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12 हिमाणे समुप्पजइ ? हेता अस्थि ॥४३॥ जइणं भंते! गिहिणी जाव समुपनी,
एवं खलु भंते ! ममंवि गिहिणो गिहिमज्झ वसंतस्स ओहिणाणे समुप्पण्णे, पुरथिमेणं लवण समुद्दे पंच जोयण सयाई, जाव लोलुए नरयं जाणामि पासामि ॥ ८४ ॥ तएणं से गोयमे आणंदे समणो वासएणं एवं वयासी-अत्थिणं आणंद!! गिहिणो जाव समुप्पजति, णो चेवणे एवं महालए! तणं तुम्हं आणंदा ! एयरस ट्ठाणस्स आलोएहि
जाव तवोकम्म पडिवजाहि ॥ ८५ ॥ तएणं से आणंदे भगवं गोयम एवं क्यासी होना है।८३॥ यदि अहो भगवन्! गृहस्थावास में रहते हुवे गृहस्थको अवधिज्ञान होता है तो अहो भगवन् ! मुझे भी गृहस्थावास में रहते हुवे को अवधि ज्ञान समुत्पन्न हुवा है, जिस से पूर्व दक्षिण और पश्चिम में तो लवण समुद्र में पांच सो २ योजन तक जानता देखता हूं. उत्तर में चूल्ल हेमवन्त पर्वत तक उपर प्रथम देवलोक और नीचे रत्न प्रभा नरक का लोलुचुत नरकावास में चौरासी हजार वर्ष की स्थितितक क्षेत्र मानता देखता हूं ॥८४॥ तब वे गौतम स्वामी आणंद श्रमणोपासक से ऐसा बोले-हे आणंद ! गृहस्था में रहते हुवे को अवधि ज्ञान तो होता है परंतु इतना बडा, इतना क्षेत्र देखे जितना नहीं होता है, इस तुम यह मिथ्यालाप किया इस की आलोचना निन्दना कर यावत् प्राय:श्चित ग्रहण करो ॥८५
49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी+
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सझयजी ज्वालाप्रसादजी.'
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