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री मुनि श्री अमोलक ऋपनी
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सम्मंसहति जाव अहियासेति ॥ ११॥ तणं ते देवे दिव्वं पिसायरूवे कामदेवं अभीयं जाब विहरमाणं पासइ२ त्ता जाव नोसंचाएति कामदेवं समणावासयं जिग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तएवा, खोभित्तरग, विप्परिणामित्तएवा, त हे संते तंते परितते, सणिथं २
पोता पोमहालालातो पडिमिखमति २ या दिव्वं पिसायरूव विप्पजहर महं दिख हत्यिरूवं पिउव्वेई सतंगहा , सम्म संठियं सूजाए पूरओ आ धाराहं अयाकच्छि अलंयकुछि एलंब लंबोदराधरकरं । अब्भुग्गय मउलमल्लिया विमल धवल दंत, कंचकोसी कट्ठदंतं आणावामय चाबल.
समभाव से त्रिकरण शुद्ध सहन की ॥१॥ नब नियपिशाच रूपीदेव कामदेव को मिर्भय यावत् धर्मध्यान ध्याता हुवा देखकर कामदेव श्रावक को निम्रन्य के प्रवचनले चलाने क्षीय उत्पन्न करने जराभी परिणाम पलटाने समर्थ नहीं हुवा, तब यका बहुत ही थका, शन २ पीछाहटकर पौषध शाला बाहिरा आकर दिव्य पिशाचका रूप छ.डा, और दिव्य एकहाथी का रूप वैक्रय दिया, जिसके सात अं (चार पांच सूंड इन्द्रि और पूंछ) जमीन को लगे हैं समस्थान मांसकर पुष्ट आंग से मस्तक ऊंचा अच्छा पुष्ट, पीछेसे बराह (सूबर) के समान पृष्ट कूक्षी, बलवंत कूक्षी, लम्बीकूक्षी लम्बी सूंड, नवीन उत्पन्न होती मालती के फूल समाव उज्वल दांतों, जिसके अग्रयर सुवर्ण की स्याम उस मे प्रवेश किये हुवे दांतों,
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदयस हायजी ज्याला प्रसादजी*
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