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अर्थ
सूत्र
4- सप्तमांग उपाशक दशा सूत्र
या एवं क्यासी रुर्ण मम महासयए, हणणं मम महासयए, अवज्झायाण अर्ह महासय समोवार, गणजाइणं अहं केणवि कुमारेणं मारिज्जस्सामि त्तिकद्दु, भीया तत्था तसिया उग्विग्गा संजाय भया सणियं २ पञ्च्चोसक्कइ २ त्ता जेणेव सएगिहे तेच उगच्छ २ ओहय जान झियाई ॥ २६ ॥ तरणं सा स्वईगाहवहीणी अंतोससर तरस अलसएणं वाहिणा अभिभूया अहहह वसट्टा कालमासे कालं किच्चा इस रणभाए पुढबीए लोलूएच्चए नरए चउरासीइ वाससहरस ट्टिइएस नेरइएस नेरइएत्ताए उबवण्णा ।। २७ । तेणं कालणं तेणं समएणं समणे भगरं महावीरे समासढे, परिरूष्ट हुवे, हीन प्रीतिवाले हुवे, अपध्यानी अर्थात् मेरे पर खराब विचारवाले हुवे, न मालुम मैं इस [शरापकर) किस प्रकार के कृमृत्यु करके मरूंगी. यों विचार करती, भयभीत होती, त्रास पाती, उद्वेग धरती, भय उत्पन्न होने से शनैः पीछी सरकती हुई पौधशाला के बाहिर निकल कर जहाँ स्वयं का घर था तहां आई, चिन्तगृस्थ वनी, आर्त ध्यान करती रहने लगी ॥ २६ ॥ तत्र वह रेवती गाथापतिंनी सात रात्रि के अन्दर आलस नामक रोग से गृहस्थ हो रोग से पराभव पाई हुई, आर्त ध्यान ध्याती हुई दुःखके वशीभूत हो काल के अवसर काल करके इस रत्ननभा नरक के लोलचुत नरकावास में चौरासी हजार वर्ष के आयुपने उत्पन्न हुई ॥ २७ ॥ उस काल उस समय में श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी पधारे, परिषदा आई
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* महाशतक श्रावक का अनुम अध्ययन 488*
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