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आओ! प्राकृत सीखें
भाग
-:लेखक:परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय कस्तुरसूरीश्वरजी म.सा.
-:सपादक :परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा.
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आओ ! प्राकृत सीखें
(भाग-I)
प्रणेता परम पूज्य शासनसम्राट्, तीर्थोद्धारक भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय नेमिसूरीश्वर पट्टालंकार परम पूज्य समयज्ञ, शान्तमूर्ति श्रीमद् विजय विज्ञानसूरीश पट्टधर विद्वद्वर्य प्राकृत विशारद पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय कस्तुरसूरीश्वरजी महाराजा
हिन्दी अनुवाद के संपादक परम शासन प्रभावक, दीक्षा के दानवीर पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा के तेजस्वी शिष्यरत्न बीसवी सदी के महानयोगी नवकार साधक पूज्य पंन्यास प्रवर श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य के चरम शिष्यरत्न प्रवचन प्रभावक
हिन्दी साहित्यकार पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी महाराजा
प्रकाशक 164 दिव्य संदेश प्रकाशन
205, सोना चेंबर्स, 507-509, जे.जेस अस. रोड, चीरा बझार, सोनापुर के सामने, मुंबई-400 002. Tel. 022-2203 45 29
Mobile: 9892069330
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आवृत्ति : प्रथम • मूल्य : 125/- रुपये विमोचन : दि. 18-10-2013 प्रतियाँ : 1000 • स्थल : सेसली पार्श्वनाथ तीर्थ, बाली (राज.)
आजीवन सदस्ययोजना | प्राप्ति स्थान आजीवन सदस्यता शुल्क - 2500/- रु.
11. चंदन एजेंसी M. 9820303451 आप जैन धर्म के रहस्य - जैन इतिहास-1607. चीरा बाजार, ग्राउंड फ्लोर, जैन तत्त्वज्ञान - जैन आचार मार्ग, | मुंबई-400002. प्रेरणादायी कथाएँ आदि का अध्ययन | OR:2206 06740.2205 6821 करना चाहते हो तो आज ही आप दिव्य | 2. चेतन हसमुखलालजी मेहता संदेश प्रकाशन मुम्बई की आजीवन | पवनकुंज, 303, A Wing, सदस्यता प्राप्त कर लें। आजीवन
नाकोड़ा हॉस्पिटल के पास,
भायंदर-401101.028140706 सदस्यों को अध्यात्मयोगी निःस्पृह
M.9867058940 शिरोमणि स्व. पूज्यपाद पंन्यासप्रवर श्री | 3. सुरेन्द्र गुरुजी भद्रंकर विजयजी गणिवर्यश्री एवं उन्हीं| Clo. गुरुगौतम एंटरप्राइज, के चरम शिष्यरत्न प्रवचन प्रभावक परम 14, रुक्मिणी बिल्डींग, पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय आदिनाथ जैन मंदिर, रत्नसेनसूरीश्वरजी म. सा. का चिकपेट, बेंगलुर-560053. प्रतिमास प्रकाशित अर्हद दिव्य संदेश, M.08050911399,धीरज 934122279 उपलब्ध १० पुस्तके एवं भविष्य में |4. श्री आदिनाथ जैन श्वेतांबर संघ
श्री सुरेशगुरुजी M. 9844104021 प्रकाशित हिन्दी साहित्य घर बैठे |
नं.4, Old No. 38, फ्लोर, पहुँचाया जाएगा । आप मुंबई या बेंगलोर के
रंगराव रोड, शंकरपुरम्, पते पर दिव्य संदेश प्रकाशन-मुंबई के नाम |
बैंगलुर-560 004. (कर्नाटक) से चेक, ड्राफ्ट से रकम भर सकोगे। राजेश मो. 9241672979
आजीवन सदस्यता शुल्क Rs. 2500/- भिजवाने का पता एवं पुस्तक प्राप्ति स्थान :
(1) दिव्य संदेश प्रकाशन Clo. सुरेन्द्र जैन, 205, सोना चेंबर्स, 507-509,जे.अस.स. रोड, चीरा बझार, सोनपुर के सामने, मुंबई-2. Tel. 022-2203 45 29, Mobile : 9892069330
(2) दिव्य संदेश प्रचारक प्रकाश बड़ोल्ला, 52, 3rd Cross, शंकरमाट रोड, शंकरपुरा,
बेंगलोर-560 004.0(0.)41247478 M. 8971230600 (3) राहुल वैद, Clo. अरिहंत मेटल कं., 4403, लोटन जाट गली, पहारी धीरज, सदर बाजार, दिल्ली-110006. M.9810353108
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प्रकाशक की कलम से
__प्राकृतविशारद, शासनप्रभावक स्व. पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय कस्तुरसूरीश्वरजी महाराज द्वारा विरचित प्राकृत विज्ञान पाठमाला जो गुजराती भाषी वर्ग के लिए प्राकृत भाषा सीखने के लिए अति उपयोगी प्रकाशन है । हिन्दी भाषी विशाल वर्ग भी प्राकृत भाषा का अध्ययन कर पूर्वाचार्य महर्षियों के सदुपदेश से लाभान्वित हो सके, इसी पवित्र भावना से मरुधररत्न, हिन्दी साहित्यकार पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म. सा. ने इस गुजराती प्रकाशन के हिन्दी अनुवाद का संपादन किया है।
___ वर्तमान में गुजराती भाषाविद् साधु-साध्वीजी भगवंत इसी प्राकृत विज्ञान पाठमाला के आधार पर प्राकृत भाषा का अध्ययन करते है। पर हिन्दी भाषी वर्ग के लिए इस प्रकार के प्रकाशन की बहुत ही बडी कमी थी । अपने संयम जीवन के प्रारंभिक काल में पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म. सा. ने भी इसी प्राकृत विज्ञान पाठमाला के आधार पर प्राकृत भाषा का अभ्यास किया था । गुजराती भाषा से अनभिज्ञ विद्यार्थियों के लिए इस साहित्य की कमी पूज्यश्री को अखरती थी। इस कमी की पूर्ति के लिए उनका पूरा पूरा लक्ष्य
था ।
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JAN
पूज्यश्री की प्रेरणा से पू. सा. श्री अध्यात्मरेखाश्रीजी ने 'प्राकृत विज्ञान पाठशाला' के हिन्दी अनुवाद के लिए प्रयास किया । तत्पश्चात् पूज्य आचार्य श्री ने अतिव्यस्तता के बीच भी समय निकालकर उस प्रेस कॉपी का परिमार्जन किया । इसी के फलस्वरुप आज हम पाठकों के कर कमलों में 'आओ ! प्राकृत सीखें' पुस्तक अर्पण करते हुए परम आनंद का अनुभव कर रहे है। हमारे हिन्दी पाठकों के | गोडवाड के गौरव, मरुभूमि के रत्न पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म. सा. का परिचय देने की हमें कोई आवश्यकता नही है क्योंकि उनका साहित्य ही उनका परिचय बन गया है ! हिन्दी साहित्यकार के रुप में वे जगमशहर है।
36 वर्षों के उनके निर्मल संयम जीवन में प्रथम बार ही उनका : चातुर्मास गोडवाड की धन्यधरा उनकी जन्मभूमि बाली नगर में होने जा
रहा है और उसी धरा पर उनके द्वारा हिन्दी भाषा में संपादित 164 वीं पुस्तक 'आओ ! प्राकृत सीखे'का विमोचन होने जा रहा है । जो हमारे लिए गर्व की बात है।
___ हमें आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास हैं कि पूज्यश्री के पूर्व प्रकाशनों की भांति यह प्रकाशन भी लोकोपयोगी और उपकारक सिद्ध होगा।
निवेदक दिव्यसंदेश प्रकाशन ट्रस्ट मंडल मिलापचंद सूरचंदजी चौहान - पिंडवाडा सागरमल भभूतमलजी सोलंकी-लुणावा रमेशकुमार ताराचंदजी (C.A.)- खिवांदी प्रकाशचंद हरकचंदजी राठोड - बाली सुरेन्द्रकुमार सोहनराजजी राठोड - बाली ललितकुमार तेजराजजी राठोड - बाली'
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ग्रंथ प्रणेता की कलम से
विद्वद्वर्य पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजयकस्तुरसूरीश्वरजी महाराज
'प्राकृत विज्ञान पाठमाला' (आओ ! प्राकृत सीखें) पुस्तक हाथ में आने पर बुद्धिशाली मानवी के मन में यह जिज्ञासा पैदा होना सहज है कि 'प्राकृत' शब्द का क्या अर्थ हैं ? साहित्य के क्षेत्र में उसका क्या हिस्सा है ? अन्य भाषाओं के साथ उसका क्या संबंध है ? 'प्राकृत' का अर्थ क्या ?
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प्रकृति सिद्ध जो कोई वस्तु हो, उन सब को 'प्राकृत' कहते है । 'प्राकृत' शब्द का इतना विस्तृत अर्थ होने पर भी यहां भाषा प्रकरण में भाषा के साथ संबंधित 'प्राकृत' शब्द लेना है अर्थात् प्रकृति सिद्ध जो भाषा, उसे प्राकृत कहते है ।
व्याकरण आदि से संस्कार नहीं पाए हुए दुनिया के प्राणी मात्र के सहज वचन व्यापार को प्रकृति कहते है । उसमें रही अथवा उसी भाषा को प्राकृत कहते है । प्राकृत भाषा के शब्द संस्कार दिए बिना भी आबाल गोपाल द्वारा बोले जा सकते हैं ।
प्राकृत की व्युत्पत्तियाँ :- कवि रुद्रट कृत काव्यालंकार पर श्री नमि साधु विरचित टिप्पण में प्राकृत शब्द की दो प्रकार से व्युत्पत्ति की है ।
1) सकल जगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरनाहतः संस्कारः सहजो वचन व्यापारः प्रकृतिः तत्र
भवं सैव वा प्राकृतम् ।
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व्याकरण आदि से संस्कार नहीं पाया हुआ जगत् के सभी प्राणियों का स्वाभाविक वचन व्यापार प्रकृति कहलाता है । इस प्रकार की प्रकृति में हो उसे प्राकृत कहते है |
2) आरिसवयणे सिद्धं देवाणं अद्धमागहा वाणी इत्यादि-वचनाद् वा प्राक् पूर्वं कृतं प्राक्कृतम् ।
आर्ष वचन में सिद्ध देवो की अर्धमागधी भाषा होती है । इत्यादि वचन से प्राक्कृत प्राक्-पूर्व में किया हो, उसे प्राकृत कहते है ।
प्राकृत की अन्य भी व्युत्पत्ति मिलती है । 'प्रकृत्या स्वभावेन सिद्धं प्राकृतम्' अथवा प्रकृतीनां साधारणजनानामिदं प्राकृतम् । प्रकृतिस्वभाव से जो सिद्ध हो, उसे प्राकृत कहते है अथवा प्रकृति अर्थात् साधारण जन संबंधी भाषा को प्राकृत कहते है।
प्राकृत साहित्य की बहुलता :- जैनों के परम पवित्र आगम (उत्तराध्ययन आदि कालिकश्रुत, दशवैकालिक आदि उत्कालिक श्रुत तथा आचारांग आदि ग्यारह अंगों की रचना में भी प्राकृत भाषा को पसंद किया है । इस पसंदगी में भी विशेष लाभ देखा गया है ।
आगम में आप्त वचन है - मुत्तूण दिहिवायं कालिय-उक्कालिय सिद्धतं । थी-बालवायणत्थं पाइयमुइयं जिणवरेहिं ।।
अर्थ :- स्त्री जाति और क्षुल्लकवर्ग भी सरलता से वाचन का लाभ प्राप्त कर सके इस हेतु से दृष्टिवाद को छोडकर कालिक और उत्कालिक अंग रुप सिद्धांत, जिनेश्वर भगवंत ने प्राकृत में कहे है ।
'अद्धमागहाए भासाए भासति अरिहा' (औपपातिक सूत्र-5677)
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अत्थं भासइ अरिहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणा । (आवश्यक सूत्र)
'पोराणमद्धमागह भासानियमं हवइ सूत्तं' इत्यादि आगम वचन होने से जिनेश्वर देव अर्धमागधी भाषा में आगमार्थ कहते है और गणधर भगवंत सूत्र रचना करते है, फिर भी उनकी प्राकृतता अबाधित रहती है, क्योंकि अर्धमागधी भाषा को आर्ष प्राकृत मानी जाती है ।
प्राकृत में विवेचन साहित्य ग्रंथ :- आगमों पर नियुक्तियाँ, भाष्य, चूर्णि आदि विवेचन के ग्रंथ प्राकृत भाषा में रचे गए है, जिनका जिनागमों के विवेचन-ग्रंथों में अग्रस्थान है, इतना ही नहीं, किंतु आगम ग्रंथ जितना महत्त्व उन्हे दिया गया है।
अन्य जैनग्रंथ :- प्राकृत भाषा में जैनों के अनेक ग्रंथ रचे गए है । जैसे- प्रकरण ग्रंथ, कुलक, कथानक, चरित्र-ग्रंथ, प्रकीर्णक, अन्य अन्य विषय के ग्रंथ, वैद्यक, अष्टांग निमित्त तथा ज्योतिष आदि।
जैन दर्शन की द्वादशांगी के बीज रुप तीन वचन, जो तीर्थंकर परमात्मा गणधर भगवंतों को प्रदान करते है, जिन्हे प्राप्तकर गणधर भगवंत द्वादशांगी की रचना करते हैं, जो 'त्रिपदी' के नाम से जगत् में प्रसिद्ध है, उसकी भी रचना प्राकृत में ही है ।
'उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा'
प्राकृत भाषा में गद्य व पद्य में सैकड़ों ग्रंथों की रचना हुई
जैसे - महावीरचरियं - श्री गुणचंद्रसूरिकृत - पद्यमय - ग्रंथप्रमाण 12000 श्लोक
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पउम चरियं - श्री विमलसूरिकृत पद्यमय - 10000 श्लोक समराइच्च कहा - हरिभद्रसूरिकृत गद्यमय 10000 श्लोक सुरसुंदरीचरियं श्री धनेश्वरसाधुकृत पद्यमय 4000 श्लोक इसके सिवाय सुपासनाहचरियं कुमारपालचरित, सिरिसिरिवाल कहा, वसुदेव हिंडी आदि अनेक ग्रंथ प्राकृत भाषा की महत्ता सिद्ध करते है ।
I
जैन
1. चंद्रकृत-प्राकृत लक्षण
2. त्रिविक्रमदेवकृत
प्राकृतानुशासन
जैनेतर प्राकृत ग्रंथ :- कविवत्सल हाल कृता - गाथा सप्तशती, प्रवरसेनकृत- सेतुबंध (रावण वहो) वाक्पतिराजकृत गउडवहो तथा महुमहविचय, राजशेखरकृत कर्पूरमंजरी सट्टक, आनंदवर्धनकृता विषम बाल लीला, भूषणभट्टपुत्रकृता लीलावती कथा, आदि काव्य प्राकृत में है ।
3. श्री हेमचन्द्रसूरिकृत
प्राकृत व्याकरण
(सिद्धहेमशब्दानु
शासन के आठवे
अध्याय में
प्राकृत
-
प्राकृत व्याकरण
-
अजैन
1. पाणिनिकृत - प्राकृत लक्षण (जो हाल उपलब्ध नहीं है ।) 2. वररुचिकृत - प्राकृत प्रकाश
आदि छ
भाषाओं का बोध है ।
3. हृषीकेशकृत - प्राकृत व्याकरण 4. मार्कंडेयकृत - प्राकृत सर्वस्व 5. क्रमदीश्वरकृत - संक्षिप्तसार प्राकृत
व्याकरण
6. लक्ष्मीधरकृत - षड् भाषा चन्द्रिका
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प्राकृत कोष :- जन्म से ब्राह्मण होने पर भी सोच समझपूर्वक जैन धर्म का स्वीकार करनेवाले परमार्हत् महाकवि धनपाल विरचित पाइअलच्छी नाममाला तथा कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्यकृत 'देशी नाममाला' आदि प्राकृत शब्दों का सुंदर बोधवाले प्राकृत शब्दकोष है ।
प्राकृत छंद के ग्रंथ :- गाथा लक्षण, नंदिताढ्य, सअंभू छंद, प्राकृत पिंगल, विरहांक कविकृत छंदोविचित तथा श्री हेमचन्द्राचार्यकृत छंदोनुशासन आदि ।
प्राकृत में से अन्य भाषाओं का जन्म :- एक ही वर्षा का जल स्थान भेद से विविध भेदवाला बनता है, उसी प्रकार एक ही प्राकृत भाषा स्थान भेद से अनेक संस्कृत आदि विविध भाषा भेद प्राप्त करती है । कविराज वाक्पतिराज 'गउडवहो' नाम के प्राकृत काव्य में लिखते हैं
'सयलाओ इमं वाया विसंति एत्तो य णेंति वायाओ' एंति समुहं चिय, ति सायराओ च्चिय जलाई ।
भावार्थ :- सभी प्रकार का पानी समुद्र में प्रवेश करता है और समुद्र में से निकलता है, उसी प्रकार सभी वाणी (भाषाएँ) प्राकृत में प्रवेश करती है और प्राकृत में से निकलती है ।
'यद् योनिः किल संस्कृतस्य' ये वचन बोलकर कवि राजशेखर कहते है- मैं विश्वासपूर्वक कहता हूँ कि प्राकृत भाषा, संस्कृत का उत्पत्तिस्थान है ।
कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्यजी भी स्वोपज्ञ काव्यानुशासन में जैनीवाणी की स्तुति करते हुए कहते है
'सर्वभाषा परिणतां जैनीं वाचमुपास्महे’- सभी भाषाओं में परिणाम पानेवाली जैनी वाणी
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(जो अर्धमागधी है और आर्ष प्राकृत कहलाती है) की हम उपासना करते हैं।
उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध होता है कि प्राकृत , संस्कार विशेष पाने से संस्कृत आदि अन्य भाषाओं के रुप में परिणत होती है।
प्राकृत भाषा की विशेषताएं :- कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरिजी ने स्वोपज्ञ काव्यानुशासन में लिखा हैं
अकृत्रिम स्वादुपदां, परमार्थाभिधायिनीम् । सर्व भाषा परिणतां, जैनी वाचमुपास्पहे ।।
अकृत्रिम, पद-पद पर मधुरता धारण करनेवाली, परम अर्थ का प्रतिपादन करनेवाली और सभी भाषाओं में परिणाम पाई हुई जैनीवाणी की हम उपासना करते है ।
अकृत्रिमता :- व्याकरण आदि के संस्कार से निरपेक्ष स्वभावसिद्धता ।
स्वादुता :- श्रोतावर्ग के कर्णयुगल में मधुर रस पैदा करनेवाली ।
अकृत्रिम स्वादुता :- प्रकृति सिद्ध मधुरता या नैसर्गिक मधुर रस पोषकता।
यायावरीय कवि राजशेखर बालरामायण में लिखते है'गिरः श्रव्या दिव्याः प्रकृतिमधुराः प्राकृत-धुराः।
सुनने योग्य दिव्य और प्रकृति मधुर ऐसी प्राकृत आदि वाणी है।
सरलता :- प्राकृत में रही सुबोधता, सुखग्राह्यता, बालादिबोधकारिता किसको आकर्षित नहीं करती है।
सिद्धर्षि गणी ने उपमितिभवप्रपंचा कथा में पीठबंध श्लोक 51 में लिखा हैं
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बालानामपि सद्बोधकारिणी कर्णपेशला। तथापि प्राकृता भाषा, न तेषामपि भासते ॥
बालजीवों को सुंदर सद्बोध करानेवाली और कर्णप्रिय प्राकृत भाषा हैं, फिर भी दुर्विदग्धों को पसंद नहीं पडती है।
कोमलता :- प्राकृत काव्य में रही सुकोमलता-मृदुता कमलदल का भान कराती है । यायावरीय राजशेखर ने कर्पूरमंजरी सट्टक में लिखा है
परुसो सक्कअबंधो, पाइअबंधो वि होइ सुउमारो। पुरिसाणं महिलाणं जेत्तियमिहंतरं तेत्तियमिमाणं ॥
संस्कृत रचना कठोर होती है, जबकि प्राकृत रचना सुकुमार अर्थात् कोमल होती है । कठोरता और सुकुमारता में जितना अंतर पुरुष और स्त्री के बीच है, उतना अंतर इन दो भाषाओं के बीच जानना चाहिये ।
लाटप्रियता :- लाटदेश के लोगों को प्राकृत भाषा पर अपूर्व प्रेम था । यायावरीय कवि राजशेखर काव्यादर्श में कहते हैं
पठन्ति लटभं लाटाः प्राकृतं संस्कृतद्विषः । जिह्वया ललितोल्लाप-लब्ध सौन्दर्यमुद्रया ॥
भावार्थ :- संस्कृतद्वेषी लाटदेशवासी लोग ललित उल्लाप करने में सौंदर्य बिरुद को पाई जीभद्वारा सुंदर प्राकृत भाषा बोलते हैं |
इससे सिद्ध होता है कि एक समय लाटदेश की विशिष्ट भाषा प्राकृत थी।
उपसंहार :- उपरोक्त प्रमाणों से सुज्ञवाचक समझ गए होंगे कि सकलजनवल्लभ, अकृत्रिम, प्रकृतिवत्सल, स्वादु तथा आबालगोपाल, सुबोधकारिणी भाषा यदि कोई हो तो वह प्राकृत भाषा है।
इस पवित्र आर्य देश की सबसे प्राचीन दो भाषाएं है - प्राकृत और संस्कृत । ये दो भाषाएं भारतवर्ष के
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निर्मल नयन युगल है । दोनों का साहित्यक्षेत्र में अमाप योगदान हैं,
फिर भी आर्य संस्कृति को समझने के लिए जितनी आवश्यकता संस्कृत की हैं, उससे भी अधिक आवश्यकता प्राकृत की है।
बालक हो या बालिका, स्त्री हो या पुरुष, राजा हो या रंक, मूर्ख हो या पंडित - सभी को प्रिय व उपकार करनेवाली भाषा हो तो वह प्राकृत भाषा
प्रस्तुत ग्रंथ की उपयोगिता :- समय परिवर्तनशील है । बीच समय में प्राकृतभाषा सीखने के साधन छिन्न भिन्न हो जाने से प्राकृत भाषा के अध्ययन में मंदता आ गई थी और संस्कृत भाषा की साधन सामग्री का सद्भाव होने से संस्कृत का प्रचार बढ गया था ।
परंतु अभी अभी साधुवर्ग में और हाईस्कूल कॉलेज में Second Language के रुप में प्राकृत का पठन पाठन चालू हुआ है, जिससे गृहस्थवर्ग में भी प्राकृत का अच्छा प्रचार हो रहा है।
प्राकृत के अधिकाधिक प्रचार के लिए और विद्यार्थीवर्ग को सरलता से बोध हो सके इसके लिए मार्गोपदेशिका रुप पुस्तक की आवश्यकता थी। उसमें परम पूज्य परमोपकारी समयज्ञ श्रीमद्गुरुराज (विजय विज्ञानसूरीश्वरजी म.सा.) श्री की प्रेरणा से मैंने यह कार्य हाथ में लिया । उनकी असीम कृपा से 'प्राकृत विज्ञान पाठमाला' तैयार हुई है, उसके लिए मैं उनका सदा ऋणी रहूंगा।
इस पुस्तक का अध्ययनकर भव्यात्माएँ प्राकृत भाषा का सरल बोध प्राप्त कर उसका अधिकतम प्रचार-प्रसार करे । इस 'प्रासंगिक' के आलेखन में पं-लालचंद भगवानदास गांधी द्वारा आलेखित 'प्राकृत भाषा की उपयोगिता' का भी उपयोग किया गया है ।
शुभं भवतु
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संपादक (हिन्दी आवृत्ति) की कलम से
विश्व में जितने भी धर्म है, उन धर्मों का मौलिक साहित्य किसी न किसी भाषा से जुडा हुआ है ।
क्रिश्चियन धर्म का मूलभूत साहित्य Bible अंग्रेजी भाषा में है। इस्लाम धर्म का मूलभूत साहित्य उर्दु भाषा में है । हिन्दुओं के मुख्य गुंथ वेद-पूराण-उपनिषद् आदि संस्कृत भाषा में है । बौद्धों के त्रिपीटक पाली भाषा में हैं, उसी प्रकार जैनों के मूल आगम वर्तमान में विद्यमान आचारांग आदि ग्यारह अंग प्राकृत भाषा में है, जबकि बारहवां अंग दृष्टिवाद संस्कृत भाषा में था ।
___ वर्तमान में श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ को सर्वमान्य 45 आगम प्राकृत भाषा में ही है | उन आगमों पर उपलब्ध नियुक्तियॉ-भाष्य-चूर्णि आदि भी प्राकृत भाषा में ही है । हाँ ! उन आगमों के गंभीर रहस्यों को जानने समझने के लिए पूर्वाचार्य महर्षियों ने संस्कृत भाषा में टीकाओं की भी रचनाएं की है।
वर्तमान में दो अंगों पर शीलांकाचार्य और नौ अंगों पर अभयदेवसूरिजी म. की टीकाएं संस्कृत भाषा में विद्यमान है।
श्रावक जीवन के आचारप्रधान ग्रंथ भी प्राकृत भाषा में ही है सुबह-शाम करने योग्य प्रतिक्रमण के सभी सूत्रों की भाषा प्राकृत ही है। छ आवश्यक के सभी सूत्र प्राकृत भाषा में है।
भागवती दीक्षा अंगीकार करने के बाद जिन आवश्यक और दशवैकालिक सूत्रौं के योगोद्वहन किए जाते है, उनकी भी भाषा प्राकृत ही है।
बडे ही दःख की बात है कि जैनों के प्रधान सत्र प्राकृत भाषा में होने पर भी उस भाषा को जानने समझनेवाले, श्रावक वर्ग में तो नहींवत् ही है । इस प्रकार प्राकृत भाषा का बोध साधु-साध्वी वर्ग तक सीमित हो गया है।
__ भाषा के यथार्थ बोध के अभाव में जब वे सूत्र कंठस्थ किए जाते है तो या तो उनका सही उच्चारण नहीं हो पाता है- अथवा सही उच्चारण होने पर भी उनको बोलने में विशेष आनंद नहीं आता है ।
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भाषा बोध के अभाव में प्रतिक्रमण आदि की क्रियाएं निरस बनती जा रही है । कहीं-कहीं क्रियाएं हो रही हैं, परंतु उसका आनंद चेहरे पर नजर नहीं आ रहा है।
। तीर्थंकर परमात्मा की वाणी स्वरुप ये सूत्र शाश्वत सत्यों का बोध करानेवाले होने पर भी भाषाबोध के अभाव में उन शाश्वत सत्यों के लाभ से वंचित रहे है।
। जैन दर्शन का मौलिक साहित्य संस्कृत और प्राकृत भाषा में हैं, अतः जैन दर्शन के मर्म को जानना समझना हो तो संस्कृत और प्राकृत भाषा का बोध होना ही चाहिये ।
कलिकाल सर्वज्ञ हेमचंद्राचार्यजी ने सिद्धहेमशब्दानुशासनम् के आठवे अध्याय के रुप में प्राकृत व्याकरण की रचना की है, परंतु उस व्याकरण को जानने के लिए संस्कृत भाषा का ज्ञान होना जरुरी है ।
। संस्कृत भाषा को जाननेवाला ही उस व्याकरण को समझ सकता है, उसी व्याकरण के आधार पर स्व. पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय कस्तुरसूरीश्वरजी महाराजा ने गुजराती माध्यम से प्राकृत भाषा सीखने के लिए 'प्राकृत विज्ञान पाठमाला' की रचना की थी । उस पुस्तक के आधार पर हजारों साधु-साध्वीजी भगवंतों ने प्राकृत भाषा का अभ्यास किया है।
गुजराती भाषा से अनभिज्ञ व्यक्ति भी प्राकृत भाषा सीख सके, इस लक्ष्य को ध्यान में रखकर ही 'प्राकृत विज्ञान पाठमाला' की यह हिन्दी आवृत्ति 'आओ ! प्राकृत सीखें' के नाम से प्रकाशित हो रही है।
प्राकृत भाषा में जैन धर्म का अमूल्य खजाना है, उस खजाने से लाभान्वित होने के लिए प्राकृत भाषा का अभ्यास खूब जरुरी है।
प्रस्तुत पुस्तक हिन्दी भाषी वर्ग को प्राकृत सीखने के लिए खूब उपयोगी बन सकेगी।
सभी भव्यात्माएँ प्राकृत भाषा का अध्ययनकर वीर प्रभु के बताएं शाश्वत सत्यों को अपने जीवन में आत्मसात् कर आत्मकल्याण के मार्ग में खूब खूब आगे बढे, इसी शुभ कामना के साथ ! निवेदक : सुमेरपूर (राज.)
अध्यात्मयोगी पूज्यपाद प्रतिष्ठा शुभदिन
पंन्यासप्रवर श्री भद्रंकरविजयजी दि. 4-5-2013 शनिवार गणिवर्य कृपाकांक्षी रत्नसेनसूरि
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दीक्षा दाता
परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा. का संक्षिप्त परिचय गृहस्थ नाम
: राजु (राजमल चोपडा) माता का नाम
: चंपाबाई पिता का नाम
: छगनराजजी गेनमलजी चोपडा जन्मभूमि
: बाली (राज.) जन्म तिथि
: भादो सुद-3, संवत् 2014
दि. 16-9-58 बचपन में धार्मिक अभ्यास : पंच प्रतिक्रमण-नवस्मरण आदि दीक्षा संकल्प (ब्रह्मचर्यव्रत स्वीकार): 18 जुन 1974 व्यवहारिक अभ्यास
: 1st year B.Com. (पार्श्वनाथ उम्मेद कॉलेज फालना-राज.)
: पू.पं. श्री हर्षविजयजी गणिवर्य गुरुदेव
: अध्यात्मयोगी पू. पंन्यास
श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य दीक्षा दिन
: माघ शुक्ला 13, संवत् 2033
दिनांक 2-2-1977 समुदाय
: शासन प्रभावक पू.आ.
श्री रामचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. दीक्षा दिन विशेषता
: भारत भर में लगभग 50 ऊपर दीक्षाएँ 108 मुमुक्षु वरघोडा
: 9 जनवरी 1977, मुंबई दीक्षा स्थल
: न्याति नोहरा-बाली राज. दीक्षा समय उम्र
: 18 वर्ष प्रथम चातुर्मास
: संवत् 2033 पाटण पू.पं.
श्री हर्षविजयजी के सानिध्य में • अभ्यास : प्रकरण, भाष्य, 6 कर्मग्रंथ, कम्मपयडी, पंचसंग्रह, न्याय, काव्य, कोश, संस्कृत-प्राकृत व्याकरण, संस्कृत-प्राकृत साहित्य वाचन, ज्योतिष आगम वाचन आदि. • भाषा बोध : हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती, राजस्थानी, संस्कृत, प्राकृत, मराठी आदि
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• प्रथम वचन प्रारंभ : फागुण सुदी 14, संवत् 2034 पाटण (गुजरात) • चातुर्मासिक प्रवचन प्रारंभ : बाली संवत् 2038 (पू.आ. श्री राजतिलकसूरीश्वरजी म.सा. के सान्निध्य में) • चातुर्मासिक प्रवचन : बाली, पाली (दो बार) रतलाम, अहमदाबाद (ज्ञानमंदिर), पाटण, सुरेन्द्रनगर, रानीगांव, पिंडवाडा, उदयपूर, जामनगर, अहमदाबाद (गिरधरनगर), थाणा, कल्याण, दादर (मुंबई), सायन (मुंबई), धूलिया, कराड, चिंचवड भायंदर, पूना, येरवडा, दीपक ज्योति टॉवर, श्रीपाल नगर, कर्जत, भिवंडी (दो बार) कल्याण (दो बार) रोहा, भायंदर, पालीताणा आदि • विहार क्षेत्र : राजस्थान, गुजरात, सौराष्ट्र मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र आदि • (छ'री पालित संघ में मार्गदर्शन-प्रवचन) : बरलूट से शत्रुजय, गोदन से जैसलमेर, वल्लभीपुर से पालीताणा, लुणावा से राणकपूर पंचतीर्थी • छ'री पालक निश्रादाता : उदयपुर से केशरीयाजी, गिरधनगर से शंखेश्वर, धूलिया से नेर, कराड से कुंभोज, सोलापूर से बार्शी, भिवंडी से महावीर धाम, कर्जत से मानस मंदिर हस्तगिरि से शत्रुजय गिरनार आदि • प्रथम पुस्तक आलेखन : "वात्सल्य के महासागर" संवत् 2038 • प्रकाशित पुस्तकें : (160) लगभग • संस्कृत साहित्य संपादन-सह संपादन : सिद्ध हैमशब्दानुशासनम्-बृहदवृत्ति लघु न्यास सह, पांडवचरित्र आदि • अन्य संपादन : भगवान पार्श्वनाथ की परंपरा का इतिहास-भाग 1-2-3 • अनुवाद संपादन : श्राद्धविधि, शांतसुधारस तथा पूज्य गुरूदेवश्री की 15 पुस्तकें, मंत्राधिराज आदि तथा विजयानंदसूरिजी कृत 'नवतत्व' । • शिष्य-प्रशिष्य : स्व. मु. श्री उदयरत्नविजयजी, मुनि केवलरत्नविजयजी, मुनि कीर्तिरत्नविजयजी, मुनि शालिभद्रविजयजी म. मुनि प्रशांतरत्नविजयजी • उपधान निश्रा दाता : कुर्ला, धुले, येरवडा, आदीश्वर धाम (दो), कर्जत, विक्रोली, मोहना, पालीताणा आदि..
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गुरुवंदना
जैन शासन के महान् ज्योतिर्धर पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचंद्रसूरीश्वरजी महाराज सा.
बीसवीं सदी के महान् योगी,
पूज्यपाद पंन्यासप्रवरश्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य
मरुधररत्न हिन्दी साहित्यकार पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा.
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शासनसम्राट् पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय नेमीसूरीश्वरजी महाराज सा.
शासन प्रभावक पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय विज्ञानसूरीश्वरजी म.सा.
प्राकृत विशारद प्राकृतिविज्ञान पाठभाला के लेखक पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय कस्तुरसूरीश्वरजी म.सा.
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प्रकाशनसहयोगी
स्व. पिताजी जवेरचंदजी पू. माताजी सेकुबाई जवेरचंदजी
निवेदक पुत्र : उदयराज, जयंतिलाल, बाबुलाल पौत्र : रवीन्द्र, राकेश, भूपेन्द्र, तरुण, संजय, अमित, विक्रम
कोसेलाव- राज. निवासी-भायखला
शा. रतनचंदजी वागाजी गोलंक परिवार
लुणावा (राज.) मुंबई
शाश्वत परिवार-दीपक ज्योति टॉवर
कालाचोकी , मुंबई-४०००३३.
शा. वनेचंदजी पनेचंदजी श्रीश्रीमाल (पूना-साचोडी) आयोजित
चातुर्मास आराधक (साधारण खाते में से) ___ वि.सं. २०६८, कस्तुरधाम, पालीताणा,
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प्रकाशन सहयोगी
शा. फूटरमलजी भीकमचंदजी श्रीमती मेताबाई फूटरमलजी निवेदक : डॉ. बस्तीमल, सुमेरमल, प्रकाश, मनोहर लाल
पत्ता : मनोहरलाल फूटरमलजी पालरेचा रेनबो फार्मा, 13, M.T. Road, Opp. ESI Hospital, अपनावरम,
चेन्नाई-600 012. M. 9840868500
प्रकाशन सहयोगी
शा. सरेमलजी जावंतराजजी श्रीमती चंपाबाई सरेमलजी
निवेदक पुत्र : अशोककुमार सरेमलजी, पौत्र : परेश दीपक, प्रपौत्र : ध्वज, नव्या ____ फर्म : वी. मेलो एपेरल्स, 93, गोविंदप्पा स्ट्रीट, 1st Floor,
चेन्नाई-600001. M.9381008666
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प्रवचन प्रभावक मरुधररत्न-हिन्दी साहित्यकार पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय
श्री रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा. का बहुरंगी-वैविध्यपूर्ण साहित्य
24. सुखी जीवन की चाबियाँ
137
25. पांच प्रवचन
138
148
159
S.No.
तत्त्वज्ञान विषयक
1. जैन विज्ञान
2. चौदह गुणस्थान
3. आओ ! तत्त्वज्ञान सीखें
4. कर्म विज्ञान
5. नव तत्त्व- विवेचन
6. जीव विचार विवेचन
7. तीन-भाष्य
8. दंड़क - विवेचन
9. ध्यान साधना
प्रवचन साहित्य
1. मानवता तब महक उठेगी
2. मानवता के दीप जलाएं
3. महाभारत और हमारी संस्कृति-भाग-118 4. महाभारत और हमारी संस्कृति-भाग-219 5. रामायण में संस्कृति का
अमर संदेश-भाग-1
6. रामायण में संस्कृति का अमर संदेश- भाग-2
7. आओ ! श्रावक बने !
8. सफलता की सीढ़ियाँ
9. नवपद प्रवचन 10. श्रावक कर्तव्य-भाग-1
11. श्रावक कर्तव्य-भाग-2
12. प्रवचन रत्न
13. प्रवचन मोती
14. प्रवचन के बिखरे फूल
15. प्रवचनधारा
16. आनन्द की शोध
17. भाव श्रावक
18. पर्युषण अष्टाह्निका प्रवचन 19. कल्पसूत्र के हिन्दी प्रवचन 20. संतोषी नर-सदा सुखी 21. जैन पर्व -प्रवचन
S.No.
38
96
79
102
122
123
127
135
153
S.No.
22. गुणवान् बनों
23. विखुरलेले प्रवचन मोती
8
9
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28
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75
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104
87
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126
117
26. जीवन शणगार प्रवचन
27. तीर्थ यात्रा धारावाहिक कहानी
1.
कर्मन् की गत न्यारी
2. जिन्दगी जिन्दादिली का नाम है
3.
4.
5. ऐतिहासिक कहानियाँ
6. प्रेरक कहानियाँ
7.
सरस कहानियाँ
8.
मधुर कहानियाँ
9. सरल कहानियाँ
10. तेजस्वी सितारें
11. जिनशासन के ज्योतिर्धर
आग और पानी भाग-1-2
मनोहर कहानियाँ
12. महासतियों का जीवन संदेश 13. आदिनाथ शांतिनाथ चरित्र
14. पारस प्यारो लागे
15. शीतल नहीं छाया रे (गुज.)
16. आवो ! वार्ता कहुं (गुज.)
17. महान् चरित्र
18. प्रातः स्मरणीय महापुरुष-1 19. प्रातःस्मरणीय महापुरुष-2
20. प्रातः स्मरणीय महासतियाँ-1
21. प्रातः स्मरणीय महासतियाँ-2 युवा-युवति प्रेरक
1. युवानो ! जागो
2. जीवन की मंगल यात्रा
3. तब चमक उठेगी पीढ़ी युवा
4. युवा चेतना
5. युवा संदेश
6. जीवन निर्माण (विशेषांक)
7.
The Message for the Youth 8. How to live true life?
9. The Light of Humanity 10. Youth will Shine then
6
10
34-35
50
57
91
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98
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151
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S.No.
12
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80
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60
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1
11 Duties towards Parents 12.यौवन-सुरक्षा विशेषांक
32 13. सन्नारी विशेषांक
59 14.माता-पिता
77 15.आहारः क्यों और कैसे ? 16. आहार विज्ञान
39 17. ब्रह्मचर्य
106 18. अमृत की बुंदे
64 19. क्रोध आबाद तो जीवन बरबाद 20. राग म्हणजे आग (मराठी) 21. आई वडीलांचे उपकार
92 22. अध्यात्माचा सुगंध
155 अनुवाद-विवेचनात्मक
S.No. 1. सामायिक सूत्र विवेचना 2. चैत्यवंदन सूत्र विवेचना 3. आलोचना सूत्र विवेचना 4. श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र विवेचना 5. चेतन ! मोहनींद अब त्यागो 6. आनन्दघन चौबीसी विवेचना 7. अंखियाँ प्रभुदर्शन की प्यासी 22 8. श्रावक जीवन-दर्शन
29 9. भाव सामायिक
107 10. श्रीमद् आनंदघनजी पद विवेचन 94 11. भाव-चैत्यवंदन
120 12. विविध-पूजाएँ
125 13. भाव प्रतिक्रमण-भाग-1
132 14.भाव प्रतिक्रमण-भाग-2
133 15.श्रीपाल-रास और जीवन-चरित्र 134 16.आओ संस्कृत सीखें भाग-1 17. आओ संस्कृत सीखें भाग-2 145 18. श्रावक आचार दर्शक
154 | विधि-विधान उपयोगी। S.No. 1. भक्ति से मुक्ति 2. आओ ! प्रतिक्रमण करें 3. आओ ! श्रावक बने 4. हंस श्राद्धव्रत दीपिका 5. Chaitya-Vandan Sootra 6. विविध-देववंदन
7. आओ ! पौषध करें 8. प्रभु दर्शन सुख संपदा 9. आओ ! पूजा पढाएँ !
88 10. Panch Pratikraman Sootra 11. शत्रुजय यात्रा 12. प्रतिक्रमण उपयोगी संग्रह 13.आओ ! उपधान-पौषध करें 109 14.विविध-तपमाला
128 15. आओ ! भावायात्रा करें
130 16. आओ ! पर्युषण-प्रतिक्रमण करें 136 अन्य प्रेरक साहित्य
S.No. 1. वात्सल्य के महासागर 2. रिमझिम रिमझिम अमृत बरसे 3. अध्यात्मयोगी पूज्य गुरुदेव 44 4. बीसवीं सदी के महान् योगी 100 5. महान ज्योतिर्धर 6. मिच्छामि दुक्कडम् 7. क्षमापना
69 8. सवाल आपके जवाब हमारे 9. शंका और समाधान-1
66 10.शंका-समाधान-भाग-2
118 11.शंका-समाधान-भाग-3 12.जैनाचार विशेषांक 13.जीवन ने तुं जीवी जाण 62 14.धरती तीरथरी 15.चिंतन रत्न
114 16.बीसवीं सदी के महान योगी की अमर-वाणी
101 17. महावीरवाणी
112 18.जैन शब्द कोश
157 19.नयादिन-नयासंदेश
158 20. महामंत्र की साधना
160 वैराग्यपोषक साहित्य
S.No. 1. मृत्यु-महोत्सव
51 2. श्रमणाचार विशेषांक
54 3. सद्गुरु-उपासना
113 4. चिंतन-मोती
90 5. मृत्यु की मंगल यात्रा
16 6. प्रभो ! मन-मंदिर पधारो 110 7. शांत सुधारस-हिन्दी विवेचन भाग-1 13 7. शांत सुधारस-हिन्दी विवेचन भाग-2 14 9. भव आलोचना
124 10. वैराग्य शतक
140 11. इन्द्रिय पराजय शतक 156
147 47
68
144
41
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अर्ह
।। ॐ नमः श्री सिद्धचक्राय ।। || परमगुरु-आचार्य महाराज-श्रीमद् विजयनेमिसूरीश्वर भगवदभ्यो नमः ।।
सूरिचक्रवर्ति जगद्गुरु-शासनसम्राट्-भट्टारकाचार्य श्रीविजयनेमिसूरीश्वर
पट्टालङ्कार-परमपूज्य-परमोपकारि-पूज्यपाद-आचार्यमहाराजश्रीविजयविज्ञानसूरीश्वर-पट्टधराचार्य श्रीविजयकस्तूरसूरि प्रणीता
।। श्री प्राकृत विज्ञान पाठमाला ।
दिव्वपहावो दीसइ, कलियाले जस्स अमियझरणाओ । सत्तफणंचिअसीसो, स जयउ ''सेरीसपासजिणो'' ||1||
पयडिअसमत्तभावं, भविअन्नाणंधयारपयरहरं । सूरव्व जस्स नाणं, स पहू वीरो कुणउ भदं ।।2।। एक्कारस गणवइणो, गोयमपमहा जयन्ति सुयनिहिणो । स वि हेमचंद्रसूरि, जाओ कलियालसव्वण्णू ।।3।। सिरिविजयनेमिसूरि, जुगप्पहाणो महं पसीएज्जा । जस्स सुहादिट्ठीए, असज्झकज्जाणि सिज्झन्ति ।।4।। विन्नाणसूरिं सगुरुं च नच्चा, सुअं च सव्वण्णुपणीअतत्तं । पाइअविन्नाणसुपाढमालं, रएमि हं सीससुहंकरटुं ।।5।।
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वर्ण विज्ञान
+ स्वर
हस्त
ऊ
|
ऐ
| - अनुस्वार
वर्ण विकार
ए,अय् |
अन् | ए.अइ |
ओ, | अ,इ, | इलि अउ | उ,रि
- पा. 5 नि. 3
स्वर - 1. प्राकृत में 'ऋ' स्वर का विकार 'अ' होता है, किसी स्थान में
'इ-उ' और 'रि' भी होता है | उदा. घयं = घृतम् मओ = मृग :
किवा = कृपा पुट्ठो = स्पृष्टः रिद्धि = ऋद्धिः 2. 'लु' स्वर का विकार 'इलि' होता है ।
उदा. किलिन्नं = क्लृन्नम् किलित्तं = क्लृप्तम् 3. 'ऐ' और 'औ' का विकार क्रमशः 'ए' और 'ओ' होता है,
किसी स्थान में 'अइ' और 'अउ' भी होता है। उदा. सेन्नं-सइन्नं = सैन्यम्, तुलक्कं-त्रैलोक्यम् ,
कोमुई-पउरो = कौमुजी-पौरः कैयवं-ए-कौरवा = कैतवम् अयि कौरवाः
ऐसे कुछ शब्दों में ऐ-औ का प्रयोग भी होता है । 4. विसर्ग का प्रयोग नहीं होता है लेकिन 'अ' के बाद विसर्ग हो
तो अ सहित विसर्ग का 'ओ' होता है ।। उदा. सब्बो = सर्वतः पुरओ = पुरतः जओ = यतः
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क वर्ग च वर्ग
ट वर्ग
त वर्ग
प वर्ग
अर्धस्वर
क् ख् ग् घ् ङ्
च् छ् ज् झ् ञ्
ट् ठ् ड् ढ् ण्
त् थ् द् ध् न्
प् फ् ब् भ् म्
य्
र्
ल्
व्
स्
ह
2. 'श' और 'ष' का स होता है । उदा. विसेसो = विशेष:,
व्यंजन
सद्दो = शब्दः
3. स्वररहित मात्र व्यंजन का प्रयोग नहीं होता है । उदा. राय = राजन्, सरिया = सरित्, तमो
→ व्यंजन :- 1. ङ् - ञ् ये दो व्यंजन स्वतन्त्र प्राकृत में नहीं आते हैं,
लेकिन स्ववर्ग के साथ संयुक्त आते हैं । उदा. सङ्खो = शङ्खः,
=
उदा. गिम्हो = ग्रीष्मः,
गुरहो = गुह्यः, चंदो चंद्रो
पहो
स्थान
कंठ्य
= तमस्.
4. प्राकृत में विजातीय संयुक्त व्यंजन नहीं होता है । लेकिन नियमानुसार दोनों में से एक का लोप होकर स्वजातीय संयुक्त व्यंजन बनता है । उदा. पक्क = पक्व, अच्चण = अर्चन, इट्ठ
इष्ट,
तालव्य.
मूर्धन्य.
दन्त्य.
ओष्ट्य.
लञ्छणं = लाञ्छनम्
तालव्य.
मूर्धन्य.
दन्त्य. दन्तौष्ट्य.
=
अण्णव = अर्णव, सुत्त अपवाद :- म्ह-ण्ह - ल्ह - य्ह - द्र इन संयुक्त व्यंजनों का प्रयोग प्राकृत
सुप्त, सूत्र,
कव्व = काव्य आदि.
आता है ।
प्रश्न:,
= चन्द्रः वगैरह |
=
दन्त्य.
कंठ्य .
पल्हाओ = प्रह्लादः,
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मुक्क
दुःख
प्राकृत में संयुक्त व्यंजन के परिवर्तन निम्नानुसार होते है । परिवर्तन | संस्कृत प्राकृत | परिवर्तन | संस्कृत | प्राकृत क्तक्क मुक्त
च्यच्च अच्युत अच्चुअ क्य-क्क वाक्य वक्क त्य-च्च सत्य सच्च क्र=क्क चक्र
चक्क त्वच्च ज्ञात्वा णच्चा क्ल-क्क विक्लव विक्कव
चच्च
अर्चना. अच्चणा क्व:क्क पक्व पक्क क्ष-च्छ दक्ष दच्छ त्क-क्क उत्कण्ठा उक्कंठा आमच्छ लक्ष्मी लच्छी क-क्क अर्क अक्क ==च्छ कृच्छ्र किच्छ ल्क-क्क उल्का उक्का त्स=च्छ वत्स वच्छ दुःख क्ख
दुक्ख त्स्य:च्छ मत्स्य मच्छ क्ष-क्ख लक्षण लक्खण थ्यच्छ मिथ्या मिच्छा ख्य क्ख व्याख्यान वक्खाण प्स:च्छ लिप्सा लिच्छा क्ष्य-क्ख लक्ष्य लक्ख →=च्छ मूर्छा मुच्छा क्ष-क्ख उत्क्षिप्त उक्खित्त
श्वच्छ
पश्चात् पच्छा त्ख-क्ख उत्खात उक्खाय स्तच्छ विस्तीर्ण विच्छिन्न ष्क-क्ख निष्क्रमण निक्खमण | |ज्य-ज्ज आज्य अज्ज स्क-क्ख प्रस्कंदन | पक्खंदण ज्य-ज्ज इज्या इज्जा स्ख-क्ख प्रस्खलित | पक्खलिअ | ज्र-ज्ज वज्र
वज्ज ग्न ग्ग नग्न नग्ग . ज्व-ज्ज प्रज्वलन पज्जलण ग्म ग्ग युग्म जुग्ग ज-ज्ज सर्वज्ञ सदज्ज ग्य=ग्ग योग्य जोग्ग द्य-ज्ज अद्य अज्ज ग्र=ग्ग अग्र अग्ग ब्ज-ज्ज अब्ज अज्ज ड्ग-ग्ग खड्ग खग्ग य्य-ज्ज शय्या सेज्जा द्गग्ग मुद्ग
र्य-ज्ज आर्या अज्जा र्ग=ग्ग वर्ग वग्ग ज-ज्ज
वज्जण ला=ग्ग वला वग्ग य॑ज्ज वर्ण्य · वज्ज घ्न ग्घ विघ्न विग्घ ध्य-ज्झ मध्य मज्झ घ्रग्घ | व्याघ्र वग्घ
ध्व-ज्झ
बुद्ध्वा बुज्झा द्घग्घ
उद्घाटित उग्घाडिअ ह्य-ज्झ बाह्य बज्झ र्घग्घ अर्घ अग्घ त्तट्ट । पत्तन | पट्टण
मुग्ग
वर्जन
Dal
% 3D
Tॐॐ
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अर्थ
विच्छड्ड
आढ्य
परिवर्तन | संस्कृत प्राकृत परिवर्तन | संस्कृत प्राकृत र्त-ट्ट नर्तकी नट्टई र्थ त्थ
अत्थ ष्ट-ट्ठ कष्ट
कट्ठ स्त-त्थ हस्त हत्थ ष्ठ-ट्ठ निष्ठुर ।
निठुर | स्थ-त्थ प्रस्थ पत्थ र्थ-ट्ठ अर्थ अट्ट
द्र-द्द रुद्र रुद्द त-ड्ड गर्ता गड्डा
द्व-द्द
प्रद्वेष पद्देस र्द-ड्ड विच्छर्द
ब्द-द्द अब्द अद्द ढ्य-ड्ढ
अड्ढ र्द-द्द मर्दन मद्दण द्ध ड्ढ ऋद्धि रिड्ढि ग्ध-द्ध
दग्ध दद्ध र्ध ड्ढ वर्धमान वड्ढमाण ध्व द्ध
अध्वन् अद्ध ज्ञ=ण्ण प्राज्ञ पण्ण
ब्ध-द्ध अब्धि | अद्धि ण्य=ण्ण पुण्य पुण्ण
र्धन्द्ध वर्धमान |वद्धमाण ण्व=ण्ण कण्व कण्ण
कम-प्प रुक्मिणी | रुप्पिणी न्य-प्रण अन्य अण्ण
त्प-प्प उत्पल उप्पल न्व=ण्ण अन्वर्थ अण्णत्थ
त्म-प्प आत्मन् अप्प म्न-ण्ण प्रद्युम्न पज्जुण्ण
प्य=प्प प्राप्य
पप्प र्ण=ण्ण वर्ण वण्ण
प्र=प्प वप्र
वप्प क्ष्ण-बह तीक्ष्ण
तिण्ह
प्ल-प्प विप्लव विप्पव श्न-ण्ह प्रश्न पण्ह ष्ण-बह
प-प्प अर्पण
अप्पण उष्ण उण्ह स्नग्रह स्नाति
अप्प पहाइ
ल्प-प्प अल्प
त्फ-प्फ हन=ण्ह मध्याह्न मज्झण्ह
उत्फुल उप्फुल हण=ण्ह पूर्वाण
ष्प-फ पुबह
पुष्प पुप्फ क्त-त्त मुक्त मुत्त
ष्फ-प्फ निष्फल निप्फल त्नत्त यत्न जत्त
स्प-प्फ प्रस्पन्दन | पप्पंदण त्म=त्त आत्मा अत्ता स्फ-प्फ प्रस्फोटित | पप्फोडिअ त्रत्त पात्र
पत्त
बब्ब उद्बद्ध उब्बद्ध त्वत्त सत्त्व सत्त
बब्ब
निर्बल निब्बल प्त-त्त प्राप्त पत्त
अर्बुद अब्बुआ तत्त वार्ता
वत्ता
ब्रम्ब्ब अब्रह्म अब्बंभ क्थ-त्थ सिक्थ
म्भ ब्भ प्राग्भार पब्भार | त्र-त्थ | यत्र | जत्थ । भब्भ | सद्भाव सब्भाव
॥ १.३ ३ ३ ३ ६ ४ ३ ३ ३.11 111444 9 / 1
ब-ब्ब
सित्थ
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कर्मन्
गुह्य
परिवर्तन | संस्कृत
परिवर्तन | संस्कृत | प्राकृत भ्य ब्भ अभ्यास अब्भास ल्व=ल्ल पल्वल पल्लल भ्रडभ अभ्र अब्म हल-ल्ल प्रहलाद पल्हाअ र्भ ब्भ गर्भ गब्भ
द्व-व्व उद्वर्तन उबट्टण हव ब्भ जिह्वा जिब्मा
र्वव उर्वी उब्दी न्म=म्म जन्मन् जम्म
व्यव काव्य कव्व म्यम्म वाम्य वम्म .. .
व्रव्व प्रव्रज्या पवज्जा म=म्म
कम्म
र्ष स्स ईर्षा इस्सा ल्म-म्म गुल्म गुम्म
श्म-स्स रश्मि रस्सि द्म=म्म पद्म पोम्म
श्य-स्स पश्यति पस्सइ क्ष्म-म्ह पक्ष्मन् पम्ह ष्म म्ह ग्रीष्म गिम्ह
श्य-स्स लेश्या लेस्सा स्म म्ह विस्मय | विम्हय
श्व-स्स ईश्वर इस्सर मम्ह ब्राह्मण बम्हण
ष्य-स्स शुष्यति
सुस्सइ ह्य-रह
गुयह
ष्व-स्स इष्वास इस्सास र्यल्ल पर्यस्त पल्लत्थ स्य-स्स कस्य कस्स लल्ल निर्लज्ज | निल्लज्ज स्र=स्स सहस्त्र सहस्स ल्य=ल्ल | कल्याण | कल्लाण स्वस्स | तेजस्विन् | तेअस्सि शब्दों में स्वर के बाद असंयुक्त व्यंजनों के सामान्य परिवर्तन
प्रायः निम्नानुसार होते हैं - परिवर्तन | संस्कृत | प्राकृत | परिवर्तन | संस्कृत | प्राकृत क-लुक् - लोक= लोअ न= ण - |धन= धण क=ग - लोक= | लोग प्रारंभ में न का ण विकल्प से होता है। क=य - कनक= | कणय | नर= नर । ख=ह - मुख= मुह | = णर ग=लुक् - योग= जोअ | प=लुक् - | रिपु= | रिउ ग=य - नगर- नयर प=व - पाप= पाव घ=ह - मेघ= मेह फ=भ - सफल सभल च लुक् - शची= सई | फ=ह - सफल= सहल चम्य - वचन= | वयण | बव -
| सबल
सवल
B
८
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कील
परिवर्तन संस्कृत | प्राकृत | परिवर्तन संस्कृत | प्राकृत | ज-लुक् - राजीव | राईव भ=ह - सभा= | सहा जय - रजत= रयय य=लुक् - | वियोग= | विओग ट-ड - नट
नड प्रारंभ में य का ज होता हैठ=ढ - मठ= मढ
य=ज - । यम= | जम डल - क्रीडति=
| याति= | जाइ त लुक् - . पति
किसी स्थान में र का ल होता हैत=य - पात
पाय थ-ह - कथा= कहा
र=ल - दरिद्र= | दलिद्द द-लुक् - विदेश= | विएस व लुक् - | कवि= कई द-य - गदा= गया व=य - लावण्य= लायण्ण ध=ह - साधु= |साहु श) =स - शेष= सेस (लुक् अर्थात् लोप) ष
शब्द=
पइ
सद्द
सूचना
1. इस 'प्राकृत विज्ञान पाठमाला' में दिये हए धातुओं और शब्दों के रूप तथा
उनके नियम कलिकालसर्वज्ञ भगवान श्रीहेमचंद्राचार्य विरचित प्राकृत (सिद्धहेम व्याकरण के अष्टम अध्याय) व्याकरण के अनुसार हैं | नियम
के बाद जो नंबर लिखें हैं वे प्राकृत व्याकरण सूत्र के नंबर हैं । 2. संस्कृत में जैसे दस गण और उसमें परस्मैपदी-आत्मनेपदी और उभयपदी
धातुएँ तथा उनके अलग- अलग प्रत्यय आते हैं, वैसे प्राकृत में नहीं हैं । 3. प्राकृत में 1. वर्तमानकाल, 2. भूतकाल (ह्यस्तन-परोक्ष-अद्यतन भूत के
बदले), 3. आज्ञार्थ-विध्यर्थ और 4. भविष्यकाल (श्वस्तन भविष्य और सामान्य भविष्य के बदले ) तथा 5. क्रियातिपत्त्यर्थ इतने कालों का ही
प्रयोग होता है । 4. प्राकृत में द्विवचन की जगह बहुवचन का प्रयोग होता है । तब द्वित्व अर्थ
बताने के लिए बहुवचनान्त नाम के साथ विभक्त्यन्त -'द्वि' शब्द का प्रयोग होता है. उदा. दोणि पुरिसा गच्छन्ति = दो पुरुष जाते हैं |
-
A
-
-
७
-
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5. प्राकृत में चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर छठी विभक्ति होती है, लेकिन तादर्थ्य (उसके लिए) में संस्कृत की तरह चतुर्थी विभक्ति के एकवचन का प्रयोग होता है । उदा. आहाराय नयरं अडइ (आहाराय नगरमटति) 6. प्राकृत भाषा में धातुओं और शब्दों को तीन विभाग में बाँटा है । महाराष्ट्र- विदर्भ- मगध इत्यादि देशों में प्रचलित ।
1. + देश्य
2. तद्भव =
संस्कृत पर से प्राकृत नियमानुसार सिद्ध ।
3. तत्सम = संस्कृत के समान ।
देश्यधातु फुम
=
=
फूंकना .
फुम्फुल्ल = उठाना.
=
तद्भवधातु = कह् (कथ)
भम् (भ्रम्)
हण् (हन्)
अच्च् (अर्च) आदि
देश्यशब्द = अत्थग्ध = मध्यवर्ती. बीच में रहा हुआ.
चवल = चावल.
खउर = कलुषित.
थह = आश्रय, स्थान.
आहित्य = गया हुआ.
लल्लक्क = भयंकर.
विड्डिर = आडम्बर इत्यादि शब्द.
तद्भवशब्द = मयण (मदन)
भत्त (भक्त)
पहु (प्रभु) आदि
=
आलिंगन करना,
अवयास =
पिप्पड
= बकवास करना
इत्यादि धातुएँ तथा आदेश धातुएँ
पड् (पत्)
बाह (बाध)
अप्प् (अर्प)
तत्समधातु
भण्-चल्-वंद्-वस्-हस्-लज्ज्-रम् आदि
तत्समशब्द = सिद्ध, कमल, बुद्धि, माला, विमल, वीर आदि
८
ओसढ (औषध) विण्हु (विष्णु)
+ कलिकालसर्वज्ञ भगवान श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने देशी नाममाला में देश्य शब्दों का
संग्रह किया है ।
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पाठ - 1
वर्तमान काल - प्रथम पुरुष प्रथम पुरुष एकवचन और बहुवचन के प्रत्यय (३/१४१-१४४) एकवचन
बहुवचन मि (मि, ए)2
मो, मु, म (मस्-महे) 1. व्यअनान्त धातुओं को पुरुषबोधक प्रत्यय के पहले 'अ' प्रत्यय लगता है ।
(४/२३९) उदा. बोल्ल् अ मि = 2. प्रथम पुरुष के मि प्रत्यय के पहले 'अ' का 'आ' विकल्प से होता है ।
(३/१४४) उदा. बोल्लामि, बोल्लमि । 3. मो, मु, म प्रत्ययों के पहले 'अ' का 'आ' तथा 'इ' विकल्प से होता है ।
(३/१५५) उदा. बोल्लामो, बोल्लिमो, बोल्लमो । 4. वर्तमानकाल के आगे बताये जानेवाले दूसरे और तीसरे पुरुष के 'से-ए'
प्रत्यय को छोड़कर सभी पुरुषबोधक प्रत्यय के पहले 'अ' का 'ए' होता है । (३/१५८) उदा. बोल्लेमि, बोल्लेमो, बोल्लेमु, बोल्लेम अथवा बोल्लामि, बोल्लामु आदि
प्रथम पुरुष के रूप एकवचन
बहुवचन भणामि
भणिमो, भणिमु, भणिम, भणमि
भणामो, भणामु, भणाम, भणेमि
भणमो, भणम्, भणम,
भणेमो, भणेमु, भणेम. टिप्पणी :- 1. प्राकृत में द्विवचन नहीं होता है, उसके स्थान पर बहुवचन का प्रयोग होता है । यह प्रयोग करते समय दु (द्वि) शब्द का प्रयोग होता है । उदा. अम्हे दोण्णि बोल्लिमो । 2. एकवचन में 'म्हि' और बहवचन में 'म्ह' प्रत्यय का प्रयोग प्राकृत साहित्य में कहीं-कहीं दिखाई देता है । उदा. भगवइ ! महापसाओ, ता एहि गच्छम्ह.
(समराइच्च 8 वाँ भव)
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धातु कह (कथ) कहना.
| पीड् । (पीड्) पीड़ा करना, सताना, गच्छ (गम्-गच्छ) गमन करना, जाना... पील् दुःख देना. चल् (चल्) चलना.
| पुच्छ (प्रच्छ्- पृच्छ) पूछना . जाण् । (ज्ञा) जानना
| बीह (भी) डरना, भयभीत होना. मुण् ।
| बोल्ल (कथ) बोलना. जेम् । (भुंज) भोजन करना , बोह (बोध) बोध पाना, जानना. भुंज् । खाना.
भण् (भण्) पढ़ना. देख् (दृश्) देखना.
| भम् (भ्रम्) भटकना, भ्रमण करना. नम् । (नम्) नमन करना, | रुन् । (रुद्) रोना, रुदन करना. नव् नमस्कार करना.
रो पड् (पत्) गिरना, पतित होना. वस् (वस्) वसना, रहना. पिन् । (पा- पिब्) पीना,पान करना | हस् (हस्) हँसना पिज्ज् ।
हिन्दी में अनुवाद करें 1. कहामि 10. देखेमो 19. रोवेमु 2. हसामु 11. भणमु
20. बोहामि 3. गच्छेमि 12. नमामि
21. नमेमि 4. वसामो
13. भणामि 22. बोल्लेमि 5. चलेम 14. वसेम
23. बीहेमि 6. रोवामि 15. मुणेमु
24. पुच्छामि 7... पीलेमि... 16. भुंजामो
25. पीडेम 17. नवाम्
26. बोल्लिम् 9. जेमामि
27. पिवामो 18. पडेमो
28. रुविमो प्राकृत में अनुवाद करें - 1. (मैं) पूछता हूँ। 18. (हम) नमन करते हैं | | 14.(मैं) रहता हूँ | 2. (मैं) सताता हूँ। 9. (मैं) भ्रमण करता हूँ। 15. (हम) चलते हैं । 3. (हम) डरते हैं । | 10. (मैं) देखता हूँ। | 16.(हम) जाते हैं । 4. (मैं) पीता हूँ | 11. (हम) भोजन करते | 17. (मैं) हँसता हूँ। 5. (हम) बोध पाते हैं ।
18. (हम) कहते हैं । 6. (मैं) गिरता हूँ। |12. (मैं) जानता हूँ। |19.(हम) बोलते हैं | 7. (मैं) पढ़ता हूँ। 13. (हम) रोते हैं। 20. (हम) रहते हैं ।
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जाणमो.
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पाठ -2 वर्तमानकाल - द्वितीयपुरुष एकवचन और बहुवचन के प्रत्यय (३/१४०-१४३) एकवचन
बहुवचन सि, से (सि-से)
ह, इत्था (थ-ध्वे) 1. जिस धातु के अन्त में 'अ' हो उसे ही 'से' प्रत्यय लगाया जाता है ।
. (३/१४५) उदा. भण् अ = भण सि = भणसि, भणसे. 2. स्वर के बाद स्वर आए तो पूर्व के स्वर का प्रायः लोप होता है । (१/१०) उदा. भण् अ इत्था = भणित्था, जिण इंदो = जिणिंदो ।
द्वितीय पुरुष के रूप एकवचन
. बहुवचन भणसि, भणसे
भणह, भणित्था, भणेसि
भणेह, भणेइत्था,
भणइत्था,
भणेत्था 3. एक ही पद में दो स्वर साथ में आएँ तो संधि नहीं होती है ।
उदा. हसइ, हसइत्था, देवाओ, यह नियम कुछ स्थानों में नहीं लगता है अर्थात् एक पद में भी सन्धि होती है । उदा. होहिइ = होही. बिइओ = बीओ । प्राकृत में जहाँ सन्धि होती है वहाँ संस्कृत के नियमानुसार सन्धि करनी चाहिए अर्थात् सजातीय स्वर साथ में आये तो दोनों स्वर मिलकर दीर्घ स्वर बनता है । उदा. अ या आ के बाद अ या आ = आ, इ या ई के बाद इ-ई-ई, उऊ के बाद उ-ऊ-ऊ, विषम आयवो = विषमायवो (विषमातपः), मुणि ईसरो = मुणीसरो (मुनीश्वरः), साऊ उअयं = साऊ अयं (स्वादूदकम्). अ या आ के बाद इ-ई या उ-ऊ आये तो दो स्वरों के स्थान पर पीछेवाले स्वर का गुण रखा जाता है । उदा. अ या आ के बाद इ-ई = ए, अ या आ के बाद उ-ऊ = ओ -, हस इत्या = हसेत्था, तित्थ ईसरो = तित्थेसरो = (तीर्थेश्वर:), गूढ उअरं = गूढोअरं = (गूढोदरम्).
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हुन् ।
धातु इच्छ (इच्छ) इच्छा करना.. 4. बुज्झ् (बुध् - बुध्य) बोध होना, कंप् (कम्प्) काँपना, धूजना... ज्ञान प्राप्त करना, कर् (कृ) करना,
जगना ,समझना. चिंत् (चिन्त) चिन्तन करना , मुज्झ् (मुह - मुह्य) मोह पाना, पागल विचार करना.
होना, मोहित होना चर् (चर्) चरना, चलना ,फिरना. रक्ख् (रक्ष) रक्षण करना. निंद् (निन्द्) निन्दा करना. रम् (रम्) खेलना पास् (दृश्) देखना.
लज्ज् (लज्ज) लज्जा पाना, शरमाना. भव् (भू-भव) होना,
15.वंद् (वन्द्) वन्दन करना, नमन करना हव् । बनना.
हण् (हन्) मारना. 6. रुस् (रुष) रोष करना, खुश होना. तूस् (तुष्) खुश होना, संतोष पाना. |दूस् (दुष्) दोषित करना. पूस् (पुष) पोषण करना सीस् (शिष्) भेद करना. सीस् (कथ्) कहना.
सूस् (शुष्) सूख जाना, सूखाना. 4. शब्द के अन्दर 'ध्य' और 'ह्य' हो तो 'ज्झ' होता है और प्रारम्भ में हो
तो 'झ' होता है । बुज्झइ (बुध्यति) । सज्झाओ (स्वाध्यायः) | मुज्झइ (मुह्यति) सिज्झइ (सिध्यति) | संझा (सन्ध्या) नज्झइ (नाति) जुज्झइ (युध्यते) । झाणं (ध्यानम्) | गुज्झं (गुय्हम्) विज्झइ (विध्यति) | झायइ (ध्यायति) | सज्झं (सह्यम्) विशेष : ह्य का 'यह' भी विकल्प से होता है | उदा. गुरहं (गुह्यम्)
सय्हं (सह्यम्) 5. आर्ष प्राकृत में 'वन्द्' धातु का प्र. पु. एकवचन में वंदे रूप संस्कृत की
तरह सिद्ध होता है | उदा. उसभमजिअं च वंदे = ऋषभदेव और अजितनाथ को मैं वन्दन करता हूँ। भत्तीइ वंदे सिरिवद्धमाणं = श्री वर्धमानस्वामी को भक्तिपूर्वक वन्दन करता हूँ।
- १२
D
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7.
6. रुष आदि धातुओं का स्वर प्राकृत में दीर्घ होता है (४/२३६) तथा रुष्य
तुष्य आदि संस्कृत अंग के प्राकृत नियमानुसार 'य' का लोप होने पर रुस्स्- तुस्स् दुस्स्- पुस्स्- सिस्स्- सुस्स् आदि धातु भी सिद्ध होते हैं । उदा. रुस्सइ- तुस्सइ आदि ।
हिन्दी में अनुवाद करें 1. इच्छित्था । 14. दूसेह
27. करित्या 2. करेसि
15. सीसित्था 28. पासित्था 3. चिंतसे 16. दूसेसि
29. नमेइत्था 4. पासेइत्था 17. रूसेइत्था 30. वंदह मुज्झह 18. वंदसे
31. पुच्छेइत्था. 6. गच्छेसि
19. रमित्था 32. बोल्लह. मुणह
20. मुज्झ से 33. भणेह. 8. देखेइत्था 21. कहित्था 34. रोवसे. 9. पडेह 22. चलसे
35. हसित्था. 10. सीससे 23. जेमेह
36. भणित्था. 11. रमेह 24. नमह
37. मुज्झेह. 12. वंदेइत्था 25. पिज्जसि 38. करसे. 13. रूसेसि 26. पासह
39. देक्ख ह.
40. दूसित्था. प्राकृत में अनुवाद करें 1. (तुम) काँप रहे हो । | 12. (तुम) बोलते हो । |21. (तुम सब) पढ़ते हो । 2. (तुम) कहते हो । 13. (तुम) वन्दन करते 22. (तुम) देखते हो । 3. (तुम) चलते हो । हो ।
23. (तुम) भ्रमण करते 4. (तुम सब) चलते हो ||14. (तुम) पढ़ते हो । | हो । 5. (तुम सब) निन्दा | 15. (तुम सब) क्रोध | 24. (तुम सब) रहते हो । करते हो ।
|25. (तुम) इच्छा करते हो। 6. (तुम) भोजन करते | 16. (तुम) रोते हो। 26. (तुम सब) काँपते हो । हो ।
| 17. (तुम) निन्दा करते 27. (तुम सब) बोलते 7. (तुम) नमन करते हो। हो ।
हो । 8. (तुम) मोहित होते हो । 18. (तुम) हँसते हो । |28. (तुम) पीड़ा करते हो । . 9. (तुम सब) पीते हो । 19. (तुम सब) पीड़ा 29 . (तुम सब) हँसते 10. (तुम) खेलते हो । | करते हो ।
हो । 11. (तुम) पूछते हो । |20. (तुम) डरते हो । |30. (तुम) गिरते हो ।
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पाठ -3. वर्तमानकाल - तृतीयपुरुष तृतीय पुरुष के प्रत्यय (३/१३९, १४२) एकवचन
बहुवचन इ, ए, 2 ति- ते (ति-ते) | अन्ति,न्ते, इरे, (अन्ति- अन्ते)
भणए
1. जिस धातु के अन्त में 'अ' हो उसे ही 'ए' प्रत्यय लगाया जाता है । उदा. भण् अ = भण ए = भणए, भणइ, भणेइ ।
तृतीय पुरुष के रूप एकवचन
बहुवचन भणइ,
भणन्ति, भणन्ते, भणिरे, भणेइ,
भणेन्ति, भणेन्ते, भणेइरे,
4 भणिन्ति, भणिन्ते,भणइरे. 2. इन प्रत्ययों के प्रयोग प्राचीन कथाओं और चूर्णि आदि में बहुत जगह किये गये हैं। 3. पद के अन्दर रहेङ्-ञ्- ण-न् और म् का विकल्प से पूर्व के अक्षर पर अनुस्वार होता है।
अनुस्वार न हो तो, बाद के व्यंजन के वर्ग का अनुनासिक होता है । (१/२५,४०) उदा. हसंति-हसन्ति (हसन्ति), पंको-पङ्को-(पङ्कः), संझा-सञ्झा (सन्ध्या), संढो-सण्ढो (षण्ढः), चंदो-चन्दो-(चन्द्रः), कंपइ- कम्पइ (कम्पते) । संयुक्त व्यंजन के पहले दीर्घस्वर हो तो प्रयोगानुसार प्रायः ह्रस्व होता है । (१/८४) उदा. भण् ए = भणे न्ति = भणिन्ति, इसी तरह भणिन्ते । शब्द के अन्दर भी संयुक्त व्यंजन के पूर्व का स्वर ह्रस्व होता है । उदा. अंबं (आम्रम्) | मुणिंदो (मुनीन्द्रः) | निलुप्पलं (नीलोत्पलम्) अस्सं (आस्यम्) | नरिंदो (नरेन्द्रः) । पुज्जं (पूज्यम्) तित्थं (तीर्थम्) | चुण्णो (चूर्णः)
धातु आदर् (आ+दृ) आदर करना. निज्झर् (क्षि) क्षय होना. किण (क्री) खरीदना.
फास् । (स्पृश्- स्पर्श) स्पर्श जम्म् (जन्) उत्पन्न होना .
फरिस् । करना ,छूना. धुव् (धू) धूजाना, हिलाना.
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10. बत् । (बू) बोलना. जिण् (जि) जीतना. . बुद् .
थुण. (स्तु) स्तुति करना. रव (रु) शब्द करना, आवाज करना. | धुण (धू) धुजाना, हिलाना. वड्ड (वृध् - वर्ध) बढ़ना.
पुण् (पू) पवित्र करना. सुमर (स्मृ - स्मर) स्मरण करना, लुण् (लू) काटना. सर् ' संभारना.
| सुण् (श्रु) सुनना.. हक्क (नि + सिध) निषेध करना. हुण् (ह) होम करना. 11. चिण् (चिं) इकठ्ठा करना... 5. आर्ष में बुद् धातु के बेमि,बेइ, बिंति, बुम इत्यादि रूप होते हैं । 6. 'चि' आदि धातुओं को प्राकृत में पुरुषबोधक प्रत्ययों के पहले 'ण'
लगता है । (४/२४१) उदा. चिणइ (चिनोति) कुछ स्थानों में यह 'ण' विकल्प से आता है | उदा. जणइ, जिणई (जयति)
हिन्दी में अनुवाद करें आदरेइ 16. चिणए . 31. हवइ जम्मंति 17. थुणेइरे 32. बुज्झए निज्झरए 18. पुणेइ
33. रक्खेन्ति बविरे
19. सुणंति 34. लज्जन्ते वड्ढिरे 20. बुवेइ
35. हणए 6. हक्कन्ते 21. कहन्ति 36. तूसेइ
जिणेह 22. जाणन्ते 37. रुसन्ते 8. धुणन्ते 23. देखेइरे
38. थुणइ 9. सरित्था 24. पीडेइ
39. रोविमो 10. लुणिरे 25. बीहए . 40. जिणसे 11. हुणन्ति 26. भणए
41. थुणित्था 12. धुणेइ . 27. वसन्ते
42. बवेमि 13. फरिसिरे 28. इच्छन्ति
43. धुणेमो 14. रवेइ 29. करिरे
44. जिणेमो 15. सुमरेन्ति 30. चिंतह
7. जिगह
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प्राकृत में अनुवाद करें 1. (वह) खरीदता है । 12. (वे) क्षय होते हैं । |24. (वे) पूछते हैं । 2. (वे) हिलाते हैं। | 13. (वह) बोलता है । |25. (वे) पढ़ते हैं । 3. (वह) स्पर्श करता| 14. (वह) बढ़ता है। 26. (वे) वन्दन करते
115. (वह) निषेध करता हैं। 4. (वे) शब्द करते हैं। है ।
27. (वह) रोता है। 5. (वह) स्मरण करता | 16. (वे) जीतते हैं। 28. (वे) हँसते हैं।
17. (वह) हिलाता है । /29. (वे) काँपते हैं । 6. (वे) इकट्ठा करते हैं || 18. (वह) काँपता है । |30. (वह) चरता है । 7. (वह) स्तुति करता | 19. (वह) खेलता है । |31. (वे) निन्दा करते हैं ।
20. (वह) होम करता| 32. (वे) मोहित 8. (वे) पवित्र करते हैं। है ।
होते हैं। 9. (वह) सुनता है | |21. (वह) जाता है । 33. (वह) पोषण करता 10. (वे) आदर करते हैं। 22. (वह) खाता है । । है। 11. (वह) उत्पन्न होता| 23. (वह) नमस्कार 34. (वह) आवाज
करता है।
करता है।
श्रा
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हम.
पाठ - 4
सर्वनाम उपयोगी युष्मद् इत्यादि सर्वनाम के तैयार रूप (३/१-५, १०६,९०, ९१, ८६, ५९) एकवचन
बहुवचन प्रथम पुरुष- | हं, अहं, (अहम्) | मैं | अम्ह, अम्हे, अम्हो (वयम्) | द्वितीय पुरुष- तुं, तं, तुमं (त्वम्)| तू |तुब्भे, तुम्हे, तुज्झे (यूयम्) | तुम. तृतीय पुरुष- | स, सो (सः) |वह | ते (ते) 1. वर्तमानकाल में 'अस्' धातु का रूप सभी वचनों और सभी पुरुषों में
"अत्थि" होता है। विशेष - सि प्रत्यय के साथ 'सि' रूप सिद्ध होता है तथा मि, मो, म प्रत्ययों के साथ म्हि, म्हो, म्ह रूप होते हैं ।
2. अस् धातु के रूप एकवचन
बहुवचन प्र. पु. म्हि, अस्थि
म्हो, म्ह, अत्यि द्वि. पु. | सि, अस्थि
अत्यि तृ. पु. | अत्थि
अत्थि आर्ष प्राकृत में अस् धातु के रूप एकवचन.
. बहुवचन प्र. पु. । मि, अंसि द्वि. पु. तृ. पु. | अत्थि
संति 2. अस् धातु के संस्कृत तैयार रूपों में प्राकृत नियमानुसार परिवर्तन करके
रूप बनते हैं, उदा. (३/१४६,१४७, १४८) उदा. संस्कृत | प्राकृत
संस्कृत | प्राकृत अस्मि | अम्हि
अस्ति । अस्थि असि असि
सन्ति संति इत्यादि रूप बनते हैं ।
मो.
| सि.
१७
Bी
7
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द्वि संख्यावाची शब्दों के उपयोगी तैयार रूप प्र. द्वि. विभ. बहुवचन दुवे, दोण्णि, दुण्णि.
वेण्णि , विपिण, दो , वे-बे. (द्वि- द्वौ) दो.
जाण धातु के रूप
एकवचन । बहुवचन प्रथम पुरुष जाणमि, जाणमो, जाणमु, जाणम
जाणामि,
जाणामो, जाणामु, जाणाम
जाणिमो, जाणिम्, जाणिम जाणेमि,
जाणेमो, जाणेम्, जाणेम द्वितीय पुरुष जाणसि, जाणह, जाणित्या
जाणेसि, जाणेह, जाणेत्था जाणसे.
जाणइत्था
जाणेइत्था तृतीय पुरुष जाणइ. जाणन्ति, जाणन्ते, जाणिरे
जाणेइ, जाणेन्ति, जाणेन्ते, जाणेइरे जाणए. जाणिन्ति, जाणिन्ते, जाणइरे, जाणेरे
धातु . अस् (अस्) होना.
| बंध् (बन्ध) बाँधना, बन्धन करना अप्प् (अप) अर्पण करना, भेंट देना. बाह (बाध) पीड़ा देना, दुःख देना. अच्छ (आस्) बैठना.
|मुल्ल् । (भ्रंश) भ्रष्ट होना, भूल करना, उज्झ (उज्झ) त्याग करना, छोड़ना.चका गिरना चकना कृप्प (कृप्य) काप करना, क्रोध करना.रंज (रन) रंगना आसक्त होना चय (त्यज) त्याग करना, छोड़ देना.
|वंच (वअ) ठगना, धोखा देना. चिट्ट । (स्था-तिष्ठ) खड़ा रहना.
वच्च् (व्रज) जाना. थक्क । स्थिर रहना. . चोप्पड (म्रक्ष) स्निग्ध करना , चुपड़ना,
| वट्ट (वृत्-वर्त)वर्तन करना, होना. पोतना.
वंछ (वाञ्छ) वांछा करना, इच्छा वोसिर् (वि+उत्+सृज) त्याग करना,
करना. छोड़ना.
सह (सह) सहन करना. सन्नाम् (आ+दृ) आदर करना. साह (कथ्) कहना. सलह-सिलाह (श्लाघ्) श्लाघा करना, साह (साध्) साधना, सिद्ध करना. प्रशंसा करना.
सिन् (सिव्य) सीना.
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हिन्दी में अनुवाद करें 1. अहं वन्देमि । |13. हं वोसिरामि 26. तुं सलहेसि । 2. तुम्हे दोणि 14. ते नमिरे । 127. अम्हे अच्छामो |
वट्टित्था । 15. अम्हे वन्दिमो । 28. तुम्हे दु रुवेह । 3. ते कुप्पेन्ति । 16. तुज्झे वन्देइत्था । 29. अम्हो फासामो । 4. सो पडए । | 17. तं वंछसे ।
30. तुज्झे चुक्केइत्था ।
31. ते दो फासेइरे । 5. ते पिविरे । | 18. सो इच्छइ । 6. तुम्हे कहेइत्था । 19. अम्हे बीहेमु ।
32. हं चिडेमि ।
33. अम्हे दुवे चयामो । 7. तुब्भे बीहेह । 20. ते चरेन्ति ।
| 34. ते तूसंति । 8. तुं भणेसि । 21. तं उज्झसे ।
| 35. अम्ह चिट्ठम् । 9. स अप्पेइ । 22. ते दो किणेइरे ।
36. तुम्हे वंछेह । 10. अम्हो अत्थि । ३ |23. हं म्हि ।
| 37. तुम्हे पूसेह । 11. अम्हे थक्किमु । |24. ते दुण्णि रक्खंति || 38 ते साहिन्ति । 12. स वट्टइ । | 25. तुम्हे वे अत्थि । 39. तुब्भे दुवे सहेइत्था 3. 'ए' और 'ओ' के बाद कोई भी स्वर आये तो सन्धि नहीं होती है ।
उदा. आलक्खिमो एण्हि (आलक्ष्यामहे इदानीम्), नहल्लिहणे आबंधतीइ (नखोल्लेखने आबध्नन्त्याः ) ।
प्राकृत में अनुवाद करें 1. तुम इच्छा करते हो || 13. वे चुपड़ते हैं। 25. वे निन्दा करते हैं । 2. हम देखते हैं | 14. मैं भोजन करता हूँ || 26. तुम बोध पाते हो । 3. वह सहन करता है || 15. तुम दो पीते हो । 27. तुम दोनों लड़ते 4. तुम सिद्ध करते हो । 16. तुम नमस्कार करते | | हो । 5. हम दो रक्षण करते हैं। हो ।
| 28. तुम दो हो । 6. तुम देते हो। 17. तु सीता है | | 29. वह चुपड़ता है । 7. हम त्याग करते हैं || 18. हम दो हैं । 30. हम भोजन करते 8. तुम दोनों विचार | 19. मैं त्याग करता हूँ ।। है । करते हो ।
20. वह देखता है । | 31. तुम बाँधते हो । 9. वे दो कहते हैं । 21. तू है |
32. तुम क्षीण होते हो । 10. तुम बैठते हो | .
| 22. वे प्रशंसा करते हैं । 33. वे दो काँपते हैं । 11. तुम खड़े रहते हो ।
123. तुम भटकते हो । |34. तुम दुःख देते हो। 12. हम हँसते हैं।
| 24. वे रोष करते हैं ।
१९
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पाठ 5
स्वरान्त धातु
1. स्वरान्त धातुओं में पुरुषबोधक प्रत्यय लगाते समय प्रत्ययों के पहले 'अ' प्रत्यय विकल्प से रखा जाता है । (४ / २४०)
हो धातु के रूप
प्रथम पुरुष द्वितीय पुरुष
तृतीय पुरुष
प्रथम पुरुष
द्वितीय पुरुष
तृतीय पुरुष
एकवचन
होमि
होसि
होइ
'अ' प्रत्यय लगाने पर 'होअ' अंग के रूप
बहुवचन
होमो होअमु, होअम होमो होआमु, होआम
होइमो, होइमु, होइम होएमो, होएमु, होएम होअह,
होइत्था
होएह, होएत्था
एकवचन
होमि
होआमि
होएमि
होसि
होएसि
होअसे
होअइ
होएइ
होए
बहुवचन
होमो, होमु, होम. होह, होइत्था.
• होन्ति, होन्ते, होइरे .
२०
·
"
अइत्था
हो इत्था
होअन्ति, होअन्ते, होइरे होएन्ति होएन्ते, होएइरे होइन्ति, होइन्ते, होअइरे
1
टिप्पणी-पा. 3 नि. 4 नियम 1 में बताये अनुसार संयुक्त व्यंजन के पूर्व का स्वर हस्व होता है तब हो + न्ति = हुन्ति, जा + न्ति = जन्ति.
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मुरझाना.
जा (जन्) उत्पन्न होना.
जा (या) जाना, गमन करना.
झा (ध्यै) ध्यान करना.
ठा (स्था) खड़े रहना.
खा
खाय्
गा (गै) गाना .
गिला (ग्लै) खिन्न होना, कुम्हलाना, ने (नी) ले जाना, रास्ता दिखाना चव् (च्यु) गिरना, मरना, जन्मांतर में
जाना.
2.
हा (स्ना) स्नान करना. 2. दा (दा) दान देना, देना. धा (धा) धारण करना.
भा (भा) प्रकाशित होना, चमकना. पा (पा) पीना, पान करना. मिला (म्लै) कुम्हलाना, मुरझाना. खिन्न होना.
हो (भू) होना.
3.
धातु
}(खाट्) खाना,भोजन करना.
1 15
इ का ए
ने (नी) डे (डी) जि
जय
3. जे (जि) जीतना डे (डी) उड़ना
उड्डे (उड् + डी) उड़ना
हव् (ह्न) छुपाना .
सव् (सू) जन्म देना.
हव् (हु) होम करना. जर (ज) जीर्ण होना, तर् (तृ) तैरना.
धर (धृ) धारणा करना.
