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सप्तमांग-उपशाक दशा मूत्र 488
अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तलिबरतावयं दुवालसविहिं गिहिधम्म पडिवजहि ॥२७॥ तएणं सा अग्गिमित्ता भारिया महालालारस समणो वासगस्स तहित्ति एयमढें विणएणं पडिसणेति ॥२८॥ तत्तेणं सदाला पोवासए कोडवियपरिसे सहवितिता एवं वयासीखिप्पामेव भोदेवाणुप्पिया! लातुक " जुत्तजोइयं समखुरवालिहाण समलिहिय सिंगएहि जंबूणयामय कलावजोत्तपइ विलट्ठएहिं रययामयघट सुत्तरज्जगत्ररए कंचणखइय
णत्थए प्पग्गहोगहियएहिं नीलुप्पलकयामल्लएहिं पवरगोण जुरा. हिं नाणामणिकणके पास गृहस्थ का धर्म बारह व्रत रूप धारन करो ॥ २७ ॥ तब वह अपना भार्या सद्दाल पुत्र श्रमणोपासक का उक्त कथन मुना, मान्य किया ॥ २८ ॥ तरसदाल पुत्र कौटुम्बिक पुरुप को बोला कर यों कहने लगा-हे देवानुपियशीघ्रता से शीघ्रगतिकरनेवाला स्थ जोतो, बराबर जिस के पांवों के खुर
वाले लम्बी पूंछ वाले,दोनों बराबर गोलाकार श्रृंगवाले,जम्बूनन्द मुवर्णमय ग्रीवा का आभरण से अलंकृत, ॐ गले को बंधना होरी से शोभित रूपे की जिन के गले में घुघर माला युक्त और सुवर्ण कर वैष्ठित सूत्रकी रस्सी कर वन्धे हुवे होवे, और उस को विशेष यहा के साथ ग्रहण की होवे, निलोत्पल कमल समान भूषण किलंगी) से जिन का मस्तक भूपित किया होचे, वर प्रधान यौवन अवस्थावन्त बैलों युक्त अनेक प्रकार की मणीयों से जडी हुइ छोटी मुवर्ण की घुघरीयों की जाली कर जिसे अच्छादन किया हो, अच्छा
*6808 सद्दालपुत्र श्रावक काय अध्ययन 2.87
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