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अगेणं उदवेइ २ता छससीओ विसप्प
२ सा तानि दुवाल
सवतीर्ण
कोरियं एगमेगं हिरणकोही एममेयं सयमेव पडिवाइ, २ला महासएवं सद्धिं ओरालाइ भोगभोगाई मुंजमाणी विहररं ॥ ९ ॥ तरणं सा रेपई मंस ढोलूया, मंसे सृच्छया जाव अज्झोत्रवण्णा बहुविहहिं मंसेहिय सोलेहिय तलिएहिय भेजिएहिय सूरंच महुंच मेरगंच मच सिंधुच पसणंच आसाएमाणी ४ विहरइ ॥ १० ॥ तणं रायगिहे णयरे अण्णयाक्रयाइ अमारिघाए घुयावि होत्था ॥ ११ ॥ तणं अर्थी को शास्त्र के प्रयोग कर, और छे सौंकी को विष-जेहर के प्रयोग कर मारडाली, और उन बार ही ( सौंकी का पिता के घर से लाया हुवा एकेक हिरण्य क्रोट का द्रव्य और एकेक गाइयों का वर्ग स्वयं उसे अंगीकार करके मक्ष शतक के साथ भौदार्य-प्रधान मनुष्य सम्बन्धी काम भोगोपभोग भोगवती हुइ { विचरने लगी ॥ ९ ॥ तब वह रेवती मांस के आहार में लोलुप्त-मूर्च्छित यावत् आशक्त बनकर बहुत प्रकार के मांस का मोल्ला टुकड़ा कर तलकर भूजकर मुरा के साथ मद्य [सेहत के साथ, मदिरा के साथ, ( घोटी (मेंट्री नाइके रस ) के साथ प्रसन्नः खजूर रस) मदिराको पीती हुई पिलाती हुई देती हुई दिलाती हुई। विचरने लगी ॥ १०॥ नव अन्यदा किमीवक्त राजगृही नगरामें श्रेणिक राजाने अमरीपडा बनवाया अर्थात् "सरे राज्य में कोई भी पवेन्द्रिय का बघन्यात करना नहीं इस प्रकार उद्यापन करवाड़-छोटी
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सूत्र
42 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अपोलक ऋषिजी
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* प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी जब दासी
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