वर (वृ-वृ) पसंद करना, चुनना. सर् (सृ) सरकना, खिसकना, फिसलना.
हर् (ह) हरण करना, हड़पना, ले जाना.
दा धातु में पुरुषबोधक प्रत्यय लगाते समय अन्त्य आ का किसी स्थान ए होता है ।
उदा. देइ, देन्ति, दिंति, देसि, देमि, देमु आदि रूप भी होते हैं। संस्कृत में जिन धातुओं के अन्त में इ, उ या ऋ स्वर हो तो उन धातुओं के अन्त्य इ का ए और किसी स्थान में अय्, उ का अव् और ऋ का अर् होता है । (४/२३३, २३४, २३७) उदा.
उ का अव्
ऋ का अर्
ण्हव् (ह्न)
कर (कृ)
चव् (च्यु)
धर (धृ)
व् (रु)
सर (सृ)
२१
बूढ़ा होना.
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हिन्दी में अनुवाद करें1. अम्हे दोणि
झाएइत्था । |20. अहं गामि । ठाएमो । 11. ते होइरे । 21. अम्हे वे ण्हाम । 2. अम्हो जेएमु । | 12. ते पान्ति । 22. सो ण्हवेइ । 3. हं ठामि । 13. तुं झासि । 23. अम्ह हवेमो । 4. अम्हे होएमो । | 14. हं पहाअमि । | 24. तुम्हे हरेह । 5. अम्हे दुवे झामु । |15. तुज्झे ठाएइत्था | 25. स बहाएइ । 6. हं होमि । 16. तुम्हे विण्णि 126. हं जामि । 7. हं पामि ।
नेइत्था । 27. अम्हे वरामो । 8. अहं झाएमि । 17. तुं पाअसे । 28. अम्हे वे जाएमो । 9. सो होइ । | 18. ते चवेइरे । 29. अम्हे दो गाइमु । 10. तुम्हे दुण्णि |19. हं जरेमि । |30. ते सवेइरे ।
प्राकृत में अनुवाद करें 1. वे दो खड़े हैं।
18. तुम दोनों देते हो । 2. तुम जाते हो ।
19. हम सब का च्यवन होता है । 3. वे दो गाते हैं।
20. तुम दोनों खिसकते हो । 4. वे दो खिन्न होते हैं। . 21. तू होता है। 5. वह खड़ा रहता है । 22. तुम सब स्नान करते हो । 6. वह जाता है।
23. हम कुम्हलाते हैं । 7. वह गाता है ।
24. वे ध्यान करते हैं | 8. मैं मुरझाता हूँ।
25. हम दो प्रकाशित होते हैं | 9. वह ले जाता है |
26. तुम होते हो। 10. वे दो जाते हैं |
27. तुम दो मुरझाते हो । 11. हम दो पीते हैं।
28. तुम छिपाते हो । 12. वे दो अपहरण करते हैं। 29. हम तैरते हैं । 13. तुम स्नान करते हो । 30. तुम सब गुस्सा करते हो । 14. तुम दो पीते हो ।
31. तुम उत्पन्न होते हो । 15. तुम खाते हो।
32. वह चमकता है । 16. वे देते हैं ।
33. मैं उत्पन्न होता हूँ। 17. हम दो धारण करते हैं ।
२२ -
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पाठ - 6
ज्ज - ज्जा प्रत्यय
1. वर्तमानकाल, भविष्यकाल और विध्यर्थ - आज्ञार्थ में धातुओं में सभी पुरुषबोधक प्रत्ययों के स्थान में ज्ज अथवा ज्जा विकल्प से रखा जाता है । (३/१७७)
2. ज्ज अथवा ज्जा प्रत्ययों के पहले अ हो तो अ के स्थान पर ए होता है । (३/१५९)
उदा. सर्वपुरुष और सर्ववचन में
हस् + अ + ज्ज = • हसेज्ज, हसेज्जा.
}
अथवा हसइ, हसेन्ति आदि, होइ, होन्ति आदि
प्रथम पुरुष
3. वर्तमानकाल, भविष्यकाल, विध्यर्थ और आज्ञार्थ में स्वरान्त धातुओं को पुरुषबोधक प्रत्यय लगाने के पहले ज्ज अथवा ज्जा विकल्प से लगता है । (३/१७८) उदा. हो + इ = होज्जइ, होज्जाइ.
होज्ज - होज्जा अंग के रूप
द्वितीय पुरुष
एकवचन
होज्जमि
होज्जामि
हज्जेम
हज्ज
होज्जा
होज्जसि
होज्जासि
हज्जेसि
होज्जसे
हो
होज्ज
होज्जा
+ ज्ज = होज्ज, होज्जा.
बहुवचन
होज्जमो, होज्जमु, होज्जम होज्जामो, होज्जामु, होज्जाम
होज्जमो, होज्जिमु, होज्जिम
होज्जेमो, होज्जेमु, होज्जेम
होज्ज
होज्जा.
होज्जह, होज्जित्था
होज्जाह, होज्जेत्था
होज्जेह, होज्जइत्था
हज्जेइत्था
होज्जाइत्था
होज्ज
होज्जा
पूर्वोक्त पा. 3 नि. 4 नियमानुसार हस्व स्वर होता है तब हुज्ज, हुज्जा, हसिज्ज, हसिज्जा रूप भी होते हैं ।
२३
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तृतीय पुरुष होज्जइ होज्जन्ति, होज्जन्ते, होज्जइरे. होज्जाइ
होज्जान्ति, होज्जान्ते, होज्जाइरे. होज्जेइ होज्जेन्ति, होज्जेन्ते, होज्जेइरे. होज्जए होज्जिन्ति, होज्जिन्ते, होज्जिरे,
होज्ज, होज्जा | होज्ज, होज्जा 4. स्वरान्त धातुओं के पुरुषबोधक प्रत्ययों के पहले 'अ' प्रत्यय लगाने पर
बननेवाले रूप.
होअ + ज्ज = होएज्ज, होअ + ज्जा = होएज्जा. 5. होएज्ज • और होएज्जा अंग के रूप. | एकवचन
बहुवचन प्रथम पुरुष | होएज्जमि होएज्जमो, होएज्जमु, होएज्जम,
होएज्जामि होएज्जामो, होएज्जामु, होएज्जाम, होएज्जेमि होएज्जिमो, होएज्जिमु, होएज्जिम,
होएज्जेमो, होएज्जेमु, होएज्जेम, होएज्ज
होएज्ज, होएज्जा
होएज्जा. द्वितीय पुरुष | होएज्जसि, होएज्जह, होएज्जित्था ,
होएज्जासि, होएज्जाह, होएज्जेत्था, होएज्जेसि, | होएज्जेह, होएज्जइत्था, होएज्जसे,
होएज्जेइत्था,
होएज्जाइत्था. होएज्ज, होएज्जा | होएज्ज, होएज्जा. तृतीय पुरुष होएज्जइ, होएज्जन्ति, होएज्जन्ते, होएज्जइरे,
होएज्जाइ, होएज्जान्ति, होएज्जान्ते, होएज्जाइरे, होएज्जेइ, होएज्जेन्ति, होएज्जेन्ते, होएज्जेइरे, होएज्जए, होएज्जिन्ति, होएज्जिन्ते, होएज्जिरे, होएज्ज, होएज्जा. होएज्ज, होएज्जा.
इन रूपों का उपयोग प्राकृत साहित्य में अतिअल्प स्थान में दिखाई देता है।
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छज्ज् )
जीव् धातु के रूप
सर्व पुरुष + सर्व वचन में - जीवेज्ज , जीवेज्जा 6. ज्ज- ज्जा न आए तब होमि, होअमि, होआमि, होएमि तथा
जीवमि, जीवामि, जीवेमि आदि पूर्वोक्तानुसार रूप होते हैं | 7. शब्द की आदि में त्य का च और अन्दर हो तो च्च होता है लेकिन चैत्य
शब्द में त्य का च्च नहीं होता है । (२/१३) उदा. नच्चइ (नृत्यति)
पच्चओ (प्रत्ययः) चयइ (त्यजति)
सच्चं (सत्यम् ) चाओ (त्यागः)
चइत्तं (चैत्यम्)
धातु अच्च (अर्च) पूजा करना. | मेल्ल् ) (मुच्- मुञ्च) रखना, गरिह (गर्ह) निन्दा करना. छड् छोड़ना.
मुय् । अग्घ (राज्) शोभा देना |नस्स् । (नश्- नश्य) नष्ट होना. रेह
नास् । जीव् (जीव) जीना.
| नच्च् (नृत्-नृत्य) नृत्य करना, नाचना. जुज्झ् (युध्- युध्य) लड़ना. सिंच (सिञ्च) छाँटना, सिंचन करना. डह् (दह) जलना, जलाना. | सोल्ल् , (पच्) पकाना. तण् (तन्) बिछाना, विस्तार करना.
सिज्झ् (सिध्- सिध्य्) सिद्ध होना.
सड् (शद्) सड़ना, नष्ट होना.
हिन्दी में अनुवाद करें1. सो अच्छेज्ज ।
18. ते दुवे नेएज्जेइरे । 2. स पिवेज्ज ।
9. तुम्हे नेएज्जाह । 3. सो चुक्केज्जा ।
|10. अम्हे सोल्लेज्जा । 4. तुं चिढेज्जा ।
11. हं मिलाएज्जामि । 5. अम्हे दो होज्जामो । 12. तुम्हे दो मिलाज्जइत्था । 6. स बुज्झज्जा ।
| 13. तं गरिहेसि । 7. अम्हे दुण्णि झाएज्जिमो ||14. तुज्झे छड्डेज्जा ।
| पय
२५
R
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15. सो पाएज्जइ । 16. तुब्भे ठाज्ज | 17. अम्हे बे मिलाज्जेमु ।
18. अहं करेज्जा । 19. अहं ठाज्जेमि ।
20. सो पाज्जाइ । 21. अम्हे जीवेज्ज |
22. तुं जाएज्जसे ।
1.
2.
3.
4.
5.
6.
• प्राकृत में अनुवाद करें
वे दो सिद्ध होते हैं ।
वह विस्तार करता है ।
हम पूजा करते हैं।
तुम दो छिड़कते हो ।
तुम उत्पन्न होते हो । खाते हैं ।
तुम खेद पाते हो।
तुम जीते हो ।
तुम दो युद्ध करते हो ।
23. तुज्झे बे मिलाएज्जाइत्था । 24. तुं गाज्जेसि ।
25. तुम्हे नच्चेज्जा ।
26. अहं छज्जेज्जा । 27. ते नस्सेज्ज । 28. तुज्झे पाएज्जाह । 29. अम्हे सडेज्जा । 30. तुम्हे दुवे डहेह |
7.
8.
9.
10. तुम बोध पाते हो । 11. तुम खड़े रहते हो ।
14. वह देता है ।
15.
16.
17.
मैं चूक जाता हूँ ।
वह मुर्झाता है ।
तुम खड़े रहते हो ।
तुम चमकते हो ।
18.
19. वे ले जाते हैं ।
20. तुम हड़पते हो ।
21. हम पीते हैं ।
वे गाते हैं ।
वह धारण करता है ।
तुम सब विचार करते हो ।
22.
23.
24.
25. हम दो खिन्न होते हैं ।
12. तुम सब ध्यान करते हो ।
13. मैं उत्पन्न होता हूँ ।
• ये वाक्य ज्ज और ज्जा के प्रयोगसहित करें ।
स्वाध्याय
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दो
1. प्राकृत में स्वर और व्यंजन कितने हैं ?
2. ऋ, लृ, ऐ, औ इन स्वरों के विकार कैसे होते हैं ?
3. प्राकृत में विसर्ग का क्या होता है ?
4. 'ङ्' और 'ञ्' का प्रयोग कहाँ होता है ?
5. 'मि' और 'मो' प्रत्यय के पूर्व के 'अ' में क्या परिवर्तन होता है ?
6. 'से' और 'ए' प्रत्यय जिसको नहीं लगे वैसी कुछ धातुओं के रूप लिखें ।
२६
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7. निम्नलिखित रूप पहचानो
जाणित्था, गच्छेन्ति, गच्छिति, हसिरे, हुंति, हुज्ज, झंति, गच्छिज्ज, गच्छेज्जा ।
8. 'अस्' धातु के रूप बनाओ ।
9. व्यंजनान्त और स्वरान्त धातुओं के रूपों की विशेषता बताओ । 10. पूर्व के स्वर का लोप कब होता है ? दृष्टांत सहित बताओ । 11. 'ज्ज' और 'ज्जा' के पूर्व के 'अ' का क्या होता है ?
12. स्वरान्त और व्यंजनान्त धातुओं में 'ज्ज' और 'ज्जा' का उपयोग किस तरह होता है ? दृष्टान्त सहित बताओ ।
13. 'ने' और 'पुच्छ्' धातु के संपूर्ण रूप लिखें ।
उपसर्ग
नियम :
1. (अ) उ (उत् के अन्त्य व्यंजन का लोप होने पर ) उपसर्ग + व्यंजन व्यंजन द्वित्व Double होता है ।
उदा. उ + ठाइ = उठ्ठाइ, नि + झरेइ = निज्झरेइ, उ + धरइ = उध्धरेइ, - उद्धरेइ ।
(ब) द्वित्व व्यंजन जो वर्ग का दूसरा अथवा चौथा अक्षर हो तो द्वित्व के प्रथम अक्षर का उसी वर्ग का ( दूसरे का पहला और चौथे का तीसरा ) अनुक्रम से रखा जाता है । (२/९०) उदा.
=
त्थ
--
द्ध, फ्फ = प्फ, भ्भ = ब्भ होता है
ख्ख = क्ख =, घ्घ = : ग्घ, छ्छ = च्छ, झ्झ = ज्झ, ठ्ठ ड्ड थ्थ ध्ध 2. निर्, दुर् उपसर्ग के र् का विकल्प से लोप होता है, लोप न हो तब बादवाले व्यंजन का द्वित्व Double होता है और र् के बाद स्वर आये तो लोप नहीं होता है । (१/१३)
उदा. निर् + इ = निण्णेइ, निर् + सहो = निस्सहो, नीसहो, निसहो, निर् + अंतर = निरंतरं, दुर् + सहो = दुस्सहो, दूसहो, दुसहो, दुर् + उत्तरं = दुस्तरं, दुर् + खिओ = दुक्खिओ, दूहिओ. (दुःखितः)
---
ट्ठ (ट्ठ), ढ्ढ
=
=
उपसर्ग
उपसर्ग धातु के पहले रखे जाते है, वे (उपसर्ग) धातु के मूल अर्थ में परिवर्तन करके किसी स्थान में विशेष अर्थ, किसी स्थान में विपरीत अर्थ और किसी
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स्थान में अलग अर्थ बताते हैं ।
1.
2.
3.
4.
5.
6.
7.
8.
9.
अइ / अति- (अति) सीमा बाहर, अतिशय.
उदा. अइ + क्कम् = अइक्कमइ = वह सीमा के बाहर जाता है, वह उल्लंघन करता है ।
अहि/ अधि- (अधि) ऊपर, अधिक, प्राप्त करना.
उदा. अहि + चिह्न = अहिचिट्ठइ = वह ऊपर बैठता है ।
अहि + गच्छ् = अहिगच्छइ = वह प्राप्त करता है । अणु (अनु) पीछे, समान, समीप ।
उदा. अणु + गच्छ् = अणुगच्छइ = वह पीछे जाता है । वह अनुकरण करता है ।
=
अणु + कर = अणुकरइ अभि/अहि-(अभि) सन्मुख, पास में.
उदा. अभि + गच्छ् = अभिगच्छइ = वह सन्मुख जाता है, वह पास में जाता है ।
अव / ओ - (अव) नीचे, तिरस्कार.
उदा. अव + यर् = अवयरइ, ओ + यर् = ओयरइ = वह नीचे उतरता है । अव + गण् = अवगणेइ = वह तिरस्कार करता है ।
आ-(आ) उल्टा, विपर्यय, मर्यादा.
उदा. आ + गच्छ् = आगच्छेइ = वह आता है ।
अव / अप / ओ- (अप) विपरीत, वापिस, उल्टा.
उदा. अव + क्कम् = अवक्कमइ, ओ + क्कम् = ओक्कमइ = वह वापस जाता है ।
--
अप + सर् = अपसरइ, ओ + सर् = ओसरइ वह वापस हटता है । उ (उत्) ऊँचा, ऊपर.
उदा. उ + गच्छ् = उग्गच्छइ = वह ऊपर जाता है ।
उट्ठाइ = वह उठता है ।
उ + ठाइ =
उव / ओ / उ- (उप) पास में, समीप.
उदा. उव + गच्छ् = उवगच्छइ, ओ + गच्छ् = ओगच्छइ,
वह समीप जाता है ।
उ + गच्छ् = उग्गच्छइ =
10. नि / नु- (नि) अन्दर, नीचे.
उदा. नि + मज्ज् = निमज्जइ, नु + मज्ज् = नुमज्जइ = वह डूबता है । नि + वड् = निवडइ = वह नीचे गिरता है ।
२८
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11. परा/पला (परा) उल्टा, वापिस. . उदा. परा + जय = पराजयइ = वह हारता है।
परा + भव् = पराभवइ = वह पराभव करता है (हराता है)।
पला + अय् = पलायइ = वह भागता है. 12. परि/पलि-(परि) चारों तरफ, विशेष, परिवर्तन होना. उदा. परि + तूस् = परितूसइ = वह विशेष खुश होता है ।
परि + वद्द = परिवट्टइ = वह परिवर्तन करता है. 13. पडि/पति/परि/पइ-(प्रति) सामने, उल्टा. उदा. पडि + भास् = पडिभासइ = वह सामने जवाब देता है ।
पड् + जाण् = पइजाणइ = वह प्रतिज्ञा करता है । 14. प (प्र) आगे, प्रकर्ष.
उदा. प + या = पयाइ = वह आगे जाता है. . प + यास् = पयासेइ = वह विशेष चमकता है, प्रकाशित होता है। 15. वि-(वि) विशेष, निषेध, विरोधार्थ. उदा. वि + याण् = वियाणेइ = वह विशेष जानता है ।
वि + स्मर् = विस्सरइ/वीसरइ= वह भूलता है ।
वि + सिलिस् = विसिलिसइ = वह वियोग पाता है। 16. सं. (सम्) अच्छी तरह.
उदा. सं + गच्छ् = संगच्छइ = वह अच्छी तरह मिलता है । 17. निर्/नि/नी-(निर) अवश्य,अधिकता, निषेध.
निर + जिण = निज्जिणेइ = वह अवश्य जीतता है | . निर् + णे = निण्णेइ = वह अवश्य करता है ।
निर् + इक्ख = निरिक्खेइ = वह निरीक्षण करता है, वह शोध करता है । 18. दुर/दु/दू (दुर) दुःख, दुष्टता अर्थ में
दुर् + लंघ् = दुल्लंघेइ = वह बड़ी मुश्किल से उल्लंघन करता है । दुर् + सह = दुस्सहेइ / दूसहेइ = वह बड़ी मुश्किल से सहन करता है । दुर् + आयार = दुरायार= दुष्ट आचरण. दुर् + आलोग = दुरालोग = बड़ी मुश्किल से दिखाई दे ऐसा ।
उपसर्गसहित उपयोगी धातु अइ + चर् (अति + चर) दोष लगाना, अणु + सर (अनु + सृ) अनुसरण करना अतिचार लगाना.
अहि + ज्ज् (अधि + इ) पढ़ना. अणु + जाण् (अनु + ज्ञा) आज्ञा देना. नि + ण्हत् (नि + ह्र) छिपाना.
-
२९
- -.
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प + आव् = पाव् ( प्र + आप ) प्राप्त आ + हर् ( आ + ह) आहार करना.
उ + ड्डे (उद् + डी) उड़ना. वि + यस् (वि + कस) विकास करना. वि + लव् (वि + लप्) विलाप करना, रोना.
करना.
प + विश् ( प्र + विश्) प्रवेश करना. प + हर् (प्र + हृ) प्रहार करना, मारना. परा + वद्द (परा + वर्त) परिवर्तन होना, आवृत्ति करना.
परि + हर् (परि + हृ) त्याग करना. वा + हर् (वि + आ + हृ) बोलना, बुलाना.
वि + उव्व् (वि + कृ) बनाना. अहि + लस् (अभि + लस्) अभिलाषा करना, इच्छा करना. आ + गच्छ् (आ + गम् गच्छ्) आना.
हिन्दी में अनुवाद करें
8.
9.
10. ते परावट्टिरे । 11. ते विउव्वेन्ति ।
1.
अम्हे विणिण अहिलसेज्जा ।
2.
सो निहवेइ ।
3.
ते दो वाहरेज्ज ।
4.
हं पविसेज्जा ।
5. अम्हे परावट्टिमो ।
6.
तुज्झे वेण्णि अइयरेह । 7. तुं अणुजासि ।
प्राकृत
1. हम आनन्द करते हैं । 2. तुम मिलते हो | 3. तुम दो बुलाते हो । 4. तुम प्रवेश करते हो ।
5. तू अभ्यास करता है । 6. हम बनाते हैं। 7. वह आवृत्ति करता है । 8. वे दो आज्ञा करते हैं । 9. तुम प्राप्त करते हो ।
(वि + लस् (वि + लस् ) विलास करंना, मौज करना.
वि + हर (वि + हृ) विहार करना, आनंद करना.
सं + गच्छ् (सं + गम् गच्छ) मिलना, प्राप्त करना.
सं + हर (सं + हृ) संहार करना.
में
12. हं पावेज्ज । 13. ते बे वियसेज्ज । 14. तुज्झे अणुसरेह ।
करें
अनुवाद
तुम्हे दुण्णि निगच्छेइत्था तुम्हे दोणि विलसेह ।
10. तुम छिपाते हो ।
11. वे दो अतिचार लगाते हैं । 12. तुम अभिलाषा करते हो । 13. वे आते हैं ।
14. तू निकलता है ।
15. तुम अनुसरण करते हो । 16. हम दो आज्ञा करते हैं । 17. हम मिलते हैं ।
३०
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पाठ - 7 'अकारान्त नाम पढमा और बीया विभक्ति प्रत्यय (३/२, ४, ५, १२, १४, २५, २६) एकवचन
बहुवचन ओ (ए)
आ, ए इं, इँ, णि (इ)
पुंलिंग
आ
पढमा बीया नपुंसकलिंग पढमा / बीया
टिप्पणी : 1. प्राकृत भाषा में आठ विभक्तियों के लिए पढमा (प्रथमा), बीया (द्वितीया),
तइया (तृतीया), चउत्थी (चतुर्थी), पंचमी (पञ्चमी), छठ्ठी (षष्ठी),
सत्तमी (सप्तमी) और संबोहण (संबोधन) इन शब्दों का प्रयोग होता है | 2. अ कारांत पुंलिंग प्रथमा विभक्ति का ए प्रत्यय तथा दूसरे भी ऐसे कौंस
में दिये हुए प्रत्ययों का आर्ष में ही प्रयोग होता है। उदा. समणे भयवं महावीरे (श्रमण भगवान महावीर)
नियम 1. अकारांत पुंलिंग में पंचमी विभक्ति सिवाय के स्वरादि प्रत्यय लगाने पर - पूर्व के स्वर का लोप होता है । उदा. जिण + ओ = जिणो । 2. (अ) पदान्तं में म् हो तो सभी जगह पूर्व के अक्षर पर अनुस्वार रखा जाता
है | उदा. जिणम् = जिणं । (ब) पदान्त म् के बाद स्वर हो तो पूर्व के अक्षर पर विकल्प से अनुस्वार रखा जाता है, जब अनुस्वार न हो तब म् बाद में रहे स्वर मे मिल जाता है । (१/२३, २४) उदा. जिणम् + अजियं = जिणं अजियं/जिणमजियं ।
उसभं अजियं च वंदे = उसभमजियं च वंदे । 3. नपुंसकलिंग मे इं, इँ और णि प्रत्यय लगाने से उसके पूर्व का स्वर दीर्घ होता है । (३/२६) उदा. फल + ई = फलाइं/फलाइँ/फलाणि |
- ३१ -
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4. (अ). शब्द में स्वर के बाद असंयुक्त "क-ग-च-ज-त-द-प-य अथवा व'
व्यंजन हो तो प्राकृत में इन व्यंजनों का लोप होता है । उदा. क-लोओ (लोकः)/ज, त-रययं (रजतम्)|प-रिऊ (रिपुः)
ग-नओ (नगः) |त-जई (यतिः) य-विओगो (वियोगः)
च-सई (शची) |द-गया (गदा) व-लावण्णं (लावण्यम्) (ब). अ वर्ण के बाद 'प' हो तो प का व होता है । उदा. पावो (पापः) (क). अ वर्ण के बाद अ वर्ण हो तो अ का प्रायः य होता है ।
(१/१७७, १८०) उदा. जणय (जनक) [जनक के क का लोप होकर उसके स्थान पर अ आने से अ का य हुआ ] अपवाद :- किसी स्थान में क का ग भी होता है ।
उदा. लोगो (लोकः), सावगो (श्रावकः) 5. व्यंजनसहित स्वर में से व्यंजन का लोप होने से शेष स्वर की पूर्वस्वर के
साथ संधि नहीं होती है । (१/८) उदा. निसाअरो (निशाचरः) रयणिअरो (रजनिचरः)
पयावई (प्रजापतिः) अपवाद - किसी किसी स्थान में विकल्प से संधि होती है । उदा. कुंभआरो-कुंभारो (कुम्भकारः), कविईसरो-कवीसरो (कवीश्वरः),
सुउरिसो-सूरिसो (सुपुरुषः), लोहआरो, लोहारो (लोहकारः) । 6. शब्द में असंयुक्त 'न' का ण होता है तथा आदि में न हो तो विकल्प से
ण होता है । (१/२२८, २२९) उदा. दाणं (दानम्), धणं (धनम्)
नाणं । (ज्ञानम्) | नरो । (नरः) णाणं
__णरो 7. नेत्त शब्द और उसके अर्थवाले शब्दों का पुंलिंग में भी विकल्प से प्रयोग
होता है । (१/३३) उदा. नेत्ता-नेत्ताइं, नयणा-नयणाई । 8. प्राकृत में अन्त्य व्यंजन का लोप होता है- (१/११) उदा. ताव (तावत्)
जसो (यशस्) जाव (यावत्)
तमो (तमस्) अप्प (आत्मन्)
जय। कम्म (कर्मन्)
जग। (जगत्) - ३२
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9. शब्द की आदि में य हो तो ज होता है तथा उपसर्ग के बाद य हो तो किसी
स्थान में ज होता है- (१/२२४) उदा. जसो (यशस्)
संजमो (संयमः) जमो (यमः)
संजोगो (संयोगः) जाइ (याति)
अवजसो (अपयशः) 10. (अ). जो शब्द अलग करने हों, उन प्रत्येक शब्द के अन्त में अथवा सभी
शब्दों के अन्त में च अव्यय का प्रयोग होता है । उदा. फलं च पुष्पं च वत्थं च गिण्हइ अथवा फलं पुष्पं वत्थं च गिण्हइ । (ब). प्रायः अनुस्वार के बाद च का और स्वर के बाद च के स्थान पर
य-अ का प्रयोग होता है । 11. वृषादि धातुओं के क्र का अरि होता है । (४/२३५) उदा. वरिसइ (वर्षति) 12. य वर्ण के पूर्व अथवा पश्चात् अ अथवा आ को छोड़कर कोई भी स्वर
हो तो य वर्ण के स्थान में प्रायः अ होता है । (१/१८०) उदा. आयरिय +ओ = आयरिओ, (आचार्यः)|मय - मओ, (मदः) जणय - जणओ, (जनकः)
मारिया-भारिआ । (भार्या) 13. इ इत्यादि पुरुषबोधक प्रत्यय के बाद स्वर आये तो संधि नहीं होती है। (१/९) उदा. होइ इह (भवति इह) ।
जिण (जिन) एकवचन
बहुवचन जिणो, जिणे
जिणा. जिणं
जिणा, जिणे. नपुंसकलिंग नाण (ज्ञान) नाणं
नाणाइं, नाणाइँ, नाणाणि. बी.)
शब्दार्थ (लिंग) आइरिय । (आचार्य) आचार्य.
|उवज्झाय) आयरिय
ऊज्झाय (उपाध्याय) उपाध्याय.
ओज्झाय आयव (आतप) धूप.
चोर (चौर) चोर. आस (अश्व) घोड़ा.
जण (जन) जन, मनुष्य. जणय (जनक) पिता. ३३ -
पुंलिंग
प
बी.
प.।
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जिण (जिन) रागद्वेषरहित, पायव (पादप) वृक्ष. जिन, भगवान.
पाव (पाप) पापी. मय (मद) अभिमान, मद.
पुत्त (पुत्र) पुत्र. माहण) (ब्राह्मण) ब्राह्मण. पुरिस (पुरुष) पुरुष. बम्हण
बाल (बाल) बालक, लड़का. मुक्ख । (मूर्ख) मूर्ख, अज्ञानी. बुह (बुध) पण्डित. मुरुक्ख
मयण (मदन) कामदेव. मोर (मयूर) मयूर.
राम (राम) विशेषनाम. रह (रथ) स्थ.
वच्छ (वत्स) बालक, बछड़ा.. तव (तपस्) तप.
वच्छ (वृक्ष) वृक्ष, पौधा. तित्थयर (तीर्थंकर) तीर्थंकर. विओग (वियोग) वियोग, विरह. देव (देव) देव.
समण (श्रमण) साधु, श्रमण. दीव (दीप) दीपक.
सीस (शिष्य) शिष्य.
__ (नपुंसकलिंग) अब्भ (अभ्र) मेघ, बादल... पण्ण (पर्ण) पत्ता. कमल (कमल) कमल.
पवयण (प्रवचन) आगम, सूत्र कल्लाण (कल्याण) कल्याण. पुत्थय । (पुस्तक) पुस्तक. घर (गृह) घर.
पोत्थय) . जल (जल) जल, पानी. फुल्ल (फुल्ल) फूल. जिणबिंब (जिनबिम्ब) जिनेश्वर की प्रतिमा. भूसण (भूषण) आभूषण, गहना. नयर (नगर) नगर.
मुह (मुख) मुख. नाण (ज्ञान) ज्ञान.
रयय (रजत) चांदी. दाण (दान) दान.
|वत्थ (वस्त्र) कपड़ा. नच्च (नृत्य) नृत्य.
सिव (शिव) कल्याण, मंगल, मोक्ष. नट्ट (नाट्य) नाच.
सुह (सुख) सुख. नेत्र (नेत्र) आँख, नेत्र.
सुत्त (सूत्र) सूत्र, शास्त्र त (तत्) वह.
सर्वनाम ज (यत्) जो
इम (इदम्) यह. क ( किम्) कौन.
सव्व (सर्व) सर्व, सब, सभी एअ-एत (एतत्) यह.
अन्न (अन्य) अन्य, दूसरा. ३४
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14. त और एअ का पुंलिंग प्रथमा एकवचन अनुक्रम से स, सो और एस
एसो रूप होता है । 15. सभी सर्वनामों का प्रथमा बहुवचन ए प्रत्यय लगाने से होता है ।
उदा. सव्वे, के, एए इत्यादि. 16. क शब्द का नपुंसकलिंग प्रथमा एकवचन और द्वितीया एकवचन 'किं'
रूप होता है। शेष सभी अकारांत सर्वनामों के पुंलिंग और नपुंसकलिंग रूप अकारांत पुंलिंग और नपुंसकलिंग के समान ही होते हैं । कुछ रूपों में विशेषता है वह आगे (पाठ.24 में) बतायेंगे ।
अव्यय अज्ज (अद्य) आज.
च, य, अ, (च) और वि, पि (अपि) लेकिन.
न (न) नहीं. 17. अव्यय- सर्वलिंग, सर्ववचन और सर्वविभक्ति में समान होते हैं ।
धातु वरिस् (वृष) बरसना..
| उव + दिस् (उप + दिश्) = उपदेश करिस् (कृष्) खेड़ना , खींचना, आकर्षण | देना. करना.
गिण्ह (ग्रह) ग्रहण करना. दरिस् (दृश्) देखना.
|नमंस् (नमस्य) नमस्कार करना. धरिस् (धृष) सामना करना. | प-मज्ज् (प्र + मृज्) साफ करना, मरिस् (मृश्) सोचना
|संमार्जना करना. मरिस् (मृष) सहन करना. प-यास् (प्र + काश्) प्रकाश देना. हरिस् (हृष्) खुश होना.
लह = (लभ) पाना
__ हिन्दी में अनुवाद करें1. देवा वि तं नमसंति । 6. सो तं धरिसेइ । 2. मुरुक्खो बुहं निंदइ । 7. अब्भं वरिसेइ । 3. देवा तित्थयरं जाणिन्ति । 8. मोरो नट्टं कुणेइ । 4. समणे नयरं विहरेइ । - 19. पुरिसा जिणे वंदेइरे । 5. आयरिओ सीसे उवदिसइ । |10. दाणं तवो य भूषणम् ।
- 3५
-
*
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11. तुम्हे पवयणं किं जाणेह ? 12. घरं धणं रक्खेइ ।
13. सव्वो जणो कल्लाणमिच्छइ । 14. रामो सिवं लहेइ ।
15. पावा सुहं न पावेन्ति ।
16. मयणो जणं बाहए ।
17. पुत्ता फुल्लाणि चिणंति । 18. मुक्खो वत्थाइँ उज्झेइ ।
19. पण्णाइं पडेइरे ।
20. एसो मुहं पमज्जेइ । 21. पयासेइ आइरिओ । 22. धणं चोरेइ चोरो ।
1.
2.
3.
4.
5.
6.
7.
8.
मूर्ख लोग मोहित होते हैं । ज्ञान प्रकाशित होता है ।
कमल शोभा देता है ।
दो नेत्र देखते हैं ।
शिष्य ज्ञान पढ़ते हैं
दो वृक्ष गिरते हैं ।
23. आयवो जणे पीडेइ । 24.
25.
26.
9.
राम पुस्तक का स्पर्श करता है । 10. दो बालक आभूषण ले जाते हैं। 11. उपाध्याय ज्ञान का उपदेश देते
हैं ।
12. धन बढ़ता है ।
13. पंडित पुस्तकों को चाहते हैं और मूर्ख धन की इच्छा करते
हैं।
27.
अहं पावं निंदेमि ।
28.
रहो चलेइ |
29. अम्हे नाणं इच्छामो ।
30.
31.
प्राकृत में अनुवाद करें
18.
घोड़े जल पीते हैं ।
19.
देव तीर्थंकरों को नमस्कार करते 20.
हैं ।
21.
देवा अब्भं विउव्विरे, जलं च
सिंचेति ।
रामो पण्णाइं डहेइ ।
स पोत्थयं गिण्हेइ, अहं च भूसणं
गम |
22.
23.
24.
25.
26.
27
14. वह सिद्ध होता है । 15. पंडित मोक्ष प्राप्त करता है । 16. मूर्ख लज्जित नहीं होते हैं । 17. वियोग मनुष्य को दुःख देता
है ।
३६
अम्हे वत्थाणि पमज्जेमो ।
जाई जिणबिंबाई ताई सव्वाइं वंदामि |
साधु तप करते हैं ।
बालक वस्त्र को खींचता हैं ।
हम सूत्र का विचार करते हैं ।
पुत्र पिता को नमस्कार करते
हैं ।
पानी सूखता है ।
बालक पानी पीता है ।
राम पापी को मारता है ।
पंडित रक्षण करते हैं ।
बालक डरते हैं ।
अभिमान लोगों को पीड़ा देता
हैं ।
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पाठ - 8
अकारान्त नाम तइया और चउत्थी विभक्ति प्रत्यय
(१/६,७,१३१, १३२) पुंलिंग एकवचन
| बहुवचन तइया . ण, णं
हि, हिँ , हिं चउत्थी । “य, (आए) . नपुंसकलिंग :- अकारान्त नपुंसक नामों के रूप प्रथम दो विभक्ति को छोड़कर शेष सभी विभक्तियों में अकारान्त पुंलिंग नामों के समान ही होते हैं । 1. तृतीया एकवचन और बहुवचन तथा सप्तमी बहवचन के प्रत्यय लगाने
पर पहले के अ का ए होता है । (३/१४, १५) उदा. जिण + ण = जिणेण, जिणेणं.
जिण + हि = जिणेहि, जिणेहिँ , जिणेहिं. 2. चतुर्थी एकवचन का य प्रत्यय लगाने पर पूर्व अ दीर्घ होता है । उदा. जिण + य = जिणाय.
जिण (जिन) पुंलिंग । एकवचन
बहुवचन तइया . | जिणेण, जिणेणं | जिणेहि, जिणेहिं , जिणेहिं. चउत्थी . | जिणाय, जिणाए • चतुर्थी एकवचन में य प्रत्यय तादर्थ्य (उसके लिए.) अर्थ में
विकल्प से लगता है । उस अर्थ को छोड़ एकवचन और बहुवचन में षष्ठी विभक्ति के प्रत्यय लगाये जाते हैं । [प्राकृत में चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति होती है । ]
नाण (ज्ञान) नपुंसकलिंग एकवचन
बहुवचन तइया
नाणेणं, नाणेण, नाणेहि, नाणेहिँ, नाणेहिं, नाणाय, नाणाए
- ३७ = =
चउत्थी
३७
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3. वह (वध) शब्द से चतुर्थी एकवचन में 'आइ आए' प्रत्यय विकल्प से
लगता है । उदा. वहाइ, वहाए, वहाय. 4. शब्द के अन्दर स्वर के बाद असंयुक्त ख-घ-थ-ध और भ का ह होता है
तथा ट का ड, ठ का ढ, ड का ल, प का व,फ का भ, ह और ब का व प्रायः होता है तथा श-ष का स होता है | उदा. ख - मुहं (मुखम्)
ड - गरुलो (गरुडः) घ - मेहो (मेघः)
प - उवमा (उपमा) थ - नाहो (नाथः)
फ - सभरी- सहरी (शफरी) ध - साहू (साधुः)
ब - सवलो (शबलः) भ - सहा (सभा)
श। सेसो (शेषः) ट - घडो (घट:)
ष । विसेसो (विशेष:) ठ - मढो (मठः) धातु में - कह (कथ)
अड् (अ) बोह (बोध्)
लह (लभ) सोह (शोभ)
खिव् (क्षिप) पील् (पीड्) 5. शब्द के अंदर रहे न्म का म्म नित्य और ग्म का म्म विकल्प से होता है ।
(२/६१, ६२) उदा. जम्मो (जन्मन्) | जुम्मं । (युग्मम्) | तिम्मं । (तिग्मम्)
वम्महो (मन्मथः) | जुग्गं | तिग्गं । 6. शब्द के अन्दर रहे अनुस्वार के बाद वर्गीय व्यंजन हो तो अनुस्वार का
उस वर्ग का अनुनासिक विकल्प से होता है । (१/३०) उदा. ङ् - अंगारो - अङ्गारो (अङ्गारः) | ण् - दंडो - दण्डो (दण्डः)
ङ् - संघो - सङ्घो (सङ्घः) |न् - चंदो - चन्दो (चन्द्रः) ङ् - संखो - सखो (शङ्खः) | म् - कंपइ - कम्पइ (कम्पते)
ञ् - कंचुओ - कञ्चुओ (कञ्चुकः) | म् - बंभणो - बम्भणो (ब्राह्मणः) 7. शब्द के अन्दर रहे स्प और ष्प का प्फ होता है तथा प्रारंभ में फ होता है ।
(२/५३) उदा. ष्प - पुर्फ (पुष्पम्)
स्प - फासो (स्पर्शः) ष्प - निप्फावो (निष्पापः) स्प - फंदणं (स्पन्दनम्) स्प - बिहप्फइ (बृहस्पतिः) | स्प - फद्धा (स्पर्धा)
- ३८
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8. निषेध बताने हेतु व्यंजनादि शब्द के आरंभ में अ और स्वरादि शब्द के
आरंभ में अण रखा जाता है । उदा. न लोगो = अलोगो (अलोकः), न आयारो = अणायारो (अनाचारः) न सच्चं = असच्चं (असत्यम्) न एगो = अणेगो (अनेकः)
शब्दार्थ (पुंलिंग) अवमाण (अपमान) अपमान, तिरस्कार. मुहर (मुखर) वाचाल. अलोग (अलोक) अलोक, निर्जन. मुक्ख । (मोक्ष) मोक्ष . आयार (आचार) आचार.
| मोक्ख उज्जम (उद्यम) उद्यम, मेहनत. | मेह (मेघ) बादल. उवएस (उपदेश) उपदेश. रोस (रोष) क्रोध. कुढार (कुठार) कुल्हाड़ा
लोग (लोक) लोक. कोह (क्रोध) क्रोध, गुस्सा. वह (वध) वध. चंद (चन्द्र) चन्द्र.
|वम्मह (मन्मथ) कामदेव. जिणेसर । (जिनेश्वर) जिनेश्वर. | वाह (व्याध) शिकारी. जिणीसर ।
विणय (विनय) विनय, विवेक जम्म (जन्मन्) जन्म.
वीयराग (वीतराग) रागरहित. देह पुं. नपुं. (देह) शरीर, देह वीर (सम) वीर, पराक्रमी. धम्म (धर्म) धर्म, फर्ज.
संघ (सङ्घ) संघ, समुदाय, नाय (न्याय) न्याय, नीति. श्रमणादि चतुर्विध संघ. नरिंद । (नरेन्द्र) राजा.
सज्जण (सज्जन) अच्छा व्यक्ति. नरिन्द
सढ (शठ), कपटी. निरय । (नरक) नारकी, नरक . सयायार (सदाचार) उत्तम आचार, नरय ।
पवित्र आचरण. बहिर (बधिर)
सहाव (स्वभाव) स्वभाव, प्रकृति. बंभण (ब्राह्मण) ब्राह्मण.
सर (शर) बाण. भाव (भाव) भाव.
सग्ग (स्वर्ग) देवलोक, स्वर्ग. मणोरह (मनोरथ) मनोरथ. सावग (श्रावक) श्रावक. महिवाल (महिपाल) राजा. | सिद्ध (सिद्ध) सिद्ध भगवान, सिद्ध मिग । (मृग) हरिण. . मअ
हत्थ (हस्त) हाथ.
पुरुष.
B
28
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नपुंसकलिंग ओसढ (औषध) औषध, दवा. दुरिय (दुरित) पाप. कज्ज (कार्य) काम, कार्य. - |पंकअ (पङ्कज) कमल. कट्ठ (काष्ठ) लकड़ी.
पाव (पाप) पाप. गयण (गगन) आकाश.
पुण्ण (पुण्य) पुण्य, धर्म, पवित्र. तत्त (तत्त्व) रहस्य, परमार्थ. पुष्फ (पुष्प) फूल. तलाय (तडाग) तालाब, जलाशय. |वक्क (वाक्य) वाक्य. तित्थ । (तीर्थ) तीर्थ, पवित्र स्थान. रज्ज (राज्य) राज्य.
सत्थ (शास्त्र) आगम. थोत्त (स्तोत्र) स्तोत्र.
|सत्थ (शस्त्र) शस्त्र. दुक्ख । (दुःख) दुःख. सील (शील) शील , उत्तम आचरण.
दुह
।
विशेषण अप्पकेर (आत्मीय) अपना. | सहल । (सफल) सफल, फलवान. अणेग (अनेक) एक से ज्यादा. समल एग - एअ । (एक) एक. फरुष (परुष) कठिन, कर्कश. एक - एक्क)
रहिअ (रहित) रहित, वर्जित. परम (सम) उत्कृष्ट, श्रेष्ठ 9. विशेषण को विशेष्य के ही जाति, वचन और विभक्ति लगते हैं।
अव्यय अपि - अवि (अपि) लेकिन, भी. विणा (विना) सिवाय , रहित , छोड़कर. अहि (अभि) ओर, पास में. . सव्वत्थ) (सर्वत्र) सब जगह. कया (कदा) कब. णाई । (न) नहीं.
सबह . अण)
सह (सम) सहित. पइ (प्रति) तरफ, पास में. सद्धिं (सार्द्धम्) सहित. 10. अपि या अवि अव्यय किसी भी पद के पश्चात् हो तो उसके प्रारंभ के अ
का विकल्प से लोप होता है । (१/४१) उदा. तं अपि - तंपि (तदपि). | केणवि । केनापि.
किं अपि - किंपि (किमपि) | केण अवि J
सवहिड
- ४०
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जब लोप न हो तब विकल्प से संधि होती हैतमवि (तदपि)
केणावि (केनापि) किमवि (किमपि) | देवा अवि - देवावि (देवा अपि). 11. विणा अव्यय के योग में दूसरी, तीसरी और पाँचवीं विभक्ति
रखी जाती है | सह अव्यय और उस अर्थवाले दूसरे अव्यय जिस नाम के साथ जुड़ते हैं, वह नाम तीसरी विभक्ति में रखा जाता है। उदा. धम्मं विणा सुहं न लहेज्ज |
नाणेण सह समणा सोहंते । 12. जिस अव्यय के अन्त में त्र हो तो उसके बदले हि-ह-त्थ होता है । (२/१६१) उदा. जहि, जह, जत्थ (यत्र)- कहि, कह, कत्थ (कुत्र)
तहि, तह, तत्थ (तत्र) अन्नहि, अन्नह, अन्नत्थ (अन्यत्र)
धातु
अड्। (अ) अट् । भटकना, अग्घ (अर्घ) किंमत करना, आदर करना. पेक्ख् । (प्र + ईक्ष) देखना. पिक्ख् । खित् (क्षिप) फेंकना. जय (यत्) यत्न करना.
छिंद् (छिन्द) छेदना. पीण् (प्रीण) खुश करना. धाव् ) (धाव) दौड़ना. धाय धा ) लह (लभ) प्राप्त करना. सोह (शोभ) शोभा देना.
हिन्दी में अनुवाद करें1. जो एगं जाणेइ सो सव्वं जाणइ । 2. जो सव्वं जाणए सो एगं जाणेइ । 3. बुहा बुहे पिक्खन्ति किं मुरुक्खो ? 4: णाई करेमि रोसं। 5. धणं दाणेण सहलं होइ । 6. समणा मोक्खाय जएन्ते । 7. बहिरो किमवि न सुणेइ । 8. समणा नाणेण तवेण सीलेण य छज्जन्ते ।
सावगो अज्ज पंकएहिं जिणे अच्चेज्ज | 10. जणो कुढारेण कट्ठाइं छिंदइ । 11. पावो वहाइ जणं धाएइ । 12. आयरिआ सीसेहिं सह विहरेइरे । 13. उज्जमेण सिज्झंति कज्जाणि न मणोरहेहिं । 14. रोगा ओसढेण नस्संते ।
स
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15. सीसा आइरिए विणएण वंदिरे । 16. सज्जणा कयाइ अप्पकेरं सहावं न छड्डिरे । 17. वाहो मिगे सरेहिं पहरेइ । 18. सीलेण सोहए देहो, न वि भूसणेहिं । 19. धणेण रहिओ जणो सव्वत्थ अवमाणं पावेज्ज । 20. बुहो फरुसेहिं वक्केहिं कंपि न पीलेइ । 21. भावेण सव्वे सिद्ध नमिमो । 22. वीयराग नाणेण लोगमलोगं च मुणेइरे । 23. संघो तित्थं अडइ । 24. आयारो परमो धम्मो, आयारो परमो तवो । आयारो परमं नाणं, आयारेण न होइ किं? ||
प्राकृत में अनुवाद करें1. काम व्यक्ति को दुःख देता है । 2. चन्द्र से आकाश शोभा देता है | 3. जन्म से ब्राह्मण नहीं होता है, लेकिन आचरण से होता है । 4. लोभ व्यक्ति को परेशान (हैरान) करता है । 5. राजा नीतिपूर्वक राज्य करते हैं । 6. पाप से मनुष्य नरक में जाता है और धर्म से स्वर्ग में जाता है | 7. मयूर बादल से खुश होते हैं । 8. तुम दोनों नृत्य के साथ गाते हो। 9. (दो) हाथों से तुम पुष्प ग्रहण करते हो। 10. साधु ज्ञान बिना सुख प्राप्त नहीं करते हैं । 11. हम स्तोत्रों से जिनेश्वर की स्तुति करते हैं । 12. कपटी सज्जनों की निन्दा करता है । 13. उपाध्याय सूत्रों का उपदेश देते हैं । 14. मूर्ख दीपक. से वस्त्र जलाते हैं । 15. हम पुष्पों द्वारा जिनबिम्ब की पूजा करते हैं | 16. मनुष्य धर्म द्वारा सर्वत्र सुख प्राप्त करता है । 17. पण्डित भी मूों को खुश नहीं कर सकता है। 18. साधु काम, क्रोध और लोभ को जीतते हैं । 19. वीर शस्त्रों को फेंकता है। 20. हम दो संघ के साथ तीर्थ की ओर जा रहे हैं । 21. वाचाल मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता है । 22. जो तत्त्व को जानता है वह पण्डित है ।
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पुंलिंग
पंचमी
पाठ - 9
अकारान्त नाम
पंचमी और छठी विभक्ति प्रत्यय (३/८, ९, १०, ६)
एकवचन
त्तो, ओ, उ, (तो-तु), हि, हिन्तो, 0 ( लुक्)
छठी
स्स
नपुंसकलिंग पुंलिंगवत्
1. तो और एकारादि प्रत्ययों को छोड़कर पंचमी विभक्ति के सभी प्रत्यय
-
बहुवचन
त्तो, ओ, उ, (तो-तु) हि, हिन्तो, सुन्तो, एहि, एहिन्तो एसुन्तो.
ण.
णं
लगाने पर पूर्व के अ का आ होता है । (३/१२, १३)
उदा. देव + ओ = देवाओ, देव + हिन्तो
2. एकारादि प्रत्ययों के पूर्व में रहे अ का लोप होता है । ( ३/१५)
उदा. देव + एहि = देवेहि.
देवाहिन्तो, देव + त्तो = देवत्तो.
3. छठी विभक्ति बहुवचन के प्रत्यय लगाने पर पूर्व अ, इ, उ दीर्घ होते हैं । (३ / १२) उदा. देव + णं = देवाणं.
रूप पुंलिंग = जिण (जिन)
एकवचन
बहुवचन
पंचमी जिणत्तो, जिणाओ, जिणाउ, जिणत्तो, जिणाओ, जिणाउ, जिणाहि,
जिणाहि, जिणाहिन्तो, जिणा. जिणाहिन्तो, जिणासुन्तो, जिणेहि, जिणेहिन्तो, जिणेसुन्तो जिणाण, जिणाणं.
पंचमी - नाणत्तो, नाणाओ, नाणाउ,
छठी
जिणस्स
तो- तु इन प्रत्ययवाले पंचमी के रूपों का वसुदेवहिण्डि आदि प्राकृत कहानियों में तथा सूत्रों की चूर्णि आदि में बहुत प्रयोग किया गया है ।
नपुंसकलिंग नाण (ज्ञान)
४३
नाणत्तो, नाणाओ, नाणाउ,
नाणाहि नाणाहिन्तो, नाणासुन्तो,
"
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नाणाहि, नाणाहिन्तो, नाणा. | नाणेहि, नाणेहिन्तो, नाणेसुन्तो. छठी- | नाणस्स
नाणाण, नाणाणं. 4. संयुक्त व्यंजन का प्रथम अक्षर क-ग-ट्-ड्-त्-द-प-य-श्-ए-स् और क प
हो तो लोप होता है, लोप के पश्चात् शेष व्यंजन तथा संयुक्त व्यंजन, के स्थान पर हआ आदेशभूत व्यंजन जो शब्द की आदि में न हो तो द्वित्व होता है, (द्वित्व हआ व्यंजन वर्गीय दूसरा या चौथा व्यंजन हो तो द्वित्व के प्रथम व्यंजन के स्थान पर क्रमशः वर्गीय पहला और तीसरा व्यंजन रखा जाता है । (उपसर्ग नि.1 ब देखो.) (२/७७, ८९, ९०, ९२, ९३) अपवाद :- दीर्घस्वर तथा अनुस्वार के बाद शेषव्यंजन तथा आदेशभूत व्यंजन द्वित्व नहीं होता है । र-ह किसी भी स्थान में द्वित्व नहीं होते हैं। उदा. क् - भुत्तं (भुक्तम्) । ष् - निहुरो (निष्ठुरः)
ग् - दुद्धं (दुग्धम्) स् - नेहो (स्नेहः) ट् - छप्पओ (षट्पदः) x - क - दुक्खं (दुःखम्) ड् - खग्गो (खड्गः ) x . प . अन्तप्पाओ (अन्तःपातः) त् - उप्पलं (उत्पलम्) दीर्घस्वर - फासो (स्पर्शः) द् - मोग्गरो (मुद्गरः) अनुस्वार - संझा (सन्ध्या) प् - सुत्तो (सुप्तः) र - बम्हचेरं (ब्रह्मचर्यम्)
श् - निच्चलो (निश्चलः) | ह - विहलो (विह्वलः) आदेशभूत व्यंजन - क्ष का ख जक्खो (यक्षः), खओ (क्षयः), संखओ
(संक्षयः) 5. संयुक्त व्यंजन के अन्त में म्- न्- य्-ल-व्-ब्-र- हो तथा संयुक्त व्यंजन
का प्रथम व्यंजन ल्-व्-ब-र हो तो उसका लोप होता है । (जहाँ दोनों व्यंजनों का लोप होता हो वहाँ प्रयोगानुसार दो में से एक का लोप करना.) (३/७८/७९) उदा. कव्वं (काव्यम्), पक्कं (पक्वम्), सण्हं-लण्हं (श्लक्ष्णम्),
दारं-वारं (द्वारम्). म् - सरो (स्मरः)
व् - पक्कं (पक्वम्) न् - नग्गो (नग्नः )
ब् - सद्दो (शब्दः ) य् - वाहो (व्याधः)
र् . चक्कं (चक्रम्) ल - सण्हं (श्लक्ष्णम्)
र् - अक्को (अर्कः) ल - वक्कलं (वल्कलम्)
र् - वग्गो (वर्गः)
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6. य्-र-व-श्-ष-स् ये व्यंजनं श-ष- स के साथ आगे या पीछे जुड़े हों तो उस
व्यंजन का पूर्वोक्त (पा.9,नि.4-5) नियमानुसार प्रायः लोप होता है तथा पूर्व का ह्रस्व स्वर दीर्घ होता है । (१/४३) उदा. श्य . आवासयं (आवश्यकम्) | ष्य - सीसो (शिष्यः)
श्य · नासइ (नश्यति) र्ष - कासओ (कर्षकः) श्र - वीसामो (विश्रामः) ष्व - वीसुं (विष्वक्) र्श - संफासो ( संस्पर्शः) ष्ष - नीसित्तो (निष्षिक्तः) श्व - आसो (अश्वः)
स्य - सासं (शस्यम्) श्व - वीस्ससइ (विश्वसिति) स्त्र - वीसंभो (विस्रम्भः) श्श - मणासिला (मनश्शिला) | स्व - विकासरो (विकस्वरः)
| स्स . नीस्सहो (निस्सहः) 7. रुच्च् धातु के योग मे जिसको पसन्द हो उस शब्द को छठी विभक्ति
लगती है। उदा. बालाणं दुद्धं रुच्चइ ।
शब्दार्थ (पुंलिंग) अजीव (अजीव) अजीव, जड़. | मग्ग (मार्ग) रास्ता, मार्ग. अट्ठ । (अर्थ) धन, वस्तु, कारण, मंदर (मन्दर) मेरुपर्वत. अत्थ) पदार्थ, अर्थ.
मणूस (मनुष्य) मनुष्य. आणंद (आनन्द) विशेषनाम... मुणिंद (मुनीन्द्र) आचार्य, मुनिवर. छप्पअ (षट्पद) भ्रमर.
वग्घ (व्याघ्र) बाघ, व्याघ्र जीव (जीव) जीव.
वग्ग (वर्ग) समूह, वर्ग. दप्प (दर्प) अभिमान.
विणास (विनाश) नाश. धम्मिअ (धार्मिक) धर्मीजन. संफास (संस्पर्श) स्पर्श, छूना. नेह (स्नेह) स्नेह, प्रेम, प्रीति. सद्द (शब्द) शब्द, आवाज. पव्वय (पर्वत) पर्वत.
सप्प (सर्प) साँप. पच्छायाव (पश्चात्ताप) पश्चाताप. संतोस (संतोष ) संतोष. अनुताप.
सिंघ-सींह (सिंह) शेर. नपुंसकलिंग
आवासय । (आवश्यक) अवश्य करने अज्झयण (अध्ययन) अध्ययन.
आवस्सय, योग्य नित्यकर्म,
धर्मानुष्ठान. ४५
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उप्पल (उत्पल) कमल.
फल (फल) फल. कम्म (कर्मन्) काम, कर्म, ज्ञानावरणीय मूल (मूल) मूलकारण, आदिकारण, आदि कर्म.
मूल. कव्व (काव्य) काव्य.
वयण (वचन) वचन. चरण (चरण) चारित्र.
सुत्त (सूत्र) सूत्र. चरित्त (चरित्र) चरित्र, वृत्तान्त. |सम्मत्त (सम्यक्त्व) सम्यग्दर्शन, दंसण (दर्शन) चक्षु , देखना , सत्यतत्त्व पर श्रद्धा रखना. सम्यग्दर्शन, मत, धर्मशास्त्र.. सोक्ख (सौख्य) सुख. दइव (दैव) दैव, भाग्य, अदृष्ट. | हिअअ । (हृदय) हृदय, मन. दुद्ध (दुग्ध) दूध.
हिअ । धन्न (धान्य) अनाज.
हरण (सम) हरण करना, ले जाना.
विशेषण अणाबाह (अनाबाध) पीड़ारहित. |
| पयासग (प्रकाशक) प्रकाश करनेवाला, गुरुअ ) (गुरुक) बड़ा, ज्यादा, प्रकाशक. गरुअ) भारी.
महुर (मधुर) मधुर, सुन्दर. दीण (दीन) गरीब.
मूढ (मूढ) मोहित, मूर्ख, अज्ञानी. नग्ग (नग्न) वस्ररहित.
वराय (वराक) गरीब, दीन. निच्चल (निश्चल) स्थिर, अचल, दृढ़. विविह (विविध) बहुविध, अनेक प्रकार का, निट्टर (निष्ठुर) घातकी, निर्दय. अलग-अलग जाति का पक्क (पक्व) पका हुआ. विरुद्ध (विरुद्ध) विपरीत, प्रतिकूल.
सुत्त (सुप्त) सोया हुआ. 8. अव्यय में आ का अ विकल्प से होता है । (१/६७) उदा. अहव-अहवा (अथवा) व-वा (वा)
जह-जहा (यथा) हहा (हा) __ तह-तहा (तथा) 9. नमो अव्यय के योग में छठी विभक्ति रखी जाती है । उदा. नमो जिणाणं (नमो जिनेभ्यः)
अव्यय अईव (अतीव) बहुत, ज्यादा, अतिशय जह । (यथा) जिस तरह, जैसे. उ (उ) विस्मय, निन्दा, तिरस्कार. जहा) कासइ (कस्यचित्) किसी का.
.
४
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तह । (तथा) उस तरह, वैसे. मिच्छा (मिथ्या) असत्य, व्यर्थ, निकम्मा. तहा
व-वा (वा) अथवा, कि, या. धि, धी (धिक्) धिक्, धिक्कारवचन. संपइ (सम्प्रति) अभी, अब धिद्धी (धिक धिक) धिक्कार हो । सव्वया (सर्वदा) हमेशा, सदा. नमो (नमस्) नमस्कार, नमन.. सइ-सया (सदा) सदा, हमेशा. पुण, पुणा, पुणाइ (पुनर) फिर से, सुङ (सुष्टु) अच्छा, अच्छी तरह .
धातु अइक्कम् (अति + क्रम्) उल्लंघन वक्खाण (व्याख्यानय) व्याख्यान करना, मर्यादा बाहर जाना. करना, स्पष्ट समझाना. अवेक्ख् । (अप + ईक्ष) अपेक्षा रखना. वीसस् । (वि + श्वस्) विश्वास करना. अविक्ख गर्ज करना.
विस्सस्, भरोसा करना. खम् (क्षम्) क्षमा करना, माफी मांगना, विक्किण् । (वि + क्री) बेचना. सहन करना.
विक्के । डर (वस्) डरना.
विढन् । (अर्ज) प्राप्त करना, उपार्जन निस्सर । (निस्सर) निकलना. |अज्ज् करना, पैदा करना. नीहर् )
सद्दह (श्रद् + धा) श्रद्धा करना. परिक्ख् । (परि + ईक्ष) परीक्षा करना. समायर् (सम् + आ + चर) करना, परिच्छ , तलाश करना.. आचरण करना. रुच्च । (रुच्) इच्छा करना, पसन्द आना. रोय।
हिन्दी में अनुवाद करें1. नमो सिद्धाणं । 2. नमो उवज्झायाणं । 3. समणा सव्वय च्चिअ आवासयं कम्मं समायरंति । 4. जह छप्पआ उप्पलाणं रसं पिबिरे, ताइं च न पीलंति, तह समणा संति । 5. जो खमइ सो धम्मं सुट्ट आराहेइ। .. 6. बुहो नरिंदस्स संतोसाय कव्वाइं रएइ । 7. अईव नेहो दुहस्स मूलमत्थि । 8. धम्मस्स फलमिच्छंति धम्मं नेच्छंति मणूसा । 9. समणो सावगाणं जिणेसराणं चरितं वक्खाणेइ । 10. बालो सप्पस्स दंसणेण डरइ, किं पुण संफासेण ! | 11. मुणिंदो सीसाणं सत्ताणमटुं उवदिसइ । 12. नाणं तत्ताणं पयासगं होइ । 13. धम्मो कासइ न रोएइ ? |
3
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14. निडुरो पावेहिंतो धम्मं वंछइ । 15. आणंदो सावगो दंसणत्तो न कया चलइ । 16. पव्वयाणं मंदरो निच्चलो अत्थि ।
17. सो पमाया सुत्तं पुत्तं पहरेइ । अट्ठाए गामाओ गाममडंति बंभणा ।
18. तस्स वच्छस्स पक्काइं फलाणि अईव महुराणि संति । 19. धम्मिओ सइ दीणाणं जणाणं धन्नाई देइ ।
20. जस्स धम्मो व अट्ठो अत्थि तं नरं सव्वे अविक्खिरे । 21. सो नग्गो भमइ, जणेहिंतो वि न लज्जए ।
22. धम्मो सुहाणं मूलं दप्पो मूलं विणासस्स ।
.
23. धिद्धी मूढा जीवा, कुणंति गुरुए मणोरहे विविहे । 24. विणया णाणं णाणाओ, दंसणं दंसणाहि चरणं च । चरणाहिंतो मुक्खो, मोक्खे सोक्खं अणाबाहं ||2|| प्राकृत में अनुवाद करें
2.
1. सज्जन पुरुष पापियों का विश्वास नहीं करते हैं । शेर की आवाज से मनुष्यों के हृदय कम्पित होते हैं । साधुओं के समुदाय जिनेश्वर के साथ मोक्ष में जाते हैं । मूर्ख चारित्र की श्रद्धा नहीं करते हैं ।
3.
4.
5.
जीव और अजीवों को प्रकाश करनेवाला क्या है ?
6.
7.
8.
9.
10. जो न्यायमार्ग का उल्लंघन करता है, वह दुःख पाता है।
11. राजा काव्यों से पंडितों की परीक्षा करता है ।
-
जो चारित्र की श्रद्धा करता है, वह भाव से श्रावक है । वह घर से निकलता है और साधु बनता है ।
पश्चात्ताप से पाप नष्ट होते हैं ।
शिष्य उपाध्याय के पास अध्ययन पढ़ते हैं ।
12. व्याघ्र से मनुष्य डरता है । 13. संघ धर्म के विरुद्ध सहन नहीं करता है ।
14. धार्मिक व्यक्ति पापों से डरता है ।
15. किसी का धन हरण करना पाप है।
16. जो जिनवचन का उल्लंघन करते हैं, वे सुख प्राप्त नहीं करते हैं । 17. तू विनय से अच्छी तरह शोभा देता है ।
18. उसको धिक्कार हो क्योंकि वह सब की निन्दा करता है ।
19. वह धान्य बेचता है और बहुत द्रव्य कमाता है ।
20. तू उसकी व्यर्थ ही निन्दा करता है ।
21. शिष्य हमेशा (सदा) सूत्रों के अध्ययनों की आवृत्ति करते हैं । 22. बालक को दूध पसंद आता है ।
४८
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पाठ - 10
अकारान्त नाम सत्तमी विभक्ति तथा संबोहण प्रत्यय (३/११, ३८, ४, १२) पुंलिंग । __ एकवचन
बहुवचन सत्तमी | ए, म्मि (सि)
सु, सुं. संबोहण । ओ, आ, 0, (ए)
आ. नपुंसकलिंग - पुंलिंगवत् 1. सि प्रत्यय लगने पर पूर्व के अक्षर पर अनुस्वार रखा जाता है |
उदा. समणंसि (श्रमणे) घरंसि (गृह). 2. नपुंसकलिंग में संबोधन एकवचन में मूल रूप ही होता है तथा बहुवचन भी प्रैथमा आदि के रूपों के समान ही होते हैं |
जिण (जिन) सत्तमी । जिणे, जिणम्मि, जिणंसि. जिणेसु, जिणेसुं. संबोहण - हे जिण, जिणो, जिणा, जिणे. | जिणा.
नाण (ज्ञान) । नाणे, नाणम्मि, नाणंसि. | नाणेसु, नाणेसुं. संबोहण | हे नाण.
नाणाइं, नाणाइँ, नाणाणि. 3. सर्वनाम के रूप-विस्तार से आगे कहेंगे लेकिन जिन रूपों में विशेष परिवर्तन नहीं है वे रूप यहाँ दिये जाते हैं । सर्वनाम शब्दों के रूप और प्रत्यय अकारान्त पुंलिंग और नपुंसकलिंग के समान हैं परन्तु प्रथमा बहवचन में ए प्रत्यय और सप्तमी एकवचन में स्सि, म्मि, त्थ, हिं प्रत्यय लगाये जाते हैं तथा षष्ठी बहुवचन में एसिं प्रत्यय विकल्प से लगाया जाता है । अपवाद :- इम (इदम्) और एअ (एतद्) सर्वनाम को सप्तमी एकवचन का हिं प्रत्यय नहीं लगता है । (३/५८, ५९, ६०, ६१) उदा. पढमा बहुव - सव्वे, छठी बहुव. - सव्वेसिं, सव्वाण, सव्वाणं, सत्तमी एकव. सव्वस्सि, सव्वम्मि, सव्वत्थ, सव्वहिं, सव्वंसि ।
सत्तमी । नागे
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देवं
देवस्स
अकारान्त पुंलिंग- 'देव' शब्द के रूप एकवचन
बहुवचन देवो, देवे.
देवा.
देवे, देवा. देवेण, देवेणं
देवेहि, देवेहिँ , देवेहिं. देवस्स, देवाय, देवाए देवाण, देवाणं. देवत्तो, देवाओ, देवाउ, देवत्तो, देवाओ, देवाउ, देवाहि, देवाहिन्तो, | देवाहि, देवाहिन्तो, देवासुन्तो, देवा
देवेहि, देवेहिन्तो, देवेसुन्तो.
देवाण, देवाणं देवे, देवम्मि, देवंसि देवेसु, देवेसुं हे देव, देवो, देवा, देवे. देवा.
अकारान्त पुंलिंग 'सव' शब्द के रूप सव्वो, सव्वे
सव्वे सव्वं
सव्वे, सव्वा. सव्वेण, सव्वेणं
सव्वेहि, सव्वेहिं, सव्वेहिं सव्वस्स, सव्वाए
सव्वेसिं, सव्वाण, सव्वाणं | सव्वत्तो, सव्वाओ, सव्वाउ. सव्वत्तो, सव्वाओ, सव्वाउ सव्वाहि, सव्वाहिन्तो सव्वाहि, सव्वाहिन्तो, सव्वासुन्तो, सव्वा
सव्वेहि, सव्वेहिन्तो, सव्वेसुन्तो. सव्वस्स
सव्वेसिं, सव्वाण, सव्वाणं. सव्वस्सि, सव्वम्मिं, सव्वत्थ, | सव्वेसु, सव्वेसुं.
सव्वहिं, सव्वंसि सं. हे सव्व, सव्वो, सव्वा, सव्वे. | सव्वे.
नपुंसकलिंग वण (वन) प.
वणाइं, वणाइँ, वणाणि.
बी.
स.
पचास
IF 40 मि |
वणाइं, वणाइँ, वणाणि.
शेष पुंलिंगवत्
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५०
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सव्व (सर्व)
सव्वाइं, सव्वाइँ, सव्वाणि.
सव्वं
पुंलिंग ।
तृतीया वि. शेष पुंलिंगवत्
त (तद) सर्वनाम के रूप . एकवचन
बहुवचन स, सो, से
ते,. तं, .
ते, ता. तेण, तेणं
तेहि, तेहिँ , तेहिं. तस्स, ताए
तेसिं, ताण, ताणं तत्तो, ताओ, ताउ, तत्तो, ताओ, ताउ. ताहि, ताहिन्तो,
ताहि, ताहिन्तो, तासुन्तो,
तेहि, तेहिन्तो, तेसुन्तो. तस्स
तेसिं, ताण, ताणं. • तस्सि, तम्मि, तत्य, तेसु, तेसुं. तहिं, तंसि.
नपुंसकलिंग तं
ताई, ताइँ, ताणि.
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शेष पुंलिंगवत्
पुंलिंग एअ-एत (एतद्) एस, एसो, एसे,
- एए. बी. एअं,
एए, एआ. त. एएण, एएणं,
एएहि, एएहिं, एएहिं, स. एअस्सि, एअम्मि, • एत्थ, एअंसि, एएसु, एएसुं.
शेष 'त' सर्वनामवत् • त (तद्) इत्यादि सर्वनामों के संबोधन रूप नहीं होते हैं । .. 'त्थ' प्रत्यय के पूर्व एअ के अ का लोप होता है । उदा. एअ + त्थ = एत्थ.
- ५१
A
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नपुंसकलिंग प. बी. एअं
एआई, एआइँ, एआणि.
शेष पुंलिंगवत् पुंलिंग ज (यत्) नपुंसकलिंग ज (यत्) एकव. | बहुव.
| एकव. । बहुव. प.-जो, जे
प. । जं । जाइं, जाइँ, जाणि. बी.-जं, | जे, जा. बी.) शेष 'त' सर्वनामवत्
शेष पुंलिंगवत् क (किम्)
क (किम्) प.-को, के | के
प. । कं | काई, काइँ, काणि. बी.-कं, । के, का. बी. शेष 'त' सर्वनामवत्
शेष पुंलिंगवत् इम (इदम्)
इम (इदम्) प. इमो. इमे | इमे
इमं । इमाइं, इमाइँ, बी. इमं । इमे, इमा.
इमाणि. स. इमस्सि , | इमेसु.
इमम्मि , | इमेसुं इमत्थ, । इमंसि. शेष 'त' सर्वनामवत्
शेष पुंलिंगवत् 4. संज्ञावाचक शब्द के अन्दर ष्क और स्क का क्ख होता है और प्रारंभ में
हो तो ख होता है । (२/४) उदा. ष्क - पोक्खरं (पुष्करम्) | स्क - अवक्खंदो ( अवस्कन्दः)
क - निक्खं (निष्कम्) | स्क - खंधो (स्कन्धः) 5. शब्द के अन्दर क्ष का क्ख और कुछ स्थानों में च्छ- ज्झ भी होता है और
प्रारंभ में हो तो ख- छ- झ होता है । (२/३) उदा. खओ (क्षयः)
सरिच्छो (सदृक्षः) खीरं । (क्षीरम्)
खीणं छीरं
छीणं । (क्षीणम्) रिच्छो । (ऋक्षः)
झीणं ) रिक्खो।
| वच्छो (वृक्षः)
PM
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6. (अ) शब्द के प्रारंभ में (व्यंजन के बाद) ऋ हो तो अ होता है, प्रारंभ में
मात्र ऋ हो तो रि होता है। (ब) कृपा इत्यादि शब्दों में क्र का इ, ऋतु इत्यादि शब्दों में क्र का उ
और दृश के दृ का रि होता है । (क) ऋण-ऋजु-ऋषभ-ऋतु-ऋषि इन शब्दों में क्र का विकल्प से रि होता __ है तथा वृषभ के व का उ विकल्प से होता है । (१/१२६, १२८,
१३१, १४०, १४१, १४२) उदा. घयं (घृतम्) .. हिययं (हृदयम्) कयं (कृतम्)
उऊ (ऋतुः) रिच्छो (ऋक्षः)
पुट्ठो (स्पृष्टः) रिद्धी (ऋद्धिः)
सरिसो (सदृशः) किवा (कृपा) विकल्प से = रिणं - अणं | रिऊ - उऊ (ऋतुः) .
(ऋणम्) रिजू - उज्जू (ऋजुः) | रिसी - इसी (ऋषिः)
रिसहो - उसहो (ऋषभः) | उसहो - वसहो (वृषभः) 7. शब्द के अन्दर द्य, य्य,र्य हो तो ज्ज होता है और प्रारंभ में हो तो ज
होता है । (१/२४५, २/२४) उदा. ध - मज्जं (मद्यम्) | य्य - सेज्जा (शय्या) | र्य - कज्जं (कार्यम्)
द्य - वेज्जो (वैद्यः) | र्य - भज्जा (भार्या) |र्य - पज्जाओ (पर्यायः) प्रारम्भ में-द्य-जोअए
(द्योतते) 8. ह्रस्व स्वर के बाद थ्य, च, त्स, प्स हो तो प्रयोगानुसार च्छ होता है । (२/२१) . उदा. पच्छं (पथ्यम्) . उच्छाहो (उत्साहः) मिच्छा (मिथ्या)
संवच्छरो (संवत्सरः) अच्छेरं (आश्चर्यम्) |.. लिच्छइ (लिप्सति)
पच्छा (पश्चात्) । जुउच्छइ (जुगुप्सति) 9. शब्द के अन्दर ह्व का ब्म विकल्प से होता है। उदा. जिब्भा (जिह्वा)
जीहा 10.जिसके ऊपर क्रोध, द्रोह वगैरह किया जाता है उस शब्द को छठी
विभक्ति रखी जाती है |
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शब्दार्थ (पुंलिंग) अणत्य। = (अनर्थ) नुकसान, पच्चूस । (प्रत्यूष) प्रातःकाल , सुबह का अणट्ठ । हानि.
पच्चूह ) समय. आइच्च (आदित्य) सूर्य |पज्जाय (पर्याय) पर्याय, रूपान्तर, इंदियचोर (इन्द्रियचौर) इन्द्रियरूप अनुक्रम. चोर.
पाणाइवाय (प्राणातिपात) जीवहिंसा. उच्छाह = (उत्साह) उत्साह, आनन्द. पाउस (प्रावृष) वर्षाऋतु, चातुर्मास. काउसग्ग = (कायोत्सर्ग) काया का त्याग. भव (भव) भव, संसार. खंध = (स्कन्ध) कन्धा.
भार (भार) भार, बोझा. खमासमण (क्षमाश्रमण) क्षमाप्रधान मुनि, मण (मनस्) मन. साधु.
मच्छर (मत्सर) ईर्ष्या, द्वेष. गुण = (गुण) गुण, सद्गुण. मअंक । (मृगाङ्क) चन्द्र. जक्ख (यक्ष) यक्ष.
मिअंक पंडिअ (पंडित) पंडित.
रिच्छ । (ऋक्ष) परोवयार (परोपकार) परोपकार. रिक्ख विसय (विषय) इन्द्रियों के शब्दादि वेज्ज (वैद्य) वैद, विषय.
सूर (शूर) शूर, पराक्रमी. वियार (विचार) विचार.
(नपुंसकलिंग) अच्चण (अर्चन) पूजा, पूजा करना. | वच्छल्ल (वात्सल्य) स्नेह, प्रेम, अच्छेर (आश्चर्य) विस्मय, चमत्कार. | वत्सलता. उज्जाण (उद्यान) बगीचा, उद्यान. | वक्खाण (व्याख्यान) प्रशंसा. घर (गृह) घर.
|वुड्डत्तण (वृद्धत्व) वृद्धावस्था, बुढ़ापा. चइत्त (चैत्य) जिनमन्दिर,
सच्च (सत्य) सत्य, यथार्थवचन. चेइअ जिनमूर्ति.
साहज्ज। (साहाय्य) मदद, सहायता चरणधण (चरणधन) चारित्ररूपीधन. | साहेज्ज झाण (ध्यान) ध्यान.
सामाइअ (सामायिक) सामायिक. नक्खत्त (नक्षत्र) नक्षत्र.
(पाप व्यापार का त्याग करके दो घड़ी मंस (मांस) मांस
समता में रहना). मांस
सुवण्ण (सुवर्ण) सोना. मज्ज (मद्य) मद्य, दारु, मदिरा.
| सिहर (शिखर) शिखर.. मत्थय (मस्तक) मस्तक
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विशेषण अहिय (अधिक) ज्यादा, अत्यन्त. निम्मलयर (निर्मलतर) अतिशय निर्मल. उज्जय (उद्यत) तत्पर. निच्च (नित्य) अविनश्वर, शाश्वत. खीण ) (क्षीण) जीर्ण, पुराना, पयासयर (प्रकाशकर) प्रकाश छीण ) दुर्बल.
करनेवाला. झीण )
पच्छ (पथ्य) हितकारी वस्तु. जारिस (यादृश) जैसा, जिस प्रकार पसत्त (प्रसक्त) प्रसक्त , आसक्त. का.
मइरामउम्मत्त (मदिरामदोन्मत्त) दारु तारिस (तादृश) वैसा.
के मद से उन्मत्त बना हुआ. थिअ (स्थित) रहा हुआ , स्थिर हुआ. वच्छल (वत्सल) रागवान, स्नेही. निक्कारण (निष्कारण) प्रयोजनरहित. विब्भल(विह्वल) विह्वल, मोहित कारण बिना.
विहल । लुंठिअ (लुण्ठित) छीना हुआ, लूटा रुक्क । (रुग्ण) रोगी. हुआ.
रुग्गज सरिच्छ । (सदृश) समान. सोहण (शोभन) सुन्दर. सरिक्ख
साहम्मिअ (साधर्मिक) समान धर्मवाला.
अव्यय
एत्थ
अवस्सं (अवश्यं) जरूर, अवश्य | इअ, त्ति, ति, इइ (इति) इस तरह, अत्थ । (अत्र) यहाँ.
| यह.
अओ (अतः) इस कारण से, मिव , पिव, विव । (इव) जिस तरह, | जत्थ, जहि, जह (यत्र) जहाँ. ब्द, व, विअ, इव ।
तत्थ, तहि, तह (तत्र) वहाँ. णइ, चेअ, चिअ, च्च)
कत्थ, कहि, कह (कुत्र) कहाँ.
__ निर्णय, पच्छा (पश्चात्) बाद में. च्चिअ, च्चेअ, एव निश्चित अर्थ में | दिवा । (दिवा) दिन. इह (इह) यहाँ.
दिआ
धातु उववज्ज् (उप + पद्य) उत्पन्न होना, कुज्झ् (क्रुध् + क्रुध्य) क्रोध करना. पैदा होना.
खल् (स्खल) रोकना, आणे (आ + नी) ले जाना, लाना. पसंस् (प्र + शंस्) प्रशंसा करना.
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8.
भुंज (भुअ) खाना, भोजन करना. | विज्ज (विद्य) होना. उवमुंज (उप + भुअ) उपभोग करना, उवसम् (उप + शम्) शान्त होना. मज्ज् । (माद्य) मद करना. .. |परिचय । (परि + त्यज) त्याग करना. मच्च् ।
परिच्चय
हिन्दी में अनुवाद करें 1. हे खमासमण ! हं मत्थएण वंदामि । 2. सव्वेसु धम्मेसु जत्थ पाणाइवाओं न विज्जइ, सो धम्मो सोहणो होइ । 3. जक्खो समणाणं साहज्जं कुणेइ । 4. वुद्धृत्तणे वि मूढाणं नराणं विसया न उवसमन्ते ।
पच्चूसे सो उज्जाणं जाइ, तत्थ थिआइं पुप्फाइं जिणिंदाणमच्चणाय घरं आणेइ ।
समणा चेइएसु निच्चं वच्चिरे, देवे य वंदंति । 7. देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ।
मिच्छा तं पुत्ताणं कुज्झसि । जो धणस्स मएण मज्जइ, सो भवमडइ । 9. पावाणं कम्माणं खयाए ठामि काउसग्गं । 10. मज्जम्मि मंसम्मि य पसत्ता मणुसा निरयं वच्चन्ति | 11. नक्खत्ताणं मिअंको जोअइ । 12. परोवयारो पुण्णाय, पावाय अन्नस्स
पीलणं, इअ नाणं जस्स हिए सो धम्मिओ + त्ति । 13. मूढो हं, तत्तो कत्थ गच्छामि, कहिं चिट्ठामि, कस्स कहेमि, कस्स रूसेमि । 14. जीवा पावेहिं कज्जेहिं निरयंसि उववज्जिरे । 15. चंदेसु • निम्मलयरा आइच्चेसु अ अहियं पयासयरा तित्थयरा हुंति । 16. खमासमणा सव्वया नाणम्मि तवंसि झाणे य उज्जया संति । + वाक्य के प्रारंभ में इति के बदले इअ रखा जाता है । जैसे कि-'इअ नाणं जस्स
हियए', किसी स्थान में इइ भी आता है, पदान्त में स्वर के बाद इति के बदले त्ति रखा जाता है, लेकिन पदान्त में स्वर न हो तो 'ति' रखा जाता है। (१/ ४२,९१) उदा. तहत्ति (तथेति)
जुत्तंति (युक्तमिति) पिओत्ति (प्रियइति) किंति (किमिति) - पंचमी विभक्ति के बदले कुछ स्थानों में सप्तमी विभक्ति भी रखी जाती है।
उदा. अंतेउरे रमिउं आगओ राया (अन्तःपुराद् रन्त्वाऽऽगतोः राजा)
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17. जारिसो जणो होइ तस्स मित्तो वि तारिसो विज्जइ । 18. जो पच्छं न भुंजइ, तस्स वेज्जो किं कुणइ ? । • 19.अम्हेत्य पुण्णाणं पावाणं च कम्माणं फलं उवभुंजिमो । 20. नच्चइ गायइ पहसइ, पणमइ परिचयइ वत्थं पि ।
तूसइ रूसइ निक्कारणं पि मइरामउम्मत्तो ||1|| 21. स च्चिय सूरो सो चेव, पंडिओ तं पसंसिमो निच्चं । इंदियचोरेहिं सया, न लुटिअं जस्स चरणधणं ।।2।।
प्राकृत मे अनुवाद करें 1. गुणो में द्वेष अनर्थ के लिये होता है । 2. सुवर्ण का पर्याय आभूषण है । 3. मन्दिर के शिखर पर मयुर नृत्य करता है । 4. आनन्द श्रावक सम्यक्त्व में निश्चल है | 5. मनुष्य पाप का फल देखता है, फिर भी धर्म नहीं कर पाता है इससे
बढकर अन्य आश्चर्य क्या ? 6. बालक प्रभात में पिता को नमस्कार करता है, उसके बाद अपना
अध्ययन करता है । 7. विह्वल मनुष्य को कार्य मे उत्साह नहीं होता है । 8. इस बाग में वृक्ष पर सुन्दर फल है । 9. वृद्धावस्था में शरीर जीर्ण होता है । 10. जो पथ्य का सेवन करता है वह बीमार नहीं होता है । 11. आचार्य तीर्थंकर समान कहलाते हैं । 12. साधर्मिकों का वात्सल्य इस लोक में धर्म और परलोक में मोक्ष प्रदान करता है। 13. मेघ पर्वत पर बरसता है । 14. साधु प्रवचन में जिनेश्वरों के चरित्र कहते हैं । 15. मैं मार्ग में भालू देखता हूँ । 16. हे मूर्ख ! तुम गरीबों को क्यों हैरान (परेशान) करते हो? 17. तुम दुर्जनों के वचनों पर विश्वास रखते हो इसलिए दुःखी होते हो । • सर्वनाम या अव्यय के बाद सर्वनाम या अव्यय हो तो बाद के सर्वनाम या अव्यय
के आद्य स्वर का प्रायः लोप होता है । (१/४०) उदा. अम्हे + एत्य = अम्हेत्थ (वयमत्र) | जइ + अहं = जइहं (यद्यहम्) अज्ज + एत्थ = अज्जत्थ (अद्यात्र) । सो + इमो = सोमो (सोयम्)
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पाठ - 11 इकारान्त और उकारान्त पुंलिंग तथा नपुंसकलिंग नाम
पढमा, बीआ और तइआ विभक्ति प्रत्यय (३/४९, २०, ५, १८, २२, २४, ७, २५, २६) एकवचन
बहुवचन इकारान्त पढमा - 0 . अउ, अओ, णो, ई. पुंलिंग बीआ - म्
णो, ई. तइआ . णा
हि, हिँ, हिं 1. उकारान्त नामों के प्रत्यय भी इकारान्त नामों के समान ही हैं लेकिन प्रथमा
और द्वितीया बहुवचन में ई प्रत्यय के स्थान में उ प्रत्यय लगाया जाता है
तथा प्रथमा बहुवचन में अवो प्रत्यय भी लगाया जाता है । (२/२१) 2. प्रथमा एकवचन, तृतीया बहुवचन और पंचमी के त्तो, णो को छोड़कर
एकवचन तथा बहुवचन के प्रत्यय, षष्ठी और सप्तमी बहुवचन प्रत्ययों के पूर्व के इ-उ दीर्घ होते हैं । (३/१६, २२)
उदा. मुणी, गुरू 3. प्रथमा, द्वितीया और संबोधन बहवचन में णो को छोड़कर शेष प्रत्यय
लगाने पर पूर्व स्वर का लोप होता है । उदा.प. बहु. - गिरि + अउ = गिरउ, | भाणु + अवो = भाणवो. प. बहु. - गिरि + अओ = गिरओ, | भाणु + अउ = भाणउ. प. बहु. - गिरि + ई = गिरी, भाणु + ऊ = भाणू
बी. बहु. - गिरि + ई = गिरी. । भाणु + ऊ = भाणू. 4. इकारान्त और उकारान्त नपुंसकलिंग प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के
प्रत्यय अकारान्त नपुंसकलिंग के समान हैं और तृतीया विभक्ति से. इकारान्त और उकारान्त पुंलिंग के समान हैं ।
मुणि (मुनि) पुंलिंग एकवचन
बहुवचन मुणी
मुणउ, मुणओ, मुणिणो, मुणी.
मुणिणो, मुणी. मुणिणा
मुणीहि, मुणीहिँ, मुणीहिं.
Ipol F Cl
मुणिं
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IF
साहू साहुं साहुणा
साहु (साधु) • साहवो, साहउ, साहओ, साहुणो, साहू.
साहुणो, साहू. साहूहि, साहूहिँ, साहूहिं.
दहि(दधि) एकवचन
बहुवचन दहीइं, दहीइँ, दहीणि.
|
नपुंसकलिंग
.
