________________
सप्तमांग-उपाशक दशा सूत्र 4
गजते भीममुक्कट्टहासे, नाणाविहं पंचत्रणेहि लोमहि उवचित्ती, एगमहंनिलुप्पलुगवल गुलिय अयसि कुसुमप्पगासं असिंखुरधारं गहाय ॥ ५ ॥ जेणेव पोसहासाला जेणेव कामदेव समोवासए तेणेव वागच्छइ २त्ता असुरुत्ते रुठे कुविर चाण्डक्किए मिसिमिसीय माणं कामदेवं समोवासयं एवं वयामी-हंभो ! कारादेवा ! समणोवासया! अपत्थिय पत्थिया, दुरंतपत्तलक्खणा, हीपणषुण्णा, चाउदीया, हिरीतीरिधिईकित्ति परिवज्जिया, धम्मकामया, पुण्णकामया, सम्गकामथा, मोरखकामया; धम्मकंखिया. पुण्णकंखिया,
सम्गकंखिया, मोक्खकंखिया; धम्मपिासीया, पुण्णपियासिया, सग्गपिनासीया, कर एक बडा निलोत्पल कमल समान महिष समान गली के वर्ण ममान अलसी के फूल समान प्रकाशवाला तीक्षण धारा का धारक स्वङ्ग हाथ में धारन किया ॥५॥ उक्त प्रकार पिशाच का रूप बनाकर जहां पौषधशाला है जहां कामदेव श्रारक है तहाँ आया, आकर क्रोध में धपधमायमान होता कामदेव श्रपणोपासक से इस प्रकार बोला-भो का देव श्रमणोपासक ! अपार्थिक के प्रार्थिक-मृत्यु के इच्छक दुरंत-खराब प्रांत-नीच लक्षण के धारक, हीन पुण्यवाला, काली चतुर्दशीका जन्मा, ही-लजा श्री-शोभा, धर्यता वकीर्ति रहित, धर्म-पुण्य-स्वर्ग, और मोक्ष के कारी, धर्म पुग्ध, स्वर्ग और मोक्ष के वांछक,
4980- कामदेव श्रावक का द्वितीय अध्ययन
अर्थ
-
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International