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________________ १३ अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी विवासिया, नखलुकप्पइ तव देवाणुप्पिया ! जंसीलवयाई वेरमणाई, पच्चक्खाणाई, पोसहोववासाई, चलितएवा खोभित्तएवा; खंडित्तएवा, मंजित एवा, उझित्तएवा, परित्ता ( पाठांतर - परिच्चइत्तएवा ) तंजतिणं तुमं अज्जसीलाई जाव पोसहोव वासति नछंड्ङ्केसि नंभंजेसि तो ते अहं अज्ज इमेणं नीलुप्पल जाव असिणाई खंडाखंडि करोमि, जहणं तुमं अट्ट दुहट्टवसह अकाले चेत्र जीवीयाओ विवरोविज्जसि ॥ ६ ॥ तत्ते से कामदेव समणोवासए तं देवेणं पिसायरूयेणं एवं वृत्ते समाणे अभीए अतस्थे अणुविग्गे अक्खुभीए अचलिए असंते तुसणीए धम्मज्झाणो गए विहरति धर्म-पुण्य स्वर्ग और मोक्ष के प्यासे, अहो देवानुप्रिय ! तुझे तो सील व्रत वैरमण प्रत्याख्यान पौषध उपवास से चलना सोभित होना खण्डित करना, भंग करना, न्हाखना, छोडना कल्पता नहीं है, परंतु जो आज तू पौषध उपवासादि को नहीं छोड़ेगा, नहीं भंग करेगा तो मैं आज तेरे शरीर के इस निलोल जैसे (खकर टुकडे २ कर डालूंगा, जिम से तू आहट दोहट चित्तकर अकाल में जीवित रहित होवेगा ॥ ६ ॥ तब कामदेव श्रावक, उस मायावी मिथ्यात्वी देवता का उक्त कथन श्रवण कर डरा नहीं, त्रास पाया नहीं, उद्वेग पाया नहीं, व्याकुल हुवा नहीं, स्वस्थान से चलायमान भी हुवा नहीं; मौनस्य धर्म ध्यान ध्याता हुवा | Jain Education International For Personal & Private Use Only * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी ५४ www.jainelibrary.org
SR No.600255
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upasak Dshang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
Publication Year
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_upasakdasha
File Size18 MB
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