• दहिं
43
दहीहि, दहीहिँ, दहीहिं
|
दहिणा
महु (मधु) एकवचन
|
|
बहुवचन महूइं, महूइँ, महूणि.
|
महुणा
महूहि, महूहिँ, महूहिं. 5. इन् अन्तवाले शब्दों के अन्त्य व्यंजन न् का लोप होने पर उसके रूप
इकारान्त नाम के समान होते हैं ।
उदा. जोगि (योगिन्) 6. शब्द के अन्दर म्न और ज्ञ का ण्ण या न्न होता है तथा प्रारम्भ में न या
ण होता है । (२/४२, ८३) उदा.पज्जुण्णो । (प्रद्युम्नः)| विण्णाणं । (विज्ञानम्) | नाणं । (ज्ञानम्) पज्जुन्नो । विन्नाणं
| णाणं
आर्ष प्राकृत में प्रथमा और द्वितीया बहुवचन में अवे प्रत्यय का प्रयोग भी दिखाई देता है । उदा. गुरु + अवे = गुरवे , बहवे- साहवे आदि । उदा. ताव य तत्थारण्णे गिद्धो दट्टण साहवे सहसा ।। इति पउमचरिए (इतने
में उस जंगल में गिद्ध पक्षी ने साधुओं को देखकर जल्दी.) • संस्कृत में सिद्ध प्रयोग पर से दहि-मह (दधि-मध) आदि भी होते हैं, किसी
स्थान में दहिँ , महँ वगैरह प्रयोग भी होते हैं ।
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अपवाद :- ज्ञ (ज् ) के ञ् का विकल्प से लोप भी होता है ।
पज्जा । (प्रज्ञा) | अज्जा । (आज्ञा) | मणोज्जं । (मनोज्ञम्)
पण्णा | अण्णा.. | मणोण्णं । 'अभिज्ञ' इत्यादि शब्दों में ज्ञ का ण्ण होता है तब अन्त्य अ का उ होता है। अहिण्णु (अभिज्ञ), कयण्णु (कृतज्ञ), जब ण्ण नहीं होता है तब उपर्युक्त नियमानुसार ञ् का लोप होकर अहिज्ज (अभिज्ञ), सवज्ज (सर्वज्ञ) इत्यादि होते हैं । 'अभिज्ञ' आदि शब्द होने से 'प्राज्ञ' आदि शब्दों में अन्त्य अ का उ नहीं होता है ।
उदा. पण्णो, पज्जो (प्राज्ञः). 7. शब्द के अन्दर श्म, ष्म, स्म, ह्म का म्ह होता है तथा पक्ष्म शब्द के क्ष्म
का भी म्ह होता है । किसी स्थान में ह्म का म्म भी होता है । (२/७४) उदा. श्म - कम्हारा (कश्मीराः)। ह्म - बम्हचेरं । (ब्रह्मचर्यम्)
ष्म - गिम्हो (ग्रीष्मः) | बम्भचेरं । स्म - विम्हओ (विस्मयः)| क्ष्म - पम्हो (पक्ष्म) ह्म - बम्हा (ब्रह्मा) किसी स्थान में म्ह नहीं होता है । बम्हणो । (ब्राह्मणः) । रस्सी (रश्मिः) बम्भणो
| सरो (स्मरः)
शब्दार्थ (पुंलिंग) आएस (आदेश) हुकम, आज्ञा | पाणि (प्राणिन्) प्राणी, जीव इंदु (इन्दु) चन्द्र
बंधु (बन्धु) बंधु, मित्र ईसर (ईश्वर) ईश्वर
भिक्खु (भिक्षु) साधु कइ । (कवि) कवि
मंति (मन्त्रिन्) मंत्री कवि
मुणि (मुनि) मुनि गुरु (गुरु) गुरु, ज्येष्ठ
रिसि (ऋषि) ऋषि जइ (यति) यति, साध
वाहि (व्याधि) रोग, पीड़ा जोगि (योगिन्) योगी
विम्हअ (विस्मय) आश्चर्य तित्थद्धार (तीर्थोद्धार) तीर्थ का उद्धार | संसग्ग (संसर्ग) संग, संबंध निवइ (नृपति) राजा
साहु (साधु) साधु, मोक्षमार्ग की साधना पज्जुण्ण (प्रद्युम्न) कामदेव , कृष्ण का
करनेवाले पुत्र
| सूरि (सूरि) आचार्य पमाअ (प्रमाद) प्रमाद, भूल जाना
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(नपुंसकलिंग) अमिअ। (अमृत) अमृत | भोयण (भोजन) भोजन अमय ।
| मज्झ (मध्य) बीच में, अन्दर, अंसु (अश्रु) आँसू
महु (मधु) मधु तारग (तारक) तारा
| रण्ण (अरण्य) जंगल, वन, अरण्य दहि (दधि) दही
अरण्ण पडिक्कमण (प्रतिक्रमण) आवश्यक वारि (वारि) पानी कार्य, क्रियाविशेष
सासण (शासन) आगम, शास्त्र, बम्हचेर ) (ब्रह्मचर्य) ब्रह्मचर्य. शिक्षा, आज्ञा, शासन. बम्हचरिअ बंभचेर
(पुंलिंग + नपुंसकलिंग) मंत (मन्त्र) मंत्र, विचार, गुप्त बात. | मित्त (मित्र) मित्र,
विशेषण अजिण्ण (अजीर्ण) अजीर्ण, अपच |दित (ददत्) देता अम्हारिस (अस्मादृश) हमारे जैसे धन्न (धन्य) धन्य, प्रशंसा करने योग्य अरहंत ) (अर्हत्) पूज्य, तीर्थंकर |पहावग (प्रभावक) प्रभावना करनेवाला, अरिहंत
|उन्नति करनेवाला अरुहंत)
पालग (पालक) पालन करनेवाला अहिण्णु (अभिज्ञ) कुशल, पंडित मणोज्ज) (मनोज्ञ) सुन्दर कय । (कृत) किया हुआ
मणोण्ण) . कडा
विरहिअ (विरहित) रहित कयण्णु (कृतज्ञ) उपकार को जाननेवाला सवण्णु (सर्वज्ञ) सर्वज्ञ भगवान, सब कायब्द (कर्तव्य) करने योग्य जाननेवाले
अव्यय अहणा (अधुना) अभी, हाल तओ (ततः) उसके कह । (कथम्) कैसे, किस तरह . -उस कारण से .
कह।
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धातु
अव-गण (अव+गण) अपमान करना , | फाल् । (पाटय) फाड़ना, चीरना अवगणना करनी .
फाड़ । अवणे (अप+नी) दूर करना , खिसकाना | मंत् (मन्त्र) विचार करना चड् (आ+रोह) चढ़ना, आरोहण नि-मंत् (नि+मंत्र) निमंत्रण देना - आ-रोह करना
वीसर् ) (वि+स्म) भूल जाना आ-रुह
विस्सर) उद्धर (उद्+धर) उद्धार करना |वण्ण् (वर्ण) वर्णन करना, चक्ख् (आ-स्वाद) स्वाद लेना सेव् (सेव्) सेवा करना पाल् (पाल्) पालन करना
हिन्दी में अनुवाद करें 1. अरिहंता सव्वण्णवो भवंति । 2. कयण्णुणा सह संसग्गो सइ कायव्वो । 3. छप्पआ महं चक्खेज्जा । 4. सूरओ जिणिंदस्स सासणस्स पहावगा संति ।
गुरुणो सीसाणं सुत्ताणमट्ठमुवदिसंति । 6. अहिण्णू सत्थाणमत्थेस् न मुज्झन्ति । 7. जइणो मणोज्जेसु उज्जाणेसु झाणं समायरन्ति । 8. साहवो तत्तेसं विम्हयं न पावेइरे । 9. सूरी साहूहिं सह आवासयाइं कम्माइं कुणइ । 10. साहुणो पमाआ सुत्ताणि वीसरेज्ज | 11. मुणी धम्मस्स तत्ताइं सूरिं पुच्छंति । 12. साहू गुरुहिं सह गामाओ गामं विहरते । 13. कइणो नरिंदस्स गुणे वण्णेइरे । 14. दुक्खेसु साहेज्जं जे कुणंति ते बंधवो अस्थि । . 15. तुं अंसूणि किं मुंचसि ? | 16. अज्जिणे ओसढं वारि । 17. भोयणस्स मज्झम्मि वारि अमयं । 18. सुत्तस्स मग्गेण चरेज्ज भिक्खू ।
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19. पज्जुण्णो जणे डहइ ।
20. निवई मंतीहिं सद्धिं रज्जस्स मंतं मंतेइ । 21. निवइणो मणोण्णेहिं कव्वेहिं तूसंति । 22. धन्नाणं चेव गुरुणो आएसं दिंति ।
23. धम्मो बंधू अ मित्तो अ, धम्मो य परमो गुरु । नणं पालगो धम्मो, धम्मो रक्खइ पाणिणो ||1|| 24. दाणेण विणा न साहू, न हुंति साहूहिं विरहिअं तित्थं । दाणं दितेण तओ, तित्थुद्धारो कओ होइ ||2||
प्राकृत में अनुवाद करें
1. मुनि शास्त्र में पण्डित होते हैं ।
2.
3.
4.
5.
6.
7.
8.
9.
10. राजा दुर्जनों (धूर्तों) को दण्ड देते हैं और सज्जनों का पालन करते हैं । 11. भौंमरों को मधु पसंद है ।
तुम सदा साधुओं के साथ प्रतिक्रमण करते हो । मैं मद का त्याग करता हूँ ।
योगी जंगल में रहते हैं और काम को जीतते हैं ।
मुनि उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं ।
पण्डित रोग से खिन्न नहीं होते हैं ।
वैद्य रोगों को दूर करते हैं ।
मैं स्तोत्रों द्वारा सर्वज्ञ भगवंत की स्तुति करता हूँ । ताराओं के बीच चन्द्रमा शोभा देता है ।
12. वह सदा प्रभात काल में उद्यान में जाता है और आचार्यों तथा साधुओं को वन्दन करता है ।
13. साधु कभी भी पाप में प्रवृत्ति नहीं करते हैं ।
14. ऋषि मन्त्र द्वारा आकाश में उड़ते हैं । 15. मेघ पानी बरसाता है ।
16. चन्द्र दिन में शोभा नहीं देता है ।
17. बालक दही खाता है ।
18. गुरु हमारे जैसे पापियों का भी उद्धार करते हैं ।
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' ण, णं
पाठ - 12 (चालू) इकारान्त, उकारान्त पुंलिंग तथा नपुंसकलिंग नाम
चउत्थी, पंचमी और छठी विभक्ति प्रत्यय
__(३/२३, ८, ९, १०,६) एकवचन
बहुवचन | णो, स्स
ण, णं णो, त्तो, ओ, उ, हिन्तो | तो, ओ, उ, हिन्तो, सुन्तो णो, स्स
रूप
मुणि (मुनि) मुणिणो, मुणिस्स | मुणीण, मुणीणं मुणिणो, मुणित्तो, मुणीओ, मुणित्तो, मुणीओ, मुणीउ मुणीउ, मुणीहिन्तो मुणीहिन्तो, मुणीसुन्तो मुणिणो, मुणिस्स मुणीण, मुणीणं
साहु (साधु) साहुणो, साहुस्स साहूण, साहूणं साहुणो, साहुत्तो, साहूओ, साहुत्तो, साहूओ, साहूउ साहूउ, साहूहिन्तो . साहूहिन्तो, साहूसुन्तो साहुणो, साहूस्स साहूण, साहूणं
. दहि (दधि) दहिणो, दहिस्स,
दहीण, दहीणं दहिणो, दहितो, दहीओ, दहितो, दहीओ, दहीउ, दहीउ, दहीहिन्तो दहीहिन्तो, दहीसुन्तो दहिणो, दहिस्स
दहीण, दहीणं
" लाइक्स
चतुर्थी एकवचन संस्कृत अनुसार मुणये (मुनये), साहवे (साधवे), वारिणे (वारिणे), महुणे (मधुने) आदि रूप भी होते हैं ।
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महु (मधु) महुणा, महुस्स
महूण, महूणं महुणो, महत्तो, महूओ, महत्तो, महूओ, महूउ, महूउ, महूहिन्तो, महूहिन्तो, महसुन्तो महुणो, महुस्स
महूण, महूणं 1. जिन शब्दों में श्न-ष्ण-स्न-ह-हण-क्षण हो तो उसका ण्ह होता है, सूक्ष्म .
शब्द के क्ष्म का ण्ह होता है और हल का ल्ह होता है । उदा. न-पण्हो (प्रश्नः)
हण-पुदण्हो (पूर्वाह्णः) ष्ण-जिण्हू (जिष्णुः) क्ष्ण-सण्हं (श्लक्ष्णम्) स्न-जोण्हा (ज्योत्स्ना) । क्ष्म-सण्हं (सूक्ष्मम्) स्न-हाइ (स्नाति) हल-पहलाओ (प्रह्लादः)
ह-जण्हू (जहनुः) | हल-आल्हाओ (आह्लादः) 2. शब्द के अन्दर स्त हो तो त्थ होता है और प्रारम्भ में स्त हो तो थ
होता है । (२/४५) . उदा. हत्थो (हस्तः)
| थोत्तं (स्तोत्रम्) नत्थि (नास्ति)
थुई (स्तुतिः) अपवाद - समस्त और स्तम्ब शब्द में स्त का त्थ अथवा थ नहीं होता है।
उदा. समत्तो (समस्तः), तम्बो (स्तम्ब:) 3. अनुस्वार के बाद ह आये तो ह का घ विकल्प से होता है । (१/२६४)
उदा. सिंघो-सीहो (सिंहः), संघारो-संहारो (संहारः) अपवाद - कुछ स्थानों में अनुस्वार न हो तो भी ह का घ होता है । दाघो (दाहः) ।
शब्दार्थ (पुंलिंग) अंगार ) = (अङ्गार) अंगार कण्ह, किण्ह = (कृष्ण) वासुदेव
कवि (कपि) = बंदर इंगार
केवलि (केवलिन) = केवलज्ञानी, सर्वज्ञ
गणि (गणिन्) = गणधर, गणी अवरोह (अपराण) = दिन का अन्तिम गोयम (गौतम) = श्री महावीरस्वामी प्रहर
के प्रथम गणधर, गौतम अवराह (अपराध) = गुनाह, अपराध जंतु (जन्तु) = प्राणी, जीव
अंगाल
इंगाल
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झुणि (ध्वनि) = शब्द
मच्चु (मृत्यु) = मृत्यु, मौत तरु (तरू) = वृक्ष
मज्झण्ह (मध्याह्न) = दिन का मध्य नमोक्कार = नमुक्कार (नमस्कार) भाग नमन, प्रणाम, नमस्कार
मन्नु (मन्यु) = क्रोध निमेस (निमेष) = पलक | रिउ (रिपु) = शत्रु, दुश्मन नेमि (नेमि) = नेमिनाथ, बाईसवें वण्हि (वह्नि) = अग्नि तीर्थंकर का नाम
|विण्हु (विष्णु) = वासुदेव का नाम पण्ह (प्रश्न) = प्रश्न
सत्तु (शत्रु) = शत्रु, दुश्मन पयास (प्रकाश) = प्रकाश
संति (शान्ति) = शांतिनाथ, सोलहवें पराभव (पराभव) = पराभव, हार तीर्थंकर का नाम पसाय (प्रसाद) = मेहरबानी, कृपा, | संहार, संघार (संहार) = संहार, नाश दया
करना पहु (प्रभु) = प्रभु, स्वामी सिसु (शिशु) = बालक
हत्थि (हस्तिन) = हाथी
(नपुंसकलिंग) चंदण (चन्दन) = चंदन
जुद्ध (युद्ध) = युद्ध
(पुंलिंग + नपुंसकलिंग) अच्छि (अक्षि) = आँख
जीवाउ (जीवातु) = जीवन, औषध
विशेषण अण्णाणि (अज्ञानिन्) = अज्ञानी, मूर्ख | बहु । (बहु) = अधिक, ज्यादा, बहुत कामसम (कामसम) = काम समान बहुअ) कोवसम (कोपसम) = क्रोध समान भगवंत। (भगवन्) = ऐश्वर्यवान, जरागहिअ (जरागृहीत) = वृद्ध , | भयवंत, भगवान बुढ़ापा, बुढ़ापे से घिरा हुआ भव्द (भव्य) = भव्य जीव, योग्य , सुन्दर तिक्ख । (तीक्ष्ण) = तीखा, धारदार, मंद (मन्द) = धीरे, थोड़ा, आलसी तिण्ह । तीक्ष्ण
महुर (मधुर) = अच्छा, मीठा पर (पर) = अन्य, श्रेष्ठ, दूसरा | मोहसम (मोहसम) = मोह समान, पुज्ज (पूज्य) = पूजा करने योग्य अज्ञान समान
-65
-
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रत्त (रक्त)
आसक्त
=
रंगा हुआ, लाल, लहु, लहुअ (लघु) = तुच्छ, छोटा, समीव ( समीप) = नजदीक, पास में
अव्यय
अन्नह (अन्यथा ) = विपरीत, उल्टा | मणयं
मणियं
मणा
अन्नहा
किंतु (किन्तु) = लेकिन नत्थि (नास्ति ) = नहीं
बाहिं
बा.) (बहिस्) = बाहर
गण् (गण) गिनना
1.
2.
3.
4.
5.
6. पंडिआ मच्चुणो णेव बीहंति ।
(मनाक् )
आणंदो संतिस्स चेंइए नच्चं करेज्जा । पच्चूसे भाणुणो पासो स्तो हवइ ।
नमो पुज्जाणं केवलीणं गुरूणं च ।
धातु
| अव+मन् (अव+मन्) अपमान करना
हिन्दी में अनुवाद करें
सव्वण्णूणं अरिहंताणं भगवंताणं इक्को वि नमोक्कारो भवं छिंदेइ । जरागहिआ जंतुणो तं नत्थि, जं पराभवं न पावंति ।
7. तुम्हे गुरूओ विणा सुत्तस्स अट्ठाइं न लहेह | जंतूण जीवाउं वारिमत्थि ।
8.
9. रण्णे सिंघाणं हत्थीणं च जुद्धं होइ ।
10. केवली महुरेण झुणिणो पाणीण धम्ममुवइसइ । 11. सूरिणो अवराहेण साहूणं कुज्झंति । 12. अण्णाणिणो केवलिणो वयणं अवमन्नंति ।
=
13. निवईहिन्तो कवओ बहुधणं लहेइरे । 14. अम्हे पहुणो पसाएण जीवामो । 15. जइणो मणयं पि कासइ मन्नुं न कुणिज्जा । 16. अंगाराणं कज्जेण चंदणस्स तरूं को डहेइ ?
६७
अल्प,
थोड़ा
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17. मच्चुस्स सो पमाओ, जं जीवो जियँइ निमेसंपि ।
18. गिम्हस्स मज्झण्हे भाणुस्स तावो अंईव तिक्खो होइ, पुव्वण्हे अवरण्हे य मंदो होइ ।
19. गोयमाओ गणिणो पण्हाणमुत्तरं जाणिमो ।
20. गुरुस्स विणएण मुरुक्खो वि पंडिओ होइ । 21. नत्थि कामसमो वाही, नत्थि मोहसमो रिऊ । नत्थ कोवसमो वही, नत्थि नाणा परं सुहं ||1|| प्राकृत में अनुवाद करें
शिष्य गुरु को प्रश्न पूछते हैं ।
हम सर्वज्ञ भगवंत के पास धर्म सुनते हैं । अज्ञानियों से पंडित डरते हैं ।
1.
2.
3.
4.
5.
6.
7.
मैं सदा पुष्पों से शांतिनाथ भगवान की पूजा करता हूँ ।
वह तीक्ष्ण शस्त्र से शत्रु (दुश्मन) को मारता है ।
शांति (जिनेश्वर) के ध्यान से कल्याण होता है ।
आलस प्राणियों का भयंकर दुश्मन है, लेकिन वीर पुरुष उसको जीतते
हैं ।
केवली के वचन असत्य नहीं होते हैं ।
कृष्ण नेमि (जिनेश्वर) से सम्यक्त्व प्राप्त करते हैं ।
8.
9.
10. भौंरे मधु के लिए घूमते हैं ।
11. सैनिक राजा से द्रव्य की आशा रखते हैं ।
12. सिंह की आवाज से मनुष्यों का हृदय कम्पित होता है ।
13. चन्द्र का प्रकाश मन को आनंद देता है ।
14. बन्दर वृक्ष के पके हुए फल खाते हैं ।
15. हम गुरु के पास धर्म सुनते हैं ।
16. मनुष्य व्याधि से बहुत घबराते हैं ।
17. बालकों को प्रभु का पूजन पसन्द आता हैं ।
18. सिंह हाथियों को फाड़ते हैं ।
19. साधु शास्त्र का अपमान नहीं करते हैं ।
20. हाथियों से सिंह नहीं डरते हैं ।
• जियइ-देश्य धातु होने से ह्रस्व हुआ है, अन्यथा जीयइ प्रयोग होता है ।
६८
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पाठ - 13 (चालू) इकारान्त, उकारान्त पुंलिंग तथा नपुंसकलिंग नाम सत्तमी विभक्ति तथा संबोहण प्रत्यय (३/११, ३८,३७, २६, ८८) ___ एकवचन
बहुवचन स. म्मि, (सि)
सु,सुं सं. 0
प्रथमा अनुसार 1. संबोधन एकवचन में अन्त्य स्वर विकल्प से दीर्घ होता है । 2. नपुंसकलिंग संबोधन एकवचन में मूल रूप ही रहता है तथा बहुवचन में
प्रथमा विभक्ति के रूप के समान ही है । 3. अदस् शब्द का प्राकृत में अमु आदेश होता है और उसके रूप उकारान्त नाम के समान होते हैं ।
मुणि (मुनि) मुणिम्मि, मुणिंसि मुणीसु, मुणीसुं हे मुणी, मुणि
मुणउ, मुणओ, मुणिणो, मुणी
साहु (साधु) साहुम्मि, साहुंसि | साहूसु, साहूसुं हे साहू, साहु साहवो, साहउ, साहओ, साहुणो, साहू
दहि (दधि) दहिम्मि, दहिंसि
दहीसु. दहीसुं सं. हे दहि
दहीइं, दहीइँ, दहीणि
महु (मधु) महुम्मि, महुंसि
महूसु, महूसुं हे महु
महूइं, महू', महूणि
|
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प.
बी.
प. बी.
प.
बी.
त.
च.
पं.
छ.
4. 43
स.
सं.
प.
प
स.
अमू
अमुं
सं.
अमु (अदस्) पुंलिंग
गुरू
बी.
गुरुं
त.
गुरुणा
च. गुरुणो, गुरुस्स
पं. गुरुणो, गुरुतो, गुरूओ, गुरूउ, गुरूहिन्तो
छ. गुणो, गुस्स
गुरुम्मि, गुरुंसि
गुरू, गुरु
शेष रूप 'साहु' वत् (नपुंसकलिंग)
बहुवचन
अमूइं, अमूइँ, अमूणि
एकवचन
अमुं
शेष रूप पुंलिंगवत्
अमवो, अमउ, अमओ, अमुणो, अमू अणो, अमू
सम्पूर्ण रूप नेमि (पुंलिंग)
नेमी
नेमिं
नेमिणा
नेमिणो, नेमिस्स
नेमिणो, नमित्तो, नेमीओ, महिन्तो
नेमीउ, नेमिणो, नेमिस्स
नेमिम्मि, नेमिंसिं हे नेमी, नेमि
नेमउ, नेमओ, नेमिणो, नेमी नेमिणो, नेमी नेमीहि, नेमीहि, नेमीहिं
नेमीण, नेमीणं
नेमित्तो, नेमीओ, नेमीउ नेमीहिन्तो, नेमीसुन्तो नेमीण, नेमीणं
नेमीसु, नेमीसुं
नेमउ, नेमओ, नेमिणो, नेमी
गुरु
गुरवो, गुरउ, गुरओ, गुरुणो, गुरू गुरुणो, गुरू
गुरूहि, गुरूहि ँ, गुरूहिं
गुरूण, गुरूणं
गुरुतो, गुरूओ, गुरूउ, गुरूहिन्तो, गुरूसुन्तो
गुरूण, गुरूणं
गुरूसु, गुरूसुं
गुरवो, गुरउ, गुरओ, गुरुणो, गुरू
७०
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वारि (नपुंसकलिंग) प. बी. | वारि
वारीइं, वारीइँ, वारीणि .. . शेष 'नेमि'वत् सं. हे वारि
| हे वारीइं, वारी, वारीणि
अंसु (अश्रु) प. बी. | अंसुं
| अंसूइं, अंसूइँ, अंसूणि
शेष 'गुरु' वत् सं. | अंसु
| अंसूइं, अंसूइँ, अंसूणि
शब्दार्थ (पुंलिंग) अइसय (अतिशय) = अतिशय महावीर (महावीर) = चौबीसवें तीर्थंकर अग्गि (अग्नि) = अग्नि, आग का नाम, महावीर असुर (असुर) = असुर, राक्षस महुस्सव, महूसव, महोसव, महोच्छव असुरिंद (असुरेन्द्र) = राक्षसों के स्वामी (महोत्सव) = बड़ा उत्सव इंद (इन्द्र) = इन्द्र
| मेरु (मेरु) = मेरुपर्वत कंठ (कण्ठ) = गर्दन, गला राग (राग) = राग, स्नेह खण (क्षण) = समय , कालविशेष , क्षण| वज्जपाणि (वज्रपाणि) = इन्द्र गरुल (गरुड) = पक्षिराज
वाउ (वायु) = वायु, पवन, हवा गिरि (गिरि) = पर्वत
| विज्जत्थि (विद्यार्थिन्) = विद्यार्थी, विद्या जिअलोअ / जिअलोग = (जीवलोक)| का अर्थी दुनिया, संसार
विंझ (विन्ध्य) = विन्ध्याचल पर्वत जोह (योध) सैनिक, सिपाही सक्क (शक्र) = इन्द्र दोस (दोष) दुर्गुण, दोष
सत्तुंजय (शत्रुञ्जय) = सिद्धाचल तीर्थ पक्खि (पक्षिन्) पक्षी
सर (सरस्) = सरोवर पसु (पशु) पशु
सिद्धगिरि (सिद्धगिरि) = सिद्धाचल पाय (पात) गिरना, पतन पर्वत, सिद्धगिरि पाणि (पाणि) हाथ
हरि (हरि) = इन्द्र, विष्णु मच्छ (मत्स्य) मछली
हार (हार) = माला, हार
७१
-
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नपुंसकलिंग
कल्ल (कल्य) गतदिन, पिछला दिन, | रक्खण (रक्षण) = रक्षण
आगामी दिन
जीविअ (जीवित) = जीवन
दव्व (द्रव्य) = धन, द्रव्य, संपत्ति परमपय (परमपद) = उत्तम स्थान, मोक्ष सरूव (स्वरूप) = स्वरूप
पुंलिंग + नपुंसकलिंग
चक्खु (चक्षुष)
दिवस ) (दिवस ) = दिन, दिवस
}
दिवह
पभाय
पहाय
: आँख, नेत्र
=
अन्नहि
अन्नह
अन्नत्थ
एक्कसि
एक्कसि
एक्कइआ
एगया
उत्तिम }
किवण (कृपण) = कंजूस, लोभी गुणी (गुणिन् ) = गुणवान
विन्नाण (विज्ञान) = सद्बोध, कला,
ज्ञान
वैरग्ग (वैराग्य) = वैराग्य, विराग
(प्रभात) = प्रातःकाल, सुबह जहर
विशेषण
अच्चंत (अत्यंत) = ज्यादा, अधिक | दिग्ध असार (असार) = साररहित, असार दीह आसन्न (आसन्न) = समीप, नजदीक दीहर (उत्तम) = श्रेष्ठ, सुन्दर
(अन्यत्र ) दूसरी जगह
वज्ज
(एकदा) एक दिन,
किसी समय
}
वइर
| विसयविस (विषयविष ) = विषयरूपी
अव्यय
(वज्र ) वज्र, हीरा, इन्द्र का
शस्त्र
|नायव्व (ज्ञातव्य) = जानने योग्य पुव्व (पूर्व) = पहला, आगे का, पूर्व, पुरिम अगला, प्राचीन
रहस्स (रहस्य) = गुप्त, गुह्य, एकान्त वर (वर) = श्रेष्ठ, उत्तम
नउणाइ
नउणा
७२
(दीर्घ) = दीर्घ, लम्बा
एहि ताहे इदाणिं (णि)
दाणि दाणिं दाण
सम्मं (सम्यग) अच्छी तरह
नउण
(इदानीम् ) अभी
( न पुनः ) फिर से नहिं
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धातु
तर सक्क )
चय । (शक्) = शक्तिमान होना | परि + हा (परि+धा) =धारण करना,
परि + धा) = पहिनना
| पूय। (पूजय) = पूजन करना चय (त्यज) = त्याग करना जग्ग् । (जागृ) = जागना बुक्क् (गण) = गर्जना करना, गाजना जागर
भर (भृ) = भरना जाय् (याच्) = मांगना
विराय (वि + राज) = शोभा देना ढिक्क् (गर्ज) = बैल का गर्जना
हिन्दी में अनुवाद करें1. जोहा सत्तूसु सत्याणि मेल्लिन्ति । 2. विज्जत्थिणो पभाए पुव्वं चिअ जग्गंति । 3. सीसा गुरुम्मि वच्छला हवंति । ' 4. पक्खिणो तरूसुं वसंति । 5. मुणिंसि परमं नाणमत्थि । 6. जओ हरी पाणिम्मि वज्जं धरेइ तओ लोआ तं वज्जपाणि त्ति वयंति । 7. सव्वण्णुणा जिणिंदेण समो न अन्नो देवो ।
सिद्धगिरिणा समं न अन्नं तित्थं । मेरुम्मि असुरा, असुरिंदा, देवा, देविंदा य पहुणो महावीरस्स जम्मस्स
महोसवं कुणन्ति । 10. पक्खीसु के उत्तमा संति । 11. अग्गिंसि पाओ वरं, न उण सीलेण विरहियाणं जीविअं । 12. साहूणं सच्चं सीलं तवो य भूसणमस्थि । 13. मूढा पाणिणो इमस्स असारस्स संसारस्स सरूवं न जाणिज्ज | 14. जं कल्ले कायव्वं तं अज्ज च्चिअ कायव्वं । 15. अमूसुं तरूसुं कवी वसति । 16. हे सिसु ! तं दहिंसि बहुं आसत्तो सि ।
8.
सव
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17. साहवो परोवयाराय नयराओ नयरंसि विहरेइरे । 18. वसहो वसहं पासेइ ढिक्कइ अ । 19. जणेसु साहू उत्तमा अस्थि । • 20. हत्यिणो विंझम्मि वसंति । 21. हे सिसु ! तुं सम्मं अज्झयणं न अहिज्जेसि । 22. अन्नाणीसुं सुत्ताणं रहस्सं न चिट्ठइ । 23. गिम्हे दिग्घा दिवसा हुविरे । 24. सिसू तं जणए वच्छलोसि । 25. जो दोसे चयइ सो सव्वत्थ तरइ । 26. गुणीसुं चेअ गुणिणो रज्जंति नागुणीसु । 27. * सव्वेसु पाणीसुं तित्थयरा उत्तिमा संति । 28. जं पहूणं रोएइ, तं चेव कुणंति सेवगा निच्चं । 29. सच्चं सुअं पि सीलं, विन्नाणं तह तवं पि वेरग्गं ।
वच्चइ खणेण सव्वं , विसयविसेण जईणं पि ||1|| 30. जह जह दोसो विरमइ, जह x विसएहि होइ वेरग्गं ।
तह तह वि नायव्वं , आसन्नं चिअ परमपयं ।।2।। 31. धन्नो सो जिअलोए, गुरवो निवसंति जस्स हिअयंमि । धन्नाणं वि सो धन्नो, गुरूण हिअए वसइ जो उ ।।3।।
प्राकृत में अनुवाद करें1. ' बालक कण्ठ में हार धारण करते हैं । 2. इन्द्र देवों को तीर्थंकर के अतिशय कहते हैं । 3. वह शहद में बहुत आसक्त है। 4. सर्वज्ञ में जो गुण होते हैं वे गुण दूसरों में नहीं होते हैं । 5. उस पर्वत पर जहाँ गुरु रहते हैं वहाँ मैं रहता हूँ ।
व
* ऐसे वाक्यों में छट्टी या सप्तमी विभक्ति रखी जाती है | x पंचमी के स्थान पर तृतीया विभक्ति भी होती है । उदा. चोरेण बीहइ
(चौराद् बिभेति)
- ७४
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6. गुरुओं का विनय करने से विद्यार्थियों में ज्ञान बढ़ता है । 7. जैसे पशुओं में सिंह, पक्षियों में बाज पक्षी, मनुष्यों में राजा और देवों
में इन्द्र उत्तम है, वैसे सभी धर्मों में जीवों का रक्षण उत्तम है । 8. पक्षियों में उत्तम पक्षी कौन है ? 9. इस पानी में बहुत मछलियाँ हैं । 10. अभी मैं शत्रुओं से लड़ता हूँ। 11. प्राणियों को जीवन देनेवाला धर्म है । 12. पर्वतों में मेरु उत्तम है । 13. पण्डित अज्ञानियों का विश्वास नहीं करते हैं। 14. मनुष्य तालाब में से जल भरता है । 15. हे बालको ! तुम कहाँ जाते हो ? 16. हम सिद्धाचल जाते हैं । 17. सरोवर के पानी में कमल है । 18. साधु शत्रु से डरते नहीं हैं। 19. भिक्षु कंजूस के पास द्रव्य मांगते हैं । 20. बालक चन्द्र के दर्शन से नेत्र में आनन्द प्राप्त करते हैं । 21. साधुओं को मृत्यु का भय नहीं होता है । 22. मुनियों को गौतम गणधर के प्रति अत्यन्त राग है ।
- ७५
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उदा. हस् + ईअ कर् + ईअ
1. व्यंजनान्त धातु = सर्वपुरुष सर्ववचन - ईअ
((३/१६३,१६२)
-
2. स्वरान्त धातु = सर्वपुरुष सर्ववचन * सी, ही, हीअ 3. आर्ष प्राकृत में धातु के अंग को = सर्वपुरुष और सर्ववचन में त्था, सुप्रत्यय लगते हैं । ये प्रत्यय जोड़ते समय, पहले अ हो तो उसका 'इ' होता है । (४/२१४)
त्थ और
पाठ
1. व्यंजनांत धातुओं को सर्वपुरुष और सर्ववचन में ईअ प्रत्यय लगाया जाता
है ।
=
- हसीअ
•
=
-
ने + ही = नेही
ने + हीअ = नेहीअ
14
भूतकाल
प्रत्यय
करीअ
वंद् + ईअ = वंदीअ
2. स्वरान्त धातुओं को सर्वपुरुष और सर्ववचन में सी, ही और हीअ प्रत्यय लगाया जाता है तथा प्रत्ययों के पूर्व विकल्प से अ लगता है ।
उदा. ने + सी = नेसी.
विकल्पपक्षे नेअ + सी = नेअसी
अ + ही = अही नेअ + हीअ = नेअहीअ
-
पड् + ईअ = पडीअ
बोह् + ईअ = बोहीअ
हो + सी = होसी,
हो + ही = होही,
हो + हीअ = होहीअ
3. व्यञ्जनान्त धातुओं को ए प्रत्यय लगाकर सी, ही आदि का प्रयोग प्राकृत साहित्य में दिखाई देता है । उदा. सुण् + ए + सी = सुणेसी । किं इदाणिं
-
रोदसि मम तदा न सुणेंसी ( वासुदेव. पृ. २९-११)
,
4. प्राकृत में कृ धातु का 'का' बनता है ।
उदा. सर्वपुरुष - सर्ववचन कासी, काही, काहीअ.
प्राकृत में ह्यस्तन भूतकाल, परोक्ष भूतकाल अथवा अद्यतन भूतकाल के स्थान पर सामान्यतः भूतकाल के ही प्रत्यय लगाये जाते हैं ।
* इस प्रत्यय का स्वर कुछ स्थानों में ह्रस्व भी होता है ।
७६
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5. आर्ष प्राकृत में सर्वपुरुष सर्ववचन में धातु के अंग को त्था, त्थ और + सु प्रत्यय लगाया जाता है ।
त्था, त्थ और सु प्रत्यय लगाने पर पूर्व अ का इ होता है । (४/२१४) उदा. कह + त्था कहित्था
हस + त्था = हसित्था
नेअ + त्था = नेइत्था
जिण + त्था = जिणित्था
6. सु प्रत्यय लगाने पर पूर्व के अक्षर पर अनुस्वार रखा जाता हैउदा. कह + सु = कहिंसु
हस + सु = हसिंसु जिण + सु = जिणिंसु
इसी प्रकार बुह - बोहित्था, हो - होत्या,
+ सु = सु
अ + सु
-
•
--
=
हव् - हवित्था,
मिला मिलाइत्था,
=
उदा. कह + सु
नेइंसु
उवे (उप + इ) उवेइत्था,
उदा. रायगिहे नयरे सेणिओ नाम राया होत्या. (एकव . )
समणस्स भगवओं महावीरस्स एगारह गणहरा होत्था (बहुव . )
7. सु प्रत्यय लगाने पर कुछ स्थानों में धातु के पहले 'अ' लगता है ।
अकहिंसु
भव + सु = अभविंसु
सर्वपुरुष आसि
सर्ववचन
=
बोहिंसु
होंसु
हविंसु
मिलाइंसु
उवेंसु, उवेइंसु
7
कर + सु = अकरिंसु
अकहिं जिणो जयंतीए (एकव . )
किं अरिहंता गणहरदेवा वा सक्कयसिद्धंतकरणे असमत्था अभविंसु ? पाइअभासाए सिद्धंतं अकरिंसु (बहुव .) ( सम्यक्त्वसप्ततिकावृत्तौ)
अस् धातु के रूप (३/१६४)
जय + सु = अजइंसु
संस्कृत सिद्ध प्रयोग से होनेवाले आर्ष रूप ब्रू = अब्बवी । (अब्रवीत् )
७७
तृ. पु. एकवचन
+ सु प्रत्यय लगाने पर कुछ स्थानों में पूर्व अ का ए भी होता है । उदा. . परिकहेंसु (बृह. गा. 4685) उदीरेंसु, निज्जरेंसु (भगवती - शत - १, उद्देशा - ३, सूत्र- २८
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कृ = अकासी / अकासि । (अकार्षीत्) तृ. पु. एकवचन वच् = अवोच (अवोचत्)
तृ. पु. एकवचन भू = अभू (हू) (अभूत) . -- - तृ. पु. एकवचन अस् = आसी (आसीत्)
तृ. पु. एकवचन अस् = आसिमो, आसिमु (आस्म) . प्र. पु. बहुवचन दृश् = अदृक्खु (अद्राक्षुः)
तृ. पु. एकवचन 8. शब्द के अन्दर ष्ट का ह होता है और प्रारम्भ में ष्ट का ठ होता है ।
(२/३२,३४) उदा. पुट्ठो (स्पृष्टः) कटुं कष्टम्) अणिटुं (अनिष्टम्) अपवाद • उष्ट्र, इष्टा और संदृष्ट इन शब्दों में ष्ट का ट्ठ नहीं होता है ।
उदा. उट्टो (उष्ट्रः) इट्टा (इष्टा) संदट्टो (संदृष्टः) 9. सरअ (शरद), पाउस (प्रावृष), तरणि (तरणि) इन शब्दों का प्रयोग पुंलिंग में होता है । (१/३१)
शब्दार्थ (पुंलिंग) अभयकुमार (अभयकुमार) = श्रेणिक | पवण (पवन) = पवन, वायु राजा का पुत्र अभयकुमार पहिअ (पथिक) = मुसाफिर अमर (अमर) = अमर, देव पारेवअ, पारावअ (पारावत) = कबूतर उसम, उसह, (ऋषभ, वृषभ) = प्रथम भबजीव (भव्यजीव) = भव्यजीव जिनेश्वर का नाम, ऋषभदेव
रावण (रावण) = विशेषनाम, रावण काल (काल) = समय, काल
वसह (वृषभ) = बैल केसरि (केसरिन्) =सिंह
वीसाम, विस्साम (विश्राम)=विश्रान्ति, गणहर (गणधर) = गणधर
विराम घड (घट) = घड़ा जडणधम्म (जैनधर्मी जिनेश्वर का धर्म| सद्ध (श्राद्ध) = श्रावक, श्रद्धालु जय (जय) = जय, जीत
सरअ (शरद) = शरदऋतु जिणिंद, जिणंद जिनेन्द्र) = जिनेन्द्र, तीर्थंकर | ससंक (शशाङ्क) = चन्द्र जीवियंत (जीवितान्त) = प्राणों का नाश | संजम (संयम) = संयम, चारित्र, पाप दुज्जण (दुर्जन) = दुर्जन, दुष्ट
से विरति देस (देश) = देश
सीयाल (शीतकाल) = शीतऋतु धअ, झअ (ध्वज) = ध्वज सेणिअ (श्रेणिक) = मगधदेश के राजा नय (नय) = नय, नीति
का नाम नरवइ (नरपति) = राजा हालिअ (हालिक) = किसान
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BS
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नपुंसकलिंग जाल (जाल) = जाल , पाश रायगिह (राजगृह) = राजगृह नगर दंसणमेत्त, दंसणमत्त (दर्शनमात्र) = | वेयावच्च, वेयावडिय (वैयावृत्य) = देखने मात्र से
सेवा, शुश्रूषा देववंदण (देववन्दन) = देववन्दन, संसारचक्क (संसारचक्र) = संसाररूपी जिनेश्वर को नमनक्रिया
चक्र नाम (नामन्) = नाम, संज्ञा | सोत्त (श्रोत्र) = कर्ण, कान पढण (पठन) = पढ़ना ।
पुंलिंग + नपुंसकलिंग परक्कम, पराकम (पराक्रम) = शक्ति, | वरिस, वास (वर्ष) = बारिस, मेघ, सामर्थ्य, बल
|भारत आदि क्षेत्र, संवत्सर, साल
नपुंसकलिंग + स्त्रीलिंग हेट्ट, हिट्ठ (अधस्) = नीचे
विशेषण करुणाजुअ (करुणायुत) = दया से | पढम (प्रथम) = प्रथम, पहला , आद्य
| पावासु ) = (प्रवासिन्) मुसाफिर, दत्त, दिण्ण (दत्त) = दिया हुआ पवासु प्रवासी दाहिणिल्ल (दक्खिणिल्ल
पवासि । दाक्षिणात्य) = दक्षिण दिशा का विसम (विषम) = उग्र, प्रचण्ड, सख्त दुहिअ, दुक्खिअ (दुःखित) = दुःखी, सडिअ (शटित) = सड़ा हुआ पीड़ित
|साउ (स्वादु) = मधुर, स्वादिष्ट धम्मिट्ठ (धर्मिष्ठ) = धर्मपरायण, | सुहि (सुखिन्) = सुखी धर्मवान
व्याप्त
अव्यय
अणंतखुत्तो (अनंतकृत्वस्) = अनंतबार जइ (यदि) = जो अहवा । (अथवा) = या, अथवा , पुरा (पुरस्) = पहले अहव । कि
सहसा (सहसा) = अचानक, तुरन्त, एकदम
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कुण् (कृ) = करना
पढ् (पठ्) = पढ़ना
धातु
| ववस् (वि+अव्+सो) = प्रयत्न करना,
व्यवसाय करना
विस्सम्, वीसम् (वि + श्रम् ) = विश्राम
रय् (रच्) = रचना करना,
वा + गर् (वि+आ+कृ) = कहना, करना
बोलना, प्रतिपादन करना
सह (राज्) = शोभा देना
हिन्दी में अनुवाद करें
1. गोयमो गणहरो पहुं महावीरं धम्मस्स अधम्मस्स य फलं पुच्छीअ । 2. पच्चुसे साहुणो पुरिमं देववंदणं समायरीअ, पच्छा य सत्थाणि पढीअ । 3. रायगिहे नयरे सेणिओ नाम नरवई होत्था, तस्स पुत्तो अभयकुमारो नाम आसि, सो य विन्नाणे अईव पंडिओ हुवीअ ।
4. गिम्हे काले विसमेण आयवेण हालिओ दुक्खओ होसी । अज्जच्च कुंभारो बहू घडे कासी ।
5.
6. सरए ससंको जणस्स हिए आणंद काहीअ ।
7. सीयाले मयंकस्स पयासो सीयलो अहेसि । 8. बालो जणयस्स विओएण दुहिओ अभू ।
9. नेहेण सो अच्चंतं दुक्खं पावीअ ।
10. तित्थयराणं उसहो पढमो होत्था |
11. नाणेण दंसणेण संजमेण तवेण य साहवो सोहिंसु ।
12. ते जिणिदं अदक्खु, दंसणमेत्तेण य सम्मत्तं चस्तिं च लहीअ ।
13. जो जारिसं ववसेज्ज फलं पि सो तारिसं लहेज्ज ।
14. निडुरो जणो सुत्ते वि जणे खग्गेण पहरीअ । 15. धम्मो धम्मिट्टं पुरिसं सग्गं नेसी ।
16. नरिंदो देसस्स जएण तुसीअ ।
17. पक्खी उज्जाणे तरूसुं महुरं सद्दं कुणीअ ।
18. स अवोच तुं अधम्मं काही, तेण दुहं लहीअ ।
19. पुरा अम्हे दुवे बंधुणो आसिमो ।
20. अम्हो मग्गे साऊणि फलाइं जेमीअ ।
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21. स अपढणेण मुक्खो होत्था ।
22. स तह नरिंद सेवित्था जहा बहुं दव्वं तस्स होही ।
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23. पारेवओ सडिअं धन्नं कया वि न खाएज्जा । 24. केसरी अद्य उज्जाणे वसीअ इअ सो अब्बवी । 25. गणहरा सुत्ताणि रइंसु । 26. जिणीसरो अटुं वागरित्था । 27. बंभचेरेण बंभणा जाइंस । 28. सोत्तं सुएणं न हि कुण्डलेण, दाणेण पाणी न य भूसणेण । देहो सहेइ करुणाजुआणं परोक्यारेण न चंदणेण ।।
प्राकृत में अनुवाद करें1. अमृत पीया लेकिन अमर नहीं हुआ । 2. पराक्रम से शत्रुओं को जीता । 3. मुसाफिरों ने वृक्ष के नीचे विश्रान्ति ली । 4. राम ने गुरु के आदेश का अनुसरण किया इसलिए सुखी हुआ है । . 5. मुसाफिर ने किसान को रास्ता पूछा । 6. दक्षिण दिशा का पवन बारिस लाया । 7. सज्जन दुर्जन के जाल में फँसा | 8. उसने प्राणों के नष्ट होने पर भी अदत्त ग्रहण नहीं किया । 9. जैन धर्म में जैसा तत्त्वों का ज्ञान देखा, वैसा अन्य में नहीं देखा । 10. सुख और दुःख इस संसार चक्र में अनंतबार जीव ने भुगता है, उसमें आश्चर्य
क्या ? 11. तुमने पाप से बचाया अतः तुम्हारे जैसा दूसरा उत्तम कौन हो ? 12. रावण ने नीति का उल्लंघन किया, इस कारण वह मृत्यु पाया । 13. पंडित मृत्यु से नहीं डरे । 14. शिष्यों ने गुरु के पास ज्ञान ग्रहण किया । 15. बहुत से भव्य जीवों ने तीर्थंकर की पूजा से नित्य सुख प्राप्त किया । 16. तुम दोनों प्रभात में कहाँ रहे ? 17. हम इस नगर में रहते हैं। 18. हमें प्रभु महावीर से धर्म प्राप्त हुआ । 19. यहाँ धर्म वही, जो धन और सुख का कारण है । 20. उनमें ज्ञान था इसलिए उनको पूजा गया । 21. तुम गुरु की वैयावृत्य से खूब होशियार हुए । 22. वह नगर के बाहर गया और उसने भालुओं का युद्ध देखा । 23. मंदिर के ध्वज पर मैंने मयूर देखा ।
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प्र. पु.
द्वि. पु.
पाठ
आज्ञार्थ और विध्यर्थ
आज्ञार्थ और विध्यर्थ के प्रत्यय समान ही हैं ।
(३/१७६, १७३, १७४, १७५)
-
•
एकवचन
मु
हि, सु, इज्जसु, इज्जहि, इज्जे, 0 (लुक्)
उ, (तु), (ए)
15
बहुवचन
मो
ह
तृ. पु.
न्तु
1. आज्ञा, आशा, प्रार्थना, आशीर्वाद, योग्यता, उपदेश, शक्यता, संभव, धर्म आदि अर्थ में आज्ञार्थ और विध्यर्थ का प्रयोग होता है ।
2. ये (उपर्युक्त ) प्रत्यय लगाने पर पूर्व में अ हो तो अ का ए विकल्प से होता है । (३/१५८)
उदा. जाण् + अ + मु = जाणेमु-जाणमु
3. • इज्जसु, इज्जहि, इज्जे, 0 ( लुक्) ये प्रत्यय अकारान्त अंगवाले धातुओं को ही लगते हैं । (३/१७५)
उदा. गच्छ् + अ + इज्जसु = गच्छिज्जसु, गच्छिज्जहि, गच्छिज्जे,
गच्छ.
4. आर्ष प्राकृत में दूसरे पुरुष एकवचन में इज्जसि, इज्जासि, इज्जाहि प्रत्यय भी लगाये जाते हैं । ( ३/१६५)
उदा. गच्छ् + अ + इज्जसि = गच्छिज्जसि, गच्छेज्जसि, गच्छिज्जासि, गच्छेज्जासि, गच्छिज्जाहि, गच्छेज्जाहि आदि रूप होते हैं ।
5. हि प्रत्यय लगाने पर पूर्व का स्वर दीर्घ भी होता है ।
उदा. गच्छ + हि = गच्छाहि, पढ + हि = पढाहि
6. ह प्रत्यय लगाने पर ज्जा आगम विकल्प से रखा जाता है । उदा. गच्छेज्जाह अथवा गच्छेह
स्वरान्त धातुओं को भी विकल्प से 'अ' प्रत्यय लगाकर तथा छठे पाठ में दिये हुए ज्ज, ज्जा के नियम ध्यान में रखकर विध्यर्थ- आज्ञार्थ के रूप करें ।
आर्ष में 'इज्जासु' प्रत्यय भी आता है - गच्छिज्जासु.
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प्र.पु. |
. हस् एकवचन
बहुवचन हसमु, हसामु,
हसमो, हसामो, हसिम, हसेम्
हसिमो, हसेमो द्वि.पु. - हसहि, हसेहि,
हसह, हससु, हसेसु,
हसेह हसिज्जसु, हसेज्जसु, हसिज्जहि, हसेज्जहि, हसिज्जे, हसेज्जे,
हस, हसे आर्ष में -
[ हसिज्जसि, हसेज्जसि, हसिज्जाह, हसिज्जासि, हसेज्जासि, हसेज्जाह हसिज्जाहि, हसेज्जाहि,
हसाहि] तृ.पु. हसउ, हसेउ,
हसन्तु, हसेन्तु, हसए, हसे,
हसिन्तु सर्वपुरुष सर्ववचन = हसेज्ज, हसेज्जा, हसिज्ज, हसिज्जा
ने [नी.] प्र.पु. द्वि.पु.
नेहि, नेसु, नेइज्जसि, नेइज्जासि, नेज्जाह]
नेइज्जाहि] तृ.पु. नेउ
नेन्तु, निन्तु
नेमु
नेमो
नेह
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एकवचन
देज्जाह
दा - दे
बहुवचन प्रथम पुरुष देमु
देमो द्वितीय पुरुष देहि, देसु.
देह [ देइज्जसि, देइज्जासि, |
देइज्जाहि] तृतीय पुरुष देउ
देन्तु, दिन्तु __ अप्रत्यय लगाने के बाद ने + अ = नेअ अंग के रूप प्रथम पुरुष नेअमु, नेआमु,
नेअमो, नेआमो, नेइमु, नेएमु
नेइमो, नेएमो, द्वितीय नेअहि, नेएहि
नेअह, नेएह नेअसु, नेएसु नेइज्जसु, नेएज्जसु. नेइज्जहि, नेएज्जहि, नेइज्जे, नेएज्जे, नेअ, नेए [ नेइज्जसि, नेएज्जसि, | नेइज्जाह, नेएज्जाह नेइज्जासि, नेएज्जासि, नेइज्जाहि, नेएज्जाहि,
नेआहि] तृतीय पुरुष नेअउ, नेएउ,
नेअन्तु, नेएन्तु, नेअए
नेइन्तु पुरुषबोधक प्रत्यय के पूर्व ज्ज-ज्जा लगाने के बाद -
नेज्ज-नेज्जा अंग के रूप प्रथम पुरुष | नेज्जमु, नेज्जामु,
नेज्जमो, नेज्जामो, नेज्जिमु, नेज्जेमु, नेज्जिमो, नेज्जेमो, नेज्ज, नेज्जा
नेज्ज, नेज्जा
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द्वितीय पुरुष | नेज्जहि, नेज्जाहि, नेज्जेहि, | नेज्जह, नेज्जाह, नेज्जेह,
नेज्जसु, नेज्जासु, नेज्जेसु, नेज्जिज्जसु, नेज्जेज्जसु, नेज्जिज्जहि, नेज्जेज्जहि, नेज्जिज्जे, नेज्जेज्जे नेज्ज, नेज्जा,
नेज्ज, नेज्जा, [ नेज्जिज्जसि, नेज्जेज्जसि, नेज्जिज्जाह, नेज्जिज्जासि, नेज्जेज्जासि, नेज्जेज्जाह, नेज्जिज्जाहि, नेज्जेज्जाहि,
नेज्जाहि ] तृतीय पुरुष | नेज्जउ, नेज्जाउ, नेज्जन्तु, नेज्जान्तु,
नेज्जेउ, नेज्जए, नेज्जिन्तु, नेज्जेन्तु, नेज्जे, नेज्ज, नेज्जा
| नेज्ज, नेज्जा स्वरान्त धातु में ज्ज-ज्जा के पूर्व अ कार आता है तब
नेएज्ज - नेएज्जा अंग के रूप प्रथम पुरुष | नेएज्जमु, नेएज्जामु, । नेएज्जमो, नेएज्जामो,
नेएज्जिमु, नेएज्जेमु. नेएज्जिमो, नेएज्जेमो, नेएज्ज, नेएज्जा
नेएज्ज, नेएज्जा इसी प्रकार द्वितीय और तृतीय पुरुष के रूप करें । 7. विध्यर्थ में 'ज्ज' अंगवाले धातु को सर्वपुरुष सर्ववचन में 'इ' प्रत्यय भी
लगाया जाता है । उदा. सर्वपुरुष । | होज्ज + इ = होज्जइ, - होएज्ज + इ = होएज्जइ, सर्ववचन ) | होज्जा + इ = होज्जाइ, | होएज्जा + इ = होएज्जाइ,
हसेज्ज + इ = हसेज्जइ, हसेज्जा + इ = हसेज्जाइ 8. संस्कृत के तैयार आज्ञार्थ और विध्यर्थ के रूपों में प्राकृत नियमानुसार परिवर्तन होकर निम्नलिखित रूपों का भी प्रयोग होता है । उदा.
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समायरे ( समाचरेत्) तृ. पु. एकवचन
तृ. पु. एकवचन
तृ. पु. एकवचन
चरे (चरेत्)
पढे (पढेत्) सिया (स्यात्) कुज्जा (कुर्यात्)
अत्थु (अस्तु)
तृ. पु. एकवचन तृ. पु. एकवचन
तृ. पु. एकवचन
उदा. जोव्वणं ( यौवनम् )
कोसिओ (कौशिक)
कोसंबी (कौशाम्बी) गारवं, गउरवं (गौरवम्)
उदा. सेला (शैला)
में औ का अउ
9. शब्द के अन्दर औ हो तो ओ होता है, पौर वगैरह शब्दों होता है तथा गौरव शब्द में औ का आ और अउ होता है । (१/१५९, १६२)
सेन्नं (सैन्यम्) तेलुक्कं (त्रैलोक्यम्) रावणो (ऐरावणः )
=
वज्जए (वर्जयेत्) | लभे (लभेत्)
10. शब्द के अन्दर ऐ का ए होता है तथा दैत्यादि शब्दों में ऐ का अइ होता
है । (१/१४८, १५१)
तृ. पु. एकव.
तृ. पु. एकच.
निवारए (निवारयेत् ) तृ. पु. एकव.
उदा. पयट्टइ (प्रवर्तते)
बूया (ब्रूयात्) बूहि (ब्रूहि )
संतु (सन्तु)
संवट्टिअं (संवर्तितम्)
पउरा (पौराः) पउरिसं (पौरुषम्)
मउणं (मौनम्)
८६
(दैत्यादि
दैत्य, ऐश्वर्य, कैलास, चैत्य, भैरव, वैजवन, वैदेश, वैदेह, वैदर्भ, वैश्वानर, वैशाख, वैशाल, वैश्रवण, वैशम्पायन, वैतालिक, स्वैर और
चैत्य ।)
दइच्चो (दैत्यः) अइसरिअं (ऐश्वर्यम्)
वइएसो (वैदेश:)
तृ. पु. एकव. द्वि.पु. एकव.
तृ. पु. एकव.
सइरं (स्वैरम्)
चइत्तं (चैत्यम्)
11. शब्द के अन्दर र्ह संयुक्त व्यंजन हो तो अन्त्य ह के पूर्व इ रखा जाता है । (२/१०४)
उदा. अरिहंतो (अर्हन्)
गरिहा (गर्हा)
12. शब्द के अन्दर र्त्त का ट्ट होता है - (२/३०)
नट्टओ (नर्त्तकः) केवट्टो (केवर्त्त:)
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अपवाद - धूर्त आदि शब्दों में र्त का ट्ट नहीं होता है - उदा. धुत्तो (धूर्तः)
कित्ती (कीर्तिः) [धूर्त आदि = धूर्त , कीर्ति, आवर्तमान, मूर्त और मुहूर्त ।]
___ शब्दार्थ (पुंलिंग) अमयरस (अमृतरस) = सुधारस, अमृत पिय (प्रिय) = पति, स्वामी का रस
|भव (भव) = संसार उज्जोग (उद्योग) = प्रयत्न, उद्यम मुसावाय ) (मृषावाद) = असत्यभाषण, गव (गर्व) = मान, अभिमान मूसावाय) = झूठ बोलना घण (घन) = मेघ, बादल
मोसावाय) जलण (ज्वलन) = अग्नि
वावार (व्यापार) = व्यापार, व्यवसाय नायपुत्त । (ज्ञातपुत्र) = महावीर भगवान |विज्जाहर (विद्याधर) = विद्याधर, नायउत्त) का नाम, ज्ञातपुत्र विद्यावान निव (नृप) = राजा
विरोह (विरोध) = विरुद्धता पक्ख (पक्ष) = अर्धमास,
विहव (विभव) = समृद्धि, ऐश्वर्य पाय (पाद) = पैर, श्लोक का चौथा भाग वेसवण । (वैश्रवण) = कुबेर पायड । (प्रकट) = प्रकट, खुला वेसमण )
पयड
नपुंसकलिंग अवज्झाण (अपध्यान) = दुर्ध्यान , दुष्ट जोवण (यौवन) = तारुण्य, युवानी चिंतन
| वागरण ) (व्याकरण) व्याकरण शास्त्र, गिह (गृह) = घर
| वायरण) उपदेश, विशेषकथन, गोविसाण (गोविषाण) = गाय का सींग | वारण ) उत्तर चिंतण (चिन्तन) = सोचना | समायरण (समाचरण) = आचरण करना
(पुंलिंग + नपुंसकलिंग) गुण (गुण) = गुण
|विमाण (विमान) = विमान, विद्याधर, पय (पद) = विभक्ति अंतवाला शब्द, देव का वाहन पद, शब्दसमूह
विस (विष) = विष, जहर भप्प । (भस्मन्) = भस्म, राख सिलोगद्ध (श्लोकार्ध) = श्लोक का भस्स)
आधा भाग
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विशेषण अपुन । (अपूर्व) = अद्वितीय, नया | परलोयहिअ (परलोकहित) = परलोक अउवा
|में हित करनेवाला . खल (खल) = दुर्जन, अधम पुरुष पिय (प्रिय) = प्रिय, प्यारा गविअ (गर्वित) = अभिमानी |विहवि (विमविन) = समृद्धिवाला जइण (जैन) = जिनसंबंधी, जैन, हिय (हित) = हितकर जिनेश्वर का भक्त
अव्यय चिरं (चिरम्) = दीर्घकाल पर्यन्त , लम्बे | माइं। (मा) = निषेध अर्थ में, नकार समय तक
मा । नाम (नाम) = वाक्यालंकार, पादपूर्ति, मुहा (मुधा) = व्यर्थ, निकम्मा, संभावना अर्थ में, आमंत्रण अर्थ में सिक्खिउं (हेत्वर्थ कृदन्त) (शिक्षितुम्) = नवरि)
पढ़ने हेतु नवर = (केवल) केवल, मात्र नवरं )
धातु. अरिह (अर्ह) = लायक होना, योग्य | कर्म का क्षय करना, नाश करना होना, पूजा करना
| पवट्ट । (प्र + वृत् = वत्) = प्रवृत्ति करना, उज्जम् (उद् + यम्) = उद्यम करना, पयट्ट) प्रवर्तना प्रयत्न करना
|पमज्ज् (प्र + मद) प्रमाद करना =भूलना उवज्ज (उत् +पद्य) = उत्पन्न होना भज्ज (भ्रस्ज) = भंजना, जलाना आ-दिस् (आ + दिश) = आदेश करना, मर् (मृ) = मरना कहना
| वि + रम् (वि + रम्) = रुकना, विराम निज्जर (नि +जजर) = क्षय करना, पाना
हिन्दी में अनुवाद करें1. तुम्हे एत्थ चिठेह, वीरं जिणं अम्हे अच्चेमो । 2. सच्चं बोलिज्जा । 3. धम्मं समायरे । 4. उज्जमेण विणा धणं न लहेमु ।
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7.
5. सुत्तस्स मग्गेण चरेज्ज भिक्खू । 6. जो गुरुकुले निच्चं वसेज्ज, सो सिक्खणं अरिहेइ ।
मुसावायं न वएज्जसि । 8. तुं नयं न चयिज्जे । 9. जइ तुम्हे विज्जत्यिणो अत्यि, तया सुहं चएह पढणे य उज्जमह । 10. अहं दुद्धं पासी, तुम्हे वि पिवेह । 11. तुब्भे साहूणं समीवं हियाइं वयणाइं सुणिज्जाह, अहंपि सुणामु । 12. भवाओ विरत्ताणं पुरिसाणं गिहे वासो किं रोएज्जा ? | 13. जइणं सासणं चिरं जयउ । 14. आइरिआ दीहं कालं जिणित् । 15. नायपुत्तो तित्थं पवट्टेउ । 16. तुं अकज्जं न कुणेज्जसु, सच्चं च वइज्जहि । 17. गुरूणं विणएण वेयावडिएण य नाणं पढे । 18. अत्थो च्चिअ परिवङ्घउ, जेण गुणा पायडा हंति । 19. जइ सिवं इच्छेह, तया कामेहिन्तो विरमेज्ज । 20. सज्जणे तुम्हे मा निन्देह । 21. पाणीणं अप्पकरं नाणं दंसणं चरित्तं च अत्थि, न अन्नं किं पि ? तओ
तेहिं चिय संसारा पारं वच्चेह । 22. सढेसु माइं वीससेज्जइ । 23. सज्जणेहिं सद्धिं विरोहं कया वि न कुज्जा । 24. हे ईसर ! अम्हारिसे पावे जणे रक्ख रक्खेहि । 25. पाणिवहो धम्माय न सिया । 26. कासइ न वीससे । 27. सच्चं पियं च परलोयहियं च वएज्जा नरा | 28. जइ न हज्जइ आयरिआ, को तया जाणिज्ज सत्थस्स सारं ? | 29. होज्जा जले वि जलणो, होज्जा खीरं पि गोविसाणाओ ।
अमयरसो वि विसाओ, न य पाणिवहा हवइ धम्मो ||1|| 30. वरिसंतु घणा मा वा, मरंतु रिउणो अहं निवो होज्जा ।
सो जिणउ परो भज्जउ, एवं चिंतणमवज्झाणं ||2|| 31. गुणिणो गुणेहिं विहवेहि, विहविणो होंतु गव्विआ नाम ।
दोसेहि नवरि गव्वो, खलाण मग्गो च्चिअ अउव्वो ।।3।।
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32. जइ वि दिवसेण पयं, धरेह पक्खेण वा सिलोगद्वं ।
उज्जोगं मा मुंचह, जइ इच्छह सिक्खिउं नाणं ||4|| 33. कुणउ तवं पालउ, संजमं पढउ सयलसत्थाइं । जाव न झायइ जीवो, ताव न मुक्खो जिणो भाइ ||5|| प्राकृत मे अनुवाद करें
1. प्रभात में स्तोत्रों द्वारा प्रभु की स्तुति करनी चाहिए और बाद में अध्ययन करना चाहिए |
व्यापार की तरह मनुष्य को हमेशा धर्म में भी उद्यम करना चाहिए । विद्याधर विमानों द्वारा गमन करें ।
2.
3.
4.
5.
6.
7.
8.
9.
10. करणीय कार्य में प्रमाद नहीं करना चाहिए । 11. साधुओं को दिन में ही विहार करना चाहिए । 12. तू व्यर्थ कोप न कर, हित को सुन ।
13. तुम पंडित हो इसलिए तत्त्वों का विचार करो ।
14. लोभ को संतोष द्वारा छोड़ ।
15. सभी तीर्थों में शत्रुंजय तीर्थ उत्तम है इसलिए तू वहाँ जा, कल्याण कर और पापों का क्षय कर ।
इन्द्र ने कुबेर को हुकम किया कि ज्ञातपुत्र के घर द्रव्य की वृष्टि करो | तुम धर्म से जीओ और सत्य से सुखी बनो ।
गुरु के आदेश का उल्लंघन नहीं करना चाहिए । हे बालक ! तू व्यर्थ ही राख में घी मत डाल | तुम्हें उपाध्याय के पास व्याकरण सीखना चाहिए । जवानी में धर्म करना चाहिए ।
16. संतोष में जैसा सुख है वैसा सुख अन्य में नहीं है इसलिए संतोष धारण करना चाहिए |
17. जीव वृद्धावस्था में धर्म करने के लिए समर्थ नहीं होता है । 18. अच्छी तरह से पका हुआ अनाज खाना चाहिए ।
19. प्रतिदिन जिनेश्वर का दर्शन और गुरु का उपदेश सुनना चाहिए । 20. जो संसार से तारनेवाला है उस ईश्वर की निन्दा मत कर ।
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एकवचन
| IF EFFE
पाठ 16 आकारान्त ह्रस्व तथा दीर्घ इ-ईकारान्त और उ-ऊकारान्त
स्त्रीलिंग नाम प्रत्यय (३/२९, २७, १८, ७, ६, ९, ५, १२४, १/२७)
बहुवचन उ, ओ, 0
उ, ओ, 0 अ, आ, इ, ए
हि, हिँ , हिं अ, आ, इ, ए
ण, णं अ, आ, इ, ए,
तो, ओ, उ, हिन्तो त्तो, ओ, उ, हिन्तो, सुन्तो | अ, आ, इ, ए
ण, णं अ, आ, इ, ए
सु, सुं 0 .
उ, ओ,0 1. म् और तो प्रत्यय के पूर्व दीर्घस्वर हो तो ह्रस्व होता है । (३/३६)
उदा. माला + म् = मालं, नई + म् = नइं, वहू + म् = वहुं 2. तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी और सप्तमी विभक्ति का आ प्रत्यय,
आकारान्त स्त्रीलिंग नामों को नहीं लगता है । (३/३०)
उदा. मालाअ, मालाइ, मालाए 3. म् और त्तो के अतिरिक्त सभी विभक्ति के प्रत्ययों के पूर्व ह्रस्व स्वर हो तो
दीर्घ होता है । (३/४२) उदा. प. बहुव. मइ + ओ = मईओ, मईउ, मई पं. एकव. मईअ, मईआ, मईइ, मईए,
मइत्तो, मईओ, मईउ, मईहिन्तो 4. दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग नामों को प्रथमा एकवचन में तथा प्रथमा और द्वितीया बहुवचन में आ प्रत्यय भी लगाया जाता है । (३/२७) उदा. प. एकव. नई, नईआ
प. बहुव. नईओ, नईउ, नई, नईआ बी. बहुव.
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5. जो नाम मूल से आकारान्त हैं उनके संबोधन एकवचन में अन्त्य आ का
ए विकल्प से होता है । (३/४१)
उदा. हे माले, हे माला 6. ह्रस्व इकारान्त और उकारान्त नामों के संबोधन एकवचन में विकल्प से
अन्त्य स्वर दीर्घ होता है । (३/४२) उदा. हे मई, हे मइ
हे घेणू, हे धेणु 7. दीर्घ ईकारान्त और ऊकारान्त नामों के संबोधन एकवचन में अन्त्य ई.
ऊ ह्रस्व होते हैं । (३/३८) उदा. हे नइ, हे वहु
रूप
To co to WB
B E L
आकारान्त स्त्रीलिंग रमा (रमा) - रमा एकवचन
बहुवचन रमा
रमाओ, रमाउ, रमा रम
रमाओ, रमाउ, रमा रमाअ, रमाइ, रमाए
रमाहि, रमाहिँ , रमाहिं रमाअ, रमाइ, रमाए
रमाण, रमाणं रमाअ, रमाइ, रमाए,
रमत्तो, रमाओ, रमाउ, रमत्तो, रमाओ, रमाउ, रमाहिन्तो | रमाहिन्तो, रमासुन्तो रमाअ, रमाइ, रमाए -
रमासु, रमासुं | हे रमे, हे रमा
रमाओ, रमाउ, रमा इकारान्त स्त्रीलिंग बुद्धि (बुद्धि) - बुद्धि बुद्धी
बुद्धीओ, बुद्धीउ, बुद्धी बुद्धिं
बुद्धीओ, बुद्धीउ, बुद्धी बुद्धीअ, बुद्धीआ, बुद्धीइ, बुद्धीए । बुद्धीहि, बुद्धीहिँ , बुद्धीहिं च. छ. | बुद्धीअ, बुद्धीआ, बुद्धीइ, बुद्धीए बुद्धीण, बुद्धीणं
बुद्धीअ, बुद्धीआ , बुद्धीइ, बुद्धीए बुद्धित्तो, बुद्धीओ, बुद्धीउ बुद्धित्तो, बुद्धीओ, बुद्धीउ, बुद्धीहिन्तो बुद्धीहिन्तो, बुद्धीसुन्तो
Trito to
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________________
स.
सं.
3
धेणुं
| IF EFFE| IF प
|बुद्धीअ, बुद्धीआ, बुद्धीइ, बुद्धीए बुद्धीसु, बुद्धीसुं हे बुद्धि, बुद्धी
बुद्धीओ, बुद्धीउ, बुद्धी __उकारान्त स्त्रीलिंग घेणु (धेनु) - गाय धेणू
धेणूओ, धेणूउ, धेणू
धेणूओ, धेणूउ, धेणू धेणूअ , धेणूआ, धेणूइ, धेणूए धेहि, धेणूहिँ, धेणूहिं धेणूअ , धेणूआ, धेणूइ, धेणूए धेणूण, धेणूणं धेणूअ , धेणूआ, धेणूइ, धेणूए धेणुत्तो, धेणूओ, धेणूउ, |धेणुत्तो, धेणूओ, धेणूउ, धेणूहिन्तो धेणूहिन्तो, धेणूसुन्तो धेणूअ , धेणूआ, धेणूइ, धेणूए . |घेणूसु, धेणूसुं हे धेणू, धेणु
घेणूओ, घेणूउ, धेणू ईकारान्त स्त्रीलिंग इत्थी (स्त्री) - स्त्री प. इत्थी, इत्थीआ
इत्थीओ, इत्थीउ, इत्थी,
इत्थीआ बी. इत्थ
इत्थीओ, इत्थीउ, इत्थी,
इत्थीआ इत्थीअ, इत्थीआ, इत्थीइ, इत्थीए इत्थीहि, इत्थीहिँ , इत्थीहिं च. छ.
| इत्थीअ, इत्थीआ, इत्थीइ, इत्थीए | इत्थीण, इत्थीणं इत्थीअ, इत्थीआ, इत्थीइ, इत्थीए, इत्थित्तो, इत्थीओ, इत्थीउ, इत्थित्तो, इत्थीओ, इत्थीउ इत्थीहिन्तो, इत्थीसुन्तो इत्थीहिन्तो इत्थीअ, इत्थीआ, इत्थीइ, इत्थीए | इत्थीसु, इत्थीसुं इत्थि
|इत्थीओ, इत्थीउ, इत्थी,
इत्थीआ ऊकारान्त स्त्रीलिंग सासू (श्वश्रु) - सासु सासू
सासूओ, सासूउ, सासू सासुं
सासूओ, सासूउ, सासू सासूअ, सासूआ, सासूइ, सासूए । सासूहि, सासूहिँ , सासूहिं
सं.
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________________
सासुत्ता, सासूी, सासूस
च. छ. सासूअ, सासूआ, सासूइ, सासूए .. |सासूण, सासूणं पं. सासूअ, सासूआ, सासूइ, सासूए
सासुत्तो, सासूओ, सासूउ, सासूहिन्तो सासूहिन्तो, सासूसुन्तो सासूअ, सासूआ, सासूइ, सासूए सासूसु, सासूसुं हे सासु
सासूओ, सासूउ, सासू सर्वनाम के स्त्रीलिंग शब्द ता (तत्)
इमा (इदम्) जा (यत्)
सव्वा (सर्वा) का (किम्)
अन्ना (अन्या) एआ-एता (एतद्) + इन सर्वनामों के स्त्रीलिंग रूप आकारान्त स्त्रीलिंग नाम के समान ही होते हैं। 8. ता और एता का प्र. एकवचन क्रमशः सा और एसा होता है । (३/३३) 9. ता का ती, जा का जी, का का की, एआ का एई और इमा का इमी-इस
प्रकार शब्द मानकर ईकारान्त स्त्रीलिंग के समान विकल्प से भी रूप होते हैं, किन्तु ती, जी और की के प्र. द्वि. एकवचन और षष्ठी बहुव. में रूप नहीं होते हैं । (३/८६) (ये रूप आगे पाठ 24 में विस्तारपूर्वक बतायेंगे, संक्षेप में निम्नलिखित हैं)
सव्वा (सर्वा) - सभी एकवचन
बहुवचन सव्वा
सव्वाओ, सव्वाउ, सव्वा सव्वं
सव्वाओ, सव्वाउ, सव्वा सव्वाअ, सव्वाइ, सव्वाए सव्वाहि, सव्वाहिँ, सव्वाहिं
शेष रमावत्
ता - ती (तद्) - वह एकवचन
बहुवचन सा
ताओ, ताउ, ता तीओ, तीउ, ती, तीआ ताओ, ताउ, ता | तीओ, तीउ, ती, तीआ
| IF
IF 4
त
-
२४
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________________
15
कि
ताअ, ताइ, ताए
ताहि, ताहिँ, ताहिं तीअ, तीआ, तीइ, तीए । तीहि, तीहिँ, तीहिं ताअ, ताइ, ताए
ताण, ताणं तीअ, तीआ, तीइ, तीए
शेष रमा और इत्थी वत् जा - जी (यत्) जो
जाओ, जाउ, जा जीओ, जीउ, जी, जीआ जाओ, जाउ, जा
जीओ, जीउ, जी, जीआ जाअ, जाइ, जाए जाहि, जाहिँ, जाहिं जीअ, जीआ, जीइ, जीए | जीहि, जीहिँ , जीहिं जाअ, जाइ, जाए
जाण, जाणं जीअ, जीआ, जीइ, जीए ।
शेष ता - ती वत् का - की (किम्) - कौन
काओ, काउ, का कीओ, कीउ, की, कीआ काओ, काउ, का
कीओ, कीउ, की, कीआ काअ, काइ, काए
काहि, काहिँ, काहिं कीअ, कीआ, कीइ, कीए । कीहि, कीहिँ, कीहिं काअ, काइ, काए
काण, काणं कीअ, कीआ, कीइ, कीए ।
का
शेष ता - ती वत्
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________________
एआ - एई (एतद्) - यह एसा
एआओ, एआउ, एआ
एईओ, एईउ, एई, एईआ एअं, एइं
एआओ, एआउ, एआ,
एईओ, एईउ, एई, एईआ एआअ , एआइ, एआए, । एआहि, एआहिँ, एआहिं,
एईअ, एईआ, एईइ, एईए | एईहि, एईहिँ , एईहिं च. छ.
एआअ, एआइ, एआए, | एआण, एआणं एईअ, एईआ, एईइ, एईए | एईण, एईणं
शेष ता - ती वत्
इमा - इमी (इदम्) - यह इमा,
इमाओ, इमाउ, इमा, इमी, इमीआ .....
इमीओ, इमीउ, इमी, इमीआ इमं, इमिं
इमाओ, इमाउ, इमा,
इमीओ, इमीउ, इमी, इमीआ इमाअ, इमाइ, इमाए, इमाहि, इमाहिँ, इमाहिं,
इमीअ, इमीआ, इमीइ, इमीए इमीहि, इमीहिँ, इमीहिं च. छ. इमाअ, इमाइ, इमाए, इमाण, इमाणं, इमीअ, इमीआ, इमीइ, इमीए| इमीण, इमीणं
शेष ता - ती 10. ड्म और क्म का प्प होता है । (२/५२)
उदा. कुप्पलं (कुड्मलम्), रुप्पिणी (रुक्मिणी) 11. शब्द के अन्दर र्श अथवा र्ष संयुक्त व्यंजन हो तो संयुक्त के अन्त्य
व्यंजन श-ष के पूर्व में इ आगम विकल्प से रखा जाता है तथा तप्त, वज्र शब्द में भी संयुक्त अन्त्य व्यंजन के पूर्व इ आगम विकल्प से रखा जाता है । (२/१०५) उदा. आयरिसो । (आदर्शः) | दरिसणं । (दर्शनम्) आयसो ।
दंसणं ।
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वरिसं । (वर्षम्)
|तविअं । (तप्तम्) वासं ।
तत्तं । वारिसा । (वर्षा)
वइरं । (वज्रम्) वासा ।
वज्जं । 12. श्री, हरी, कृत्स्न, क्रिया इन शब्दों में संयुक्त अन्त्य व्यंजन के पूर्व इ
रखी जाती है । (२/१०८) उदा. सिरी (श्री:)
कसिणो (कृत्स्नः) हिरी (हरी)
किरिया (क्रिया) 13. संस्कृत में आनेवाले तस् प्रत्यय के स्थान पर तो - दो प्रत्यय विकल्प
से लगता है, तो - दो न हो तब अकार सहित विसर्ग हो तो पूर्व स्वर
और व्यंजनसहित विसर्ग का ओ होता है । (१/२७, २/१६०, ३/३२) उदा. जत्तो, जदो, जओ (यतः) अन्नत्तो, अन्नदो, अन्नओ (अन्यतः)
कत्तो, कदो, कओ (कुतः) पुरओ (पुरतः) तत्तो, तदो, तओ (ततः) मग्गओ (मार्गतः)
सव्वत्तो, सव्वदो, सवओ (सर्वतः) 14. विशेषण नाम का स्त्रीलिंग शब्द के अन्त में आ अथवा ई लगाने पर
बनता है किन्तु अकारान्त विशेषण नामों का स्त्रीलिंग प्रायः आ लगाने
पर बनता है, कुछ स्थानों में ई भी लगता है | उदा. पिय-पिया, पिआ (प्रिया) तारिस-तारिसा, तारिसी (तादृशी)
निच्च-निच्चा (नित्या) हसमाण-हसमाणा, हसमाणी वल्लह-वल्लहा (वल्लभा) (हसमाना) सरिस-सरिसा सरिसी (सदृशी)| हसंत-हसंता, हसंती (हसन्ती)
शब्दार्थ (स्त्रीलिंग) अवरा (अपरा) = पश्चिम दिशा इत्थी, थी (स्त्री) = स्त्री, नारी आणा (आज्ञा) = आदेश, हुकम , आज्ञा | उत्तरा (उत्तरा) = उत्तरदिशा आवया (आपद्-आपदा) = आपत्ति , कला (कला) = कला
कहा (कथा) = कहानी इड्डि । (ऋद्धि) = वैभव, ऐश्वर्य, समृद्धि कामधेणु (कामधेनु) = कामधेनु गाय
किवा (कृपा) = दया
पीड़ा
रिद्धि
- ९७
%3
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________________
कोसा (कोश्या) = वेश्या का नाम पुवा (पूर्वा) = पूर्व दिशा गंगा (गंगा) = गंगा नदी
बहिणी । (भगिनी) = बहन छुहा (क्षुध) = क्षुधा, भूख भइणी । छुहा (सुधा) = अमृत
बालिआ (बालिका) = बालिका, लड़की छाही । (छाया) = धूप का अभाव, | बाहा (बाहु) हाथ, भुजा छाया । प्रतिबिम्ब , छाया बुद्धि (बुद्धि) = बुद्धि जउँणा (यमुना) = नदी का नाम . भज्जा (भार्या) = भार्या , पत्नी जिब्मा । (जिह्वा) = जीभ मज्जाया (मर्यादा) = सीमा, हद, जीहा )
मट्टिआ (मृत्तिका) = मिट्टी जोण्हा (ज्योत्स्ना) = चन्द्रप्रकाश |महासई (महासती) = परमशीलवती तीण्हा (तृष्णा) = स्पृहा, वांछा, स्त्री पिपासा, प्यास
रुप्पिणी (रुक्मिणी) = कृष्ण की स्त्री थुइ (स्तुति) = स्तवना, गुणकीर्तन लच्छी (लक्ष्मी) = लक्ष्मी दया (दया) = दया, अनुकम्पा, करुणा लया (लता) = लता, बेल दाढा (दंष्ट्रा) = दाढ़
|वणस्सइ । (वनस्पति) = वनस्पति, दाहिणा (दक्षिणा) = दक्षिणदिशा वणप्फड हरियाली दिसा (दिश्-दिशा) = पूर्वादि दिशा |वत्ता (वार्ता) = कहानी दोवई (द्रौपदी) = पांडवों की पत्नी वरिसा ) (वर्षा) = चातुर्मास , वर्षावास धिइ (धृति) = धीरज, धैर्य, धीरता वासा ।। नारी (नारी) = स्त्री
वसहि । (वसति) = स्थान, आश्रय नीइ (नीति) = न्याय, उचित व्यवहार | वसइ निसा (निशा) = रात्रि
वहू (वधू) = नारी, बहू, पुत्र की पत्नी पइण्णा (प्रतिज्ञा) = प्रतिज्ञा, नियम |वियणा। (वेदना) = दुःख, पीड़ा पण्णा (प्रज्ञा) = बुद्धि
वेयणा । पवित्तया (पवित्रता) = पवित्रता विज्जा (विद्या) = विद्या, शास्त्रज्ञान पडिमा (प्रतिमा) = प्रतिमा, मूर्ति, बुड्डि (वृद्धि) = वृद्धि, बढ़ौती, प्रगति प्रतिबिम्ब
वेसा (वेश्या) = वेश्या पिच्छी (पृथ्वी) = पृथ्वी, भूमि सज्जा ) (शय्या) = शयन, गद्दी पुढवी । (पृथिवी) = पृथ्वी
सेज्जा सन्ना (संज्ञा) = चेष्टा, ज्ञान
पुहवी
रा
-
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सरस्सई (सरस्वती) = वाणी देवी, | सुण्हा ) (स्नुषा) = पुत्रवधू सरस्वती देवी
सुसा समाहि (समाधि) = चित्त की स्वस्थता, ण्हुसा ) मन की शान्ति
सिरी (श्री) = लक्ष्मी सासू (श्वश्रू) = सास
सुहा (सुधा) = अमृत सिक्खा (शिक्षा) = शिक्षण, दण्ड सेणा (सेना) = सेना, सैन्य, लश्कर
सेवा (सेवा) = सेवा, भक्ति हिरी (हीरी) = लज्जा, शर्म
कुमार
(पुलिंग) अत्य (अस्त) अस्ताचल पर्वत पहाव (प्रमाव) = प्रभाव, शक्ति, सामर्थ्य अहि (अहि) सर्प, साँप
बाहु (बाहु) = हाथ, भुजा आहार (आधार) आधार, आलम्बन, रक्खस (राक्षस) = राक्षस आश्रय
|विक्कम (विक्रम) = विक्रमराजा कुमर । (कुमार) कुमार विवाअ (विवाद) = चर्चा , वाग्युद्ध,
वादविवाद दुज्जोहण (दुर्योधन) विशेषनाम, सिमि(वि)ण (स्वप्न) = स्वप्न
सुमि(वि)ण पंडव (पांडव) पाण्डव, पाण्डु के पुत्र हेमचन्द (हेमचन्द्र) = श्री
हेमचन्द्रसूरिजी
(नपुंसकलिंग) अत्थ (अस्त) = अंतर्धान, मृत्यु दाहिणपास (दक्षिणपार्थ) = दाहिनी ओर असाय (अशात) = दुःख, पीड़ा देवालय (देवालय) = देव का मन्दिर उग । = (उदक) पानी
सवण (श्रवण) = सुनना उदग
|साय (शात) = सुख
दुर्योधन
पुंलिंग + नपुंसकलिंग आगास (आकाश) = आकाश विसेस (विशेष) = विशेष, प्रकार, भेद
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विशेषण
| माणि (मानिन्) = अभिमानी वसीहूअ ( वशीभूत) = वश हुआ वाम (वाम) = बाँया, प्रतिकूल विसाल (विशाल) = बड़ा
सत्त (सक्त) = आसक्त समाण (समान)
समान
| समीहिअ ( समीहित) = इष्ट, वांछित
पउण (प्रगुण) = होशियार
सार (सार) = श्रेष्ठ, उत्तम
पत्थिअ (प्रार्थित) = मांगा हुआ, प्रार्थना सुक्क (शुक्ल) = शुक्ल, शुक्ल = सफेद वर्णवाला, सफेद
किया हुआ मांसभोइ (मांसभोजिन् )
खानेवाला
अउल्ल ) (अतुल्य) = असाधारण अतुल्ल
किण्ह (कृष्ण) = श्यामवर्णवाला, काला गिहासत्त (गृहासक्त) = घर में आसक्त जाय (जात) = उत्पन्न हुआ दढ (दृढ ) = मजबूत, निश्चल, समर्थ दव्वलुद्ध (द्रव्यलुब्ध) द्रव्य में लोभी निय (निज) = अपना
= मांस
उअ (पश्य) = 'तू देख' इस अर्थ में उवरि-रिं । (उपरि) = ऊर्ध्व, ऊपर अवरि-रिं
जदो जत्तो
अव्यय
उ) (तु) = समुच्चय, अवधारण, किन्तु, जइणा (यदा) = जब तु निश्चय, प्रशंसा, पादपूर्ति जया
पाओ
| पायसो
जओ ( यतः ) = जिससे, जिस
कारण से,
जिस तरफ से
पाएण
पाणं
आइग्घ् (आ + घ्रा) = सूंघना आढव् (आ + रभ्) = शुरू करना आ + राह् (आ + राध्) = आराधना
करना, उपासना करना
धातु
=
सदृश, तुल्य,
पुरा (पुरा) पूर्व, पहले
मुसा
मूसा (मृषा) = असत्य,
मोसा
| उट्ठ
(प्रायस् ) = ज्यादातर,
अधिकतर, शायद प्रायः
झूठा
(उत् + स्था ) = उठना
उट्ठा
गिज्झ् (गृध्-गृध्य) = आसक्त होना | उद्दाल् ( आ + छिद्) = छीनना
१००
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उदे (उद् + इ) उदय होना | झर् (क्षर) = झरना, टपकना उबिव् (उद् + विज्) = उद्वेग पाना, | पलोह (प्र + लुट) = लोटना, सोना कम्पना, कंटालना, खिन्न होना पारं-गच्छ (पारङ्गच्छ) = पार पाना, ए (इ) = जाना
पूरा करना कुप्प् (कुप्-कुप्य) = कोप करना
लुह (मृज) = साफ करना पहुप्प (प्र + भू) = समर्थ होना वसीकर । (वशी + कृ) = वश करना गंट् । (ग्रन्थ) = गूंथना, रचना करनी, | वसीकुण गंथ बनाना
|वह (वह) = वहन करना, ले जाना जण् (जनय) = उत्पन्न करना, पैदा | हिंस् (हिंस) = हिंसा करना करना
हिन्दी में अनुवाद करें1. जस्स जओ आइच्चो उदेइ, सा तस्स होइ पुव्वा दिसा, जत्तो अ
अत्थमेइ सा उ अवरा दिसा नायव्वा, दाहिणपासम्मि य दाहिणा दिसा, उत्तरा य वामेण ।
किवाए विणा को धम्मो ? 3. पंडवाणं सेणाइ दुज्जोहणस्स सेणाए सह जुज्झं होत्या, तम्मि जुद्धे
पंडवाणं जयो आसि । 4. कोसा वेसा सव्वासु कलासु निउणा, नच्चम्मि उ विसेसेण कुसला | 5. सव्वा कला धम्मकला जएइ । 6. सव्वा कहा धम्मकहा जिणेइ । 7. जस्स जीहा वसीहूआ, सो परमो पुरिसा । 8. नारीओ जोण्हाए रमेन्ति । 9. छुहाए समाणा वेयणा नत्थि । 10. पंडवाणं भज्जा दोवई सव्वासु इत्थीसु उत्तिमा महासई अहेसि । 11. वणस्सईणं पि सन्ना अत्थि तओ दगं मट्टिआण रसं च आहरेज्जा | 12. सज्जणा पइण्णाहिंतो कहं पि न चलन्ति । 13. इत्थीओ सज्जाहिन्तो उट्ठन्ति, आवासयाइं च किच्चाई कुणन्ति । 14. सासूए ण्हूसाए उवरि, बहूइ य सासूअ अवरिं, अईव पीई अस्थि ।
-१०१
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15. दिवहो निसं, निसा य दिणं अणुसरेइ । 16. जणा रिद्धिए गविट्ठा पाएण हवंति । 17. जोव्वणं असारं, लच्छी वि असारा, संसारो असारो, तओ धम्मम्मि मइं
दढं कुज्जा । 18. थी एगाए बाहाए भारं नेहीअ । 19. कामे सत्ताओ इत्थीओ कुलं सीलं च न रक्खन्ति । 20. उअ थीणं सरूवं, संसारा य उव्विवेसु । 21. जो संघस्स आणं अइक्कमेइ, सो सिक्खं अरिहे । 22. जउँणाए उदगं किण्हं, गंगाअ य दगं सुक्कमत्थि । 23. हेमचंदो सरस्सइं देविं आराहीअ । 24. सासू वहूणं देवालए गमणाय कहेइ । 25. जो हिरिं, नीइं, धीइं च धरेइ, सो सिरिं लहेइ । 26. अहिणो दाढाए विसं झरेइ ।। 27. तिण्हा आगासेण समा विसाला | 28. तरुस्स छाहीए थीओ गाणं काहीअ । 29. विक्कमो निवो पिच्छीए सुट्ठ पालगो आसि । 30. कुमारो सव्वासु कलासु पहुप्पइ । 31. पहुणो महावीरस्स अतुल्लाए सेवाए गोयमो गणहरो संसारं तरीअ । 32. धन्नाओ ताओ बालिआऊ, जाहिं सुमिणे वि न पत्थिओ अन्नो पुरिसो ।
प्राकृत में अनुवाद करें1. बड़ों की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए । 2. चोर ने ब्राह्मण की लक्ष्मी छीन ली। 3. पुत्र की बहू सास के सभी कार्य विनयपूर्वक करती है । 4. जब व्यक्ति की बुद्धि नष्ट होती है तब उसके साथ बुद्धि और धीरता
भी नष्ट होती है। 5. धर्मीजन धन की वृद्धि में धर्म का त्याग नहीं करता है । 6. सरस्वती और लक्ष्मी (सिरि) के विवाद में कौन जीते ?
