________________
अभिगिण्हइ कलाकलिमए कप्पई मे दो दाणियाए कंसपाईए: हिरण भारियाः संववहारित्तइ ॥ ५॥ तएणं से महासए समणोवासएजाए अभिगय जीवाजीव जावे विहरइ ॥६॥ तएणं समणे भगवं महावीरे बहिया बिहार विहरइ ॥७॥ तएणं तीसे रेवई गाहावईणीए. अण्णयाकयाई पुवरत्तावरत्तकालसमयसि कुटुंबजागरियं जागरमाणे जाव इमेयारूवे अज्झस्थिय जाव समुपजइ-एवं खलु अहं इमंसिः दुवालसणं
सवत्तीणं विघाएणं प्पो संचाएमि महासएणं समोवासएपं सद्धिं ओरालाई माणुद्रष्य के त्याग किये, तैसे ही रेवती प्रमुख तेरे भार्या के उपरान मैथुन सेवन के ल्याग किये, और विशेष में इसने इस प्रकार अभिग्रह धारन किया, कि-सदैव दो द्रोणे दो कांसी [ धातु के कटोरे हिरण्यसे भरकर व्यापार करना मुझे कल्पे, अधिक नहीं कल्पताहै. और सर आणंद श्रावकके जैसी मर्यादा की ॥ ५ ॥ तब महा शतक श्रावक हुआ वे जीवादिनव पदार्थ के जान यावत् चौदह पकार का दान देते हुवे विचरने लगा ॥8॥ सब श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी बाहिर जनपद देश में विहार कर विचरने लगे ॥ ७ ॥ तब रेवती गाथापतनी अन्यदा किमी वक्त आधी रात्रि व्यतीत हुवे बाद कुटुम्ब
१. एक द्रोण ३४ सेर प्रमाण होता है इसलिये महाशतकने सदैव दो द्रोण अर्थात १८ सेंर सुवर्ण से अधिक व्यापार 15 करने का त्याय किया था. ऐसा एक उपशक दशा के भाषांतर में छपाहै. . .......... .....
अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
प्रकाशक-रोजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालामसादजी.
|
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.anelibrary.org