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ऋषिजी +
उवागच्छइ सत्ता समणस भगवओ महावीरस्त अदूर सामंते गमणागमणाए पडिकमाइ एसणं मन्नेसणं आलोएई भत्त पाणं पडिदंसेइ २ त्ता समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति एवं क्यासी-एवं खलु भंते ! अहं तुब्भेहि अब्भणणाते तंचव सव्वं कहेति जाव तेणं अहं संकिए कंखिए वितिगच्छ समावणे आणंदस्स समणोयासगस्स अंतियाओ पडिनिक्खमति २त्ता जेणेव इहं तेणेव हब्वमागए, तेणं भंते! किं आणंदणं
समणोवासएप तस्सट्ठाणस आलोएथव्वं जाव पडिवजियव्वं उदाहुमए? ८८|गोयमाति, जहाँ द्युतिपलास चैत्य जहां श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी थे तहां आकर श्रमण भगवंन महावीर स्वामी के पास ममनागमन के पाप को प्रतिकमा, एपणिक गद्ध आहार ग्रहण किया या अशद्ध आहा छोड दिया उस की आलोचना की, आहार पानी भगवंत को बताया, बताकर श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार किया, और यों कहने लगे-अहो भगवन् ! मैं आपकी आज्ञा मे वाणिज्य ग्राम में मौचरी गयाथा इत्यादि वीती हकीगत सब कह सलाहगारत आणंद श्रावक के वचन श्रवण से में संकित कांक्षित वितिगिच्छित दुवा आणंद श्रावक के पास से निकलकर यहां शीघ्र आया, इसलिये अहो भगवन् ! कहिये-उस मिथ्या उच्चार स्थानक की आणंद श्रावक आलोचना निन्दना कर प्राय:श्चित्त ले कि मैं लूं? ॥४८॥ गौतम स्वामी से श्रमण भगवंत महावीर स्वामी एमा बोले-अहो गौतम ! नुम ही
प्रकाशक-राजाबहादुर लालामुखदेवसहायजी चालाप्रसादजी*
40 अनवादक-बालबा
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