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सप्तमांग-उपाशक दशा मूत्र 4088
वासाई समणोवासग परियागं पाउणिति २ सा जाव सोहम्मेकप्पे अरुणभ विमाणे देवत्ताए उववजिहिति ॥ तत्थणं अत्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइ द्विती पण्णत्ता, तत्थणं आणंदस्सवि चत्तारिपलिओवमाइं द्विती पण्णत्ता ॥ ६३ ॥ तत्तणं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ बहिया जाव विहरइ ॥ ६४ ॥ तत्तणं से आणंदे समणोवासतेजाते, अभिगय जीवाजीवे जाव पडिलाभेमाणे विहरति ॥६५॥ तत्तणं सा सिवाणंदा भारिया समणो वासियाजाया जाव पडिलाभमाणिविहराते॥६६॥
तत्तेणं तस्स आणंदस्स समणोवासयस्स उच्चएवतेहिं सीलब्वयएस्स गुणवेरमणस्स बहुत वर्षतक श्रमणोपासक की पर्याय का पालन कर यावत् सौधर्मा कल्प के अरुणाभविमान में देवतापने उत्पन्न होगा, तहां कितनेक देवताओं की चार पल्योपम की स्थिति कही है, तहां आनन्द की भी चार
पल्यापम की स्थिति होगी ॥६३ ॥ तव श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी यावत् बाहिर जनपद देश +विचरने लगे ॥ ६४ ॥ तब वह आनन्द श्रावक जीवाजीव का जान हो यावत् श्रमण निर्ग्रन्थ को चउदह
प्रकार का दान प्रतिलामता हुवा विचरने लगा ॥६५॥ तब वह शिवानन्द अनन्द की भार्या श्रमणोपासिका हुई यावन् प्रतिलाभती हुइ विचरने लगी ॥ ६६ ॥ तब उस आणंद श्रमणोपासक को ऊंचवृत्ति-वृद्धमान परिणाम से शीलव्रत गुणव्रत में प्रवृत्त न करते पोषध उपवास कर अपनी आत्मा को भावते विचरते है ।
- आणद श्रावक का प्रथम अध्ययन 428
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