१
१०२
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________________
7.
8.
मनुष्य पीड़ा में बहुत मोहित होता है ।
सभी प्राणी सुख (साय) की इच्छा करते हैं और दुःख (असाय) की इच्छा नहीं करते हैं
9.
उत्तम पुरुष जिस कार्य का आरंभ करते हैं, उसको जरूर पूरा करते हैं । 10. ग्रीष्म ऋतु में सभी पशु, वृक्षों की छाया में विश्रान्ति लेते हैं । 11. दक्षिण दिशा में चोर गये
12. सभी जगह सुखियों को सुख और दुःखियों को दुःख होता है । 13. मैं जिनेश्वर की प्रतिमाओं की स्तुतियों द्वारा स्तुति करता हूँ ।
14. साँप जीभ द्वारा दूध पीते हैं ।
15. स्त्रियाँ बाग में घूमती हैं और पुष्पों को सूंघती हैं ।
16. उसने तीर्थंकरों की कहानियों द्वारा बोध पाया ।
17. पहले पृथ्वी पर बहुत राक्षस थें ।
18. दुर्जन की जीभ में अमृत है लेकिन हृदय में विष है ।
19. मैंने बहनों को बहुत धन दिया ।
20. कृष्ण की स्त्री रुक्मिणी का पुत्र प्रद्युम्न है ।
21. सास बहू पर कोप करती है ।
22. वर्षावास में मुनि एक ही स्थान (वसहि) में रहते हैं । 23. रात्रि में स्त्रियाँ चन्द्र के प्रकाश में नृत्य करती हैं ।
24. प्रभु की सेवा और कृपा से कल्याण होता है ।
25. साधु प्राणान्त में भी असत्य नहीं बोलते हैं । 26. बालक गद्दी पर लेटता है ।
27. स्त्री, लता और पंडित आश्रय बिना शोभा नहीं देते हैं ।
१०३
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पाठ 17 ..
भविष्यकाल प्रत्यय (३/१६६, १६७, १६८, १६९) | एकवचन
बहुवचन प्रथम पुरुष |स्सं, स्सामि,
स्सामो, हामो, हिमो, हामि, हिमि
स्सामु, हामु, हिमु, स्साम, हाम, हिम,
हिस्सा, हित्था द्वितीय पुरुष | हिसि, हिसे
हित्था, हिह तृतीय पुरुष | हिइ, हिए
हिन्ति, हिन्ते, हिरे 1. भविष्यकाल - आनेवाला समय (काल) अर्थात् जो क्रिया होनेवाली है वह
बताते हैंउदा. रामो गामं गमिहिइ = राम गाँव में जायेगा ।
अज्ज नयरं गच्छिस्सं = आज मैं नगर में जाऊंगा । 2. आर्ष प्राकृत में द्वितीय और तृतीय पुरुष में निम्नलिखित प्रत्ययों का भी - प्रयोग किया जाता है । प्र. पु. | स्ससि, स्ससे
स्सह द्वि. पु. स्सइ, स्सए
स्सन्ति, स्सन्ते 3. ये प्रत्यय लगाने पर पूर्व अ का इ अथवा ए होता है ।
हस् धातु के रूप | एकवचन.
बहुवचन प्र. पु.
हसिस्सं, हसेस्सं, हसिस्सामो-मु-म, हसिस्सामि, हसेस्सामि, हसिहामो-मु-म, हसिहामि, हसेहामि, हसिहिमो-मु-म, हसिहिमि, हसेहिमि हसिहिस्सा, हसिहित्था,
हसेस्सामो-मु-म, हसेहामो-मु-म,
ॐ
ॐथ
१०४
CHER
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हसेहिमो-मु-म,
हसेहिस्सा, हसेहित्या द्वि. पु. हसिहिसि, हसिहिसे, हसिहित्था, हसिहिह,
हसेहिसि, हसेहिसे, हसेहित्या, हसेहिह, हसिस्ससि, हसेस्ससे, हसिस्सह, हसेस्सह
हसेस्ससि, हसेस्ससे तृ. पु. हसिहिइ, हसिहिए, हसिहिन्ति-न्ते, हसिहिरे,
हसेहिइ, हसेहिए, हसेहिन्ति-न्ते, हसेइरे, हसिस्सइ, हसिस्सए, हसिस्सन्ति-न्ते,
हसेस्सइ, हसेस्सए हसेस्सन्ति-न्ते ज्ज, ज्जा लगाने के बाद - सर्वपुरुष । हसेज्ज, हसेज्जा, सर्ववचन । हसिज्ज, हसिज्जा
ने धातु के रूप एकवचन
बहुवचन नेस्सं, नेस्सामि, नेस्सामो, मु-म, नेहामि, नेहिमि
नेहामो-मु-म नेहिमो-मु-म
नेहिस्सा, नेहित्था द्वि. पु. नेहिसि, नेहिसे,
नेहित्था, नेहिह, नेस्ससि, नेस्ससे
नेस्सह तृ. पु. नेहिइ, नेहिए.
नेहिन्ति-न्ते, नेहिरे नेस्सइ, नेस्सए
नेस्सन्ति, नेस्सन्ते
प्र. पु.
+ पुरुषबोधक प्रत्ययों के पूर्व अ लगाने के बाद
नेअ अंग के रूप प्र. पु. एकवचन - नेइस्सं, नेइस्सामि, नेइहामि, नेइहिमि,
नेएस्सं, नेएस्सामि, नेएहामि, नेएहिमि इसी तरह सर्वपुरुष सर्ववचन में रूप बनाने चाहिए । + प्रत्ययों के पूर्व और स्थान में ज्ज, ज्जा लगाने के बाद -
१०५
a
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नेज्ज-नेज्जा के रूप नेज्जस्सं, नेज्जस्सामि, नेज्जहामि, नेज्जाहामि, नेज्जहिमि, नेज्जाहिमि, नेज्ज, नेज्जा आदि रूप बनते हैं।
नेएज्ज-नेएज्जा अंग के रूप प्र. पु. एकवचन - नेएज्जस्सं, नेएज्जस्सामि, नेएज्जहामि, नेएज्जाहामि,
नेएज्जहिमि, नेएज्जाहिमि, नेएज्ज, नेएज्जा
आदि रूप बनते हैं। इसी तरह सर्वपुरुष सर्ववचन में रूप बनाने चाहिए । 4. कर् धातु का भविष्यकाल में 'का' आदेश विकल्प से होता है, आदेश न
हो तब तो प्रथम पुरुष एकवचन में काहं रूप विकल्प से होता है । इसी प्रकार दा धातु का भी दाहं रूप विकल्प से होता है ।
का (कृ) के रूप एकवचन
बहुवचन प्र. पु. काहं, कास्सं
कास्सामो-मु-म, कास्सामि, काहामि, काहामो-मु-म, काहिमि
काहिमो-मु-म
काहिस्सा, काहित्था द्वि. पु. | काहिसि, काहिसे
काहित्था, काहिह तृ. पु. | काहिइ, काहिए, काही । काहिन्ति-न्ते, काहिरे 5. संयुक्त व्यंजन के पूर्व 'उ' का 'ओ' होता है और 'इ' का 'ए' विकल्प
से होता है। उदा. पोक्खरं (पुष्करम्) . वेण्हू, विण्हू (विष्णुः)
पोत्थओ (पुस्तकः) धम्मेल्लं, धम्मिल्लं (धम्मिल्लम्)
मोण्डं (मुण्डम्) पेण्डं, पिण्ड (पिण्डम्) अपवाद : किसी स्थान में 'ए' नहीं होता है । उदा. चिंता (चिन्ता)
-
१०६
-
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प्र. पु.
प्र. पु.
द्वि. पु.
तृ. पु.
कर (कृ)
करिस्सं, करिस्सामि, करेस्सं, करेस्सामि
वगैरह रूप हस् धातु के अनुसार जानने चाहिए ।
दा
दाहं, दास्सं, दास्सामि, दाहामि,
दाहिम
दाहिसि, दाहिसे, दास्ससि, दास्ससे दाहिइ-दाहिए, दाही,
दास्सइ, दास्सए
करिहामि, करिहिमि,
करेहामि, करेहिमि
दास्सामा -- म दाहामो-मु-म दाहिमो-मु-म
"
१०७
·
दाहिस्सा, दाहित्या दाहित्था, दाहिह,
दास्सह
दाहिन्ति - न्ते, दाहिरे, दास्सन्ति-न्ते
षइ भाषा में प्रथम पुरुष एकवचन में हिस्सं प्रत्यय भी लगता है । उदा. हसिहिस्सं, नेहिस्सं, करिहिस्सं, होहिस्सं (षड्० २-६-३३) शब्दार्थ (पुंलिंग)
आलाव (आलाप) = सूत्र का आलावा | मिच्च (नृत्य) = नौकर, कर्मचारी, सेवक उज्जयंत (उज्जयन्त) = गिरनार पर्वत मक्कड (मर्कट) = बन्दर कलि (कलि) = कलियुग, कलह, लोद्धअ (लुब्धक) = शिकारी लोह (लोभ) = लोभ, तृष्णा सत्थ (सार्थ) = सार्थ, मुसाफिरों का
झगड़ा
गीयत्थ) (गीतार्थ) = साधु की सामाचारी गीय जाननेवाले साधु गोवाल (गोपाल) = गोपाल जटिल (जटिल ) = तापस, जटाधारी तावस ( तापस) = तापस, योगी पारद्धि (पापर्धि) = शिकारी
समूह
| समय (समय) = काल, समय, अवसर साण (श्वन्) = कुत्ता
| सामि (स्वामिन् ) = स्वामी, मालिक | सिरिवद्धमाण (श्रीवर्धमान) = चौबीसवें जिनेश्वर, श्रीमहावीर
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(नपुंसकलिंग) आसण (आसन) = आसन, बैठने योग्य | दव । (द्रव्य) = द्रव्य, धन, संपत्ति चीज
-दविअ गाण (गान) = गाना, गीत भय (भय) = भय, भीति, चच्चर (चत्वर) = चौटा, बाजार वाणिज्ज (वाणिज्य) = व्यापार तिहुअण । (त्रिभुवन) = तीन लोक समोसरण (समवसरण) = समवसरण तिहुवण ।
समवसरण सरोअ (सरोज) = कमल
__ (पुंलिंग + नपुंसकलिंग) आगमत्थ (आगमार्थ) = सूत्रार्थ, आगम | सर (सरस्) = सरोवर का अर्थ
सिद्धालय (सिद्धालय) = सिद्धों का मंदिर, सिद्धालय
(स्त्रीलिंग)
अच्चणा (अर्चना) = पूजा दिक्खा (दीक्षा) = दीक्षा , प्रव्रज्या, अच्चा (अर्चा) = पूजा, सत्कार संन्यास अवण्णा (अवज्ञा) = अपमान, देसविरइ (देशविरति) = देश से पाँचों अवगणना, तिरस्कार
नियमों का पालन, अल्पांशे पापोंका कन्ना (कन्या) = कन्या
त्याग खंति (क्षान्ति) = क्रोध का अभाव, | घेणु (धेनु) = गाय शान्ति, क्षमा
नई (नदी) = नदी, सरिता खमा (क्षमा) =क्रोध का अभाव, शान्ति, नावा (नौ) = नौका, वाहन माफी
निंदा (निन्दा) = निन्दा गरिहा (गर्हा) = पाप की निन्दापया (प्रजा) = प्रजा, संतति चमेडा-ला । (चपेटा) = थप्पड़, तमाचा पाढसाला (पाठशाला) = पाठशाला चवेडा-ला)
पीइ (प्रीति) = प्रेम चिंता (चिन्ता) = चिन्ता, विचार पुण्णिमा, (पूर्णिमा) = पूनम, पूर्णिमा जीवदया (जीवदया) = जीवों की दया बोहि (बोधि) = शुद्ध धर्म की प्राप्ति जीवहिंसा (जीवहिंसा) = जीव का वध, भत्ति (भक्ति) = भक्ति, सेवा, जीव का नाश करना
मइ (मति) = बुद्धि
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मक्खिआ। (मक्षिका) = मक्खी वीणा (वीणा) = वीणा, एक प्रकार का मच्छिआ
वाजिंत्र माया (माया) = माया, कपट, छल संकला (श्रृङ्खला) = बेड़ी, जंजीर, माला (माला) = माला
सांकल रत्ति । (रात्रि) = रात्रि
समिद्धि । (समृद्धि) = आबादी, प्रगति राइ
सामिद्धि रिउ । (ऋतु) = वसन्तादि ऋतु सलाहा (श्लाघा) = प्रशंसा उउ
सव्वविरइ (सर्वविरति) = पाँचों महाव्रतों वणिया। (वनिता) = स्त्री
का पालन, सभी पापव्यापारों का त्याग विलया।
साहा (शाखा) = वृक्ष की शाखा , डाली
विशेषण अणुपत्त (अनुप्राप्त) = प्राप्त किया हुआ | पविट्ठ (प्रविष्ट) = प्रवेश किया हुआ उग्ग (उग्र) = तीव्र , प्रबल |लोद्धअ (लुब्धक) = लोभी, लम्पट कुडुबि (कुटुम्बिन्) = कुटुम्बवाला, वावारि (व्यापारिन्) = व्यापारी गृहस्थ
|वियाररहिअ (विकाररहित) = चाइ (त्यागिन) = दानी, त्यागी |विकाररहित थिर (स्थिर) = निश्चल, स्थिर सुमिणतुल्ल । (स्वप्नतुल्य) = दुहि (दुःखिन्) = दुःखी
सुविणतुल्ल स्वप्नसमान धणि (धनिन्) = धनवान
सुहि (सुखिन्) = सुखी
अव्यय अदुव ) (दे.) = कि, अथवा कए । (कृते) = के लिए, निमित्त , अदुवा
कएण-णं अदु ।
तो (तदा) = तब , उस समय उदाहु । (उताहु) = अथवा, कि, . पए (प्रगे) = प्रभात में उयाहु)
पुरओ (पुरतस्) = आगे णु । (नु) = वितर्क , प्रश्न, हेतु, पश्चाताप नु ।
- १०९
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कीड् (क्रीड) कील्
=
=
क्रीड़ा करना,
=
धातु
गण् (गण) = गिनना
|नास् (नाशय् ) = नाश करना
गल् (गल्) गलना, सड़ना, नष्ट मन्न् (मन्-मन्य) = मानना, विचारना होना, समाप्त होना, झरना मग्ग् (मार्गय्) = ढूंढना, मांगना
|
दुह ) (दुह) = दोहना दोह /
डस् डंक मारना, हँसना बुक्कू } (भष्) = भौंकना
भस्
लिह् ) (लिह्) = चाटना
णिसज्ज् } (निमज्ज्) = डूबना
लेह
हिन्दी में
1.
अज्ज साहवो नयराओ विहरिस्सन्ति । 2. गोवाला पए धेणूओ दोहिहिन्ति । अहं सीसाणमुवएसं करिस्सं ।
3.
4.
मक्खिआ महुं लेहिस्सइ ।
5.
पारद्विणो अरण्णे वच्चिहिन्ते, तहिं च वीणाए झुणिणा हरिणीओ वसीकरिस्सन्ते, पच्छा य तांओ हिंसिहिरे ।
6.
तुं रणे जाज्जाहिसे, तया सिंघो चवेडाए पहरेहिए । लोदओ मोग्गरेण जणेण हणीअ ।
7.
8.
तुम्हे गुरु भत्तीए सेवेह, ताणं किवाए कल्लाणं भविस्सइ ।
9.
कन्नाओ अज्ज पहुणो पुरओ नच्चिस्सन्ति, गाणं च काहिन्ति ।
10. उज्जाणे अज्ज जाइस्सामो, तत्थ य सरंसि जायाइं सरोयाणि जिणिंदाणं
अच्चणाए गिण्हिहिस्सा ।
अनुवाद करें
11. अज्ज अहं तत्ताणं चिंताए रत्ति नेस्सं ।
12. तं कज्जं काहिसि तो दव्वं दाहं ।
13. कालिम्मि नरिंदा धम्मेण पयं न पालिहिरे ।
14. जइ सो दुज्जणो * होही, तया परस्स निंदाए तूसेहिइ ।
*
एक पद में कभी-कभी सन्धि होती है । (पा. 2.नि. 3)
उदा.
काहिइ-काही, होहिइ-होही, दाहिइ-दाही
११०
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________________
15. पुत्ताणं सलाहं न काहं
16. तीए मालाए सप्पो अत्थि, जइ मालं फासिहिसे तया सो डहिस्सइ ।
17. कल्ले पुण्णिमाए मयंको अईव विराइहिइ ।
18. विज्जत्थिणो अज्झयणाय पाढसालं जाज्जाहिरे ।
19. अहुणा अम्हे पवयणस्स आलावे गणिहित्था ।
20. अम्हे वाणिज्जेण धणिणो होइहिमो, तुम्हे नाणेण पंडिआ होस्सह । 21. धम्मेण नरा सग्गं सिवं वा लहिस्सन्ति ।
22. अज्ज समोसरणे सिरिवद्धमाणो जिणिंदो देसणं काही, तत्थ य बहुणो भव्वा बोहिं अदुव देसविरइं अदुवा सव्वविरइं च गिण्हेहिरे ।
23. जइ तुम्हे सुत्ताणि भणेज्जा तया गीयट्ठा होज्जाहित्था ।
24. कल्लम्मि धम्मं काहामि त्ति सुविणतुल्लमि जियलोए को णु मन्नइ ? | 25. जिणधम्माओ अन्नह सम्मं जीवदयं न पासेस्सह । 26. कलिम्मि पविट्ठे मुणीणं, आगमत्था गलिहिन्ति ।
आयरिआ वि सीसाणं, सम्मं सुअं न दाहिंति ||1|| 27. नरवइणो कुटुंबिणा सह जुज्झिस्सन्ति ।
28. जे जिणपडिमं, सिद्धालयं वा पूइस्सन्ति ताणं घरं थिरं होही । नवि अत्थि न वि होही, पाएण तिहुवणम्मि सो जीवो । जो जुव्वणमणुपत्तो, वियाररहिओ सया होइ ||1||
29.
प्राकृत में अनुवाद करें
तुम पापों की निन्दा करोगे तो सुखी होंगे ।
हम नौका में बैठेंगे और सरोवर में क्रीड़ा करेंगे ।
हम स्वामी के लिए माला गूंथेंगे ।
वह लोभी है इसलिए ब्राह्मणों को धन नहीं देगा ।
1.
2.
3.
4.
5. स्वप्न में चन्द्र ने मुख में प्रवेश किया इसलिए तू राज्य पायेगा । बोधि के लिए हम जिनेश्वर के चरित्र सुनेंगे ।
6.
7. गिरनार में बहुत वनस्पतियाँ हैं । जब मैं वहाँ जाऊँगा तब देखूँगा ।
१११
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8. वह त्यागी है, इस कारण गरीबों को दान देगा | 9. वह तापस है, इसलिए फलों का आहार करेगा । 10. तुम क्षमा धारण करोगे तो दुर्जन क्या करेगा ? | 11. वसंत ऋतु में नगर के लोग उद्यान में घूमने जायेंगे तब वह कन्या
सखियों के साथ अवश्य आयेगी । 12. तापस वन में उग्र तप करता है और तप के प्रभाव से इन्द्र की ऋद्धि
प्राप्त करेगा । 13. तुम बड़ों की सेवा करोगे तो सुखी होंगे । 14. आप सार्थ के साथ विहार करोगे तो जंगल में भय नहीं रहेगा । 15. मैं संसार के दुःखों से डरता हूँ, इस कारण दीक्षा ग्रहण करूंगा । 16. तुम जीवहिंसा मत करो, अन्यथा दुःखी होंगे | 17. क्रोध प्रेम का नाश करता है, माया मित्रता को नष्ट करती है, मान विनय
का नाश करता है और लोभ सभी गुणों का नाश करता है, इस कारण
उनका त्याग करेंगे । 18. चोर दक्षिणदिशा में गये हैं किन्तु उनकी अवश्य तलाश करूंगा । 19. तू सरोवर में जायेगा तो अवश्य डूब जायेगा । 20. वह कुत्ता भौंकेगा किन्तु काटेगा नहीं । 21. जीवदया समान धर्म नहीं है और जीवहिंसा समान अधर्म नहीं है ।
-११२
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पाठ 18 - (चालू) भविष्यकाल और क्रियातिपत्त्यर्थ और ऋकारान्त नाम
'सोच्छ' आदि दश धातु (३/१७१,१७२) संस्कृत प्राकृत
संस्कृत प्राकृत श्रु = सोच्छ - सुनना
मुच् = मोच्छ् - रखना, छोड़ना गम् = गच्छ - जाना
वच् = वोच्छ - बोलना रुद् = रोच्छ - रोना
| छिद् = छेच्छ - छेदना विद् = वेच्छ् - जानना
मिद = भेच्छ - भेदना, भेद करना दृश् = दच्छ - देखना
भुज् = भोच्छ - खाना,
1. सोच्छ आदि उपर्युक्त दश धातुओं के रूप बनाते समय भविष्यकाल के
प्रत्ययों में से हि का विकल्प से लोप होता है |
उदा. सोच्छ + हिइ = सोच्छिइ, सोच्छिहिइ । 2. उपर्युक्त दश धातुओं में प्र. पु. एकवचन के रूप में धातु के अन्त में विकल्प से अनुस्वार रखा जाता है - उदा. सोच्छं, सोच्छिंस्सं ।
गच्छ के रूप एकवचन
बहुवचन प्र. पु. | गच्छं
गच्छिस्सामो, गच्छिहामो,
गच्छिमो, गच्छिहिमो, गच्छिस्सं, गच्छेस्सं, गच्छिस्सामु, गच्छिहामु,
गच्छिमु, गच्छिहिमु, गच्छिस्सामि, गच्छेस्सामि, गच्छिस्साम, गच्छिहाम,
गच्छिम, गच्छिहिम, गच्छिहामि, गच्छेहामि, गच्छिहिस्सा, गच्छिहित्था गच्छिमि, गच्छेमि, अ का ए होता है तब गच्छेस्सामो गच्छिहिमि, गच्छेहिमि | वगैरह रूप बनते हैं |
व
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द्वि. प. | गच्छिसि, गच्छेसि. गच्छित्था, गच्छेत्था,
गच्छिहिसि, गच्छेहिसि, गच्छिहित्या, गच्छेहित्था, गच्छिसे, गच्छेसे, गच्छिह, गच्छेह,
गच्छिहिसे, गच्छेहिसे गच्छिहिह, गच्छेहिह, तृ. पु. गच्छिइ, गच्छेइ,
गच्छिन्ति, गच्छेन्ति, गच्छिहिइ, गच्छेहिइ, गच्छिहिन्ति, गच्छेहिन्ति, गच्छिए, गच्छेए,
गच्छिन्ते, गच्छेन्ते, गच्छिहिए, गच्छेहिए गच्छिहिन्ते, गच्छेहिन्ते,
गच्छिरे, गच्छेरे,
गच्छिहिरे, गच्छेहिरे ज्ज-ज्जा प्रत्ययसहित रूप
गच्छिज्ज - गच्छिज्जा प्रथम पुरुष गच्छिज्जिस्सं गच्छिज्जिस्सामो - मु - म
गच्छिज्जिस्सामि गच्छिज्जिहामो - मु - म गच्छिज्जिहामि गच्छिज्जिहिमो - मु । म गच्छिज्जिहिमि गच्छिज्जिहिस्सा
गच्छिज्जिहित्था द्वितीय पुरुष / गच्छिज्जिहिसि - से गच्छिज्जिहित्था,
गच्छिज्जिहिह तृतीय पुरुष | गच्छिज्जिहिइ - ए- गच्छिज्जिहिन्ति - न्ते
गच्छिज्जिहिरे
सर्वपुरुष । गच्छिज्ज - गच्छिज्जा सर्ववचन
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-११४
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क्रियातिपत्त्यर्थ तैयार प्रत्यय
एकवचन
बहुवचन
क्रियातिपत्त्यर्थ । पुंलिंग स्त्रीलिंग
न्तो, माणो न्ती, माणी न्ता, माणा न्तं, माणं ज्ज, ज्जा
न्ता, माणा न्तीओ, माणीओ, न्ताओ, माणाओ न्ताई, माणाई
नपुंसकलिंग सर्वपुरुष सर्ववचन
विशेष्य के लिंग अनुसार प्रथमा एकवचन और बहवचन के उन-उन लिंग के प्रत्यय 'न्त-+माण' को लगाने से उपर्युक्त प्रत्यय बनते हैं तथा सर्वपुरुष-सर्ववचन में ज्ज-ज्जा प्रत्यय धातु को लगाने से क्रियातिपत्त्यर्थ
के रूप बनते हैं । (३/१८०) 3. क्रियातिपत्त्यर्थ - क्रिया की अतिपत्ति (निष्फलता) सूचित होती है । 'अमुक
कार्य हुआ होता तो अमुक कार्य होता' लेकिन पहला कार्य नहीं हुआ इसलिए उसके ऊपर आधार रखनेवाला दूसरा कार्य भी नहीं हुआ । इस
प्रकार क्रिया की निष्फलता सूचित होती है । (३/१७९) 4. क्रियातिपत्त्यर्थ - जब संकेत या शर्त पूरी नहीं हुई हो ऐसे सांकेतिक वाक्यों
में प्रयुक्त होता है । उदा. जइ सो विज्ज भणन्तो, ता सही होन्तो-यदि उसने विद्या प्राप्त की
होती तो वह सुखी होता । 5. प्राकृत रूपावतार में क्रियातिपत्त्यर्थ के न्त-माण प्रत्यय के पूर्व अ का इ-ए
किया है । उदा. हसिंतो, हसेंतो, हसिमाणं, हसेमाणं वगैरह । 6. आर्ष में न्तो-माणो के स्थान पर न्ते-माणे प्रत्यय भी लगता है ।
उदा. हसन्ते, हसमाणे, होन्ते, हुन्ते, होमाणे | + 'माण' प्रत्ययान्तवाले प्रयोग प्राकृत साहित्य में बहुत ही अल्प दिखाई देते हैं । x प्राकृत साहित्य में से उद्धृत क्रियातिपत्त्यर्थ के तीनों लिंग के
उदा. पुं. एकव. : जइ तुमं संपइमं न मुंचंतो, तो हं मंसगिद्धगिद्धाइयाण भक्खं
थ
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हुंतो । पूजाष्टक (पृ.२४, गा.४६) जो तूने मुझे अब नहीं छोड़ा होता, तो मैं मांस में आसक्त इत्यादि पक्षीयों का भोजन बनता । पुं.बहुव. : ते पुण जइ अन्नोन्नं पासंता, तया तत्थ न विसंता । (बृह० गा. ३४२७) उन्होंने जो परस्पर एक दूसरे को देखा होता, तो वहाँ प्रवेश नहीं करते। पुं. एकव. बहुव. जइ तस्स गुणा हुंता, ता नूणं जणो वि (तं) सलहतो । (संवेग० शा० पृ. ३७, गा.९८) जो उन्नमें गुण होते, तो निश्चय लोग भी उसकी प्रशंसा करते । पु.एकव. बहुव. जइअज्ज पहु ! तए हं विणासिओ हुँतो, तो केत्तियमेत्ता पुत्ता मज्झ जणयस्स हुंता । (पू.पृ.२९, गा. ९९) हे स्वामिन् ! जो तुम्हारे द्वारा आज मेरा विनाश किया गया होता, तो मेरे पिताजी के कितने पुत्र होते ? (अर्थात् एक भी नहीं होता ।) पुं. एकव. स्त्री. एकव. : जइ (तुम्ह) तणयं हं न हरावंतो, ता मे सुया मरंती । (पू.पृ. ३८, गा-२४) जो मैंने तुम्हारे पुत्र का अपहरण नहीं करवाया होता, तो मेरी पुत्री मर जाती। पुं. एकव. स्त्री. एकव. : एयंमि मसे अच्छंते, (ता) एसा पडिमा अईव अब्भुदयहेऊ सप्पभावा हुंता । (तीर्थकल्प पृ.२४) जो इस में (प्रतिमा में) काला चिह्न-डाघ होता तो यह प्रतिमा अत्यन्त अभ्युदय में कारणभूत और प्रभावशाली होती। पुं. एकव. नपुं. एकव. : जइ नवरं जीवाकुल लोगो न दिट्टो हुँतो, तो सुंदर हृतं । (निशीथ. भा. १, पृ.पू) जो जीवों से व्याप्त जगत् देखा होता, तो अच्छा होता । पुं. एकव. नपुं. एकव. : जइ पढममेव सो तुम्हेहिं नियत्तिओ होतो, ता जुत्तं हुंतं । (महा. नि.पृ.९८, गा. ९९) जो पहले से ही वह तुम्हारे द्वारा वापिस लौटाया (भिजवाया return किया) होता, तो योग्य होता । पुं. एकव. नपुं. एकव. : जइ मूले वि रोसुप्पायणं करेंतो, ता, जुत्ततरं हृतं । (महा.पृ.९) जो प्रारम्भ में ही रोस की उत्पत्ति गुस्सा किया होता, तो ज्यादा अच्छा होता । जइ हं नागच्छंतो, ता एक्कमवि पावं न मे हुतं । (पूजा. पृ.२१,
गा.१३) जो मैं नहीं आया होता, तो मुझे एक भी पाप नहीं लगता । स्त्री. एकवचन - । जइ गब्भाओ पडंता, बालत्तेवावि जइ ममा होता ।
ता किं मज्झ निमित्ते, होज्ज इमा आवया तुज्झ ?
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(करुणरस कदंबक पृ.३३ (यदि मेरा गर्भपात हो गया होता अथवा बाल्यावस्था में ही मर गई होती तो क्या मेरे निमित्त से तुझे यह आपत्ति होती ?) स्त्री. एक. । जइ हं तं पुच्छंती, तो सो तइया वि मह पयासंतो । पु. एक.
(पूजा-पृ.३७ गथा. ७५) (यदि मैने उसे पूछा होता तो उसने
मुझे उसी समय बताया होता ।) स्त्री. एक. । जइ वल्लहजणे मणो जाइ, तहा जइ तणू वि वच्चंती नं. एक. ता नूण कस्सइ तविरहविहूरतं न हुतं ।
(पू.पृ. ३१ गाथा ७५) (जिस प्रकार प्रिय मनुष्य के विषय में मन जाता है, उसी प्रकार यदि शरीर भी गया होता तो उसके विरह
से व्याकुलता किसी को नहीं होती ।) नपु. एक. । जइ पुण दुगंछिएसु कुलेसु एयाण जण्णमिह हुंतं, ता पु. बहु. कह जयएक्कपुज्जा ठायंता तग्गिहे मुणिणो ।
(संवेग, पृ.१६३ गाथा ६१) (यदि ३ यहां निंदित कुलों में उनका जन्म हुआ होता तो जगत् में अजोड रुप से पूजनीय ऐसे मुनि उनके घर में कैसे रहते ?) जइ सव्वण्णूहिं तिकालदरिसीहिं सव्व सुकरं दिटुं हुंतं तो णं अम्हारिसा कापुरिसा सुहं करतो । (निशीथ भाग १, पृ. ५) (यदि त्रिकालदर्शी सर्वज्ञों ने सबकुछ सरलता से हो जाय ऐसा देखा होता तो हमारे जैसे कायर
पुरुष सरलता से कर लेते) स्त्री. एक. । होज्ज न संझा होज्जा, न निसा तिमिरं पि न. ए. पु.ए. जइ न होमाणं, ता होता कह अम्हे, इअ संपइ पंसुलालावो ।
(कुमारपाल चरित स. ५ गा. १०५) यदि संध्या नहीं हुई होती, यदि रात्रि नहीं हुई होती तो हम कैसे होते (हमारी क्या दशा होती) इस प्रकार अभी पांसुला-दुराचारी स्त्रियों का वचन है ।)
रूप
एकवचन
बहुवचन पुंलिंग- | हस् - हसन्तो, हसमाणो हसन्ता, हसमाणा
हो - होन्तो, हुन्तो, होमाणो | होन्ता, हुन्ता, होमाणा स्त्रीलिंग- | हस् - हसन्ती, हसमाणी | हसन्तीओ, हसमाणीओ
११७
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नपुंसक
सर्वपुरुष
7.
हसन्ता, हसमाणा
हो होन्ती हुन्ती
होन्ता हुन्ता, होमाणी, होमाणा
हस् - हसन्तं, हसमाणं होन्तं, हुन्तं, होमाणं
8.
-
पुंलिंग
होअन्तो, होअन्ता होअमाणो होअमाणा
"
"
हसन्ताओ, होन्तीओ, हुन्तीओ, होन्ताओ, हुन्ताओ होमाणीओ,
हो + अ = होअ अंग के रूप
स्त्रीलिंग
हो अन्ती, होअन्ता होअमाणी, होअमाणा
ज्ज - ज्जा प्रत्ययसहित रूप
होमाणाओ
हसन्ताइं, हसमाणाइं,
होन्ताइं, हुन्ताइं, होमाणाइं
हसेज्ज, हसेज्जा
होज्ज, होज्जा, होएज्ज, होएज्जा
हसमाणाओ
११८
नपुंसकलिंग
होअन्तं, होअन्ताई, होअमाणं, होअमाणाइं
ऋकारान्त नाम
प्राकृत में ऋ स्वर का प्रयोग नहीं होता है । इस कारण ऋकारान्त शब्दों में थोड़े परिवर्तन के साथ निम्नानुसार रूप बनते हैं
—
(1) संस्कृत संबंधवाचक ऋकारान्त शब्दों के अन्त्य ऋ का अर होता है | उदा. पिअर (पितृ), जामाअर (जामातृ)
(2) विशेषणवाचक ऋकारान्त शब्दों के अन्त्य ऋ का आर होता है । उदा. कत्तार (कर्तृ), दायार (दातृ)
(3) तत्पश्चात् उपर्युक्त शब्द अकारान्त बनने से उनके पुंलिंग और नपुंसकलिंग में रूप अकारान्त पुंलिंग और नपुंसकलिंग के समान बनते हैं । (३/४५-४७)
उदा. पिआ, पिअरो (पितृ) प्रथमा एकवचन
कत्तारं (कर्तृ) प्रथमा-द्वितीया एकवचन
प्रथमा, द्वितीया एकवचन को छोड़कर सभी विभक्तियों में ऋकारान्त शब्द के अन्त्य ऋ का उ भी होता है और उनके रूप उकारान्त पुंलिंग
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और नपुंसकलिंग के समान बनते हैं । (३/४४)
उदा. पिउ (पितृ), कतु (कर्तृ), दाउ (दातृ) 9. पुंलिंग प्रथमा एकवचन में ऋ का आ विकल्प से होता है । (३/४८)
उदा. पिआ (पिता), कता (कर्ता), दाया (दाता) 10. (1) संबंधवाचक ऋकारान्त शब्दों के संबोधन एकवचन में अन्त्य क्र
का अ और अरं होता है । (३/३९)
उदा. हे पिअ !, हे पिअरं ! (पित) (2) विशेषणवाचक ऋकारान्त शब्दों के संबोधन एकवचन में अन्त्य ऋ
का अ विकल्प से होता है ।
उदा. हे कत्त ! (कर्तृ), हे दाय ! (दातृ) 11. आर्ष में छठी विभक्ति एकवचन में ए प्रत्यय भी लगता है। उदा. पिउए, भाउए आदि
अकारान्त पुंलिंग रूप
पिअर, पिउ (पितृ)-पिता एकवचन
बहुवचन पढमा । पिआ, पिअरो
पिअरा पिअवो, पिअउ, पिअओ,
पिउणो, पिऊ बीआ । पिअरं ।
पिअरे, पिअरा,
पिउणो, पिऊ तइआ पिअरेण-णं
पिअरेहि-हि-हिं पिउणा
पिऊहि-पिऊहिं हिं च. छ. पिअरस्स
पिअराण-णं पिउणो, पिउस्स
पिऊण-णं पंचमी पिअस्तो, पिअराओ पिअरत्तो, पिअराओ,
पिअराउ-हि-हिन्तो, पिअराउ-हि-हिन्तो-सुन्तो, पिअरा,
पिअरेहि-हिन्तो-सुन्तो, पिउणो, पिउत्तो,
पिउत्तो, पिऊओ-उ-हिन्तो
पिऊओ-उ-हिन्तो-सुन्तो
-११९
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________________
सत्तमी
पिअरे, पिअरम्मि,
पिअरंसि,
पिउम्मि, पिउंसि
संबोहण ं हे पिअ, पिअरं, पिअर, पिअरो
प.
बी.
तः
च. छ.
पं.
स.
पिअरेसु-सुं.
पिऊसु-सुं
पिअरा,
पिअवो, पिअउ ओ,
पिउणो, पिऊ
(पुंलिंग) कत्तार कत्तु (कर्तृ)-करनेवाला
बहुवचन
कत्तारा,
कत्तवो, कत्तउ, कत्तओ,
को, कत्तू
कत्तारे, कत्तारा,
को, कत्तू
कत्तारेहि-हि ँ-हिं,
सं.
एकवचन
कत्ता, कत्तारो,
कत्तारं
कत्तारेण णं
कणा
कत्तारस्स
कतुणो, कत्तुस्स
कत्तास्तो, कत्ताराओ,
कत्ताराउ-हि- हिन्तो,
कत्तारा
कत्तुणो, कत्तुत्तो,
कत्तूओ-उ-हिन्तो
कत्तारे, कत्तारम्मि,
कतारसि
तुम, कत्तुंसि
कत्त, कत्तार,
कारो
१२०
कत्तूहि-हिं - हिं
कत्ताराण णं,
कत्तूण-णं.
कत्तास्तो, कत्ताराओ, कत्ताराउ-हि-हिन्तो- सुन्तो,
कत्तारेहि-हिन्तो-सुन्तो,
कत्तो, कत्तूओ-उ
हिन्तो- सुन्तो
कत्तारेसु-सुं.
कत्तूसु-सुं.
कत्तारा,
कत्तवो, कत्तउ-ओ,
को, कत्तू
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________________
प. बी.
सं.
प
बी.
}
सं.
कत्तारं
धूआ
घीआ
(नपुंसकलिंग) कत्तार कत्तु (कर्तृ)
कत्त, हे कत्तार
दायारं
शेष पुंलिंगवत्
दायार-दाउ (दातृ) दाता, देनेवाला
हे दाय, हे दायार
कत्ताराइं, कत्ताराइँ, कत्ताराणि, कतूइं, कत्तूइँ, कत्तूणि कत्ताराई कत्ताराइँ, कत्ताराणि, कत्तू, कत्तूइँ, कत्तूणि
शेष पुंलिंगवत्
12. ऋकारान्त स्त्रीलिंग में संबंधवाचक शब्दों में निम्नानुसार परिवर्तन होता
है - (३/३५)
दुहिआ
(दुहितृ) = पुत्री, लड़की
दायाराइं, दायाराइँ, दायाराणि, दाऊइं, दाऊइँ, दाऊणि दायाराई, दायाराइँ, दायाराणि, दाऊइं, दाऊइँ, दाऊणि
नणंदा ( ननान्दृ ) = ननद
पिउसिया ) (पितृष्वसृ ) = पिता की बहन, बूआ
पिउच्छा
१२१
माउसिआ ) (मातृष्वसृ) = मौसी माँ की बहन
·
माउच्छा
माअरा
माआ (मातृ) = माता, माँ
माउ
ससा (स्वसृ) = बहन
सुसा
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13. उपर्युक्त शब्द आकारांत स्त्रीलिंग बनने से इनके रूप आकारान्त स्त्रीलिंग
नाम के समान ही होते हैं, माउ शब्द के रूप उकारान्त स्त्रीलिंग नाम के समान होते हैं किन्तु प्रथमा द्वितीया एकवचन में माउ शब्द का प्रयोग नहीं होता है ।
उदा. माऊओ, माऊउ, माऊ प्रथमा बहुवचन
14. मातृ शब्द का किसी स्थान में 'माइ' ऐसा शब्द सिद्ध होने से हस्व इकारान्त स्त्रीलिंग के समान रूप भी होते हैं ।
माईओ, माईउ, माई
बहुव .
छ.
बहुव
माईण, माईणं
15. ये स्त्रीलिंग मूल से आकारान्त न होने के कारण संबोधन एकवचन में माआ, हे मारा, हे ससा आदि रूप होते हैं ।
प.
उदा. प. बहुव .
बी.
विभक्ति एकवचन
माआ
माअरा
त.
बी.
च. छ.
आकारान्त स्त्रीलिंग रूप माआ-माअरा-माउ (मातृ) - माता,
माअं, माअरं
माआअ माआइ, माआए, माअराअ, माअराइ, माअराए,
माऊअ, माऊआ, माऊइ,
माऊए
माआअ माआइ, माआए, माअराअ, माअराइ, माअराए,
माऊअ, माऊआ, माऊइ,
माऊए
"
१२२
माँ
बहुवचन
माआओ, माआउ, माआ, माअराओ, माअराउ, माअरा,
माऊओ, माऊउ, माऊ
माआओ, माआउ, माआ,
माअराओ, माअराउ, माअरा,
माऊओ, माऊउ, माऊ माआहि-हि-हिं,
माअराहि-हि-हिं,
माऊहि-हि-हिं
माआणणं,
माअराण-णं,
माऊणणं
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________________
स.
म
| माआअ, माआइ, माआए, माअत्तो, माआओ-उमाअत्तो, माआओ-उ-हिन्तो, हिन्तो-सुन्तो, माअराअ, माअराइ, माअराए, माअस्तो, माअराओ-उ-हिन्तो, माअस्तो, माअराओ-उ-हिन्तो
सुन्तो माऊअ, माऊआ, माऊइ, माउत्तो, माऊओ-उ-हिन्तो-सन्तो माऊए माउत्तो-माऊओ-उ-हिन्तो माआअ, माआइ, माआए, माआसु-सुं, माअराअ, माअराइ, माअराए, माअरासु-सुं, | माऊअ, माऊआ, माऊइ, माऊसु-सुं. माऊए हे माआ,
माआओ, माआउ, माआ, हे माअरा
माअराओ, माअराउ, माअरा,
माऊओ, माऊउ, माऊ ससा (स्वसृ) बहन एकवचन
बहुवचन ससा
ससाओ, ससाउ, ससा ससं
ससाओ, ससाउ, ससा ससाअ, ससाइ, ससाए ससाहि-हिं-हिं ससाअ, ससाइ, ससाए ससाण-णं ससाअ, ससाइ, ससाए, ससत्तो, ससाओ, ससाउ, ससत्तो, ससाओ, ससाउ, ससाहिन्तो, ससासुन्तो ससाहिन्तो ससाअ, ससाइ, ससाए ससासु-सुं हे ससा
ससाओ, ससाउ, ससा
च. छ.
१२३
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शब्दार्थ (पुंलिंग) अक्क (अर्क) = सूर्य
पिअर । (पितृ) = पिता असोगचन्द (अशोकचन्द्र) = श्रेणिक पिउ । के पुत्र का नाम, दूसरा नाम कोणिक | भत्तार । (भर्तृ) = स्वामी, पति अहिमन्नु ) (अभिमन्यु), विशेषनाम, | भतु । अहिमक्षु ) अर्जुन का पुत्र, भायर, भाउ, (भ्रातृ) = भाई, बन्धु अहिमज्जु ) अभिमन्यु
लक्खण (लक्ष्मण) = राम का भाई, आसम (आश्रम) = आश्रम, तापस का | लक्ष्मण स्थान
लेह (लेख) = लेख कउरव (कौरव) = कुरुराजा के वंशज, वासुदेव (वासुदेव) = वासुदेव कौरव
|सच्चवय (सत्यवद) = सत्य जामायर । (जामातृ) = दामाद | बोलनेवाला, सत्यवादी जामाउ ।
| सिद्धत्थ (सिद्धार्थ) = सिद्धार्थ राजा, जीवाइ (जीवादि) = जीव-अजीव आदि भगवान महावीर के पिता का नाम नौ तत्त्व
हरअ, द्रह (हृद) = तालाब, बड़ा पहिअ (पथिक, पान्थ) = मुसाफिर सरोवर
(नपुंसकलिंग) अग्ग (अग्र) = आगे, शिखर भाल (भाल) = ललाट आयारंग (आचाराङ्ग) = आचारांग सूत्र, भूयहिअ (भूतहित) = जीवों का उपकार बारह अंगों में से प्रथम अंग का नाम | भोयण (भोजन) = भोजन चीवंदण (चैत्यवंदन) चैत्यवंदन लक्खण (लक्षण) = लक्षण, चिह्न चोज्ज (चोद्य) = आश्चर्य, प्रश्न ललाड (ललाट) = भाल, ललाट तत्तनाण (तत्त्वज्ञान) = जीवादि तत्त्वों| णडाल, का ज्ञान
| सगास (सकाश) = समीप, पास में परिमाण (परिमाण) = मान, माप |सरण (शरण) = शरण, आश्रय बंधण (बन्धन) = बेड़ी, बाँधना सरोरुह (सरोरुह) = कमल
(पुंलिंग + नपुंसकलिंग) परदार (परदार) = परस्त्री
| सत । (शत) = सौ की संख्या माहप्प (माहात्म्य) = महिमा, प्रभाव, | सय । बडप्पन
सकम्म (स्वकर्म) = अपना कर्म -१२४
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सयसहस्स (शतसहस्र) = लाख, सौ | सीस (शीर्ष) = मस्तक बार हजार
(स्त्रीलिंग) जत्ता (यात्रा) = यात्रा, तीर्थयात्रा पिवासा (पिपासा) = तृषा, प्यास जाया (जाया) = स्त्री
माआ तत्तवत्ता (तत्त्ववार्ता) = तत्त्वोंकी बात माअरा (मातृ) = माता, माँ तिसला (त्रिशला) = प्रभु महावीर की | माउ माता
माइ दुहिआ) (दुहित) = पुत्री, लड़की | माउसिआ (मातृष्वस) = मासी धुआ )
माउच्छा धीआ )
विवत्ति (विपत्ति) = दुःख . देवाणंदा (देवानंदा) विशेषनाम, ससा) (स्वसृ) = बहन महावीर प्रभु की माता का नाम, देवानंदा सुसा । नणंदा (ननान्दृ) ननन्द, ननद सेत्तुजी। (शत्रुअयी) = शत्रुजी, एक पडिवया । (प्रतिपत्) एकम तिथि, | सेत्तुंजी) नदी का नाम पाडिवया पड़वा
सोहा (शोभा) = शोभा, दीप्ति पिउसिया । (पितृष्वसृ) बूआ, फूफी पिउच्छा ।
विशेषण
ब्रह्मा
एरिस (ईदृश) = ऐसा, ऐसी रीति का | धायार। (धातृ) = धारण करनेवाला, कतार । (कर्तृ) = कर्ता, करनेवाला धाउ विधाता, पालन करनेवाला, कतु । णायार । (ज्ञातृ) = ज्ञाता , जाननेवाला निष्फल (निष्फल) = निरर्थक, णाउ
फलरहित णेय (ज्ञेय) = जानने लायक नेमित्तिअ (नैमित्तिक) = निमित्त थोक्क ) (स्तोक) = अल्प, थोड़ा । शास्त्र जाननेवाला, ज्योतिषी
परप्पर ) (परस्पर) = अन्योन्य, एक थेव )
परोप्पर / दूसरे को दायार । (दातृ) = दातार, देनेवाला |परुप्पर ) दाउ ।
|पालग (पालक) = पालन करनेवाला -१२५
थोव
श
-
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भट्ठ (भ्रष्ट) = भ्रष्ट, पतित |वत्तार । (वक्तृ) = वक्ता, बोलनेवाला भमंत (भ्रमत्) = घूमता भत्तार) (भर्तृ) = भर्ता, पोषण विरूव (विरूप) = कुरूप, खराब रूप भत्त करनेवाला
विसमिसिअ (विषमिश्रित) = जहरवाला मिसिअ (मिश्रित) = मिश्रण किया हुआ | वीयराग (वीतराग) = रागरहित रअ (रत) = आसक्त
धातु .. अल्ली (आ + ली) = आश्रय करना, |पउस्स्। (प्र + द्विष) = द्वेष करना आलिंगन करना, प्रवेश करना । पउस् । कंख् । (कास) = चाहना, पल्लोद्द । (पर्यस्) = फेंकना मह )
पल्हत्थ् । घोट्ट (पा) = पीना
रुंम् । (रुध) = रोकना निगिण्ह । (नि + ग्रह) = पकड़ना, |रुंध् । नग्गह रोकना, शिक्षा करना सिणिज्झ (स्निह्य) = स्नेह करना निवड् (नि + पत्) = गिरना
अव्यय अंत-अंतो (अन्तर) = अन्दर, बीच में | झडित्ति-झडत्ति-झत्ति (झटिति) अम्मो (दे.) = आश्चर्य
= जल्दी अहो (अहो) = विस्मय, आश्चर्य , शोक | तहिं (तत्र) = वहाँ किर-इर-हिर-किल (किल) = निश्चय, तहवि (तथापि) = तो भी संभावना, संशय
सणियं (शनैस्) = धीरे-धीरे
हिन्दी में अनुवाद करें1. हं वच्छाणं पण्णाणि छेच्छं । 2. अम्हे साहुणो सगासे तत्ताई सोच्छिस्सामो । 3. जइ माआ जत्ताए गच्छिइ तो वच्छो दुहिआ य रोच्छिहिन्ति । 4. अम्हे किर सच्चं वोच्छिस्सामो ।
सव्वण्णू झत्ति सिवं गच्छिहिरे । 6. हं सत्तुंजयं गच्छिस्सं, तहिं गिरिस्स सोहं दच्छं, तह सेत्तुंजीए नईए
ण्हाहिस्सं , पच्छा य तित्थयराणं पडिमाओ चन्दणेण पुप्फेहिं च
-
- १२६ -
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अच्चिहिमि, गिरिणो य माहप्पं सोच्छिमि, पावाइं च कम्माइं छेच्छिहिमि,
जीविअं च सहलं करिस्सं । 7. जइ असोगचंदो नरिंदो दिसासु परिमाणं कुणंतो ता निरए नेव निवडन्तो । 8. सो आयारंगं भणेज्जा ता गीयत्थो होन्तो । 9. जइ हं सत्तुं निगिण्हन्तो, तया एरिसं दुहं अहुणा किं लहमाणो ? 10. जइ धम्मस्स फलं हविज्ज तया परलोगे सुहं लहेज्जा । 11. साहम्मिआणं वच्छलं सइ कुज्जा ति वीयरागस्स आणा ) 12. तिसला देवी देवाणंदा य माहणी पहणो महावीरस्स माऊओ आसि । 13. सिरिवद्धमाणस्स पिआ सिद्धत्थो नरिंदो होत्था । 14. पुव्वण्हे अक्कस्स तावो थोवो, मज्झण्हे य अईव तिक्खो, अवरण्हे अ
थोक्को अइ थेवो वा । 15. सकम्मेहिं इह संसारे भमंताणं जन्तूणं सरणं माआ पिआ माअरा भाउणो
सुसा धूआ अ न हवन्ति, एक्को एव धम्मो सरणं । 16. जो बाहिरं पासेइ, सो मूढो, अंतो पासेइ सो पंडिओ णेओ । 17. पिउणो ससा पिउसिअ त्ति, तह माउए य ससा माउसिआ इइ कहेइ । 18. नणंदा भाउस्स जायाए सिणिज्झइ । 19. धूआ माअरं पिअरं च सिलेसइ । 20. रामस्स वासुदेवस्स य पिअरम्मि माऊसं य परा भत्ती अस्थि । 21. सासू जामाऊणं पडिवयाए पाहडं दाहिन्ति । 22. जा नारी भत्तारम्मि पउस्सेइ सा सुहं न पावेइ । 23. कुलबालियाणं भत्तवो चेव देवा । 24. माआ धूआणं पुत्ताणं च बहुं धणं अप्पेइ । 25. जे नरा भत्तुणमाएसे न वट्टन्ते ते दुहिणो हवन्ति । 26. आवयासु जे सहेज्जा हंति ते च्च भाउणो । 27. धूआए माआए य परूप्परं अईव नेहो अत्थि । 28. सासूणं जामाउणो अईव पिआ हवन्ति । 29. अहं माअराए य पिउणा य भायरेहिं च ससाहिं च सह सिद्धगिरिस्स
जत्ताए जाएज्जा । 30. दायाराणं मज्झे कण्णो निवो पढमो होत्था । 31. रामस्स भाया लक्खणो निएण चक्केण रावणस्स सीसं छिन्दीअ ।
- १२७
GER
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________________
32. सतेसु जायते सूरो, सहस्सेसु य पंडिओ |
वत्ता सयसहस्सेसु, दाया जायति वा न वा ।। 33. इंदियाणं जए सूरो, धम्मं चरति पंडिओ | वत्ता सच्चवओ होइ, दाया भूयहिए रओ ||
प्राकृत में अनुवाद करें
1.
2.
यदि उसने जहरवाला भोजन किया होता तो वह मृत्यु प्राप्त करता । यदि तुमने जिनेश्वर के चरित्र सुने होते तो धर्म प्राप्त करते । 3. अभिमन्यु जिन्दा होता तो कौरवों की पूरी सेना को जीत लेता । यदि उसको तत्त्वों का ज्ञान होता तो वह धर्म प्राप्त करता ।
4.
6.
5. यदि आप उस समय बंधन में से छोड़ते तो मैं सत्य बोलता । रावण ने परस्त्री का त्याग किया होता तो वह नहीं मरता । ज्ञाता के पास उसने तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त किया ।
7.
8.
मैं तालाब में से कमल लूंगा और माता और बहन को दूंगा ।
9.
माता और पिता के साथ जिनालय में जाऊँगा और चैत्यवंदन करूंगा । 10. लक्ष्मण के भाई राम ने दीक्षा ली और मोक्ष प्राप्त किया ।
11. बहू को ननन्द पर अतिस्नेह है ।
12. गरीबों को पालनेवाले थोड़े ही होते हैं ।
13. विधाता के लेख का कोई भी उल्लंघन नहीं करता है ।
14. कुरूप बालकों पर माता का अतीव स्नेह होता है ।
15. जैसे बधिरों (बहरों) के आगे गायन निष्फल है वैसे मूर्ख पुरुषों के आगे तत्त्वों की बातें निष्फल हैं ।
16. प्रतिदिन बहुत प्राणी मरते हैं, तो भी अज्ञानी 'हम मरनेवाले नहीं हैं' ऐसा मानते हैं, इससे दूसरा आश्चर्य क्या है ?
17. निमित्त को जाननेवाले ने उसके ललाट में अच्छे लक्षण देखे और कहा कि तुम राजा बनोगे ।
18. वह वेश्या में आसक्त नहीं होता तो धर्म से पतित नहीं होता । 19. मूर्ख भी धीरे-धीरे उद्यम करने से होशियार बनता है ।
१२८
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________________
पाठ 19
कर्मणि रूप और भावे रूप प्रत्यय - ईअ (ईय), इज्ज
1. धातु को ईअ (ईय) अथवा इज्ज प्रत्यय लगाकर तैयार अंग को काल के पुरुषबोधक प्रत्यय लगाने से कर्मणि या भावे रूप बनते हैं । ( ३/१६०) 2. भविष्यकाल, क्रियातिपत्त्यर्थ आदि के कर्मणि या भावे रूप कर्तरि के समान ही होते हैं । (४/२४१ तः ४ / २५७ )
3. जो धातु सकर्मक हो तो कर्मणि प्रयोग और अकर्मक (कर्मरहित) हो तो भावेप्रयोग होता है ।
अकर्मक धातु = लज्जित होना, खड़ा रहना, होना, जागना, बढ़ना, जीर्ण होना, भय पाना, जीना मरना, सोना, प्रकाशित होना और खेलना, इस अर्थवाले धातु अकर्मक जानने चाहिए, इनसे अतिरिक्त अर्थवाले धातु सकर्मक जानने चाहिए ।
1
4. कर्मणिप्रयोग में कर्ता तृतीया और कर्म प्रथमा विभक्ति में आता है तथा कर्म के अनुसार क्रियापद रखा जाता है ।
उदा. कर्तरि-कुंभारो घडं कुणइ = कुंभार घट करता है (बनाता है) • कुंभार द्वारा घट बनाया जाता है । कर्तरि - रामो जिणे अच्चेइ = राम जिनेश्वरों को पूजता है ।
कर्मणि-कुंभारेण घडो कुणीअइ
=
कर्मणि-रामेण जिणा अच्चिज्जंति = राम द्वारा जिनेश्वर पूजे जाते है ।
5. भावे प्रयोग में कर्ता तृतीया विभक्ति में आता है, कर्म नहीं होता है और क्रियापद तृतीयपुरुष एकवचन में रखा जाता है ।
उदा. कर्तरि बालो जग्गइ = बालक जगता है ।
कर्मणि-बालेण जग्गिज्जइ = बालक द्वारा जगा जाता है ।
कर्तरि वच्छा रमंति
बालक खेलते हैं ।
कर्मणि-वच्छेहिं रमिज्जइ = बालकों द्वारा खेला जाता है ।
=
१२९
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कर्मणि-भावे अंग हस् + ईअ = हसीअ
हो + ईअ = होई हस् + इज्ज = हसिज्ज
हो + इज्ज = होइज्ज पद् + ईअ = पढी
ने + ईअ = नेई पद् + इज्ज = पढिज्ज
ने + इज्ज = नेइज्ज बोल्ल् + ईअ = बोल्लीअ ठा + ईअ = ठाईअ बोल्ल् + इज्ज = बोल्लिज्ज ठा + इज्ज = ठाइज्ज कंप् + ईअ = कंपीअ
झा + ईअ = झाईअ कंप् + इज्ज = कंपिज्ज
झा + इज्ज = झाइज्ज देख् + ईअ = देक्खीअ
ण्हा + ईअ = ण्हाईअ देक्ख् + इज्ज = देक्खिज्ज ण्हा + इज्ज = ण्हाइज्ज इस प्रकार अंग बनाकर पुरुषबोधक प्रत्यय लगाने पर कर्मणि-भावे रूप बनते हैं।
. वर्तमानकाल व्यंजनान्त धातु = पढीअ, पढिज्ज - पढ् (प) = पढ़ना एकवचन
बहुवचन प्रथम पुरुष पढीअमि
पढीअमो - मु - म पढीआमि
पढीआमो - मु . म पढीज्जमि
पढीइमो - मु - म पढीज्जामि
पढिज्जमो - मु - म पढिज्जामो - मु - म
पढिज्जिमो - मु - म द्वितीय पुरुष पढीअसि, पढीअसे पढीइत्था, पढीअह
पढिज्जसि, पढिज्जसे पढिज्जित्था, पढिज्जह तृतीय पुरुष पढीअइ, पढीअए, पढीअन्ति-न्ते, पढिइरे,
पढिज्जइ, पढिज्जए | पढिज्जन्ति-न्ते, पढिज्जिरे पुरुषबोधक प्रत्ययों के पूर्व अ का ए होता है तब
एकवचन | बहुवचन तृतीय पुरुष ।
पढीएन्ति, पढीएन्ते, पढीएइरे, पढिज्जेइ
पढिज्जेन्ति, पढिज्जेन्ते, पढिज्जेइरे,
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पुरुषबोधक प्रत्ययों के पूर्व अ का ए और ज्ज-ज्जा प्रत्ययसहित
सर्वपुरुष ) पढीएज्ज, पढीएज्जा सर्ववचन) पढिज्जेज्ज, पढिज्जेज्जा
सर्वपुरुष पढीअईअ, पढीज्जईअ (
सर्ववचन
ह्यस्तन भूतकाल
सर्वपुरुष पढीइत्था, पढिज्जित्था, सर्ववचन पढीइंसु, पढिज्जिंसु
कर्तरिवत् - पढीअ
एकवचन
आर्ष में
प्र. पु.
द्वितीय पढी अहि-एहि, पढीअसु-एसु,
पुरुष
परोक्षभूत + अद्यतन भूतकाल
बहुवचन
पढीअमो आमो इमो-एमो
पढीअमु-आमु-इमु-एमु पढिज्जमु-ज्जामु-ज्जिमु-ज्जेमु पढिज्जमो-ज्जामो-ज्जिमो-ज्जेमो
पढीअह, पढी ह
पढिज्ज
विधि- आज्ञार्थ
पढीइज्जसु-एज्जसु, पढीइज्जहि-एज्जहि,
पढीइज्जे-एज्जे,
पढीअ पढिज्जहि-ज्जेहि,
पढिज्जसु, पढिज्जेसु, पढिज्जिज्जसु, ज्जेज्जसु, पढिज्जिज्जहि, ज्जेज्जहि, पढिज्जिज्जे-ज्जेज्जे,
१३१
पढिज्जह, पढिज्जेह
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________________
आर्ष में |पढीइज्जसि, पढीएज्जसि पढीइज्जाह, पढीएज्जाह
पढीइज्जासि, पढीएज्जासि, पढीइज्जाहि, पढीएज्जाहि, . . पढीआहि पढिज्जिज्जसि, पढिज्जेज्जसि, पढिज्जिज्जाह, पढिज्जेज्जाह पढिज्जिज्जासि,पढिज्जेज्जासि, पढिज्जिज्जाहि, पढिज्जेज्जाहि,
पढिज्जाहि तृतीय पढीअउ, पढीएउ, पढीअन्तु, पढीएन्तु पुरुष पढिज्जउ, पढिज्जेउ पढिज्जन्तु, पढिज्जेन्तु सर्वपुरुष | पढीएज्ज-ज्जा
पढीएज्जइ, पढीएज्जाइ सर्ववचन |J पढिज्जेज्ज-ज्जा पढिज्जेज्जइ, पढिज्जेज्जाइ
भविष्यकाल
तृतीय पुरुष एकवचन - * पढिहिइ, पढेहिइ, पढिस्सइ
पढिहिए, पढेहिए, पढिस्सए इस प्रकार सभी रूप कर्तरि के समान जानने चाहिए ।
क्रियातिपत्ति एकवचन
बहुवचन पुंलिंग | पढन्तो
पढन्ता स्त्रीलिंग । पढन्ती
पढन्तीओ नपुंसकलिंग | पढन्तं
पढन्ताई
आदि कर्तरि वत् सर्वपुरुष । पढेज्ज - पढेज्जा सर्ववचन । स्वरान्त धातु - हो (भू) = होना. होईअ, होइज्ज * षड्भाषा चन्द्रिका तथा आर्ष में ईअ-इज्ज का प्रयोग भविष्यकाल में दिखाई देता है । पढीइहिङ्-ए, पढीएहिइ-ए, पढिज्जिहिइ-ए, पढिज्जेहिइ-ए, पढीइहिज्ज-ज्जा, पढीएहिज्ज-ज्जा, पढिज्जिहिज्ज-ज्जा, पढिज्जेहिज्ज-ज्जा आदि रूप भी होते हैं। आर्ष में-साहरिज्जिस्सामित्ति जाणइ (संहरिष्ये) कप्पसुत्ते सुत्तं ३०.
१३२
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वर्तमानकाल तृतीय पु. एकवचन होईअइ, होईएइ, होइज्जइ, होइज्जेइ
इस प्रकार सभी रूप जानने चाहिए । सर्वपुरुष । होईएज्ज, होईएज्जा सर्ववचन । होइज्जेज्ज, होइज्जेज्जा
भूतकाल सर्वपुरुष , होईअसी, होईअही, होईअहीअ सर्ववचन / होइज्जसी, होइज्जही, होइज्जहीअ आर्ष मेंसर्वपुरुष-सर्ववचन- होईइत्था, होईइंसु, होइज्जित्था, होइज्जिसु
परोक्षभूत + अद्यतन भूतकाल सर्वपुरुष-सर्ववचन - होसी, होही, होहीअ आर्ष में - होत्था, हविंसु – कर्तरिवत्
विधि - आज्ञार्थ तृतीय पु. एकवचन - होईअउ, होईएउ, होइज्जउ, होइज्जेउ आदि । सर्वपुरुष
होईएज्ज, होईएज्जा सर्ववचन होइज्जेज्ज, होइज्जेज्जा, होईएज्जइ, होईएज्जाइ
होइज्जेज्जइ, होइज्जेज्जाइ
भविष्यकाल तृतीय पुरुष एकवचन - * होहिइ, होहिए – कर्तरिवत्
क्रियातिपत्ति एकवचन
बहुवचन पुंलिंग होन्तो, हुन्तो
होन्ता, हुन्ता स्त्रीलिंग होन्ती, हुन्ती
होन्तीओ, हुन्तीओ नपुंसकलिंग । होन्तं, हन्तं ।
होन्ताई, हुन्ताई __आदि कर्तरिवत् * षड्भाषा चन्द्रिका में होईइहिइ, होईएहिइ, होइज्जिहिइ, होइज्जेहिइ, होईइहिज्जज्जा, होईएहिज्ज-ज्जा, होइज्जिहिज्ज-ज्जा, होइज्जेहिज्ज-ज्जा आदि प्रयोग भी दिखाई देते हैं। + षड्भाषा में होईअन्तं, होइज्जन्तं, होईएज्ज-ज्जा, होइज्जेज्जा-ज्जा आदि प्रयोग भी दिखाई देते हैं।
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पास्
दीस
सर्वपुरुष । होज्ज-ज्जा सर्ववचन ) हुज्ज-ज्जा
कर्मणि और भावे में ही उपयोगी धातुओं के आदेश क्र.सं. प्राकृत कर्तरि प्राकृत कर्मणि | संस्कृत धातु अर्थ
दृश् देखना 2. वय वुच्च वच् बोलना 3. चिण् चिव, चिम्म
इकट्ठा करना 4. जिण जिव्व
जीतना सुव्व
सुनना
होम करना थुव्व
स्तुति करना लुव्व
काटना पुव्व
पवित्र करना
चि
हुव्व
o ooo - FNo +
啊啊啊啊啊啊現低
4M Gold at
धुव्व
हिलाना,
M
हम्म खम्म दुब्भ लिब्भ वुब्भ रुभ डज्झ बज्झ संरुज्झ | अणुरुज्झ
16. रुंध् 17. डह
बंध 19. सं + रुंध 20. अणु + रुंध
रुध्
18
कम्पन कराना नाश करना खोदना
दोहना लिह चाटना
वहन करना
रोकना दह् जलना, जलाना बन्ध बाँधना सं + रुध् रोकना अनु + रुध् | आज्ञा मानना,
अनुसरण करना,
आधीन होना उप + रुध् रोकना गम् . जाना
हस् हँसना १३४
21. उव + रुंध् | उवरुज्झ 22. गम् गम्म 23. हस् हस्स
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क्र.सं. प्राकृत कर्तरि प्राकृत कर्मणि संस्कृत धातु
24.
भण्
भण्ण
भण्
25.
छुव्
छुव्व
स्पृश्
रुव्
रुव्व
रुद्
लह
लभ्
27. 28.
कह
कथ्
29. भुंज्
भुज्
30.
हर्
ह
26.
कर्
31. 32. तर्
33. जर्
34. fadd}
अज्ज्
जाण्
वाहर्
आढव्
35.
36. 37.
38. सिणिज्झ 39. सिच्
40. गह-गिण्ह्
41. छिव्
लब्भ
कत्थ
भुज्ज
हीर
कीर
तीर
जीर
विढप्प
णव्व णज्ज
वाहिप्प
आढप्प
"
सिप्प
सिप्प
घेप्प,
छिप्प
घिप्प
कृ
तृ
ज्
अर्जु
ज्ञा
वि+आ+ह
आ+भ्
स्निह
सिच्-सिञ्च्
ग्रह
स्पृश्
अर्थ
बोलना, पढ़ना
स्पर्श करना
रोना
प्राप्त करना
कहना
खाना
हरण करना,
ले जाना
करना
तैरना
जीर्ण होना पैदा करना,
जानना
बोलना,
बुलाना
शुरू करना,
आरंभ करना
कमाना
स्नेह करना छांटना,
सिंचन करना
ग्रहण करना
स्पर्श करना
6. चिव्व से छिप्प पर्यन्त के धातुओं का कर्मणि और भावे प्रयोग में ही विकल्प से प्रयोग होता है । जब उनका प्रयोग होता है तब कर्मणि-भावे के प्रत्यय लगाये बिना उस-उस काल के पुरुषबोधक प्रत्यय लगाये जाते हैं । 7. दीस् और वुच्च धातु में यह प्रयोग नित्य होता है ।
8. जब चिव्व, जिव्व आदि धातुओं का प्रयोग नहीं करना हो तब चिण्-जिण् वगैरह मूल धातुओं को कर्मणि-भावे प्रत्यय लगाकर अंग बनाकर उस-उस काल के पुरुषबोधक प्रत्यय लगाने से भी रूप बनते हैं ।
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कुछ कर्मणि और भावे रूपों का कोष्ठक धातु | वर्तमानकाल | विध्यर्थ-आज्ञार्थ | भूतकाल | भविष्यकाल | क्रियातिपत्त्यर्थ
तृ.पु. तृ.पु. सर्वपु. तृ.पु. | सर्वपु.
एकवचन | एकवचन सर्ववचन एकवचन | सर्ववचन दीस् दीसइ दीसउ दीसीअ | (नि.२ से) (नि.२ से)
पासिहिइ | पासन्तो-न्ती-न्तं
| पासेज्ज-ज्जा
दीसन्तो-न्ती-न्तं
दीसिहिइ |दीसेज्ज-ज्जा भण् भण्णइ भण्णउ | भण्णीअ |भणिहिइ भण्णन्तो-न्ती
भणीअईअ
|भण्णेज्ज-ज्जा भणीअइ भणीअउ | भणिज्जई भणिहिइ |भणेज्ज-ज्जा भणिज्जइ | भणिज्जउ
|भणन्तो-न्ती-न्तं हस् हस्सइ हस्सउ हस्सीअ | हस्सिहिइ | हस्सन्तो-न्ती-न्तं
हसीअईअ
हस्सेज्ज-ज्जा हसीअइ | हसीअउ हसिज्जईअ हसिहिइ | हसन्तो-न्ती-न्तं हसिज्जइ | हसिज्जउ
हसेज्ज-ज्जा थुण् थुव्वइ
थुव्वउ थुव्वीअ थुविहिइ | थुव्वन्तो-न्ती-न्तं
थुव्वेज्ज-ज्जा थुणीअइ थुणीअउ थुणीअईअ | थुणिहिइ थुणन्तो-न्ती-न्तं
थुणिज्जई
थुणेज्ज-ज्जा थुणिज्जइ | थणिज्जउ ने नेईअइ
नेईअउ नेईअसी. | नेहिइ नेन्तो-न्ती-न्तं
ही-हीअ नेइज्जइ | नेइज्जउ | नेइज्जसी
नेज्ज-ज्जा
ही-हीअ 9. शब्द में द्र संयुक्त व्यंजन हो तो द्र के र का विकल्प से लोप होता है ।
(२/८०) उदा. चन्दो, चंद्रो (चन्द्रः) । भद्दो, भद्रो (भद्रः)
रुद्दो, रुद्रो (रुद्रः) । समुद्दो, समुद्रो (समुद्रः)
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शब्दार्थ (पुंलिंग) अकाल (अकाल) = अकाल , समय बिना | मारुअ (मारुत) = पवन, वायु आणाल (आलान) = बंधन, हाथी को राहु (राहु) = राहु ग्रह बाँधने का खूटा
| विउस (विद्वस्) = विद्वान् उवयार (उपकार) = उपकार, आदर, विहि (विधि) = प्रकार, भाग्य , कर्तव्य, सेवा
आज्ञा नायमग्ग (न्यायमार्ग) = नीति, मार्ग सज्झाय (स्वाध्याय) = शास्त्रपठन, नीसंद (नि:ष्यन्द) = रस का झरना, आवृत्ति करना गलना
समणोवासग-य (श्रमणोपासक) पओग (प्रयोग) = प्रयोग, साधन I= श्रावक, साधु का उपासक परिसर (परिसर) = समीप सुअ (सुत) = पुत्र भुयग (मुजग) = साँप, सर्प
(नपुंसकलिंग) गुंजिअ (गुञ्जित) = गुनगुनाहट | भद्द । (भद्र) = कल्याण, सुख, चिंध । (चिह्न) = चिह्न, लंछन, भद्र चिण्ह निशानी
मउण) (मौन) = मौन जंत (यन्त्र) = यन्त्र, मशीन |मोण दुआर ) (द्वार) = दरवाजा मसाण । (श्मशान) = श्मशानभूमि दार
सुसाण
| वसण (व्यसन) कष्ट, दुःख नहयल (नभस्तल) आकाशतल सुरहि (सुरभि) सुगन्ध
(पुंलिंग + नपुंसकलिंग) रुक्ख (वृक्ष) वृक्ष, पेड़
(स्त्रीलिंग) अउज्झा (अयोध्या) = एक नगरी का | परिसा (पर्षद) = सभा अओज्झा नाम, अयोध्या सद्धा। (श्रद्धा) = धर्मराग, स्पृहा , केरिसी (कीदृशी) = किस प्रकार की सड्ढा । = विश्वास तारा (तारा) नक्षत्र, तारा । सहा (सभा) = सभा देवी (देवी) देवी, उत्तम स्त्री, पटरानी
मंगल
वार
१३७
POS
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अप्प (अल्प) थोड़ा असब्भ (असभ्य) खराब, सभ्य नहीं
इयर (इतर) अन्य दूसरा, हीन उच्च (उच्चक) उन्नत, ऊँचा
उच्चअ
कयग्घ (कृतघ्न) उपकार नहीं माननेवाला किअंत (कियत् ) = कितना
.
=
(विशेषण)
=
=
नमकहराम,
गुरुअ ( गुरुक) = बड़े, ज्येष्ट
ठिअ (स्थित) = खड़ा रहा हुआ, रहा वीसत्य (विश्वस्त) = विश्वासवाला | सीयल (शीतल) = ठण्डा,
हुआ
शीत
थेर ( स्थविर ) = वृद्ध, वृद्ध जैन साधु स्पर्शवान दयालु (दयालु) = दयावान
धवल (धवल) = सफेद, श्वेत धुत्त (धूर्त) = ठग
| निम्मल (निर्मल) = स्वच्छ
पच्चक्ख (प्रत्यक्ष) = साक्षात्, खुल्ला, प्रत्यक्ष
भद्द) (भद्र) = कल्याण करनेवाला, भद्र
}
सुखी, सरल स्वभावी
रउद्द] ( रौद्र) = दारुण, भयंकर,
}
भीषण
रोद्द
(सामासिक शब्द)
अन्नुन्नरूव (अन्योन्यरूप) = परस्पर | महिलामण (महिलामनस्) = स्त्रियों का
स्वरूपवान
मन
इंदियवग्ग (इन्द्रियवर्ग) = इन्द्रियों का विविहचरित (विविधचरित्र) = अलगसमूह जोयणपरिमंडल (योजनपरिमंडल)
अलग चरित्र
गोलाकार योजन प्रमाण
नयसहस्स (नयसहस्र) = हजारों नीति भिच्चगुण (भृत्यगुण) = नौकर के गुण मच्छवहगाइ (मत्स्यवधकादि)
ससिरवि (शशिरवि) = चन्द्र और सूर्य सिहरपरंपरा (शिखरपरंपरा ) = शिखरों की परम्परा सुयणदुज्जणविसेस (सुजनदुर्जनविशेष) = सज्जन-दुर्जन का भेद
मच्छीमार आदि
सुरहि (सुरभि ) = सुगन्धवाला
अव्यय
इणं (इदम्) यह (इदम् सर्व प्र. एकव .) | समंता (समन्तात् ) = चारों तरफ
केणइ (केनचित् ) = किसी के द्वारा जहसत्ति (यथाशक्ति) = शक्ति अनुसार सव्वओ ( सर्वतः) = सब तरफ
सक्खं (साक्षात्) = प्रत्यक्ष हु ) ( खलु ) = निश्चय, वितर्क, खु} भावना, वर्थ में
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5.
धातु अव-मन्न् (अव + मन्) = अवज्ञा करनी, दम् (दम्) = निग्रह करना अपमान करना
|सं-प-मज्ज् (सं +प्र + मृज) = साफ अव-लंब (अव + लम्ब) = आश्रय लेना | करना, निर्मल करना उव-यर (उप + कृ) = उपकार करना हिंड् (हिण्ड्) = जाना, घूमना चव् (कथ) = बोलना पम्हस् (वि + स्म) = भूलना, विस्मरण होना
हिन्दी में अनुवाद करें 1. जे भावा पुव्वण्हे दीसीअ, ते अवरण्हे न दीसन्ति । । 2. जह पवणस्स रउद्देहिं गुंजिएहिं मंदरो न कंपिज्जइ, तह खलाणं
असब्भेहिं वयणेहि सज्जणाणं चित्ताइं न कंपीइरे । 3. धम्मेण सुहाणि लब्मन्ति, पावाइं च नस्संति । 4. समणोवासएहिं चेइएसु जिणंदाणं पडिमाओ अच्चिज्जीअ |
विउसाणं परिसाए मुक्खेहिं मउणं सेवीअउ अन्नह मुक्खत्ति नज्जिहिन्ति । 6. देवेहिं सीयलेण सुहफासेण सुरहिणा मारुएण जोयणपरिमंडला भूमी
सव्वओ समंता संपमज्जिज्जइ । 7. अग्गिणा नयरं डज्झीअ । 8. गुरूणं भत्तीए सत्थाणं तत्ताइं णविहिरे । 9. अज्ज वि अउज्झाए परिसरे उच्चेसु रुक्खेसु ठिएहिं जणेहिं निम्मले
नहयले धवला सिहरपरंपरा तस्स गिरिणो दीसइ । 10. गुरूणमुवएसेण संसारो तीरइ । 11. भद्दे ! का तुमं देवि व्व दीससि ? ! 12. सहा केरिसी वुच्चए ? ! 13. जत्थ थेरा अत्थि सा सहा । 14. कलिम्मि अकाले मेहो वरिसेइ, काले न वरिसेज्ज, असाहू पूइज्जन्ति,
साहवो न पूईइरे । 15. वेसाओ धणं चिय गिण्हन्ति, न ह धणेण ताओ घिप्पन्ति । 16. होइ गुरुयाणं गरुयं, वसणं लोयम्मि न उण इयराणं ।
जं ससिरविणो घेप्पंति, राहुणा न उण ताराओ ||1|| 17. जलणो वि घेप्पइ सुहं, पवणो भुयगो य केणइ नएण ।
महिलामणो न घेप्पइ, बहुएहिं नयसहस्सेहि ||2|| 18. पूइज्जति दयालू जइणो, न ह मच्छवहगाई । 19. को कस्स एत्थ जणओ, का माया बंधवो य को कस्स | कीरंति सकम्मेहिं, जीवा अन्नुन्नरूवेहिं ||3||
१३९ -
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20. सव्वस्स उवयरिज्जइ, न पम्हसिज्जइ परस्स उवयारो |
विहलं अवलंबिज्जइ, उवएसो एस विउसाणं ।।4।। 21. रिउणो न वीससिज्जइ, कयावि वंचिज्जइ न विसत्थो ।
न कयग्घेहि हविज्जइ, एसो नाणस्स नीसंदो ।।5।। 22. वन्निज्जइ भिच्चगुणो, न य वन्निज्जइ सुअस्स पच्चक्खे ।
महिलाओ नोभया वि हु, न नस्सए जेण माहप्पं ।।6।। 23. जीवदयाइ रमिज्जइ, इंदियवग्गो दमिज्जइ सयावि ।
सच्चं चेव चविज्जइ, धम्मस्स रहस्समिणमेव ||7|| 24. दीसइ विविहचरितं, जाणिज्जइ सुयणदुज्जणविसेसो । धुत्तेहिं न वंचिज्जइ, हिंडिज्जइ तेण पुहवीए ||8||
प्राकृत में अनुवाद करे1. लक्ष्मण द्वारा शत्रु का मस्तक काटा गया । 2. श्रावकों द्वारा गुरुओं के वचन पर श्रद्धा की जाती है । (सद्दह) 3. श्रद्धा से उपाध्याय के पास ज्ञान प्राप्त किया जाता है । 4. योगियों द्वारा श्मशान में मन्त्रों का ध्यान किया जाता है । (झा) 5. नटों द्वारा दरवाजे में नृत्य किया जाता है। 6. प्रजाजन राजा की आज्ञा का अपमान न करें। 7. चोर के ललाट में अग्नि द्वारा चिह्न किया जाता है । 8. पहले कोई जल और वनस्पति में जीव नहीं मानते थे, लेकिन अब यन्त्र
के प्रयोग से उनमें साक्षात् जीव दिखाई देते हैं । 9. राजा के पुरुषों द्वारा चोर पकड़ा गया और दण्ड दिया गया । 10. जो धन न्यायमार्ग से प्राप्त किया जाता है, वह कभी भी नष्ट नहीं होता। 11. रात्रि में मुनियों द्वारा स्वाध्याय किया जायेगा । 12. शिष्यों को सदा आचार्य की सेवा करनी चाहिए । 13. मैं दुष्कर्मों से मुक्त होता हूँ। 14. तुम मोह से पागल नहीं होते हो । 15. तू शत्रु द्वारा जीता गया | 16. तुम धर्म द्वारा रक्षण कराये गए । 17. यदि हमेशा धर्म सुना जाय, दान दिया जाय, शील धारण किया जाय,
गुरुओं को वन्दन किया जाय, विधिपूर्वक जिनेश्वर की प्रतिमा की पूजा की
जाय और तत्त्वों की श्रद्धा की जाय तो यह संसार तैरा जा सकता है। 18. थोड़ा भी परोपकार किया जाय तो परलोक में सुखी बनेंगे । 19. बालक द्वारा पिता की आज्ञा मानी गयी । 20. उत्तम पुरुषों द्वारा जो कार्य प्रारम्भ किया जाता है उसमें वे अवश्य व सफल होते हैं।
- १४०
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________________
पाठ - 20
कृदन्त 1. कृदन्त के दो प्रकार हैं । विशेषणरूप कृदन्त और अव्ययरूप कृदन्त । 2. हेत्वर्थ और संबंधक भूतकृदन्त अव्ययरूप कृदन्त हैं, उनको कोई विभक्ति
नहीं लगती है। 3. उपर्युक्त दो सिवाय के कृदन्त विशेषणरूप कृदन्त हैं, उनके तीनों लिंगों में रूप बनते हैं।
अव्ययरूप कृदन्त
हेत्वर्थ कृदन्त 1. धातुओं के अंग को उं-तुं प्रत्यय लगाने पर हेत्वर्थ कृदन्त बनता है, इस
प्रत्यय के लगने पर पूर्व अ का इ अथवा ए होता है तथा आर्ष में त्तए-तुं
प्रत्यय भी लगता है। उदा. सुण + उ = सुणिउं, सुणेउं । हस + उ = हसिउं, हसेउं
सुण + तुं = सुणितुं, सुणेतुं हस + तुं = हसितुं, हसेतुं सुण + त्तए = सुणित्तए, सुणेत्तए | हस + त्तए = हसित्तए, हसेत्तए सुण + तुं = सुणित्तुं , सुणेत्तुं | हस + तुं = हसित्तुं , हसेत्तुं (श्रोतुम्) = सुनने के लिए । (हसितुम्) = हँसने के लिए झाअ + उ = झाइउं, झाएउं झाअ + तुं = झाइतुं, झाएतुं झाअ + त्तए = झाइत्तए, झाएतए (ध्यातुम्) = ध्यान करने के लिए झाअ + तुं = झाइत्तुं, झाएतुं झा + उ = झाउं
झा + तुं = झातुं चय = चइउं, चएउं, चइतए, चएतए, चतुं, चएतुं (त्यक्तुम्) = त्याग करने के लिए। कर = करिउं, करेउं, कस्तिए, करेत्तए, कस्तुिं, करेतुं (कर्तुम्) = करने के लिए। .
