________________
सूत्र
488
सप्तमांग-उपाशक दशा सूत्र 428
मज्झेणं णिग्गच्छइ २ ता जेणेव दुइ पलासेणामं चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ ता, तिक्खुत्तो आयाहीणं पयाहीणं करेइ२त्ता वंदइ नमसइ जाव पज्जुवासइ ॥ १० ॥ तएणं समणे भगवं महावीरे आणंदस्स गाहावईस्स तीसेय. महति महलियाए जाव धम्मकहा, परिसा पडिगया, रायापडिगओ ॥ ११ ॥ तएणं से आणंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतीए धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ठ? जाव हियए, एवं वयासी-सहहामिणं भंते ! णिग्गंत्थं पावयणं, पत्तियामिणं
भंते ! णिग्गंत्थं पावयणं, रोयामिणं भंते ! जिग्गंत्थं पावयणं,एक्वमेयं भंते ! करता, मनुष्यों के वृन्द से परिवरा हुवा. पावसे चलताहुवा वणिज्याग्रामके मध्यमेंसे निकलकर जहां दूतिपालास चैत्य जहां महावीरस्वामी थे तहांगया, जाकर तीनवक्त हस्तद्वय जोड मस्तकपर प्रदक्षिणावर्त फिरताहुवा वंदना नमस्कार किया यावत् सेवा करमेलगा ॥१०॥ तब श्रमण भगवंत श्रीमहावीर स्वामीने आनन्द गाथापति को और उस महा परिषदा को धर्मकथा सुनाइ, परिषदा पीछी गई. जितशत्रु राजा भी गया ॥ ११ ॥ तब। आनन्द गाथापति श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी के पास धर्मश्रवण कर अवधार करं हृष्ट तुष्ट हुवा। हृदय विक्सायमान हुवा. यों कहने लगा-अहो भगवन् ! मैंने निर्ग्रन्थ के वचनों का श्रद्धा न किया है, १ मुझे निर्ग्रन्थ प्रवचन की प्रतीत हुइ है, निर्घन्ध प्रवचन ग्रहण करने की रुची हुइ है, अहो भगवन् ! जिस .
आणंद श्रावक का प्रथम अध्ययन
488
50
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International