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अनुवादक-बालब्रह्मचरी मुनि श्री अकोलक ऋषिजी
जाब वियणं इमाओं मम छहिरपण कोडीओ णिहाणपउत्ताओ, छबुटिपउत्ताओं, छपवित्थरपउताओ, तओवियणं इच्छंति मम सातोगिहातो णीणेता आलभियाए नगरीए सिंघाडाएय जाब विप्पइरित्तते, ते सेयं खलु मम एत्तं पुरिसं गिण्या-तए तिकटु उट्ठतिते, जहा सूरादेवे तहेव भारिया पुच्छति, तहेव कहेति॥७॥सेसं जहा चुल्लणीपियस्स जाव सोहम्मे कप्पे अरुणसिटे विमाणे उवयन्ने चत्तारिपालओवमाइं द्विती, सेसं तंचव जाव
सिज्झिहिति॥ ८॥ निक्खवो उवसगदसाणं पंचमं झयणं सम्मत्तं ॥ ५॥ x यह कोई अनार्य पुरुप है इसने मेरे तीनों पुत्रों को भी मारे और मेरा १८ क्रोडका धन आलंभिका नगरी के श्रीवद यावत् महा पंथ में विश्वेरने का कहता है, इस लिये इसे पकडूं ,यों विचारकर उठे, वह देव आकाश में भग गया,स्थंभ हाथमें माया,कोलाहल शब्द किया, इसकी बहुला भार्या वहां आई, उसे सब वृत्तांत मुनाया, उसने मुरादेव की तरह समझाकर प्रायःश्चित्त लेने का कहा, चुल्ल शतक प्राय:श्चित्त ले शुद्ध हुवा ॥७॥ शेष चल्लनी पिता के जैसे यावत् इग्यारे प्रतिमाका आराधन किया,एन महीनेका संचारा, प्रथम देवलोक अरुण विशिष्ट विधान में देवता हुवे, चार पल्योपम का आयुष्य, महा विदेह में सिद्ध होगा यावत् सर्व दुःख का क्षय करेंगे ॥ इति पांचवा चुल्लशतक श्रावक का अध्ययन संपूर्ण ॥५॥ .
. काश्क-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्यापलद जासी*
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