स्व
-१४१
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घेत्तुं (गृहीतुम् ) = ग्रहण करने के लिए वोत्तुं (वक्तुम् ) = बोलने के लिए रोत्तुं (रोदितुम् ) = रोने के लिए भोत्तुं (भोक्तुम्) खाने के लिए बोद्धुं (बोद्धुम् ) = जानने के लिए
उपयोगी अनियमित हेत्वर्थ कृदन्त
सम्बन्धक भूतकृदन्त
2. धातु के अंग को तुं, उं, अ, तूण, ऊण, तुआण, उआण प्रत्यय लगाने पर सम्बन्धक भूतकृदन्त बनता है, ये प्रत्यय लगाने पर पूर्व अ का इ अथवा ए होता है । आर्ष में त्ता, त्ताणं, त्तु और इय प्रत्यय भी लगते हैं उदा. हस + तुं = हसितुं, हसेतुं झाअ + अ = झाइअ, झाएअ झाअ + तूण = झाइतूण, झाएतूण झाअ + ऊण = झाइऊण, झाएऊण झाअ + तुआण = झाइतुआण, झाएतुआण
हस + उं हसिउं, हसेउं
=
हस + अ = हसिअ, हसेअ हस + तूण = हसितूण, हसेतूण हस + ऊण = हसिऊण, हसेऊण हस + तुआण = हसितुआण,
झाअ + उआण = झाइउआण, झाएउआण
हसेतुआण
हस + उआण = हसिउआण, हसेउआण
=
हस + त्ता हसित्ता, हसेत्ता हस + त्ताणं हसित्ताणं, हस + त्तु = हसितु, हसेत्तु हस + इ = हसिय
(हसित्वा) = हँसकर
-
"
हत्ताणं
मोत्तुं (मोक्तुम्) = छूटने के लिए दडुं (द्रष्टुम् ) = देखने के लिए काउं
क) (कर्तुम् = करने के लिए
झाअ + त्ता = झाइत्ता, झाएता झाअ + ताण = झाइत्ताणं, झाएत्ताणं झाअ + त्तु = झाइतु, झाएतु झाअ + इय = झाइय ( ध्यात्वा ) ध्यान करके
झा = झातुं, झाउं, झाअ, झातूण, झाऊण, झातुआण, झाउआण, झाइअ ( ध्यात्वा) = ध्यान करके
झाअ + तुं = झाइतुं, झाएतुं झाअ + उं = झाइउं,
झाएउं
अनियमित सम्बन्धक भूतकृदन्त
घेत्तूण घेत्तु आण, (गृहीत्वा) ग्रहण करके
वोत्तूण, वोत्तु आण ( उक्त्वा) = कहकर कट्टु
दट्ठूण, दट्टुआण (दृष्ट्वा) = देखकर काऊण काउआण (कृत्वा) = करके
१४२
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रोत्तूण, रोत्तुआण (रुदित्वा) = रोकर | मोच्चा (मुक्त्वा) = खाकर भोत्तूण, भोत्तुआण (भुक्त्वा) = खाकर मोच्चा (मुक्त्वा) = छोड़कर मोत्तूण, मोत्तुआण (मुक्त्वा) = छोड़कर मच्चा (मत्वा) = विचारकर गन्तूण, गंतुआण (गत्वा) = जाकर | वंदित्ता (वंदित्वा) = वन्दन करके उठाए, उट्ठाय (उत्थाय) = उठकर | सुच्चा-सोच्चा (श्रुत्वा) = सुनकर गच्चा (गत्वा) = जाकर
सुत्ता (सुप्त्वा) = सोकर णच्चा (ज्ञात्वा) = जानकर | साहट्ट (संहृत्य) = संकोचकर बुज्झा (बुद्ध्वा) = बोध पाकर 3. सम्बन्धक भूतकृदन्त के प्रत्ययसंबंधी ण का अनुस्वारसहित भी प्रयोग
होता है | उदा. तूणं, ऊणं, तुआणं, उआणं = हसितूणं, हसिऊणं, हसितुआणं, हसिउआणं आदि ।
विशेषणरूप कृदन्त
कर्मणि भूतकृदन्त 4. धातु के अंग को अ अथवा त प्रत्यय लगने पर कर्मणि भूतकृदन्त बनता
है, इस प्रत्यय के लगने पर पूर्व के अ का इ होता है | यह कृदन्त विशेषण होने के कारण इसका स्त्रीलिंग 'आ' लगाने पर बनता है, इसके रूप आकारान्त स्त्रीलिंग के समान बनते हैं तथा पुंलिंग
नपुंसकलिंग रूप अकारान्त पुंलिंग-नपुंसकलिंग के समान बनते हैं । उदा. पुंलिंग । नपुंसकलिंग स्त्रीलिंग
सुण + अ = सुणिओ7 (श्रुतः) | सुणिअं) (श्रुतम्) | सुणिआ7 (श्रुता) सुण + त = सुणितो | सुणितं J | सुणिता । रामेण देसणा सुणिआ - राम द्वारा देशना सुनी गई । झा + अ = झाअं, झातं (ध्यातम्) ध्यान किया गया । हस + अ = हसिअं, हसितं (हसितम्) हँसाया । झाअ + अ = झाइअं, झाइतं (ध्यातम्) ध्यान किया गया ।
LSO
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संस्कृत कृदन्त से प्राकृत नियमानुसार परिवर्तन होकर बनते कृदन्त
उक्किट्ठे (उत्कृष्टम् ) श्रेष्ट कडं ) (कृतम्) किया हुआ
}
कयं
गयं (गतम्) गया हुआ
हुआ, कहा हुआ
चत्तं (त्यक्तम्) त्याग किया हुआ
दिट्ठ (दृष्टम्) देखा हुआ सिद्धं (सृष्टम्) त्याग किया हुआ, रखा हुआ, अलग
मिट्ठे (मृष्टम् ) मधुर, साफ, स्वच्छ वट्टं (वृतम्) बना हुआ संवुअं (संवृतम्:) ढका हुआ, छुपाया हुआ
सुयं (श्रुतम् ) सुना हुआ
हयं (हतम्) मारा हुआ
धत्थं (ध्वस्तं) नष्ट हुआ, गिरा हुआ हिअं (हृतम्) हरण किया हुआ उपयोगी अनियमित कर्मणि भूतकृदन्त
(स्तम्) दुःखी, पीड़ित
अप्फुण्णो ( आक्रान्तः) दुःखी,
आढत्तो आरद्धो
नयं (नतम् ) नम्र, नमा, झुका हुआ । निब्बुओ (निर्वृतः) शान्त हुआ पण्णत्तं (प्रज्ञप्तम्) प्रतिपादन किया
तत्थं
दबाया हुआ
तठ्ठे
} (आरब्ध) प्रारम्भ किया हुआ हित्यंं
दक्को (दंष्टः) डंक दिया हुआ
दट्ठो
दड्डो (( दग्धः) जलाया हुआ दद्धो
}(दग्धः)
उक्कोसं (उत्कृष्टम्) श्रेष्ठ किलिन्नो (क्लिन्नः) गीला, भीगा हुआ खित्तं (क्षिप्तम्) दूर किया हुआ गिलाणं (ग्लानम्) रोगी गुत्तो (गुप्तः) छुपाया हुआ, चक्खिअं (आस्वादितम्) चखा हुआ छित्तं (स्पृष्टम्) स्पर्श किया हुआ
छूढं (क्षिप्तम्) फेंका हुआ
लुक्को
छिक्को ) (छुप्तः) स्पर्श किया हुआ लुग्गो
}
छुत्तो
जढं (त्यक्तम्) त्याग किया हुआ झोसिअं (क्षिप्तम्) फेंका हुआ ठड्डो (स्तब्धः ) अभिमानी,
अक्कड़
दिण्णं (दत्तम्) दिया हुआ दुद्धं (दुग्धम् ) दोहा हुआ निच्छूढं (उद्वृत्तम्) बाहर निकाला हुआ, ऊपर फेंका हुआ (रुग्णः) = रोगी
| ल्हिक्को (नष्टः) = भागा हुआ
नष्ट हुआ
| विढत्तं (अर्जितम् ) = पैदा किया हुआ वोलीणो (अतिक्रान्त) = उल्लंघन किया हुआ
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वोसट्टो (विकसितः) = विकास पाया हुआ | मुक्को । (मुक्तः) त्याग किया हुआ, निमिअं (स्थापितम्) स्थापना किया | मुत्तो । छुड़ाया हुआ
हुआ | मुद्धं (मुग्धम्) मोहित, मूर्ख निसुट्टो (निपातितः) मारा हुआ, लुअं (लूनम्) काटा हुआ
गिराया हुआ पम्हुट्ठो (दे. विस्मृतं) नष्ट, भूला हुआ | सक्को। (शक्तः) = समर्थ पल्हत्थं । (पर्यस्तम्) फेंका हुआ, | सत्तो । पल्लोटें दूर किया हुआ
सणिद्धं ) (स्निग्धम्) = मायालु, फुडं (स्पृष्टम्) स्पर्श किया हुआ सिणिद्धं । स्नेहालु फुडं (स्पष्टम्) स्पष्ट किया हुआ
निधं । मिलाणं (म्लानम्) सूखा हुआ, सिलिट्ठो (श्लिष्टः) भेंटा हुआ मुरझाया हुआ, खिन्न सुत्तो (सुप्तः) सोया हुआ
कर्तरि भूतकृदन्त 5. कर्मणि भूतकृदन्त को वंत प्रत्यय लगाने से कर्तरि भूतकृदन्त बनता है | उदा. गय-गयवंतो (गतवान्), सुय-सुयवंतो (श्रुतवान्)
कर्मणि वर्तमानकृदन्त 6. धातु के कर्मणि अंग को पुंलिंग-नपुंसकलिंग में न्त-माण प्रत्यय और
स्त्रीलिंग में ई, न्ती, न्ता, माणी, माणा प्रत्यय लगाने पर कर्मणि वर्तमान
कृदन्त बनता है, ये प्रत्यय लगने पर पूर्व अ का विकल्प से ए होता है | उदा. पुंलिंग नपुंसॉकलिंग | स्त्रीलिंग हसिज्ज - हसिज्जन्तो । हसिज्जन्तं हसिज्जई, हसिज्जेई
हसिज्जेन्तो । हसिज्जेन्तं हसिज्जन्ती, हसिज्जेन्ती हसिज्जमाणो हसिज्जमाणं हसिज्जन्ता हसिज्जन्ता हसिज्जेमाणो हसिज्जेमाणं हसिज्जमाणी, हसिज्जेमाणी
हसिज्जमाणा, हसिज्जेमाणा हसीअ - हसीअन्तो हसीअन्तं हसीअई, हसीएई
हसीएन्तो हसीएन्तं हसीअन्ती, हसीएन्ती हसीअमाणो | हसीअमाणं हसीअन्ता, हसीएन्ता
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हसी माणो
(हस्यमानः)- हँसाता
दीस सन्तो
सेतो
दीसमाणो
दीसेमाणो
(दृश्यमानः) दिखाई देता
-
हो
tic
हसी माणं
हस्यमा-हँसाता (हस्यमाना)- हँसाती
दीसई, दीसेई दीसन्ती, दीसेन्ती
|दीसन्ता, दीसेन्ता
दीसन्तं
दीसेन्तं
दीसमाणं
दीसेमाणं
(दृश्यमानम्)दिखाई देता
कर्तरि वर्तमानकृदन्त
7. धातु के कर्तरि अंग को पुंलिंग नपुंसकलिंग में न्त-माण प्रत्यय और स्त्रीलिंग में ई, न्ती, न्ता, माणी, माणा प्रत्यय लगाने पर कर्तरि वर्तमान कृदन्त बनता है, ये प्रत्यय लगने पर पूर्व अ का विकल्प से ए होता है ।
पुंलिंग
नपुंसकलिंग
स्त्रीलिंग
उदा. हस + न्त= हसन्तो, हसेन्तो हस+माण = हसमाणो,
हसेमाणो
होतो हुन्तो होमाणो
( हसन्-हसमान :) हँसता
हो -
होअन्तो
होएन्तो
होअमाण
होअमाणं
होएमाणो होएमाणं
| हसीअमाणी, हसीएमाणी हसी अमाणा, हसीएमाणा
हसन्तं, हसेन्तं हसमाणं, हसेमाणं हसन्ती
हँसती
होअन्तं
होएन्तं
दीसमाणी, दीसेमाणी
दीसमाणा, दीसेमाणा (दृश्यमाना)- दिखाई देती
होन्तं
हुन्तं
होमाणं
(हसत्-हसमानम्) हस+न्ता
हँसता
हस + ई = हसई, हसेई
१४६
=
होई
होन्ती, हुन्ती, होन्ता, हुता होमाणी, होमाणा
(भवन्-भवमानः)- होता (भवद्-भवमानम्) (भवन्ती-भवमाना) होती
होता
हसन्ती,
=
हसन्ता,
हसेन्ता
| हस+माणी = हसमाणी, हसेमाणी
| हस+माणा = हसमाणा, हमाणा (हसन्ती-हसमाना)
हसेन्ती
हँसती
होअई, होएई
होअन्ती, होएन्ती
होअन्ता, होएन्ता
होअमाणी, होएमाणी
होअमाणा, होएमाणा
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भविष्य कृदन्त 8. धातु को 'इस्स' प्रत्यय लगाकर वर्तमान कृदन्त के प्रत्यय लगाने पर
भविष्य कृदन्त बनता है। उदा. पुंलिंग | नपुंसकलिंग | स्त्रीलिंग जिण+इस्स = जिणिस्सन्तो, | जिणिस्सन्तं, जिणिस्सई, जिणिस्समाणो | जिणिस्समाणं जिणिस्सन्ती,
जिणिस्सन्ता, जिणिस्समाणी,
जिणिस्समाणा (जेष्यन्-जेष्यमाणः) . (जेष्यन्-जेष्यमाणम्)- (जेष्यन्ती-जेष्यमाणा) जीतता होगा | जीतता होगा | - जीतती होगी
विध्यर्थ कृदन्त 9. धातु के अंग को तव्व, अव्व, अणीअ (अणीय) और अणिज्ज प्रत्यय
लगाने पर विध्यर्थ कर्मणि कृदन्त बनता है, तव्व और अव्व प्रत्यय लगने पर पूर्व अ का इ अथवा ए होता है । उदा. बोह - बोहिअव्वं , बोहेअव्वं , बोहणीअं , बोहितव्वं , बोहेतव्वं ,
बोहणिज्जं ।
(बोद्धव्यम्-बोधनीयम्) - जानने योग्य झाअ - झाइअव्वं, झाएअव्वं, झाअणीअं, झाइतव्वं, झाएतव्वं,
झाअणिज्जं
(ध्यातव्यम् - ध्यानीयम्) - ध्यान करने योग्य झा - झाअव्वं , झाणीअ, झातव्वं , झाणिज्जं
उपयोगी अनियमित विध्यर्थ कृदन्त कायव्वं (कर्तव्यम्) = करने योग्य मोत्तव्वं (मोक्तव्यम्) = छोड़ने योग्य घेतब्बं (गृहीतव्यम्) = ग्रहण करने योग्य | रोत्तव् (रोदितव्यम्) = रोने योग्य दट्ठदं (द्रष्टव्यम्) = देखने योग्य हंतव्वं (हन्तव्यम्) = मारने योग्य भोत्तवं (भोक्तव्यम्) = भुगतने योग्य,
खाने योग्य -
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10. मूलधातुओं को इर प्रत्यय लगाने पर कर्तृसूचक कृदन्त बनता है । उदा. हस् = हसिरो (हसनशीलः) = |रोविरं = (रुदनशीलम्) = रोनेवाला
हँसनेवाला भम् = भमिरो (भ्रमणशीलः) = भ्रमण हसिरा । (हसनशीला) हँसनेवाली
करनेवाला हसिरी)
|भमिरा । (भ्रमणशीला) भ्रमण हसिरं (हसनशीलम्) = हँसनेवाला भमिरी ) करनेवाली रोव् = रोविरो (रुदनशीलः) = रोनेवाला भमिरं (भ्रमणशीलम्) भ्रमण करनेवाला रोविरा । (रुदनशीला) = रोनेवाली रोविरी
इसी तरह लज्जिरो = लज्जावान, जम्पिरो = बोलनेवाला, वेविरो =
कम्पन करनेवाला, नमिरो = नम्र, गबिरो = गर्विष्ठ इत्यादि । 11. कर्तृसूचक कृदन्त सिद्ध संस्कृत पर से भी बनते हैं। कत्ता (कर्ता) = करनेवाला | पायगो । (पाचकः) = पकानेवाला कुंभआरो) (कुम्भकारः) = कुम्भार पायओ) कुंभारो ।
| भत्ता। (भर्ता) = पोषण करनेवाला गंता (गन्ता) = जानेवाला
भट्टा जायगो । (याचकः) = मांगनेवाला लोहयारो। (लोहकारः) = लुहार जायओ)
लोहारो दायगो । (दायकः) = देनेवाला सुवण्णआरो) (सुवर्णकारः) = सोनी दायओ।
सुवण्णगारो 12. शब्द के अन्दर त्व का च्च, थ्व का च्छ, द्व का ज्ज और ध्व का ज्झ
प्रयोगानुसार बनता है । (२/१५) उदा. किच्चा (कृत्वा)
पिच्छी (पृथ्वी) विज्जं (विद्वान्)
बुज्झा (बुद्ध्वा) 13. शब्द में संयुक्त व्यंजन का अन्त्याक्षर ल हो तो उसके पूर्व इ रखी जाती
है। उदा. किलिन्नो (क्लिन्नः) | सिलोओ-गो (श्लोकः)
किलेसो (क्लेशः) गिलायइ। (ग्लायति) सिलिटुं (श्लिष्टम्) गिलाइ ।
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14. तृतीया विभक्ति के स्थान पर कहीं-कहीं सप्तमी विभक्ति भी रखी
जाती है । उदा. त्रिभिः तैः, तेषु-तेसु अलंकिया पुहवी ।
शब्दार्थ (पुंलिंग) अग्गि (अग्नि) = अग्नि
निअम (नियम) = निश्चय, गृहीत प्रतिज्ञा अच्चय (अत्यय) = विनाश, मरण, | पडियार (प्रतिकार) = आनेवाली वस्तु विपरीत आचरण
को रोकना, रोग का इलाज, बदला आगम (आगम) = शास्त्र, सिद्धान्त पसु (पश) = पशु उवाय (उपाय) = उपाय
| वायस (वायस) = कौआ गब्म (गर्भ) = गर्भ
संवेग (संवेग) = संसार से वैराग्य जंबूकुमार (जंबूकुमार) = विशेषनाम, सुविज्ज (सुवैद्य, सुविद्यः) = अच्छा
जंबूकुमार | वैद, श्रेष्ठ विद्यावाला . जाम (याम) = प्रहर
सोग (शोक) = शोक जीवलोग (जीवलोक) = दुनिया, जगत्
नपुंसकलिंग कुमास्तण (कुमारत्व) कुमारपना पाहुड (प्राभृत) = भेंट, उपहार दवलिंग (द्रव्यलिंग) मुनिवेश, बाह्यवेश पोरुस । (पौरुष) = पुरुषत्व , पुरुषार्थ पच्चक्खाण (प्रत्याख्यान) प्रत्याख्यान | पोरिस । परिक्खण (परीक्षण) परीक्षा करना । वत्थु (वस्तु) = पदार्थ, चीज
सुह (शुभ) = मंगल, कल्याण
स्त्रीलिंग अमरी (अमरी) = देवी
|पिअसही (प्रियसखी) = प्रेमपात्र सखी आयइ (आयति) = भावी , भविष्यकाल | पीडा । (पीडा) = पीड़ा, दुःख आलोयणा (आलोचना) = प्रायश्चित्त हेतु पीला
दोष कहना, बताना |महादेवी (महादेवी) = पटरानी आहि (आधि) = मानसिक पीड़ा रमणी (रमणी) = सुन्दर स्त्री काया (काया) = देह
सत्ति (शक्ति) = शक्ति, सामर्थ्य किन्नरी (किन्नरी) = व्यंतर देवी । साविया । (श्राविका) = श्राविका निद्दा (निद्रा) = निद्रा
साविआ सिद्धि (सिद्धि) = मोक्ष
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__पुंलिंग + नपुंसकलिंग पाण (बहुवचन) (प्राण) इन्द्रियादि दस प्राण
विशेषण अलंकिअ (अलङ्कृत) शोभित परिचत्त हआ उम्मत्त (उन्मत्त) मत्त,
परिणीअ (परिणीत) विवाहित चरम । (चरम) अन्तिम मुक्खत्थि (मोक्षार्थिन) मोक्ष का अर्थी चरिम
लग्ग (लग्न) लगा हुआ, सम्बन्धित धणवंत (धनवत्) धनवान वयणिज्ज (वचनीय) नाणि (ज्ञानिन्) ज्ञानवान वियक्खण (विचक्षण) होशियार, कुशल परिच्चत्त (परित्यक्त) त्याग किया | समत्थ (समर्थ) समर्थ
अव्यय नूण, नूणं (नूनम्) निश्चय, विचार, कारण
सामासिक शब्द अजसघोसणा (अयशोघोषणा) अपयश | जीवदयामय (जीवदयामय) की घोषणा,
जीवदयारूप कालसप्प (कालसर्प) कालरूपी सर्प जुवइपिया (युवतिपिता) स्त्री के पिता
निययकुलं (निजककुलं) अपने कुल को
धातु अभि + नन्द् (अभि + नन्द्) प्रशंसा | उव्वह् (उद् + वह्) वहन करना,
करना | पालन करना आ + लोय (आ + लोक्) देखना, | खंड् (खण्ड) तोड़ना, टुकड़े करना
तलाश करना| पेच्छ (प्र + ईक्ष) देखना उवज्ज (उत् + पद्) उत्पन्न होना | वज्ज (वृज-वज) त्याग करना
हिन्दी में अनुवाद करें 1. पाणाणमच्चए वि जीवेहिं अकरणिज्जं न कायव्वं , करणीअं च कज्ज न
मोत्तव्वं । 2. धम्म कुणमाणस्स सहला जंति राईओ । 3. जेण इमा पुहवी हिडिंऊण दिट्ठा, सो नरो नूणं वत्थूणं परिक्खणे वियक्खणो होइ ।
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3. कालसप्पेण खाइज्जन्ती काया केण धरिज्जइ, नत्थि तत्थ को वि उवाओ । 5. सव्वे जीवा जीविउं इच्छन्ति, न मरित्तए, तओ जीवा न हंतव्वा । 'परस्स पीडा न कायव्वा' इइ जेण न जाणिअं तेण पढिआए विज्जाए किं ? 7. मुक्खत्थीहिं जीवदयामओ धम्मो करेअव्वो ।
6.
8. का सत्ती तीए तस्स पुरओ ठाइउं ।
9. परिच्चइय पोरुसं, अपासिऊण निययकुलं, अगणिऊण वयणीअं, अणालोइऊण आयइं, परिचत्तं तेण दव्वलिङ्गं ।
10. जं जिणेहिं पन्नत्तं तमेव सच्चं इअ बुद्धी जस्स मणे निच्चलं तस्स सम्मत्तं । 11. चोरो धणिणो धणं हरित्तए घरे पविसीअ ।
12. पच्चूसे जिणे अच्चिय, गुरू य वंदित्ता, पच्चक्खाणं च किरत्तु, पच्छा य
भोणं कुज्जा ।
13. गुरुणा धम्मं कुणमाणाणं सावगाणं, समायरंतीणं च साविआणं उवएसो
दिण्णो ।
14. पिउणा सिक्खीअमाणो पुत्तो सिक्खीज्जती य पुत्ती गुणे लहेज्ज । 15. सा महादेवी सुराणं रमणीहिं सलहिज्जंती, किन्नरीहिं गाइज्जंती, बुहेहिं थुव्वंती, बंधुणा मित्तेण य अभिनंदिज्जंती गभमुव्वहइ ।
16. एगो जायइ जीवो, एगो मरिऊण तह उवज्जेइ ।
एगो भइ संसारे, एगो च्चिय पावइ सिद्धिं ॥1॥
17. नाणेणं चिय नज्जइ, करणिज्जं तह य वज्जणिज्जं च । नाणी जाणइ काउं, कज्जमकज्जं च वज्जेउं ||2|| 18. जं जेण पावियव्वं, सुहमसुहं वा जीवलोयंम्मि |
तं पाविज्जइ नियमा, पडियारो नत्थि एयस्स ||3|| 19. जम्मंतीए सोगो, वड्ढतीए य वड्ढए चिंता |
परिणीआए दंडो, जुवइपिओ दुक्खिओ निच्चं ||4|| 20. जं चिय खमइ समत्थो, धणवंतो जं न गव्विरो होइ ।
जं च सुविज्जो नमिरो, तेसु तेसु अलंकिआ पुहवी ||5|| 21. लज्जा चत्ता, सीलं च खंडिअं, अजसघोसणा दिण्णा ।
जस्स कए पिअसहि !, सो चेअ जणो अजणो जाओ ||6|| 22. जत्थ रमणीण रूवं, रमणिज्जं पेच्छिऊण अमरीओ | लज्जंतीओ व्व चिंताइ, कह वि निद्दं न पावंति ||7||
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23. गायंता सज्झायं, झायंता धम्मझाणमकलंकं ।
जाणता मुणियव्वं, मुणिणो आवस्सए लग्गा ||8||
प्राकृत में अनुवाद करें
1. जंबूकुमार ने कुमार अवस्था में अपनी सब ऋद्धि का त्याग करके (च ) चारित्र ग्रहण किया (गिह) |
2. मैं शास्त्र पढ़ने के लिए (अहिज्ज्) गुरु के पास जाता हूँ ।
3. गुरु प्रमाद करते ( पमज्ज) साधु को पढ़ने के लिए (पढ़) कहते हैं । 4. रात्रि के प्रथम प्रहर में सोकर (सुव) और अन्तिम प्रहर में जगकर (जग्ग) किया जानेवाला (कीर ) अभ्यास स्थिर बनता है ।
5. मनुष्यों में सोनी, पक्षियों में कौआ और पशुओं में सियाल कपटी होता है ।
6. पाठशाला में अध्ययन करती (कुण) कन्याओं को तुम इनाम दो । 7. मनुष्यों की आधि हरण करने का उपाय (हर) शास्त्रश्रवण से अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है ।
8. अग्नि द्वारा जलती (डज्झ ) स्त्री का उसने रक्षण किया ( रक्ख ) । 9. राम द्वारा कही जानेवाली (क) बात सुनकर (सुण) उसने वैराग्य प्राप्त किया । 10. जानने योग्य (जाण) भावों को तुम जानो !
11. मूर्ख व्यक्ति ने अपना वस्त्र अग्नि में डाला (खि) और वह जल गया (डह्) । 12. साधुओं की सेवा द्वारा उसके दिन व्यतीत हुए ( वोलीण)
13. जीवों का वध करनेवाला और मांस का भक्षण करनेवाला (भक्ख) मनुष्य राक्षस कहलाता है ।
14. वह गुरु के पास पापों की आलोचना लेने के लिए (गिण्ह) जाते हुए ( वच्च) शरमाता है ।
15. वह समाधिपूर्वक मृत्यु पाकर (पाव) स्वर्ग में देव हुआ ।
16. रोते (रुव्) बालक को तू हैरान मत कर ।
17. हँसता हुआ बालक सब को प्रिय लगता है ।
18. ग्रहण करने योग्य को " (गह-गिण्ह्) ग्रहण कर, त्याग करने योग्य का (च) त्याग कर ।
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पाठ 21 व्यअनान्त नाम, तद्धित, अधिकतादर्शक और श्रेष्ठतादर्शक प्रत्यय
प्राकृत में व्यंजनान्त नाम के अन्त्य व्यंजनों का लोप होता है लेकिन कुछ शब्दों में विशेषता है, वह आगे बतायेंगे । 1. व्यंजनान्त नामों के अन्त्य व्यंजन का जिनमें लोप होता है उनके रूप
पहले बताये गये अ कारान्त, इकारान्त-उ कारान्त पुंलिंग और नपुंसकलिंग नामों के समान बनते हैं | उदा. जसो (यशस्)
जम्मो (जन्मन्) तमो (तमस्)
धणी (धनिन्) चक्खू (चक्षुष)
हत्थी (हस्तिन्) 2. स् कारान्त और न् कारान्त नामों का पुंलिंग में ही प्रयोग होता है लेकिन
दाम (दामन्), सिर (शिरस्), नह (नभस्) शब्दों का प्रयोग नपुंसकलिंग में ही होता है। पुं. प्रथमा एकवचन
नपुंसक प्रथमा एकवचन उदा. उरो (उरस) = वक्षस्थल दामं (दामन्) माला जसो (यशस्) = यश
सिरं (शिरस्) मस्तक तमो (तमस्) = अन्धकार नहं (नभस्) आकाश तेओ (तेजस्) = तेज पओ (पयस्) = दूध, जल तवो (तपस्) = तप जम्मो (जन्मन्) = जन्म नम्मो (नर्मन्) = हँसी, क्रीड़ा
मम्मो (मर्मन्) = मर्म, रहस्य अपवाद :- कुछ स्थानों में नपुंसकलिंग में भी प्रयोग दिखाई देते हैं । उदा. सेयं (श्रेयस्) कल्याण
सम्मं (शर्मन्) कल्याण वयं (वयस्) उम्र
चम्म (चर्मन्) चमड़ा सुमणं (सुमनस्) श्रेष्ठ मन, उदार चित्त
-१५३
-
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3. शरद् आदि शब्दों में अन्त्य व्यंजन का अ होता है, प्रावृष् और आयुष् शब्द के अन्त्य ष् का स और धनुष् शब्द के ष् का ह विकल्प से होता है । शरद् और प्रावृष् शब्द के रूप पुंलिंग में ही होते हैं ।
, सरओ (शरद) = शरदऋतु मिसओ (भिषज् ) = वैद्य
उदा.
पाउसो (प्रावृष्) = वर्षाऋतु आउसो सं (आयुष्) = आयु
आऊ-उं
(धनुष) = धनुष्य,
चाप, कार्मुक,
धणू
4. अन् अन्तवाले पुंलिंग नामों में अन्त्य अन् का विकल्प से आण होता है, जब आण नहीं होता है तब न् का लोप होता है ।
उदा. अद्ध-अद्वाण (अध्वन्) मार्ग, रास्ता
अप्प-अप्पाण (आत्मन्) आत्मा
उच्छ-उच्छाण (उक्षन) वृषभ, बैल
गाव-गावाण (ग्रावन) पत्थर
जुव- जुवाण (युवन) युवान
तक्ख तक्खाण
(तक्षन) सुथार
तच्छ-तच्छाण
पुस- पुसाण (पुषन) सूर्य बम्ह-बम्हाण (ब्रह्मन्) ब्रम्हा
महव-महवाण (मघवन्) इन्द्र
मुद्ध मुद्धाण (मूर्धन) मस्तक
राय-रायाण (राजन) राजा
स-साण (श्वन) कुत्ता
सुकम्म
सुकम्माण
पुंलिंग
पुंलिंग
पुंलिंग
पुंलिंग + नपुंसकलिंग
पुलिंग + नपुंसकलिंग
(सुकर्मन) अच्छे कर्मवाला
पुंलिंग
पुंलिंग
पुंलिंग
पुंलिंग
पुंलिंग
पुंलिंग
पुंलिंग
पुंलिंग
पुंलिंग
पुंलिंग
पुंलिंग
पुंलिंग
पुंलिंग
विशेषण
5. उपर्युक्त शब्दों के रूप अ कारान्त पुंलिंग के समान बनते हैं, लेकिन मूल शब्द अद्ध- अप्पाण आदि के रूपों में कुछ विशेषता है, वह नीचे बताते हैंप्रथमा एकवचन में आ प्रत्यय, प्रथमा द्वितीया बहुवचन, चतुर्थी, पंचमी
१५४
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और षष्ठी एकवचन में णो प्रत्यय, तृतीया एकवचन में णा प्रत्यय तथा द्वितीया एकवचन, चतुर्थी, षष्ठी बहुवचन में इणं प्रत्यय लगते हैं । ये प्रत्यय ज्यादा लगते हैं | चतुर्थी और षष्ठी विभक्ति सिवाय • णो प्रत्यय लगाने पर पूर्वस्वर दीर्घ होता है । उपर्युक्त नियमानुसार तैयार हुए प्रत्यय -
बम्ह (ब्रह्मन्) एकवचन बहुवचन एकवचन बहुवचन प. आ
बम्हा
बम्हाणो बी. इणं
णो
बम्हिणं बम्हाणो त. णा
बम्हणा च.-छ.
बम्हिणं पं. णो
बम्हाणो स. 0 सं. 0 6. अन् अन्तवाले नामों में उपर्युक्त रूप अधिक बनते हैं, शेष रूप देव के समान बनते हैं ।
बम्ह-बम्हाण शब्द के संपूर्ण रूप एकवचन
बहुवचन
.
बम्हणो
F55 ००
14.
बम्हो, बम्हाणो, बम्हा बम्हं, बम्हाणं, बम्हिणं
बम्हेण-णं, बम्हाणेण-णं बम्हणा बम्हाय, बम्हस्स, बम्हाणाय, बम्हाणस्स, बम्हणो
बम्हा, बम्हाणा, बम्हाणो बम्हे, बम्हा, बम्हाणे, बम्हाणा, बम्हाणो बम्हेहि-हि-हिं बम्हाणेहि-हिं हिं बम्हाण, बम्हाणं, बम्हाणाण, बम्हाणाणं, बम्हिणं
. षड्भाषा चन्द्रिका में षष्ठी एकवचन में भी णो प्रत्यय के पूर्व दीर्घस्वर किया हुआ __ है, इससे बम्हाणो, अप्पाणो, रायाणो वगैरह रूप भी बनते हैं।
१५५
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पं. बम्हत्तो, बम्हाओ - उ-हि- हिन्तो बम्हा, बम्हाणो, बम्हाणत्तो,
म्हणाओ
छ.
स.
सं.
प.
बी
उ-हि- हिन्तो,
त.
बम्हाणा
इस प्रकार अन् अन्तवाले नामों के रूप बनते हैं किन्तु अप्प और राय शब्दों के रूपों में विशेषता है ।
च.
बम्हस्स, बम्हणो,
बम्हाणस्स
बम्हे, बम्हम्मि,
बम्हाणे,
बम्हाणम्मि
हे बम्ह, बम्हो, बम्हा,
हे बम्हाण, बम्हाणो, बम्हाणा
7. अप्प शब्द को तृतीया एकवचन में णिआ-णाइआ ये दो प्रत्यय अधिक लगाये जाते हैं । इससे तृतीया एकवचन में अप्पणिआ, अप्पणइया ये दो रूप अधिक बनते हैं । शेष अप्प और अप्पाण शब्द के रूप बम्ह और बम्हाण शब्द के समान समझने चाहिए ।
अप्प - अप्पाण (आत्मन्)
एकवचन
अप्पो, अप्पाणो, अप्पा
अप्पं, अप्पाणं, अप्पिणं
अप्पेण-णं,
अप्पाणेण णं,
अप्पणा, अप्पणिआ, अप्पणइआ
अप्पाय,
अप्पस्स,
बम्हत्तो, बम्हाओ-उ-हिहिन्तो- सुन्तो,
बम्हेहि- हिन्तो- सुन्तो बम्हाणत्तो, उ-हि-हिन्तो सुन्तो
बम्हाणेहि- हिन्तो- सुन्तो बम्हाण, बम्हाणं, बम्हिणं,
बम्हाणाण, बम्हाणाणं
बम्हेसु, बम्हेसुं
बम्हाणे, बम्हाणेसुं
हे बम्हा, बम्हाणा,
म्हणो
अप्पाणाय, अप्पाणस्स,
अप्पण
म्हणाओ,
१५६
बहुवचन
अप्पा, अप्पाणा, अप्पाणो,
अप्पे, अप्पा, अप्पाणे, अप्पाणा, अप्पाणो अप्पेहि-हि-हिं,
अप्पाणेहि-हि-हिं
अप्पाण-अप्पाणं,
अप्पाणाण, अप्पाणाणं,
अप्पिणं
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पं. | अप्पत्तो, अप्पाओ-उ-हि-हिन्तो, | अप्पत्तो,
अप्पा, अप्पाणो, अप्पाणत्तो, अप्पाओ-उ-हि-हिन्तो-सुन्तो अप्पाणाओ-उ-हि-हिन्तो, अप्पाणा अप्पेहि
अप्पेहि-हिन्तो-सुन्तो अप्पाणत्तो, अप्पाणाओ-उ-हिन्तो-सुन्तो
अप्पाणेहि-हिन्तो-सन्तो अप्पस्स,
अप्पाण, अप्पाणं, अप्पाणस्स,
अप्पाणाण, अप्पाणाणं, अप्पणो
अप्पिणं अप्पे, अप्पम्मि,
अप्पेसु, अप्पेसुं. अप्पाणे, अप्पाणम्मि
अप्पाणेसु, अप्पाणेसुं हे अप्प, अप्पो, अप्पा,
अप्पा, हे अप्पाण, अप्पाणो,
अप्पाणा, हे अप्पाणा
अप्पाणो 8. राय (राजन्) शब्द के रूपों में निम्नलिखित विशेषता है - (1) णो, णा, म्मि ये तीन प्रत्यय लगाने पर पूर्व य का विकल्प से इ होता
उदा. राइणो, राइणा, राइम्मि, इ न हो तब-रायणो, रायणा, रायम्मि । (2) द्वितीया एकवचन और षष्ठी बहुवचन में प्रत्ययसहित राय शब्द के य
का इणं आदेश विकल्प से होता है | बी. एकव.
राइणं अथवा रायं . छ. बहुव.
राइणं अथवा रायाणं (3) तृतीया, पंचमी और षष्ठी एकवचन में णा-णो प्रत्यय के पूर्व राय शब्द
के आय का अण् विकल्प से होता है ।
त. एकवचन पं. एकवचन छ. एकवचन
रण्णा अथवा राइणा, रायणा रणो अथवा राइणो, रायाणो रणो अथवा राइणो, रायणो
- Quin
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च. बहुव. ।
(4) तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी और सप्तमी बहुवचन में प्रत्ययों के पूर्व
राय शब्द के य का विकल्प से दीर्घ 'ई' होता है। त. बहुव.
राईहि अथवा -राएहि
राईणं अथवा राइणं, रायाणं छ. बहुव. पं. बहुव.
राईओ, राईसुन्तो अथवा रायाओ, रायासुन्तो स. बहुव.
राईसुं अथवा राएसुं.
राय - रायाण (राजन्) एकवचन
बहुवचन रायो, रायाणो, राया
राया, रायाणा, राइणो, रायाणो रायं, रायाणं,
राए, राया, रायाणे, रायाणा, राइणं
राइणो, रायाणो राएण-णं, रायाणेण-णं, राएहि-हिं-हिं, रण्णा, राइणा, रायणा रायाणेहि हिँहिं, राईहि-हिँहिं रायाय, रायस्स,
रायाण-णं रायाणाय, रायाणस्स,
रायाणाण-णं रणो, राइणो, रायणो राइण, राईण-णं रायत्तो, रायाओ-उ-हि-हिन्तो, रायत्तो, राया,
रायाओ-उ-हि-हिन्तो-सुन्तो, रायाणत्तो, रायाणाओ-उ-हि- राएहि-हिन्तो-सुन्तो, हिन्तो, रायाणा,
रायाणत्तो, रण्णो, राइणो, रायाणो रायाणाओ-उ-हि-हिन्तो-सुन्तो
राइतो, राईओ-उ-हिन्तो-सुन्तो
रायाणेहि-हिन्तो-सुन्तो रायस्स, रायाणस्स,
रायाण, रायाणं, रणो, राइणो, रायणो
रायाणाण, रायाणाणं
राइणं, राईण-णं राए, रायम्मि,
राएसु, राएसुं. रायाणे, रायाणम्मि,
रायाणेसु, रायाणेसुं राइम्मि (रायंसि, रायाणंसि) राईसु-सुं हे राय, रायो, रायाण, हे राया, रायाणा, रायाणो, राया, (रायं)
राइणो, रायाणो
- १५८ -
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नपुंसकलिंग 9. अन् अन्तवाले नामों के नपुंसकलिंग रूप अकारान्त नपुंसकलिंग (वण)
जैसे बनते हैं और जो नाम विशेषण हैं उनके तृतीया विभक्ति से पुंलिंग के समान रूप बनते हैं । उदा.
सम्म (शर्मन्) - कल्याण, सुख नपुंसकलिंग एकवचन बहुवचन पढमा / बीया
सम्म
__ सम्माइं, सम्माइँ, सम्माणि शेष रूप अकारान्त नपुंसकलिंग वत् ।
दाम (दामन्) - माला नपुंसकलिंग
एकवचन बहुवचन पढमा / बीया दामं
दामाइं, दामाइँ, दामाणि तइया
दामेण-णं दामेहि-हिँहिं
शेष रूप अकारान्त नपुंसकलिंग वत् ।
सुकम्म, सुकम्माण (सुकर्मन्) . नपुंसकलिंग | एकवचन | बहुवचन पढमा | बीया | सुकम्मं । सुकम्माइं, सुकम्माइँ, सुकम्माणि,
सुकम्माणं | सुकम्माणाइं, सुकम्माणाइँ, सुकम्माणाणि
__शेष रूप बम्ह, बम्हाण वत् । 10. मत्, वत् और अत् अन्तवाले शब्दों के रूप अन्त्य अत् का अन्त करने
से अकारान्त शब्दों के समान ही बनते हैं । उदा. भगवंतो (भगवान्) पूज्य | अरिहंत (अर्हन्) अरिहंत
धणवंतो (धनवान्) धनवान | कियंतो (कियान्) कितना सिरिमंतो (श्रीमान्) लक्ष्मीवान | भवंतो (भवान्) आप हिरिमंतो (ह्रीमान्) लज्जावान भविस्संतो (भविष्यन्) होता आर्ष प्राकृत में प्रथमा एकवचन में निम्नानुसार भी रूप बनते हैं ।
-१५९
60
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उदा. भयवं (भगवान्) पूज्य धणवं (धनवान् ) धनवाला अरिहं (अर्हन्) अरिहंत प्रथमा बहुवचन-भगवंतो ( भगवन्तः ) तृतीया एकवचन भगवया - ता ( भगवता ) षष्ठी एकवचन- भगवओ-तो ( भगवतः )
प.
बी.
त.
स् कारान्त नाम
11. जस (यशस्) आदि शब्दों के रूप भी अकारान्त शब्दों के समान ही होते हैं ।
उदा. जसो (यशः)
तमो (तमः)
नहं ( नभः)
जस (यशस्)
प.
बी.
त.
जस
मण
वय
सिर
तेय तेज
-
-
-
-
एकवचन
जसो
जसं
जसेण-णं
यश
मन
वचन
मइमं ( मतिमान् ) बुद्धिशाली सिरिमं (श्रीमान्) लक्ष्मीवाला संवसं (संवसन्) साथ में रहनेवाला भवन्तो ( भवन्तः)
सुजसो
सुजसं
सुजसे
भवया-ता (भवता) भवओ-तो (भवतः )
शेष रूप देववत् ।
आर्ष में उपयोगी स् अन्तवाले शब्द तथा अन्य विशेष रुप
छ. एकव.
स. एकव.
मस्तक
बहुवचन
जसा जसे,
जसा
जसेहि-हि-हिं
शेष रूप देव (अकारान्त पुंलिंग) वत्
सुजसस् (सुयशस्)
सुजसा सुजसे, सुजसा सुजसेहि-हि-हिं
त. एकव.
जससा (यशसा) जससो (यशसः )
मणसा (मनसा) मणसो (मनसः) मणसि ( मनसि )
वयसा ( वचसा ) वयसो ( वचसः)
सिरसा (शिरसा) सिरसो ( शिरसः )
तेयसा (तेजसा ) तेयसो (तेजसः )
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तव - तप
| तवसा (तपसा) |तवसो (तपसः) तम - अंधकार, राहु| तमसा (तमसा) | तमसो (तमसः) चक्खु - चक्षु चक्खुसा (चक्षुषा) चक्खुसो (चक्षुषः) काय - देह कायसा (कायेन)| कायसो (कायस्य) जोग - योग जोगसा (योगेन)। बल - बल बलसा (बलेन) कम्म - कर्म, क्रिया | कम्मुणा (कर्मणा) धम्म - धर्म | धम्मुणा (धर्मेण)
इस प्रकार सिद्ध प्रयोग भी आर्ष प्राकृत में मिलते हैं - उदा. तमसा गसिओ वि सूरो विक्कम किं विमुच्चइ = राह द्वारा ग्रसित सूर्य भी क्या अपने पराक्रम का त्याग करता है ?
स्त्रीलिंग 12. विद्युत् सिवाय के व्यञ्जनान्त स्त्रीलिंग शब्दों में अन्त्य व्यंजन का आ
अथवा या होता है, उनके रूप आ कारान्त, उ कारान्त स्त्रीलिंग के समान बनते हैं । उदा. सरिआ - या (सरित्) नदी
पडिवआ - या (प्रतिपद्) एकम, पडवा पाडिवआ - या । आवआ - या 4 (आपत्) दुःख, आपदा संपआ - या (सम्पत्) लक्ष्मी विज्जु
(विद्युत्) बिजली 13. (1) व्यंजनान्त स्त्रीलिंग में अन्त्य र का रा होता है - उदा. गिरा स्त्री. (गिर) वाणी
धुरा स्त्री. (धुर) धुसरी, अग्र .
पुरा स्त्री. (पुर) नगरी (2) क्षुध् के ध् का और ककुभ् के भ् का हा होता है । उदा. छुहा (क्षुध) भूख, कउहा (ककुभ) दिशा . (3) अप्सरस् शब्द के स् का सा विकल्प से होता है । उदा. अच्छरसा (अप्सरस्) अप्सरा, देवयोनि विशेष
अच्छरा )
-१६१
%3
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उपयोगी तद्धित प्रत्यय 14. संस्कृत में आनेवाले वत्-मत् प्रत्ययों के अर्थ में प्राकृत में आलु, इल्ल,
उल्ल, आल, वन्त, मन्त, इत्त, इर और मण प्रत्यय आते हैं । उदा. नेहो अस्स अत्थि त्ति नेहालू (स्नेहवान्)
जडा अस्स अत्थि त्ति जडालो (जटावान्)
प. एकव. आलु - नेहालू (स्नेहवान्) स्नेहवाला _दयालू (दयावान्) दयावाला
ईसालू (ईर्ष्यावान्) ईर्ष्यावाला इल्ल - छाइल्लो (छायावान्) छायावाला
सोहिल्लो (शोभावान्) शोभावाला उल्ल - विआरुल्लो (विकारवान्) विकारवाला
मंसुल्लो (श्मश्रुवान्) दाढ़ीवाला आल - सद्दालो (शब्दवान्) शब्दवाला
जडालो (जटावान्) जटावाला
रसालो (रसवान्) रसवाला वन्त - धणवन्तो (धनवान्) धनवाला
भत्तिवन्तो (भक्तिमान्) भक्तिवाला मन्त - हणुमन्तो (हनुमान्) हनुमान
सिरिमन्तो (श्रीमान्) श्रीमन्त, लक्ष्मीवाला इत्तो - कव्वइत्तो (काव्यवान्) काव्यवाला इर . गव्विरो (गर्ववान्) गर्ववाला
मण - धणमणो (धनवान्) धनवाला 15. भाव में त्त-इमा-त्तण प्रत्यय लगते हैं। उदा. पीणत्तं, पीणिमा, पीणत्तणं (पीनत्वं) पुष्ट अवस्था
पुप्फत्तं , पुप्फिमा, पुप्फत्तणं (पुष्पत्वं) पुष्पावस्था 16. भव (हुआ) अर्थ में इल्ल-उल्ल प्रत्यय आते हैं । उदा. इल्ल - गामिल्लो (ग्रामे भवः) गाँव में उत्पन्न हुआ
पुरिल्ला (पुरे भवाः) नगर में उत्पन्न हुए उल्ल - अप्पुल्लं (आत्मनि भवम्) आत्मा में हुआ
१६२
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17. स्वार्थ में 'इल्ल-उल्ल-अ' ये तीन प्रत्यय लगते हैं । उदा. इल्ल - पल्लविल्लो (पल्लवकः) पत्ता उल्ल - पिउल्लो (पितृकः) पिता
मुहुल्लम् (मुखकम्) मुँह, मुख अ- चन्दओ (चन्द्रकः) चन्द्र
दुहिअओ (दुःखितकः) दुःखी
बहुअं (बहुकम्) ज्यादा 18. वत् (जैसा-जैसे = जिसतरह) अर्थ में व प्रत्यय लगता है और मयट्
प्रत्यय के अर्थ में मइअ प्रत्यय विकल्प से लगता है । उदा. महुरव (मथुरावत्) मथुरा के जैसा
विसमइओ । (विषमयः) विषस्वरूप विसमओ । नाणमइओ। (ज्ञानमयः) ज्ञानस्वरूप
नाणमओ 19. 'जैसा' अर्थ बताने में सर्वनामों को रिस (दृश-दृश) प्रत्यय लगता है,
यह प्रत्यय लगाने पर पूर्व अ का आ होता है तथा इम का ए और क
(किम्) का के होता है । उदा. जारिसो (यादृशः) = जैसा एरिसो (ईदृशः) = ऐसा, इसके जैसा तारिसो (तादृशः) = उसके जैसा, वैसा केरिसो (कीदृशः) = कैसा, किसके जैसा एयारिसो (एतादृशः) = इसके जैसा अम्हारिसो (अस्मादृशः) = हमारे जैसा तुम्हारिसो (युष्मादृशः) = तुम्हारे जैसा अन्नारिसो (अन्यादृशः)-दूसरे के जैसा आर्ष प्राकृत में -
तालीसो। (तादृशः) एयालिसो (एतादृशः) तालिसो
इमेरिसो। (ईदृशः) केसो (कीदृशः)
| एलिसो । अनियमित उपयोगी तद्धित शब्द अम्हकेरो (अस्मदीयः) = हमारा । तुम्हेच्चयं (यौष्माकम्) तुम्हारा तुम्हकेरो (युष्मदीयः) तुम्हारा - पारकेरं) अम्हेच्चयं (अस्मदीयम्) हमारा पारक्कं ) (परकीयम्) पराया
परक्कं ) -१६३
स्त्र
L
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________________
रायकेरं । (राजकीयम्) = राजा का एकल्लो) (एककः) अकेला रायक्कं
एगो सव्वंगिओ (सर्वाङ्गीणः) = सर्वाङ्ग व्याप्त एक्को . अप्पणयं (आत्मीयं) = अपना मीसालिअं) (मिश्रकं) मिश्र कडुएल्लं (कटुतैलम्) = कटुतैल, मीसं ।
तीखा तैल विज्जुला । (विद्युत) बिजली अवरिल्लो (उपरि) = ऊपर का विज्जू । जित्तिअं, जेत्तिअं, जेत्तिलं, जेद्दहं पत्तलं । (पत्रम्) पत्र, पत्ता, पर्ण (यावत्) = जितना
पत्तं । तित्तिअं, तेत्तिअं, तेत्तिलं, तेद्दहं (तावत्) एक्कसि = उतना
एक्कसि ) (एकदा) = एक समय इत्तिअं, एत्तिअं, एत्तिलं, एद्दहं (एतावत्) एक्कइया ) = इतना
भुमया । (भू) = भौं, भौंह, भू एत्तिअं, एत्तिलं, एद्दहं (इयत्) = इतना भमया ) केत्तिअं, केत्तिलं, केद्दहं (कियत्) = |पीवलं ) कितना
पीअलं ) (पीतम्) पीला नवल्लो) (नवकः) = नया पीअं . नवो ।
अंधलो । (अन्धकः) अन्धा अंधो ।
अधिकतादर्शक और श्रेष्ठतादर्शक प्रत्यय 20. अधिकतादर्शक यर (तर) और श्रेष्ठतादर्शक यम (तम) प्रत्यय शब्द को
लगाये जाते हैं, वे विशेषण बनते हैं । अन्त्य अ का ई करने पर इनका स्त्रीलिंग रूप बनता है, कुछ स्थानों में आ प्रत्यय लगाने पर भी स्त्रीलिंग रूप बनता हैं। उदा. धन्न - धन्नयरो (धन्यतर:) अधिक प्रशंसापात्र
धन्नयमो (धन्यतमः) सर्वाधिक प्रशंसापात्र कट्ठ कट्ठयरं (कष्टतरम्) अधिक दुःखदायक
कठ्ठयमं (कष्टतमम्) सर्वाधिक दुःखदायक लहु . लहुयरो (लघुतरः) अधिक छोटा
लहुयमो (लघुतमः) सबसे छोटा
% 3D
१६४
D
I
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________________
प.
बी.
त.
च. छ.
पं.
स.
सं.
प.
प.
उच्च
सं.
सं.
स्त्रीलिंग - ई प्रत्यय
आ प्रत्यय
धन्नयरी, कट्टयमी, लहुयरी, उच्चयमी,
धन्नयरा, उच्चयमा
आकारान्त पुंलिंग गोवा (गोपा) गोपाल
उच्चयरो (उच्चतरः) अधिक ऊँचा उच्चयमो (उच्चतमः) सब से ऊँचा
21. गामणी- खलपू वगैरह दीर्घ ईकारान्त - ऊकारान्त शब्दों के रूप, उनके स्वर ह्रस्व होकर ह्रस्व इकारान्त - उकारान्त पुंलिंग के समान ही बनते हैं, मात्र संबोधन में उनका स्वर नित्य ह्रस्व होता है ।
एकवचन
गामणी
-
खलपू
हे गामणि
हे खलपु
-
एकवचन
गोवा
गोवाम्
गोवाण-णं
गोवाहि, गोवाहि, गोवाहिं
गोवस्स
गोवाण, गोवाणं
गोवत्तो, गोवाओ - उ, गोवाहिन्तो गोक्तो, गोवाओ - उ- हिन्तो- सुन्तो
गोवम्मि
गोवासु, गोवासुं
हे गोवा !
हे गोवा !
बहुवचन
गोवा
गोवा
बहुवचन
गामणउ, गामणओ, गामणिणो, गामणी
खलपवो, खलपउ, खलपओ, खलपुणो, खलपू
हे गामणउ, गामणओ, गामणिणो, गामणी
हे खलपवो, खलपउ, खलपओ, खलपुणो, खलपू
शेष रूप मुणि, साहु वत्
प्राकृत
देश्य
अत्थक्कं (अकाण्डम्) अकस्मात्
आऊ (आप) पानी
आसीसा (आशी :) आशीर्वाद
प्रयुक्त शब्द
कत्थइ (क्वचित् ) कभी-कभी खुड्डओ ( क्षुल्लकः) छोटा साधु • गावी (गौः) गाय
• गो शब्द के स्त्रीलिंग अंग गावी, गाई, गोणी, गउ बनते हैं, गावी- गाई और गोणी के रूप इत्थी के समान तथा गउ के रूप धेणु के समान जानने चाहिए ।
१६५
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________________
-
गोणो (गौः) बैल, वृषभ
बहुयरं (बृहत्तरं) ज्यादा बड़ा छिछि, द्धिद्धि (धिधिक) धिक्कार हो | मघोणो (मघवन्) इन्द्र छिछई (पुंश्चली) असती, कुलटा स्त्री मुबहइ (उद्धहति) वह धारण करता है। जम्मणं (जन्म) जन्म
लज्जालुइणी (लज्जावती) धिरत्थु (धिगस्तु) धिक्कार हो ।
लज्जावाली, लज्जा पक्कलो (पक्वलः) समर्थ |विउसग्गो (व्युत्सर्गः) त्याग बइल्लो (बलीवर्दः) बैल |वोसिरणं (व्युत्सर्जनम्) त्याग करना बहिद्धा (बहिर्धा) मैथुन, कामक्रीड़ा, सक्खिणो (साक्षी) साक्षी, गवाह
बहार
शब्दार्थ (पुंलिंग) आसिण (आश्विन) आसो महीना नक्क (देश्य) नाक, नासिका छण (क्षण) उत्सव
|निहस (निकष) कसौटी का पत्थर
पहार (प्रहार) प्रहार
नपुंसकलिंग अंगण (अंगन) आँगन, चौक |दीणत्तण (दीनत्व) गरीबी अवच्च (अपत्य) पुत्र
| मंगल (मङ्गल) मंगल, शुभ जय । (जगत्) जगत्, दुनिया, संसार मंडल (मण्डल) गोलाकार, चक्राकार जग
हेम (हेमन्) सुवर्ण, सोना
विशेषण अभिभूअ (अभिभूत) पराभूत, पराजित मय 7 (मृत) मरा हुआ चवल (चपल) चंचल, अस्थिर मुअ . जिइंदिय (जितेन्द्रिय) इन्द्रियों को सह ) (सूक्ष्म) सूक्ष्म , बारीक
जीतनेवाला सुण्ह ) पतला निद्दय (निर्दय) दयारहित
| सुहम)
अव्यय
ताव । (तावत्) तब तक
जाव । (यावत्) जब तक जा
ता।
-
-१६६
===
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सामासिक शब्द उच्छाहसत्ति (उत्साहशक्ति) उत्साह | निअसीलबलेणं (निजशीलबलेन) अपने और शक्ति को
शील के बल से चउगइभवे (चतुर्गतिभवे) चार गतिरूप नियववसायाणुरूवं
__ संसार में | (निजव्यवसायानुरूपम्) जलपूरीकओ (जलपूरीकृतः) पानी से अपने व्यवसाय के अनुरूप
__ भरा हुआ|
धातु
तुद्द
आरम्भ (आरभ्य सं. भू. कृ.) आरम्भ | प + वज्ज् (प्र + पद्य) = स्वीकार करना
करके, चालू करके वि + वाह (वि + वाहय्) = विवाह करना तुड् । (त्रुट) = टूटना
संध् (सं + धा) = जोड़ना, सन्धि
करना, पसन्द करना, प्रेम करना निवट् । (नि + वृत् - वर्त) = वापिस सूय् (सूचय) = सूचना करना निअट् आना, पीछे आनासोह (शोधय) = शुद्ध करना, ढूंढ़ना
हिन्दी में अनुवाद करें1. देविंदेहिँ अच्चिअं सिरिमहावीरं सिरसा मणसा वयसा वंदे । 2. महासईए सीयाए अप्पाणं सोहन्तीए निअसीलबलेण अग्गी जलपूरीकओ ।
गुरुया अप्पणो गुणे अप्पणा. कयाइ न वण्णन्ति । नराणं सुहं वा दुहं वा को कुणइ ? अप्पण च्चिय कयाइं कम्माइं
समयम्मि परिणमंति । 5. जइ उ तुम्हे अप्पणो रिद्धिं इच्छह, तो निच्चपि जिणेसरं आराहह ।
जो कोहेण अभिभूओ जीवे हणेइ, सो इह जम्मे परम्मि य जम्मणे वि
अप्पणो वहाइ होइ। 7. नायपुत्तो भयवं महावीरो सिद्दत्थस्स रण्णो अवच्चं होत्था । 8. अरिहंता मंगलं कुज्जा । अरिहंते सरणं पवज्जामि । 9. गयणे अच्छरसाणं नच्चं दीसइ । 10. भिसया तणुस्स वाही अवणेन्ति, लोगोत्तमा य भगवंता सूरिणो य मणसो
आहिणो हरन्ति । 11. सरए इत्थीओ घराणं अंगणे अच्छरसाउ व्व गाणं कुणन्ति नच्चंति अ । 12. मुणओ पाउसे एगाए वसहीए चिठ्ठन्ति । 13. जए दयालवो जणा बहुआ न हवन्ति ।
१६७
ॐ
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________________
14. · कलिम्मि सिरिमन्ता लोगा पायेण गविरा निद्दया य संति । 15. दीणत्तणे वि जो उवयरेइ सो धम्मवंतो जाणेअव्वो । 16. गामिल्लाणं तत्ताइं न रोएन्ति । 17. पुरिल्ला लोगा तत्ताणं नाणे कुसला संति । 18. दुहिअएसु नरेसु सइ दयं कुज्जा । 19. धणवंताणं पि लच्छी पाउसस्स विज्जुव्व चवला नायव्वा । 20. इमं भोयणं विसमइयं अत्थि, तओ मा खाएइ । 21. रायक्कं दव्वं पयाए हिआय होइअव्वं । 22. जीवाणं अप्पणयं नाणं दंसणं चरितं च अत्थि, अन्नं सव्वमणिच्चं,
तत्तो ताणि चिय सेविज्जाह । 23. जे निरत्ययं पाणिवहं कुणंति, ताणं धिरत्यु । 24. गावीणं दुद्धं बालगाणं सोहणं ति | 25. तं एरिसेहि कम्मेहिं अप्पं निरए माइं पक्खिवसु । 26. दुज्जणाणं गिराए अमयमत्थि हियए उ विसं । 27. पावा अप्पणो हिअंपि न पिच्छन्ति न सुणन्ति य । 28. जो सीलवंतो जिइंदिओ य होइ, तस्स तेओ जसो य धिई य वढन्ते । 29. नहस्स सोहा चंदो, सरोयाइं सरस्स य, तवसो उवसमो य, मुहस्स य
चक्खू नक्को अ । 30. राइणा वुतं-भयवं ! वेसासु मणं कयावि न करिस्सं ।
अप्पस्स इव सव्वेसु पाणीसुं जो पासइ स च्चिय पासेइ । जीवाणं अजीवाणं च सण्हं सरूवं जित्तियं जारिसं च जिणिंदस्स
पवयणे अत्थि, तेत्तिलं तारिसं च सरूवं न अन्नह दंसणे । 33. एवं जीवंताणं, कालेण कयाइ होइ संपत्ती ।
जीवाणं मयाणं पुण, कत्ता दीहंमि संसारे ||1|| 34. पाणेसु धरन्तेसु य, नियमा उच्छाहसत्तिममुयन्तो ।
पावेइ फलं पुरिसो, नियववसायाणुरूवं तु ||2|| 35. दारं च विवाहंतो, भममाणो मंडलाइं चत्तारि । सुएइ अप्पणो तह, वहूइ चउगइभवे भमणे ।।3।।
प्राकृत में अनुवाद करें 1. प्रभात में गोवाल (गोवा) गायों को दोहता है । 2. शुभ कर्मवाले जीव (सुकम्म) शुभकार्य करके परलोक में सुखी बनते हैं ।
हे भगवन् ! आप (भगवन्त-भवन्त) इस असार संसार में से हमारे जैसे दुःखियों का उद्धार करो |
3.
१६८
&
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________________
8.
4. शत्रुओं से प्रजा का रक्षण करने के लिए राजा (राय) के पुरुषों ने नगर
के बाहर खाई (परिहा) बनायी । 5. पत्थर जैसे (गाव) हृदय को धारण करनेवाले ये मनुष्य बैलों को (उच्छ
बइल्ल) बहुत पीड़ा देते हैं । अन्धकार में (तम) मनुष्य चक्षु (चक्खु) द्वारा देखने के लिए समर्थ नहीं होते हैं। लोग आश्विन महीने में प्रतिपदा से (पडिवया) लेकर पूर्णिमा पर्यन्त महोत्सव करते हैं ।
विद्वान् मनुष्य अपने (अप्प) गुणों द्वारा सर्वत्र पूजे जाते हैं । 9. सोनी कसौटी पर सुवर्ण की परीक्षा करते हैं । 10. अच्छा वैद भी टूटे हुए आयुष्य को (आउ-आउस) जोड़ने के लिए (संध्)
समर्थ (पक्कल) नहीं होता है। 11. तुम्हारे जैसे (तुम्हारिस) स्नेहवाले (नेहालु) पुरुषों को हमारे जैसे
(अम्हारिस) गरीब पर प्रीति करनी चाहिए । 12. सभी इन्द्र तीर्थंकरों के जन्म (जम्म) काल में मेरुपर्वत पर तीर्थंकरों को
लेकर जन्ममहोत्सव करते हैं । 13. मनुष्यों को संपत्ति (संपया) में गर्विष्ठ (गव्विर) नहीं बनना चाहिए और
दुःख (आवया) में दीन नहीं बनना चाहिए । 14. जीव अपने ही (अप्पाण) कर्म के माध्यम से सुख और दुःख प्राप्त करता
है, दूसरा देता है, वह मिथ्या है। 15. गुरुओं के आशीर्वादों से (आसीसा) कल्याण ही होता है, इसलिए
उनकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए । 16. तपश्चर्या (तव) द्वारा कर्मों की निर्जरा होती है और क्रोध से कर्मों का बन्ध
होता है। 17. शास्त्र - पढ़े हुए मूर्ख ज्यादा होते हैं, लेकिन जो आचारवाले हैं वे ही
पण्डित कहलाते हैं। 18. बन्धु ने राजा को (राय) कहा कि तू राज्य का त्याग कर और यहाँ मत ठहर । 19. अच्छी तरह पालन किया हुआ राज्य राजा को (राय) बहुत धन और
कीर्ति देता है। 20. वृद्धावस्था में (वुद्धृत्तण) शरीर की सुन्दरता (सुंदस्तण) नष्ट होती है । 21. दूसरों के (पारकेर) दुःख सुनकर महात्माओं का (महप्प) मन दयावाला
बनता है । (दयालु)
• यहाँ 'पढिअवंता' कर्तवि भूतकृदन्त का प्रयोग करें ।।
१६९
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________________
पाठ
प्रेरक भेद
1. धातुओं के प्रेरक रूप- मूल धातु को अ, ए, आव और आवे प्रत्यय लगाकर उस-उस काल के पुरुषबोधक प्रत्यय लगाने पर बनते हैं ।
2. प्रेरक धातु में उपान्त्य अ हो तो अ अथवा ए प्रत्यय लगाने पर अ का आ बनता है ।
-
उदा. हस् + अ = हास + इ = हासइ हस् + ए = हासे + इ = हासेइ
22
हस् + आव = हसाव + इ = हसावइ हस् + आवे = हसावे + इ = हसावेइ ने + अ = अ + इ = नेअइ
उदा. रिय् + अ = रेय - रेयइ बुह् + अ = बोह - बोहइ
मूल धातु
पड्
कर्
ने + ए = नेए + इ = नेएइ ने + आव = नेआव + इ = नेआवइ
ने + आवे = नेआवे + इ = नेआवेइ
3. मूल धातुओं में उपान्त्य इ अथवा उ हो तो प्रायः इ का ए और उ का ओ
होता है ।
पाड पाडे
कार कारे
वह हँसाता है ।
( वह लिवाता है ।)
|
4. धातु में आदि स्वर गुरु हो तो अवि प्रत्यय भी लगता है ।
उदा. बोल्लवितोसवि
१७०
तुस् + अ = तोस तोसइ
तुड् + अ = तोड़-तोडइ
5. आव-आवे प्रत्यय लगाने पर कुछ स्थानों में पूर्व अ का आ होता है । उदा. कारावइ - कारावेइ
6. भम् धातु का प्रेरक अंग विकल्प से भमाड भी होता है ।
उदा. भमाड
प्रेरक अंग
पडाव
कराव
-
पडावे
करावे
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भम्
हस्
हास हासे . हसाव हसावे जाण जाण जाणे जाणाव जाणावे जाणवि बोल्ल् बोल्ल बोल्ले बोल्लाव बोल्लावे बोल्लवि
भाम भामे भमाव भमावे भमाड नेअ नेए नेआव नेआवे नेअवि होअ होए होआव होआवे होअवि
बोह बोहे बोहाव बोहावे बोहवि इस प्रकार धातुओं का प्रेरक अंग तैयार करके उसे उस-उस काल के पुरुषबोधक प्रत्यय लगाकर पूर्वानुसार रूप सिद्ध करना चाहिए । कार् - कार, कारे, कराव, करावे अंग के रूप
वर्तमानकाल [व्यअनान्त धातु] एकवचन
बहुवचन प्रथम कार - कारमि, कारामि, कारमो, कारामो, कारेमि
कारिमो, कारेमो कारे - कारेमि
कारेमो कराव - करावमि, करावामि, करावमो, करावामो, करावेमि
कराविमो, करावेमो करावे - करावेमि
करावेमो इस प्रकार मु-म प्रत्यय के रूप
भी समझना । द्वितीय| कार - कारसि, कारेसि कारह, कारेह कारे - कारेसि
कारेह कराव - करावसि - करावेसि करावह, करावेह करावे - करावेसि
करावेह इस प्रकार से प्रत्ययकार . कारसे
कारित्था, कारेइत्था कारे
कारेइत्था कराव • करावसे
_करावित्था, करावेइत्था करावे
करावेइत्था
पुरुष
पुरुष ।
d
-
-१७१
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________________
कारे.
तृतीय | कार - कारइ, कारेइ | कारन्ति, कारेन्ति पुरुष कारे. कारेइ
कारेन्ति कराव - करावइ, करावेइ . | करावन्ति, करावेन्ति करावे - करावेइ
करावेन्ति कार- कारए
कारन्ते, कारेन्ते,
कारेन्ते कराव - करावए
करावन्ते, करावेन्ते करावे.
करावेन्ते कार -
कारिरे, कारेइरे
कारेइरे कराव
कराविरे, करावेइरे करावे
करावेइरे
कारे -
ज्ज - ज्जा प्रत्ययसहित सर्वपुरुष । कारेज्ज - कारेज्जा सर्ववचन ) करावेज्ज, करावेज्जा
. भूतकाल सर्वपुरुष । कारीअ, कारेईअ, सर्ववचन ) करावीअ, करावेईअ आर्ष प्राकृत में
कार - कारित्या, कारिंसु सर्वपुरुष । कारे • कारेत्या, कारेंसु, सर्ववचन , कराव - करावित्था, कराविंसु
करावे - करावेत्था, करावेंसु
• आर्ष में - भूतकाल में व्यञ्जनान्त धातुओं में भी 'सी' प्रत्यय का प्रयोग दिखाई __ देता है । उदा. सीलवंती राईमई पव्वईया संती तहिं बहुं सयणं परियणं चेव
पव्वावेसी (प्रावीव्रजत्) उत्तरा. अध्य. 22, गा. 32
- १७२
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________________
बहुवचन कारमो, कारामो, कारिमो, कारेमो कारेमो करावमो, करावामो, कराविमो, करावेमो करावेमो कारह, कारेह
विध्यर्थ-आज्ञार्थ प. पु. | एकवचन
एकवचन कार - कारमु, कारामु,
कारिम, कारेमु कारे - कारेमु कराव - करावा, करावामु,
कराविमु, करावेमु, करावे - करावेमु द्वि. पु.] कार - कारहि, कारेहि
कारसु, कारेसु कारिज्जस्, कारज्जस् कारिज्जहि, कारेज्जहि
कारिज्जे, कारेज्जे, कार, कारे आर्ष प्राकृत में
[कारिज्जसि, कारेज्जसि, कारिज्जासि, कारेज्जासि, कारिज्जाहि, कारेज्जाहि,
काराहि] कारे - कारेहि, कारेसु कराव - करावहि, करावेहि
करावसु, करावेसु कराविज्जसु, करावेज्जसु कराविज्जहि, करावेज्जहि कराविज्जे, करावेज्जे,
कराव, करावे आर्ष प्राकृत में -
[ कराविज्जसि, करावेज्जसि, कराविज्जासि, करावेज्जासि,
कराविज्जाहि, करावेज्जाहि, करावाहि । करावे - करावेहि, करावेसु
कारिज्जाह, कारेज्जाह
कारेह करावह, करावेह
[ कराविज्जाह, करावेज्जाह ]
करावेह
१७३
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________________
तृतीय | कार - कारउ, कारेउ कारन्तु, कारेन्तु पुरुष कारे - कारेउ
कारेन्तु कराव - करावउ, कसवेउ, करावन्तु, करावेन्तु करावे - करावेउ, (कारए) |
करावेन्तु सर्वपुरुष । कारेज्ज, कारेज्जा, | कारेज्जइ, कारेज्जाइ, सर्ववचन ) करावेज्ज, करावेज्जा | करावेज्जइ, करावेज्जाइ
भविष्यकाल प. पु.| एकवचन
बहुवचन कार - कारिस्सं, कारेस्सं, कारिस्सामि, कारेस्सामि, कारिस्सामो, कारेस्सामो,
कारिहामो, कारेहामो कारिहामि, कारेहामि, कारिहिमो, कारेहिमो,
कारिहिस्सा, कारेहिस्सा कारिहिमि, कारेहिमि, कारिहित्था, कारेहित्या कारे - कारेस्सं, कारेस्सामि, कारेस्सामो, कारेहामो, कारेहामि, कारेहिमि
कारेहिमो,
कारेहिस्सा, कारेहित्या कराव - कराविस्सं, करावेस्सं, | कराविस्सामो, करावेस्सामो, कराविस्सामि, करावेस्सामि, कराविहामो, करावेहामो, कराविहामि, करावेहामि, कराविहिमो, करावेहिमो, कराविहिमि, करावेहिमि कराविहिस्सा, करावेहिस्सा,
कराविहित्था, करावेहित्था करावे - करावेस्सं,
करावेस्सामो, करावेहामो, करावेस्सामि
करावेहिमो करावेहामि, करावेहिमि करावेहिस्सा, करावेहित्या
इस प्रकार मु-म-प्रत्यय
लगाकर रूप जानना । द्वितीय कार - कारिहिसि, कारेहिसि, कारिहिह, कारेहिह पुरुष | कारिस्ससि, कारेस्ससि कारिहित्था, कारेहित्था
कारिस्सह, कारेस्सह -१७४
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________________
(इस प्रकार से प्रत्यय) तृ. पु. | कार- कारिहिइ, कारेहिइ, | कारिस्सइ, कारेस्सइ
कारे - कारेहिइ, कारेस्सइ, कराव - कराविहिइ,
करावेहिइ.
कराविस्सइ,
करावेस्सइ
करावे - करावेहिइ
करावेस्सइ
(इस प्रकार ए प्रत्यय)
पुंलिंग
कार -
कारे -
कारे - कारेहिसि, कारेस्ससि, कराव - कराविहिसि, करावेहिसि
कराविस्ससि, करावेस्ससि करावे - करावेहिसि, करावेस्ससि,
एकवचन
कारन्तो
करेन्तो
कराव करावन्तो
करावे -
करावेतो
स्त्रीलिंग -
-
कार
कारे -
-
सर्वपुरुष कारेज्ज, कारेज्जा,
सर्ववचन
करावेज्ज, करावे ज्जा
कारन्ती
कान्ती
कारेहिह, कारेइत्था, कारेस्सह कराविहिह, करावेहिह कराविहित्था, करावेहित्था,
कराविस्सह, करावेस्सह करावेहिह, करावेहित्था,
करावेस्सह
१७५
कारिहिन्ति, कारेहिन्ति, कारिस्सन्ति, कारेस्सन्ति,
कारेहिन्ति, कारेस्सन्ति
कराविहिन्ति, करावेहिन्ति,
कराविस्सन्ति,
करावेस्सन्ति
करावेहिन्ति,
करावेस्सन्ति
क्रियातिपत्त्यर्थ
(इस प्रकार न्ते - इरे प्रत्यय के रूप समझना)
बहुवचन
कारन्ता
कान्ता
करावन्ता
करावेन्ता
कारन्तीओ
कान्तीओ
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कराव
करावे - नपुंसकलिंग -
कार -
कारे -
कराव -
करावे -
करावन्ती करावेन्ती
सर्वपुरुष सर्ववचन
कारन्तं
कारन्तं
करावन्तं
करावेन्तं
-
इत्यादि कर्तरि के समान जानना
कार
कारेज्ज कारेज्जा
कारे - कारेज्ज - कारेज्जा
कराव करावेज्ज करावेज्जा
करावे - करावेज्ज करावेज्जा
-
-
-
-
वर्तमानकाल [ स्वरान्त ] धातु.
हो, होए, होआव होआवे, होअवि अंग के रूप
-
प्रथम पु. एकवचन होअमि, होआमि, होएमि, होएमि
होएज्जमि, होएज्जामि, होआवेज्जमि, होआवेज्जामि
हो अविज्जामि, होअविज्जामि
होएज्ज-ज्जा, होआवेज्ज-ज्जा, होअविज्ज-ज्जा
-
होआवमि, होआवामि, होआवेमि, होआवेमि होअविमि
ज्ज - ज्जासहित
सर्वपुरुष होअसी - ही - हीअ
होएसी - ही - हीअ
सर्ववचन
होआवसी ही हीअ
भूतकाल
करावन्तीओ करावेन्तीओ
कारन्ताइं
कान्ताइं
करावन्ताइं
करावेन्ताई
-
होआवेसी ही हीअ हो अविसी ही हीअ
१७६
-
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________________
आर्ष में -
सर्वपुरुष सर्ववचन
होअ
होइत्था
होए होएत्था होआव - होआवित्था
होआवे - होआवेत्था
होअवि - होअवित्था
-
"
-
विध्यर्थ आज्ञार्थ
होइस् होएंसु
होविं
प्रथम पु. एकवचन - होअमु, होआमु, होइमु, होएमु,
होआवेंसु
होअविंसु
होआवमु, होआवामु, होआविमु, होआवेमु होआवेमु, होअविमु
ज्ज ज्जा सहित
होएज्जमु, होएज्जामु, होएज्जिमु, होएज्जेमु, होआवेज्जमु, होआवेज्जामु, होआवेज्जिमु, होआवेज्जेमु, होअविज्जमु, होअविज्जामु, हो अविज्जिमु होअविज्जेमु
भविष्यकाल
प्रथम पु. एकवचन
होअ
होइस्सं, होएस्सं, होइस्सामि, होएस्सामि, होइहामि, होएहामि, होइहिमि, होएहिमि,
होए
} }
होआव ) होआविस्सं, होआवेस्सं, होआविस्सामि, होआवेस्सामि, होआवे ) होआविहामि, होआवेहामि, होआविहिमि, होआवेहिमि होअवि होअविस्सं, होअविस्सामि, होअविहामि, होअविहिमि ज्ज - ज्जा प्रत्ययसहित
१७७
होएज्ज होएज्जस्सं, होएज्जस्सामि, होएज्जहामि, होएज्जाहामि होएज्जहिमि, होएज्जाहिमि, होएज्ज, होएज्जा
होएज्जा
आवेज्ज
होआवेज्जस्सं, होआवेज्जस्सामि, होआवेज्जहामि
}
होआवेज्जा ) होआवेज्जाहामि, होआवेज्जहिमि, होआवेज्जाहिमि
होआवेज्ज, होआवेज्जा
Page #201
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________________
होअविज्ज । होअविज्जस्सं, होअविज्जस्सामि, होअविज्जहामि होअविज्जा होअविज्जाहामि, होअविज्जहिमि, होअविज्जाहिमि, होअविज्ज, होअविज्जा ..
क्रियातिपत्त्यर्थ पुंलिंग - एकवचन
बहुवचन होअ. होअन्तो
होअन्ता होए . होएन्तो
होएन्ता होआव - होआवन्तो
होआवन्ता होआवेहोआवेन्तो
होआवेन्ता होअवि- होअविन्तो
होअविन्ता स्त्रीलिंग - होअ. होअन्ती
होअन्तीओ होए - होएन्ती
होएन्तीओ होआव - होआवन्ती
होआवन्तीओ होआवे - होआवेन्ती
होआवेन्तीओ होअवि- होअविन्ती
होअविन्तीओ नपुंसकलिंगहोअ - होअन्तं
होअन्ताई होए - होएन्तं
होएन्ताई होआव - होआवन्तं
होआवन्ताई होआवे - होआवेन्तं
होआवेन्ताई होअवि. होअविन्तं
होअविन्ताई इत्यादि कर्तरि के समान जानने चाहिए ।
होअ - होएज्ज - होएज्जा सर्वपुरुष होए - होएज्ज - होएज्जा सर्ववचन होआव - होआवेज्ज - होआवेज्जा
होआवे - होआवेज्ज - होआवेज्जा होअवि - होअविज्ज - होअविज्जा
-१७८
D
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________________
धातु
पड्
वर्तमानकाल
पाडइ
पाडेइ
पडावइ
पडावेइ
हस् हासइ
हासेइ
हसावइ
हसावेइ
बोल्ल् बोल्लइ
पडावउ
पडाविहिइ पडावन्तो
पडावेईअ पडावेउ पडावेहिइ पडावेन्तो
हासिहिइ
हासन्तो
हासेहिइ
हासेन्तो
हसावउ
हसाविहिइ
हसावन्तो
हसाउ
हसावेहिइ
हसावेन्तो
बोल्लउ
| बोल्लहिइ
बोल्लन्तो
बोल्लेईअ
बोल्लेन्तो
बोल्लेउ बोल्लेहिइ बोल्लावउ बोल्लाविहिइ बोल्लावन्तो
बोल्लेइ बोल्लावइ बोल्लावीअ बोल्लावेइ बोल्लावेईअ बोल्लावेउ बोल्लावेहिइ बोल्लावेन्तो बोल्लविइ बोल्लाविईअ बोल्लविउ बोल्लविहिइ बोल्लविन्तो
भूतकाल
भमावइ
भमावेइ
भमाड
अइ
एइ
पाडीअ
पाडेईअ
पडावीअ
आइ
आवेइ
अविइ
भम् भामइ भामीअ
भामेइ
हसावेईअ
बोल्लीअ
विध्यर्थ- आज्ञार्थ भविष्यकाल क्रियातिपत्त्यर्थ
पाडिहिइ
पाडन्तो
पाडेहिइ पाडेन्तो
हासीअ हासउ
हासेईअ
हासेउ
हसावीअ
पाडउ
पाडेउ
भामेईअ
भावीअ
भामउ भामिहिइ
भामन्तो
भामेउ
भामेहिइ
भामेन्तो
भमाविहिइ
भमावन्तो
भमावेहिइ भमावेन्तो
भमाडिहिइ
भमाडन्तो
नेइहिइ
नेएहिइ
भमावउ
भावेईअ भमावेउ
भमाडीअ भमाडउ
असी
अउ
एसी
नेएउ
आवसी
आवेसी
अविसी
आवउ
आवे
अविउ
नेआविहिइ
नेआवेहिइ
अविहिइ
अन्तो
एन्तो
आवन्तो
आवेन्तो
अविन्तो
7. (1) धातु के प्रेरक अंग को पूर्वोक्त कृदन्त के प्रत्यय लगाने से प्रेरक हेत्वर्थकृदन्त, सम्बन्धकभूतकृदन्त, वर्तमानकृदन्त, भविष्यकृदन्त और विध्यर्थ कर्मणिकृदन्त बनते हैं ।
(2) मूल धातु को आवि प्रत्यय लगाकर भूतकृदन्त के प्रत्यय लगाने से अथवा धातु के उपान्त्य अ का आ करके भूतकृदन्त के प्रत्यय लगाने से कर्मणि भूतकृदन्त बनता है ।
१७९
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________________
उदा. हस् + आवि + अ = हसाविअं। हँसाया हुआ, हँसाया
हस् + अ = हासिअं । कर् + आवि + अ = कराविअं। करवाया,
कर + अ = कारिअं धातु | हेत्वर्थ । सम्बन्धक | कर्तरि वर्तमान | भविष्य । | विध्यर्थ कर्मणि के अंग| कृदन्त भूतकृदन्त | कृदन्त | कृदन्त कृदन्त कार | कारिउं कारिउं | कारन्तो कारिस्सन्तो कारियव्वं कारे | कारेउं | कारेउं कारेन्तो कारेइस्सन्तो कारेयव्वं कराव | कराविउं| कराविउं करावन्तो कराविस्सन्तो करावियव्वं करावे | करावेउं | करावेउं करावेन्तो करावेइस्सन्तो | करावेयव्वं कार | कास्तिए | कारिअ कारमाणो कारिस्समाणो कारणीअं कारे कारेत्तए कारेअ | कारेमाणो कारेइस्समाणो | कारेअणीअं कराव करावित्तए कराविअ | करावमाणो कराविस्समाणो | करावअणीअं करावे| करावेत्तए करावेअकरावेमाणो करावेइस्समाणो| करावेअणीअं कार | कारितुं | कारिऊण कारई
कारणिज्जं कारे | कारेतुं | कारेऊण | कारेई
कारेअणिज्जं कराव | करावित्तुं | कराविऊण | करावई
करावणिज्जं करावे | करावेत्तुं करावेऊण करावेई
करावेअणिज्जं कार
कारिउआण | कारन्ती-न्ता कारे
कारेउआण | कारेन्ती-न्ता कराव
कराविउआण करावन्ती-न्ता करावे करावेउआण करावेन्ती-न्ता कार
कास्तुि |कारमाणी-णा
कारेतु कारेमाणी-णा कराव
करावित्तु
करावमाणी-णा
करावेत्तु करावेमाणी-णा कार
कारिता-णं कारे
कारेत्ता-णं कराव
कराक्त्तिा -णं
करावेत्ता-णं इस प्रकार सभी धातुओं के प्रेरक अंग तैयार करके कृदन्त बना सकते हैं |
कारे
करावे
करावे
-१८०
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________________
प्रेरक कर्मणि और भावे रूप 8. अ-ए-आव-आवे प्रत्ययों के स्थान पर प्रेरक सूचक आवि प्रत्यय लगाकर
उस तैयार अंग को पूर्वोक्त कर्मणि-भावे के ईअ-इज्ज प्रत्यय लगाकर उनउन काल के पुरुषबोधक प्रत्यय लगाने से प्रेरंक कर्मणि और भावे रूप बनते हैं अथवा प्रेरक सूचक कोई भी प्रत्यय लगाये बिना उपान्त्य अ का आ करके ईअ-इज्ज प्रत्यय लगाने से प्रेरक कर्मणि और भावे रूप बनते हैं। उदा. कर् + आवि = करावि + ईअ = करावीअ
कर + आवि = करावि + इज्ज = कराविज्ज कर् - कार् + ईअ = कारीअ कर् - कार् + इज्ज = कारिज्ज जाण् + आवि = जाणावि + ईअ = जाणावीअ जाण् + आवि = जाणावि + इज्ज = जाणाविज्ज जाण् + ईअ = जाणीअ जाण + इज्ज = जाणिज्ज हो + आवि = होआवि + ईअ = होआवीअ हो + आवि = होआवि + इज्ज = होआविज्ज हो + ईअ = होईअ
हो + इज्ज = होइज्ज इस प्रकार अंग तैयार करके पुरुषबोधक प्रत्यय लगाकर रूप सिद्ध करने चाहिए ।
रूप
हस्-हसावीअ, हसाविज्ज, हासीअ, हासिज्ज-अंग के रूप
वर्तमानकाल एकवचन
बहुवचन प्रथम पु.
हसावीअमि, हसावीआमि हसावीअमो, हसावीआमो, हसावीएमि
हसावीइमो, हसावीएमो, | हसाविज्जमि, हसाविज्जामि, हसाविज्जमो, हसाविज्जामो, आवि प्रत्यय लगाने पर कुछ स्थानों में पूर्व अ का आ भी होता है । उदा. हासावीअइ (णायविढत्तधणेण जं काराविज्जंति देवभवणाई । कुव. माला पृ. 206 पं. 16)
१८१
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________________
हसाविज्जेमि
हसाविज्जिमो, हसाविज्जेमो, हासीअमि, हासीआमि, ... हासीअमो, हासीआमो, हासीएमि
हासीइमो, हासीएमो, हासिज्जमि, हासिज्जामि, हासिज्जमो, हासिज्जामो, हासिज्जेमि
हासिज्जिमो, हासिज्जेमो, (इस प्रकार 'मु-म' प्रत्यय के रूप
समझना) द्वितीय पु. हसावीअसि
हसावीइत्था, हसावीअह ... हसाविज्जसि,
हसाविज्जित्था, हसाविज्जह हासीअसि,
हासीइत्या, हासीअह, हासिज्जसि
हासिज्जित्था, हासिज्जह (इस प्रकार 'से' प्रत्यय के
रूप समझना) तृतीय पु. | हसावीअइ
हसावीअन्ति-न्ते, हसावीइरे हसाविज्जइ
हसाविज्जन्ति-न्ते, हसाविज्जिरे हासीअइ
हासीअन्ति-न्ते, हासीइरे हासिज्जइ
|हासिज्जन्ति-न्ते, हासिज्जिरे (इस प्रकार 'ए' प्रत्यय के
रूप समझना) सर्वपुरुष । हसावीएज्ज-ज्जा, हसाविज्जेज्ज-ज्जा, सर्ववचन ) हासीएज्ज-ज्जा, हासिज्जेज्ज-ज्जा
भूतकाल सर्वपुरुष । हसावीअईअ, हसाविज्जईअ, सर्ववचन । हासीअईअ, हासिज्जईअ आर्ष प्राकृत में - हसावीअ हसावीइत्था,
हसावीइंसु, सर्वपुरुष । हसाविज्ज - हसाविज्जित्था, हसाविज्जिसु सर्ववचन । हासीअ - हासीइत्था,
हासीइंसु हासिज्ज - हासिज्जित्था . हासिज्जिसु
&
-१८२
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________________
विध्यर्थ-आज्ञार्थ
एकवचन
बहुवचन प्रथम पु. | हसावीअमु, हसावीआमु, हसावीअमो, हसावीआमो,
हसावीइमु, हसावीएमु, हसावीइमो, हसावीएमो, हसाविज्जमु, हसाविज्जामु, हसाविज्जमो, हसाविज्जामो, हसाविज्जिमु, हसाविज्जेमु, हसाविज्जिमो, हसाविज्जेमो हासीअमु, हासीआमु, हासीअमो, हासीआमो, हासीइमु, हासीएमु, हासीइमो, हासीएमो, हासिज्जमु, हासिज्जामु हासिज्जमो, हासिज्जामो हासिज्जिमु, हासिज्जेमु हासिज्जिमो, हासिज्जेमो हसावीअहि, हसावीएहि हसावीअह, हसावीएह हसावीअसु, हसावीएसु हसाविज्जह, हसाविज्जेह हसावीइज्जसु, हसावीएज्जसु हासीअह, हासीएह हसावीइज्जहि, हसावीएज्जहि हासिज्जह, हासिज्जेह हसावीइज्जे , हसावीएज्जे,
हसावीअ, हसावीए (इस प्रकार हसाविज्ज-हासीअ-हासिज्ज अंग के रूप भी समझना) तृतीय पु. | हसावीअउ, हसावीएउ, । हसावीअन्तु, हसावीएन्तु,
| हसाविज्जउ, हसाविज्जेउ, | हसाविज्जन्तु, हसाविज्जेन्तु हासीअउ, हासीएउ, हासीअन्तु, हासीएन्तु
हासिज्जउ, हासिज्जेउ । हासिज्जन्तु, हासिज्जन्तु । सर्वपुरुष । हसावीएज्ज-ज्जा, हसावीएज्जइ, सर्ववचन । हसाविज्जेज्ज-ज्जा, हसाविज्जेज्जइ,
हासीएज्ज-ज्जा, हासीएज्जइ, हासिज्जेज्ज-ज्जा, हासिज्जेज्जइ
- १८३
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________________
भविष्यकाल .
