवोकम्मं संपयासंपओते, सेणं कलं इहं हवमागछिस्संति, तत्तेणं अहं बंदिस्ताम जाव पज्जुवासामि, पाडिहारिएणं जाव उवनिमं. त्तिस्सामि ॥ ८ ॥ तत्तेणं कल्लं जाव जलंते समणे भगवं महावीरे जाव समोसड़े, परिसाणिग्गया जाव पज्जुवासति ॥९॥ तएणं से सहालपुत्ते आजीविय उवासय इमीसे - कहाए लट्ठ समाणे एवं खलु समणे भगवं महावीरे जाव विहरंति, तं गच्छामिणं समर्ण भगवं महावीर बंदामी नमसामी जाव पज्जुवासामी, एवं संपेहति २ त्ता हाए जाव यो निश्चय मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक गोशाला मेखली पुत्र चे ही महामहान उत्पन्न ज्ञान दर्शन के धारक यावत् तप कर्म से सम्बदा को प्राप्त करनेवाले हैं, वे यहां काल प्रात:काल में आगे तब मैं उन को वंदना नमस्कार करूंगा यावत् उन की सेवा भक्ति करूंगा; पाटिहारे पाट पाटले देवूगा ॥ ८ ॥ तपासा काल होले श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधारे, परिषदा दर्शनार्थ आई. संवा भक्ति करने लगी ॥९॥ तब सदाल पुत्र आनीविका उपाशक भगवंत पधारने की वारता श्रवण कर अवधार कर विचार करने लगायो निश्चय श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधारे हैं यावत् तप संयम से आत्मा भावते विचर से हैं, इस लिये मैं जावू. श्रमण भगवंच महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार करूँ. यावद सेवा भक्ति कर. यों * प्रकाशक-राजाबहादुर लाळा मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. अर्थ For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4+ सप्तमांग उपाशक दवा सूत्र पायच्छित सुद्धप्पावेसाई जब अप्पमहग्घाभराणालंकीय सरीरे, मणुस्वग्गुल परिगते, सातो गिहातो पडिनिग्गच्छति २ त्ता पोलासपुरं नगरं मज्झ भझेणं निगच्छति सत्ता जेणेव सहसंबत्रणे उज्जाणे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेक स्वागच्छइ २त्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति वदति नम॑सति स्त्ता जाव पज्जुवासंति ॥ १० ॥ तत्तेयं समणे भगवं महावीरे सदालपुत्तस्स आजीविय उवासमस्स महाति महालया जाव धम्मंकहेइ, जावधम्मक हा समत्ता॥ ॐ ॥ सद्दलिपुत्ताई, भगव "महावीरे सद्दालपुत्तं आजीवियज्वासयस्स एवं वयासी-सेपूर्ण सद्दालपुत्ता ! कल विचार कर स्नान किया यावत् शुद्ध हुवा अच्छे स्थान में प्रवेश करने योग्य अल्पभार बहुत मूल्य वाले वस्त्रालंकार से शरीर को अलंकृत किया, बहुत मनुष्यों के परिवार से परिवरा हुवा अपने घर से निकला, निकलकर पोळास पुर नगर के मध्य (बजार) में होकर जहाँ सहस्रम् उद्यान जहां श्रमण भगवंत महावीर स्वामी थे तहां आया, आकर तीन वक्त हाथ जोड प्रदक्षिणावर्त फिरकर वंदना नमस्कार किया, वंदना नमस्कार कर सेवा भक्ति करने लगा ॥ १० ॥ तव श्रमण भगवन्त महावीर स्वामीने महाल पुत्रको और उस महापरिषदा को धर्मकथा सुनाई ॥ ११ ॥ सद्दाल पुत्र से श्रमण भगवंत महावीर स्वामी यों कहने लगे निश्य हैं लद्दाल पुत्र ! कल दो प्रहर दिन व्यतीत हूं वे ( या आधीरात्रि व्यतीत हुवे ) जहां आशोक For Personal & Private Use Only ' * सहालंपुन श्रार्षक कान्ससमः अध्ययन 48: १०७ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुमं पुव्वावरण्हकाल ( पुल्वरतवरतकाल ) समर्थसि जेजेब आसोगणिया जात्र विहरति, तणं तुम्भंएगे देवे अंतियं पाउ भविता तचेणं से देवे अंतरिक्ख पढिवणे एवं वयासी- हंभो सद्दालपुत्ता ! तंचेव सव्ब जाव पज्जुवासिस्सामि, से सेण्णूर्ण सद्दालपुत्त: ! अट्ठे समट्ठे ? हंता अस्थि ॥ १२ ॥ तं नो खलु सद्दाल पुचा । तेणं गोसाल मेखलीपुत्तं पणिहाय, एवं वृत्ते ॥ १३ ॥ तरणं तस्स मद्दाल पुस समणेण भगवया महावीरेंणं एवं वृत्त समणस्स, इमेयारून अञ्झत्थिाए जाव. समुत्था-सणं समणे भगवं महावीरे महामहाणे, उप्पण्ण जाण दंसणधरे जाव वाडी है तू जाकर यावत् अपनी आत्मा को भावता विचरता था, उस वक्त तेरे पास एक देवता ममट {डुवा, सर्व व्यतीकर कह सुनाया, यावत् सेवा भक्ति करना ऐसा कहकर वह देव-जिस दिशा से आया था, उस दिशा पीछा गया, यह अर्थ योग्य है सत्य है ? साल पुत्र बोला- हां भगवान ! मस्य हैं।॥ १२॥ इसलिये निश्चय, हे सदाय पुत्र ! उस देवताने गोशाला मंखली पुत्र का आगम दरशाया नहीं या ॥ १३॥ तब सहाल पुत्र श्रमण भगवंत- महावीर स्वामी के उक्त बचन श्रवण कर इस प्रकार अध्यवसाय यावत् उत्पन्न दुवा, यह श्रमण भगवंत महावीर ही महामहान हैं, उत्पन्न ज्ञान दर्शन के धारक हैं, तप कर्प से सम्पदा -इन को ही मात्र हुइ है, इसलिये मुझे श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार करना - यावत् *-: मनुवादक-वालाचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिमी For Personal & Private Use Only -राजा बहादुर लाखा मुखदेबमहायजी ब्वालाप्रसादजी १०८ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तोकम्मं संपया संपउत्ते, तं सेयं खलु ममं समणं भगमं महावीरं बंदिचा नमंसित्ता; पाडिहारिएणं पीढफलग सेजासंथार जाव उवनिमंतिर, एवं संपेहेतिरत्ता उट्ठाए उ8. तिरत्तासमर्ण भगवं महावीर वंदति नमंसतिरत्ता एवं वयामी-एवं खलु भंते ! ममं पोलास पुरस्स नगरस्स बहिया पंचकुम्भकारा वणसया तत्थणं तुब्भे पाडिहारियं पीढफलग जाव संथारयं ओगिहिस्ताणं विहरह ॥ १४ ॥ ततेणं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीवि ओबासग्गरस एयमढें पडिसुणेतिरत्ता, सद्दालपुतस्स अजीविओवासम्ग स्स पंचकुंभकारावणसयेसु फासूएसणिजं पाडिहारियं पीढफलग जाव संथारयं ओगिणिपाडिहारे पाटपाटले स्थानक बिछाना की आमंत्रना करना श्रेय है, यों विचार कर उस-बडा हवा, खडा हो श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर यों कहने लगा-यों निश्चय, अहो भगवन् ! पोलास पुर नगर के बाहिर मेरी पांच सो दुकानों हैं, उन में से आपको पाहिहारा पाटपाटले or शैय्या संथारक रजोहरण वगोरा चाहिये सो ग्रहण कर विचरना ॥१४॥ तब श्रमण भगवंत महावीर स्वामी सदालपुत्र आजीविका उपासक का उक्त कथन मुना-मान्य किया, सदालपुत्र की पांचसो कुंभकार की | दुकानों में से प्रासुकनिर्जीव एषणिक-निदोष पाडिहारा पाट पाटला स्थानक विछोना-पराल ग्रहण कर सप्तमांग-उपाशक दशा सूत्र 88सदालपुत्रं श्रावक का सम्म अध्ययन 48+. 48 । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी याणं विहरति ॥ १५ ॥ तचेणं सद्दालपुत्ते आजीविओवासए अन्नया कयाई बारा हयंवा कोलालभंडं अंतोसालाहितो बहियानीणेति २ त्ता आयसि दलयंति ॥१६॥ तत्तेणं समर्णभगवं महावीरे सहालपुत्तस्स आजीवियंओवासयस्स एवं क्यासी सद्दालपुत्ता! एसणं कोलालभंडे कओ ? ॥ १७ ॥ तत्तेणं सद्दालपुत्त समणं भगवं महावीरं एवं वयासी-एसणं भंते ! पुर्वि मट्टिया आसी, तओपच्छा उदएणं मिमिज्जति २ त्ता छारेणय करिसेणय एगयओ मीसिज्जतिए २त्ता, चक्के आरुहिजति, तत्तोवहवेकारगाय जाव उवट्टियाओय कजंति ॥१८॥ तत्तेणं समणे भगवं महावीरे सदालपुत्तं आजीवि विचरने लगे॥१५॥ तब महालपुत्र आजीविका उपाशकने अन्यदा किसी वक्त वायु में सूर्य के आताप में सुकाने वरतनो अंदर मकान में से निकाल कर बाहिर रक्खे थे. धूप के आताप में दिये थे ॥१६ तब श्रमण भगवंत महावीर स्वामी सदालपुत्र आजीविका उपासक से ऐसा बोले-हे सद्दालपुत्र! यह मट्टी कैसे बने हैं ? ॥ १७ ॥ तब सदालपुत्र श्रमण भगवंत महावीर स्वामी से यों कहने लगा-अहो भगवान ! यह प्रथम पट्टीरूपये, उम मट्टीको पानी में मिलाइ छारलीद उस में मिश्रितकर खंदकर चाकपर चढाइ, तब बहुत लोटे यावत् कुंटाकार वरतन बने । १.८ ॥ तव प्रमण भगवंत महावीर स्वामी सदालपुत्र से आजीविका उपाशक . प्रकाशक- जांबडादर लाला मुखदेवमहायजी जालापमादजी For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमांग-उपञ्चाक.दशा सघ8+ ओवागरस एवं वयासी-सहालपुत्ताएसणे कोलाल भंडे कि उटाणेणं कम्मेणं बलेणं विरीयेणं पुरिसक्कार परकमेणं कजं उदाहु अणुटाणेणं जाव अपुरिसक्कार परक्कमेणं कति ? ॥१९॥ तएणं सहालपुत्तोआजीविय ओवासए समणं भगवं महावीरं एवं वयासी-भंते ! अणुटाणेणं जाव अपुरिसक्कार परकमेणं कजति, णत्थि उटाणेतिवा जाव परकमे तिवा,णियत्तया सव्व. भावा॥२०॥तएणं समणे भगवं महावीरे सहालपुतं एवं क्यासी-सहालपुत्तो ! जइणं तुम्भे केइ पुरिसे वाताहयंवा पकेलयवा जाव कोलालभंडं अवहरेजवा, विक्रवरिजवा, भिदेजवा, से ऐसा बोले-हे सदालपुत्र ! यह महीसे वरतन हुवे सो क्या उस्थान कर्म बलबीर्य पुरुषात्कार पराक्रम फोडने से हुवे कि विना उत्थान कर्म बलवीर्य पुरुषात्कार पराक्रम के फोडे घने कहो ? ॥ १९ ॥ तब सहालपुर आजीविका उपाशक श्रमण भगवंत महावीर स्वामी से ऐसा बोला-अहो भगवान ! यह विना प्रस्थान कर्म चलवीर्य पुरुषात्कार पराक्रम किये ही होनहार होतवता के योग्य से बने हैं, इस में उस्थान कर्म बलवीर्य पुरुषात्कार पसक्रम का कुछ भी प्रयोजन नहीं है, इन का बनने का ऐसा ही सद्भाव था ॥२॥ तब श्रमण भगवंत महावीर स्वामी सहालपुत्र से ऐसा बोले हे सहालपुत्र ! यदि कोई पुरुष हवा में दिये पो हुये मट्टीके मसनो का हरनबारे-चौरीकर लेजावे, या फोड़ अले,भेदे-विभागकरे, छेदे-छिद्रको, गाव-एकान्त 48 महालपुत्र श्रावक का मतम अध्ययन4384 8 CAMPA | For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + अछिंदेजवा,परिठवेजवा,अग्गिमित्ताएया भारियाए सहि उरालाई भोगाभोगाई विहरेजवा; तस्सणं तुम्मं पुरिसस्स किं दंडं दत्तेजति॥२१॥ भंते! अहणं तं पुरिसे आओसेजवा हणेजवा, बंधिजवा, महेजवा, तजेजवा, तालेजवा णिच्छोडेजवा, णिभच्छेजवा, १.१.२ अकालेचेव जीवियाओ घबरोविजवा ॥ २२ ॥ सद्दालपुत्ता ! नो खलु तुम्भं केइ पुरिसे वातहयंवा पक्केलयंवा कोलालभंडं अवहरेतिवा जाव परिष्टुवतिया, अग्गिमित्ताए भारियाए सहि विउलाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरंति, नोवा तुमं तं पुरिसं आ. ओमेजासि हणेजसि जाव अकालेचेव जीवियाओ ववरोशिजसि; जइणं णत्थिउट्ठाणेतिया में डालदेवे, अथवा तेरी अग्निमित्रा भायां के साथ उदार प्रधान मनुष्य सम्बन्धी भोग भोगता विचरे उस पुरुष को तू क्या दंड देधे ? ॥ २१ ॥ सहालपुत्र बोला-अहो भगवान ! मैं उस पुरुषपर अक्रोशकरूं दंडादिसेमा, बंधन में डालूं, ताडनाकरूं, निम्रच्छु-चपेदादिलगावू और अकाल में ही जीवित के रहित करूं, अर्थात उसे मारडालूं ॥ २२ ॥ भगवंत बोले-हे सदालपुत्र ! कोई पुरुष तेरे वायु मे दिये पक्कहुवे मटीके वरतनो का हरनकर नहीं, चामत् एकाम्त में फेंके नहीं, तेही अग्निमित्रा भार्या के माय भोग भोगवे नहीं स पुरुषपर तु अक्रोशकर नहीं मारे महीं यावत अकालमें जीवित रहितकरे नहीं.तो यदि उत्थाकर्म यावत् पराक्रम नियत-होनहार के स्वभाव से सब काम होते हैं तो किस लिये तुझे धूप में दिये मट्टी के बरतना प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांग-उपाशक दशा मूत्र Annnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnn. जाव परकमेतिवा णितियासव्वभावा. अहणं तुब्भे केई पुरिसे वातावयंवा जाव परिट्र वेतिवा, अग्गिमित्ताएवा जाव विहरति, तुमंवा तं पुरिसं आओसंसिका जाव ववरोविजसि, तो जं वदसि पत्थि उटाणेतित्रा जाव णित्तियासस्वभावा तं तेमिच्छा ॥ २३ ॥ एत्थणं सद्दालपुत्ते संबुद्धे, ॥२॥ तएणं सदालपुत्ते ! समणे भगवं महावीरं वंदति नमसति २त्ता एवं वयासी-इच्छामिणं भंते ! तुम्भेणं अंतियं धम्मणिसामित्तए ॥२५॥ तएणं समणे भगवं महावीरे सहालपुत्तस्स तीसेयमहई महाधम्म परिकहई ॥ २६ ॥ तत्तणं से सहालपुत्ते समणस्स भगवओ महावीररस अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हट्ठ को चोरनेवाले को यावत् एकान्तमें परिठनेवाले को और अग्निमित्रा भार्या साथ भोग मोगक्नेवाले उस पुरुषपर अक्रोश करना चाहिये यावत जीव रहित करना चाहिये क्योंकि तूं कहता है कि नहीं है उत्थान कर्म यावत् पर। सब नियत स्वभाव-होनहार होतबसेही होता है, तो तेरा उक्त कथन मिथ्या है ॥ २३ ॥ इतना महावीर स्वामी का वचन श्रवण कर सदाल पुत्र तहां प्रतिबोध पाया-समझा ॥ २४ ॥ तब सद्दाल पुत्र श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर ऐसा वोला-अहो भगवंत ! मैं आपके पास धर्म श्रवण करना चहाता हूं ॥ २५ ॥ तव श्रमण भगवंत महावीर स्वामी इस सदाल पुत्र को और वहां रही हुई महा! परिषदा को धर्म कथा मुनाई ॥ २६ ॥ तब सदाल पुत्र श्रमण भगवंत महावीर स्वामी के पास धर्म श्रमण । | 438- सद्दालपुत्र श्रावक का समम अध्ययन 488 4 For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mna अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - तवा जार हियए; जहा आणंदो तहा गिहधम्म पडिवजंति, णवरं एगाहिरणकोडिणि. हापाए रन ओ,एगावुड्डिपउत्ताओ,एगापवित्थरपउताओ, एगवए दसगोसाहस्सिएणं वएणं जाय भगवं महावीरं वंदइ नमसंति वंदिता नमंसिता, जेणेव पोलासपुरे णगरे तण। उवागच्छइ २ त्ता पोलासपुरं नगरं. मझं मझेणं जेणेव सएगिहे जेणेव - अग्गिमित्तं भारियं तेणेवा उवागच्छइ २ त्ता अग्गिमित्तं भारियं एवं वयासी-एवं ___ खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे जाव समोसड्डे, गच्छमिणं तुम्म समणं भगवं महावीरं बंदहि जाव पज्जुवासइ, समणस्स भगवओ महावीरस्स करके हृदय में अवधार कर हृष्ट तुष्ट यावत आनंदित बना. जिस प्रकार आनन्दने व्रत धारन किये थे उस ही प्रकार सहाल पुत्रने भी व्रत धारन किये, जिस में विशेष-एक हिरण्य कोड निधान में, एक हिरण्य क्रोड व्यापार में, एक हिरण्य क्रांड का पाथरा, एक वर्ग गौ का. इतना द्रव्य रखकर बाकी के त्याग किया, फिर श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार किया, वंदना नमस्कार कर जहां पोलास पुर नगर जहां स्वयं का घर था तहां आया, आकर आग्नि मित्रा भार्या से यों कहने लगा-यों निश्चय, है। देवानुप्रिय ! यहां श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधारे उनके पास मैंने धर्म धारन किया है, तुम भी जावो । श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार करो सेवा भक्ति करो, श्रमण भगवंत महावीर स्वामी प्रकाशक.राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमांग-उपशाक दशा मूत्र 488 अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तलिबरतावयं दुवालसविहिं गिहिधम्म पडिवजहि ॥२७॥ तएणं सा अग्गिमित्ता भारिया महालालारस समणो वासगस्स तहित्ति एयमढें विणएणं पडिसणेति ॥२८॥ तत्तेणं सदाला पोवासए कोडवियपरिसे सहवितिता एवं वयासीखिप्पामेव भोदेवाणुप्पिया! लातुक " जुत्तजोइयं समखुरवालिहाण समलिहिय सिंगएहि जंबूणयामय कलावजोत्तपइ विलट्ठएहिं रययामयघट सुत्तरज्जगत्ररए कंचणखइय णत्थए प्पग्गहोगहियएहिं नीलुप्पलकयामल्लएहिं पवरगोण जुरा. हिं नाणामणिकणके पास गृहस्थ का धर्म बारह व्रत रूप धारन करो ॥ २७ ॥ तब वह अपना भार्या सद्दाल पुत्र श्रमणोपासक का उक्त कथन मुना, मान्य किया ॥ २८ ॥ तरसदाल पुत्र कौटुम्बिक पुरुप को बोला कर यों कहने लगा-हे देवानुपियशीघ्रता से शीघ्रगतिकरनेवाला स्थ जोतो, बराबर जिस के पांवों के खुर वाले लम्बी पूंछ वाले,दोनों बराबर गोलाकार श्रृंगवाले,जम्बूनन्द मुवर्णमय ग्रीवा का आभरण से अलंकृत, ॐ गले को बंधना होरी से शोभित रूपे की जिन के गले में घुघर माला युक्त और सुवर्ण कर वैष्ठित सूत्रकी रस्सी कर वन्धे हुवे होवे, और उस को विशेष यहा के साथ ग्रहण की होवे, निलोत्पल कमल समान भूषण किलंगी) से जिन का मस्तक भूपित किया होचे, वर प्रधान यौवन अवस्थावन्त बैलों युक्त अनेक प्रकार की मणीयों से जडी हुइ छोटी मुवर्ण की घुघरीयों की जाली कर जिसे अच्छादन किया हो, अच्छा *6808 सद्दालपुत्र श्रावक काय अध्ययन 2.87 428 For Personal & Private Use Only www.anelibrary.org Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - गघंटिया जालपरिगयं सूजाय जुगलजोत्तओ उज्जुगपसत्थं सुविरय निम्मियं पधरलक्खणोववेयं जुत्तामेव धम्मियं जाणप्पवरं उबट्टवेह रत्ता मम एयमाणतिय पच्चुप्पिणह॥२९॥ तएणं से कोडुंबियपारेसा जाव पच्चप्पिणंति ॥ ३० ॥ तएणं सा अग्गिमित्ता भारिया व्हाया जाव पायच्छित्ता सुद्धप्पवेसाई अप्पमहग्गभरणालंकियसरीरा, जाव चेडिया चक्कवाल परिकिणा धम्मियं जाणप्पवर दुरुहतिर सापालासपुरं णयरं मज्झं मझेणं निगच्छइ २त्ता जेणव सहसंबवणे उजाणे तेणेव उवागच्छइ २त्ता, धम्मिया तो जाणातो पच्चोरुद्दति २ त्ता चडिया चक्कवाल परिवडा जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव कारीगर का बनाया शरल सीधा जिस का झूमरा होवे, प्रशस्त अच्छे घाट (आकार) वाला, अच्छे लक्षणवाला धर्म रथ को जोत कर यहां लाकर स्थापन करा, यह मेरी आज्ञा पीछी मेरे सुपरत करा ॥२९॥ उस कौटुम्बिक पुरुषने उस ही प्रकार का धर्म रथ मज्जकर यावत् लाकर खडा किया आज्ञा सुपरत की ॥ ३० ॥ तव आग्न मित्रा भार्याने स्नान कर शुद्ध हुई, शुद्ध उत्तम स्थान में प्रवेश करने योग्य 5 अल्पाभार बहुत मूल्यवाले वस्त्र भूषण कर शरीरको अलंकृत किया, अठारह देश की दासीयों के चक्रवाल से वेष्टित हुई धर्म रथ पर आरूढ हो पोलाप्त पुर नगर के मध्य २ में होकर जहां सहश्रम्ब उद्यान था तहां आई, रथ में से नीचे उतरी, दासीयों के चक्रवाल से घेराइ हुई जहां श्रमण भगवंत महावीर स्वामी धे तहां अर्थ * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सदायजी ज्वालाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ सप्तमांग-उपाशक दशा सूत्र Nali उवागच्छइरत्ता तिक्खुत्तो जाव वंदति नमंसति वंदित्ता नमंसित्ता णच्चासण्णे जावपंजली उडा ठिइया चेव पज्जुवासंति॥३॥तएणं समणेभगवं महावीरे अग्गिमित्ताए तीसेयजाव धम्मं कहेति॥३२॥ तत्तेणं सा अग्गिमित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मसोचा निसम्म हट्ठ तुट्ठा, समणं भगवं महवीरं वंदति नमसइ २ त्ता एवं बयासीसदहामिणं भंते ! निग्गंथंपावयणं जाव से जहेयं तुब्भे वदह, जहाणं देवाणप्पियाणं अंतिए वहवे उग्गा भोगा जाव पवईया, नो खलु अहं तहा संचाएमि, अहणं देवा णुप्पियाणं अतिए पंचाणुव्वय सत्तसिक्खाव्वयं दुवालसविहं गिहि धम्म पडिवजीसामि॥ आई, आकर तीन वक्तवंदना नमस्कार किया, वंदना नमस्कार कर नमभूत हो खडी हुइ भगवंत की सेवा भक्ति करने लगी ॥३१॥ तब श्रमण भगवंत महावीर स्वामी उस अग्नि मित्रा भार्या को उस महा परिषध को था सुनाई ॥ ३२ ॥ तब अग्नि मित्रा श्रमण भगवंत महावीर स्वामी के पास धर्म श्रवण कर हृष्ट तुष्ट हुई. श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को बंदना नमस्कार कर यों कहने लगीअहो भगवान ! मैंने निर्ग्रन्थ के प्रवचन, श्रद्धे है जैसा आपने कहा वह सत्य है, यद्यपी देवानुप्रिया की इसमीप बहुत राजा ईश्वर यावत् मुण्डित होते हैं दीक्षा धारन करते हैं, तद्यपी में समर्थ नहीं हूं दीक्षालेने, में तो देवानुप्रिया ! की समीप पांच अनुव्रत सात शिक्षाबत चार प्रकार का गृहस्थ का धर्म अङ्गीकार करना 62 सहालपुत्र श्रावक का सप्तम अध्ययन અર્થ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܟܕܕ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ? अहासुहे जाव मपडिबंध करेह।।३३॥ तएणं सा अग्गिमित्ता समणस्स भगवओ महावीररस अंतीए पंचाणुबइयं जाव गिहधम्म पडिवजइ २त्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ वं. दिसानमंसित्ता धम्मीयाजाणंदुरुहंति जामेवदिति पाउन्भया तामेवदिमि पडिगया॥३४॥ तएणं समणे भगवं महावीरे अण्णयाकयाइ पोलासपुराओ सहस्संबधण उज्जाणओ निग्गतिरत्ता बहिया जणवयविहारं विहरंति ॥२५॥ तएणं से सहालपुत्ते समणो वासएजाए अभिगय जीवाजीचे जाव विहरंति ॥ ३६॥ तएणं गोसाले मक्खलीपुत्ते । इमीसे कहाए लट्ठ खमाणे एवं खलु-सहालपुत्ते आजीवियसमयं धइत्ता समणाणं । चाहाती हूं. भगवंतने कहा जैसे सुख होवे वैसे करो यावत् विलम्ब मत करो ॥ ३३ ॥ तत्र अग्निमित्राने श्रमण भगवंत महावीर स्वामी के पास बाराव्रतरूप गृहस्थ का धर्म अंगीकार किया, श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर धर्म रथपर आरूड हो जिस दिशासे आई थी उस दिशा पीछीगई ॥ ३४ ॥ तब श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने अन्यदा किसी वक्त पोलासपुर नगर के सहश्रम्ब उध्यान से निकलकर बाहिर जनपद जा में विहार किया ॥ ३५ ॥ तब सहालपुत्र श्रमणो पासक हवा जीवादिनवतत्वका जान हो चउदा प्रकार का दानदेता हवा विचरने लगा ॥३६|| तब गौसाला मेखलीपुत्रने श्रवण किया कि-निश्चय सहाल पुत्र आजीविका पंथ को छोडकर श्रमण निर्ग्रन्थ की री-धर्म अंगीकार किया है, इस लिये जायूँ मैं . प्रकाशक-राज़ाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिम्गंथाणं दिट्टि पडिवण्णे,तंगच्छामिणं सद्द लपुत्तं आजीविओवासयांसमणाणं निग्गंथाणं दिदिवामेत्ता, पुगरवि आजीवियदिदि गिण्णावित्तए तिकट्ट,एवं संपेहेतिरत्ता अंजीविये संघसंपरिवुडे जेणेव पोलासपुरे णगर जेणेक आजीवियसभा तेणेक वागच्छइ २ ता अजीवियसभाए भंडगणिक्खेवं करेति २ ता कितिवएहं अजीविएहिं सद्धिं जेणेव सहालपुत्ते समणोवासए तेणेव उवागच्छइ २त्ता ।। ३७ ॥ तएणे सहाणापुचे समणो वासए गोसालं मंखलिपुत्तं एजमाणं पासंति नो आढाइलि को परिजाणाई आणाढाईजमाणे अपरिजाणमाणे तुसभीए संचिटुंति ॥ ३८ ॥ तएणं से मोसाले मंखलिपुत्ते सदाल पुत्र को श्रमण निर्ग्रन्थ का धर्म का वमनकस [छोडाकर ] पुनरपी आजीविका पंथ धारन करावं, कयों विचार कर आजीविका संघ के साथ परिवरा हुवा जहां भेलास पुर नगर, जहां आजीविका * पंथीयों की सभा { स्थानक ] या तहां आया, आकर आजीविका पंथ की सभा में भंडोपकरण की स्थाप ना कर कितनेक. आजीविका पंथीयों को साथ में लेकर जहां सहालपुष श्रमणोपासक था तहां आया ॥३७॥ "तब सदाल पुत्र श्रमणोपासकने आमीविका पंथी गोशाला को आता हुवा देखा, उस का आदर सत्कार नहीं किया, अच्या भी नहीं जाना,, अनादर करता, अच्छा नहीं जानता. मौनस्थ रहा ॥ ३४ वा 4887 सप्तमांग-उपाञ्चक दशा सूत्र 488 4888 सालपुत्र श्रावक का सप्तम अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmmmmmmmaa सद्दालपुत्तेणं समोवासएणं अणाढाईजमाणे अपरिजाणमाणे, पीढफलगसिज्जासंथारएटाए समणरस भगवओ महावीरस्स गुणकित्तणं करेति॥३९॥ सद्दालपुत्तं समणोंवासयं एवं क्यासी-आगएणं देवाणुप्पिया! इह माहामहणे ? ॥ तएणं से सहालपुत्ते समणोवासए गोसालं मक्खलीपुत्तं एवं वयासी-केणं देवाणुप्पिया महामाहणे?॥ततेगंगोसाले मंखलीपुत्ते सदालफुत्तं सयणोवासएणं एवं क्यासी-समणे भगवं महावीरे महामाहणे ? से केणटेणं देवाणुप्पिया ! एवं उच्चति-समणे भगवं महावीरे महामाहणे?॥एवं खलु सदालपुत्ता?सम मे भगवं महावीरं महामाहणे उप्पण्णणाणदंसणधरे जाव महियपूइए जाव तवो कम्मं संपया गौशाला मखली पुत्र सहाल पुत्र श्रमणोपासक से अनादर पाया हुवा अमत्कार पाया हवा भी पाट पाटले स्थान बीछोना के लिये श्रमण भगवंत महावीर स्वामी के गुण कीर्तन करने लमा ॥३९॥ सदालपुत्र श्रावक से यों बोला हे देवानुषिया वहां महा महान(महादयालु)आयेथे क्या?सब मौशाला मखली पुत्रसे सदालपुत्रयों बोला-अहो देवानु प्रियाकौन महा महान? तब मोशाला मेखली पुत्र सहाल पुत्र श्रमणोपासक से यों बोला-श्रमण भगवंत महावीर स्वामी महा महान; तब'सहाल पुत्र बोला-अहो देवानुप्रिय ! किस कारण ऐसा कहा श्रमण को भगवंत महावीर स्वामी महाई महान ? | तब मोशाला मंखली पुत्र बोला-यों निश्चय, हे देवानुप्रिय ! श्रमण 18 भगवंत. महावीर स्वामी केवल ज्ञान केवल दर्शन के धारक यावत् तीन लोक के अंर्चनीक पूज्यनीक यावत्। तपा 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अयोलक ऋषिजी - प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वापिलदजासी * - For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H mahramanianmomanti सप्तमांग-पाशक दशा मूत्र 48 .. संपउत्ते,से तेणट्टेणं देशणुप्पिया! एवं उच्चति- समणे भमवं. महावीरे महामाहणे॥४॥ 4. आगएणं देवाणुप्पिया ! इहं महागोवे ? केणं देवाणुप्पिया ! महागोवे? समणे भगवं. महावीरे महागोवे ।। सेकेणटेणं देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे महागोवे?॥.एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे संसाराडवीए बहवे जीवे तस्समाणे विणस्समाण खजमाणे छिजमाणे भिजमाणे लुप्पमाणे विलुप्पमाणे धम्ममएणं दंडेणं संरक्खमाणे, संगोवेमाणे निव्वाण महावाडे साहन्थि संपावेति, से तेण?णं सदालपुत्ता! एवं वुच्चइ. कर्म की सम्पदा युक्त, इसलिये हे देवानुप्रिय ! मैंने ऐसा कहा कि श्रमण भगवंत महावीर स्वामी महमहान अर्थात परमदयाल हैं॥४०॥ फिर मौशाला मंखली पुत्र बोला-हे देवानुपिय ! यहां महा मोफ काल) आये ये क्या? सबाल पुत्र बोला-कौन देवानुप्रिय! महा गोप? गौशाला मंखली पत्र बोला-श्रमण भगवंत महावीर स्वामी महा गोप. सद्दाल पुत्र बोला-किस कारन श्रमण भगवंत महावीर स्वामी महा गोप हैं? गोशाला मंखली पुत्र बोला-यों निश्चय, हे देवानुप्रिय! श्रमण भगवन्त यहार्य स्वामी संसार रूप अटवी में बहुत जीव त्रास पाते, विनाश पाते, क्षय होते, छेदित भेदित होते, लुप्त होत, विलुप्त होते इस प्रकार कर्म से पीडाते हुवे को धर्म रूप दंडे (लकी) कर रक्षा करते हैं, मोक्ष रूप बाडे में भरते हैं, मोक्ष स्थान प्राप्त कराते हैं, इस लिये हे सद्दाल पुत्र ! मैंने ऐसा कहा कि-श्रमण भगवंत :48 सहालपुत्र श्रावक का सप्तम अध्ययन 48 , 488 । .. . .. For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ mmmmmmmmmmmmmmaramaina ३ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी . समणे भगवं महावीरे महागोवे॥४॥आगएणं देवाणुप्पिया! इहं महासत्यवाहे? केषां देवाणुप्पिया महासत्थवाहे? सहालपुत्ता! समणे भगवं महावीरे महासत्थवाहे ॥ से केणटेणं देवाणुपिया समणे भगवं महावीर महासत्थवाहे?एवं खलु देवाणुप्पिया! समण भगवं महाधीरे संसाराडवीए बहवे जीवे तस्समाणे जाव विलुप्पमाणे उम्मग्मपडिवण्णे धम्मंमएणं । पंथेणं संरक्खमाणे णिवाणं महापट्टणंसि साहस्थि संपावेति, से तेणटेणं सहालपुत्ता! एवं बुञ्चति समणे भगवं महावीरे महासत्थवाहे ॥ ४२ ॥ आगएणं देवाणुप्पिया ! महावीर स्वामी महा गोपाल हैं ॥ ४१. फिर गौशाला मेखली पुत्र बोला हे देवानुप्रिय ! यहां महा सार्थवाही आये थे क्या! सदाल पुत्र बोला-हे देवानुप्रिय! कौन महा सार्थवाही हैं? गौशाला मंखली पुत्र बोला-श्रमण भगवंत महावीर स्वामी महा सार्थवाही हैं. सदाल पुत्र बोला-किस कारन श्रमण भगवंत महावीर स्वामी महा सार्थवाही ? गोशाला मखली पुत्र बोलायों निश्चय, श्रमण भगवंत महाबीर स्वामी संसार अटधी में बहुत जीवों आस पाते हैं यावत् विशेष लुप्त होते हैं. सन्मार्ग छोड उन्मार्ग में प्रवर्तते हैं, उन को धर्म रूप मार्ग में लगाकर निर्वान रूप महा पाटन में पहोंचाते हैं, संप्राप्त करते हैं, इसलिये हे सहाल पुत्र ! मैंने ऐसा कहा कि-श्रमण भगवंत महावीर स्वामी महा सार्थवाही हैं ॥४२॥ फिर गौशाला मेखली पुत्र कोलाहे देवानुप्रिय ! यहां महा धर्मकथक [महावक्ता] आये थे क्या? सद्दाल पुत्र * प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादमी" For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इहं महधम्मकही ? केपं देवाणुप्पिया ! महाधम्मकही ? समणे भगवं महावीरे महा धम्मकही ॥ से केणट्रेणं समणे भगवं महावीरे महाधम्मकही ? एवं खलु देवाणुप्पिया! सभणे भगवं महावीरे महति महालयंसि संसारांम बहवे जीवे तस्समाणे विणस्स-खज्ज-छिज्ज-भिज-लुप्प-विलुप्पमाणे उम्मग्गपडिवण्णे सप्पह विप्पण? मिच्छत्त चलाभिभूए अट्ठविह कम्म तम पडल पडिछन्ने, बहुहिं अटेहिय जाव वागरणेहिय चाउरंताओ संसारकंताराओ साहत्थी णित्थारेति, से तेण?णं देवाणुप्पिया एवं बुञ्चति 48 सप्तमांग-उपासक दशा मूत्र 86.9सद्दाल पुत्र श्राधक का सप्तम अध्ययन 4 घोला-कौन देवानप्रिय ! महा धर्म कथक ? गौशाला मंखली पुत्र बोला-श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी महा धर्म कथक हैं? सदाल पुत्र धोला-किस कारन श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी महा धर्म कथक हैं ? गोशाला मखली पुत्र बोला-हे सदाल पुत्र ! यों निश्चय ? श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी संसार रूप अटवी में बहुत से जीवों त्रास पाते हैं यावत् लुप्त होते हैं, सन्मार्ग को छोड उन्मार्ग में हैं, सन्मार्ग से नष्ट होते हैं, मिथ्यात्व रूप प्रबल बल से पराभव पाये आठ प्रकार कर्म रूप महा अन्धकार में घेराये हुवे उन को बहु विस्तारवाले अर्थ की वागरना करके चतुर्गति रूप संसार कतार अटवी से स्वहस्त कर पार पहोंचाते हैं, इसलिये हे देवानुमिय! मैंने ऐसा कहा श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी At 2 | For Personal & Private Use Only www.ainelibrary.org Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी समणे भगवं महावीरे महाधम्मकही॥