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श्री अमोलक ऋषिजी र
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** अनुवादक- लिब्रह्मचारीमुनि
सोणिएणय आइंचामि जहाणं तुम अट्ट दुहट वसट्ट जाव जीवियाओ विवरोविजसि ॥५३॥ तएणं से सद्दालपुत्ते तेणं देवेणं एवं बुत्ते सम्माणे अभीते जाव विहरति ॥५४॥ तएणं से देवे सद्दालपुत्तं दोच्चंपि तच्चंपि एवं वयासी-हंभो सद्दालपुत्ते ! तंचेव भणंति ॥५५॥ तएणं सद्दालपुत्ते तेणं देवेणं दोचंपि तचंपि एवं वुत्ते समाणे अयं अज्झथिए जाव समुप्पजित्था, एवं जहा चुलणीपिया तहेव चिंत्तेति-जेणं ममं जेट्टपुत्तं, जेणं ममं मज्झिमंपुत्तं, जेणं मम कणियं पुत्तं जाव आइच्चंति जाविय णं मम इमा अग्निमित्ता
भारिया समसुहदुह सहाइयातंपिइच्छति सातोगिहाओ णीणेत्ता मम आगाओ घात्तित्ते, भरीर पर छांदूंगा जिस से तू आर्स ध्यान ध्याता हुवा यावत् अकाल में मृत्यु पावेगा ॥ ५३ ॥ तब सद्दाल पुष उस देवता के उक्त वचन श्रवण कर यावत् धर्म ध्यान ध्याता हुवा विचरने लगा ॥ ५४ ॥ तब वह दरता सद्दाल पुत्र को दो तीन वक्त उक्त वचन कहे, तब सदाल पुत्रन चुल्लनीपिता जैसा विचार किया है मेरी अग्निमित्रा भार्या सुखदुःखका विभाग लेनेवाली उसे भी मारना चाहता है इस लिये श्रेय है मुझे कि इसे पकडं, यों विचारकर उसे पकडने उठा,देवता आकाश में उडगया,उसके हा में स्थंभ आया,कोलाहल शब्द किया, , अग्निमित्रा भार्या आई, सर्व वृत्तान्त सुनाया, पायश्चित्त ले शुद्ध हुवे, संथारा किया, साठ भक्त अनशनका छेदन
• प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रमादजी .
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