हसावि-हास अंग एकवचन
बहुवचन प्रथम पु. हसाविस्सं , हसाविस्सामि, .. हसाविस्सामो, हसाविहामो,
हसाविहिमो, हसाविहामि, हसाविहिमि, हसाविहिस्सा, हसाविहित्था, हासिस्सं, हासेस्सं, हासिस्सामो, हासेस्सामो, हासिस्सामि, हासेस्सामि, हासिहामो, हासेहामो, हासिहामि, हासेहामि, . हासिहिमो, हासेहिमो, हासिहिमि, हासेहिमि हासिहिस्सा, हासेहिस्सा,
हासिहित्था, हासेहित्था (इस प्रकार 'म-म' प्रत्यय के
रूप भी समझना) द्वितीय पु.| हसाविहिसि, हसाविस्ससि, हसाविहिह, हसाविस्सह,
हसाविहित्था हासिहिसि, हासेहिसि, हासिहिह, हासेहिह, हासिस्ससि, हासेस्ससि, हासिस्सह, हासेस्सह, (इस प्रकार 'से' प्रत्यय के हासिहित्था, हासेहित्था
रूप समझना) तृतीय पु. हसाविहिइ, हसाविहिए, हसाविहिन्ति, हसाविस्सन्ति,
हसाविस्सइ, हसाविस्सए, हासिहिन्ति, हासेहिन्ति, हासिहिइ, हासिहिए, हासिस्सन्ति, हासेस्सन्ति हासेहिइ, हासेहिए, (इस प्रकार 'न्ते-इरे' प्रत्यय हासिस्सइ, हासिस्सए, के रूप समझना) हासेस्सइ, हासेस्सए सर्वपुरुष । हसाविज्ज-ज्जा सर्ववचन । हासेज्ज-ज्जा
भविष्यकाल और क्रियातिपत्त्यर्थ में 'ईअ-इज्ज' प्रत्यय नहीं लगते हैं, इसलिए 'ईअइज्ज' प्रत्यय लगाये बिना ही पुरुषबोधक प्रत्यय लगाये जाते हैं । परि. 1 नि.9.
-१८४
ॐॐ=
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________________
क्रियातिपत्त्यर्थ
एकवचन
हंसाविन्तो, हासन्तो हसाविन्ती, हासन्ती
नपुंसकलिंग - हसाविन्तं, हासन्तं
पुंलिंग - स्त्रीलिंग -
सर्वपुरुष | हसाविज्ज-ज्जा, हासेज्ज-ज्जा
सर्ववचन
धातु
अंग
हसावि-हास अंग
बहुवचन
हसाविन्ता, हासन्ता हसाविन्तीओ, हासन्तीओ
हसाविन्ताइं, हासन्ताइं इत्यादि कर्तरि के समान जानना ।
अ
विध्यर्थवर्तमानकाल भूतकाल
आज्ञार्थ
कर् करावीअ करावीअइ करावीअईअ करावीअउ कराविहिइ,
करावितो - ती-तं कराविज्ज-ज्जा
कराविस्सइ
कराविज्ज कराविज्जइ कराविज्जईअ कराविज्जउ कराविहिइ, कराविन्तो-न्ती-तं
कराविस्सइ कराविज्ज-ज्जा
कारीअई कारीअईअ कारीअउ
कारिहिड्
कारन्तोन्ती-न्तं
कारिस्सइ
कारिज्ज कारिज्जइ कारिज्जईअ कारिज्जउ पड् पडावीअ पडावीअइ पडावीअईअ पडावीअउ
भविष्यकाल क्रियातिपत्त्यर्थ
१८५
}
कारेज्ज-ज्जा
पडाविहिइ ) पडाविन्तो-न्ती-न्तं
पडाविस्सइ) पडाविज्ज-ज्जा
पडाविज्ज पडाविज्जइ पडाविज्जईअ पडाविज्जर पडाविहिइ, पडावन्तो-न्ती-न्तं
पाडीअ पाडीअइ पाडीअईअ पाडीअउ पाडिज्ज पाडिज्जइ पाडिज्जईअ पाडिज्जउ होआवीअ होआवीअइ होआवीअसी- होआविअउ
पडाविस्सइ) पडाविज्ज-ज्जा पाडिहिइ पाडन्तोन्ती-न्तं पाडिस्सइ. पाडेज्ज-ज्जा होआविहिई, होआविन्तोन्ती-तं होआविस्सइ होआविज्ज-ज्जा
ही-हीअ होआविज्ज होआविज्जइ होआविज्जसी - होआविज्जउ होआविहिई, होआविन्तो-ती-तं होआविस्सइ होआविज्ज-ज्जा
ही-हीअ
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होहिड़
होईअ होईअइ होईअसी- | होईअउ ही - हीअ
होइज्ज होइज्जइ होइज्जसी- होइज्जउ होस्सइ
| ही हीअ
दृश् दीसावि दीसाविइ दीसाविईअ दीसाविउ दीसाविहिइ दीसाविन्तोन्तीन्तं,
दीसाविज्जज्जा
दीसिहिड दीसन्तो-न्ती-न्तं, सेज्जज्जा ग्रह घेप्पावि घेप्पाविइ घेप्पाविईअ घेप्पाविउ घेप्पाविहिइ ) घेप्पाविन्तोन्ती-न्तं,
घेप्पाविरस घेप्पाविज्ज-ज्जा
घेप्प घेप्पइ घेप्पईअ घेप्पउ
घेप्पिहिइ
घेप्पन्तो-न्ती-न्तं,
घेप्पिस्सइ घेप्पेज्ज-ज्जा गहावीअ गहावीअइ गहावीअईअ गहावीअउ गहाविहिइ गहाविन्तो-न्ती-न्तं, गहाविस्सइ गहाविज्ज-ज्जा गहाविज्ज महाविज्जइ गहाविज्जईअ गहाविज्जउ गहाविहिइ गहाविन्तो-न्ती-न्तं, गहाविस्सइ) गहाविज्ज-ज्जा गाहीअ गाहीअइ गाहीअईअ गाहिअउ गाहिहिइ गाहन्तो-न्ती-न्तं, गाहिज्ज गाहिज्जइ गाहिज्जईअ गाहिज्जउ गाहिस्सइ गाहेज्ज-ज्जा
9.
उदा
दीस दीसइ दीसईअ दीसउ
प्रेरक कर्मणि वर्तमानकृदन्त
प्रेरक कर्मणि अंग को वर्तमानकृदन्त के प्रत्यय लगाने से प्रेरक कर्मणि वर्तमानकृदन्त बनता है ।
अंग पुंलिंग
करावीअ करावी अन्तो- माणो कराविज्ज कराविज्जन्तो- माणो
कारीअ
कारीअन्तो- माणो कारिज्जन्तो-माणो
कारिज्ज
स्त्रीलिंग
होतो- न्ती-न्तं,
होज्ज-ज्जा
करावीअई-न्ती-न्ता-माणी-माणा कराविज्जई--ती- -न्ता-माणी-माणा कारीअई-न्ती-न्ता-माणी-माणा कारिज्जई - न्ती - न्ता-माणी-माणा
दीस इत्यादि धातुओं के लिए पाठ-19 देखिए ।
१८६
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________________
प्रेरक वाक्यरचना 10. प्रेरक की वाक्य-रचना में मूल क्रिया का कर्ता दुसरी अथवा तीसरी
विभक्ति में रखा जाता है । उदा. सीसो गंथं रएइ, तं गुरू पेरणं करेइ त्ति गुरू सीसं सीसेण वा गंथं
रयावेइ । (गुरु शिष्य के पास ग्रंथ की रचना करवाते हैं ।) 11. अपवाद - अकर्मक धातु तथा शब्दकर्मक धातु, गति-ज्ञान-भोजन अर्थवाले
धातु और देक्ख-पास इत्यादि धातुओं की वाक्यरचना में मूल क्रिया का
कर्ता प्रायः दूसरी विभक्ति में रखा जाता है । उदा. कर्तरि
प्रेरक बालो जग्गइ
- पिआ बालं जग्गावेइ । [अकर्मक] समणो सिद्धन्तं पढेइ - सूरी समणं सिद्धन्तं पढावेइ । [शब्दकर्मक] समणा विहरन्ति - आयरिओ समणे विहरावेइ । [गति-अर्थ) सावगो तत्ताइं जाणेइ - गुरू सावगं तत्ताइं जाणावइ । [ज्ञानार्थी पुत्तो आहरेइ
- पिआ पुत्तं आहारेइ । [भोजनार्थ वच्छो जिणपडिमं देक्खइ - जणओ वच्छं जिणपडिमं देक्खविइ ।
देक्ख-पास धातु]
अन्य प्रक्रिया 12. संस्कृत में इच्छादर्शक आदि अन्य प्रक्रियाएँ हैं वैसी प्राकृत में नहीं हैं,
लेकिन कुछ प्रक्रिया के रूप आर्ष प्राकृत में दिखाई देते हैं । वे पूर्वोक्त वर्ण विकार के नियमानुसार परिवर्तन होकर सिद्ध होते हैं । उदा.
संस्कृत | प्राकृत | हिन्दी अनुवाद । कृदन्त सन्नन्त जुगुप्सते जुगुच्छइ | निन्दा करने की जुगुच्छिअ-भूत कृ. (इच्छादर्शक) जुउच्छड | इच्छा करता है - जुगुच्छमाण-वर्त. कृ.
| पिपासति पिवासइ | पीने की इच्छा करता है।। पिवासिअ-भूत कृ. बुभुक्षति | बुहुक्खइ | खाने की इच्छा करता है। बुहुक्खिअ-भूत कृ. लिप्सति | प्राप्त करने की
इच्छा करता है। सेवा करता है, सुस्सूसंत । वर्त. कृ. सुनने की इच्छा करता है । | सुस्सूसमाण )
१८७
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________________
यडन्त
चिकित्सति | चिइच्छड चिकित्सा (औषध) करता है। | तितिक्षते |तितिक्खइ सहन करता है। तितिक्खमाण । वर्त.कृ.
तिइक्खमाण । लालप्यते | लालप्पइ | बकवास करता है। लालप्पमाण वर्त. कृ. चक्रम्यते चंकम्मइ बहुत चलता है। चंकम्मंत । वर्त. कृ.
चंकम्ममाण , वर्त. कृ. यङ्लुगन्त | चङ्क्रमीति | चंकमइ । बार-बार चलता है। चंकमंत, । वर्त.
चंकममाण , कृ. चंकमिउं हे. कृ. चंकमियव्व - वि. कृ.
चंकमिअ - भूत कृ. नामधातु | दमदमायते| दमदमाइ ।। आडम्बर करता है।
दमदमाअइ । गुरुकायते गुरुआइ । | गुरु के समान आचरण
गुरुआअइJ | करता है। लोहितायते लोहिआइ । लाल होता है।
लोहिआअइ अमरायते
अमराइ । | अमर के समान आचरण अमराअइ
करता है। 13. स्याद-भव्य-चैत्य, चौर्य और उनके जैसे शब्दों में संयुक्त 'य' व्यंजन
के पूर्व इ रखी जाती है। उदा. सिया (स्याद्) चेइअं (चैत्यम्) थेरिअं (स्थैर्यम्)
सियावाओ (स्याद्वादः) चोरिअं (चौर्यम्) वीरिअं (वीर्यम्) भविओ (भव्यः)
___ शब्दार्थ (पुंलिंग) कुमरवाल । (कुमारपाल) कुमारपाल | मउड (मुगुट) मुगट कुमारवाल , राजा
संपइनरिंद (सम्प्रतिनरेन्द्र) संप्रतिराजा तवस्सि (तपस्विन्) तपस्वी समणोवासय (श्रमणोपासक) श्रावक नट्टअ (नर्तक) नट
सब्भाव (सद्भाव) अच्छा भाव, सत्ता, पयत्थ (पदार्थ) पदार्थ, वस्तु, पद का | विद्यमान
सिद्धराय (सिद्धराज) राजा का नाम,
सिद्धराज -१८८
अर्थ
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________________
नपुंसकलिंग कवड (कपट) कपट, माया | तिमिर (तिमिर) आँख का रोग, अज्ञान, कट्ठ (कष्ट) दुःख, पीड़ा. अन्धकार केवल (केवल) केवलज्ञान
पइदिण (प्रतिदिन), प्रतिदिन, रोज खलिअ (स्खलित) अपराध, भूल |पास (पार्थ) समीप, पास में, निकट, गिह (गृह) घर
बाजू में गेह (गेह) घर, मकान
पावकम्म (पापकर्म) पापकर्म चोरिअ (चौर्य) चोरी
बंधण (बन्धन) बंधन जलोयर (जलोदर) जलोदर सरूव (स्वरूप) स्वरूप जावज्जीव । (यावज्जीव) जीवनपर्यंत शरणत्त (शरणत्व) आश्रयपना जाजीव ।
|सिद्धहेम (सिद्धहैम) व्याकरण का नाम
स्त्रीलिंग आराहणा (आराधना) उपासना, सेवना | गइ (गति) आधार, देवादि चार गति कन्नगा (कन्यका) कन्या |पइठा (प्रतिष्ठा) प्रतिष्ठा, कीर्ति, आदर
पुंलिंग + नपुंसकलिंग . खसर (दे. कसर) रोगविशेषः, खाज, | वेडुज्ज ) (वैडूर्य) वैडूर्यरत्न खुजली
| वेडुरिअ देव-व । (दैव) दैव, भाग्य, नसीब, वेरुलिस दइव-व
|सूल (शूल) शूल, शूल का रोग रयण (रत्न) रत्न
विशेषण अण्णमण्ण ) (अन्योन्य) परस्पर कट्ठ (कष्ट) दुःखकारी, दुःख अण्णण्ण
खलिअ (स्खलित) गिरा हुआ, भूला अण्णुण्ण
हुआ अण्णोण्ण )
जोग्ग (योग्य) योग्य, लायक अणज्ज । (अनार्य). अनार्य, आर्य | जत्त (यक्त) उचित, योग्य, मिला हआ अणारिय नहीं है वह
नव (नवन् द्वि. बहुव) नौ संख्या कणि? (कनिष्ठ) लघुभ्राता, लघु, नव (नव) नया सबसे छोटा
-
- १८९
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भविअ (भव्य, योग्य जीव) सइंदिय (स-इन्द्रक) इन्द्रियसहित भव
सयल (सकल) पूर्ण, सब मूग (मूक) गूंगा
सप्पाण (सप्राण) प्राणसहित मू
सासय (शाश्वत) नित्य, अविनश्वर वियंभिय (विजृम्भित) खिला हुआ, विकसित
सामासिक शब्द जीवाजीवाइ (जीवाजीवादि) जीव- | पाययकव्व (प्राकृतकाव्य) प्राकृतकाव्य अजीव आदि नौ पदार्थ
मणवल्लह (मनोवल्लभ) मन को प्रिय दूसमसमय दुःषमसमय) दुःषमकाल मरणभय (मरणभय) मृत्यु का भय दुस्समसमय)
| वसुदेवपुत्त (वसुदेवपुत्र) वसुदेव का पुत्र धणहरण (धनहरण) धन का हरण | सकुडुंबय (सकुटुम्बक) कुटुम्बसहित करना
| सव्वायर (सर्वादर) संपूर्ण आदरसहित पाणिगण (प्राणिगण) जीवों का समुदाय
अव्यय अहो (अहो) शोक, आश्चर्य, प्रशंसा, पुणरुत्तं (पुनरुक्तम् दे.) बारबार आमन्त्रणादि अर्थ में
|सयं (स्वयम्) स्वयं, आप, खुद . • अलाहि। (दे. अलम्) निवारण, | सहा (सर्वथा) सभी प्रकार से
अलं । निषेध, पूर्ण, बस हंतूण (हत्वा) हत्या करके (संबं-भूत. कृ.)
धातु
अणु + सास् (अनु + शास्) शिक्षा देना, |x जन् । (यापय) बिताना, शरीर का उपदेश देना, आज्ञा करना x जा पालन करना अप्प् । (अर्पय) अर्पण करना, जम्प (कथ्-जल्प) बोलना, कहना x पणाम भेंट देना
|x टव (स्थापय) स्थापन करना उम्मूल (उद् + मूल) मूल से उखेड़ना |x ढक्क्। (छादय्) ढकना, आच्छादन x उल्लाल) (उद् + नामय्) ऊँचा छाय् । करना x उन्नाम् । करना, ऊपर घुमाना x उन्नाव ) . इस अव्यय के योग में तीसरी विभक्ति रखी जाती है ।
-१९०
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________________
x दाव (दर्शय) दिखाना, बताना |x पट्ठव । (प्र + स्थापय्) भेजना, x दंस्
|x पठ्ठाव । प्रस्थान करना, x दक्खव
प्रारम्भ करना दरिस्
x पत्तिआव (प्रति + आयय) विश्वास x दूम् (दू-दावय) दुःख देना, सन्ताप कराना कराना
x प्रभाव (प्र + भावय) प्रभावना करनी x नासव ) (नाशय) नाश करना परिचिंत् (परि + चिन्तय) चिन्तन x पलाव / भगाना
करना, विचार करना नास्
|x पव्वाव (प्र + वाजय्) दीक्षा दिलाना अब्भस् (अभि + अस्) अभ्यास करना, |पसम् (प्र + शमय) शान्ति करनी सीखना
|फेड (स्फेटय) विनाश करना अभिनिक्खम् (अभि + निष्क्रम्) संयम बहुमाण (बहुमानय्) सम्मान करना, के लिए घर से निकलना
आदर करना उग्घाड (उद् + घटय) खोलना भुंज् (भुज) भोजन करना. निम्माण्) (निर् + मा) बनाना, रचना | रोमन्थ, (रोमन्थय) पगुराना, चबाई निम्म
| वग्गोल हुई वस्तु को पुनः चबाना,
जुगाली करना x निस्सार । (निर् + सारय्) बाहर |विणास् । (वि + नाशय) विनाश x नीसार । निकलना
वेढ करना (वेष्ट) लपेटना पज्जुवास् (परि + उप + आस्) सेवा, परिआल ) भक्ति करनी
सिह (स्पृह) चाहना, स्पृहा करना
सुह (सुखयू) सुखी करना x इस चिहनवाले धातुओं का प्रेरक में ही उपयोग होता है ।
हिन्दी में अनुवाद करें 1. पावकम्मं नेव कुज्जा न कारवेज्जा । 2. पाइयकव्वं लोए कस्स हिययं न सुहावेइ । 3. बलवंता पंडिआ य जे के वि नरा संति ते वि महिलाए अंगुलीहिं
नच्चाविज्जन्ति । अहं वेज्जोम्हि फेडेमि सीसस्स वेयणं, सुणावेमि बहिरं, अवणोमि तिमिरं, पणासेमि खसरं, उम्मूलेमि वाहिं, पसमेमि सूलं, नासेमि जलोयरं च ।
निम्म्
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साहूणं दंसणं पि हि नियमा दुरियं पणासेइ । रण्णा सुवण्णगारे वाहराविऊण अप्पणो मउडम्मि वइराइं वेडुज्जाइं रयणाणि य रयावीअईअ ।
संपइनरिंदेण सयलाए पिच्छीए जिणेसराणं चेइआइं कराविआई । 8. तवस्सी भिक्खू ण छिंदे, ण छिंदावए, ण पए, ण पयावए । 9. समणोवासगो पइठाए महोच्छवे सव्वे साहम्मिए भुंजावेईअ । 10. जइ पिआ पुत्ते सम्म पढावंतो ता वुत्तणे सो किं एवंविहं दुहं लहेन्तो ? 11. नरिंदेण तत्थ गिरिंमि चेइअं निम्मवियं । 12. खमियव्वं खमावियव्वं, उवसमियव्वं उवसामियव्वं , जो उवसमइ तस्स
अत्थि आराहणा, जो न उवसमइ तस्स नत्थि आराहणा, तओ अप्पणा
चेव उवसमियव्वं । 13. एरिसा कण्णगा परस्स दाऊण अप्पणो गेहाओ किं निस्सारिज्जइ ?
सव्वहा न जुत्तमेयं । 14. अहो कळू कळ वसुदेवपुत्तो होऊण सयलजणाणं मणवल्लहं कणि→
भायरं विणासेहामि । 15. हेमचंदसूरिणो पासे देवाणं सरूवं मुणिऊण हं सव्वत्थ वि तित्थयराणं
मंदिराई कराविस्सामि त्ति पइण्णं कुमारवालनरिंदो कासी । 16. सो पइदिणं अब्भसंतो जिणधम्मं, पज्जुवासंतो मुणिजणं, परिचिन्तन्तो
जीवाजीवाइणो नव पयत्थे, रक्खन्तो रक्खाविंतो य पाणिगणं, बहुमाणन्तो
साहम्मिए जणे, सव्वायरेण पभावंतो जिणसासणं कालं गमेइ । 17. एसो रज्जस्स जोग्गो ता झत्ति रज्जे ठविज्जउ, अलाहि निग्गुणेहिँ
अन्नेहिं । 18. गिह जहा वि न जाणइ तहा पवेसेमि नीसारेमि य । 19. जो सावज्जे पसत्तो सयंपि अतरंतो कहं तारए अन्न ? 20. गुरुणा पुणरुतं अणुसासिओ वि न कुप्पेज्जा । 21. एक्कस्स चेव दुक्खं, मारिज्जंतस्स होइ खणमेक्कं ।
जावज्जीवं सकुडुंबयस्स, पुरिसस्स धणहरणे ||1|| 22. दूसमसमए वि हु हेमसूरिणो, निसुणिऊण वयणाइं ।
सव्वजणो जीवदयं, कराविओ कुमरवालेण ।।2।।
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2.
23. रोवन्ति रुवावन्ति य, अलियं जंपन्ति पत्तियावेन्ति ।
कवडेण य खंति विसं, मरन्ति न य जंति सब्भावं ||3| 24. मरणभयम्मि उवगए, देवा वि सइंदया न तारेति ।
धम्मो ताणं सरणं, गइत्ति चिंतेहि सरणत्तं ।।4।। 25. हन्तूण परप्पाणे, अप्पाणं जो करेइ सप्पाणं । अप्पाणं दिवसाणं, कए स णासेइ अप्पाणं ।।5।।
प्राकृत में अनुवाद करें 1. पिता ने उपाध्याय के पास पुत्रों को तत्त्वों का ज्ञान ग्रहण करवाया ।
(गिण्ह) सिद्धराज ने हेमचन्द्रसूरिजी के पास व्याकरण रचवाया । (रय),
इसलिए 'सिद्धहैम' इस प्रकार उसका नाम स्थापित करवाया (ठव) । 3. अच्छे शिष्य गुरुओं को अपनी भूलें सुनाते हैं (सुण) और सुनाकर क्षमा
मांगते हैं । (खम्) ___4. जो पुस्तकों का विनाश करते हैं (वि + नास्), वे परलोक में गूंगे, अन्धे
और बहरे होते हैं । 5. आचार्य शिष्यों को रात्रि के अन्तिम प्रहर में उठाकर (उद्द) हमेशा
स्वाध्याय करवाते हैं। 6. नट ने राजा और परिषद् के लोगों को भरत राजा का नाटक दिखाया
(दाव-दक्ख) और यह दिखलाते हए नट ने केवलज्ञान प्राप्त किया । ___7. पिता पुत्रों को विद्वान् गुरु के पास शिक्षा दिलाते हैं । (अणु + सास्) 8. राजा के बुद्धिशाली मन्त्री ने अपनी बुद्धि से नगर तरफ आते हुए
शत्रुओं का नाश करवाया । (नासव) 9. राजा ने उपाध्याय को बुलाकर (बोल्ल) कहा कि तुम राजपुत्रों को
नीतिशास्त्र और व्याकरणशास्त्र पढ़ाओ । 10. राम ने उस समय उसको जहर खिलाया होता (भक्ख) तो वह जरूर
मरता । 11. माता को छोटे बालकों को नहीं डराना चाहिए । 12. तीर्थंकर भव्य जीवों को संसार के बन्धन में से मुक्त करके (मुय) शाश्वत
सुख दिलाते हैं । (अप्प्)
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13. जिनके द्वारा चोरी की गई उनको राजा ने सजा दिलवाई । (दंड) 14. कुमार ने घर से निकलकर (अभिनिक्खम् ) सब का त्याग करके, बगीचे में आचार्य के पास संयम ग्रहण किया और बहुत कुमारों को भी ग्रहण करवाया । (गिण्ह्)
15. संयम में रहे साधु भगवन्त सुखपूर्वक दिन बिताते हैं । (जाव्) 16. जो भाइयों और मित्रों को परस्पर लड़ाता है (जुज्झ ) और वक्त पर मनुष्य के पास अपना मस्तक भी कटवाता है (छिंद), वह अदृष्ट ही है । 17. प्रसन्न रानी ने चोर को अपने मकान में ले जाकर सुन्दर भोजन करवाया, उसके बाद वस्त्र और आभूषण देकर छुट्टी दी ।
18. ज्ञातपुत्र समवसरण में बैठकर मनुष्यों और देवों को जन्म और मरण का कारण समझाते हैं । (जाण्-बोह)
19. सज्जन पुरुष कहते हैं कि पापकर्म जीवों को हमेशा संसारचक्र में घुमाते हैं । (भमाड)
20. सभी धर्मों का त्याग करके एक वीतराग देव की तू सेवा कर, वही सभी पापों से तुझे छुड़ायेगा । (मुय्)
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पाठ - 23
समास • भिन्न-भिन्न अर्थवाले शब्द इकट्ठे होकर एक अर्थ को बतानेवाला जो पद
बनता है उसे समास कहते हैं । • समास से भाषा के प्रयोग में शब्दों की अल्पता होती है तथा लिखने और
बोलने में सरलता और सुन्दरता भी लगती है। संस्कृत की तरह प्राकृत में भी द्वन्द्व, तत्पुरुष, कर्मधारय , बहुव्रीहि, द्विगु, अव्ययीभाव और एकशेष ये सात प्रकार के समास आते हैं । 1दंदे य बहुब्बीही, कम्मधारए 'दिगुयए चेव ।
तप्पुरिसे अव्वईभावे, एगसेसे य सत्तमे ।। 1. संयुक्त व्यंजन में एक का लोप होने पर शेष व्यंजन तथा संयुक्त व्यंजन
के स्थान पर हुआ आदेशभूत व्यंजन जो समास के अन्दर हो तो विकल्प से द्वित्व होता है। उदा. विसप्पओगो - विसपओगो (विषप्रयोगः),
कुसुमप्पयरो - कुसुमपयरो (कुसुमप्रकरः),
(धणक्खओ . धणखओ (धनक्षयः) 2. प्राकृत में दो पदों की सन्धि विकल्प से होती है । (पा. 2 नि. 6 देखो) उदा. जिण + अहिवो = जिणाहिवो, जिणअहिवो (जिनाधिपः)
जिण + ईसरो = जिणेसरो, जिणीसरो (जिनेश्वरः) कवि + ईसरो = कवीसरो, कविईसरो (कवीश्वरः)
साहु + उवस्सओ = साहुवस्सओ, साहूउवस्सओ (साधूपाश्रयः) अपवाद :- इ और उ वर्ण के बाद विजातीय स्वर हो तो सन्धि नहीं होती है तथा ए और ओ के बाद कोई भी स्वर हो तो सन्धि नहीं होती है । उदा. वंदामि + अज्जवइरं = वंदामि अज्जवइरं (वन्दे आर्यव्रजम्)
संति + उवाओ = संतिउवाओ (शान्त्युपायः) दणु + इंदो = दणुइंदो (दनुजेन्द्रः) संजमे + अजियं = संजमे अजियं (संयमेऽजितम्)
देवो + असुरो य = देवो असुरो य (देवोऽसुरश्च) 3. समास में स्वर का ह्रस्व और दीर्घ विधान अर्थात् ह्रस्व स्वर का दीर्घ स्वर ___और दीर्घ स्वर का ह्रस्व स्वर प्रयोगानुसार होता है ।
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उदा. ह्रस्व का दीर्घ -
सत्तावीसा (सप्तविंशतिः) | अंतावेई (अन्तर्वेदिः) पईहरं । (पतिगृहम्) । वेलूवणं। (वेणुवनम्) पइहरं ।
| वेलुवणं । दीर्घ का ह्रस्व . जउँणअडं-जउँणाअडं (यमुनातटम्) लच्छीफलं-लच्छिफलं (लक्ष्मीफलम्) गयहत्थो-गयाहत्थो (गदाहस्तः) । नइसोत्तं-नईसोत्तं (नदी श्रोतः) गोरिहरं-गोरीहरं (गौरीगृहम्) वहुमुहं-वहूमुहं (वधूमुखम्) सिरीसरिसं, सिरिसरीसं (श्रीसदृशम्)| मायपिअरा (मातापितरौ)
1. दंद (द्वन्द्व) समास 4. एक मूल नाम का , अन्य एक या अनेक नामों के साथ समास होता है
अथवा अनेक नाम एक-एक के साथ जोड़कर बड़ा समास भी किया जा सकता है, वह द्वन्द्व समास कहलाता है । (इस समास में सभी नाम मुख्य
होते हैं अर्थात् क्रिया के करनेवाले होते हैं ।) 5. यह समास करने के लिए अ, य और कुछ स्थानों में च अव्यय का प्रयोग
किया जाता है। 6. द्वन्द्व समास बहुवचन में ही होता है और अन्तिम नाम की जाति पूरे
समास को लगती है | उदा. अजिअसंतिणो (अजितशान्ती) = अजिओ अ संती अ = अजितनाथ और शान्तिनाथ । उसहवीरा (ऋषभवीरौ) = उसहो अ वीरो अ = ऋषभदेव और वीरजिनेश्वर देवदाणवगंधब्बा (देवदानवगन्धर्वाः) = देवा य दाणवा य गन्धव्वा य =देव, दानव और गंधर्व । वानरमोरहंसा (वानरमयूरहंसाः) = वानरो अ मोरो अ हंसो अ = बन्दर, मोर और हंस । सावगसाविगाओ (श्रावकश्राविकेएँ) = सावगा अ साविगा अ = श्रावक और श्राविका । देवदेवीओ (देवदेव्यः) = देवा य देवीओ अ = देव और देवियाँ सासूबहूओ (श्वश्रूवध्वौ) = सासू अ वहू अ = सास और बहू
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भक्खाभक्खाणि (भक्ष्याभक्ष्य) = भक्खं च अभक्खं च = भक्ष्य और अभक्ष्य पत्तपुप्फफलाणि (पत्रपुष्पफलानि) = पत्तं च पुर्फ च फलं च = पत्ता, पुष्प और फल इस प्रकार - जीवाजीवा, पासवीरा, समणसमणीओ, सत्तुमित्ताणि, निंदासलाहाओ, रूवसोहग्गजोव्वणाणि के विग्रह करना चाहिए । 7. यह द्वन्द्व समास जब समूह बतलाता है या जब समूह का एक ही संकीर्ण विचार बतलाता है तब समाहार द्वन्द्व समास बनता है । यह समास एकवचन और प्रायः नपुंसकलिंग में होता है | . उदा. असणपाणं (अशनपानम्) = असणं च पाणं च एएसिं समाहारो तवसंजमं (तपःसंयमम्) = तवो अ संजमो अ एएसिं समाहारो नाणदंसणचरित्तं (ज्ञानदर्शनचारित्रम्) = नाणं च दंसणं च चरितं च एएसिं समाहारो । रागदोसभयमोहं (रागदोषमयमोहम्) = रागो अ दोसो अ भयं अ मोहो अ एएसिं समाहारो ।
__2. तप्पुरिस (तत्पुरुष) समास 8. प्रथमा विभक्ति को छोड़कर छह विभक्तिवाले पूर्वपदों का उत्तरपद के
साथ समास होता है । इस समास में उत्तरपद प्रधान होता है । उदा. द्वितीया - भद्दपत्तो (भद्रप्राप्तः) = भई पत्तो
सिवगओ (शिवगतः) = सिवं गओ तृतीया - साहुवंदिओ (साधुवन्दितः) = साहूहिं वन्दिओ
. जिणसरिसो (जिनसदृशः) = जिणेण सरिसो चतुर्थी - कलससुवण्णं (कलशसुवर्णम्) = कलसाय सुवण्णं
मोक्खत्थं नाणं (मोक्षार्थं ज्ञानम्) = मोक्खाय इमं पंचमी - दंसणभट्ठो (दर्शनभ्रष्टः) = दंसणाओ भट्ठो
अन्नाणभयं (अज्ञानभयं) = अन्नाणाओ भयं षष्ठी - जिणेन्दो, जिणिन्दो (जिनेन्द्रः) = जिणाणं इंदो
देवत्थुइ, देवथुई (देवस्तुतिः) देवस्स थुई विबुहाहिवो (विबुधाधिपः) = विबुहाणं अहिवो वहुमुहं (वधूमुखम्) = वहूए मुहं
• इस समास का प्रयोग प्राकृत में बहुत ही अल्प दिखाई देता है।
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सप्तमी - जिणोत्तमो, जिणुत्तमो (जिनोत्तमः ) = जिणेसु उत्तमो
नाणोज्जओ, नाणुज्जओ (ज्ञानोद्यतः) = नाणम्मि उज्जओ कलाकुसलो (कलाकुशलः) = कलासु कुसलो
नञ् तत्पुरुष
निषेधवाचक अव्यय 'अ' अथवा 'अण' का नाम के साथ समास होता है ।
10. शब्द के प्रारम्भ में व्यंजन हो तो 'अ' और स्वर हो तो 'अण' रखा जाता है ।
9.
उदा. अदेवो (अदेवः ) = न देवो अविरई (अविरतिः) = न विरई
अणवज्जं (अनवद्यम् ) = न अवज्जं अणायारो (अनाचार :)
= न आयारो
3. कम्मधारय (कर्मधारय) समास
11. विशेषणादि पूर्वपद का विशेष्यादि उत्तरपद के साथ समास होता है । 12 इस समास में अधिकतर दोनों पद समान विभक्ति में आते हैं, इसलिए यह समास समानाधिकरण ही होता है ।
उदा. विशेषण पूर्वपद - रत्तघडो (रक्तघट :) = रत्तो अ एसो घडो सुंदरपडिमा (सुन्दरप्रतिमा) सुन्दरा य एसा पडिमा परमपयं (परमपदम्) = परमं च एअं पयं च
सेओ य
विशेषणोभयपद रत्तसेओ आसो (रक्तश्वेतोऽश्वः) = स्तो अ एस सीउन्हं जलं (शीतोष्णं जलम् ) = सीअं च तं उण्हं च विशेष्यपूर्वपद- वीरजिणिदो (वीरजिनेन्द्रः) वीरो अ एसो जिणिंदो उपमानपूर्वपद - चंदाणणं (चन्द्राननम् ) = चंदो इव आणणं उपमानोत्तरपद - मुहचंदो (मुखचन्द्रः ) = मुहं चंदो व्व जिणचंदो (जिनचन्द्रः) = जिणो चंदु व्व
अवधारणपूर्वपद - अन्नाणतिमिरं (अज्ञानतिमिरम्) = अन्नाणं चेअ तिमिरं नाणधणं (ज्ञानधनम् ) = नाणं चेअ धणं पयपउमं (पदपद्मम्) = पयमेव पउमं 4. दिगु ( द्विगु ) समास
13. कर्मधारय समास का प्रथम अवयव संख्यादर्शक हो तो द्विगु समास
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बनता है और वह समूहसूचक है इसलिए एकवचन में और नपुंसकलिंग में
होता है। 14. इस समास के अन्त में 'अ' हो तो कुछ प्रयोग में दीर्घ 'ई' होती है और
उसके रूप दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग नाम के समान बनते हैं। उदा. तिलोअं, तिलोई (त्रिलोकम्, त्रिलोकी) = तिण्हं लोआणं समाहारोत्ति नवतत्तं (नवतत्त्वम्) = नवण्हं तत्ताणं समाहारोत्ति
चउकसायं, चउक्कसायं (चतुःकषायम्) = चउण्हं कसायाणं समाहारोत्ति 15. कुछ स्थानों में समाहार द्विगु समास पुंलिंग में भी होता है । उदा. तिविगप्पो (त्रिविकल्पम्) = तिण्हं विगप्पाणं समाहारोत्ति
5. बहुब्बीही (बहुव्रीहि) समास . 16. (1) जिन पदों का समास किया हो उनसे अन्य पद की प्रधानता इस
समास में होती है, इससे यह सामासिक पद अन्य नाम का विशेषण बनता है तथा विभक्ति, वचन और लिंग विशेष्य के अनुसार होते हैं | (2) यह समास जो स्त्रीलिंग का विशेषण हो तो अन्त्य अ का आ अथवा ई प्रयोगानुसार होता है | उदा. कमलाणणा नारी (कमलानना नारी)
चंदमुही कन्ना (चन्द्रमुखी कन्या) 17. इस समास में अधिकतर पूर्वपद विशेषण बनता है और उत्तरपद
विशेष्य बनता है । कुछ स्थानों में उपमान तथा अवधारणसूचक पद भी पूर्वपद होता है । विशेषण पूर्वपद - नीलकंटो मोरो (नीलकण्ठो मयूरः) = नीलो कण्ठो जस्स सो । उपमान पूर्वपद - चंदमुही कन्ना (चन्द्रमुखी कन्या) = चन्दो इव मुहं जाए। अवधारण पूर्वपद - चरणधणा साहवो (चरणधनाः साधवः) = चरणं
चेअ धणं जाणं । 18. यह समास दो अथवा दो से अधिक समानाधिकरण (समान विभक्तिवाले)
पदों का बनता है । उदा. धुअसवकिलेसो जिणो (धुतसर्वक्लेशो जिनः)
= धुओ सव्वो किलेसो जस्स सो । - 19. कहीं-कहीं समान विभक्ति न हो तो भी यह समास बनता है, उसे
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व्यधिकरण बहुव्रीहि कहते हैं । उदा. चक्कहत्थो भरहो (चक्रहस्तो भरतः) =
चक्कं हत्थे जस्स सो । - 20. इस समास के विग्रह में प्रथमा विभक्ति को छोड़कर सभी विभक्तियों का
प्रयोग होता है । द्वितीया - पत्तनाणो मुणी (प्राप्तज्ञानो मुनिः) = पत्तं नाणं जं सो तृतीया - जिअकामो थूलभद्दो (जितकामः स्थूलभद्रः) = जिओ कामो
जेण सो जिआरिगणो अजिओ (जितारिगणोऽजितः) = जिओ अरिगणो
जेण सो पंचमी - नट्ठदंसणो मुणी (नष्टदर्शनो मुनिः) = नटुं दंसणं जत्तो सो षष्ठी - सेअंबरा मुणिणो (वेताम्बराः मुनयः) = सेअं अंबरं जाणं ते
दिण्णवया साहवो (दत्तव्रताः साधवः) = दिण्णाइं वयाइं जेसिं ते सप्तमी - वीरनरो गामो (वीरनरो ग्रामः) = वीरा नरा जम्मि सो
कुद्धसीहा गुहा (क्रुद्धसिंहा गुफा) = कुद्धो सीहो जाए सा 21. निषेधार्थक अव्यय अ या अण का , वि-निर् आदि उपसर्ग का और स या
सह अव्यय का नाम के साथ समास के विशेषण के रूप में प्रयोग हो तो भी बहुव्रीहि समास होता है । उदा. अव्यय अ = अपुत्तो (अपुत्रः) = नत्थि पुत्तो जस्स सो
अणाहो (अनाथः) = नत्थि नाहो जस्स सो । अण् -अणुज्जमो पुरिसो (अनुद्यमः पुरुषः) = नत्थि उज्जमो जस्स सो
अणवज्जो मुणी (अनवद्यो मनिः) = नत्थि अवज्जं जस्स सो उपसर्ग वि - विरूवो जणो (विरूपो जनः) = विगयं रूवं जत्तो सो विरसं भोयणं (विरसं भोजनम्) = विगओ रसो जत्तो तं निर् -निद्दयो जणो (निर्दयो जनः) = निग्गआ दया जस्स सो
निराहारा कन्ना (निराहारा कन्या) = निग्गओ आहारो जीए सा अव्यय स - ससीसो आइरिओ विहरेइ (सशिष्य आचार्यो विहरति) = सह - सीसेहिं सह आइरिओ विहरेइ सो सपुत्तो पिआ गच्छइ (सपुत्रः पिता गच्छति) = पुत्तेहिं सह पिआ गच्छइ स.
अव्वईभाव (अव्ययीभाव) समास 22. नाम के साथ अव्यय जोड़ने से अव्ययीभाव समास बनता है, यह
समास नपुंसकलिंग एकवचन में होता है और अन्त में दीर्घस्वर हो तो
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ह्रस्वस्वर होता है । उदा. उव - उवसिद्धगिरि (उपसिद्धगिरि) = सिद्धगिरिणो समीवं = सिद्धगिरि
के पास अणु - अणुजिणं (अनुजिनम्) = जिणस्स पच्छा = जिन के पीछे जह - जहसत्तिं (यथाशक्ति) = सत्तिं अणइक्कमिअ = शक्ति अनुसार :
जहविहिं (यथाविधि) = विहिं अणइक्कमिअ = विधि अनुसार अहि (अधि) - अज्झपं (अध्यात्मम्) = अप्पम्मि इइ (आत्मनि इति) आत्मा के बारे में पइ . पइनयरं (प्रतिनगरम्) = नयरं नयरं ति = प्रत्येक नगर में
पइदिणं (प्रतिदिनम) = दिणं दिणं ति = प्रत्येक दिन, रोज पइघरं (प्रतिगृहम्) = घरे घरे त्ति = प्रत्येक घर में
7. एकसेस (एकशेष) समास स्वरूप सम्बन्धी 23. समान रूपवाले पदों का समास करते समय एक पद रहता (बचता) है
और अन्यपदों का लोप होता है, वह एकशेष समास कहलाता है । उदा. जिणा (जिनाः) = जिणो अ जिणो अ जिणो अ त्ति नेत्ताइं (नेत्रे) = नेत्तं च नेत्तं च त्ति
विरूप सम्बन्धी पिअरा (पितरौ) - माआ य पिआ य त्ति ससुरा (श्वशुरौ) - सासू अ ससुरो अ त्ति इस प्रकार संक्षेप में यहाँ समासों के नियम बोध हेतु दिये हैं । वास्तव में संस्कृत के नियमानुसार ही प्राकृत में भी समास बनते हैं । श्रीमद्हेमचन्द्रसूरीश्वरजी ने भी अपने आठवें अध्याय में (8-1-1) सूत्र में समास प्रकरण के लिए संस्कृत के समान की ही सिफारिश की है इसलिए विद्यार्थियों को संस्कृत के नियम ध्यान में रखकर ही समास करने चाहिए।
__ शब्दार्थ (पुंलिंग) अरुण (अरुण) सूर्य का सारथी, सूर्य, | एरावण (ऐरावण) इन्द्र का हाथी संध्याराग
ओह (ओघ) समूह अववाय (अपवाद) निन्दा, अपवाद किंनर (किन्नर) देवविशेष , व्यंतर देव आरंभ (आरम्भ) आरंभ, जीववध की जाति
- R
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गण (गण) समुदाय
रवि (रवि) सूर्य गय (गज) हाथी
ववसाय (व्यवसाय) व्यापार, कार्य, उद्यम चक्कवाय (चक्रवाक) चक्रवाक, पक्षी विशेष विवेअ) (विवेक) विवेक, सत्यासत्य का चलण (चरण) पद, पाद विवेग निर्णय जोग (योग) व्यापार, योग संगम (सङ्गम) मिलना, प्राप्ति तिअस, (त्रिदश) देव
सयण (स्वजन) स्वजन, कुटुम्बी तिलअ । (तिलक) तिलक संसार (संसार) संसार, चार गतिरूप तिलग
सावय (श्वापद) शिकारी पशु, हिंसक दाणव (दानव) असुर, दैत्य जानवर निवास (निवास) स्थान, वास सिणेह (स्नेह) स्नेह, प्रेम पडिवक्ख (प्रतिपक्ष) शत्र
सोम (सोम) चन्द्र बंधव (बांधव) बन्धु, मित्र
नपुंसकलिंग अंजण (अञ्जन) अंजन, काजल, नियाण (निदान) निदान, कारण, हेतु आँख में अंजन करना, सुरमा डालना नेउर (नपुर) पैर का आभूषण विशेष, अगार (अगार) घर
निउर नेपुर, घुघरु असण (अशन) भोजन, खाना नउर इस्सरिअ । (ऐश्वर्य) ऐश्वर्य, वैभव, |पंजर (पअर) पिंजरा ईसरिअ । प्रभुता
बल (बल) शक्ति, सामर्थ्य करण (करण) करना, इन्द्रिय | सत्त (सत्त्व) बल, पराक्रम तवोवण (तपोवन) आश्रम
पुंलिंग + नपुंसकलिंग कलत्त (कलत्र) पत्नी
|रूव (रूप) देहकान्ति, सौन्दर्य , आकृति कुल (कुल) वंश
| वय (व्रत) व्रत, नियम
स्त्रीलिंग अग्गला (अर्गला) बन्धन, बेड़ी कुगइ (कुगति) खराब गति अडवि (अटवी) जंगल, वन, अरण्य निव्वुइ (निर्वृति) मोक्ष, चित्त की अडवी
|स्वस्थता, शांति
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पच्चोणी (दे.) सम्मुख, सामने पर्षदा
परिसा (परिषद्) सभा, अब्भत्थणा (अभ्यर्थना) प्रार्थना, अर्ज
बाला (बाला) कुमारी, छोटी लड़की, बालिका
महिला (महिला) स्त्री, नारी
करना
वाया (वाच) वाणी, वचन
अरइ (अरति) अप्रीति, सुख का अभाव वाणी (वाणी) वाणी, वचन, वुट्ठि (वृष्टि) वृष्टि, वर्षा
विशेषण
अनंत (अनन्त) अनन्त, अपरिमित | करनेवाला
अमयभूअ (अमृतभूत) अमृत के समान, अमृतरूप बना हुआ
आउल (आकुल) व्याकुल, व्याप्त, दुःखित
आगय (आगत) आया हुआ आयत्त (आयत्त) आधीन, स्वाधीन उचिअ (उचित) योग्य, लायक गंभीर (गम्भीर) गम्भीर, गहरा
रिट्ठ ( गरिष्ट) सबसे बड़ा, बड़ा दुक्कर (दुष्कर) मुश्किल, कष्टसाध्य देसय (देशक) उपदेशक, दिखानेवाले नव (नव) नया
पढम (प्रथम) पहला, आद्य भयारि (ब्रह्मचारिन्) ब्रह्मचर्य का पालन
वाग्देवता
बलिट्ठो (बलिष्ट) सबसे बलवान भावि (भाविन) भावी, भविष्य में होनेवाला
मत्त (मत्त ) उन्मत्त, मदसहित ललिय (ललित) सुन्दर, मनोहर लुद्ध (लुब्ध) लोलुप, आसक्त विरल (विरल) अल्प, दुर्लभ, थोड़ा विहुर (विधुर) दुःखी, व्याकुल, विह्वल विहूण (विहीन) वर्जित, रहित विहीण
समावडिअ (समापतित) सामने आकर गिरा हुआ, सामने आया हुआ सामन्न (सामान्य) साधारण, सामान्य
अव्यय
अह (अथ) अनंतर, मंगल, प्रश्न, खलु (खलु) निश्चय, अवधारण अर्थ में अधिकार, आरम्भ, समुच्चय, अथवा उट्ठाय संबं भूत कृ. (उत्थाय ) उठकर
धातु
अब्मुद्धर (अभ्युद् + धर) उद्धार करना | उवे (उप + इ) पास में जाना अवे (अप + इ) दूर होना, चले जाना चक्कम्म् (भ्रम्) भ्रमण करना,
घूमना
२०३
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जव् (जप्) जपना, जाप करना जोय् (दृश्) देखना
निव्विज्ज् (निर् + विद् - विद्य) निर्वेद विसीय् (वि + सीद्) खेद करना पाना, विरक्त होना
पत्स्थ्य } (प्रार्थय्) प्रार्थना करना
परिव्वय् (परि + व्रज्) दीक्षा लेना
पूर् ( पूरय्) भरना, पूर्ण करना भाव् (भावय्) वासित करना, चिन्तन करना
हिन्दी में अनुवाद करें
1. साहवो मणसा वि न पत्थन्ति बहुजीवाउलं जलारंभं ।
2. खंतिसूरा अरहंता, तवसूरा अणगारा, दाणसूरे वेसमणे, जुद्धसूरे
वासुदेवे ।
4.
5.
सव् (शप्) शाप देना सिढिल (शिथिलय् ) शिथिल करना
सुव् (स्वप्) सोना, सो जाना
सोव्
3.
ते सत्तिमंता पुरिसा, जे अब्भत्थणावच्छला समावडियकज्जा न गणेइरे आयइं, अब्भुद्धरेन्ति दीणयं, पूरेन्ति परमणोरहे रक्खन्ति सरणागयं । जे निदुज्जणारं तवोवणाई सेवन्ति ते जणा सुधन्ना ।
अहो णु खलु नत्थि दुक्करं सिणेहस्स, सिणेहो नाम मूलं सव्वदुक्खाणं, निवासो अविवेयस्स, अग्गला निव्वुईए, बंधवो कुगइवासस्स, पडिवक्खो कुसलजोगाणं, देसओ संसाराडवीए, वच्छलो असच्चववसायस्स, एण अभिभूआ पाणिणो न गणेन्ति आयइं, न जोयन्ति कालोइअं, न सेवन्ति धम्मं, न पेच्छन्ति परमत्थं, महालोहपंजरगया केसरिणोविय समत्था विसीयन्ति ति ॥
6.
7.
8.
9.
उत्तमपुरिसा न सोवंति संझाए ।
नेव वसणवसगएणं बुद्धिमया विसाओ कायव्वो । अम्हे पच्चोणि गन्तूण पिऊणं चलणेसु पडिआ । अह निण्णासिअतिमिरो, विओगविहुराण चक्कवायाण । संगमकरणेक्करसो, वियंभिओ अरुणकिरणोहो ||1||
10. पुत्ता ! तुम्हे वि संजमे नियमे च उज्जमं करिज्जाह अमयभूएण य जिणवयणेण अप्पाणं भाविज्जाह ।
11. देवदानवगन्धव्वा, जक्खरक्खसकिन्नरा ।
बम्हयारिं नम॑सन्ति, दुक्करं जे करेइ तं ||2||
२०४
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12. विरला जाणन्ति गुणे, विरला जाणन्ति ललियकव्वाइं ।
सामन्नधणा विरला, परदक्खे दक्खिआ विरला ||3|| 13. गलइ बलं उच्छाहो, अवेइ सिढिलेइ सयलवावारे ।
नासइ सत्तं अरई, विवड्डए असणरहिअस्स ||4|| 14. सोमगुणेहिं पावइ न तं * नवसरयससी,
तेअगणेहिं पावइ न तं नवसरयरवी । रूवगुणेहिं पावइ न तं तिअसगणवई,
सारगुणेहिं पावइ न तं . धरणिधरवई ।।5।। 15. जस्सत्थो तस्स सुह, जस्सत्थो पंडिओ य सो लोए ।
जस्सत्थो सो गुरुओ, अत्यविहुणो य लहुओ य ||6|| 16. वंचइ मित्तकलते, नाविक्खए मायपिअसयणे अ ।
मारेइ बंधवे वि हु, पुरिसो जो होइ धणलुद्दो ।।7।। 17. न गणन्ति कुलं न गणन्ति, पावयं पुण्णमवि य न गणन्ति ।
इस्सरिएण हि मत्ता, तहेव परलोयमिहलोयं ||8|| 18. न गणन्ति पुव्वनेहं, न य नीइं नेय लोयअववायं ।
न य भाविआवयाओ, पुरिसा महिलाए आयत्ता ||9।। 19. मेरु गरिहो जह पव्वयाणं, एरावणो सारबलो गयाणं ।
सिंहो बलिट्ठो जह सावयाणं, तहेव सीलं पवरं वयाणं ||10|| 20. बालत्तणंमि जणओ, जव्वणपत्ताइ होइ भत्तारो ।
वुकृत्तणेण पुत्तो, सच्छंदत्तं न नारीणं ।।11।। 21. 'पसिणं'-किं होइ रहस्स वरं, बुद्धिपसाएण को जणो जयइ । किं च कुणंती बाला, नेउरसदं पयासेह ||12||
उत्तरं . . चक्कम्मंती
प्राकृत में अनुवाद करें 1. राम और लक्ष्मण ने रावण की सेना जीती और लक्ष्मण के चक्र से कटा
रावण मरकर नरक में गया ।
तं-अजितजिनं, • मेरुपर्वतः . चक्कं (चक्रम्), मंती (मन्त्री), चक्कम्मंती (भ्रमन्ती)
इस पाठ में और आगे के पाठ में हिन्दी वाक्यों में बड़े अक्षर हैं वहाँ प्राकृत समास करें।
स
-२०५
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2. सज्जन पुरुष आपत्ति में भी असत्य वचन नहीं बोलते हैं । 3. विद्यार्थियों को प्रभात में जल्दी उठकर मातापिता अथवा गुरु को
नमस्कार करके अपना अध्ययन करना चाहिए । 4. संसार के दुःखों को देखकर वह संसार से निर्वेद पाता है । 5. उस बालिका ने हाथरूप कमल द्वारा राजा के कपाल में तिलक किया । 6. किया है निदान जिन्होंने, उनको बोधि की प्राप्ति कहाँ से होगी ? 7. तीर्थंकर गम्भीर वाणी द्वारा समवसरण में देव-दानव और मनुष्यों की
परिषद् में देशना देते हैं जिसे सुनकर भव्यजीव दर्शन-ज्ञान और चारित्र
ग्रहण करते हैं तथा आहाररहित ऐसा मोक्षपद प्राप्त करते हैं। 8. जिनके हाथों में पुष्प हैं ऐसी नगर की कन्याओं ने पुरुषों में उत्तम ऐसे
राजा पर पुष्पों की वृष्टि की । 9. तीनों भुवन में सभी जीवों की अपेक्षा तीर्थंकर अनन्तरूपवाले होते हैं । 10. जिनके पास में संयमरूपी धन है वैसे साधुओं को परलोक का भय नहीं
11. सिद्ध भगवन्तों को आहार-देह-आयुष्य और कर्म नहीं हैं इसलिए ही वे
अनन्त सुखवाले हैं। 12. जो विधि अनुसार मन्त्रों की आराधना करता है वह जरूर फल पाता है । 13. शक्ति का उल्लंघन किये बिना जो अहिंसा-संयम और तपरूपी धर्म में
उद्यम करता है वह संसाररूपी समुद्र से तिर जाता है । 14. अज्ञानरूपी अन्धकार से अन्ध जन के लिए ज्ञान ही उत्तम अंजन है । 15. जो कुमारपाल पहले सिद्धराज के भय से भटकता था, उसने
श्रीहेमचन्द्रसूरिजी की मदद से भय से मुक्त होकर राज्य प्राप्त किया । जिनके पास बहुत धन है, इस पर्वत पर सुन्दर जिनालय बनवाकर लोगों को सन्तुष्ट करके जिन्होंने बड़ी कीर्ति प्राप्त की है, वे ये वस्तुपाल और तेजपाल महामन्त्री हैं।
२०६
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पाठ - 24
सर्वनाम 10 वें पाठ में संक्षेप में सर्वनामों के रूप बताये थे । यहाँ विशेषतासहित सभी रूप बतायेंगे ।
अमु (अदस्) को छोड़कर सभी सर्वनाम अकारान्त हैं इसलिए उनके सामान्यरूप अकारान्त नामों के समान जानना चाहिए और अमु (अदस्) शब्द उकारान्त होने से उसके सामान्यरूप उकारान्त नामों के समान समझने चाहिए । 1. सर्वनामों के रूप तीनों लिंग में बनते हैं । 2. अम्ह (अस्मद्), तुम्ह (युष्मद) सर्वनाम के रूप तीनों लिंग में समान बनते
हैं । पुंलिंग प्रथमा बहुवचन में 'ए' प्रत्यय ही लगता है और षष्ठी बहुवचन में एसिं प्रत्यय विकल्प से लगता है । (३/५८)
उदा. सबे (प्रथमा बहुव.). सब्वेसिं, सव्वाण, सवाणं (षष्ठी बहुवचन) 3. 'एसिं' प्रत्यय लगाने पर पूर्वस्वर का लोप होता है । (३/६१)
उदा. त + एसिं = तेसिं (षष्ठी बहुवचन) 4. सप्तमी एकवचन में स्सि, म्मि, त्थ ये तीन प्रत्यय लगते हैं। 'एअ' और 'इम'
को छोड़कर सभी सर्वनामों को हिं प्रत्यय भी लगता है । (३/५९,६०) उदा. एअस्सि, एअम्मि, एत्थ (सप्तमी एकवचन)
तस्सि, तम्मि, तत्थ, तहिं (सप्तमी एकवचन) 5. विशेष = उभ-उह के रूप बहुवचन में बनते हैं और षष्ठी बहुवचन में
उहण्ह, उहण्हं, उभण्ह और उभण्हं रूप बनते हैं । अन्यरूप समान ही हैं । उदा. उमे, उभा (द्वि. बहुवचन) उहेण, उहेणं (तृतीया एकवचन)
अकारान्त पुंलिंग सब (सर्व) एकवचन
| बहुवचन प. सव्वो, सव्वे
सव्वे बी. सव्वं,
सव्वे सव्वा त. सव्वेण, सव्वेणं
सव्वेहिँ, सव्वेहिं, सव्वेहि च. सव्वाय, सव्वस्स, सव्वाए, | सव्वेसिं, सव्वाण, सव्वाणं पं. सव्वत्तो, सव्वाओ, सव्वाउ । | सव्वत्तो, सव्वाओ, सव्वाउ,
सव्वाहि, सव्वाहिन्तो . | सव्वाहि, सव्वाहिन्तो, सव्वासुन्तो,
-२०७
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छ.
स.
सं.
सव्वे
इस प्रकार वीस, विस्स (विश्व), उह उभ (उभ), उहय-उभय (उभय), अन्न (अन्य), अन्नयर (अन्यतर), इयर (इतर), कयर (कतर), कयम ( कतम), सम (सम), पुव्व (पूर्व), अवर (अपर), दाहिण-दक्खिण (दक्षिण), उत्तर (उत्तर), सुव (स्व) आदि सर्वनामों के रूप जानने चाहिए ।
आकारान्त स्त्रीलिंग
6. आकारान्त स्त्रीलिंग सर्वनामों के रूप आकारान्त स्त्रीलिंग नाम के समान ही बनते हैं ।
विशेष :- षष्टी बहुवचन में 'एसिं', प्रत्यय भी प्रयोगानुसार लगता है और आर्ष में 'सिं' प्रत्यय भी लगता है ।
सव्वा (सर्वा)
प.
बी.
त.
च. छ.
पं.
स.
सं
सव्वा
सव्वेहि, सव्वेहिन्तो, सव्वेसुन्तो, सव्वाणं
सव्वेसिं, सव्वाण,
सव्वस्स
सव्वस्सि, सव्वम्मि, सव्वत्थ सव्वेसु, सव्वेसुं
सव्वहिं,
सव्वंसि
हे सव्व, सव्वो, सव्वा, सव्वे
प. बी.
सं.
एकवचन
सव्वा
सव्वं
सव्वाअ, सव्वाइ, सव्वाए
सव्वाअ, सव्वाइ, सव्वाए सव्वाअ, सव्वाइ, सव्वाए सव्वत्तो, सव्वाओ, सव्वाउ, सव्वाहितो
सव्वाअ, सव्वाइ, सव्वाए
हे सव्वा
बहुवचन
सव्वाओ, सव्वाउ, सव्वा सव्वाओ, सव्वाउ, सव्वा
सव्वाहि ँ, सव्वाहिं, सव्वाहि सव्वेसिं, सव्वाण-णं, सव्वासिं
सव्वं
हे सव्व
सव्वत्तो, सव्वाओ, सव्वाउ सव्वाहिन्तो, सव्वासुन्तो
सव्वासु, सव्वासुं
सव्वा
अकारान्त नपुंसकलिंग सव्व (सर्व)
सव्वाइं, सव्वाइँ, सव्वाणि सव्वाइं, सव्वाइँ, सव्वाणि
शेष रूप पुंलिंग वत् ।
२०८
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पं.
त-ण (तद्), एअ-एत (एतद्), ज (यत्), क (किम्), इम (इदम्), अमु (अदस्), अम्ह (अस्मद्), तुम्ह (युष्मद्) शब्दों के रूप
त-ण (तद्) पुंलिंग एकवचन
बहुवचन स, सो, से
ते, णे तं, णं
ते, ता, णे, णा त. | तेण, तेणं, तिणा,
तेहि, तेहिं, तेहि णेण, णेणं, णिणा
णेहिँ, णेहिं, णेहि च. छ.| तास, तस्स, से,
तास, तेसिं, ताण, ताणं, सिं, णस्स
णेसिं, णाण, णाणं तो, तम्हा, तत्तो, ताओ, ताउ तत्तो, ताओ, ताउ, ताहि, ताहिन्तो, ता. ताहि, ताहिन्तो, तासुन्तो
तेहि, तेहिन्तो, तेसुन्तो णत्तो, णाओ, णाउ
णत्तो, णाओ, णाउ, णाहि, णाहिन्तो, णा
णाहि, णाहिन्तो, णासुन्तो
णेहि, णेहिन्तो, णेसुन्तो स. तस्सि, तम्मि, तत्थ, तेसु, तेसुं
तहिं, तंसि णस्सि, णम्मि, णत्थ, णेसु, णेसुं णहिं, णंसि * ताहे, ताला, तइआ
ता, • ती, णा, णी स्त्रीलिंग एकवचन
बहुवचन प. | सा
| ताओ, ताउ, ता तीआ, तीओ, तीउ, ती
* ताहे आदि तीनों रुपों का 'उस समय इस अर्थ में प्रयोग होता है । • ता का ती, जा का जी, का का की, एआ का एई, इमा का इमी भी विकल्प से
होता है । (पाठ-१६ देखो) .
२०९
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________________
|
च. छ
स.
तं
ताओ, ताउ, ता
तीआ, तीओ, तीउ, ती ताअ, ताइ, ताए
ताहि, ताहिं, ताहि तीअ, तीआ, तीइ, तीए
तीहि, तीहिं, तीहि तिस्सा, तीसे, तीस, से,
तेसिं, ताण, ताणं, सिं ताअ, ताइ, ताए
तास, तासिं, तीअ, तीआ, तीइ, तीए ताअ, ताइ, ताए, तो,
तत्तो, ताओ, ताउ, तम्हा, तत्तो, ताओ, ताउ, ताहिन्तो | | ताहिन्तो, तासुन्तो, तीअ, तीआ, तीइ, तीए,
तित्तो, तीओ, तीउ, तित्तो, तीओ, तीउ, तीहिन्तो तीहिन्तो, तीसुन्तो ताअ, ताइ, ताए,
तासु, तासुं, तीअ, तीआ, तीइ, तीए
तीसु, तीसुं णा-णी के रूप भी इसके समान जानने चाहिए ।
__ नपुंसकलिंग एकवचन
बहुवचन . ताई, ताइँ, ताणि
णाइं, णाइँ, णाणि शेष रूप पुंलिंग के समान जानने चाहिए ।
ज (यत्) पुंलिंग एकवचन
बहुवचन जो, जे
जे,जा जेण, जेणं, जिणा
जेहिँ, जेहिं, जेहि जास, जस्स
जेसिं, जाण, जाणं जम्हा, जत्तो, जाओ, जाउ, | जत्तो, जाओ, जाउ, जाहि, जाहिन्तो, जा
जाहि, जाहिन्तो, जासुन्तो, | जेहि, जेहिन्तो, जेसुन्तो ।
न
I
च. छ.
-२१०
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________________
स.
प.
बी.
त.
च. छ.
पं.
स.
प. बी.
प.
बी.
जस्सि, जम्मि, जत्थ,
जहिं,
जंसि
एकवचन
जा
जं
जाहे, जाला, जइआ
जाअ, जाइ, जाए जीअ, जीआ, जीइ, जीए जिस्सा, जीसे,
जाअ, जाइ, जाए
जीअ, जीआ, जीइ, जीए जाअ, जाइ, जाए-जम्हा जत्तो, जाउ, जाओ, जाहिन्तो,
जीअ, जीआ, जीइ, जीए जित्तो, जीओ, जीउ, जीहिन्तो
जाअ, जाइ, जाए,
जा जी (यत्) स्त्रीलिंग
बहुवचन
जाओ, जाउ, जा
जीआ, जीओ, जीउ, जी
अ, जीआ, जीइ, जीए
जं
एकवचन
को,
के
कं
जेसु, जेसुं
नपुंसकलिंग
जाओ, जाउ, जा, जीआ, जीओ, जीउ, जी
जाहि, जाहिं, जाहिँ जीहि, जीहिं, जीहि जेसिं, जाण, जाणं, जासिं
जत्तो, जाओ, जाउ, जाहिन्तो, जासुन्तो
जित्तो, जीओ, जीउ, जीहिन्तो, जीसुन्तो
जासु, जासुं
जीसु, जीसुं
जाइं, जाइँ, जाणि
शेष रूप पुंलिंग वत् ।
क (किम्) पुंलिंग
बहुवचन
के
के,
का
जाहे आदि तीनों रूपों का 'जब, जिस समय' अर्थ में प्रयोग होता है ।
२११
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________________
i
का
त. | केण, केणं, किणा
केहि, केहिं, केहिँ च. छ. | कास, कास्स
कास, केसिं, काण, काणं किणो, कीस, कम्हा,- - कतो, काओ, काउ, काहि, कत्तो, काओ, काउ,
काहिन्तो, कासुन्तो काहि, काहिन्तो, का
केहि, केहिन्तो, केसुन्तो कस्सि, कम्मि, कत्थ, केसु, केसुं कहिं, कंसि • काहे, काला, कइआ
___का, की (किम्) स्त्रीलिंग एकवचन
बहुवचन काओ, काउ, का कीआ, कीओ, कीउ, की काओ, काउ, का
कीआ, कीओ, कीउ, की त. | काअ, काइ, काए
काहि, काहिं, काहिं कीअ, कीआ, कीइ, कीए कीहि, कीहिं, कीहिँ च. छ. किस्सा, कीसे, कास
केसिं, काण, काणं, काअ, काइ, काए,
कासिं, कास कीअ, कीआ, कीइ, कीए काअ, काइ, काए, कम्हा, कत्तो, काओ, काउ, कत्तो, काओ, काउ, काहिन्तो, काहिन्तो, कासुन्तो, कीअ, कीआ, कीइ, कीए, कित्तो, कीओ, कीउ, कित्तो, कीओ, कीउ, कीहिन्तो कीहिन्तो, कीसुन्तो काअ, काइ, काए,
कासु, कासुं. कीअ, कीआ, कीइ, कीए कीसु, कीसुं
क (किम्) नपुंसकलिंग प. बी. किं
काइं, काइँ, काणि
शेष रूप पुंलिंग वत् । • काहे आदि तीनों रूपों का 'कब और किस समय' अर्थ में प्रयोग होता है ।
२१२
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________________
च. छ.
एअ, एत (एतद) पुंलिंग एकवचन
बहुवचन एस, एसो, एसे इणं, इणमो एअं
एए, एआ एएण, एएणं, एइणा एएहि, एएहिं, एएहि एअस्स, से
एएसिं, एआण, एआणं, सिं एतो, एताहे, (एअत्तो). एअत्तो, एआओ, एआउ, एआओ, एआउ, एआहि, एआहि, एआहिन्तो, एआसुन्तो, एआहिन्तो, एआ
एएहि, एएहिन्तो, एएसुन्तो अयम्मि., ईअम्मि, एअस्सि, | एएसु, एएसुं एअम्मि, एत्थ, एअंसि .
एआ, एई (एतद्) स्त्रीलिंग एकवचन .
बहुवचन एस, एसा, इणं, इणमो, एआओ, एआउ, एआ, एई, एईआ
एईआ, एईओ, एईउ, एई, एअं, एइं
एआओ, एआउ, एआ,
एईआ, एईओ, एईउ, एई एआअ, एआइ, एआए एआहि, एआहिं, एआहि एईअ, एईआ, एईइ, एईए एईहि, एईहिं, एईहिं | एआअ, एआइ, एआए, एआण, एआणं, सिं, एईअ, एईआ, एईइ, एईए, से. | एएसिं, एआसिं,
एईण-णं एआअ, एआइ, एआए, (एअत्तो), | एअत्तो, एआओ, एआउ, एआओ, एआउ, एआहिन्तो | एआहिन्तो; एआसुन्तो एईअ, एईआ, एईइ, एईए, एइत्तों, एईओ, एईउ, एइत्तो, एईओ, एईउ, एईहिन्तो। | एईहिन्तो, एईसुन्तो एआअ, एआइ, एआए,
एआसु, एआसुं. एईअ, एईआ, एईई, एईए ए ईसु, एईसुं
च. छ.
स.
-२१३
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________________
प. बी.
इमे
च. छ.
एअ (एतद) नपुंसकलिंग एअं, एस, इणं, इणमो एआइं, एआइ, एआणि एअं
एआइं, एआई, एआणि शेष रूप पुंलिंग वत् ।
इम (इदम्) पुंलिंग एकवचन
बहुवचन अयं, इमो, इमे इमं, इणं, णं
इमे, इमा, णे, णा इमेणं, इमेण, इमिणा, इमेहि, इमेहिं, इमेहि णेणं, जेण, णिणा
णेहि, णेहिं, णेहि इमस्स, से, अस्स इमेसिं, इमाण, इमाणं, सिं इमत्तो, इमाओ, इमाउ, इमत्तो, इमाओ, इमाउ, इमाहिन्तो, इमा
इमाहि, इमाहिन्तो, इमासुन्तो
इमेहि, इमेहिन्तो, इमेसुन्तो इमस्सि, इमम्मि , अस्सि, इमेसु, इमेसुं इह, इमंसि
एसु, एसु इमा, इमी (इदम्) स्त्रीलिंग इमा, इमिआ
इमाओ, इमाउ, इमा इमी, इमीआ
इमीआ, इमीओ, इमीउ,
इमी (इमे) इमं, इमिं, इणं, णं
इमाओ, इमाउ, इमा, इमीआ, इमीओ, इमीउ,
इमी, (इमे) इमाअ, इमाइ, इमाए
इमाहि, इमाहिं, इमाहि, इमीअ, इमीआ, इमीइ, इमीए, | इमीहि, इमीहिं, इमीहि णाअ, णाइ, णाए
णाहि, णाहिं, णाहिँ, आहि, आहिं, आहिँ
२१४
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________________
LLLLLLLLL L
च. छ. |इमाअ, इमाइ, इमाए,
इमाण, इमाणं, इमीअ, इमीआ, इमीइ, सिं, इमेसिं, इमासिं, इमीए, से, (इमीसे)
इमीण, इमीणं इमाअ, इमाइ, इमाए,
इमत्तो, इमाओ, इमाउ, इमत्तो, इमाओ, इमाउ, इमाहिन्तो इमाहिन्तो, इमासुन्तो, इमीअ, इमीआ, इमीइ, इमीए, इमित्तो, इमीओ, इमीउ,
इमित्तो, इमीओ, इमीउ, इमीहिन्तो इमीहिन्तो, इमीसुन्तो, स. इमाअ, इमाइ, इमाए,
इमीसु, इमीसुं, इमासु, इमासुं इमीअ, इमीआ, इमीइ, इमीए आसु, आसुं
इम (इदम्) नपुंसकलिंग | एकवचन
बहुवचन प. बी. | इदं, इणमो, इणं । इमाइं, इमाइँ, इमाणि ।
शेष रूप पुंलिंग वत् । ____अमु (अदस्) यह, वह पुंलिंग एकवचन
बहुवचन अह, अमू
अमवो, अमउ, अमओ,
अमुणो, अमू अमुं
अमुणो, अमू अमुणा
अमूहि, अमूहिं, अमूहि च. छ. अमुणो, अमुस्स
अमूण, अमूणं अमुणो, अमुत्तो, अमूओ, अमुत्तो, अमूओ, अमूउ, अमूउ, अमूहिन्तो
अमूहिन्तो, अमूसुन्तो अयम्मि, इअम्मि,
अमूसु, अमूसुं अमुम्मि, अमुंसि
स्त्रीलिंग अह, अमू
अमूओ, अमूउ, अमू अमुं
अमूओ, अमूउ, अमू
IF
4
त.
म
.
=
२१५
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
च. छ.
पं.
|
|
त.
अमूअ, अमूआ , अमूइ, अमूए | अमूहि, अमूहिं, अमूहिँ | अमूअ, अमूआ, अमूइ, अमूए अमूण, अमूणं अमूअ, अमूआ, अमूइ, अमूए अमुत्तो, अमूओ, अमूउ, अमुत्तो, अमूओ, अमूउ अमूहिन्तो, अमूसुन्तो अमूहिन्तो अमूअ, अमूआ, अमूह, अमूसु, अमूसुं अमूए.
नपुंसकलिंग अह, अमुं
अमूई, अमूइँ, अमूणि अमुं
अमूइं, अमूइँ, अमूणि शेष रूप पुंलिंग वत्
• अम्ह (अस्मद) = मैं तीनों लिंग में एकसमान रूप बनते हैं। एकवचन
बहुवचन हं, अहं, अहयं , म्मि, |अम्ह, अम्हे, अम्हो, मो, वयं, मे अम्हि, अम्मि मं, मम, मिमं, अहं, णे, णं, अम्हे, अम्हो, अम्ह, णे
| मि, अम्मि, अम्ह, मम्ह त. मि, मे, ममं, ममए, ममाइ, | अम्हेहिं, अम्हाहिं, अम्ह,
|मइ, मए, मयाइ, णे, [मया] अम्हे, णे च. छ. मे, मइ, मम, मह, महं, णे, णो, मज्झ, अम्ह, अम्हं,
अम्हे, अम्हो, मज्झ, मज्झं , अम्ह, अम्हं । अम्हाण-णं, ममाण-णं,
महाण-णं, मज्झाण-णं मइत्तो, मईओ-उ-हिन्तो, ममत्तो, ममाओ-उ-हि-हिन्तो-सुन्तो, ममत्तो, ममाओ-उ-हिन्तो, ममा, ममेहि-हिन्तो-सुन्तो, महत्तो, महाओ-उ-हिन्तो, महा अम्हत्तो,
अन्हाजा उहिहिन्ता-सुन्त्तो, -२१६
Page #240
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________________
स.
प.
मज्झत्तो, मज्झाओ-उ- हिन्तो | अम्हेहि- हिन्तो- सुन्तो
मज्झा
मि, मइ, ममाइ, मए, मे, अम्हस्सि-म्मि, अम्हंसि, ममस्सि-म्मि, ममंसि, महस्सि-म्मि, महंसि, मज्झस्सिम्मि, मज्झसि,
बी.
अम्हे, ममे, महे,
मज्झे [महिं]
• तुम्ह (युष्मद् ) = तू (तुम)
तीनों लिंग में एकसमान रूप बनते हैं ।
एकवचन
तं तुं, तुवं तुह, तुमं
·
तं तूं, तुवं, तुमं, तुह, तुमे, तुए
तइया भे, दि, दे, ते, तइ, तए, तुमं, तुमइ, तुमए, तुमे, तुमाइ चउत्थी तइ, तुं, ते, तुम्ह, तुह, छट्ठी हं, तुव, तुम, तुमे, तुमो, तुमाइ, दि, दे,
इ, ए, तुब्भ, तुम्ह, तुज्झ, उब्भ, उम्ह, उज्झ, उय्ह
पंचमी तइतो, तईओ-उ- हिन्तो,
तुक्त्तो, तुवाओ-उ-हि
हिन्तो,
अम्हसु-सुं, अम्हेसुं-सुं, ममसु-सुं, ममेसु-सुं,
महसु-सुं, महेसु-सुं, मज्झसु-सुं, मज्झेसु-सुं, अम्हासु-सुं
तुवा तुमत्तो, तुमाओ - उ-हिहिन्तो, तुमा
तुहत्तो, तुहाओ - उ-हि- हिन्तो,
बहुवचन
"
भे, तुब्भे, तुम्हे तुज्झे, तुज्झ, तुम्ह, तुम्हे, उरहे वो, तुब्भे, तुम्हे तुज्झे, उज्झे, तुम्हे, उरहे, भे भे, तुब्भेहिं, तुम्हेहिं तुज्झेहिं, उज्झेहिं, उम्हेहिं, तुय्हेहिं, उय्हेहिं तु, वो, भे, तुब्भ, तुम्ह, तुज्झ, उब्भ, उम्ह, उज्झ, तुब्भाण-णं, तुवाण-णं, तुम्हाण-णं, तुमाण-णं, तुज्झाण-णं, तुहाण-णं तुब्भत्तो, तुम्भाओ-उ-हिहिन्तो- सुन्तो तुब्भेहि-हिन्तो-सुन्तो
तुम्हत्तो, तुम्हाओ - उ-हिहिन्तो- सुन्तो
तुम्हेहि-हिन्तो- सुन्तो
तुहा
तुज्झत्तो,
अम्ह (अस्मद्) और तुम्ह (युष्मद्) के रूपों में नीचे लाइन किये हुए रूप महत्त्वपूर्ण हैं ।
२१७
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
प.
सप्तमी तुमे, तुम, तुमाइ, तइ, तए, तुम्मि तुवम्मि, तुवस्सि, तुवंसि, तुमम्मि तुमस्सि तुमंसि तुहम्मि, तुहस्सि, तुहंसि, तुब्भम्मि, तुब्भस्सि तुब्भंसि, तुम्हम्मि, तुम्हस्सि, तुम्हंसि
बी.
त.
च. छ.
तुब्भत्तो, तुम्भाओ-उ-हिहिन्तो, तुब्भा
पं.
स.
तुम्हत्तो, तुम्हाओ - उ-हिहिन्तो, तुम्हा तुज्झत्तो, तुज्झाओ-उ-हि-,
हिन्तो,
तुज्झा
तुम्ह, तुब्भ, तुम्ह, तुज्झ, तहिन्तो
"
एकवचन
अहं, हं
ममं,
मं
मए, मइ
मे, मम
"
.
मह, मज्झ
ममत्तो,
मई,
तुब्भसु-सुं, तुब्भेसु-सुं, तुम्हसु-सुं, तुम्हेसु-सुं, तुज्झसु-सुं, तुज्झेसु-सु
तुज्झम्मि, तुज्झस्सि तुज्झसि तुब्भासु-सुं, तुम्हासु-सुं,
तुज्झासु-सुं
माओ
मज्झे
| तुज्झाओ - उ-हि- हिन्तो- सुन्तो तुज्झेहि- हिन्तो- सुन्तो तुम्हत्तो, तुम्हाओ-उ-हि- हिन्तो, सुन्तो,
तुम्हेहि- हिन्तो- सुन्तो
उय्हत्तो- उय्हाओ - उ-हि- हिन्तो- सुन्तो
२१८
उहेहि- हिन्तो- सुन्तो उम्हत्तो,
उपयोगी रूप
अम्ह (अस्मद् )
उम्हाओ - उ-हि- हिन्तो- सुन्तो,
उम्हेहि- हिन्तो- सुन्तो
तुसु-सुं
तुवसु-सुं, तुवेसु-सुं, तुमसु-सुं, तुमेसु-सुं,
| तुहसु-सुं, तुहेसु-सुं,
बहुवचन
अम्हे, अम्हो
अम्हे, अम्हो
अम्हेहिं
अम्ह, अम्हाणं
अम्हतो,
अम्हेसु
अम्हाओ
Page #242
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________________
प.
बी.
त.
च. छ.
पं.
स.
तुम्ह (युष्मद्)
तुं, तुमं
तुं, तुमं
तए, तुमए
तुह, तुव तुमत्तो, तुमाओ
तुमए, तए
उदा. तणुवी (तन्वी) लहुवी (लघ्वी) पुहुवी (पृथ्वी)
तुम्हे तुज्झे
तुम्हे तुज्झे तुब्भेहिं, तुम्हेहिं
7. अन्त में 'वी' संयुक्त हो ऐसे स्त्रीलिंग नामों में 'वी' के पूर्व उ रखा जाता
है ।
"
तुब्भाण, तुम्हाण तुब्भत्तो, तुब्भाओ,
तुब्भेसु तुम्हेसुं
अणुग्गह (अनुग्रह) = उपकार, कृपा जणद्दण (जनार्दन) = वासुदेव का नाम जराकुमार (जराकुमार) = वसुदेव राजा का पुत्र, वासुदेव का बड़ा भाई, कुमार
मउवी (मृवी) गुरुवी (गुर्वी)
"
8. क (किम्) सर्वनाम के रूपों को 'चि, इ, ई' (चित्) और 'पि-वि' (अपि) प्रत्यय लगाने पर प्रश्नार्थ दूर होकर अनिश्चयार्थ होता है ।
उदा. कस्सइ, कासइ (कस्यचित्) | केणइ ( केनचित् ) किसी के द्वारा
किसी का
२१९
कस्सवि, कासवि (कस्यापि) केणवि (केनापि ) किसी के भी द्वारा किसी का भी
केइ, केई (केचित् ) कोई केवि (केऽपि) कोई भी
शब्दार्थ
कंचि (कञ्चित् ) किसी को
कंपि (कमपि) किसी को भी
(पुलिंग)
=
निब्बंध (निर्बन्ध ) आग्रह पणाम (प्रणाम) = नमस्कार भोग (भोग) = शब्दादि विषय, खाना महप्प ( महात्मन् ) = महात्मा, योगी विसाय (विषाद) = खेद, शोक
जायव (यादव) = यदुवंशीय, यदु वंश संजोग (संयोग) = सम्बन्ध, मिलन
का
सामि (स्वामिन् ) = स्वामी, नायक,
अधिपति
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
नपुंसकलिंग दूर (दूर) = दूर, अलग | वेर ? (वैर) = वैर, दुश्मनी वसण (वसन) = रहना, वस्त्र -- वइर ।
पुंलिंग + नपुंसकलिंग भूअ (भूत) प्राणी, भूत | वय (वयस्) उम्र , आयुष्य
पुंलिंग + स्त्रीलिंग उवहि (उपधि) माया, उपकरण, साधन ।
स्त्रीलिंग अणगारिया (अनगारिता) = साधुजीवन | पवज्जा (प्रव्रज्या) = दीक्षा जरादेवी (जरादेवी) = वसुदेव की स्त्री पुहुवी (पृथ्वी) = पृथ्वी, भूमि दिट्टि (दृष्टि) = दृष्टि, नजर | मित्ती (मैत्री) = मैत्री, दोरिआ (दे. दवरिका) = रस्सी, डोरी| सही (सखी) = सहेली, परंपरा (परम्परा) = परम्परा, अनुक्रम
विशेषण उवज्जिअ (उपार्जित) = उपार्जन किया | लट्ठ (दे.) = सुन्दर
विवरिअ । (विपरीत) = उल्टा, प्रतिकूल जेट्ठ । (ज्येष्ठ) = बड़ा, वृद्ध विवरीअ. जिट्ट
विहलिअ (विह्वलित) = व्याकुल तिविह (विविध) = तीन प्रकार से (मन, | वुत्त (उक्त) = कहा हुआ वचन-काया से)
संजुअ (संयुत) = युक्त, सहित निबद्ध (निबद्ध) = बँधा हुआ सज्ज (सज्ज) = तैयार परिणय (परिणत) = परिपक्व समाण (सत्) = होता हुआ , विद्यमान बाहिर (बाह्य) = बाहर का
सेस (शेष) = बाकी
हुआ
अव्यय अइ। (अयि) संभावना अर्थ में, | इहरा । (इतरथा) अन्यथा, नहीं तो, ऐ । आमन्त्रण सूचक | इहरहा। अन्य प्रकार से
.
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________________
ईसिं (ईषत्) = अल्प, थोड़ा |बहुसो (बहुशः) = अनेकबार एक्कसरिअं (दे.) = शीघ्र, जल्दी, मोरउल्ला । (मुधा) = मुधा, व्यर्थ संप्रति, अब
मुहा णवर । (दे.) = केवल, फक्त, वीसुं (विष्वक्) = चारों तरफ, समन्तात् णवरं । अनन्तर, बाद में हद्धि । (हा + धिक्) = खेदसूचक, थु (दे.) = निन्दासूचक हद्धी । अनुताप
धातु
अई। (गम्) जाना
झड् (शद) = सड़ना, गिरना, झपट णी ।
| मारना, गिराना अक्कम् (आ + क्रम्) दबाना, आक्रमण निअच्छ) करना
पुलोअ
(दृश्) = देखना अणुभव (अनु + भव) = अनुभव करना, | पुलअ जानना
निअ ) आइक्ख् (आ + चक्ष) = कहना, उपदेश | निस्सस् । (निर् + श्वस्) = निःश्वास देना
|नीसस लेना आरंभ )
(आ + रभ्) = शुरू करना, |पमाय (प्र + माद) = प्रमाद करना, आढव् ) प्रारम्भ करना
भूलना आरम् ।
| पव्वय् (प्र + व्रज) = दीक्षा लेना आसास् (आ + श्वास्) = शान्ति देना, भास् (भाष) = बोलना आश्वासन देना
|विक्के (वि + क्री) = बेचना छिन् । (स्पृश्) = स्पर्श करना संपज्ज् (सम् + पद्) = प्राप्त करना छिह ।
सोय । (शुच्-शोच) = शोक करना जीह (लज्ज) = लज्जित होना, शरमाना | सोच ।
हिन्दी में अनुवाद करें 1. जइ से पिया न पव्वइओ होन्तो, तो लटुं होन्तं । 2. तइय च्चिय पव्वज्जं गिण्हंतो, ता इण्हि एरिसं पराभवं नेव पावितो । 3. सव्वेसिं गुणाणं बम्हचेरं उत्तममत्थि । 4. गुरवो सया अम्ह रक्खन्तु । - 5. कण्हेण भयवं पुच्छिओ, सामि ! कत्तो मे मरणं भविस्सइ ?