४३॥अ.गएणं दवाणु दिवया ! इहं महानिजामए? . से केणं देवाणुप्पिया! महानिजामए ? समग भगवं महावीरे महाणिज्जामए ॥ से केणटेणं समणे भगवं महाबीरे महाणिज्जामए ? एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे संसारमहासमुद्दे बहवं जीवे तस्समाणे विणस्समाणे जाव विलुप्पमाणे वुड्डमाणे निवुड्डमाणे उप्पियमाणे धम्म मइए नावाए णिवाणंतीराभिमुहे साहीत्य संपवित्ति, से तेण?णं देवा णुप्पिया ! एवं बुच्चति समणे भगवं महावीरे महानिजामए ॥ ४४ ॥ तएणं से महा धर्म कथक (महा वक्ता) हैं ॥ ४३ ॥ फिर गोशाला मेखली पुत्र बोला-हे देशानुपिय ! यहाँ महा निर्यापक आये थे क्या ? सहाल पुत्र बोला-कौन महा निर्यामक ? गौशाला मखली पुत्र बोलाश्रमण भगवन्त महावीर स्वामी महा निर्यामक. सदाल पुत्र बोला-किप्त कारन श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी महा निर्यामक ! गौशाला मखली पुत्र शेला-यों निश्चय, हे देवानुप्रिय ! श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी इस संसार रूप ममुद्र में बहुत जीवों त्राम पाते हैं विनाश पाते हैं यावत् विलुप्त होते हैं, संसार में पड़ते हैं, डूबते हैं, जम्म मृत्यु रूप पानी में तनाते हैं, उनको धर्म रूप नाशर्म आरूढ कर निर्वान रूप तीर-किनारे के सन्मुख करते हैं अपने हाथ से पार कर-सिद्ध पुर पाटन पहोंचाते हैं, इसलिये हे देवानुप्रिय ! मैंने ऐसा कहा कि श्रमण भगवन्त पहावीर स्वामी महा निर्यामक (धर्म झ.ज क चलाने • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * . For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भांग-उपाशक दशा सूत्र १ सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मंखलीपुत्तं एवं क्यासी-तुणं देवाणुप्पिया ! इयच्छेया जाव इयणिउणा,इयनयवादी,इयउयसलहा, इयविणाणपत्ता, पण तुम्भे मम धम्मायरिएणं धम्मोवएसेणं समणणं भगश्या महावीरेणं सहिं विवाद करित्तए ? छो इणढे समढे। से केण?ण देवाणुप्पिया! एवं बुञ्चत नो खल तुम्भ मम धम्मायरिएणं जाव महावीरेणं सद्धिं विवादं करित्तए?सहालपुत्तः स जहा नामए केइपुरिसे तरुणे जुगवं जाब निउण लिप्पोवगते, एगंमहं आयंत्रा एलयंवः सूयरंवा कुक्कुडंवा तित्तिरंवा वयंवा वाले) ॥ ४४ ॥ तव सहाल पुत्र अपणोवारक गौशाला मखली पुत्र मे यों बोला-अहो देवानुप्रिय ! तुम लोक में इस प्रकार के अत्यन्त चतुर नियनहो, इस प्रकार नयबादी हो, और उपदेश की कला को व विज्ञान को प्राप्त हुई हो, इस लियं तु मेरे धर्माचार्य धर्नाशक श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी के साथ विवाद करने-शास्त्रार्थ करने समर्थ हो क्या? तब गोशाला भखली पुत्र बोला--यह अर्थ समर्थ नहीं है. अर्थात् श्रमण भगान्त महावीर स्वामी पाथ म विवाद करने समर्थ नहीं हूं. तब सद्दाल पुत्र बोलाकिम कारन अहो देवानुप्रिय ! तुम मेरे धर्गवार्य धर्मोपो शक महावीर स्वामी के साथ विवाद करने समर्थ नहीं हो? तब गौशाला मंचली पुत्र बोला-हे सद्दाल पुत्र ! यथा दृष्टान कोई निपुण यौवन अवस्थावंत कला कौशल्यता युक्त शिल्पकारी पुरुष एक बडे बकरे को,मेंदे को, सूबर को, मुर्गे को,तितर को, बटेरेको, ।' 48.- पद्दालपुत्र श्रावक का सप्तम अध्ययन अर्थ | 9 For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.3 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोल अपनी 32 लावयंवा कवोतं कविंजलिंवा वायलिंबा सिणयंत्रा हत्थंसिवा पायंसिवा खुरंसिवा पछंसिवा पिछलिवा सिंगनवा विसाणंरिवारोभसिवा, जहिं २ गिण्हति तहिं २ निच्चलं निफंदं धरेति ; एवामेव नाणे भगवं महावीर ममं बहुहिं अटेहिय हेऊहिय जाव वागरणाहिय जहिं २गिण्हति तहिं २ निप्पट्टपासणावागरेणं करेति,से तेणट्रेणं सद्दालपुत्ता! एवं वच्चति नो खलपभ अहं तव धम्मयरिएणं जावमहावीरेणं सहि विवादंकरित्ताए॥४५॥ तएण से सदाल पुत्ते समणोवासए गोसल मंखलिपुत्तं एवं वयासी-जम्हाणं देवाणुप्पिया! तुभ मम धम्मायरिस्त जाव महावीरस्स संतेहिं तच्चेहि तहिएहि सव्वेहि सब्भूतेहि भावहिं लकवे को, कबूतर को, कंपिजल को, कोको, सींचाने, को हाथ कर, पांच कर, खुरकर, पूंछ कर, शंख कर, शृंग कर, पिसान कर, रोम कर. जिस २ स्थान से उसे पकडे, उस २ स्थान से उसे निश्चल हलन चलन रहित करे, निस्फन्द--कूदना उछलना बंद को, इस प्रकार हो श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी बहुत अर्थ कार,हेतु कर मनकर.च्याकरण कर, यावत् प्रश्नोत्तर कर. जिसरस्थान से मुझे पकडे उस २स्थान से मुझे निट करे, निरुत्तर महारे. इसलिये मैं तेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी के " साथ विवाद करने समर्थ नहीं हूं ॥४५॥ तब सदालपुत्र श्रमणोपासक गौशाला मंखली पुत्र से यों बोला-हे. देवानप्रिय ! नुपने मेरे धर्मोपदेशक धर्माचार्य महावीर स्वामी के सत्य तथ्य अकृत्रिम सर्व सद्भूत-पाते हु * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्यालाप्रसादजी, । For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4886 सप्तमांग उपाशक दशा सूत्र 486 गुण कित्तणं करेहि तम्हाणं अहं तुब्भे पडिहारिएणं पीढ जात्र संथारषणं उबनिमंतेमि, नो वेणं धम्मेतिवा, तशेतिवा ॥ तंगच्छहणं तुम्भे मम कुंभारावणेसु पाडिहारिए पीढफलयं जाव ओगिहिताणं उवसंपजित्ताणं विहरह ॥ ४६ ॥ एणं गोसाले मंखलीपुत्ते सद्दालपुत्तस्स समोवासयस्स एयम परिसुणेइ २त्ता, कुंभकारवणासु पाडिहारियं पीढपलग जाव उवसंपजित्ताणं विहरति ॥४७॥ ततेणं से गोसाले मंखलीपुत्ते सद्दालपुत्तं समणांवासस्स जानो संचाएति बहुहिं आघवणेहिय पण्ण्रवणेहिय, सण्णबणाहिय, विष्णवणाहिय परुवणेहिय, निग्गंथातो पावयणातो संचालितएवा रवोभित्तएवा विष्परिणामित्तए।, ताहे यथा योग्य भावों-गुनों का यथा उचित कथन किया, गुन कीर्तन किया, इसलिये मैं तुमको पाडीहारे पाटपाटले { स्थानक विछोना की आमंत्रण करता हूं, किन्तु निश्चय धर्म के लिये, व तप-निर्जरा के लिये नहीं करता हूँ{ इसलिये जावो तुम मेरी कुंभकारकी दुकानों से पाडीहारे पाटपाटले मकान जो चाहिये सो अंगीकार कर { विचरो ॥ ४६ ॥ तत्र गौशाला मंखली पुत्रने सद्दाल पुत्रका उक्त कथन मुना-मान्य किया, उस की दुकानों से पाटपाटले यावत् अंगीकार कर विचरने लगा ॥४७॥ तत्र गौशाला मंखली पुत्र सद्दाल पुत्र श्रमणोपासक से अनेक प्रकार के { प्रश्नोत्तर किये परन्तु कहने से प्ररूपने आख्यान व्याख्यान और नम्रता से सद्दाल पुत्र को निर्ग्रन्थ प्रवचन { से चलाने क्षोभ उत्पन्न करने, विपरीत परिणमाने, समर्थ नहीं हुवा, तब थका बहुत ही थका निराशहो पोलास पुर For Personal & Private Use Only + सद्दालपुत्र श्रावक का सप्तम अध्ययन 48 १२७ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ 3 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी संते तंते परितंते पोलासपुरतो पडिमिक्खमइ २त्ता,बहिया जणवयं विहारं विहरंति॥४॥ तएणं तस्स सहालपुत्तस्स समणोवासयस्स बहुहिं सील जाव भावमाणस्स चौदस्स संवच्छराई वीतिकंताई पन्नरसमस्स संवच्छरस्स अंतरावमाणस्स पुवरत्तावरत्तकाले समयंसि जाव पोहसहसालाए समणस्स भणवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपण्णंति उवसंवजित्ताणं विहरंति ॥ ४९ ॥ तएणं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस अतिए पुव्वरत्तावरत्त कालसमयंसि एगेदेवे पाउम्भवित्था ॥ ५० ॥ तएणं से देवे एगं महंनिलुप्पल जाव एवं वयासी-जहा चुलणीपीयस्स तहेव देव उवसग्गं करात, णवरं नगर से निकल कर बाहिर जनपद देश में विचरने लगा ॥ ४८ ॥ तब उस सद्दाल पुत्र को बहुत ही सीलवत गुन व्रतों कर आत्मा को भावते हुवे विचरते चौदह वर्ष व्यतीकृन्त हुवे, पनरहवा वर्ष के अन्तर में वर्तते आधी गनि व्यतीत हवे से आनंद श्रावक के जैसा विचार किया यावत् बडे पुत्र को घर का भार सुपरत कर पौषधशाला में जाकर श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी प्रणित धर्म धारन कर विशुद्धी पूर्वक पालता हुवा विचारने लगा।॥४९॥तत्र सद्दाल पुत्र श्रमणोपासक के पास आधीरात्रि व्यतीत हुवे एक देवता प्रगट हुवा ॥५०॥कामदेव के अध्ययन में कहे मुजब रूप बनाकर निलोत्पल कमल समान खङ्ग हाथ में धारन कर यावतू यों कहने लगा-जिस प्रकार चुल्लनीपिता को कहा था तैसा हो सब जानना, उस ही *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायना ज्वालाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमाम उपाशक दशा सन्न एकेक पुत्ते नवरमंस सोल्लए करेति, जाव कणियस्सं घाएति २ सा जाव आइचंति॥५॥ तएणं सद्दालपुत्ते अभीए जाब विहरति ॥ ५२ ॥ तएणं से देव सद्दालपुत्ते अभीते जाव पासेत्ता चउत्थंपि सद्दालपुत्तेणं एवं बयासी-हंभो सहालपुत्ता अपात्थय पत्थिया जाव नभंजसी तओ ते जा इमा अग्गिमित्ता. भारिया धम्मसहाईया धम्मविइंजिया धम्माणुरागरत्ता, समतुहदुह सहाइया; तंसाओगीहाओ णीणेमी २त्ता तव आगओघाएति २त्ता नवमंससोलाए करेमि२ ता आयाणं भारियंसि कडाहयसि अद्दहति, तव गायमसेणय प्रकार उपसर्ग किया, विशेष इतना ही कि एकेक पुत्र के मांस के नव २ टुकड़े किये, यावत् छोटे पुत्र के मांस के भी नव टुकडे कर कहाइ में तलकर सहाल पुत्र श्रापक के शरीर पर छोटे ॥५१॥ तच सद्दाल पुत्र निर्भय यावत् धर्म ध्यान ध्याता विचरने लगा ॥५२॥ तब वह देव सदाल पुत्रका निडर यावत् धर्म ध्यान ध्याता हुवा देखकर चौथी वक्त सदाल पुत्र से इस तरह कहने लगा-भो सदाल पुत्र ! अप्रार्थिक के प्राथिक यावत् तू व्रत नियम का भङ्ग नहीं करेगा तो आज मैं तेरी अग्निमित्रा भार्या की जा 'धर्म' कार्य सहायक है, धर्म मार्ग में प्रेरक है, धर्मानुराग रक्त है, सुख दुःखका विभाग लेनेवाला है, उसे सेरे घर से पकडकर लाकर तेरे आगे पारकर उस के मांस के नव २ टुकडे कर कर आधन आती कढाइ में तलकर तेरे 430% सद्दालपुत्र श्रावक का सप्तम अध्ययन ARE For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अमोलक ऋषिजी र ramAhamandarmana ** अनुवादक- लिब्रह्मचारीमुनि सोणिएणय आइंचामि जहाणं तुम अट्ट दुहट वसट्ट जाव जीवियाओ विवरोविजसि ॥५३॥ तएणं से सद्दालपुत्ते तेणं देवेणं एवं बुत्ते सम्माणे अभीते जाव विहरति ॥५४॥ तएणं से देवे सद्दालपुत्तं दोच्चंपि तच्चंपि एवं वयासी-हंभो सद्दालपुत्ते ! तंचेव भणंति ॥५५॥ तएणं सद्दालपुत्ते तेणं देवेणं दोचंपि तचंपि एवं वुत्ते समाणे अयं अज्झथिए जाव समुप्पजित्था, एवं जहा चुलणीपिया तहेव चिंत्तेति-जेणं ममं जेट्टपुत्तं, जेणं ममं मज्झिमंपुत्तं, जेणं मम कणियं पुत्तं जाव आइच्चंति जाविय णं मम इमा अग्निमित्ता भारिया समसुहदुह सहाइयातंपिइच्छति सातोगिहाओ णीणेत्ता मम आगाओ घात्तित्ते, भरीर पर छांदूंगा जिस से तू आर्स ध्यान ध्याता हुवा यावत् अकाल में मृत्यु पावेगा ॥ ५३ ॥ तब सद्दाल पुष उस देवता के उक्त वचन श्रवण कर यावत् धर्म ध्यान ध्याता हुवा विचरने लगा ॥ ५४ ॥ तब वह दरता सद्दाल पुत्र को दो तीन वक्त उक्त वचन कहे, तब सदाल पुत्रन चुल्लनीपिता जैसा विचार किया है मेरी अग्निमित्रा भार्या सुखदुःखका विभाग लेनेवाली उसे भी मारना चाहता है इस लिये श्रेय है मुझे कि इसे पकडं, यों विचारकर उसे पकडने उठा,देवता आकाश में उडगया,उसके हा में स्थंभ आया,कोलाहल शब्द किया, , अग्निमित्रा भार्या आई, सर्व वृत्तान्त सुनाया, पायश्चित्त ले शुद्ध हुवे, संथारा किया, साठ भक्त अनशनका छेदन • प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रमादजी . For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - । ते सेयं खलु ममं एवं पुरिस गिण्हित्तए तिकटु उट्ठाइए जहा चुल्लणीपिता तहेव सव्वं 'भाणियव्वं, नवरं अग्गिमित्ताभास्यिाकोलाहलं सुणेत्ता; भणति,सेसं जहा चुल्लणीपिता। 1७है .बत्तवया णवरं अरुण भएविमाणे उयवातो॥ जाव महाहिदेहवासे सिज्झिहिति ॥५६॥ निक्खेबओ, उपासग दसाणं सत्तमज्झयणं सम्मत्तं ॥ ७॥ * कर, आयुष्य पूर्ण कर प्रथम देवलोक के अरुणभूत विमान में दोवतापनें उत्पन्न हुवे, चार पल्योपम का आयुष्य पाये, महा विदेहक्षत्र में जन्य धारन कर सिद्ध होगा यावत् सर्व दुःखका अन्त करेगा. यह उपाशक दशांग का साल पुत्र श्रावक का सातवा अध्ययन संपूर्ण हुन ॥ ७ ॥ - - 48 सप्तपांग-उपाशक दशा सूत्र 48 सहालंपुत्र श्रावक का सप्तम अध्ययन Anwsernamnnermomamarrammmmmmmmmmm Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी ? * अष्टम-अध्ययनम् * अट्ठमस्स उक्खबो-एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे, मुणसिलए चेइए सेणियएराया ॥१॥ तत्थणं रायगिहे महासयए नाम: माहाबई परिवसइ अद्वे जाव अपरिभए जहा आणंदो, णवरं अटुहिरण्णकोंडीओ संकासाओ निहाणपउताओ, अहिरण्णकोडीओ संकासाओ बुड्ढीपउताओ, अट्ठहिरण्णः कोडीओ संकासाओ पवित्थर पउत्ताओ, अट्टवया दसगोसाहस्सिएणं वएणं ॥२॥ तस्स. महासयस्स. रेवइ । अठवा अध्या का उक्षेप-यों निश्चय है जंबू ! उस काल उस समय में राजगृहीनामे नगरी थी,. गुणसिलानामा चौत्यथा, श्रेणिक नाता सना राज्य करता था ॥१॥ तहां राजगृही नगरी में महाशतक नामका गाथापति रहताथा, वह ऋद्धिवंत यानत् अपरा भवितथा,जिस प्रकार आणंद श्रावक का कहा तैसा ही संबई इसका कहना, विशेष इतना-आठ हिरन्य कोड स्वयं की निध्यानमेथी,आठ हिरन्यक्रोडी स्वयं की व्यापारमे थी,पाठ हिरन्य कोडी स्वयं की पाथराथा,दशहजार गौका एक वर्ग. ऐसे आठ वर्ग गाईयोंके(८० हजार स्वयंके थे + ॥२॥ उस महा शतक गाथापति के रेवती प्रमुख. तेरी भार्या थी, वे पूर्ण अंगोपाग की धारक + महाशतककी १३ स्त्रीयों जो १५ कोडी का द्रव्य और १५ वर्ग(मोकल)गाइयों के पिताके घरसे लाइ थी वह र द्रव्य. संख्या व गाइयो. की संख्या अलग होने से यहां संकासा का पाठ अधिक संभवता हे.... । प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र - पामोक्खाओ तेरस्स भारियाओहोत्था अहीण जाव मुरूवाओं॥३॥ तस्मण महासयस रेवइय मारियाए कोलेहरिधाओ अट्ठहिरण्णकोडीओ अट्ठक्या दसगोसाहस्सिएणं वएणं होत्था,अबसेसाणं दुवालसम्ण मारियाणं कोलहस्यिा एगमेगा. हिरण्णकोडीओ एगमे.. गेयवय दसगोसाहस्सिएणं वएण होत्था ॥४॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी-- समोसड्डे, परिसागिंग्गया जहा आणंदो तहाणिमच्छड्, तहेव सावमधम्म पडियजइ. वरं अट्ठहिरण्णकोडीओ संकासाओ उच्चारेति, अटुवया, रेवती पामोक्खाणं तेरस्स भारियाहिं अवशेष मेहुणविहं पञ्चक्खाइ, सेसं सर्व तहेव. इमचनं एयारुवं अभिग्गह मायावत् सुरूपवती थी॥ ३ ॥ उप महा शतक की रेवती भार्या अपने पिता के घर से आठ हिरण्य क्रीडा और आठ वर्ग गाइयों के लाइ थी, काकी की बागहमार्याओं अपने २ पिता के घर से एकेक द हिरवा की, और एक वर्ग माइयों का लाइ थी ॥४॥ उस काल उस समय में श्रमण भगवन् महावीर पधारे, परिषदा आइ, जिस प्रकार आनंद गाथापति भगवन्त के दर्शनार्थ गम का उस ही प्रकार महा. शतक गाथापति भी दर्शनार्थ गया. और उस ही प्रकार श्राक्कका धर्म बारहनत रूप धारन किया, जिस में इतना विशेष-स्वयं की आठ हिरण्य क्रोड का निध्यान, आठ हिरण्य क्रोड व्यापार की, आला हिरण्य क्रोड का पाथरा. यो चौबीस हिरण्य कोड का द्रव्य और आठ वर्ग गाइयों के. स्खकर सभी के 48 मतमांग-उपाशक दशा भूत्र 421 48-महाशतक श्रावक का अष्टप अध्ययने 4 CA-चा Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिगिण्हइ कलाकलिमए कप्पई मे दो दाणियाए कंसपाईए: हिरण भारियाः संववहारित्तइ ॥ ५॥ तएणं से महासए समणोवासएजाए अभिगय जीवाजीव जावे विहरइ ॥६॥ तएणं समणे भगवं महावीरे बहिया बिहार विहरइ ॥७॥ तएणं तीसे रेवई गाहावईणीए. अण्णयाकयाई पुवरत्तावरत्तकालसमयसि कुटुंबजागरियं जागरमाणे जाव इमेयारूवे अज्झस्थिय जाव समुपजइ-एवं खलु अहं इमंसिः दुवालसणं सवत्तीणं विघाएणं प्पो संचाएमि महासएणं समोवासएपं सद्धिं ओरालाई माणुद्रष्य के त्याग किये, तैसे ही रेवती प्रमुख तेरे भार्या के उपरान मैथुन सेवन के ल्याग किये, और विशेष में इसने इस प्रकार अभिग्रह धारन किया, कि-सदैव दो द्रोणे दो कांसी [ धातु के कटोरे हिरण्यसे भरकर व्यापार करना मुझे कल्पे, अधिक नहीं कल्पताहै. और सर आणंद श्रावकके जैसी मर्यादा की ॥ ५ ॥ तब महा शतक श्रावक हुआ वे जीवादिनव पदार्थ के जान यावत् चौदह पकार का दान देते हुवे विचरने लगा ॥8॥ सब श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी बाहिर जनपद देश में विहार कर विचरने लगे ॥ ७ ॥ तब रेवती गाथापतनी अन्यदा किमी वक्त आधी रात्रि व्यतीत हुवे बाद कुटुम्ब १. एक द्रोण ३४ सेर प्रमाण होता है इसलिये महाशतकने सदैव दो द्रोण अर्थात १८ सेंर सुवर्ण से अधिक व्यापार 15 करने का त्याय किया था. ऐसा एक उपशक दशा के भाषांतर में छपाहै. . .......... ..... अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + प्रकाशक-रोजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालामसादजी. | For Personal & Private Use Only www.anelibrary.org Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ सप्तमांग- उपाशक दशा सूत्र 1064 सवाई भोग भोगाई भुजमाणी विहरिचएं, तं सेयं खलु मम एयाओ दुवालसवि "वतीयाओ अग्गपओगेणंवा, बिसप्पओगेगंवा, सत्यप्पओगेणवा, जीवियाओ ववरोवित्ता, एयासि एगमेगं हिरण्णकोडी समिधयं सयमेव उवसंपचिन्ताणं महासयएणं सद्धि ओरालाइ भोगभोगाई भुंगमणी त्रित्तिए; एवं संपेहेइ २त्ता तासिं दुबालसाए सवत्तीर्ण अंतराणिय छिद्राणिय विरहाणिया पडिजागरमाणी विहरह ॥ ८ ॥ तरणं सा "बई अण्णयाकमाई तासि दुवालसष्ट्रं सवतीगं अंतरं जाणीसा छसबत्तीओ सत्थ { जागरणा जागती हुई यावत् इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुवा-यों निश्चय में बारह सौंकी के विघ्न करके महा शतक श्रमणोपासक के साथ औदार्य प्रधान ममुष्य सम्बन्धी भोगोपभोग भोगवती विचरने को, समर्थ नहीं हूं इस लिये मुझे इन बारह सौंकी को, अनिके प्रयोग कर, शास्त्र के प्रयोग कर, विष के प्रयोग कर जीवित रहित करना अर्थात मारना और उनका एकेकहिरण्य कोडका द्रव्य और एकेक गाइयोंका वर्ग मेरे स्वाधीन करके महाशतक के साथ औदार प्रधान उपयोग परिभोग भोगवती विचरना श्रेय है. ऐसा विचार करके उन बारे मौंकी का अन्तर छिद्र विरह देखती हुई प्रमाद रहित विचरने लगी ॥ ८ ॥ तथ वह रेवती अन्यदा किसी वक्त उन बारे सौंकी को अन्तर एकान्तपना, छिद्र मारने का मौका प्राप्त हति, For Personal & Private Use Only 4988 महाशतक श्रावक का अष्टम अध्ययन १३५ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगेणं उदवेइ २ता छससीओ विसप्प २ सा तानि दुवाल सवतीर्ण कोरियं एगमेगं हिरणकोही एममेयं सयमेव पडिवाइ, २ला महासएवं सद्धिं ओरालाइ भोगभोगाई मुंजमाणी विहररं ॥ ९ ॥ तरणं सा रेपई मंस ढोलूया, मंसे सृच्छया जाव अज्झोत्रवण्णा बहुविहहिं मंसेहिय सोलेहिय तलिएहिय भेजिएहिय सूरंच महुंच मेरगंच मच सिंधुच पसणंच आसाएमाणी ४ विहरइ ॥ १० ॥ तणं रायगिहे णयरे अण्णयाक्रयाइ अमारिघाए घुयावि होत्था ॥ ११ ॥ तणं अर्थी को शास्त्र के प्रयोग कर, और छे सौंकी को विष-जेहर के प्रयोग कर मारडाली, और उन बार ही ( सौंकी का पिता के घर से लाया हुवा एकेक हिरण्य क्रोट का द्रव्य और एकेक गाइयों का वर्ग स्वयं उसे अंगीकार करके मक्ष शतक के साथ भौदार्य-प्रधान मनुष्य सम्बन्धी काम भोगोपभोग भोगवती हुइ { विचरने लगी ॥ ९ ॥ तब वह रेवती मांस के आहार में लोलुप्त-मूर्च्छित यावत् आशक्त बनकर बहुत प्रकार के मांस का मोल्ला टुकड़ा कर तलकर भूजकर मुरा के साथ मद्य [सेहत के साथ, मदिरा के साथ, ( घोटी (मेंट्री नाइके रस ) के साथ प्रसन्नः खजूर रस) मदिराको पीती हुई पिलाती हुई देती हुई दिलाती हुई। विचरने लगी ॥ १०॥ नव अन्यदा किमीवक्त राजगृही नगरामें श्रेणिक राजाने अमरीपडा बनवाया अर्थात् "सरे राज्य में कोई भी पवेन्द्रिय का बघन्यात करना नहीं इस प्रकार उद्यापन करवाड़-छोटी J +4 सूत्र 42 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अपोलक ऋषिजी For Personal & Private Use Only * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी जब दासी १.३६ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा रेवईमंसलोलूया मंसेसुमुच्छिया ४. कोलघरिए पुरिसे सदावेद रत्ता एवं वयासीतुम्भेणं देवाणुप्पिया ! ममं कोलघरिएहिं गोवएहिंतो कल्लाकलिं दुवे २ गोणपोयए उद्दवेह रत्ता मम उवह ॥१२॥ तएणं ते कोलहरिया पुरिसा रेवइमाहावईणीए तहत्ति एयमढेपडिसुणइ २त्ता रेवईए कालघरिएहितो वएहितो कल्लाकलिं दुवे २ गोणपोयए बहतिर लातं रेवईए गाहावइणीए उवणेति॥ १३॥तएणं सारेवईए तेहिं मोजमसेहिं सोल्लेहिय ४सुरंच ४ आसाएमाणी विहर ॥ १४॥तएणं तस्स महास्यगस्स समणोवासगस्स wwwnwormanndiankanirurarior मगंग-उपशाक दशा सच Kirinaraniraniaadimarwarihanthiner 498-महासतकश्रावकको अष्ठम अध्ययन पिटाइ ॥ ११॥ तर यह रेवती मांस आहार की लोलुस बनी, मांस आहार में मूच्छित हुई, पिता के घर का जो मनुष्य इम की सेवा में था उस बोलाकर यों कहने लगी- देवानुप्रिय! तू मेरे पिता के घर से लई हुई गौ के वर्ग में से सदैव दो गाइयों के बच्चे (बई) मारकर मेरे को दियाकर ॥ १२॥ लव वह पिता के घर का पुरुप रेनी गाथालनी का बचत प्रमाण किया, मान्य किया, मान्य कर रेवती के पिता के दिये हुवे गाइयों के वर्ग (गोकुठ) सदैव दो गाय के बच्छ का क्यार उस रेवती को देने लगा ३॥ तक कह रेक्ती उस गौ मांस का सोला कर तल मंज मदिरा पद्य के साथ अस्वादती-खाती हुई विचरने लगी. ॥ १४॥ तब वे महा मृत्तक श्रावक बहुत शील व्रत मुणवत. आदि में अपनी आत्मा भावते For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी. बहुहिं सीलबय जाव भावमाणस्स चउहससं बच्छरावइक्वैत्ता, एवं तहेव जैट्टपुत्तं?वेई जाव. पोसहसालाए धम्मपण्णति उवसंपत्तिाप विहरइ ॥१५॥ तएणं सा रेवइ मत्तालोलूया विइणकेसी उत्तरिजयं विकड्माणी २जेणेव पोसह साला जेणेव महासयए समणोवामए तेणेव उवागच्छइ २त्ता महोम्माय जणणाई सिंगारियाई इत्थि भावाइं उवदंसेमाणी २ महासययं समणोवासयं एवं वयासी-हंभो महासया ! समणोवासया धम्मकामया, पुण्ण कामया, सग्गकामया, मोक्खकामया; धम्मकंक्खिया, पुण्णकंक्खिया, सग्गकंक्खिया, विचरते हुवे चौदह वर्ष व्यतीत हुवे पन्नरहवा वर्ष वर्तते आनंद श्रावक की परें धर्म जागरणा करते विचार किया यावत् बढे पुत्र का घर का भार सुपरत कर पौषधशाला में दर्भ के संथारे पर बैठे हुवे श्रमण भगवंत महावीर स्वामी प्रणित धर्म को अंगीकार करके विचरने लगे ॥१५॥ तब वह रेवती मदिर पान कर मद मस्त बनी जिस के सिर के बाल विखरे हुवे हैं, शरीर के वस्त्र उतर कर नीचे पडा रहे है, इस प्रकार विकराल रूप धारन कर पौषधशाला में जहां महाशतक श्रमणोपासक था तहां आई, आकर मोहमद । उत्पन्न करनेवाले, शृंगार रस कर पूरित, काम उत्पादक स्त्री के भाव भेद देखाती हुई महाशतक श्रमणापासक से इस प्रकार कहने लगी-भो महाशतक अपणोपासक ! धर्म के, पुण्य के, स्वर्ग के, मोक्ष के कामी; •प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायनी आयजी ज्वालाप्रसादजी. अथ For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 8 सप्तमांग-उपाशक दश सूत्र मोक्खकंक्खिया; धम्मपिवाप्सिया, पुण्णपिवासिया, सग्गपिवासिय मोक्खपिवासिया; किणं तुब्भं देवाणुप्पिया ! धम्मेणवा पुण्णणवा, सग्गेणवा मोक्खणवा, जेणं तुमं मए सद्धिं ओर ल इ जाव भुंजमाणे णो विहरसि ॥ १६ ॥ तएणं से महासयए समणो १३९ वासय रेवईए गाहावइगीए एयमनॊ नो आढाई नो परियाणाई, अणाड्डाईजमाणा अपरियाणियामाणा तुसणीए धम्मोझाणवग्गए विहरइ ॥ १७ ॥ तएणं सा रेबई महा सयं समणोवासएणं दोच्चंपि तचंपि एवं बयासी-हंभो महासया समणोवासया ! तं चेव भणई ॥ सावि तहेव जाव अणाड्ढाईनमाणे विहरई ॥ १८ ॥ तएणं सा रेवइ धर्म के, पुण्य के, स्वर्ग के, मोक्ष के वांच्छक, धर्म के,पुण्य के, स्वर्ग के, और मोक्ष के प्यास, यदि तुम अहो । देवानुप्रिय ! मेरे साथ औदार प्रधान मनुष्य सम्बन्धी ये काम भांग भोगवत दुवे न बिचरोगे तो धर्म-14 पुण्य - स्वर्ग-मोक्ष का क्या लाभ प्राप्त कर सकोगे ? ॥ १६ ॥ तब वह महाशतक श्रावक रेवती गाथापतनी के उक्त वचन का, आदर विना किये सत्कार विना दिये मौनस्थ धर्म ध्यान ध्याता हुवा विचरने लगा।। १७ ॥ तब बह रेवती महाशतक श्रावक को दो वक्त नीन वक्त इस प्रकार बोली-भो महाशतक श्रमणोपासक! सब अपर मुजब कहा.. तो भी वे: महाशतक धर्म ध्यान ध्याते हुवा ही विचरने । महाशतक श्रावक का अष्टम अध्ययन 428 A8 -- For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vvvna अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी में गाहावाणी महासएणं समोवासएणं अणाडाईज्जमाणी अपरियाणिजमाणी जामेवदिसिं पाउभया तामेवदिसिं पडिगया ॥ १९ ॥ तएणं से महासयए समणोवासए पढमं उवासगं पडिमं उपसंपजित्ताणं विहरई,पढमं अहासूतं जाव एक्कारसवि॥२०॥ तएणं से महासयए तेणं उरालेणं जाव किसे धमाणसंतएजाए॥२१॥ तएणं तस्स महासयस्स अण्णया पुत्वरत्ता वरतकाल समयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स, इमयारुवे अज्झस्थिए-एवं खलु अहं इमेणं उरालेणं जहा आणंदों तहेब अपच्छिम मारणांतिय संलेहणाए झोसियसरीरे भत्तपाणं पडियाइक्खए कालं. अणवलगा ॥ १८ ॥ तब रेवती गाथापतनी महाशतक श्रावक से अनादर पाईहई असत्कार पाईहुई जिस दिशा मे आई थी उस दिशा (अपने घर)को पीछी गई ।।१५।तब महाशतक श्रमणोपासक प्रथम श्रावक की प्रतिमा अंगीकार कर विचरने लगे यावत् आनंद श्रावक की परेदी इग्यारे प्रतिमा सम्यक प्रकारसे आराधकर पालकर पूरी की ॥२०॥ तब महाशतक श्रावक उस उदार प्रधान तप कर यावत् धमनी भूत दुल हु॥२१॥ तब महाशतक श्रावक अन्यदा किसीवक्त आधीरात्रि व्यतीत हुवे धर्मजागरना जागते हो दुम प्रकार विचार उत्पम हुवा, यों निश्चय इस उदार प्रधान तप से मेरा शरीर दुर्बल हुवा यावत आणदवार की तरह अपश्चिम मरणांनिक सलेपना झोसना कर भक्तपान का त्यागकर काल की बांछा . प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदवसहायनी वालाप्रसादजी. 4 For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 सप्तमांग-उपशाक दशा मूत्र 42 wwnwww.aniwwvwrimonian कंक्खमाणे विहरइ ।।२२॥ तएणं तस्स महासयगस्त समणोवासगस्स सुभेणं परिणमेणं जाव खओवसमेणं ओहिनाणे समुप्पण्णे,पुरस्थिमेणं लवणसमदे जोयण संहस्सखेत्तं जाणइ पासइ, एवं दक्खिणेणं, पञ्चत्यिमेणं, उत्तरेणं जाव चुलहिया वाग्लहरपवयं जाणइ पासह, अहे इमीसे रयणप्पभाए यढवीए लोलूयच्चुयं नरथं चौरासीवाल सहस्स द्विईयं जाणई पासई ॥ २३ ॥ तएणं सा रेवईगाहावइणी, अण्णयाकयाई मत्ता जाब उत्त। रेजयं विकड्नमाणी रजेणेव महासयए जेणेव पोसहसालाएतेणेव उवागच्छइ २ ना महासययं नहीं करता हुवा विचरने लगा ॥ २२ ॥ तब उस महाशतक को शुभपरिनाय की वृद्धिकर यावत् ज्ञानावरगिय कर्म के क्षयोपशमकर अवधिज्ञान उत्पन्न हुवा. जिस मे पूर्व दक्षिण और पश्चिम में लवण समुद्र में एक हजार योजन तक जानने देखनेलगा, उत्तर में चुल्लमवंत पर्वत तक जानने देखनेलगा ऊपर देवलोक और नीचे प्रथम नरक का लोलचत नरकावासा में चौराती हजार वर्ष की स्थितितक जानने देखने लगा ॥ २३ ॥ तब वह रेवती गाथापतिनी अन्यदा मदिरा मे उनमत्त बनकर यावत् शरीर के कपडे को नीचेडालती हुइ जहां पौषधशाला जहां महाशतक श्रमणोपासक था तहां आइ. आकर पूर्वोक्त प्रकार दोतीन बक्क बोली, " भो । महाशतक जो तुम मेरेमाथ भोगनी भोगबोगतो तुप को स्वर्ग मोक्ष से Mannanoonrmmonwwwmannousvowwwwwwnnnnnnnnnnnnnnnniwww रहाशतक श्रावक का अष्टम अध्ययन " For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्र ananawarwwwwmarina १४२ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी तहेव भणई जाव दोच्चंपि तचंषि एवं बयासी-हंभो ! तहेव ॥२४॥ तएणं से महासए समणोवासए रेवई गाहावाणीए दोचंपि तच्चपि एवं वन्ते समणे आसरुत्ते ४ ओहिं पउंजई २त्ता ओहिणा अमोइ २त्ता रेवइ गाहावणीए एवं क्यासी-हभारंवई ! अपत्थिय पत्थिए ४ एवं खलु तुम अंतो सत्तरत्तस्स अलसएणं वाहिणा अभिभूयासमाणी अट्ट दुहट्ट वस्सट्टा असमाहिपत्ता कालमासे कालंकिच्चा अहे इीस रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चुएस्स नरए चउरासीई वाससहस्स ट्ठिईएसु नेरईएन नेरइत्ताए उववजिहिसि ॥ २५ ॥ तत्तेणं सा रेवई गाहावईणी महासयए समणोवासएणं एवं वुत्ता समाणी क्यालाभ होगा?" ॥ २४ ॥ तब वे महाशतक दोवक्त तीनवक्त उक्त वचन श्रवनकर अमुरक्त हुवे क्रोधातुरबने अवधिज्ञानकर देखा, देखकर रेवती माथापतिनी से एमा बोले भो रेवति ! अपार्थ की मार्थनेवालो मृत्य की इच्छक, अपलक्षण की धरक, कालीचत शीकोजन्मी, लज्जाकर रहित यों निश्चय से तू आज से मातदिन आलस नाम की व्याघी (रोग)से पराभवाइ हुई आर्त ध्यान के वशहो दुःखसे पीडा पाती हुई असमाधी भाव से काल के अवसर में काल पूर्ण कर नीचे इम रत्नप्रभा नाक के लुलचुत नरकावास में चौरासी हजार वर्ष की स्थितिपने नेरियेपने उत्पन्न होगी ।। २५ ॥ तब वह रेवती गाथ पतिनी महाशतक प्रावक का उक्त वचन श्रवण कर भयभ्रान्त हुई मन से यों कहने लगी-महाशतक मुझ अर्थ काशक राजाबहादुर लाला सुखदवसहायनी ज्वालामरसादजी. For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ सूत्र 4- सप्तमांग उपाशक दशा सूत्र या एवं क्यासी रुर्ण मम महासयए, हणणं मम महासयए, अवज्झायाण अर्ह महासय समोवार, गणजाइणं अहं केणवि कुमारेणं मारिज्जस्सामि त्तिकद्दु, भीया तत्था तसिया उग्विग्गा संजाय भया सणियं २ पञ्च्चोसक्कइ २ त्ता जेणेव सएगिहे तेच उगच्छ २ ओहय जान झियाई ॥ २६ ॥ तरणं सा स्वईगाहवहीणी अंतोससर तरस अलसएणं वाहिणा अभिभूया अहहह वसट्टा कालमासे कालं किच्चा इस रणभाए पुढबीए लोलूएच्चए नरए चउरासीइ वाससहरस ट्टिइएस नेरइएस नेरइएत्ताए उबवण्णा ।। २७ । तेणं कालणं तेणं समएणं समणे भगरं महावीरे समासढे, परिरूष्ट हुवे, हीन प्रीतिवाले हुवे, अपध्यानी अर्थात् मेरे पर खराब विचारवाले हुवे, न मालुम मैं इस [शरापकर) किस प्रकार के कृमृत्यु करके मरूंगी. यों विचार करती, भयभीत होती, त्रास पाती, उद्वेग धरती, भय उत्पन्न होने से शनैः पीछी सरकती हुई पौधशाला के बाहिर निकल कर जहाँ स्वयं का घर था तहां आई, चिन्तगृस्थ वनी, आर्त ध्यान करती रहने लगी ॥ २६ ॥ तत्र वह रेवती गाथापतिंनी सात रात्रि के अन्दर आलस नामक रोग से गृहस्थ हो रोग से पराभव पाई हुई, आर्त ध्यान ध्याती हुई दुःखके वशीभूत हो काल के अवसर काल करके इस रत्ननभा नरक के लोलचुत नरकावास में चौरासी हजार वर्ष के आयुपने उत्पन्न हुई ॥ २७ ॥ उस काल उस समय में श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी पधारे, परिषदा आई For Personal & Private Use Only * महाशतक श्रावक का अनुम अध्ययन 488* १४३ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अमोलक ऋषिजी + साणिगया अब पडिगया ॥ २८॥ गन्यमाइ, समणे भगवं. महावीरे एवं यासी...." एवं खलः मोयमा ! इहेव रायमिहे: जयरे मम अंतेवासी महासयए णाम समणोवासए पोसहसालाए अपच्छिम मारणंति संलहणाए झोसीए सरीरे, भत्तपाणं पडियाइक्खिए है कालं अणवकंक्खमाणे विरई॥ तर्पणं तस्स महासयमस्स रेवईए मत्ता जाव उत्तरियं. विकमाणी जेणेव पोसहसाला जेणव महासयए तेणेष उवागए, महोम्मायं जाव एवं' :. 4 वयासी तहेव जाव दोचपि तच्चंपि. एवं क्यासी,तएणसे महासयए समणोवासए रेवईए गाहावयणीए दोश्चंपि तच्चंपि एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते ४ ओहिणा आभोएइश्ता मार्थ धर्मकथा श्रवण कर परिषदा पीछी गई।२सागौनम स्वामी से श्रहण भगवन्त पक्षपीर स्वामी ऐसाबोले यो निश्चय, हे गौतम ! इस ही राजगृही नगरी में मेरा अन्तेशमी महाशतक श्रमणीयासक पौषधशाला में आपश्चिम मारणान्तिक मलेषना झोसना कर आहार पानी का परित्याग कर-काल मृत्यु की क वांछा नहीं करता हुवा-विचरता है. उस सहाशतक की पत्नी रेवती काम से मदमस्तवन बस को शरीर से अलग डांसती हुई विकल बनकर जहां पौषद शाला थी जहां महाशनक था-तहो आई कामसे मस्तबनी हुई यावत् दो तीन वक्त बचन कहे, उसे श्रवण कर महाशतक असुरक्त हुवे, अवधीज्ञान से देखा. रेवती 17 से यों कहा यावत् नरक में उत्पन्न होगी.हे गौतम-श्रमणो पासक को यावन् अपश्चिम मरणान्तिक सलेपना । .प्रकाशक-राजाबहादुर साला मुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी MAA For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ सप्तपांग-उपाशक दशा सूत्र रेवई गाहावाईणीए जाव उवाजाहसि ॥ णो खलु कप्पई मोयमा ! समोवासगस्स अपच्छिम जाव झूसीयसरीरस्स भत्तपाणं पडियाईक्खियस्स परासंतहिं तच्चेहि तहिएहिं सन्मएहिं अणि हिं अकंतेहि अप्पिएहिं अमण्णुणेहिं अमणामेहिं वागरणेहिं वागरित्तए, संगच्छहणं देवाणुप्पिया ! तुम्मं महासययं समणोवासयं एवं क्याहि नोखलु देवाणुप्पिया ! कप्पइ समणोवासगस्स अपच्छिम जाव भत्तपाण पडियाइक्खियरस परो संतेहि जाव वागरित्तए,तमे यणं देवाणुप्पिया! रेवई गाहावईणी संतेहिं ४ अणिद्वेर्हि वागरणेहिं वागरिया, तणं तुम्मं एयस्स ठाणस्स आलोएहिं जाव जहारिहंच पायळितं पडिवजहि ॥ २९ ॥ तएणं से भगवं गोयमे समणस्स भगवओ किये हवे को आहार पानी के त्याग किये हवे को सत्य तथ्य सद्भत हो परंतु किसी को अनिष्टकारी अकंतकारी अप्रियकारी अमनोज्ञ अनगमते वचन लगते होवे वे कहना कल्पता नहीं हैं. इसलिये गोतम! तुम जावो महाशतक श्रमणोपासक से ऐसा कहो कि-हे देवानुप्रिया ! श्रमणोपासक को सलेषना किये १०हुचे को सत्यतथ्य सद्भूत वचन भी अनिष्टा अमिम किसी को कहना कल्पता नही है. परंतु तुमने हे देवाणुप्रिया ! रेवती गाथापत्तिनी को संतापी अनिष्ट वचन कहे, इसलिये तुम उस पाप स्थानक की आलोचना करो यावत् थथा उचित माय:श्चिच ब्रहणकरो ॥ २९ ॥ तबई 26.महाशकत श्रापकका. अष्टम अध्ययन 4 2 For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालंब्रह्मचारीकुरिअमोलक ऋषिजी महावीररस तहति, एयमटुं विणएणं पडिसुणेई २ चा, तओपडिणिक्खमइ २ ता रायगिह नगरं मझं मझणं अणुप्पविसे २ ता जेणेव महासयगस्स गिह जेणव .. महासय समणोवासय तणेव उवागच्छइ, ॥ ३० ॥ तएणं से महासयंए समणोवामए । भगवं गोयमं एजमाणं पासइत्ता हटे जाव हियए भगवं गोयमं बंदइ णमसइ॥ ३१॥ तएणं से भगवं गोयमे महासयगरस समणोवासयस्स एवं वयासी-एवं खलु देशणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे एव माईक्खइ भासइ पण्णवेइ परुवेइ-नोखलु कप्पई देवाणप्षिया ! समणोवासगरस अपच्छिमे जाव वागरित्तए। तुम्भेणं देवाणुप्पिया ! रेवईए गाहावइनी भगवन्त गौतम ! श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की आज्ञा सहति की, उक्त अर्थ को सविनय मान्य किया, तहां से निकले राजगृही नगरी के मध्य २ में से प्रवेश कर जहां महातक का घर महामहाशत श्रावक था । था तहाँ आये ॥३०॥ तब वह महाशतक श्रमण भगवन गौतम सामी को भाते हुवे देखकर हष्ट तुष्ट यावत् । आनन्दिन हुवा भगवन्त गौतम स्वामी को वन्दना नमस्कार किया ॥३१॥ तब भगान्त गौतम ! महाशतक श्रावक को यों कहने लगे-हे देवानुप्रिय ! अपश्चिः सलेषनावन्त श्रावक को अनिष्ट वचन किसी को कहना, कल्पना नहीं है. हे देवानुपिय ! तुमने रेवती गाथापतिनी को सत्य तथा सद्भुत परंतु अनिष्ट अकंत अप्रिय अमनोन दुःखदाइ वचन कहे संतापी इसलिये तुम इस स्थानक की बालोचना करो यावतू * प्रकाशक-जावहादरलाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप सादजी । भर्थ Amrunawan For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + M 4+8सप्तमांम-उपासक दशा सुत्र संतेहिं ४ अणिटेहि ५ वागरणेहि बागरिया,तं तुमै देवाणुप्पिया! एयरस ठाणस्स आलोएहिं. जात्र पडिवजहि॥३२॥ तएणं से महासयए भगवंगोयमस्स तहत्ति, एयमटुं विणएणं पडि. सुणेइ २त्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ जाव अहारिहंच पायच्छित्तं पडिवजई ॥ ३३ ॥ तएणं से भगवंगोयमे महासगरस समणोवासए अंतियाओ पडिमिक्खमइ २ त्ता रायगिहं नगर मझं मझेणं णिगच्छइ २त्ता जेणेव समणे भगवं महावीरें तेणेव उवागच्छइ २त्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे बिहरइ॥३४॥ तएणं ममणे भगवं महावीरे अण्णयाकयाई रायगिहाओणयराओ पडिनिक्खमइरत्ता बहिया जणवय विहरं विहरइ ॥ ३५ ॥ तएणं से महासयए समणोवासए बहुहिं मायश्चित्त लो॥३२॥ तत्र महाशतक श्रावकने भगरन्त गौतम का वचन तहत किया उक्त वचन विनय कर मान्य किया और उस पाप की आलोचना कर पाय:श्चित्त अंगीकार किया ॥३३॥ तब भगवन्त महाशतक के पास मे निकले राजराही के मध्य २ में होकर निकलकर जहां श्रमण भगवन्त महावीर स्त्र थे तहाँ आकर संयम तप कर अपनी आत्माको भावते हुवे विवरने लगे॥३४॥ तम श्रमण भगवन्त महावीर स्वामीने अन्यहा राजगृही नगरी से बाहिर विहार कर जनपद देश पिचरने लगे ॥ ३ ॥ तब महाशतक है Amwwmarwanamaramannamro महाशतकश्रावक का अष्टम अध्ययन 4.28 For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीलव्यय जाब भावत्ता वीसंवासाइं समणोवासग परियागं पाउणित्ता,इंकारस्स उवासग पडिमाओ समंकाएणं फासित्ता, मालियाए संलहणाए अप्पाणं झोसित्ता, सटुिं. भत्ताई अणसणाइ छदेत्ता,आलोइए पडिकते समाहिपत्ते काल मासं कालंकिच्चा सोहम. कप्पे अरूणबडिसए विमाणे देवत्ताए उबवणे, चत्तारि पलिओवाई ठिई, महाविदेहवासे सिजहि॥ णिक्खेवो॥उवासग दसाणं अट्ठमं अज्झयणं सम्मत्त ॥ ८ ॥ अर्थ + अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी श्रमणोपासक बहुन शीलादि व्रत विशुद्ध पालकर, वीस वर्ष श्रावक की परियाय का पालन कर, इग्य श्रावक की प्रतिमा का सम्यक् प्रकार से आराधन कर, एक महीने की सलेषना से आत्माको झोंमकर, साठ भक्त अनशन का छेद कर आलोचना कर, समाधी भावसे काल के अवसर काल माप्त हो सौधर्म कल्प के अरुणवतंसक विमान में चार पल्योपम के आयुष्यबाला देवता उसन्न हुवा, वहां से चवकर विदेह क्षेत्र में जन्म लेकर यावत् सिद्ध बुद्ध मुक्त होगा।निक्षेप॥इति महाशतक श्रावकका आठवा अध्ययन संपूर्ण हुवा ॥८॥ प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी . AnnananamannamaA For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मप्तमांग-उपाशक दशा सूत्र-482 ॥ नवमम्-अध्यनम् ॥ नवमरस उक्खवो, एवं खलु जंबु ! तेणंकालेणं तेणंसमएणं साचत्थी नयरी, कोटग चेइए, जिय सत्तुराया। तत्थणं सावत्थीए नंदिणीपिया न.