-२२१
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________________
6. सामिणा कहियं, जो एस 'ते जेठ्ठ-भाया' वसुदेवपुत्तो जरादेवीए जाओ
जराकुमारो नाम, इमाओ ते मच्चू, तओ जायवाण जराकुमारे सविसाया सोएण निवडिआ दिट्टी, चिंतिअं इमिणा 'अहो ! कहूं, अहं वसुदेवपुत्तो होऊण सयलजणिटुं कणिटुं भायरं विणासेहामि ति, तओ आपुच्छिऊण
जादवजणं जणद्दणरक्खणत्थं गओ वणवासं जराकुमारो | 7. जइ रूवं होतं, ता सव्वगुणसंपया होन्ता । 8. हे वीरजिणेसर ! तह कुणसु अम्ह पसायं, जह न संसारे अम्हे निविडिमो । 9. चिट्ठउ दूरे मन्तो, तुज्झ पणामो वि बहुफलो होइ ।। 10. न मं मोत्तुं अन्नो उचिओ इमीए, ता मुंच एयं जुद्धसज्जो वा होहि । 11. साहहिं वृत्तं जइ ते अइनिब्बंधो, तो संघसहिए अम्हे मेरुम्मि नेऊण चेइआई
- वंदावेह, तीए (देवीए) भणियं तुम्हे दो जणे अहं देवे तत्थ वंदावेमि | 12. x अम्हेहिं कालगएहिं समाणेहिं परिणय-वए अणगारियं पव्वइहिसि । 13. किं मे कडं, किं च मे किच्चसेसं, किं च सक्कणिज्जं न समायरामि त्ति
पच्चूहे सया झाएयव्वं । 14. जं जेण जया जत्थ, जारिसं कम्मं सुहमसुहं उवज्जियं ।
तं तेण तया तत्थ, तारिसं कम्मं दोरियनिबद्धं व्व संपज्जइ || 15. तुं कुण धम्मं, जेण सुहं सो च्चिय चिंतेइ तुह सव्वं । 16. खामेमि सव्वजीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे ।।
मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मज्झं न केणइ ||1|| 17. सव्वस्स समणसंघस्स, भगवओ अंजलिं करिअ सीसे ।
सव्वं खमावइत्ता, खमामि सव्वस्स अहयं पि ||2|| 18. जीसे खित्ते साहू, दंसणनाणेहिं चरणसहिएहिं ।
साहति मुक्खमग्गं, सा देवी हरउ दुरिआइं ||3|| 19. हसउ अ रमउ अ तुह सहिजणो, हसामु अ रमामु अ अहंपि ।
हससु अ रमसु अ तं पि, इअ भणिही मह पिओ इण्हि ||4|| 20. सामाइयम्मि उ कए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा ।
एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुज्जा ||5|| 21. जइ मे हुज्ज पमाओ, इमस्स देहस्सिमाइ रयणीए ।
आहारमुवहिदेहं, सव्वं तिविहेण वोसिरिअं ||6|| 22. एगो हं नत्थि मे कोइ, नाहमन्नस्स कस्सइ ।
एवं अदीणमणसो, अप्पाणमणुसासइ ||7|| x समाणे सत्तमी (सति सप्तमी) में तृतीया अथवा सप्तमी विभक्ति रखी जाती है ।
-२२२
ॐ
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________________
23. एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसण संजुओ ।
सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ||8|| 24. संजोगमूला जीवेण, पत्ता दुक्खपरंपरा ।
तम्हा संजोगसंबंध, सव्वं तिविहेण वोसिरिअं ||9|| 25. अरिहंतो महदेवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो । जिणपन्नत्तं तत्तं, इअ सम्मत्तं मए गहिअं ||10|| प्राकृत में अनुवाद करें
1. देव और असुरों के समूह से वन्दन किये हुए जिनेश्वर देव हमारा रक्षण करें । 2. जो दुविधा में आये हुए ( दुविधा प्राप्त) को शान्ति देता है, दुःख प्राप्त (दुःखी) का उद्धार करता है, शरण में आये हुए ( शरणागत) का रक्षण करता है, उन पुरुषों द्वारा पृथ्वी अलंकृत है ।
3. अहिंसा, संयम और तप ये धर्म जिनके हृदय में हैं, उनको देव भी नमस्कार करते हैं ।
जो मनुष्य धर्म का त्याग करके केवल काम और भोगों का सेवन करता है, वह किसी भी काल में सुख नहीं पाता है ।
5. सभी मंगलों में प्रथम मंगल कौन-सा है ?
4.
6. हे भगवन् ! धर्म का उपदेश देकर आपने मुझ पर अनुग्रह किया है । 7. स्वामी की आज्ञा में रहना, उसी में तुम्हारा कल्याण है । जब पुण्य का नाश होता है, तब सब विपरीत होता है ।
8.
9. हे प्रभु ! तुम्हारे चरणों की शरण स्वीकार कर कौन सा मनुष्य संसार नहीं तरेगा ? 10. इस लोक (इस भव) में शुभ या अशुभ कर्म किया है, वही परलोक में साथ में आता है, इसलिए तुम शुभकर्म का संचय करो ।
11. इस संसार में किसका जीवन सफल है ?
12. जिसके जीवित रहने पर सज्जन और मुनि जीते हैं और जो हमेशा परोपकारी है उसका जीवन सफल है ।
13. यह मेरा है और यह तेरा है, इस प्रकार की वृत्ति तुच्छ मनवालों की होती है, लेकिन महात्माओं को संपूर्ण जगत् अपना ही है ।
14. तू कहता है कि यह पुस्तक मेरी है और तेरा मित्र कहता है कि यह पुस्तक उसकी है तो तुम्हारे में सत्यवादी कौन है ?
15. उस व्यक्ति ने इन बालकों को और उन बालिकाओं को सभी फल दे दिए । 16. राजा ने एकदम कहा कि वे मनुष्य कौन हैं, कहाँ से आते हैं और मेरे पास उनका क्या काम है ?
२२३
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________________
2
एग एअ
-
दो
}
वे
ति (त्रि) तीन
8
9
10 दस
(द्वि) दो
3
4 चउ (चतुर्) चार
• 5 पंच (पञ्चन्) पाँच
6
छ (षष्) छह
7
सत्त
सग
अट्ठ (अष्टन्) आठ
नव (नवन्) नौ
}
11 एगारह
दह
(सप्तम्) सात
संख्यावाचक शब्दावली
(एक) एक
(दशन) दस
पाठ
(एकादशन)
ग्यारह
-
25
12 दुवालस
बारह
बारस
13 तेरह
तेरस }
14 चोद्दह
चोद्दस
चउद्दह
चउद्दस
15 पण्णरस
२२४
(द्वादशन्) बारह
(त्रयोदशन) तेरह
( चतुर्दशन् ) चौदह
(पञ्चदशन्) पन्द्रह
परह
16 सोलस ) ( षोडशन्) सोलह
सोलह
17 सत्तरस
(सप्तदशन् ) सत्रह
सत्तरह
18 अट्ठारह
(अष्टादशन्) अठारह
अट्ठारस
1. एग, एअ, एक्क, इक्क शब्दों के रूपों का तीनों लिंगों में उपयोग होता है और उसके रूप 'सव्व' शब्द के समान ही बनते हैं ।
2. दो से अट्ठारस पर्यन्त के संख्यावाचक शब्दों के रूप बहुवचन में ही बनते हैं तथा तीनों लिंगों में समान ही बनते हैं ।
उदा. दुवे, दोणि, दुण्णि, वेण्णि, विण्णि, दो, वे (दो का प्र. बहुवचन) 3. अट्ठारस पर्यन्त के संख्यावाचक शब्दों में षष्टी बहुवचन में ण्ह और हं प्रत्यय लगता है ।
उदा. सत्तण्ह, सत्तण्हं ( सत्त का षष्टी बहुवचन)
आर्ष में 'पंच' का 'पण', 'अट्ठ' का अड, 'अट्ठारह' का 'अट्ठार' भी होता है । उदा. पण जणा = (पाँच मनुष्य), अड बाला = आठ बालिका, अट्ठार अंबा अठारह आम के वृक्ष
=
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________________
4. संख्यावाचक शब्द में असंयुक्त 'द' का 'र' होता है और दस (दशन् )
के 'श' का 'ह' विकल्प से होता है |
उदा.
(एकादश),
(त्रयोदशम् )
प.
बी.
च. छ.
प.
बी.
च. छ.
प. बी.
एआरह
एगारस
त.
एकवचन
एगो, एगे
एगं
एगस्स
(पुंलिंग)
एग (एक)
एगा
एगं
एगाअ, एगाइ, एगाए
शेष रूप 'सव्व' वत् ।
स्त्रीलिंग
एगं
दो-वे (द्वि) तीनों लिंग में
बहुवचन
प. बी. दुवे, दोण्णि, दुण्णि
वेण्णि, विण्णि, दो, वे
तेरह तेरस
शेष रूप 'सव्वा' वत् । नपुंसकलिंग
दोहि, दोहिं, दोहि वेहि, वेहिं,
वेहि
बहुवचन
एगे
एगे, एगा एगण्हं, एगह, एगेसिं
च. छ. दोण्हं, दोण्ह, दुण्हं, दुह
वेण्हं, वेण्ह, विण्हं, विह
शेष रुप सव्व' वत् ।
२२५
एगाओ, एगाउ, एगा एगाओ, एगाउ, एगा एगासिं, एगेसिं एगण्ह, एगहं
गाई, एगाइँ, एगाणि
ति (त्रि) तीनों लिंग में
बहुवचन तिण्णि (तओ)
तीहि, तीहिं, तीहि
तिहं, तिह
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
दुत्तो, दोओ, दोउ, दोहिन्तो, दोसुन्तो | तित्तो, तीओ, तीउ क्तिो, वेओ, वेउ, वेहिन्तो, वेसुन्तो । तीहिन्तो, तीसुन्तो दोसु, दोसुं,
तीसु, तीसुं वेसु, वेसुं
त.
चउ (चतुर)
पंच (पश्चन्) तीनों लिंग में | बहुवचन
बहुवचन प. बी. चत्तारो, चउरों, चत्तारि पंच
चऊहि, चऊहिं, चऊहिं • पंचहि, पंचहिं, पंचहिँ
चउहि, चऊहिं, चऊहिं च. छ. चउण्हं, चउण्ह
पंचण्हं, पंचण्ह चउत्तो, चऊओ, चऊउ,
पंचत्तो, पंचाओ, पंचाउ, चऊहिन्तो, चऊसुन्तो, ( पंचाहिन्तो, पंचासुन्तो चउओ, चउउ, चउहिन्तो, चउसुन्तो चऊसु, चऊसुं
पंचसु, पंचसुं चउसु, चउसुं
छ (षष) तीनों लिंग में | बहुवचन
सत्त (सप्तन्) बहुवचन
सत्त
प. बी. त.
छहि, छहिं, छहिँ
सत्तहि, सत्तहिं, सत्तहिँ च. छ. छण्हं, छण्ह - सत्तण्हं, सत्तण्ह
छतो, छाओ, छाउ, सत्तत्तो, सत्ताओ, सत्ताउ, छाहिन्तो, छासुन्तो सत्ताहिन्तो, सत्तासुन्तो छसु, छसुं
सत्तसु, सत्तसुं अट्ठ (अष्टन)
नव (नवन्) तीनों लिंग में | बहुवचन
बहुवचन प. बी. अट्ठ
नव • पंचेहि हिं-हिँ, सत्तेहि-हिं-हिँ इत्यादि रूप भी दिखाई देते हैं । ____उदा. बारसेहिं जोयणेहि ईसिपब्भारा पुढवी ।। निशीथ भा.1.
-२२६
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--------------------------------------------------------------------------
________________
च. छ.
अट्ठहि, अट्ठहिं, अट्ठहिँ | नवहि, नवहिं, नवहिँ अट्ठण्ह, अट्ठण्हं
नवण्ह, नवण्हं अकृत्तो, अट्ठाओ, अट्ठाउ, | नवत्तो, नवाओ, नवाउ, अट्ठाहिन्तो, अट्ठासुन्तो नवाहिन्तो, नवासुन्तो अट्ठसु, अट्ठसुं
नवसु, नवसुं
स.
इस प्रकार दह, दस से अट्ठारस पर्यन्त के रूप जानने चाहिए । कइ (कति) = कितना ? के रूप बहवचन में ही होते हैं। तीनों लिंग में | बहुवचन प. बी. कई त.
कईइ, कईहिं, कईहिँ च. छ. . कइण्हं, कइण्ह पं.
कइतो, कईओ, कईउ, कईहिन्तो, कईसुन्तो
कईसु; कईसुं 5. संख्यावाचक शब्द में आर्ष प्राकृत में अन्त्य आ का अ भी होता है, इसके
रूप पुंलिंग और नपुंसकलिंग प्रथमा और द्वितीया एकवचन में प्राकृत साहित्य में दिखाई देते हैं । उदा. आ का अ - एगूणवीस, वीस, बावीस, चउव्वीस, पणवीस, छव्वीस, एगूणतीस, तीस, बत्तीस, तेत्तीस, छत्तीस, अट्ठतीस - अड़तीस, एगूणचत्तालीस, चत्तालीस, बायालीस, छायाल - छायालीस, अडयाल - अठ्ठचत्तालीस, एगूणपन्नास, पन्नास, एगावन्न - एगपन्नास, छप्पन्न - छप्पन्नास, अट्ठावन्न - अडवन्न । अठ्ठपन्नास इत्यादि. एगुणपन्नं राइंदियाइं जीविउं. द्वितीया एकव. (वसुदेवहिंडी पृ. 278) चत्तालीसं जोयणा चूला मेरूम्मि प्रथमा एकव. (नि. पृ. 29) वीसं गयदंतेसु, जयंति तीसं कूलगिरीसु प्रथमा एकव. (शाश्वत जिनस्तवे) 6. एगूणपण्णासा इत्यादि में ण्ण का न्न भी होता है ।
उदा. एगूणपन्नासा, पन्नासा, एगावन्ना, बावन्ना, तेवन्ना 7. एगूणवीसा से नवणवइ पर्यन्त शब्दों में से आकारान्त शब्दों के रूप 'रमा'
के समान और इकारान्त शब्दों के रूप 'बुद्धि के समान होते हैं । उदा. एगूणवीसाओ, एगूणवीसाउ, एगूणवीसा - (एगूणवीसा का प्रथमा बहुवचन)
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एगूणसट्ठीओ, एगूणसट्ठीउ, एगूणसट्ठी - (एगूणसट्टि का प्रथमा बहुवचन) 8. सय, सहस्स और लक्ख इन शब्दों का पुंलिंग में भी प्रयोग होता है |
उदा. सोलस रायसहस्सा कमेण पूयंति रयणमाईहिं - (नेमिचरिए भव - 9, गा. 1340), अट्ठ सहस्सा गा. 48 '
एगूणवीसा से संख्यावाची शब्द 19. एगूणवीसा (एकोनविंशति) = उन्नीस 20. वीसा (विंशति) = बीस .. 21. एगवीसा, एक्कवीसा, इक्कवीसा (एकविंशति) = इक्कीस 22. बावीसा (द्वाविंशति) = बाईस 23. तेवीसा (त्रयोविंशति) = तेईस 24. चउवीसा, चोवीसा (चतुर्विंशति) = चौबीस 25. पणवीसा (पञ्चविंशति) = पच्चीस 26. छव्वीसा (षड्विंशति) = छब्बीस 27. सत्तावीसा, सगवीसा (सप्तविंशति) = सत्ताईस 28. अठ्ठावीसा, अट्ठवीसा, अडवीसा (अष्टाविंशति) = अट्ठाईस 29. एगूणतीसा, अउणतीसा (एकोनत्रिंशत्) = उन्तीस 30. तीसा (त्रिंशत्) = तीस 31. एगतीसा, एक्कतीसा, इक्कतीसा (एकत्रिंशत्) = इक्कतीस 32. बत्तीसा (द्वात्रिंशत्) = बत्तीस 33. तेत्तीसा, तित्तिसा (त्रयस्त्रिंशत्) = तैतीस 34. चउतीसा, चोत्तीसा (चतुस्त्रिंशत्) = चौंतीस 35. पणतीसा (पञ्चत्रिंशत्) = पैंतीस 36. छतीसा (षट्त्रिंशत्) = छत्तीस 37. सत्ततीसा (सप्तत्रिंशत्) = सैंतीस 38. अकृतीसा, अडतीसा (अष्टात्रिंशत्) = अडतीस 39. एगूणचत्तालीसा (एकोनचत्वारिंशत्) = उनचालीस 40. चत्तालीसा (चत्वारिंशत्) = चालीस 41. एगचत्तालीसा, एक्कचत्तालीसा, इक्कचत्तालीसा, एगयालीसा, इगयाला
(एकचत्वारिंशत्) = इकतालीस 42. बायालीसा, बायाला, बेयालीसा, बेचत्तालीसा, बेआला, दुचत्तालीसा
(द्वाचत्वारिंशत्) = बयालीस
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43. तिचत्तालीसा, तेआलीसा, तेआला (त्रिचत्वारिंशत्) = तैंतालीस 44. चउचतालीसा, चोयालीसा, चउयालीसा, चउआला (चतुश्चत्वारिंशत्)=चौवालीस 45. पणचत्तालीसा, पणयालीसा, पणयाला (पञ्चचत्वारिंशत्) = पैंतालीस 46. छचत्तालीसा, छायालीसा, छायाला (षट्चत्वारिंशत्) = छियालीस 47. सत्तचत्तालीसा, सत्तयालीसा, सगयाला (सप्तचत्वारिंशत्) = सैंतालीस 48. अठ्ठचत्तालीसा, अडयालीसा, अडयाला (अष्टचत्वारिंशत्) = अड़तालीस 49. •एगूणपण्णासा, अउणापण्णा, अउणपण्णा (एकोनपञ्चाशत्) = उनचास 50. पण्णासा, पंचासा (पञ्चाशत्) = पचास 51. एगपण्णासा, एक्कपण्णासा, एगावण्णा (एकपञ्चाशत्) = इक्यावन 52. दुप्पण्णासा, बावण्णा (द्विपञ्चाशत्) = बावन 53. तिपण्णासा, तेवण्णा (त्रिपञ्चाशत्) = तिरेपन 54. चउपण्णासा, चोवण्णा, चउवण्णा (चतुःपञ्चाशत्) = चउपन, चोपन 55. पंचावण्णा, पणपणासा, पणपण्णा (पञ्चपञ्चाशत्) = पचपन 56. छप्पण्णा, छप्पण्णासा (षट्पञ्चाशत्) = छप्पन 57. सत्तपण्णासा, सत्तावण्णा (सप्तपञ्चाशत्) = सत्तावन 58. अट्ठावण्णा, अट्ठापण्णासा, अडवण्णा (अष्टपञ्चाशत्) = अट्ठावन 59. एगूणसहि, अउणसट्टि (एकोनषष्टि) = उनसठ 60. सट्ठि (षष्टि) = साठ 61. एगसडि, एक्कसडि, इक्कसट्टि (एकषष्टि) = इकसठ 62. बासहि, बावट्ठि (द्विषष्टि) = बासठ 63. तेसट्ठि, तेवट्टि (त्रिषष्टि) = तिरेसठ 64. चउसट्टि, चोवडि, चोसट्टि (चतुष्षष्टि) = चौंसठ 65. पणसट्ठि, पण्णट्टि (पंचषष्टि) = पैंसठ 66. छासहि, छावट्टि (षट्षष्टि) = छासठ 67. सत्तसट्टि, सडसट्टि (सप्तषष्टि) = सड़सठ 68. अठ्ठसट्टि, अडसट्टि (अष्टषष्टि) = अड़सठ 69. एगूणसत्तरि, अउणत्तरि (एकोनसप्तति) = उनहत्तर •70 सत्तरि, सित्तरि, सयरि (सप्तति) = सत्तर • णा का न होने पर एगूणपन्नासा, पन्नासा, एगावन्ना, बावन्ना, तेवन्ना आदि रुप
भी होते हैं। • आर्ष प्राकृत में 'सत्तरि' के स्थान पर 'हत्तरि' भी आता है ।
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71. एगसत्तरि, एक्कसत्तरि, इक्कसत्तरि (एकसप्तति) = इकहत्तर 72. बावत्तरि, बाहत्तरि, बिसत्तरि, बहत्तरि (द्विसप्तति) = बहत्तर 73. त्रिसत्तरि, तिहत्तरि, तेक्त्तरि (त्रिसप्तति) = तिहत्तर 74. चउसत्तरि, चोक्त्तरि, चोसत्तरि (चतुःसप्तति) = चौहत्तर 75. पण्णसत्तरि, पंचहत्तरि (पञ्चसप्तति) = पिचहत्तर 76. छसत्तरि, छस्सयरि (षट्सप्तति) = छिहत्तर 77. सत्तसत्तरि, सत्तहत्तरि (सप्तसप्तति) = सतहत्तर 78. अट्ठसत्तरि, अट्ठहत्तरि (अष्टसप्तति) = अठहत्तर 79. एगूणासीइ (एकोनाशीति) = उन्अस्सी, उन्यासी 80. असीइ (अशीति) = अस्सी । 81. एगासीइ एक्कासीइ, इक्कासीइ (एकाशीति) = इक्यासी 82. बासीइ (द्वयशीति) = बयासी 83. तेसीइ, तेआसीइ (त्र्यशीति) = तिरासी 84. चउरासीइ, चोरासीइ, चुलसी (चतुरशीति) = चौरासी 85. पणसीइ, पंचासीइ (पञ्चाशीति) = पिच्यासी 86. छासीइ (षडशीति) = छियासी 87. सत्तासीइ (सप्ताशीति) = सत्तासी 88. अट्ठासीइ (अष्टाशीति) = अट्ठायासी 89. नवासीइ, एगूणनवइ, एगूणणउइ (नवाशीति, एकोननवति) = नवासी 90. नवइ, नउइ (नवति) = नब्बे 91. एगणवइ, एक्कणवइ, इक्कणवइ, इक्कणउइ (एकनवति) = इक्यानवे 92. बाणउइ, बाणवइ (द्विनवति) = बानवे 93. तेणवइ, तिणउइ (त्रिनवति) = तिरानवे 94. चउणवइ, चोणवइ (चतुर्नवति) = चोरानवे 95. पंचाणउइ, पंचाणवइ, पण्णणवइ (पञ्चनवति) = पिच्यानवे 96. छण्णवइ, छण्णउइ (षण्णवति) = छियानवे 97. सत्ताणवइ, सत्तणवइ, सत्तणउइ (सप्तनवति) = सत्तानवे 98. अट्ठाणवइ, अट्ठाणउइ, अट्ठणवइ, अडणवइ (अष्टनवति) = अट्ठानवे 99. नवणउइ, नवणवइ (नवनवति) = निन्नानवे, निन्यानने
एगूणसय नपुं. (एकोनशत) 100. सय नपुं. (शत) = सौ
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200 दुसय, बिसय, दो सयाइं नपुं. (द्विशत) = दो सौ 300 तिसय, तिण्णि सयाइं नपुं. (त्रिशत) = तीन सौ 400 चउसय, चत्तारि सयाइं नपुं. (चतुःशत) = चारसौ 500 पंचसय, पणसय नपुं. (पञ्चशत) = पाँचसौ 600 छसय नपुं. (षट्शत) = छहसौ 700 सत्तसय नपुं. (सप्तशत) = सातसौ 800 अट्ठसय, अडसय नपुं. (अष्टशत) = आठसौ 900 नवसय नपुं. (नवशत) = नवसौ (नौ सौ) 1000 सहस्स नपुं. (सहस्र) = हजार 10,000 दससहस्स, दहसहस्स नपुं. (दशसहस्र) = दस हजार
अयुत-अजुअ नपुं. (अयुत) दस हजार. 1,00,000 सयसहस्स नपुं. (शतसहस्र) = एक लाख 1,00,000 लक्ख नपुं. (लक्ष) = एक लाख 10,00,000 दसलक्ख नपुं. (दशलक्ष) = दस लाख 1,00,00,000 कोडि स्त्री. (कोटि) = करोड़ 10,00,00,000 दसकोडि स्त्री. (दशकोटि) = दस करोड़ 100,00,00,000 सयकोडि स्त्री (शतकोटि) = सौ करोड़ 1000,00,00,000 सहस्सकोडि स्त्री. (सहस्रकोटि) = हजार करोड़ 100,00,00,00,000 लक्खकोडि स्त्री. (लक्षकोटि) = लाख करोड़ कोडाकोडि स्त्री. (कोटाकोटि) कोडाकोडी, क्रोड को क्रोड से गुना करने पर जो संख्या आती है वह । पलियोवम पुं. नपुं. (पल्योपम) पल्योपम, समय प्रमाण विशेष । सागरोवम पुं. नपुं. (सागरोपम) सागरोपम, समय प्रमाण विशेष, दस कोडाकोडी पल्योपम प्रमाण कालविशेष । 9. संख्यावाचक शब्दों के पहले सवाय-सट्ट-सद्ध-पाओण-पाउण-पोण शब्द
रखने पर भी अपूर्णांक शब्द सिद्ध होते हैं । उदा. सवायपंच-अ वि. (सपादपञ्च-क) पाओणपंच-अ) वि. (पादोनपञ्च-क)
सवा पाँच . पाउणपंच-अ पौने पाँच सडपंच-अ वि. (सार्धपञ्च-क) — पोणपंच-अ
साढ़े पाँच
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अपूर्णांक शब्द
पाय पुं. (पाद) = चौथा भाग, अद्धतइय पुं, नपुं. (अर्ध) = आधा भाग, अड्डाइय
}
= आधा
अड्डाइज्ज
पाओण) वि. ( पादोन) = पौना, पाव अधुट्ठ
अद्ध
अड्ड
पाऊण कम
पोण
सवाय वि. ( सपाद) = सवा पाव सहित वि. ( सार्ध) = डेढ़, आधासहित
}
सद्ध
सड्ढ
दिवड्ड वि. (द्वयपार्ध) = डेढ़
पढम
बीअ
बिइअ
दुइय
दुइज्ज
दोच्च
तीअ
तइअ
तच्च
तिइज्ज
तिइय
संख्यापूरक शब्द
( प्रथम ) पहला, 1ला,
(द्वितीय) दूसरा, 2रा
(तृतीय) तीसरा उरा
वि. ( अर्धचतुर्थ अध्युष्ट) साढ़े तीन
अड्डट्ठ अद्वपंचम वि. (अर्धपञ्चम) साढ़े चार अद्धछट्ट वि. (अर्धषष्ठ) साढ़े पाँच अद्धसप्तम वि. (अर्धसप्तम) साढ़े छह अद्धट्ठम वि. (अर्धाष्टम) साढ़े सात अद्धनवम वि. (अर्धनवम) साढ़े आठ अद्धदसम वि. (अर्धदशम) साढे नौ
वि. (अर्धतृतीय) ढाई
-
चउत्थ ) ( चतुर्थ, तुर्य) चौथा, 4 था चोत्थ
तुरिय
पंचम (पञ्चम) पाँचवाँ 5 वाँ
·
छट्ट (षष्ट) छट्टा, 6 ठा सत्तम (सप्तम) सातवाँ, 7 वाँ अट्ठम (अष्टम) आठवाँ 8 वाँ नवम (नवम्) नौवाँ, 9 वाँ दहम (दशम) दसवाँ, 10 वाँ
दसम
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10. एक्कारस आदि संख्यावाचक नामों को प्रयोगानुसार 'अ-म-यम-इम' प्रत्यय लगाने से संख्यापूरक शब्द बनते हैं, 'अ' प्रत्यय लगाने पर पूर्व के स्वर का लोप होता है तथा संस्कृत सिद्ध प्रयोग से भी प्राकृत नियमानुसार परिवर्तन होकर उपयोग होता है ।
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एक्कारस - म (एकादश) ग्यारहवाँ, 11 वाँ बारस • म) (द्वादश) बारहवाँ, 12 वाँ दुवालसमो तेरस - म (त्रयोदश) तेरहवाँ, 13 वाँ चउद्दश - म (चतुर्दश) चौदहवाँ, 14 वाँ पन्नरस • म। (पञ्चदश) पन्द्रहवाँ, 15 वाँ पंचदस - म सोलस - म (षोडश) सोलहवाँ, 16 वाँ सत्तरस - म (सप्तदश) सत्रहवाँ, 17 वाँ अट्ठारस - म (अष्टादश) अठारहवाँ, 18 वाँ एगूणवीस - इम (एकोनविंशतितम) उन्नीसवाँ, 19 वाँ वीसइम (विंशतितम) बीसवाँ, 20 वाँ एक्कवीस - म - इम (एकविंशतितम) इक्कीसवाँ बावीस - इम (द्वाविंशतितम) बावीसवाँ, 22 वाँ तेवीस - इम (त्रयोविंशतितम) तेइसवाँ, 23 वाँ चउवीस - इम (चतुर्विंशतितम) चौबीसवाँ, 24 वाँ पंचवीस - इम । (पञ्चविंशतितम) पच्चीसवाँ, 25 वाँ पणवीस - इम। छब्बीस - इम (षड्विंशतितम) छब्बीसवाँ, 26 वाँ सत्तावीस - इम (सप्तविंशतितम) सत्ताईसवाँ, 27 वाँ अट्ठावीस - इम (अष्टाविंशतितम) अट्ठाईसवाँ, 28 वाँ एगूणतीस - इम (एकोनत्रिंशत्तम) उनतीसवाँ, 29 वाँ तीसइम (त्रिंशत्तम) तीसवाँ, 30 वाँ एक्कतीस - इम (एकत्रिंशत्तम) इकतीसवाँ, 31 वाँ बत्तीस - इम (द्वात्रिंशत्तम) बत्तीसवाँ, 32 वाँ तेत्तीस - इम (त्रयस्त्रिंशत्तम) तैंतीसवाँ, 33 वाँ चउतीस - इम (चतुस्त्रिंशत्तम) चौंतीसवाँ, 34 वाँ - पंचतीस - इम । (पञ्चत्रिंशत्तम) पैंतीसवाँ, 35 वाँ पणतीस - इम) छत्तीस - इम (षट्त्रिंशत्तम) छतीसवाँ, 36 वाँ सत्ततीस - इम (सप्तत्रिंशत्तम) सैंतीसवाँ, 37 वाँ
r
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अट्टतीस - इम (अष्टात्रिंशत्तम) अडतीसवाँ , 38 वाँ एगूणचत्ताल - इम । (एकोनचत्वारिंशत्तम) उनतालीसवाँ, 39 वाँ एगूणचालीस - इम चत्ताल ) (चत्त्वारिंशत्तम) चालीसवाँ, 40 वाँ चालीस - म । चत्तालीस - म एगचत्ताल (एकचत्वारिंशत्तम) एकतालीसवाँ, 41 वाँ बायालीस - इम (द्वाचत्वारिंशत्तम) बयालीसवाँ, 42 वाँ तेयालीस • इम (त्रिचत्वारिंशत्तम) तैंतालीसवाँ, 43 वाँ चउचत्तालीस - इम। (चतुश्चत्वारिंशत्तम) चौवालीसवाँ 44 वाँ चउयालीस - इम । पणयाल (पञ्चचत्वारिंश) पैंतालीसवाँ, 45 वाँ छायालीस (षट्चत्वारिंश) छियालीसवाँ, 46 वाँ सत्तचत्ताल । (सप्तचत्वारिंश) सैंतालीसवाँ, 47 वाँ सत्तचत्तालीसा अट्ठचत्ताल । (अष्टचत्वारिंश) अड़तालीसवाँ, 48 वाँ अडयालीस) एगणपन्नास (एकोनपञ्चाश) उनचासवाँ, 49 वाँ पन्नास - म - इम (पञ्चाशत्तम) पचासवाँ, 50 वाँ एगावन्न - म । (एकपञ्चाशत्तम) इक्यावनवाँ, 51 वाँ एगपन्नास - इम) बावन्न - Uण (द्विपञ्चाशत्तम) बावनवाँ, 52 वाँ तिपंचास - इम (त्रिपञ्चाशत्तम) तिरेपनवाँ, 53 वाँ चउपण्ण - इम । (चतुःपञ्चाशत्तम) चोपनवाँ, 54 वाँ चउपन्नास - इम) पंचावन्न (पञ्चपञ्चाश) पचपनवाँ, 55 वाँ छप्पन्न (षट्पञ्चाश्) छप्पनवाँ, 56 वाँ सत्तावन्न-ण्ण (सप्तपञ्चाश) सत्तावनवाँ, 57 वाँ अट्ठावन्न-ण्ण (अष्टपञ्चाश) अट्ठावनवाँ, 58 वाँ एगूणसट्ठ (एकोनषष्टि) उनसठवाँ, 59 वाँ
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सट्ठिइम । ( षष्टितम) साठवाँ, 60 वाँ अम
एगट्ठ (एकषष्टि) इकसठवाँ 61 वाँ बासट्ठ (द्वाषष्टि) बासठवाँ 62 वाँ तिसट्ठ (त्रिषष्टि) तिरेसठवाँ 63 वाँ चउसट्ठट्ठिम (चउषष्टष्टितम) चौंसठवाँ 64 वाँ पंचसट्ट (पञ्चषष्टि) पैंसठवाँ, 65 वाँ छासट्ठ (षट्षष्टि) छासठवाँ, 66 वाँ सत्तट्ठ (सप्तषष्टि) सड़सठवाँ, 67 वाँ
"
·
1
अडसठ्ठट्ठिम (अष्टषष्टष्टितम) अड़सठवाँ 68 वाँ एगूणसत्तर ( एकोनसप्तति) उनहत्तरवाँ, 69 वाँ सत्तर ( सप्ततितम) सत्तरवाँ, 70 वाँ
सत्तरिअम }
·
एगसत्तर (एकसप्तति) इकहत्तरवाँ, 71 वाँ बावत्तर (द्विसप्तति) बहत्तरवाँ, 72 वाँ तिहत्तर (त्रिसप्तति) तिहत्तरवाँ, 73 वाँ चहत्तर (चतुःसप्तति) चौहत्तरवाँ, 74 वाँ पंचहत्तर (पञ्चसप्तति) पिचहत्तरवाँ, 75 वाँ छहत्तर (षट्सप्तति) छिहत्तरवाँ 76 वाँ सत्तहत्तर (सप्तसप्तति) सतहत्तरवाँ, 77 वाँ अट्ठहत्तर (अष्टसप्तति) अठहत्तरवाँ, 78 वाँ
गूणासीय यम ( एकोनाशीतितम) उन्यासीवाँ, 79 वाँ
असीइम (अशीतितम) अस्सीवाँ, 80 वाँ एगासीइम (एकाशीतितम) इक्यासीवाँ, 81 वाँ बासीइम (द्वयाशीतितम) बयासीवाँ, 82 वाँ तेयासीइम ( त्र्यशीतितम) तिरासीवाँ, 83 वाँ चउरासीइम (चतुरशीतितम) चौरासीवाँ, 84वाँ पंचासीइम (पञ्चाशीतितम) पिच्यासीवाँ, 85 वाँ छासीइम (षडशीतितम) छियासीवाँ, 86 वाँ सत्तासीइम ( सप्ताशीततितम) सत्तासीवाँ, 87 वाँ अट्ठासीयम (अष्टाशीततितम) अट्ठासीवाँ, 88 वाँ
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एगूणनउय (एकोननवति) नवासीवाँ, 89 वाँ ( नवतितम) नब्बेवाँ, 90 वाँ
नउइय
}
नवइयम
एक्काणउ
(एकनवति) इक्यानवेवाँ 91 वाँ
एक्काणवय
बाणउय (द्विनवति) बानवेवाँ, 92 वाँ तेणउय (त्रिनवति) तिरानवेवाँ 93 वाँ चउणउय (चतुर्नवति) चोरानवेवाँ, 94 वाँ पंचाणउय (पञ्चनवति) पिच्यानवेवाँ, 95 वाँ छन्नउय (षण्णवति) छियानवेवाँ, 96 वाँ सत्ताणउय (सप्तनवति) सत्तानवेवाँ, 97 वाँ अट्ठाणउय (अष्टनवति) अट्ठानरेवाँ 98 वाँ नवणउय ( नवनवतितम) निन्यानवेवाँ 99 वाँ
नवणवइम
सययम (शततम) सौवाँ 100 वाँ
इस प्रकार एक्कुत्तरसय एक्कोत्तरसय, दुरूत्तरसय, तिउत्तरसय वगैरह संख्या से संख्यापूरक शब्द भी बनते हैं ।
11. 'पढम' से 'तिइय' पर्यन्त संख्यापूरक शब्दों का स्त्रीलिंग आ लगाने से बनता है और शेष संख्यापूरक शब्दों का स्त्रीलिंग प्रायः अन्त्य अ का ई करने से बनता है |
उदा. पढमा बीया-बिइया-तीया- तइया-चउत्थी - दसमी, एक्कारसीचउद्दसी-चउद्दसमी-सत्तावीसी-सत्तावीसमी-तीसइमी चालीसमी- एगसट्ठीबाक्त्तरी-एगासीइमी- छन्नउई इत्यादि ।
संख्यापूरक शब्द विशेषण होने से उनके रूप पुंलिंग में 'देव' के समान और स्त्रीलिंग में 'रमा' और 'इत्थी' के समान समझने चाहिए । वार अर्थ (आवृत्तिदर्शक क्रियाविशेषण)
12. संख्यावाचक शब्दों को 'हुत्त' (कृत्वस् ) प्रत्यय लगाने पर आवृत्तिदर्शक क्रियाविशेषण बनते हैं, तथा आर्ष प्राकृत में 'क्खुत्तो- खुत्तो' प्रत्यय भी लगाया जाता है । एग का सइ अथवा सइं भी होता है, द्वि का दु, त्रि का ति और चतुर् का चउ होता है ।
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उदा. सइ
सइं
दु - दोच्चं, दुक्खुत्तो (द्वि:) दो बार
ति तच्चं तिक्खुत्तो (त्रिः) तीन बार
.
`चउ - चउक्खुत्तो (चतुः) चार बार पंचत्तं, पंचक्खुत्तो (पञ्चकृत्वः) पाँच बार सयहुत्तं, सक्खुत्तो (शतकृत्वः) सौ बार सहस्सहुत्तं, सहस्सक्खुत्तो (सहस्रकृत्वः) हजारबार अणंतहुत्तं, अणंतक्खुत्तो, अनंतखुत्तो (अनन्तकृत्वः) अनन्तबार प्रकार अर्थ
-
~
-
13. प्रकार अर्थ में हा (धा) और विह (विध) प्रत्यय लगाये जाते हैं । उदा. एगहा अ. (एकधा), एगविह वि. (एकविध) एक प्रकार से दुहा अ. (द्विधा), दुविह वि. (द्विविध) दो प्रकार से तिहा अ. (त्रिधा), तिविह वि. (त्रिविध) तीन प्रकार से अ. (चतुधा), चउविह
चउहा
वि. (चतुर्विध) चार प्रकार से
चउद्धा
चउविह }
अट्टहा अ. (अष्टधा), दसहा अ. (दशधा ),
=
बहुहा अ. (बहुधा), सहा अ. ( शतधा ),
एगहुतं, एक्कसिं (सकृत्) एकबार
अइसय (अतिशय )
महिमा,
=
सहस्सहा अ. (सहस्रधा ), सहस्सविह वि. (सहस्रविध) हजार प्रकार से नाणाविह वि. (नानाविध) अलग-अलग प्रकार से
अट्ठविह वि. (अष्टविध) आठ प्रकार से दसविह वि. (दशविध) दस प्रकार से बहुविह वि. (बहुविध) अनेक प्रकार से
सयविह वि. ( शतविध ) सौ प्रकार से
शब्दार्थ (पुंलिंग)
वगैरह
अतिशय, | आइ (आदि) = प्रथम, प्रधान, कत्तिअ (कार्तिक) = कार्तिक मास
प्रभाव
कवल (कवल) = कवल
अंब (आम्र) = आम का वृक्ष अज्झाय (अध्याय) = ग्रन्थ का अमुक कुरु (कुरु) = एक देश का नाम,
कुरु खंडिअ ( खण्डिक) = छात्र,
विद्यार्थी
भाग, प्रकरण, अध्याय
• अरिह (अर्हन्) = तीर्थंकर
अरिह शब्द का प्रथमा एकवचन अरिहा भी होता है ।
२३७
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चइत्त (चैत्र) = चैत्र महीना भरह (भरत) = भरतक्षेत्र, श्री ऋषभदेव चक्कवट्टि (चक्रवर्तिन) = चक्रवर्ती, छह का प्रथम पुत्र खण्ड का अधिपति
मसल (भ्रमर) = भौंरा चंपअ (चम्पक) = चम्पा का वृक्ष मणपज्जव (मनःपर्यव) = चतुर्थज्ञान छेयगंथ (छेदग्रन्थ) = निशीथादि छह | (दूसरों के मन के भावों को बतानेवाला सूत्र
|ज्ञान) जंबुदीव । जंबूद्वीप = द्वीप का नाम, लिंब (निंब) = नींबू का वृक्ष जंबूदीव । जंबूद्वीप
लोगंतिअ (लोकान्तिक) = देवविशेष जणवय (जनपद) = देश, जनस्थान लोगवाल । (लोकपाल) = इन्द्र का निगम (निगम) = व्यापार का स्थान, लोगपाल । दिक्पाल व्यापारियों का समूह
वारियर (वारिचर) = जलचर, मत्स्य निहि (निधि) = खजाना, भण्डार, वासहर (वर्षधर) = पर्वत विशेष चक्रवर्ती राजा की संपत्ति विशेष वियार (विकार) = विकार पयंग (पतङ्ग) = पतंगा, तितली सउण (शकुन) = पक्षी
हय (हय) = घोड़ा
नपुंसकलिंग अंग (अङ्ग) आचारांगादि बारह अंग, निव्वाण (निर्वाण) = मोक्ष शरीर, शरीर के अवयव पज्जवसाण (पर्यवसान) = अन्त, अंब (आम्र) = आम्रफल
अवसान, किनारा अणिअ (अनीक) = सैन्य |पाइअ (प्राकृत) = प्राकृतभाषा अणुओगदार (अनुयोगद्वार) = मूलसुत्त (मूलसूत्र) = सूत्र विशेष सूत्रविशेष, एक आगम का नाम, रूअ (रुत) = शब्द, आवाज अनुयोगद्वार सूत्र
सिप्प (शिल्प) = चित्रकला आदि कला, आउह (आयुध) = शस्त्र
| कारीगरी गुणट्ठाण (गुणस्थान) = गुणों का स्थान, हत्यिणाउर (हस्तिनापुर) नगर का मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थान नाम, हस्तिनापुर नंदिसुत्त (नन्दीसूत्र) = नन्दीसूत्र , सूत्र का नाम, जिसमें पाँच ज्ञानों का स्वरूप है
-२३८
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पुंलिंग + नपुंसकलिंग उवंग (उपाङ्ग) = अंग के अर्थ का | खंड (खण्ड) टुकड़ा, पृथ्वी का अमुक विस्तार करनेवाला सूत्र
| भाग
स्त्रीलिंग अद्धमागही (अर्धमागधी) = अर्धमागधी | भगवई (भगवती) = भगवती सूत्र, भाषा
| पाँचवाँ अंग, अमावासा । (अमावास्या) = | भस्संतया (भस्मान्तता) = जलकर अमावस्सा) · अमावास्या,
भस्म होना, आसायणा (आशातना) = विपरीत | | भासा (भाषा) = भाषा, वाक्य, वचन, वर्तन, अपमान
वाणी कयली। = (कदली)
वायणा (वाचना) = वाचना केली ।
पुंलिंग + स्त्रीलिंग ओहि । = (अवधि) मर्यादा, हद, कुच्छि = (कुक्षि) उदर, पेट
तीसरा ज्ञान - | तिहि (तिथि) = तिथि, दिन अवहि ) = अतीन्द्रिय, रूपी पदार्थों को बतानेवाला ज्ञान
विशेषण अहियगर (अधिकतर) = अहित पूरअ । (पूरक) = पूर्ण करनेवाला करनेवाला कोसलिय (कौशलिक) = कोशला - भंत ( भगवत । भगवान्, ऐश्वर्यवान, अयोध्या नगरी में उत्पन्न
भदन्त | कल्याणकारक, जेट्ठ । (ज्येष्ठ) = महान्, सर्वथा,
भ्राजत् ) देदीप्यमान, जिट्ठ J बड़ा, श्रेष्ठ
भवान्त संसार और पइन्न - ग (प्रकीर्ण - क) = बिखरे हुए |
(भयान्त ) सकल भयों का अन्त पाइअ (प्राकृत) स्वाभाविक, नीच, मूल,
करनेवाला पामर
भिक्खायस्अि (भिक्षाचरक) = भिक्षाचर पुन (पूर्व) = कालविशेष, एक पूर्व , 70| लाख 56 हजार करोड़ वर्षों का समूह |
मह । = (महत्) बड़ा, वृद्ध, श्रेष्ठ, -२३९ -
पूरग )
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विणट्ठ (विनष्ट) = नष्ट, नष्ट हुआ | संवच्छरिअ (सांवत्सरिक) = संवत्सर विणिद्दिट्ट (विनिर्दिष्ट) = विशेष प्रकार | सम्बन्धी, वार्षिक से कहा हुआ संतिण्ण (सन्तीर्ण) पार पाया हुआ, तिरा हुआ
अव्यय णं (देश्य) वाक्यालंकार में उपयोगी
धातु
4.
अइवाय (अति + पात्)= जीवहिंसा करना | विहे (वि + धा) = करना, बनाना अणुया (अनु + या) = अनुसरण करना | पया (प्र + जनय) = प्रसव करना, अभि + सिंच (अभि + सिञ्च) = | जन्म देना अभिषेक करना
पसन् (प्र + सू) = जन्म देना, उत्पन्न वाय् (वाचय) = पढ़ना, पढ़ाना करना
हिन्दी में अनुवाद करें 1. उवज्झाओ चउण्हं समणाणं सुत्तस्स वायणं देइ । 2. पंच पंडवा सिद्धगिरिम्मि निव्वाणं पावीअ । 3. कामो कोहो लोहो मोहो मयो मच्छरो य छवियारा जीवाणमहियगरा |
अस्सि उज्जाणे पणवीसा अंबा, छत्तीसा य लिंबा, एगासीई केलीओ, सडसट्ठी चंपआ अत्थि ।
सो समणो पव्वइओ अद्भुढेहिं सह खंडियसएहिं । 6. नहे सत्तण्हं रिसीणं सत्त तारा दीसन्ति । 7. समोसरणे भयवं महावीरो देवदाणवमणुअपरिसाए चऊहिं मुहेहिं
अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ । 8. तिसला देवी चइत्तमासस्स सुक्कपक्खे तेरसीए तिहिए महावीरं पुत्तं पयाही । 9. दसहिं दसेहिं सयं होई, दसहिं सएहिं सहस्सं ।
दसहिं सहस्सेहिं अजुयं, दसहिं अजुएहि लक्खं च ||1|| 10. उसभे अरिहा कोसलिए पढमराया पढमभिक्खायरिए, पढम तित्थयरे,
वीसं पुव्वसय-सहस्साई कुमारवासे वसित्ता, तेवष्ठिं पुव्वसयसहस्साई रज्जमणुपालेमाणे लेहाइयाओ सउणरुअपज्जवसाणाओ बावत्तरिं
r1
२४०
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कलाओ, चोवट]ि महिलागणे, सिप्पाणमेगसयं, एए तिन्नि पयाहियवाए उवदिसइ, उवदिसित्ता पुत्तसयं रज्जसए अभिसिंचइ, ततो पच्छा
लोगंतिएहिं देवेहिं संबोहिए संवच्छरियं दाणं दाऊण परिव्वइओ । 11. जिणमए एगादस अंगाणि, बारस उवंगाणि, छ छेयगंथा, दस पइन्नगाइ,
चत्तारि मूलसुत्ताइं, नंदिसुत्त-अणुओगदाराइं च दोणि त्ति पणचालीसा
आगमा संति । 12. भंते ! नाणं कइविहं पन्नत्तं, गोयमा ! नाणं पंचविहं पन्नत्तं तं जहा
मइनाणं, सुअनाणं ओहिनाणं, मणपज्जवनाणं, केवलनाणं च । 13. चत्तारि लोगपाला, सत्त य अणियाइं तिणि परिसाओ ।
एरावणो गइंदो, वज्जं च महाउहं तस्स (सक्कस्स) ।।2।। 14. बत्तीसं किर कवला, आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ |
पुरिसस्स महिलाए, अट्ठावीसं मुणेयव्वा ।।3।। 15. अठ्ठावीसं लक्खा, अडयालीसं च तह सहस्साइं ।
सव्वेसिं जिणाणं, जईण माणं विणिदिटुं ।।4।। 16. पढमे न पढिआ विज्जा, बिईए न अज्जिअं धणं ।
तईए न तवो तत्तो, चउत्थे किं करिस्सए ।।5।। 17. सत्तो सद्दे हरिणो, फासे नागो रसे य वारियरो ।
किवणपयगो रूवे , भसलो गंधेण विणट्ठो ।।6।। 18. पंचसु सत्ता पंच वि, णट्ठा जत्थागहिअपरमठ्ठा ।
एगो पंचसु सत्तो, पजाइ भस्संतयं मूढो ||7|| 19. • कुरुजणवयहत्यिणाउरनरीसरो पढमं,
तओ महाचक्कवट्टिभोए महप्पहावो । जो बावत्तरिपुरवरसहस्सवरनगरनिगमजणवयवई,
बत्तीसारायवरसहस्साणुयायमग्गो || चउदसवररयणनवमहानिहि-चउसट्ठिसहस्सपवरजुवईण सुंदरवई चुलसीहयगयरहसयसहस्ससामी,
छन्नवइगामकोडिसामी आसी जो भारहमि भयवं ।। वेट्टओ ।।8।। 20. • तं संतिं संतिकरं, संतिण्णं सव्वभया ।
___ संतिं थुणामि जिणं, संतिं विहेउ मे || रासानंदियं ।। युग्मम् ।।9।। • [ये दो स्तुतियाँ शान्तिनाथ भ. की हैं, वेड्ढओ (वेष्टकः), रासानंदिअयं
(रासानन्दितम्) ये दो छन्द विशेष के नाम हैं ]
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प्राकृत में अनुवाद करें 1. वह इक्कीस साल (वर्ष) चारित्रपालन करके समाधिपूर्वक मृत्यु पाकर
बारहवें देवलोक में देव हुआ । .... 2. भगवान महावीर आश्विन महीने की अमावास्या की रात्रि में आठ कर्मों का क्षय
करके मोक्ष में गये, उसके बाद कार्तिक महीने की प्रतिपदा को गौतमस्वामी
को केवलज्ञान हुआ, इसलिए ये दो दिन जगत् में श्रेष्ठ माने जाते हैं । 3. जैन छह द्रव्य, आठ कर्म, जीवादि नौ तत्त्व, दश यतिधर्म और चौदह
गुणस्थानक मानते हैं। 4. श्रावकों को जिनमन्दिर की चौरासी (84) आशातना और गुरु म. की
तैंतीस (33) आशातनाओं का त्याग करना चाहिए । 5. जो भरतक्षेत्र के तीन खण्ड जीतते हैं वे वासुदेव और छह खण्ड
जीतते हैं वे चक्रवर्ती बनते हैं | तीर्थंकर भगवंतों को चार (4) अतिशय जन्म से होते हैं तथा कर्मक्षय से ग्यारह (11) अतिशय और देवकृत उन्नीस (19) अतिशय इस
प्रकार चौंतीस अतिशयों से सुशोभित तीर्थंकर होते हैं । 7. सभी अंग और उपांगादि सूत्रों में पाँचवाँ भगवती अंग श्रेष्ठ और सबसे
बड़ा है। 8. चौंसठ इन्द्र मेरुपर्वत पर तीर्थंकर भगवंतों का जन्ममहोत्सव करते हैं | 9. सिद्ध भगवंत आठों कर्म से रहित होते हैं । 10. कुमारपाल राजा ने अठारह देशों में जीवदया का पालन करवाया था । 11. श्री हेमचन्द्रसूरिजी ने सिद्धहेमव्याकरण के आठवें अध्याय में प्राकृत
व्याकरण दिया है। 12. इस जंबूद्वीप में छह वर्षधर पर्वत और भरतादि सात क्षेत्र हैं । 13. जीव दो प्रकार से, गति चार प्रकार से, व्रत पाँच प्रकार से और भिक्षु की
प्रतिमा बारह प्रकार से हैं। 14. इस पण्डित ने इस व्याकरण के आठ अध्याय बनाये हैं और प्रत्येक
अध्याय के चार-चार पाद हैं, मैंने सात अध्याय और आठवें अध्याय के
दो पाद पढ़े हैं। 15. उस यक्ष के दो मुँह और चार हाथ हैं, उसमें से एक हाथ में शंख है,
दूसरे हाथ में गदा है, तीसरे हाथ में चक्र और चौथे हाथ में बाण है । 16. इस पुस्तक के मैंने पच्चीस पाठ पढ़े, इसके चार हजार शब्द याद
किये, हजारों वाक्य किये, अब मुझे प्राकृत सुलभ बने इसमें आश्चर्य क्या ?
-२४२
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प्राकृत-हिन्दी शब्दकोष
अ
अग्गला स्त्री (अर्गला) आगल, अइसय पुं. (अतिशय), अतिशय,
किवाड़ बन्द करने की महिमा, प्रभाव
लकड़ी, बेड़ी अईव अ. (अतीव) अत्यंत
अगार नपुं. (अगार) घर अउअ-अजुअ नपुं. (अयुत) दस अग्गि पुं. (अग्नि) अग्नि हजार, संख्या विशेष
अच्चण नपुं. (अर्चन) पूजा अउज्झा स्त्री. (अयोध्या) अयोध्या. अच्चणा स्त्री. (अर्चना) पूजा नगरी.
अच्चत्थ वि. (अत्यर्थ) अतिशय, अओ-अतो अ. (अतः) इस कारण
ज्यादा से, इससे, इसलिए
अच्चंत पुं. (अत्यन्त) अत्यधिक, अंग नपुं.(अङ्ग) अवयव,
बहुत, हद से ज्यादा आचारांगादि बारह अंग
अच्चय पुं. (अत्यय) विनाश, अंगण नपुं. (आङ्गण)-आँगन , चौक
मरण, विपरीत आचरण अंगार-ल-इंगार-ल पुं. (अङ्गार)
अच्चा स्त्री. (अर्चा) पूजा, सत्कार अंगार, कोयला
अच्छि पुं. नपुं. (अक्षि) आँख अंगुली स्त्री. (अङ्गुली) उंगली
अच्छेर नपुं. (आश्चर्य) विस्मय, अंजण नपुं. (अञ्जन) काजल,
चमत्कार आँख में अंजन करने का सुरमा
अजसघोसणा (अयशोघोषणा) अंत-अंतो अ-(अन्तर) अन्दर,
अपयश की घोषणा अन्ध-अंध वि. (अन्ध) अन्धा
अजिण्ण नपुं. (अजीर्ण) अजीर्ण, अंब पुं. (आम्र) आम्रवृक्ष , नपुं.
अपचा आम्रफल
अजीव पुं. (अजीव) अजीव अंसु नपुं. (अश्रु) आँसू
अज्झ अ.(अद्य) आज अकाल पुं. (अकाल) बेमौका,
अज्झयण नपुं. (अध्ययन) अयोग्य अवसर, अकाल
अध्ययन अक्क पुं. (अर्क) सूर्य
अज्झाय पुं. (अध्याय) ग्रन्थ का अग्ग नपुं. (अग्र) आगे, शिखर. अमुक भाग, पठन, अधिकार विशेष अग्गओ अ. (अग्रतः) अग्र, अट्ठ-अत्थ पुं. नपुं. (अर्थ) धन, वस्तु, पहला, सामने
पदार्थ, प्रयोजन, तात्पर्य, विषय -२४३ -
बीच में
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अडवि अडवी स्त्री. (अटवि-वी)
अरण्य
अटवी, जंगल, अण अ. नहीं, अभाव
अनंत वि. (अनन्त) अनंत, अपरिमित
अनंतखुत्तो- अनंतक्खुत्तो अ. (अनन्तकृत्वस्) अनंतबार अणंतरं अ. (अनन्तरम्) तुरन्त, व्यवधान रहित, अव्यवहित
अणगारिया स्त्री. (अनगारिता) साधुना
अणज्ज - अणारय वि.
अनार्य
(अनार्य)
अणत्थ-अण पुं. (अनर्थ) नुकसान, हानि
अणाबाह वि. (अनाबाध) पीड़ा रहित अणिय नपुं. (अनीक) सैन्य,
लश्कर
अणुओगदार नपुं. (अनुयोगद्वार ) सूत्र विशेष
अणुग्गह पुं. (अनुग्रह) उपकार करना, कृपा करनी अणुपत्त वि. ( अनुप्राप्त) प्राप्त,
मिला हुआ अग वि. (अनेक) एक से
ज्यादा, बहुत अण्णमण्णं अ. (अन्योन्यम्)
परस्पर एक दूसरे को
अण्णया अ. (अन्यदा)
कालान्तर, कोई समय में
अण्णा अण्णा अ. (अन्यथा ) विपरीत रीति से,
उलटा, अन्य प्रकार से
अण्णाहि अण्णह- अण्णत्थ अ. ( अन्यत्र ) दूसरी जगह.
अण्णाणि वि. (अज्ञानिन ) अज्ञानी, मूर्ख
अतुल्ल-अउल्ल वि. (अतुल्य)
असाधारण
अत्थ पुं. (अस्त) अस्ताचल पर्वत, नपुं. मृत्यु, अन्तर्धान अत्थक्कं (अकाण्डम्) अकस्मात्,
अकाल
अदुवा अदुव अ. (अथवा ) वा,
अथवा
अद्धमागही स्त्री. (अर्धमागधी) अर्धमागधी भाषा
अधम्म-अहम्म पुं. (अधर्म) अधर्म
अन्न सर्व. (अन्य) अन्य, दूसरा अन्नुन्नरूव (अन्योन्यरूप) परस्पर
स्वरूपवाला. अपि-अवि-पि-वि अ. (अपि)
परन्तु, वा, शंका, सत्य अपुव्व-अउव्व वि. (अपूर्व) नया अप्प वि. (अल्प) थोड़ा अप्पकेर वि. (आत्मीय) अपना,
स्वकीया, निजीय
अब्भ नपु. ( अभ्र) मेघ, बादल अब्मत्थणा स्त्री. (अभ्यर्थना)
२४४
प्रार्थना, आदर, सत्कार
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अभयकुमार पुं. (अभयकुमार) · श्रेणिकपुत्र अभिभूअ वि. (अभिभूत) पराभूत,
पराजित अमयभूअ वि. (अमृतभूत) अमृत
समान अमयरस पुं. (अमृतरस) सुधारस अमर पुं. (अमर) देव अमरी स्त्री. (अमरी) देवी अमावासा-अमावस्सा स्त्री.
(अमावास्या) अमावस,
तिथि विशेष अमिअ-अमय नपुं. (अमृत) अमृत अम्मो अ. (दे.) आश्चर्य अम्हारिस स. (अस्मादृश) हमारे जैसा अयल पुं. (अचल) पर्वत,
वि. स्थिर, निश्चल अयि-ऐ (अयि) प्रश्न, समाधान, सान्त्वन अरण्ण रण्ण नपुं. (अरण्य) वन,
जंगल अरइ स्त्री. (अरति) अप्रीति,
ग्लानि, सुख का अभाव अरिह पं. (अर्हन) तीर्थंकर अरिहंत-अरुहंत-अरहंत पुं.
(अर्हत्) तीर्थंकर, वि. पूज्य अरुण पुं. (अरुण) संध्याराग,
सूर्य, सूर्य का सारथि अलं अ-(अलम्) पूर्ण, प्रतिषेध,
पर्याप्त निवारण, बस . अलंकिय वि. (अलंकृत) विभूषित,
सुशोभित
अलाहि अ. (दे.) पर्याप्त, पूर्ण,
प्रतिषेध, अलम् अलिय नपुं. (अलीक) असत्य वचन अलोग पुं. (अलोक) अलोक अवच्च नपुं. (अपत्य) पुत्र अवज्झाण नपुं. (अपध्यान)
दुर्ध्यान, दुष्ट चिन्तन अवण्णा स्त्री. (अवज्ञा) अपमान,
तिरस्कार अवमाण पुं. (अपमान) अपमान,
तिरस्कार अवरोह पुं. (अपराह्ण) दिन का
- पिछला भाग अवरा स्त्री. (अपरा) पश्चिम दिशा अवराह पुं. (अपराध) अपराध,
___ गुनाह अववाय पुं. (अपवाद) अपवाद,
निन्दा अवस्सं अ. (अवश्य) जरूर,
निश्चय असइ अ. (असकृत) बार-बार,
अनेक बार असण नपुं. (अशन) भोजन,
खाना
असम वि. (असभ्य) खराब,
सभ्य नहीं असाय नपुं. (असात) पीड़ा,
दुःख असार वि. (असार) निरर्थक,
सार रहित असुर पुं. (असुर) असुर
२४५
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सिद्धान्त
असुरिंद पुं. (असुरेन्द्र) असुरों का इन्द्र आउस आउ पुं. नपुं. (आयुष्) आयुष्य असोगचंद पुं. (अशोकचन्द्र) आएस पुं. (आदेश) आज्ञा, हुकम,
__श्रेणिक का पुत्र -आगम पुं. (आगम) शास्त्र, अह अ. (अथ) अब, बाद, अधिकार, प्रश्न, प्रतिवचन-उत्तर आगमत्थ पुं. (आगमार्थ) आगम अहव-अहवा अ.(अथवा) अथवा, वा
का अर्थ अहि अ. (अभि) तरफ, पास में . आगत वि. (आगत) आया हुआ, अहि पुं. (अहि) साँप,
उत्पन्न अहिअ वि. (अधिक) ज्यादा आगास पुं. नपुं. (आकाश) आकाश अहिण्णु-अहिज्ज वि. (अभिज्ञ) आणंद पुं. (आनन्द) विशेषनाम निपुण पण्डित
आणा स्त्री. (आज्ञा) आदेश, हुकम अहिमन्नु, अहिमज्जु-अहिमञ्ज पु. आणाल पुं. (आलान) हाथी को (अभिमन्यु) अर्जुन का पुत्र बाँधने का खीला. अहियगर वि. (अहितकर) अहित आयइ स्त्री. (आयति) भविष्यकाल
करनेवाला आयत्त वि. (आयत्त) आधीन अहिलास पुं. (अभिलाष) अनुराग, आयरिअ-आइरिअ पुं. (आचार्य)
इच्छा आचार्य अहुणा अ. (अधुना) सम्प्रति, आयव पुं. (आतप) आतप, धूप,
अब, अभी, इस समय । प्रकाश अहो अ. (अहो) शोक, करुणा, आयार पुं. (आचार) आचार निंदा, विस्मय
आयारंग नपुं. (आचाराङ्ग) बारह
अंगों में पहला अंग - आ
आरंभ पुं. (आरम्भ) आरंभ करना, आइ पुं. (आदि) प्रथम, प्रधान,
शुरुआत करनी, जीववध - पूर्व वगैरह, आद्य,
आरम सं.भू.कृ. (आरभ्य) प्रारंभ करके आइच्च पुं. (आदित्य) सूर्य
आराहणा स्त्री. (आराधना) उपासना आउल वि. (आकुल) व्याकुल,
आलाव पुं. (आलाप) सूत्र का ___ व्याप्त, दुःखी
आलावा, संभाषण, बातचीत
आलोयणा स्त्री. (आलोचना) आउह नपुं. (आयुध) शस्त्र आउ स्त्री. (आपः) पानी
दिखाना, बतलाना, गुरु को अपने
दोष कहना -२४६ -
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आवया स्त्री. ( आपद्-दा) आपदा, विपद्, दुःख
आवासय आवस्सय नपुं. (आवश्यक) नित्यकर्म, धर्मानुष्ठान आस पुं. (अश्व) घोड़ा
आसण नपुं. (आसन) बैठने का आसन, स्थान आसन्न वि. (आसन्न ) समीप में रहनेवाला, नपुं. नजदीक
आसम पुं. (आश्रम) आश्रम आसायणा स्त्री. (आशातना) विपरीत वर्तन, अपमान आसिण पुं. (आश्विन) आश्विन मास आशीसा (आशी :) आशीर्वाद आहार पुं. (आधार) आधार, आश्रय, आलम्बन, अधिकरण आहि पुं. स्त्री. (आधि) मानसिक पीड़ा
इ इअ-इइ-ति-त्ति अ. (इति) इस तरह, इस प्रकार, समाप्ति
इंद पुं. (इन्द्र) इन्द्र
इंदिय नपुं. (इन्द्रिय) स्पर्शेन्द्रियादि पाँच इन्द्रिय (त्वक्, जिह्वा, घाण, चक्षु, श्रोत्र)
ऊख
इंदु पुं. (इन्दु) चन्द्र इक्खु पुं. (इक्षु) ईख, इड्डि-रिड्ढि इद्धि स्त्री. (ऋद्धि) वैभव, ऐश्वर्य, समृद्धि
इणं सर्व. (इदम्) यह इत्थं अ. (इत्थम्) इस प्रकार
इत्थी, थी स्त्री. (स्त्री) स्त्री, औरत, महिला इंदियचोर पुं. (इन्द्रियचौर) इन्द्रियरूपी चोर
इंदियवग्ग (इन्द्रियवर्ग) इन्द्रियों का
समुदाय, समूह
इम सर्व. (इदम्) यह
इयर वि. (इतर) अन्य, दूसरा, हीन,
जघन्य
इयाणि इयार्णि दाणि दार्णि
अ. (इदानीम्) संप्रति, अब, इस
समय
इव - मिव- पिव-विव- व्व--व- विअ अ. (इव) जैसे, की तरह, जिस प्रकार, उपमा, सादृश्य, तुलना इस्सरिअ-ईसरिअ नपुं. (ऐश्वर्य) वैभव, प्रभुता, ईश्वरपन इह-इहं- अ. (इह) यहाँ, इस जगह इहरहा - इहरा अ. ( इतरथा) अन्यथा, अन्य रीति से
ई
ईसर पुं. (ईश्वर) ईश्वर, प्रभु ईसि-ईसिं-ईसी अ. ( ईषद्) थोड़ा, अल्प
उ
उ अ. (उ) निन्दा, तिरस्कार, आमंत्रण, विस्मय सूचक
उअ अ. (दे.) विलोकन करो, देखो उक्किट्ठ वि. (उत्कृष्ट) उत्कृष्ट. उग्ग वि. (उग्र ), तीव्र, प्रबल, तेज
२४७
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उचिअ वि. (उचित) योग्य, लायक उवरि-उवरिं-अवरि-अवरिं अ. उच्च अ. वि. (उच्च-क) उन्नत, ऊँचा (उपरि) ऊपर, ऊर्ध्वं उच्छाह पुं. (उत्साह) उत्साह, --- उवस्सय पुं. (उपाश्रय) उपाश्रय, उत्कंठा, उत्सुकता
जैन साधुओं का निवास स्थान उच्छाहसत्तिं (उत्साह-शक्तिम्) उवहि पुं. स्त्री. (उपधि) माया, उत्साह और शक्ति को . उपकरण, साधन उज्जअ वि. (उद्यत) तत्पर . उवाय पुं. (उपाय) उपाय उज्जम पुं. (उद्याम) उद्याम, उसह-उसभ-वसह पुं. (ऋषभ) उद्योग, प्रयत्न
प्रथम जिनेश्वर का नाम (वृषभ) उज्जयंत पुं. (उज्जयन्त) गिरनार पर्वत बैल, साँड उज्जाण नपुं. (उद्यान) उद्यान, बगीचा उज्जोग पुं. (उद्योग) प्रयत्न,
एअ-एग-एक-एक्क वि. (एक) एक उद्यम, उद्योग
एक्कसरिअं अ- (दे.) उट्ठाय संबं-भू-(उत्थाय) उठकर
शीघ्र ,जल्दी, अब उत्तम-उत्तिम वि. (उत्तम) श्रेष्ठ
एक्कसि-एक्कसिअं-एक्कइआ-एगया उत्तर नपुं. (उत्तर) उत्तर, जवाब।
अ. (एकदा) एक बार उत्तरा स्त्री. (उत्तरा) उत्तर दिशा
एण्हि-एताहे अ. (इदानीम्) अब , उदग-दग नपुं. (उदक) पानी, जल ।
इस बार उदाहु-उयाहु अ. (उताहु) अथवा , या
एत्थ-अत्थ अ. (अत्र) यहाँ, यहाँ पर उप्पल नपुं. (उत्पल) कमल
एरावण पुं. (ऐरावण) इन्द्र का हाथी उम्मत्त वि. (उन्मत्त) उद्धत, उन्माद युक्त, पागल, भूताविष्ट
एरिस वि. (ईदृश) ऐसा, इस प्रकार का उवएस (पुं) (उपदेश) उपदेश, .
एव-एवं अ. (एवम्) इस प्रकार, इस
रीति से शिक्षा, बोध उवंग पुं. नपुं. (उपाङ्ग) सत्र विशेष एव-णइ-चेअ-चिअ-च-च्च-च्चिअअंग के अर्थ का विस्तार करनेवाला सूत्र
च्चेअ अ. (एव) अवधारण, निश्चय उवज्जिअ वि. (उपार्जित) पैदा
ओ किया हुआ, कमाया हुआ |
ओसढ-ओसह नपुं. (औषध) उवज्झाय-ऊज्झाय-ओज्झाय पुं.
औषध, दवाई (उपाध्याय) उपाध्याय, पाठक, ओह पं. (ओघ) समूह, संघात, अध्यापक
समुदाय -२४८
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ओहि-अवहि पुं. स्त्री. (अवधि) मर्यादा, कमल नपुं. (कमल) कमल का फूल हद, तीसरा अवधिज्ञान (रूपी पदार्थों कयग्घ वि. (कृतघ्न) नमकहराम का बोध करानेवाला अतीन्द्रिय ज्ञान) कम्म पुं. नपुं. (कर्मन्) काम, कर्म, क
ज्ञानावरणीयादि आठ कर्म क सर्व. (किम्) कौन
कयण्णु वि. (कृतज्ञ) कृतज्ञ, कअ-कड वि. (कृत) किया हुआ
उपकार को जाननेवाला, कइ-कवि पुं. (कवि) कवि
कयली-केली स्त्री. (कदली) केल कउरव पुं. (कौरव) कुरु देश में कया अ. (कदा) कब उत्पन्न (राजा), कुरु वंश में उत्पन्न कयाइ-कयाई कयाई अ. (कदाचित्) कउहा स्त्री. (ककुभ) दिशा किसी समय, कभी कए-कएण-कएणं अ. (कृते) वास्ते, करण नपुं. (करण) इन्द्रिय, कृति, निमित्त, लिए, के कारण । क्रिया, हेतु कंठ पुं. (कण्ठ) गला, घाँटी करुणाजुअ वि. (करुणायुत) दया कज्ज नपुं. (कार्य) जो किया जाय से युक्त वह, करने योग्य, प्रयोजन, उद्देश्य कलत्त पुं. नपुं. (कलत्र) स्त्री, भार्या कट्ठ नपुं. (काष्ठ) लकड़ी कला स्त्री. (कला) कला, विज्ञान कट्ठ नपुं. (कष्ट) दुःख, संकट, कष्ट कलि पुं. (कलि) कलियुग, कलह, कण्ण-पुं. (कर्ण) कर्ण.
झगड़ा कणिट्ठ वि. (कनिष्ठ) छोटा, पुं. कल्ल नपुं. (कल्य) कल, गया हुआ छोटा भाई
या आगामी दिन कण्ह-किण्ह पुं. (कृष्ण) वासुदेव कल्लिं-कल्ले अ. (कल्ये) आगामी कतार-कन्तु वि. (कर्तृ) कर्ता,
दिन करनेवाला
कल्लाण नपुं. (कल्याण) कल्याण, कत्तिअ पुं. (कार्तिक) कार्तिक मास शुभ, सुख , मंगल कत्तो-कृतो कओ, कुदो, कुओ. अ. कवड पुं. नपुं. (कपट) कपट, (कुतः) कहाँ से, किससे
माया, शाठ्य कत्थ-कह-कहि-कहिं अ. (कुत्र-क्व) । कवल पुं. (कवल) कवल , ग्रास
कवि पुं. (कपि) बन्दर कत्थइ-अ. (क्वचित्)
कव्व नपुं. (काव्य) काव्य. कन्ना कन्नगा स्त्री. (कन्यका) कन्या, कासइ-कस्सइ अ. (कस्यचित्) लड़की , कुमारी
किसी का
कहाँ
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किस
कह-कह अ. (कथम्) कैसे, तरह ? क्यों, किस लिए ? • कहा स्त्री. (कथा) कथा, कहानी, काउस्सग्ग पुं. (कायोत्सर्ग) काया
का त्याग, काउसग्ग
काम पुं. (काम) इच्छा
कामधेणु स्त्री. ( कामधेनु) कामधेनु, कुमारपना, कुमारावस्था
गाय
कामसम वि. (कामसम) काम के समान कायव्व वि. (कर्तव्य) करने योग्य काया स्त्री. (काया) देह कारण न. (कारण) कारण. काल पुं. (काल) काल, समय कालसप्प पुं (कालसर्प) कालरूपी सर्प किअंत वि. (कियत्) कितना किंतु अ. ( किन्तु ) परन्तु, लेकिन किंनर पुं. (किन्नर) किन्नर, देवविशेष किंपि किमवि, अ. (किमपि) कुछ भी किच्च नपुं. (कृत्य) करने योग्य, कर्तव्य, फर्ज
किण्ह वि. (कृष्ण) काला, श्यामवर्ण का किन्नरी स्त्री. (किन्नरी ) व्यंतर देवी किर- इर - हिर-किल अ. (किल) संभावना, निश्चय, सत्य, तिरस्कार दर्शक
किवण वि. (कृपण) लोभी, गरीब, रंक, दीन किवा स्त्री. (कृपा) दया
कुंभआर - कुंभार पुं. (कुम्भकार) कुम्हार कुगइ स्त्री. (कुगति) अशुभ गति ( नरक और तिर्यंचगति)
"
कुच्छि पुं. स्त्री. (कुक्षि) उदर, पेट कुटुंब वि. (कुटुम्बिन्) कुटुम्बवाला, गृहस्थ
कुढार पुं. (कुठार) कुल्हाड़ा, फरसा कुमार-कुमर पुं. (कुमार) कुमार कुमारत्तण नपुं. (कुमारत्व)
कुमारवाल कुमरवाल पुं. (कुमारपाल ) कुमारपाल राजा कुरु पुं. बहुव. (कुरु) देश का नाम कुल पुं. नपुं. (कुल) कुल, वंश केणइ अ. (केनचित् ) किसी के द्वारा रिसी स्त्री. (कीदृशी) किस प्रकार की केवल पुं. (केवल) केवलज्ञान, वि. असाधारण, असहाय
केवलं अ. (केवलम् ) केवल, अकेला, अनुपम, अद्वितीय केवलि पुं. (केवलिन) केवली, केवलज्ञानी, सर्वज्ञ
केसरि पुं. (केसरिन् ) सिंह कोवसम वि. (कोपसम) क्रोध के समान कोसा स्त्री. ( कोश्या) वेश्या का नाम कोसलिअ वि. ( कौशलिक) अयोध्या में उत्पन्न
कोह पुं. (क्रोध) क्रोध
मात्र,
ख
खंड पुं. नपुं. (खण्ड) टुकड़ा पृथ्वी का अमुक भाग ।
खंडिय पुं. (खण्डिक) छात्र, विद्यार्थी
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खंति स्त्री. (क्षान्ति) शान्ति, क्षमा, उपशम, सहनशीलता ।
गइ स्त्री. (गति) गति, आधार, खंध पुं. (स्कन्ध) कन्धा
चलन, देवादि चार गति खग्ग पुं. (खड्ग) तलवार
गंगा स्त्री (गङ्गा) नदी का नाम खण पुं. (क्षण) क्षण, कालविशेष
गंभीर वि. (गम्भीर) गंभीर, गहरा, खमा स्त्री. (क्षमा) क्षमा, क्रोध का
गण पुं. (गण) समूह, समुदाय, अभाव, शान्ति, धीरज, पृथ्वी
यूथ, थोक खमासमण पुं. (क्षमाश्रमण) साधु,
गणहर पुं. (गणधर) गणधर, गणी क्षमाप्रधान मुनि
गणि पुं. (गणिन्) गणधर, गणी खल वि. (खल) दुष्ट , अधम, दुर्जन गब्भ पं (गर्भ) गर्भ खलु अ. (खलु) = अवधारणा,
गयंद-गइंद पुं. (गजेन्द्र) उत्तम निश्चय, पुनः, फिर, पादपूर्ति और
हाथी, ऐरावण वाक्य की शोभा के लिए भी इसका
गयण नपुं. (गगन) आकाश प्रयोग होता है।
गय पुं. (गज) हाथी खलिअ (वि.) (स्खलित) पड़ा
गरिट्ठ वि. (गरिष्ठ) ज्यादा बड़ा हुआ , भूला हुआ ।
गरिहा स्त्री. (गर्हा) निंदा , घृणा जुगुप्सा खलिअ नपुं अपराध
गरुल पुं. (गरुड़) पक्षिराज, गरुड़ खसर पुं. नपुं. (दे. कसर) रोग
पक्षी, यक्ष विशेष, भवनपति देवों की विशेष, खस, खाज
एक जाति , सुपर्णकुमार देवों का इन्द्र | खिप्पं अ. (क्षिप्रम्) शीघ्र, तुरन्त,
गव्व पुं. (गर्व) मान, अभिमान, जल्दी
अहंकार खीण झीण-छीण वि. (क्षीण) क्षय
गविअ वि. (गर्वित), अभिमानी, गर्विष्ठ प्राप्त, कंगाल , जीर्ण, दुर्बल
गहिअ-गहीअ वि. (गृहीत) उपात्त, खीर-छीर नपुं. (क्षीर) दूध
स्वीकृत खु-हु- अ. (खलु) निश्चय, वितर्क,
गाण नपुं. (गान) गीत, गाना अवधारण, संभावना, आश्चर्य,
गाम पुं. (ग्राम) गाम विस्मय, संदेह
गावी (गौः) गाय खडडओ (क्षल्लक) छोटा साधु गिरि पं. (गिरि) पर्वत खेत्त नपुं. (क्षेत्र) आकाश, जमीन, गिला (ग्लै) ग्लान होना, बीमार होना खेत
गिह नपुं. (गृह) घर
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गिहासत्त वि. (गृहासक्त) घर में चउगइभवे (चतुर्गति भवे) चार आसक्त
गतिरूप संसार में गीयत्थ-ट्ठ पुं. (गीतार्थ) विद्वान जैन साधु चंपअ. पुं (चम्पक) चंपक फूल का वृक्ष गुंजिअ वि. (गुञ्जित) गुनगुन आवाज चंद-चंद्र पुं. (चन्द्र) चन्द्र गुण पुं. (गुण) गुण
चंदण नपुं (चन्दन) चन्दन गुणट्ठाण नपुं. (गुणस्थान) गुणों का चक्खु पुं. नपुं (चक्षुष) आँख, नेत्र, स्वरूप विशेष । मिथ्यादृष्टि आदि 14 चक्षु . गुणस्थान
चक्कवट्टि पुं. (चक्रवर्तिन्) चक्रवर्ती गुणि वि. (गुणिन्) गुणवाला छह खंड का अधिपति गुरु पुं. (गुरु) गुरु, पूज्य । चक्कवाय पुं. (चक्रवाक) चक्रवाक पक्षी गुरुअ-गरुअ वि. (गुरुक) भारी, बोझिल चच्चर नपुं. (चत्वर) चौंटा , बाजार गुरुया स्त्री. (गुरुता) बड़प्पन चत्तारि प्र.द्वि.ब. (चत्वारि) चार गेह नपुं. (गेह) घर
चरम-चरिम वि. (चरम) गोणो (गौ :) बैल
__अन्तिम, पर्यन्तवर्ती, अन्त का गोयम पं. (गौतम) भगवान महावीर चरण नपं. (चरण) चारित्र के आद्य गणधर.
चरणधण नपुं. (चरणधन) चारित्र गोवाल पुं (गोपाल) अहीर, गौ संयम, व्रत, नियम, चारित्ररूपी धन. पालनेवाला, ग्वाला
चरित्त नपुं. (चरित्र) चरित्र, गोविसाण नपुं. (गोविषाण) गाय का आचरण, स्वभाव, प्रकृति. सींग
चरित्त-चारित नपुं. (चारित्र) संयम,
व्रत, विरति, सद्वृत्ति घड पुं. (घट) घड़ा, कुम्भ, कलश...
चलण पुं. (चरण) पाँव, पैर, पाद घण पुं. (घन) मेघ, बादल
चवल वि. (चपल) चंचल, अस्थिर घय नपुं. (घृत) घी
चवेडा-चमेडा स्त्री. (चपेटा) तमाचा, घर नपुं. (गृह) घर
थप्पड़ चाइ वि. (त्यागिन्) दानी, त्याग
करनेवाला च-य-अ. अ. (च) और, तथा, पुनः, चिआ स्त्री. (चिता) चिता, चेह फिर, अवधारण, निश्चय, पादपूर्ति चिंता स्त्री. (चिन्ता) चिन्ता विचार अर्थ में
चिंध-चिण्ह नपुं. (चिह्न) चिन्ह, चइत्त पुं. (चैत्र) चैत्रमास लांछन, निशानी.
घ
THE
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जाप.
चिरं अ. (चिरम्) दीर्घकाल तक जउँणा स्त्री, (यमुना) नदी का नाम चीवंदण नपुं. (चैत्यवंदन) चैत्य को जओ-जत्तो-जदो अ. (यतः) जहाँ नमस्कार
से, जिससे, क्योंकि, कारण कि चेइअ-चइत्त न. (चैत्य) जं अ. (यत्) क्योंकि, कारण कि व्यन्तरायतन, जिनालय, मंदिर, मूर्ति जं किंचि अ. (यत्किञ्चित्) जो कुछ, चोज्ज नपुं. (चोद्य) प्रश्न, पृच्छा जो कोई आश्चर्य, अद्भुत
जंत नपुं. (यन्त्र) यन्त्र, मशीन चोर पुं. (चौर) चोर
जंतु पुं. (जन्तु) प्राणी, जीव चोरिय नपुं. (चौर्य) चोरी जंबूकुमार पुं. (जम्बूकुमार) विशेषनाम
जंबूदीव-जंबुद्दीव पुं. (जम्बूद्वीप) छ
द्वीप का नाम छण पुं. (क्षण) उत्सव
जक्ख पुं. (यक्ष) यक्ष छप्पअ पुं. (षट्पद) भ्रमर, भौंरा जडिल पुं. (जटिल) तापस, जटाधारी छाया स्त्री. (छाया) आतप का अभाव, जण पुं. (जन) मनुष्य, मानव, छाया, कान्ति, प्रतिबिंब
लोग, व्यक्ति, लोक, समुदाय छाही स्त्री. (छाया) छाया.
जणद्दण पुं. (जनार्दन) वासुदेव का
नाम छिछई स्त्री. (पुंश्चली) कुलटा छुहा स्त्री. (क्षुधा) क्षुधा , भूख , बुभुक्षा
जणय पुं. (जनक) पिता, बाप छुहा स्त्री. (सुधा) अमृत ।
जणवय पुं. (जनपद) देश, राष्ट्र, छेयगंथ पुं. (छेदग्रन्थ) निशीथादि
देशनिवासी, जनसमूह छह सूत्र
जत्ता स्त्री. (यात्रा) यात्रा, तीर्थयात्रा
जम्म पुं. (जन्मन्) जन्म, उत्पत्ति । ज
जम्मणं पुं. (जन्मन्) जन्म, उत्पत्ति
जय पुं. (जय) जय, जीत, शत्रु . ज स. (यत्) जो, जो कोई
का पराभव जइ पुं (यति) यति, साधु
जय-जग नपुं. (जगत्) जगत, जइ अ. (यदि) यदि, जो जइण वि. (जैन) जैन, जिनभक्त,
दुनिया, संसार
जथा अ. (यदा) जब जिनसंबंधी जइणधम्म पुं. (जैनधर्म) जिनेश्वर ..