मं गाहावइ परिवसइ, अड्डे; चत्तारि हिरणकोडीओ निहाणपउताओ, चत्तारी . हिरण्यकोडी बुढीपउताओ, चत्तारि हिरण्यकोडीओ पवित्थरपउताओ,चत्तारीवया दसगो सहस्सिणं वएणं, अरिसणी भारिया ॥ १ ॥ सामी समोसप्टे, जहा आणंदो तहेव गिहिधम्म पडिवज्जही ॥ सामी बहिया विहारं विहरइ ॥२॥ तएणं से नंदिणीपिया समणोवासए जाए जाव विहरइ ॥३॥ नववा अध्ययन, यों निश्चय अहो जम्ब् ! उस काल उस समय में श्रावस्ति नामे नगरी थी, कोष्टक नामका चैत्य था, जित शत्रु राजा राज्य करता था, ॥ तहां श्रावस्ति नगरी में नंदिनी पिता मामक गाथापति रहता था, वह ऋद्धिवंत यावत् अपराभक्ति था. उस के चार हिरण्य क्रोडी द्रव्य तो निधान में था, चार हिरण्य फोडी द्रव्य व्यापर में था, चार हिरण्य क्रोडी द्रव्य का घरबखेरा था, चार वर्ग माइयों के थे, अश्विनी नामकी भार्या थी ॥१॥ श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधार जिस प्रकार आनन्द गाथापतिने गहस्थ का धर्म अंगीकार किया उसही प्रकार इसने भी किया ।। तब महावीर स्वामीने बाहिर मंदिनापिता श्रावक का नवम अध्ययन 4887 anwarwanamanner For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - तएणं तस्स नंदिणीपियरस बहुमीलब्धयगुण जाव भावमाणस्स चोदस्स संवच्छराई वइक्वंताई तहेव जेतुपुत्तं ठवेइ, धम्मपण्णत्तिावीसंवासाई परियागं नाणात्तं, अरूणगवे विमाणो उपवाओ ॥ महाविदेहवासे सिझहिति ॥ ३ ॥ निक्खवो उवासग दसाणं नवम अज्झयणं सम्मत्तं ॥ ९॥ जनपददेश विहार किया॥२॥तब मंदिनी पिता श्रमणोपासक जीवाजीवका जान हुवा, यावत् चौदह प्रकारका दाम देता विचरने लगा।॥३॥ तब नंदिनी पिता श्रमणोपासक को बहुत प्रकार प्रत पालते चौदह वर्ष व्यतीत हुवे पन्दवे वर्ष में एकदा धर्म जागरना जागते आनंद की तहर विचार हुवा तैसे ही बडे पुत्र को घरभार सुपरतकर पौषध शाला में महावीर स्वामी प्रणित धर्म धारन कर विचारने लगा, इग्यारे प्रतिमा का आराधन किया, एक महीने का संथारा हुवा, आयुष्य पूर्ण कर प्रथम देवलोक के अरुण गई बिमान मे देवता पने उत्पन्न हुवा, चार पल्यों की स्थिति, वहां मे महाविद क्षेत्र में जन्म धारन कर सिद्ध होगे ॥ इति मंदिनी पिता श्रावक का नववा अध्ययन समाप्तम् ॥९॥ .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी . For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ १५. सप्तमांग-उपाशक दशा सूत्र 4 - ॥ दशमम-अध्यनम् ॥ दसमस्स उखवा-एवं खलु जंबु ! तेणंकालेणं तेणंसमएणं सावत्थी नगरी, को?एचेइए, जिय सत्तुराया। ततणं सबस्थी नयरीए सालिहिपियानाम गाहावई परिवसइ, अड्डदित्त, चत्तारि हिरण्णकोडीओ निहाणपउताओ, चत्तारी हिरण्णकोडीओ बुड्डीपउताओ,चत्तारी हिरण्णकोडीओ पवित्थरपउताओ, चत्तारी क्या दसगो साहहिरिसणं वएणं, फग्गुणी भारिया,॥१॥ सामीसमोसड्डे. जहा आणंदो तहगिहीधम्म पडिवज्जइ, जंटुं पुत्तं ?वेइ, पोसहसालाए समणस्स भवओ महावीररस धम्म पण्णति उवसंपजिताणं विहरइ ॥ दशमा अध्ययन-यों निश्चय, हे जम्बू ! उस काल उस समय में श्रावस्ति नाम की नगरी, कोष्टक नाम का चैत्य, जितशत्रु नाम का राजा, तहां श्रावस्ति नगरी में मालिहीपिता नाम का गाथापति रहता +था, उस के चार हिरण्य कोड द्रव्य निधान में था, चार हिरण्य क्रोड द्रव्य व्यापार में था, चार हिरण्य क्रोड का पाथरा था, दश हजार गाय का एक वर्ग ऐमे चार वर्ग गौ के थे और फाल्गुनी नाम की भार्या थी ॥ ॥ श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी पधारे अनन्द की तरह गृहस्थ धर्म अंगीकार किया, बड़े पुन को घर भार सुपरत कर पौषधशाला में महावीर स्वामी प्रणित धर्म अंगीकार कर विचरने लगा मालिहोगिता श्रावक का दशम अध 488 । For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. णवरं निरूवसग्गा॥२॥ एक्कारसवि उवासग्ग पडिमाओ तहेब भाणियबा, एवं कामदेव गमेणं नेयव्वं ॥ जाव सोहम्म कप्पे अरुणकीले विमाणे देवत्ताए उववन्ने, चत्तारी पलिओवमाट्रीइ, महाविदेह वासे सिज्झहिति ॥ ३ ॥ उक्खओ उवासगदसाणं दसमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥१०॥ x x इन को किसी भी प्रकार का उपसर्ग प्राप्त नहीं हुवा. इग्यारे श्रावक की प्रतिमा आराधन कर एक महीने की सलेषना से आयुष्य पूर्ण हो सौधर्म देवलोक के अरुणकिल विमान में देवता हुवा, चार पल्योपम की स्थिति, महा विदेह क्षेत्र में सिद्ध बुद्ध हो सर्व दुःख का अन्त करेंगे ॥ ३ ॥ इति दशा सालिहीपिता श्रावन का अध्ययन संपूर्ण ॥ १०॥ -०१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वाला प्रसादजी* For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्र अर्थ +8+ सप्तमांग- उपाशक दशा सूत्र 8 * उपसंहार * दसहविपन्नरस मे संवच्छरे वट्टमाणाणं चिंता, दसहवि वीसंवासाई समणेोशसयं परियाओ ॥ एवं खलु जंबू ! समणेणं जात्र संपतेणं सत्तम अंग उवासँग दसाणं से अयमट्ठे पण्णत्ते ॥ * ॥ गाथा || वाणियगामे चंपा, दुद्वेष वाणारसी नयरीए ॥ आलंभिया पुरवरी, कंपिल्लपुरंच बोधवा ॥ १ ॥ पोलासं रायगिहं, सावत्भीपुरी दोन्निभवि ॥ एए उवसगाणं, नयरी खलु होती बोधवा ॥ २ ॥ सिवानंदा, भद्दा, सामाघण्णा, बहुला, पुंस्सा, ॥ अग्निमित्ताय रेवई, अस्सणी फग्गुणी भजाणामाई ॥३॥ दश अध्ययनों का संक्षेपाधिकार- दशही श्रावकोंने पनरहने वर्ष में विशेष धर्म करने की चितवना की ( दशोंहीने वीस वर्ष श्रावकपना पाला. यों निश्चय हे जम्बू ! श्रमण भगवन्त महावीर स्वामीने सातवा अंग { का यह अर्थ फरमाया || १ ||गायार्थ-दश श्रावककों के ग्राम के नाम ? प्रथम का वाणिज्य ग्राम, २ दुमरे की चम्पा नमरी, ३ तीसरे, ४ चौथे की बानारसी नगरी, ५पांव की आलंनिगरी का छका कंपिलपुर, ७ सातवे का पोलापुर, ८ आठवे का राजगृही, ९ नववे की और दशवे की साथी नगरी ॥ २ ॥ दश ( श्रावक की भारिया के नाम- १ शिवानन्दा, २ भद्रा, ३ शामा, ४ धन्ना, ५ बहुला, ६ पुंसा, ७ अग्निमित्रा, ८ रेवती, ९ अश्विनी, और १० फाल्गुनी ॥ ३ ॥ दशों श्रावक के उपसर्ग के नाग-१ अबधी ज्ञान का, For Personal & Private Use Only उपमहार ধ १५३ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अमोलक ऋषिमी + * अनुवादक- लब्रह्मचारीमुनि ओहिनाणं पिसाए,मा वावाहि,धण्ण उत्तरिज्जेय ॥ भजाय सुब्बया दुवया, निरुवसम्माय दोणि॥४॥अरुणे अरुणाभेखलु,अरुणप्पह अरुणकतेय सिंट्रेय ॥ अरुणज्झयये अरुणभए, बंतसक गम्भ किल॥५॥ आणंदाइ, उवासग भासछावदिहि सबकय पडिभाया सत्तरते. रउवामा, दुसत्तसट्टि पारणातत्था॥६॥उवामगदसासत्तम अंग सम्मत्तं ॥उवासग्ग दसाणं सत्तमरस अंगस्म एगो सुयखयो दम अध्ययणा एक्कारमग्गदस चेवदिवसेसु उदिसंति॥ अणुविजइ दोसुवि दिवसेसु अंगं तहवे ॥ सत्तम अंग उवासग दसाणं सम्मत्तं ॥७॥ २ पिशाच का, ३ माता का, ४ व्याधी रोग का, स्त्री का ६ देवता वस्त्र मुद्रिकाले चर्चा की वह, भारिया का, ८ दुस्खी रेवती का,नवत्रे और दावे के उपर्सग नहीं॥३॥दश श्रावक जिमश्विमान में उत्पन्न हुवं उनके नाम-१ अरुण २ अरुण नाभ ३ अमण प्रभ,४ अरुण कान, ५ अरुग शिष्ट ६ अरुग द्वन ७ अरुणभूत. ८ अरुणवंतसक, १ अरुणगई. और १० अरुणकिल. ॥४॥ इग्यार प्रतिमा के तपश्चर्प के सर्व१७१३ तो उपवास होते है और२१७पारने होते हैं। इति उपसक दशांग सातवा अंग समाप्तम्।।यह सातवा अंग उपाशक दशका एक ही श्रुत्स्कन्ध है जिस के दश अध्ययन जिनको इग्यारे अथवा दश दिन में उद्देशना । अणुपूर्व दो दिन अन्तिम ॥ इति उपाशक दशांग सातवा अंग समाप्तम् ॥ ७॥ * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी बालाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4 सप्तमांग-उपाशक दशा सूत्र संख्या. m x आनन्द ११ | वाणिज्यग्राम चम्पानगरी कामदेव बानारामी चुल्लनिपिता ४ वानारामी सुरदब ८ आलंभिया चूलशतक ६ काम्पलकपुर | कुंडकलिक ७ ८ ३ " १८ ॥ सूत्र सार रूप दशही श्रावकों का संक्षिप्त यंत्र ॥ | ग्राम के नाम के नाम. स्त्री के नाम. शिवान्न्दा भद्रा शामा धन्ना बहुला पुंसा पोचमपुर महालपुत्र अग्निमित्रा राजगृही महाशतक रेवतीआदी १३ श्रावस्ति नन्दिनीपिता अश्विन मालिहीपिता फाल्गुणी श्रावस्ति धन प्रयान. गौ प्रमान. १८००००००० ४०००० [१८००००००० ४०००० २४००००००० ८०००० १८००००००० ६०००० १८००००००० ६०००० १८००००००० ६०००० ३००००००० ८०००० २४००००००० ८०००० १२०००००००४०००० १२०००००० ४०००० For Personal & Private Use Only उपसर्ग. अवधिज्ञान अरुण अरुणप्रभ पिशाचादि. अरुणनाभ भद्रमाताका १६ रोगका aaratar | विमान नाम. अरुणकांत अरुणशिष्ट अरुणज घातका अरुणभूत रेवतीखीका | अरुणवंतशक उपसर्ग नहीं उपसर्ग नहीं अरुणगर्व अरुणकिल 43- दशही श्रावक का संक्षिप्त यंत्र 48 १५५ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 6 8.6868....869. . पर ....................86 ASSORINEMAHARAAMANds EPALogoralMASTIPS hd * इति सप्तमाङ * Shaktikdes TAAS.8. 20AAR बदक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अयोलक ऋषिजी ॥ उपाशक दशा सूत्र समाप्पम् ॥ प्रकाशक-राजावहादुर लालामुखदेवसहायजी वालाप्रसादजी * 9220998 वीराब्द-२४४४ जेष्ट कृष्ण ३. गुरुवा कलाकाRSapking 187088873 For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F- .......................................2.3.3.2.2.3.2012.83-34--9 PREasansolelass454 AA8688666009999 8 8 8 ACESSni.....66 शास्त्रोद्धार प्रारंभ वीराब्द 2442 ज्ञान पंचमी SEEEEEEES SECREEestere 9836ERFERE SUSd बा पमु अ ऋ म Nasirs MINIAN SUSTANA इति उपासकदशांग सूत्र समाप्तम् STISTANT Scoral STANING SK KTERN ET 225-E-SEREESCECE PEEEEEEEEEEEEET - शास्त्रोद्धार समाप्ति वीराब्द 2446 विजयादशमी