जराकुमार पुं. (जराकुमार) वसुदेव का धर्म
का पुत्र
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जरागहिअ वि. (जरागृहीत) बूढ़ा जिइंदिय वि. (जितेन्द्रिय) जितेन्द्रिय जरादेवी स्त्री. (जरादेवी) वसुदेव की जिण पुं. (जिन) जिन, स्त्री
__ रागद्वेषरहित जल नपुं. (जल) जल, पानी जिणबिंब नपुं. (जिनबिम्ब) जिनमूर्ति जलण पुं. (ज्वलन) अग्नि जिणंद-जिणिंद पुं. (जिनेन्द्र) जलपूरीकओ=(जलपूरीकृतः) पानी जिनेन्द्र, तीर्थंकर से भरा हुआ |
जिणेसर-जिणीसर पुं. (जिनेश्वर) जलोयर नपुं. (जलोदर) जलोदर, जिनेश्वर भगवान तीर्थंकर रोगविशेष, जलन्धर, जठराम जिब्भा-जीहा (स्त्री.) (जिह्वा) जीभ जस पु. (यशस्) । कीर्ति प्रसिद्धि जीव पुं. (जीव) जीव जह-जहा अ. (यथा) जिस तरह जीवण नपुं. (जीवन) जीवन से, जैसे
जीवदया स्त्री. (जीवदया) जीवदया जहसत्ति अ. (यथाशक्ति) शक्ति जीवदयामय (जीवदयामय) अनुसार
जीवदयारूप जहि-जहिं-जह-जत्थ अ. (यत्र) जहाँ जीवलोग पुं. (जीवलोक) दुनिया, जगत जा-जाव अ. (यावत्) जहाँ तक, जीवहिंसा स्त्री. (जीवहिंसा) जीवों मर्यादा, परिमाण, निश्चय, अवधि का नाश जाम पुं. (याम) प्रहर
जीवाइ पुं. (जीवादि) जीव, अजीव जामायर-जामाउ पुं. (जामातृ) वगैरह नवतत्त्व जामाता, लड़की का पति
जीवाउ पुं. नपुं. (जीवातु) जाय वि. (जात) उत्पन्न, जो पैदा जिलानेवाला औषध, जीवनौषध हुआ हो
जीवाजीवाइ (जीवाजीवादि) जीवजायव पुं. (यादव) यदुवंशीय, अजीवादि नौ पदार्थ यदुवंश में उत्पन्न
जीविअ नपुं (जीवित) जीवन, जिन्दगी जाया स्त्री. (जाया) स्त्री, औरत जीविअंत पुं. (जीवितान्त) प्राण का जारिस वि. (यादृश) जैसा, जिस । नाश प्रकार का
जुत्त वि. (युक्त) उचित, योग्य, जाल नपुं. (जाल) जाल, पाश संगत जावज्जीव-जाजीव नपुं (यावज्जीव) जुद्ध नपुं (युद्ध) युद्ध, लड़ाई जीवन के अंत तक
जवइपिया (युवतिपिता) स्त्री का पिता जिअलोग पुं. (जीवलोक) दुनिया जेट्ट-जिट्ठ वि. (ज्येष्ठ) ज्येष्ठ
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त
जोग पुं. (योग) व्यापार, योग णाम अ. (नाम) संभावना, जोगि पुं. (योगिन्) जोगी
आमन्त्रण, अनुज्ञा, अनुमति जोग्ग वि. (योग्य), योग्य, उचित णायब्द वि. (ज्ञातव्य) जानने योग्य लायक
णायार-णाउ वि. (ज्ञातृ) जानकार जोण्हा स्त्री. (ज्योत्स्ना) चन्द्र-प्रकाश णिच्चं अ. (नित्यम्) निरन्तर, जोयणपरिमंडल (योजनपरिमण्डल) हमेशां, सर्वदा गोलाकार योजन प्रमाण
णिच्चसा अ. (नित्यशस्) निरन्तर जोवण नपुं (यौवन) तारुण्य, जवानी सर्वदा जोह पुं. (योध) सुभट, योद्धा णु अ. (हनु) वितर्क, प्रश्न, संशय
गुणं, गुण अ. (नूनम्) निश्चय,
तर्क, प्रयोजन, प्रश्न झडत्ति-झडित्ति-झत्ति अ. (झटिति)
णेय (वि.) (ज्ञेय) जानने लायक शीघ्र, जल्दी, तुरंत
णो अ. (नो) निषेध, प्रतिषेध, अभाव झाण नपुं. (ध्यान) ध्यान झुणि पुं. (ध्वनि) शब्द
त स. (तत्) वह तओ-तत्तो-तए-तदो-तो अ. (ततः)
उससे, उस कारण से, बाद में ठिअ वि. (स्थित) खड़ा रहा हुआ तणु स्त्री. (तनु) शरीर
तत्त नपुं (तत्त्व) तत्त्व, रहस्य
तत्तनाण नपुं. (तत्त्वज्ञान) तत्त्वज्ञान ण, अण्-णाइ अ. (न, नकार, तत्तवत्ता स्त्री. (तत्त्ववार्ता) तत्त्वों की नहीं, मत, निषेधार्थक अव्यय णउण-णउणो-णउणा-णउणाइ तया-तइआ-ता-तो अ. (तदा) उस अ. (न पुनः) फिर नहीं
समय णै अ. (दे.) वाक्यालंकार
तरु पुं. (तरु) वृक्ष , पेड़ णत्थि अ. (नास्ति) अभावसूचक तलाय नपुं. (तडाग) तालाब सरोवर. अव्यय
तव पुं. (तपस्) तप णमो अ. (नमस्) नमस्कार तवस्सि-तवंसि पुं. (तपस्विन्) तपस्वी णवर-णवरं-णवरि अ. (दे.) केवल, तवोवण नपुं. (तपोवन) आश्रम फक्त
तह-तहा अ. (तथा) उसी तरह
ण
बात
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थ
तहवि अ. (तथापि) तो भी तिहुअण नपुं. (त्रिभुवन) तीन लोक तहि-तहिं-तह-तत्थ- अ. (तत्र) तु-उ अ. (तु) समुच्चय, यहाँ, उसमें
अवधारण, निश्चय, पादपूरण, ता-ताव अ. (तावत्)
भेद, विशेषण, कारण । ता अ. (तर्हि) तो, उस समय, तब तेयंसि पुं. (तेजस्विन्) तेजस्वी तारग वि. (तारक) तारनेवाला, पार उतारनेवाला, नपुं. तारा तारा स्त्री. (तारा) नक्षत्र, तारा थिअ वि. (स्थित) रहा हुआ ताव पुं. (ताप) ताप, संताप, पीड़ा
थिर वि. (स्थिर) निश्चल, निष्कम्प तावस पुं. (तापस) तापस, योगी,
थु अ. (दे.) तिरस्कार संन्यास विशेष
थुइ स्त्री. (स्तुति) थोय, स्तुति, तारिस वि. (तादृश) वैसा, उस ।
स्तवन, गुण कीर्तन तरह का
थूण-थेण पुं. (स्तेन) चोर तिअस पुं. (त्रिदश) देव
थेर वि. (स्थविर) वृद्ध, बूढ़ा, वृद्ध तिक्ख-तिण्ह वि. (तीक्ष्ण) तेज, तीखा जैन साध तिण्हा स्त्री. (तृष्णा) तृष्णा, स्पृहा, थोक्क-थोव-थेव वि. (स्तोक) अल्प, वांछा, पिपासा
थोड़ा तित्थ-तूह नपुं. (तीर्थ) तीर्थ, पवित्र थोत्त नपं. (स्तोत्र) स्तोत्र, स्तुति, स्थान
स्तव तित्थयर पुं. (तीर्थकर) तीर्थंकर तित्थुद्धार पुं. (तीर्थोद्धार) तीर्थ का उद्धार
दइव-व्व-देव-व्व नपुं. (दैव) दैव, तिमिर नपुं. (तिमिर) आँख का भाग्य, अदृष्ट, प्रारब्ध, पूर्वकृत-कर्म रोग, अन्धकार, अज्ञान
दंसण नपुं. (दर्शन) चक्षु, देखना, तिलअ-ग पुं. (तिलक) तिलक सम्यग्दर्शन, मत, सामान्य ज्ञान, तिविह वि. (विविध) तीन प्रकार से धर्मशास्त्र तिव्व वि. (तीव्र) तीक्ष्ण, प्रबल, दंसणमेत्त-दंसणमत्त नपुं. प्रचण्ड, उत्कट,
(दर्शनमात्र) देखने मात्र से तिसला स्त्री. (त्रिशला) प्रभु वीर की दढ् वि. (दृढ) मजबूत, निश्चल माता
बलवान, स्थिर, कठोर, कठिन तिहि पुं. स्त्री. (तिथि) तिथि, दिन दत्त-दिण्ण वि. (दत्त) दिया हुआ
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दप्प पुं. (दर्प) अभिमान
दुआर-दार-वार नपुं. (द्वार) दरवाजा दया स्त्री. (दया) अनुकंपा, दुक्कर वि. (दुष्कर) कष्टसाध्य करुणा, कृपा
दुक्ख-दुह नपुं. (दुःख) दुःख दयालु वि. (दयालु) दयावान दुज्जण पुं. (दुर्जन) दुर्जन, दुष्ट पुरुष दव्व-दविअ नपुं. (द्रव्य) द्रव्य, संपत्ति दुज्जाहण पुं. (दुर्योधन) नाम दवलिंग नपुं. (द्रव्यलिंग) मुनि का वेष दुद्ध नपुं. (दुग्ध) दूध दबलुद्ध वि. (द्रव्यलुब्ध) द्रव्य में लोभी दुरिय नपुं. (दुरित) पाप दहि नपुं. (दधि) दही
दुस्समसमय-दूसमसमय पुं. दाण नपुं. (दान) दान
(दुःषमसमय) दुःषमकाल दाणव पुं. (दानव) असुर, दैत्य दहि-दक्खि वि. (दःखिन्) दुःखी दायार-दाउ वि. (दातृ) दाता, दुहिअ-दुक्खिअ वि. (दुःखित) देनेवाला
पीड़ित, दुःखी । दार पुं. नपुं. (दार) स्त्री, महिला दुहिआ-धूआ-धीआ स्त्री. (दुहित) बेटी दाढा स्त्री. (दंष्ट्रा) दाढ़ा
दूर नपुं. (दूर) दूर दाहिणपास नपुं. (दक्षिणपार्थ) दाँयी देव पुं. (देव) देव तरफ
__ देववंदण नपुं. (देववन्दन) देववंदन दाहिणा-दक्खिणा स्त्री. (दक्षिणा) देवाणंदा स्त्री. (देवानंदा) भगवान दक्षिण दिशा
महावीर की माता दाहिणिल्ल-दक्खिणिल्ल वि. देवालय पुं. (देवालय) देव का मंदिर (दक्षिणात्य) दक्षिण दिशा का देविंद पुं. (देवेन्द्र) देवों का इन्द्र वित्त वि. (ददत) देता हआ देवी स्त्री. (देवी) देवी, उत्तम स्त्री दिक्खा स्त्री. (दीक्षा) दीक्षा, संयम देस पुं. (देश) देश, जनपद दिघ-दीह-दीहर वि. (दीर्घ) दीर्घ, लंबा देसअ स्त्री. (देशना) देशना, उपदेश दिट्टि स्त्री. (दृष्टि) नेत्र, आँख, नजर देसविरइ स्त्री. (देशविरति) दिवस-दिवह पं. नपं (दिवस) दिन देशविरति, अणुव्रत, श्रावक धर्म दिवा-दिआ अ. (दिवा) दिन में देह पुं. नपं. (देह) शरीर दिसा स्त्री. (दिश-दिशा) पूर्वादि दिशा दोरिआ स्त्री. (दवरिका) रस्सी दीण वि. (दीन) गरीब
दोवई स्त्री. (द्रौपदी) पांडवों की स्त्री दीणत्तण नपुं. (दीनत्व) गरीबपना दोस पुं. (दोष) दोष, दूषण, दीव पुं. (दीप) दिया - दुर्गुण, अपराध, पाप ।
द्रह पुं. द्रह, ह्रद, बड़ा जलाशय
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ध
नट्टअ पुं. (नर्तक) नट धअ-झअ पं. (ध्वज) ध्वज, ध्वजा नड पु. (नट) नट धण नपुं. (धन) धन, वित्त, द्रव्य -- नणंदा स्त्री. (ननान्द) नणंद धणवंत वि. (धनवान्) धनिक, धनवान नत्थि अ. (नास्ति) अभावसूचक अव्यय धणहरण न. (धनहरण) धन का हरण नमो अ. (नमस्) नमस्कार, नमन धन्न नपुं. (धान्य) धान्य, अनाज, अन्न नमोक्कार-नमुक्कार पुं. (नमस्कार) धन्न वि. (धन्य) प्रशंसा योग्य ... नमन, प्रणाम धम्म पुं. (धर्म) धर्म, फर्ज,
नय पुं. (नय) नय, नीति शुभकर्म, पुण्य, सुकृत
नयर नपुं. (नगर) नगर धम्मिअ पं.(धार्मिक) धर्म तत्पर नयसहस्स (नयसहस्त्र) हजार नीति धर्मपरायण
नरय-निरय पुं. (नरक), नारकी धम्मिट्ट वि. (धर्मिष्ठ) अतिशय धार्मिक नरकस्थान धवल वि. (धवल) सफेद, श्वेत नरवइ पुं. (नरपति) राजा धायर-धाउ वि. (धातृ) विधाता, ब्रह्मा
नरिंद पुं. (नरेन्द्र) राजा धि-धी अ. (धिक्) निंदा, धिक्कार नव वि. (नव) न, धिइ स्त्री. (धृति) धैर्य, धीरज
नव द्वि. ब. (नवन्) नौ संख्या धिद्धि-धिद्धि-छिछि अ. (धिक्-धिक्) ।
नहयल पुं. नपुं. (नभस्तल) धिक-धिक
आकाशतल धिरत्थु (धिगस्तु) धिक्कार हो
नाण नपुं. (ज्ञान) ज्ञान धुत्त वि. (धूर्त) ठग, वञ्चक, प्रतारक
नाणि वि. (ज्ञानिन्) ज्ञानवान, ज्ञानी घेणु स्त्री. (धेनु) गाय
नाम अ. (नाम) वाक्यालंकार संभावना, आमन्त्रण, संबोधन नाय पुं. (न्याय) न्याय, नीति ।
नायउत्त पुं. (ज्ञातपुत्र) प्रभु महावीर न अ. नपुं. नहीं
का नाम नई स्त्री. (नदी) नदी
नायमग्ग पुं. (न्यायमार्ग) नीति- मार्ग नंदिसुत्त नपुं. (नन्दिसूत्र) एक
नारी स्त्री. (नारी) स्त्री आगमविशेष है।
नावा स्त्री. (नौ) नौका , जहाज नक्क पुं. (दे) नाक, नासिका
नास (पु.) (नाश) नाश. . नक्खत्त नपुं. (नक्षत्र) नक्षत्र, तारा
निअम पुं. (नियम) निश्चित ली हुई नग्ग वि. (नग्न) नग्न, वस्त्र रहित
प्रतिज्ञा
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निअसीलबलेण (निजशीलबलेन) निव पुं. (नृप) राजा अपने शील के बल से
निवइ पुं. (नृपति) राजा निंदा स्त्री. (निन्दा) बुराई निवास पं. (निवास) वास-स्थान, डेरा निक्कारण वि. (निष्कारण) बिना निव्वाण नपुं. (निर्वाण) मोक्ष कारण, अहेतुक ।
निबुइ स्त्री. (निर्वृत्ति) मोक्ष निगम पं. (निगम) व्यापार प्रधान निसा स्त्री. (निशा) रात्रि स्थान, व्यापारी समूह
निहस पुं. (निकष) कसौटी निग्गुण वि. (निर्गुण) गुणरहित. निहि वि. (निधि) खजाना, भंडार निच्च वि. (नित्य) अविनश्वर, चक्रवर्ती राजा की संपत्ति विशेष । शाश्वत, निरंतर, हमेशा
नीह स्त्री. (नीति) न्याय निच्चल वि. (निश्चल) स्थिर, अचल, नीइसत्थ न. (नीतिशास्त्र), दृढ़
नीतिशास्त्र निज्जरा स्त्री. (निर्जरा) कर्म का क्षय नीसंद पुं. (निःस्यन्द) रस-स्तुति निठुर वि. (निष्टुर) निष्ठुर, निर्दय रस का झरन पुरुष
नेउर-निउर-नुउर नपुं. (नूपुर) निद्दय वि. (निर्दय) दयारहित नूपुर, स्त्री के पाँव का नूपुर निप्फल वि.. (निष्फल) निरर्थक नेत्त पुं. नपुं. (नेत्र) नेत्र, आँख फलरहित
नेमि पुं. (नेमि) बाईसवें मे तीर्थंकर निबंध पुं. (निर्बन्ध) आग्रह नेमित्तिअ वि. (नैमित्तिक) निमित्त निबद्ध वि. (निबद्ध) बँधा हुआ शास्त्र जाननेवाला निम्मलयर वि. (निर्मलतर) नेह पुं. (स्नेह) स्नेह राग अतिशय निर्मल निमेस पुं. (निमेष) निमीलन, अक्षिसंकोच
. पइ अ. (प्रति) व्याप्ति, आभिमुख्य, निय वि. (निज) अपना
विरोध, सामीप्य निययकुल न. (निजककुल) स्वकुल का पडदा स्त्री. (प्रतिष्ठा) प्रतिष्ठा. नियववसायाणुरूवं न.
कीर्ति, आदर (निजव्यवसायानुरूपम्) स्व पइण्णा स्त्री. (प्रतिज्ञा) प्रतिज्ञा व्यवसाय के समान
पइदिण नपुं. (प्रतिदिन) सदा, हर नियाण नपुं. (निदान) नियाणा, रोज कारण, हेतु
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प
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पइन्न-ग पुं. नपुं. (प्रकीर्ण-क) सूत्र पज्जाय पुं. (पर्याय) पर्याय, रूपान्तर विशेष । वि. विपुल , विस्तृत, बिखरा पज्जुण्ण पुं. (प्रद्युम्न) कामदेव , विष्णु हुआ
...... का पुत्र पउण वि. (प्रगुण) पटु, होशियार पडिक्कमण नपुं. (प्रतिक्रमण) पए अ. (प्रगे) प्रभात में
प्रतिक्रमण, आवश्यक क्रिया, पाप से पओग पुं. (प्रयोग) प्रयोग, जीव का पीछे हटना व्यापार
पडिमा स्त्री. (प्रतिमा) मूर्ति, प्रतिबिम्ब पंकअ नपुं. (पङ्कज) कमल
कमल
पडियार पुं. (प्रतिकार) इलाज, बदला पंजर नपुं. (पअर) पिंजरा
पडिवक्ख पुं. (प्रतिपक्ष) शत्रु पंडव पुं. (पाण्डव) पाण्ड, राजा के पडिवया-पाडिवया स्त्री. (प्रतिपद)
गिरना पुत्र, पाण्डव पंडिअ पुं. (पण्डित) पंडित, विद्वान्, .
पढण नपुं. (पठन) पढ़ना, अभ्यास बुद्धिमान्
पढम वि. (प्रथम) प्रथम, आद्य, पहला पक्क-पिक्क वि. (पक्क) पका हुआ
पणाम पुं. (प्रणाम) नमस्कार
पण्ण नपुं. (पर्ण) पत्र, पत्ती पक्कलो वि. (पक्वल) समर्थ
पण्णा स्त्री. (प्रज्ञा) बुद्धि पक्ख पुं. (पक्ष) पक्ष , आधा माह,
पण्ह पुं. (प्रश्न) प्रश्न, पृच्छा पखवारा
पत्थिअ वि. (प्रार्थित) 1) जिसके पास पक्खि पुं. (पक्षिन) पक्षी
प्रार्थना की गई हो । 2) जिस चीज की पच्चक्ख वि. (प्रत्यक्ष) साक्षात्, आँख
प्रार्थना की गई हो वह के सामने
पभाव-पहाय पुं. नपुं. (प्रभात) प्रभात पच्चक्खाण नपुं. (प्रत्याख्यान) नियम,
पमाय पुं. (प्रमाद) प्रमाद, भूल,
. त्याग करने की प्रतिज्ञा
बेदरकारी पच्चूस-ह पुं. (प्रत्यूष) प्रभात काल पय पं. नपुं. (पद) पद, शब्दसमूह, पच्चोणी स्त्री. (दे.) सम्मुख आना विभक्ति अंतवाला पद पच्छ वि. (पथ्य) हितकारी वस्तु पयंग पं. (पतङ्ग) शलभ पच्छा अ. (पश्चात्) बाद में, अनन्तर, पयत्थ पुं. (पदार्थ) पदार्थ, पद का पीछे का
अर्थ, तत्त्व, वस्तु-चीज पच्छायाव पुं. (पश्चाताप) अनुताप, पया स्त्री. (प्रजा) प्रजा, संतान पछतावा
पयास पुं. (प्रकाश) प्रकाश पज्जवसाण नपुं. (पर्यवसान) अंत, पयासग वि. (प्रकाशक) प्रकाश अवसान, किनारा
करनेवाला -२६० -
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पर वि. (पर) अन्य, श्रेष्ठ, तत्पर पवासि-सु-पावासु पुं. (प्रवासिन्) परंपरा स्त्री. (परम्परा) परम्परा, मुसाफिर अनुक्रम, हार, प्रवाह ।
पविट्ठ वि. (प्रविष्ट) घुसा हुआ प्रवेश परक्कम-पराकम पुं. नपुं. (पराक्रम) किया हुआ बल, शक्ति, सामर्थ्य
पवित्तया स्त्री. (पवित्रता) पवित्रता, परदार पुं. नपुं. (परदार) परस्त्री पवित्रपना परदारा स्त्री. (परदार) परस्त्री पव्वज्जा स्त्री. (प्रव्रज्या) दीक्षा परप्पर-परुप्पर-परोप्पर वि. (परस्पर) पव्वय पुं. (पर्वत) पर्वत अन्योन्य, एक दूसरे को
पसत्त पुं. (प्रसक्त) प्रसक्त, आसक्त, परम वि. (परम) उत्कृष्ट, श्रेष्ठ चिपका हुआ परमपय नपुं. (परमपद) मोक्ष , उत्कृष्ट पसाय पुं. (प्रसाद) प्रसन्नता, खुशी, पद
दया, कृपा, मेहरबानी परलोयहिअ वि. (परलोकहित) परलोक पसु पुं. (पशु) पशु में हित करनेवाला
पहार पुं. (प्रहार) प्रहार पराभव पुं. (पराभव) पराभव, हार पहाव पुं. (प्रभाव) प्रभाव, शक्ति, जाना
सामर्थ्य परिक्खण नपुं. (परीक्षण) परीक्षा करना पहावग वि. (प्रभावक) प्रभावक, उन्नति परिच्चत्त-परिचत्त वि. (परित्यक्त) करनेवाला, प्रभावना करनेवाला । परित्याग करना , छोड़ देना पहिअ पुं. (पान्थ-पथिक) मुसाफिर परिणय वि. (परिणत) परिपक्व
पहु पुं. (प्रभु) प्रभु, स्वामी, परमेश्वर, परिणीय वि. (परिणीत) जिसका विवाह परमात्मा, मालिक, नायक हआ हो वह, विवाहित
पाइअ-पागय वि. (प्राकृत) प्राकृत भाषा, परिमाण नपुं. (परिमाण) मान, माप स्वाभाविक, नीच, साधारण परिसर पुं. (परिसर) समीप, नजदीक पाइयकब नपं. (प्राकृतकाव्य) प्राकृत परिसा स्त्री. (पर्षद्-परिषद्) सभा. काव्य पर्षद्, परिवार
पाइअवागरण न. (प्राकृत व्याकरण) परिहा स्त्री. (परिखा) खाई ।
प्राकृतव्वाकरण. परोवयार पुं. (परोपकार) परोपकार, पाउस पुं. (प्रावृष) वर्षाऋतु, चातुर्मास दूसरे की भलाई
पाढसाला स्त्री. (पाठशाला) पाठशाला पवण पुं. (पवन) पवन, वायु पाण पं. नपुं. (प्राण) इन्द्रिय वगैरह पवयण नपुं. (प्रवचन) आगम, दस प्राण (पू इन्द्रिय, 3 बल, श्वासोसिद्धान्त
श्वास आयुष्य)
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पाणाइवाय पुं. (प्राणातिपात) पिच्छी-पुहुवी स्त्री. (पृथ्वी) पृथ्वी, भूमि जीवहिंसा, प्राणों का नाश पिय वि. (प्रिय) प्रिय पुं. पति, स्वामी, पाणि पं. (प्राणिन) जीव, आत्मा, चेतन पियसही स्त्री. (प्रियसखी) प्रेम-पात्र, पाणि पुं. (पाणि) हाथ, हस्त सहेली पाणिगण पुं. (प्राणिगण) जीवों का समूह पिवासा स्त्री. (पिपासा) तृषा, प्यास पाणिय नपुं. (पानीय) जल, पानी पीइ स्त्री. (प्रीति) प्रेम, अनुराग । पाणिवह पुं. (प्राणिवध) जीवहिंसा पीडण नपुं. (पीडन) दुःख देना पाय पुं. (पाद) पाद, पैर, पाँव , श्लोक पीडा-पीला स्त्री. (पीडा) पीडा, का चौथा भाग
हैरानी, वेदना पाय पुं. (पात) गिरना, पतन पुज्ज वि. (पूज्य) पूज्य, पूजने योग्य पायड-पयड वि. (प्रकट) प्रकट, खुल्ला पुढवी-पुहवी स्त्री. (पृथ्वी) पृथ्वी , भूमि पायव पुं. (पादप) वृक्ष , पेड़ पुण-पुणा-पुणाइ-पुणो-उण अ. (पुनर्) पायशो अ. (प्रायशस्) प्रायः, फिर से, फिर फिर, बारंबार ज्यादा करके
पुणरुत्तं अ. (दे.) फिर से कहा हुआ पारद्धि पं. (पापद्धि) पारधी, शिकारी पुण्ण नपुं. (पुण्य) पुण्य, धर्म, स्त्री. मृगया
शुभकर्म , वि. पवित्र । पारितोसिअ वि. (पारितोषिक) इनाम... पुण्णिमा स्त्री. (पूर्णिमा) पूनम, पारेवअ-पारावअ पुं. (पारापत) कबूतर, पूर्णमासी, तिथि विशेष पक्षिविशेष
पुत्त पुं. (पुत्र) पुत्र, लड़का पालग वि. (पालक) पालन करनेवाला पुत्थय-पोत्यय पुं. नपुं. (पुस्तक) पाव वि. (पाप) नीच, पापी पुस्तक, पोथी, किताब पाव नपुं. (पाप) पापकर्म
पुष्फ नपुं. (पुष्प) फूल, कुसुम पावकम्म नपुं. (पापकर्मन्) पापकर्म पुरओ अ. (पुरतस्) आगे पास नपुं. (पार्श्व) समीप, पास में, पुरं-पुरा अ. (पुरस्) पहले, पूर्व में नजदीक
पुरिस पुं. (पुरुष) पुरुष पासा अ. पु. (प्रासाद) मकान . पुब्ब-पुरिम वि. (पूर्व) पहला, आद्य, पाहुड नपुं. (प्राभृत) उपहार, भेंट प्रथम पिअर-पिउ पुं. (पितृ) पिता पुन वि. (पूर्व) 70 लाख, 56 हजार पिउसिया-पिउच्छा स्त्री. वर्ष का एक पूर्व , काल विशेष (पितृस्वसृ) बुआ
पुदण्ह पुं. (पूर्वाह्न) दिन का पूर्व भाग |
पुवा स्त्री : (पूर्वा) पूर्वदिशा. २६२
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ब
पूरअ वि. (पूरक) पूर्ति करनेवाला बहु-अ-बहुग वि. (बहु-क) प्रचुर, प्रभूत, पोम्म-पउम नपं. (पद्म) कमल अनेक, बहत । पोरुस-पोरस-पउरिस नपुं. (पौरुष) बहुसो अ. (बहुशस्) अनेक बार पुरुषार्थ, पुरुषत्व
बाल पुं. (बाल) बालक, शिशु बाला स्त्री. (बाला) कुमारी, लड़की
बालिआ स्त्री. (बालिका) बाला, फरुस वि. (परुष) कठिन, कर्कश
कुमारी, लड़की फल नपुं. (फल) फल , लाभ .
बाहा स्त्री. (बाहु) हाथ, भुजा-बाहिरफास पु. (स्पर्श) स्पर्श.
बज्झ वि. (बाह्य). बाहर का फुल्ल नपुं. (फुल्ल) पुष्प, फूल ।
बाहु पुं. (बाहु) हाथ, भुजा बिंब नपुं. (बिम्ब) बिम्ब, प्रतिमा बुद्धि स्त्री. (बुद्धि) बुद्धि, मति, मेधा,
मनीषा, प्रज्ञा बइल्लो दे. (बलीवर्द) बैल, वृषभ
बुह पुं. (बुध) पण्डित बंधण नपुं. (बन्धन) बेड़ी, बाँधना
बोहि स्त्री. (बोधि) शुद्ध धर्म की प्राप्ति बंधव पुं. (बान्धव) बंधु, भाई, भ्राता
भ बंधु पुं. (बन्धु) बांधव, मित्र बंभचेर-बम्हचरिअ-बम्हचेर नपुं.
भंत वि. (भगवत्-भदन्त-भ्राजत्-भवान्त(ब्रह्मचर्य) ब्रह्मचर्य
भयान्त) भगवान ऐश्वर्यशाली, बंभण पुं. (ब्राह्मण) ब्राह्मण
कल्याणकारक, चमकता, देदीप्यमान, बंभयारि वि. (ब्रह्मचारिन्) ब्रह्मचर्य
भयनाशक भव संसार का अन्त पालनेवाला
करनेवाला बल नपुं. (बल) शक्ति, सामर्थ्य भगवई स्त्री. (भगवती) पाँचवाँ अंग, बलिट्ठ वि. (बलिष्ठ) सबसे बलवान, भगवता
भगवती सूत्र सबल
भगवंत-भयवंत पुं. (भगवत्) भगवान, बहि-हिं-बहिया-बाहिं-बाहिर अ.
पूज्य (बहिस्) बाहर
भज्जा स्त्री. (भार्या) स्त्री. बहिद्धा दे. (बहिर्धा) बाहर, मैथन भट्ट वि. (भ्रष्ट) भ्रष्ट, पतित बहिणी-भडणी स्त्री. (भगिनी) बहन भड पुं. (भट) लड़ाका, योद्धा बहिर वि. (बधिर) बहरा, जो सन न भत्तार-भत्तु पुं. (भर्तृ) स्वामी, पति, सकता हो वह ।
भर्तार, वि. पोषक
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भत्ति स्त्री. (भक्ति) सेवा, विनय , आदर भिक्खु पुं. (भिक्षु) भिक्षुक, साधु भद्द-भद्र वि. (भद्र) कल्याण करनेवाला, भिच्च पुं. (भृत्य) नौकर सुखी, प्यारा, लागणीशील, नपुं, मिच्चगुण पं. (भृत्यगुण) नौकर के गुण कल्याण, मंगल
भिल्ल पुं. (भिल्ल) भिल्ल भमंत वि. (भ्रमत्) घूमता ।
भुयग पुं. (भुजग) सर्प भय नपुं. (भय) डर, त्रास, भीति ।
भूअ पुं. नपुं (भूत) जंतु, प्राणी भरह पुं. (भरत) भगवान आदिनाथ
भूयहिअ नपुं. (भूतहित) जीवों का का ज्येष्ठ पुत्र और प्रथम-चक्रवर्ती राजा
उपकार भरहखेत न. भारतक्षेत्र न. (भरतक्षेत्र)
भूसण नपुं. (भूषण) आभूषण भरतक्षेत्र.
भोइ-भोगि वि. (भोगिन्) विलासी भव पुं. (भव) भव, संसार भविअ वि. (भविक-भव्य) भव्य ।
भोगासक्त भव-भविअ वि. (भव्य) मुक्ति योग्य,
भोग-भोअ पुं. नपुं (भोग) मनोज्ञ मुक्तिगामी, संसारी
शब्दादि विषय, उपभोग । भसल-भमर पुं. (भ्रमर) भमर
भोयण नपुं. (भोजन) भोजन भस्स-भप्प पुं. (भस्मन्) राख, भस्म, ग्रह विशेष
मइ स्त्री. (मति) बुद्धि, मेधा, मनीषा भस्संतया स्त्री. (भस्मान्तता) राख मइमत वि. (मतिमत) बद्धिशाली हो जाना, जलकर भस्म होना. मउड पं. नपुं. (मुकुट) मुगुट । भाणु पुं. (भानु) सूर्य
मंगल नपुं. (मङ्गल) श्रेय, कल्याण, भायर-भाउ पुं. (भ्रातृ) भाई, बन्धु भार पुं. (भार) भार, बोझा
मंडल नपुं. (मण्डल) गोलाकार भारह नपुं. (भारत) भरतक्षेत्र
मंत पु.नं. (मन्त्र) मन्त्र, विचार, भाल नपुं. (भाल) ललाट, भाल ।
गुप्त बात. भाव पुं. (भाव) पदार्थ, वस्तु अभिप्राय,
मंति पुं. (मन्त्रिन्) मन्त्री आशय भासा (स्त्री.) (भाषा) वाक्य , वाणी,
मंद वि. (मन्द) आलसी, धीमा, अल्प
मंदर पुं. (मन्दर) मेरु पर्वत गिरा, वचन भावि (वि.) (भाविन्) भविष्य में होने
मंदिर नपुं. (मन्दिर) मंदिर, वाला
जिनालय, घर भिक्खायरिअ वि. (भिक्षाचरक)
मक्कड पुं. (मर्कट) बंदर
मक्खिआ-मच्छिआ स्त्री. (मक्षिका) भिक्षाचर, भिक्षु .
मक्खी
शुभ
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मग्ग पुं. (मार्ग) रास्ता मघाणो पुं. (मघवन्) इन्द्र मच्चु पुं. (मृत्यु) मरण, मौत मच्छ पुं. (मत्स्य) मछली मच्छर पुं. (मत्सर) ईर्ष्या, द्वेष मच्छवहगाइ वि. (मत्स्यवधकादि) मच्छीमार
मज्ज् नपुं. (मद्य) मद्य, दारु, मदिरा मज्जाया स्त्री. (मर्यादा) सीमा, हद, अवधि
व्यवस्था,
मय-मुअ वि. (मृत) मरा हुआ मयण पुं. (मदन) कामदेव मरण नपुं. ( मरण) मृत्यु, मरना मरणभय (मरणभय) मरण का भय मह-महंत वि. (महत्) बड़ा, विशाल महप्प पुं. ( महात्मन्) महात्मा महादेवी स्त्री. (महादेवी) पटराणी महामंति पु. ( महामन्त्रिन् महामंत्री) महावीर पुं. (महावीर) चौबीसवें तीर्थंकर महासई स्त्री. ( महासती) उत्कृष्ट
मज्झ नपुं. (मध्य) अंतराल, मझार, शीलवाली स्त्री
बीच
महिला (महिला) स्त्री, नारी
मज्झण्ह पुं. (मध्याह्न) दिन का महिलामण (महिलामनस् ) स्त्रियों का
मध्यभाग
मट्टिआ स्त्री. (मृत्तिका) मिट्टी मण पुं. (मनस्) मन, चित्त मणपज्जव पुं. (मनः पर्यव ) चतुर्थज्ञान, मन का साक्षात्कार करनेवाला ज्ञान. मणवल्लह वि. (मनोवल्लभ) मन को प्रिय
मणंसि वि. (मनस्विन् प्रशस्त मनवाला मणा मणयं मणिअं अ. ( मनाक् ) अल्प, थोड़ा
मणि पुं. (मणि) मणि मणूस पुं. (मनुष्य) मनुष्य मणोज्ज-मणोण वि. (मनोज्ञ) सुन्दर मणोरह पुं. (मनोरथ) मनोरथ, इच्छा. मत्त वि. (मत्त) मदयुक्त, उन्मत्त मत्थय पुं. नपुं. (मस्तक) मस्तक सिर मन्नु पुं. (मन्यु) क्रोध, गुस्सा मय पुं. (मद) अभिमान, गर्व
मन
महिवाल पुं. (महिपाल ) राजा महिसी स्त्री. (महिषी) रानी. महु नपुं. (मधु) मधु महुर वि. (मधुर) मधुर, सुंदर, मिष्ट, मीठा.
महोच्छव-महोसव - महुस्सव - महूसव पुं. (महोत्सव) बड़ा उत्सव महोसहि स्त्री. (महौषधि) श्रेष्ठ औषधि मा-माई अ. (मिथ्या) मा, नहीं माउसिआ-माउच्छा स्त्री . (मातृस्वसृ) मासी, माता की बहन माण पुं. (मान) अभिमान, गर्व माणि वि. (मानिन्) अभिमानी, गर्विष्ठ मायरा माआ-माउ-माइ (स्त्री.) (मातृ) माता, माँ, जननी
माया स्त्री. (माया) कपट, छल, धोखा, शाठ्य
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मारुअ पुं. (मारुत) पवन . . मूग वि. (मूक) मूंगा, मूक, वाक्-शक्ति माला स्त्री. (माला) माला, हार से हीन मांसभोइ वि. (मांसभोजिन्) मांस मूढ वि. (मूढ) मूर्ख, मुग्ध, अज्ञानी खानेवाला
___ मूल नपुं. (मूल) मुख्य कारण, जड़ मास पुं. (मास) माह, मास, महीना मूलसुत्त नपुं. (मूल सूत्र) सूत्र विशेष मास-मंस नपुं. (मास) मांस मूसावाय-मुसावाय मोसावाय पुं. माहप्प पुं. नपुं. (माहात्म्य) महिमा, (मृषावाद) असत्य भाषण, झूठ बोलना प्रभाव, महत्त्व, गौरव
मेरु पुं. (मेरु) मेरु पर्वत माहण-बम्हण पुं. (ब्राह्मण) ब्राह्मण मेह पुं. (मेघ) मेघ, बादल मिअंक-मअंक पुं. (मृगाङ्क) चन्द्र, चांद मोइअ क. भू. (मोदित) खुश थयेल मिग-मअ पुं. (मृग) हिरन, हरिण, मोकखपय न. (मोक्षपद) मोक्षपद मृग
मोग्गर पुं. (मुद्गर) मुगरा, पुष्पवृक्ष मिच्छा अ. (मिथ्या) असत्य, झूठा विशेष मित्त पुं. नपुं. (मित्र) मित्र मोण-मउण नपुं. (मौन) मौन, वाणी मित्ती स्त्री. (मैत्री) मित्रता का संयम, चुप्पी, मुनिपन मीसिअ वि. (मिश्रित) संयुक्त, मिला मोर पुं. (मयूर) मयूर, पक्षिविशेष हुआ
मोहसम वि. (मोहसम) मोहसमान, मुक्क, मुत्त वि. (मुक्त) मुक्त अज्ञान समान मुक्ख-मुरुक्ख पुं. (मूर्ख) मूर्ख , अज्ञानी, बेवकूफ मुक्ख-मोक्ख पुं. (मोक्ष) मोक्ष
रउद्द-रोद्द वि. (रौद्र) दारुण, भयंकर मुक्खत्थि वि. (मोक्षार्थिन्) मोक्ष का रक्खण नपुं. (रक्षण) रक्षण करना अर्थी
रक्खस पुं. (राक्षस) राक्षस मुणि पुं. (मुनि) मुनि, साधु
रज्ज नपुं. (राज्य) राज्य, राज, मुणिंद पुं. (मुनीन्द्र) आचार्य
शासन, हुकूमत मुसं-मुसा-मूसा-मोसा अ. (मृषा) मिथ्या, रत्त वि. (रक्त
रत्त वि. (रक्त) लाल, आसक्त, असत्य, झूठ
रमणी स्त्री. (रमणी) नारी, स्त्री मुह नपुं. (मुख) मुँह, वदन
रय-रअ वि. (रत) आसक्त , अनुरक्त महल-रवि. (मुखर) वाचाल, बकवादी रयण पं. नपं. (रत्न) रत्न मुहा-मोरउल्ला अ. (मुधा) व्यर्थ,
रयय नपुं. (रजत) चांदी, रुप्य निरर्थक
रवि पुं. (रवि) सूर्य
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रहस्स वि. (रहस्य) गुप्त, गोपनीय, तात्पर्य , भावार्थ, एकान्त का
लक्खण नपुं. (लक्षण) चिह्न, नाम, रह पं. (स्थ) रथ, स्यन्दन, यानविशेष कारण, वस्त स्वरूप रहिअ वि. (हित) रोहित, परित्यक्त, लक्खण पं. (लक्ष्मण) राम का भाई वर्जित, शून्य
लग्ग वि. (लग्न) संबद्ध, संसक्त राइ-रत्ति स्त्री. (रात्रि) रात्रि, निशा,
लच्छी स्त्री. (लक्ष्मी) लक्ष्मी, संपत्ति , रात
वैभव राग पुं. (राग) राग, स्नेह
लज्जालुइणी (लज्जावती) लाजवाली राम पुं. (राम) राम, विशेष नाम
लट्ठ वि. (दे.) सुन्दर, अन्यासक्त रायगिह नपुं. (राजगृह) राजगृह नगर लट्टि पं. (यष्टि) लकडी, लाठी, छडी रावण पुं. (रावण) रावण, विशेष नाम
लया स्त्री. (लता) लता राहु पुं. (राहु) राहु, ग्रह विशेष ललाड-णडाल नपुं. (ललाट) भाल, रिउ-उउ स्त्री. (ऋतु) वसन्तादि छह
ललाट ऋतु
ललिय वि. (ललित) सुन्दर, मनोहर रिउ पु. (रिपु) शत्रु, वैरी, दुश्मन लह-अ. वि. (लघुक) छोटा , जघन्य, रिच्छ-रिक्ख पुं. (ऋक्ष) भालू, श्वापद,
तुच्छ, निःसार प्राणि-विशेष
लिंब पुं. (निम्ब) नीम का पेड़ रिसि पुं. (ऋषि) ऋषि
लुंठिअ वि. (लुण्ठित) लूटना, रुअ नपुं. (रुत) शब्द
बलात्कार से लेना रुक्क-ग्ग वि. (रुग्ण) रोगी ।
लुद्ध वि. (लुब्ध) लोभी, लोलुप, लम्पट रुक्ख पुं. नपुं. (वृक्ष) पेड़, पादप
लेह पुं. (लेख) लिखना, लेखन, रुप्पिणी स्त्री. (रूक्मिणी) विष्णु की अक्षर-विन्यास स्त्री
लोग पुं. (लोक) लोक, जगत, दुनिया, रूव पुं. नपुं. (रूप) देह की कान्ति,
भुवन सुन्दरता, आकृति, रूप
लोगवाल पुं. (लोकपाल) इन्द्र का रोमन्थ-वग्गोल् (रोमन्थय्) पगुराना, दिकपाल चबी हुई चीज को फिरसे चबाना
लोगंतिअ पुं. (लोकान्तिक) देवविशेष रोग पुं. (रोग) रोग, व्याधि
लोद्धअ वि. (लुब्धक) लोभी रोस पुं. (रोष) क्रोध, गुस्सा
. लोह पुं. (लोह) लोभ
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व
व वा अ. (वा) वा, अथवा,
कि
वइर-वज्ज पुं. नपुं. (वज्र) वज्र, इन्द्र
का शस्त्र
वक्क नपुं. (वाक्य) वाक्य वक्खाण नपुं. (व्याख्यान) विवरण, विशेष कथन
वग्ग पुं. (वर्ग) वर्ग, वग्घ पुं. (व्याघ्र) बाघ,
समूह
शेर
वच्छ पुं. (वत्स) बालक, बछड़ा वच्छ पुं. (वृक्ष) पेड़, शाखी, द्रुम वच्छल वि. (वत्सल) रागी, स्नेह वच्छल्ल नपुं. (वात्सल्य) स्नेह,
अनुराग, प्रेम, वात्सल्य वज्जपाणी पुं. (वज्रपाणि) इन्द्र वड्डयरं (बृहत्तरं) बहुत बड़ा, महान् वणस्सइ-वणप्फइ स्त्री. (वनस्पति) वनस्पति वणिआ-विलया स्त्री. ( वनिता) स्त्री, महिला, नारी
वण्हि पुं. (वह्नि) अग्नि, वत्ता स्त्री. (वार्ता) बात, वत्तार- वत्तु वि. ( वक्तृ) वक्ता, बोलनेवाला
आग
कथा
वत्थ नपुं. (वस्त्र) वस्त्र, वत्थु नपुं. (वस्तु) पदार्थ, चीज वम्मह पुं. (मन्मथ) कामदेव वय पुं. नपुं. (व्रत) व्रत, वय पुं. नपुं. (वयस्) उम्र, वयण नपुं. (वचन) वचन
नियम
वयणिज्ज वि. (वचनीय) वाच्य,
कथनीय, निन्दा योग्य वर वि. (वर) वर,
श्रेष्ठ
वराय वि . ( वराक) गरीब, दीन, रंक, बिचारा
आयु
वरिस-वास पुं. नपुं. (वर्ष) वृष्टि, वर्षा, संवत्सर, साल, मेघ, बारिस, वर्ष वारसा वासा स्त्री. (वर्षा) वृष्टि, वर्षाकाल
पानी का बरसना,
ववसाय पुं. (व्यवसाय) निर्णय, निश्चय,
अनुष्ठान, उद्यम, प्रयत्न, व्यापार, कार्य, काम
वसइ-वसहि स्त्री. ( वसति) स्थान, रात्रि आश्रय, वास, निवास, वसंत पुं. (वसंत) वसंतऋतु वसण नपुं. (वसन) निवास, वसह पुं. (वृषभ) बैल, सांड वसण नपुं. (व्यसन) कष्ट, विपत्ति, दुःख
पुत्र
वह पु. (वध) वध.
नारी
वहू (स्त्री.) (वधू) बहू, भार्या, कपड़ा वाउ (पुं.) (वायु) पवन, वात वागरण-वायरण-वारण नपुं. (व्याकरण) व्याकरण, शास्त्र, उपदेश, उत्तर
वाणिज्ज नपुं. (वाणिज्य) व्यापार वाणी स्त्री. (वाणी) वाणी, वचन, वाक्य
रहना
वसीहूअ वि. ( वशीभूत) जो अधीन हुआ हो वह
वसुदेवपुत्त (वसुदेवपुत्र) वसुदेव का
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विशेष
वाम वि. (वाम) सव्य, बाँया विज्जाहर पुं. (विद्याधर) विद्याधर, वायणा स्त्री. (वाचना) वाचना विद्यावान वायस पुं. (वायस) काक, कौआ विणट्ठ वि. (विनष्ट) विनाश वाया स्त्री (वाच्-वाचा) वाणी. विणय पुं. (विनय) विनय वारि नपुं. (वारि) पानी, जल विणा अ. (विना) सिवाय, अतिरिक्त, वारियर पुं. (वारिचर) जलचर, मत्स्य वगै. अन्य, बगैर वावार पुं. (व्यापार) व्यापार, व्यवसाय विणास पुं. (विनाश) नाश वावारि पुं. (व्यापारिन्) व्यापारी विणिद्दि वि. (विनिर्दिष्ट) विशेष प्रकार वावी स्त्री. (वापी) चतुष्कोण, जलाशय से कहा गया
विण्णाण नपुं. (विज्ञान) सद्बोध, वास पुं. नपुं. (वर्ष) वर्ष , भरतादि क्षेत्र कला, विशिष्ट ज्ञान बारिश.
विण्हु पुं. (विष्णु) वासुदेव का नाम वासहर पुं. (वर्षधर) पर्वत विशेष विडमल-विहल वि. (विह्वल) विह्वल । वासुदेव पुं. (वासुदेव) वासुदेव, विमाण पुं. नपुं. (विमान) विमान, अर्धचक्रवर्ती, त्रिखंडाधीश
उड्डयन वाह पुं. (व्याध) लुब्धक, बहेलिया विम्हय पुं. (विस्मय) आश्चर्य वाहर् (वि + आ + १) बोलना, कहना, वियंभिय वि. (विजृम्भित) विकसित आह्वान करना
वियक्खण वि. (विचक्षण) कुशल, वाहि पुं. (व्याधि) व्याधि, रोग, पीड़ा होशियार वि पि अ. (अपि) पण, विरोध, विशेष, वियणा-वेयणा स्त्री. (वेदना) प्रतिपक्षता
वेदना, पीड़ा, दुःख विउस पुं. (विद्वस्) विद्वान वियार पुं. (विकार) विकार विउसग्गो (व्युत्सर्ग) त्याग वियार पुं. (विचार) विचार, विओग पुं. (वियोग) वियोग तत्त्वनिर्णय विंद-बुंद नपुं. (वृन्द) समूह वियाररहिअ वि. (विकाररहित) विछिअ-विधुअ पुं. (वृश्चिक) वींछी विकाररहित, विकार बिना विंझ पुं. (विन्ध्य) विन्ध्याचल पर्वत विरल वि. (विरल) अल्प, थोड़ा विक्कम पुं. (विक्रम) विक्रमराजा विरहिअ वि. (विरहित) रहित , शून्य, विज्जत्थि पुं. (विद्यार्थिन्) विद्यार्थी विरहवाला विज्जा स्त्री. विद्या, शास्त्रज्ञान, विरुद्ध वि. (विरुद्ध) विपरीत, यथार्थज्ञान
प्रतिकूल, उल्टा -२६९ -
G
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वेरूव वि. (विरूप) कुरूप, कुत्सित विहि पुं. (विधि) विधि, अनुष्ठान प, भयानक रूप
विहीण-विहूण वि. (विहीन) वर्जित, रोह पुं. (विरोध) विरोध, प्रतिकूल, वैर रहित वेवत्ति स्त्री. (विपत्ति) दुःख विहुर वि. (विधुर) दुःखी, व्याकुल वेवरीअ-विवरिअ वि. (विपरीत) उल्टा, वीणा स्त्री. (वीणा) वीणा, वाद्यविशेष तिकूल
वीयराग-वियराग पुं. वि. (वीतराग) वेवाय पुं. (विवाद) चर्चा, झगड़ा जिन, रागरहित ग्युद्ध, कलह
वीर पुं. (वीर) वीर, पराक्रमी , वेविह वि. (विविध) अनेक प्रकार, शक्तिशाली, बलवान, उत्तम, श्रेष्ठ ज, बहुविध, भाँति-भाँति
वीसत्य वि. (विश्वस्त) विश्वास- योग्य, विहचरित वि. (विविधचरित्र) अलग- विश्वासवाला लग चरित्र
वीसाम-विस्साम पुं. (विश्राम) विश्रान्ति, वेग पुं. (विवेक) विचार, भेद, बाँटना, विराम । वेक
वीसुं अ. (विष्वक्) समन्तात्, चारों स पुं. नपुं. (विष) विष, जहर, तरफ लाहल
वुट्ठि स्त्री. (वृष्टि) वृष्टि, बारिस सम वि. (विषम) तीक्ष्ण, अतुल्य, वुड्ढत्तण नपुं. (वृद्धत्व) वृद्धावस्था कट, भयानक
बुड्डि स्त्री. (वृद्धि) वृद्धि, समृद्धि, वेसमीसिअ वि. (विषमिश्रित) अभ्युदय, उत्थान हरयुक्त
वुत्त वि. (उक्त) कथित, प्रतिपादित सय पुं. (विषय) पाँच इन्द्रियों के कहा हुआ ब्दादि विषय
वेज्ज पुं. (वैद्य) वैद्य, चिकित्सक, सयविस पुं. नपुं. (विषयविष) इन्द्रिय भिषग षय रूप विष
वेरुलिअ-वेडूरिअ-वेडुज्ज पुं. नपुं. साय पुं. (विषाद) खेद, शोक, दुःख (वैडूर्य) वैडूर्यरत्न साल वि. (विशाल) बड़ा वेयावच्च-वेयावडिअ नपुं. (वैयावृत्य) सेस पुं. नपुं. (विशेष) विशेष प्रकार, सेवा, शुश्रूषा द, असाधारण
वेर-वइर नपुं. (वैर) शत्रुता , दुश्मनी, हव पुं. (विभव) समृद्धि, ऐश्वर्य विरोध, वैमनस्य, द्रोह हवि वि. (विभविन्) समृद्धिवान वैरग्ग नपुं. (वैराग्य) वैराग्य, हलिय वि. (विह्वलित) व्याकुल विरागभाव, उदासीनता, विमुखता
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कुबेर
वेसवण-वेसमण पुं. (वैश्रवण) यक्षराज, संपत्ति स्त्री. (सम्पत्ति) संपदा, ऋद्धि
संफास पुं. (संस्पर्श) स्पर्श वेसा स्त्री. (वेश्या) गणिका संबंध पुं. (सम्बन्ध) संसर्ग, संग, वोसिरणं पुं. (व्युत्सर्जन) परित्याग संगति, संयोग
संवच्छरिअ वि. (सांवत्सरिक) संवत्सर सइ-सया अ. (सदा) हमेशा, निरन्तर संबंधी सइ-सइं अ. (सकृत्) एक बार . संवेग पुं. (संवेग) संसार से सइंदय वि. (स-इन्द्रक) इन्द्रसहित उदासीनता, संसार भीरूता, मुक्ति सइन्न-सिन्न-सेन्न नपुं. (सैन्य) सैन्य,
की अभिलाषा लश्कर
संसग्ग पुं. (संसर्ग) सम्बन्ध, सम्पर्क • सई स्त्री. (सती) पतिव्रता स्त्री संसार पुं. (संसार) संसार, भव । सउण पुं. (शकुन) पक्षी, चिड़िया ,
संसारचक्क नपुं. (संसारचक्र) नपुं, शुभाशुभ निमित्त
संसाररूपी चक्र संकला स्त्री. (शृङ्खला) सांकल, निगडा संहार-संघार पुं. (संहार) संहार संगम पुं. (सङ्गम) संगति, संगम, मेल सकम्म पुं. नपुं. (स्वकर्मन्) अपने कर्म, संघ पुं. (सङ्घ) संघ, समुदाय, समूह,
निजकर्म श्रमणादि चतुर्विध संघ
सवुडुंबय नपुं. (सवुटुम्बक) संजम पं. (संयम) संयम, चारित्र, कुटुम्बसहित व्रत, विरति, हिंसादि पापों से निवृत्ति
सक्क पुं. (शक्र) इन्द्र संजुअ वि. (संयुत) युक्त, सहित सक्खं अ. (साक्षात्) प्रत्यक्ष आंखों के संजोग पुं. (संयोग) सम्बन्ध, मेल
मेल सामने मिलाप
सक्खिणो वि. (साक्षी) साक्षी , गवाही संति पुं. (शान्ति) शान्ति, सख- प्रत्यक्षदर्शी, निर्णायक समृद्धि, शान्ति जिन (सोलहवें सगास नपुं. (सकाश) समीप, पास, तीर्थंकर)
निकट संतिण्ण कर्म-भूत (सन्तीर्ण) तिरे हए सग्ग पुं. (स्वर्ग) स्वर्ग, देवलोक संतोस पुं. (सन्तोष) संतोष संतष्टि, सच्चिय अ. (स एव) वही प्रसन्नता, तृप्ति
. सच्च नपुं. (सत्य) सत्य , यथार्थवचन संपड अ. (सम्प्रति) इस समय अब सच्चवय वि. (सत्यवद) सत्यवादी, संपइनरिंद पुं. (सम्प्रतिनरेन्द्र) सम्पति सत्य बोलनेवाला राजा
- सज्ज वि. (सज्ज) तैयार, युक्त
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सज्जण पुं. (सज्जन) सज्जन पुरुष सप्प पुं. (सर्प) साँप, भुजंग सज्जा-सेज्जा स्त्री. (शय्या) शयन, सप्पाण वि. (सप्राण) प्राणसहित, अपने पथारी
प्राण सज्झाय पुं. (स्वाध्याय) शास्त्र सब्भाव पुं. (सद्भाव) अच्छे भाव, अध्ययन, शास्त्र मनन, चिन्तन । अस्तित्व, भावार्थ सडिअ वि. (शटित) सड़ा हुआ समंता-समंतेण अ. (समन्तात्) चारो सढ वि. (शठ) ठग, धूर्त.
तरफ सणियं अ. (शनैस्) धीरे-धीरे ।
समण पुं. (श्रमण) श्रमण, साधु सण्ह, सुण्ह-सुहम वि. (सूक्ष्म) समणोवासय-ग पुं. (श्रमणोपासक) छोटा, बारीक, अल्प
श्रावक, साधुओं का उपासक सत-सय पुं. नपुं. (शत) सौ की संख्या समत्त वि. (समस्त) संपूर्ण, सब सद्द पं. (शब्द) शब्द, ध्वनि, आवाज समत्थ वि. (समर्थ) समर्थ, शक्तिवान सद्ध-सड्ढ पु. (श्राद्ध) श्रावक, श्रद्धालु समय पं. (समय) समय, काल, वक्त, सद्धा-सड्ढा स्त्री. (श्रद्धा) श्रद्धा, अवसर शास्त्र धर्मरुचि
समाण वि. (समान) सदृश, तुल्य, सद्धिं (सार्धम्) सहित, साथ
समान सत्त वि. (सक्त) आसक्त
समाण वि. (सत्) वर्त. कृ. विद्यमान, सत्त नपुं. (सत्त्व) बल, पराक्रम
होता सत्ति स्त्री. (शक्ति) सामर्थ्य , बल,
समायरण नपुं. (समाचरण) आचरण, पराक्रम ।
करना, आचरना सत्तु पुं. (शत्रु) शत्रु.
समावडिअ वि. (समापतित) सम्मुख सत्तुंजय पुं. (शत्रुञ्जय) सिद्धगिरि,
आया हुआ विमलाचल
समाहि पुं. स्त्री. (समाधि) चित्त की सत्तुंजई स्त्री. (शत्रुञ्जयी) सेत्तुंजी-सित्तुंजी नदी का नाम
प्रसन्नता, शुभध्यान, चित्त की एकाग्रता सत्थ पुं. (सार्थ) सार्थ, समुदाय,
समिद्धि-सामिद्धि स्त्री. (समृद्धि) वैभव, व्यापारी समूह का नायक
ऐश्वर्य सत्थ नपुं. (शस्त्र) शस्त्र, हथियार,
समीव वि. (समीप) निकट, पास
समीहिअ वि. (समीहित) इष्ट, आयुध, अस्त्र
इच्छित, चाहा गया सत्थ नपुं. (शास्त्र) शास्त्र, आगम सन्ना स्त्री. (संज्ञा) चेष्टा, ज्ञान
समोसरण-समवसरण पुं. नपुं. (समवसरण) समोसरण
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सम्मं अ. (सम्यक्) अच्छी तरह सव्वथ-सव्वहि-सव्वह अ. (सर्वत्र) सम्मत्त नपुं. (सम्यक्त्व) समकित सम्पूर्ण, सब, सभी जगह तत्त्वश्रद्धा, सम्यग्दर्शन
सवण्णु पुं. (सर्वज्ञ) सर्वज्ञ भगवान, सयं-सइ अ. (स्वयम्) आप, निज, सब जाननेवाले खुद
सव्वविरइ स्त्री. (सर्वविरति) पाँच सयण पुं. (स्वजन) कुटुम्बीजन, सगे- महाव्रतों का पालन, सभी पाप व्यापार संबंधी
का त्याग सययं अ. (सततम्) निरन्तर, लगातार सव्वया अ. (सर्वदा) सदा, हमेशा, सयल वि. (सकल) पूर्ण, सर्व सदैव सयसहस्स पुं. नपुं. (शतसहस्त्र) लाख सव्वहा अ. (सर्वथा) सभी तरह, सभी सयायार पुं. (सदाचार) उत्तम आचार प्रकार का । सर पुं. (शर) बाण
सव्वायर (सर्वादर) सभी प्रकार के सर पुं. नपुं. (सरस्) सरोवर आदरपूर्वक सरअ पुं. (शरद्) शरद ऋतु ससंक पुं. (शशाङ्क) चन्द्र सरण नपुं. (शरण) शरण, आश्रय, ससा-सुसा स्त्री. (स्वसृ) बहन, भगिनी रक्षा
ससिरवि (शशिरवि) चन्द्र और सूर्य सरणत्तं नपुं. (शरणत्व) शरणपना सह अ. (सह) साथ, संग, सहित सरस्सई स्त्री. (सरस्वती) वाणी, सहल-सभल वि. (सफल) सार्थक, भाषा, भारती, वाग्देवी
फलयुक्त, सफल सरिच्छ-सरिक्ख वि. (सदृश) समान, सहसा अ. (सहसा) अचानक,
अकस्मात्, शीघ्र, जल्दी सरीर न. (शरीर) शरीर
सहा स्त्री. (सभा) सभा सरूव नपुं. (स्वरूप) स्वरूप सहाव पुं. (स्वभाव) प्रकृति, निसर्ग सरोय नपुं. (सरोज) कमल । सही स्त्री. (सखी) सहेली सरोरुह नपुं. (सरोरुह) कमल साउ वि. (स्वादु) मधुर, स्वादयुक्त सलाहा स्त्री. (श्लाघा) प्रशंसा, साण-स पुं. (श्वन्) कुत्ता गुणगान
सामन्न वि. (सामान्य) साधारण सवण नपुं. (श्रवण) सुनना सामाइअ नपुं. (सामायिक) सामायिक, सव्व सर्व (सर्व) सब
दो घड़ी समता में रहना सवओ-सव्वतो-सव्वत्तो अ. (सर्वतस्) सामि पुं. (स्वामिन्) स्वामी, नायक सब तरह से, सर्वत्र , सभी जगह साय नपुं. (सात) सुख
तुल्य
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सार वि. (सार) श्रेष्ठ, उत्तम
सिद्धालय नपुं. (सिद्धालय ) सारहि पुं. (सारथि) सारथी, रथ सिद्धालय, सिद्ध भगवान का स्थान,
हाँकनेवाला
सिद्धशिला
सिद्धि स्त्री. (सिद्धि) सिद्धि, मोक्ष सिप्प नपुं. (शिल्प) कारीगरी, चित्रकारी, कला
सिरिवद्धमाण पुं. (श्रीवर्धमान) चौबीसवें तीर्थंकर
सिरी स्त्री. (श्री) लक्ष्मी सिलोगद्ध पुं. नपुं. (श्लोकार्ध) काव्य का आधा भाग
सिव नपुं. (शिव) कल्याण, भद्र, मोक्ष सिविण- सुविण सिमिण-सुमिण पुं. नपुं. (स्वप्न) स्वप्न
सिसु पुं. (शिशु) बालक, बच्चा सिहर नपुं (शिखर) शिखर
(साहाय्य ) मदद, सहायता
सिंघ-सीह पुं. (सिंह) सिंह, शेर, सिहरारूढ वि. (शिखरारूढ) शिखर केसरी, मृगराज पर आरूढ़, उन्नत भाग पर स्थित . सिक्खा स्त्री. (शिक्षा) शिक्षण, उपदेश, सिहरि पुं. (शिखरिन् ) शिखरी पर्वत ज्ञान, दण्ड सिहरपरंपरा स्त्री. (शिखरपरंपरा) सिक्खिरं हे . कृ. (शिक्षितुम् ) पढ़ने के शिखरों की श्रेणी (परंपरा ) लिए
सिगाल पु. ( शृगाल) शीयाल लोमडी सिणेह पुं. ( स्नेह ) स्नेह, प्रेम सिद्ध पुं. (सिद्ध) सिद्ध, सिद्ध भगवान सिद्धगिरि पुं. (सिद्धगिरि) सिद्धाचल सिद्धत्थ पुं. (सिद्धार्थ) प्रभु वीर के पिता सिद्धराय पुं. (सिद्धराज ) राजा का
सीय वि. (शीत) जमा हुआ, मंद, सुस्त, उदासीन, आलसी, ठंडा सीया स्त्री. (सीता) राम की पत्नी सीयल वि. (शीतल) शीतल, ठंडा सीयाल पुं. (शीतकाल ) शीतऋतु सील नपुं. (शील) सदाचार, उच्च चरित्र, संयम विशेष, ब्रह्मचर्य सीस पुं. (शिष्य) शिष्य
नाम
सिद्धहेम पुं. (सिद्धहेम ) व्याकरण का सीस पु.न. (शीर्ष) मस्तक, सर
नाम
सुअ पुं. (सुत) पुत्र
सावग पुं. (श्रावक) श्रावक सावय पुं. (श्वापद) शिकारी पशु साविगा स्त्री. ( श्राविका ) श्राविका सासण नपुं. (शासन) शासन, शास्त्र, आज्ञा, शिक्षण
सासय वि. (शाश्वत) नित्य, अविनश्वर सासू स्त्री. (श्वश्रू) सास साहम्मि वि. (साधर्मिक) समान- धर्मी साहा स्त्री. (शाखा) शाखा, संतति,
परम्परा
साहु पुं. (साधु) साधु, मुनि, यति साहिज्ज-साहज्ज साहेज्ज नपुं.
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सुक्क वि. (शुक्ल) वर्ण विशेष, श्वेत, सेणिअ पुं. (श्रेणिक) श्रेणिक राजा सफेद सेवा स्त्री. (सेवा) सेवा, भक्ति, शुश्रूषा सुटु अ. (सुष्टु) अच्छी तरह, सुन्दर, सेस वि. (शेष ) बाकी, अन्य, अवशिष्ट श्रेष्ठ सोक्ख नपुं. (सौख्य) सुख, आनन्द, हर्ष
वि.
सुहा- सुसा-हुसा स्त्री. ( स्नुषा) पुत्रवधू सुत्तं सुत्त नपुं. (सूत्र) सूत्र, आगम ग्रन्थ (सुप्त) सोया हुआ सुमिणतुल्ल- सुविणतुल्ल वि. सोम पुं. (सोम) चन्द्र ( स्वप्नतुल्य) स्वप्न समान सुयणदुज्जणविसेस (सुजनदुर्जनविशेष) सज्जन-दुर्जन का भेद सुर पुं. (सुर) देव, अमर, देवता सुरहि वि. (सुरभि) सुगन्धयुक्त, सुगन्धी
सुवण्ण नपुं. (सुवर्ण) सुवर्ण, सोना, धातु विशेष
सुविज्ज पुं. (सुवैद्य) कुशल भिषक सुवे अ . ( श्वस) आगामी दिन सुसाण- मसाण नपुं. ( श्मशान) श्मशान, मरघट
सुह नपुं. (सुख) सुख, आनन्द, हर्ष सुह नपुं. (शुभ) मंगल, कल्याण सुहा स्त्री. (सुधा) अमृत सुहि वि. (सुखिन् ) सुखी सूर पुं. ( शूर) शूर, पराक्रमी सूरि पुं. ( सूरि) आचार्य
सूल पुं. नपुं. (शूल) शूल, रोगविशेष, शस्त्र विशेष
सेणा स्त्री. (सेना) सेना, सैन्य, लश्कर सेणावइ पुं. (सेनापति) सेनापति, सेना
का नायक
सोग - अ. पुं. ( शोक) सन्ताप, दुःख सोत्त नपुं. (श्रोत्र) कर्ण, कान
सोहण वि. (शोभन ) सुन्दर सोहा स्त्री. (शोभा) शोभा, सौन्दर्य, रमणीय
ह
हंतूण सं. भू. (हत्वा) मारकर हत्थ पुं. (हस्त) हाथ, कर हत्थिणाउर नपुं. ( हस्तिनापुर) हस्तिनापुर, नगर का नाम हत्थि पुं. (हस्तिन्) हाथी, गज हद्धि - हद्धी अ. ( हा धिक् ) खेद, पश्चाताप, विषाद, हाय
हय पुं. (हय) घोड़ा, अश्व हरि पुं. (हरि) इन्द्र, विष्णु हार पुं. (हार) माला
हालिअ पुं. (हालिक) किसान हिअय-हिअ नपुं. (हृदय) हृदय, मन,
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अन्तःकरण
हिय वि. (हित) हितकर हिरी स्त्री. (ही) लज्जा हे नपुं. (अधस्) नीचे हेम नपुं. (हेमन्) सुवर्ण, सोना हेमचंद पुं. (हेमचन्द्र) श्री हेमचन्द्रसूरिजी
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हिन्दी-प्राकृत शब्दकोष
अ
अंग अंग नपुं. (अङ्ग) अंजन अंजण नपुं. (अञ्जन) अग्नि अग्गि पुं. (अग्नि)
अच्छी तरह सुटु अ. सुष्ठु, सम्म अ.
(सम्यक्)
अजीव अजीव पुं. (अजीव)
अज्ञानी अण्णाणि वि. ( अज्ञानिन् ) अतिशय अइसय वि. ( अतिशय ) अत्यन्त अच्चंत वि. ( अत्यन्त ) अदत्त अदत्त, अदिण्ण वि. ( अदत्त) अदृष्ट दइव्व, दइव नपुं. (दैव) अधर्म अहम्म पुं. (अधर्म) अध्याय अज्झाय पुं. (अध्याय) अध्ययन अज्झयण नपुं. (अध्ययन) अनर्थ अणत्थ-ट्ठ पुं. (अनर्थ) अनन्तबार अणंतखुत्तो अ.
(अनन्तकृत्वस् )
अनाज धन्न नपुं. (धान्य) अनुग्रह अणुग्गह पुं. (अनुग्रह) अनुमति अण्णा स्त्री. (अनुज्ञा ) अन्धकार तिमिर नपुं. (तिमिर)
तम पुं. नपुं. (तमस) अन्धा अंध वि. (अन्ध) अन्यथा अन्नह हा अ. ( अन्यथा ) अपना निअ वि. (निज)
अप्पकेर वि. (आत्मीय)
अब अहुणा अ. (अधुना)
अभिमन्यु अहिमन्नु, अहिमज्जु, अहिमञ्जु पुं. (अभिमन्यु) अभिमान मय पुं. (मद)
अभ्यास अभास पुं. (अभ्यास) अमर अमर पुं. (अमर) हमारे जैसा अम्हारिस वि.
(अस्मादृश)
अमावास्या अमावस्सा स्त्री.
( अमावास्या)
अमृत अमय, अमिय नपुं. (अमृत) अरिहंत अरिहंत, अरहंत, अरुहंत पुं. (अर्हत)
अलंकृत अलंकिअ वि. (अलङ्कृत) अशुभ (कर्म) असुह नपुं. (अशुभ) असत्य असच्च नपुं. (असत्य) मुसावाय, मूसावाय, मोसावाय पुं (मृषावाद)
असार असार वि. (असार) अहिंसा अहिंसा स्त्री. (अहिंसा)
आ
आकाश आगास पुं. नपुं. (आकाश) आँख चक्खु पुं. नपुं. (चक्षुष) नेत्त पुं. नपुं. (नेत्र) आगम आगम पुं. (आगम) आगे अग्ग नपुं. (अग्र)
पुरओ अ. (पुरतस् ) आचरण आयार पुं. (आचार)
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आचार्य आयरिअ, आइरिअ पुं. सूरि पुं. ( सूरिन)
आज्ञा आणा स्त्री. (आज्ञा) आता आगच्छंत वर्त. कृ. (आगच्छत्) आदेश आएस पुं. (आदेश) आधि आहि पुं. स्त्री. (आधि) आभूषण भूसण नपुं. (भूषण) आया हुआ आगय कर्म. भू. (आगत ) आयुष्य आउस, आउ पुं. नपुं. (आयुष्) आरम्भ आरंभ पुं. (आरम्भ) आलोचना आलोचना स्त्री.
(आलोचना)
आशातना आसायणा स्त्री.
(आशातना)
आश्चर्य अच्छेर नपुं. (आश्चर्य) आश्रय आहार पुं. (आधार) आश्विन मास आणि पुं. (आश्विन) आसक्त आसत्त वि. ( आसक्त ) रवि. (रत)
आहार आहार पुं. (आहार) इ
इनाम पाहुड नपुं. (प्राभृत)
उ
उग्र उग्ग वि. (उग्र)
(उत्तम)
(उत्कृष्ट)
उत्तम उत्तम, उत्तिम वि. वर वि. (वर) उत्कृष्ट उक्किट्ठ वि. उत्साह उच्छाह पुं. (उत्साह) उद्यम उज्जोग पुं. (उद्योग) उपर उवरि, उवरिं अ. (उपरि ) उपदेश उवएस पुं. ( उपदेश) उपहार पाहुड नपुं. (प्राभृत) उपांग उवंग पुं. नपुं. ( उपाङ्ग) उपाय उवाय पुं. ( उपाय ) उपाध्याय उवज्झाय, ऊज्झाय, ओज्झाय पुं. ( उपाध्याय) उसके बाद तओ अ. (ततः)
इंधर अत्थ एत्थ (अ.) अत्र इन्द्र इंद पुं. (इन्द्र)
सक्क पुं. (शक्र) ईश्वर ईसर पुं. (ईश्वर)
इस कारण अओ अ. ( अतः ) इस तरह ऐसे त्ति, इइ, इअ अ.
(इति)
इसलिए, इससे तओ अ. (ततः)
ऋ
ऋद्धि इड्डि ऋद्धि स्त्री. (ऋद्धि) ऋषि रिसि पुं. (ऋषि)
ए-ऐ
पारितोसिअ वि. (पारितोषिक ) एकदम सहसा अ. (सहसा ) ऐसे त्ति, इइ, इअ अ. (इति)
और च य औ अ. (च)
"
क
कंठ कंठ पुं. (कण्ठ)
कन्या कन्ना, कन्नगा स्त्री.
(कन्या-कन्यका) कपटी, धूर्त सढ पुं. (शठ)
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कपाल भाल नपुं. (भाल)
ललाड, णडाल नपुं. (ललाट)
(कर्तव्य)
कमल पोम्म, पउम नपुं. पद्म. करने योग्य कायव्व वि. करना समायरण नपुं. ( समाचरण) करण नपुं. (करण)
कर्ण कण्ण पुं. (कर्ण) कर्म कम्म नपुं. (कर्मन्) कर्मक्षय कम्मक्खय पुं. (कर्म-क्षय) कल्याण कल्लाण नपुं. (कल्याण) कसौटी निहस पुं. (निकष ) कहाँ कत्थ, कह, कहि, कहिं अ.
अ. ( कुतः )
काम मयण पुं. (मदन) काम पुं. (काम) कारण कारण नपुं. (कारण) निमित्त नपुं. (निमित्त) हेउ पुं. (हेतु) कार्य कज्ज नपुं. (कार्य)
काल काल पुं. (काल) समय पुं. (समय) काव्य कव्व नपुं. (काव्य) किसलिए, क्यों किं सर्व. (किम्) किसान हालिअ पुं. (हालिक) कीर्ति जस पुं. (यशस्)
कुबेर वेसवण, वेसमण पुं. (वैश्रवण )
कुमारावस्था कुमारत्तण नपुं. (कुमारत्व)
(कुत्र)
कहाँ से कत्तो, कओ, कुदो, कुओ, क्षेत्र खेत्त नपुं. (क्षेत्र)
ख
कुरूप विरूप वि. (विरूप)
कुत्ता, साण पुं. (श्वन्) कुशल वैद्य सुविज्ज पुं. (सुवैद्य)
कृत्य किच्च नपुं. (कृत्य)
कृपण किवण, किविण वि. (कृपण) कृपा किवा स्त्री. (कृपा)
कृष्ण किण्ह, कण्ह पुं. (कृष्ण) विण्हु पुं. (विष्णु)
केवलज्ञान केवलनाण नपुं. (केवलज्ञान)
केवली केवलि पुं. (केवलिन) कोई भी कोवि अ. ( कोऽपि ) क्रोध-कोप कोह पुं. (क्रोध) कोव पुं. (कोप)
कौरव कउरव पुं. (कौरव)
क्षमा खमा स्त्री. (क्षमा)
खन्ति स्त्री. ( क्षान्ति)
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खंड खंड पुं. नपुं. (खण्ड) खुश हुआ मोइअ कर्म. भू. (मोदित ) तुस्सिअ - तूसिअ कर्म भू. (तुष्ट)
ग गणधर गणहर पुं. ( गणधर ) गति गइ स्त्री. (गति) गंभीर गंभीर वि. (गम्भीर) गरीब दीण वि. (दीन) गरुड गरुल पुं. (गरुड़) गान गाण नपुं. (गान) गिरनार उज्जयंत पुं. ( उज्जयन्त)
घ
घर घर पुं. (गृह)
गेह नपुं. (गेह)
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घी घय नपुं. (घृत)
जंबूद्वीप जंबूद्दीव, जंबूदीव घोड़ा आस पुं. (अश्व)
पुं. जम्बूद्वीप
जरूर अवस्सं अ. (अवश्यम्) च
जहरवाला विसमीसिअ वि. चक्रवर्ती चक्कवट्टि पं. (चक्रवर्तिन) (विषामाश्रत) चन्द्र मियंक, मयंक पं. (मगाङ्क) चंद. जहाँ जहिं, जहि, जह, जत्थ अ. चंद्र पुं. (चन्द्र) इंदु पुं. (इन्दु)
(यत्र) चरण चलण नपुं. (चरण)
जानकार णायार, णाउ वि. (ज्ञात) चांदी रयय नपुं. (रजत)
जाल जाल नपुं. (जाल) चरित्र चरित्त नपुं. (चरित्र)
जिनबिम्ब जिणबिंब नपुं. (जिनबिम्ब) चारित्र संजम पुं. (संयम) .
जिनालय जिणालय नपुं. (जिनालय) चरित्त नपुं. (चारित्र)
जिनेश्वर जिणेसर, जिणीसर चरण नपुं. (चरण)
पुं. (जिनेश्वर) चित्त चित्त नपुं: चित्त
जिलानेवाला-जीवाउ पुं. नपुं. हिअय हिअ नपुं. (हृदय)
(जीवातु) चिह्न चिंध, चिण्ह नपुं. (चिह्न)
जीभ जिब्भा, जीहा स्त्री. (जिह्वा) चैत्यवंदन चीवंदण नपुं. (चैत्यवंदन)
जीर्ण खीण, छीण, झीण वि. (क्षीण) चोर चोर पुं. (चौर)
जीव जीव पुं. (जीव) चोरी चोरिअ नपुं. चौर्य
जीवदया जीवदया स्त्री. (जीवदया) चौमासा वरिसा-वासा स्त्री. (वर्षा) .
जीवन जीवण, जीविअ नपुं. (जीवन-जीवित)
जीवहिंसा जीवहिंसा स्त्री. छाया छाही, छाया स्त्री. (छाया)
(जीवहिंसा) जीव इत्यादि जीवाइ पुं. (जीवादि)
जैनधर्म जइणधम्म पं. (जैनधर्म) जगत जग, जय नपुं. (जगत्) जैसा, इव, विव, ब्व अ. (इव) जिस जंगल रण्ण, अरण्ण
तरह नपुं. (अरण्य)
जैसा, जिस तरह का जारिस वि. जन्म जम्म, जम्मण
(यादृश) पुं. नपुं. (जन्मन्)
ज्ञातपुत्र नायपुत्त, नायउत्त पुं. जब जया अ. (यदा)
(ज्ञातपुत्र)
ज
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त
ज्यादा बहु, बहुअ वि. (बहु) . अईव अ. (अतीव)
दक्षिण दिशा का दाहिणिल्ल, दक्खिणिल्ल वि. (दाक्षिणात्य)
दर्शन दंसण नपुं. (दर्शन) टूटा हुआ तुडिअ कर्म भू. त्रुटित) दही दहि नपुं. (दधि)
दान दाण नपुं. (दान)
दिन दिवस, दिवह पुं. नपुं. (दिवस) तत्त्व तत्त नपुं (तत्त्व)
दिन में दिवा, दिआ अ. (दिवा) तत्त्वज्ञान तत्तनाण नपुं. (तत्त्वज्ञान) दिशा दिसा स्त्री. (दिशा) तत्त्व का कथन तत्तवत्ता स्त्री. दीक्षा दिक्खा अ. (दीक्षा) (तत्त्ववार्ता)
दीपक दीव पुं. (दीप) तथा तह, तहा अ. (तथा) दुःख दुह, दुक्ख नपुं. (दुःख) तप तव पुं. (तपस्)
दुःखी दुहि, दुक्खि वि. (दुःखिन्) तब तया अ. (तदा)
दुर्जन दुज्जण पुं. (दुर्जन) तरफ पइ अ. (प्रति)
दुष्कर्म पावकम्म नपुं. (पापकर्मन्) तापस तावस पुं. (तापस) दूध दुद्ध नपुं. (दुग्ध) तारनेवाला तारण वि. (तारक) देव देव पुं. (देव) तारा तारग नपुं. (तारक)
देवलोक देवलोक पुं. (देवलोक) तारा स्त्री. (तारा)
देश जणवय पुं. (जनपद) तालाब तलाग, तलाय नपुं. तड़ाग। देशना देसणा स्त्री. (देशना) तिलक तिलग पुं. (तिलक) द्रव्य दविअ, दव्व नपुं. (द्रव्य) तीर्थ तित्थ, तूह नपुं. (तीर्थ) धण नपुं. (धन) तीर्थंकर तित्थयर पुं. (तीर्थंकर) अट्ठ, अत्य पुं. (अर्थ) तो भी तहवि अ. (तथापि) द्वेष मच्छर पुं. (मत्सर) त्यागी चाइ वि. (त्यागिन्) द्वार दुआर, दार, वार नपुं. (द्वार)
थ थोड़ा थोक्क, थोव, थेव वि. (स्तोक).
ध . धन धण नपुं. (धन) धर्म धम्म पुं. (धर्म) धर्मिजन धम्मिट्ठ पुं. (धर्मिष्ठ)
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धान्य धन्न नपुं. (धान्य) धीरज धिइ स्त्री. (धृति)
पकड़ना गिण्ह (ग्रह) धीरे-धीरे सणियं अ. (शनैस्)
पक्षी पक्खि पुं. (पक्षिन्) ध्यान झाण नपुं. (ध्यान)
पका हुआ पक्व वि. (पक्व) ध्वज धअ, झअ पुं. (ध्वज)
पण्डित अहिण्णु वि. (अभिज्ञ)
पंडिअ पुं. (पण्डित) नगर नयर नपुं. (नगर)
बहु पुं. (बुध) नट नड पुं. (नट)
पथ्य पच्छ वि. (पथ्य) ननन्द नणंदा स्त्री. (ननान्दृ) परन्तु अवि, पि, वि. अ. (अपि) नरक निरय, नरय पुं. (नरक) किंतु अ. (किन्तु) नहीं तो, वरना अन्नह-अन्नहा अ. परम परम वि. (परम) (अन्यथा)
परलोक परलोअ, परलोग पुं. नाचना नच्चू (नृत्य)
(परलोक) नाटक नाडग, नट्ट नपुं. (नाटक- परस्त्री परदारा स्त्री. (परदारा) नाट्य)
परस्पर अणोण्ण, अण्णमण्ण वि. नाव नावा स्त्री. (नौ)
(अन्योन्य) नाश नास पुं. (नाश) . परोपकारी परोवयारि वि. (परोपकारिन्) नित्य सासय वि. (शाश्वत)
पर्याय पज्जाय पं. (पर्याय) । निदान नियाण नपुं. (निदान) पर्वत पव्वय, गिरि पुं. (पर्वत, गिरि) निर्जरा निज्जरा स्त्री. (निर्जरा) पर्षद् परिसा स्त्री. (परिषद्) निश्चल निच्चल वि. (निश्चल) पवन पवण पुं. (पवन) . नीति नाय पुं. (न्याय)
वाउ पुं. (वायु) नय पुं. (नय)
पशु पसु पुं. (पशु) नीइ स्त्री. (नीति)
पश्चाताप पच्छायाव पुं. (पश्चाताप) नीतिशास्त्र नीइसत्य नपुं. पहला पुरं-पुरा अ. (पुरस्-पुरा) (नीतिशास्त्र)
पुन, पढम वि. (प्रथम) . सां (नेत्र) नेत्र नेत्त पुं. नपुं. (नेत्र)
प्रहर जाम, पहर पुं. (याम, प्रहर) नेमि (जिनेश्वर) नेमि पुं. (नेमि) पाठशाला पाठशाला स्त्री. (पाठशाला) नैमित्तिक नेमित्तिअ वि. (नैमित्तिक) पानी जल नपुं. (जल) न्याय नाय पुं. (न्याय)
वारि नपुं. (वारि) न्यायमार्ग नायमग्ग पुं. (न्यायमार्ग) उदग-दग नपुं. (उदक)
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पाप पाव नपुं. (पाप)
प्रद्युम्न पज्जुण्ण पुं. (प्रद्युम्न) दुरिअ नपुं. (दुरित) पाप प्रभावः पहाव पुं. (प्रभाव) पापा पाव पु. (पाप)
- प्रभात पच्चूस-ह पुं. (प्रत्यूष) प्रे. (रक्षय, पालय)
प्रभात में पए अ. (प्रगे) पालन करनेवाला पालग वि. (पालक) पालन किया जाता पालिज्जंत
प्रभु पहु पुं. (प्रभु) कर्म . वर्त. (पाल्यमान)
प्रमाद पमाय पुं. (प्रमाद) पिता पिअर, पिउ पुं. (पितृ) - प्रयोग पओग पुं. (प्रयोग)
जणअ पुं. (जनक) प्रश्न पण्ह पुं. (प्रश्न) पुत्र पुत्त पुं. (पुत्र) सुअ पुं. (सुत) । प्राण पाण पुं. नपुं. बहुव. (प्राण) पुरुष पुरिस पुं. (पुरुष)
प्राणान्ते जीवियंत पुं. (जीवितान्त) माणव पुं. (मानव)
प्राणी पाणि पुं. (प्राणिन्) जण पुं. (जन)
जंतु पुं. (जन्तु) पुष्प पुष्फ नपुं. (पुष्प) पुस्तक पुत्थय, पोत्थय पुं. नपुं. प्राप
न प्राप्ति पत्ति स्त्री. (प्राप्ति) (पुस्तक) -
प्रिय पिय वि. (प्रिय) ___गंथ पुं. (ग्रन्थ)
प्रीति पीइ स्त्री. (प्रीति) पूजन अच्चण नपुं. (अर्चन) पूरा सयल वि. (सकल)
फ पृथ्वी पुढवी, पुहवी स्त्री. (पृथिवी) फल फल नपुं. (फल)
पिच्छी स्त्री. (पृथ्वी) फोकट, व्यर्थ मुहा अ. (मुधा), पेड़ वच्छ पुं. (वृक्ष)
मोरउल्ला अ. (दे.) तरु पुं. (तरु) प्रकाश पयास पुं. (प्रकाश) प्रकाशना पयासग वि. (प्रकाशक)
बगीचा उज्जाण नपुं. (उद्यान) प्रजा पया स्त्री. (प्रजा)
बन्दर कवि पुं. (कपि)
बन्धन बंधण नपुं. (बन्धन) प्रतिमा पडिमा स्त्री. (प्रतिमा)
बन्धु बंधु पुं. (बन्धु) प्रतिक्रमण पडिवकमण नपुं .
बहन बहिणी, भगिणी स्त्री. (भगिनी) (प्रतिक्रमण)
बहरा बहिर वि. (बधिर)
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बहुत बहु, बहुअ वि. (बहु) भूल खलिअ नपुं. (स्खलित) अईव अ. (अतीव)
भोग भोग पुं. नपुं. (भोग) बहू बहू स्त्री. (वधू)
भोजन भोयण नपुं. (भोजन) बाद में पच्छा अ. (पश्चात्) बरसना वरिस (वर्ष) बारिस वरिस, वास पुं. नपुं. (वर्ष) मकान पासाअ पुं. (प्रासाद) बादल मेह पुं. (मेघ)
घर नपुं. (गृह) बालक बाल पुं. (बाल)
मंगल मंगल नपुं. (मङ्गल) बाहर बाहि, बाहिर अ. (बहिस्) मछली मच्छ पुं. (मत्स्य) बिना विणा अ. (विना)
मदद साहज्ज, साहेज्ज बुद्धि बुद्धि स्त्री. (बुद्धि)
नपुं. (साहाय्य) बुद्धिशाली मइमंत वि. (मतिमत्)
मंदिर मंदिर नपुं. (मन्दिर) बोधि, बोहि स्त्री. (बोधि)
चेइअ, चइत्त नपुं. (चैत्य) ब्रह्मचर्य बम्हचेर, बम्हचरिअ, मधु महु नपुं. (मधु) बंभचेर नपुं. (ब्रह्मचर्य)
मध्य मज्झ नपुं. (मध्य) ब्राह्मण माहण, बंभण पुं. (ब्रह्मन्)
मनुष्य जण पु. (जन) मणूस पुं. (मनुष्य) विराजित विराजिअ कर्म भू. (विराजित)
मन्त्र मंत पुं. नपुं. (मन्त्र) मन्त्री मांत पुं. (मन्त्रिन्) मरण, मोत, मृत्यु मरण नपुं. (मरण)
मर्यादा मज्जाया स्त्री. (मर्यादा) भगवान भगवंत, भयवंत
मस्तक मत्थय नपुं. (शिरस्) पुं. (भगवत्)
सिर नपुं. (शिरस) भगवती अंग भगवई-अंग
सीस पुं. नपुं. (शीर्ष) नपुं. (भगवती-अङ्ग)
महात्मा महप्प पुं. (महात्मन्) भ्रमर भसल, भमर पुं. (भ्रमर) भौंरा
महामन्त्री महामंति पुं. (महामन्त्रिन्) भय भय नपुं. (भय)
महोत्सव महोच्छव, महूसव, महोसव भरतक्षेत्र भरहखेत नपुं. (भरतक्षेत्र)
पुं. (महोत्सव) भव्यजीव भव्यजीव पुं. (भव्यजीव) माता मायरा माउ स्त्री (मात) भाई भायर, भाउ पुं. (भ्रातृ)
मान माण पुं. (मान) भाव भाव पुं. (भाव)
मानना मन्नू (मन्य) भिक्षु भिक्खु पुं. (भिक्षु)
माया माया स्त्री. (माया) २८३
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मारा हआ हय कर्म. भू. (हत) मार्ग मग्ग पुं. (मार्ग) माला माला स्त्री. (माला) - मांस मास, मंस नपुं. (मांस) मित्र मित्त पुं. नपुं. (मित्र) मिथ्या मिच्छा अ. मुक्त मुक्क, मुत्त वि. (मुक्त) .. मुख मुह नपुं. (मुख) मूक, गूंगा मूग, मूअ वि. (मूक) ( मुंझाया हुआ घबराया हुआ,
विहलिअ,विहल वि.(विह्वलित ( विह्वल) मुनि मुणि पुं. (मुनि) मुसाफिर पहिअ पुं. (पथिक) मूर्ख मुक्ख, मुरुक्ख पुं. (मूर्ख) मृत्यु मच्चु पुं. (मृत्यु) मेघ मेह पुं. (मेघ) मेरुपर्वत मेरु पुं. (मेरु) मंदर पुं. (मन्दर) मोक्ष मोक्ख , मुक्ख पुं. (मोक्ष) मोक्षपद मोक्खपय नपुं. (मोक्षपद) मोर मोर पुं. (मयूर)
रक्षण रक्खण नपुं. (रक्षण) रहना वसण नपुं. (वसन) रहित रहिअ वि. (रहित)
विरहिअ वि. (विरहित) राक्षस रक्खस पुं. (राक्षस) राख, भस्म भप्प, भस्म, पुं. नपुं. (भस्मन्) राग राग पुं. (राग) राजा नरिंद, नरेंद (नरेन्द्र)
निवइ पुं. (नृपति) राज्य रज्ज नपुं. (राज्य) रानी महिसी स्त्री. (महिषी) रात्रि राइ, रत्ति स्त्री. (रात्रि) रिद्धि रिद्धि, इड्डि स्त्री. (ऋद्धि)
समिद्धि, सामिद्धि स्त्री. (समृद्धि) रीछ रिच्छ, रिक्ख पुं. (ऋक्ष) रुक्मिणी रुप्पिणी स्त्री. (रुक्मिणी) रोगी रुक्क, रुग्ग वि. (रुग्ण)
य यतिधर्म जइधम्म पुं. (यतिधर्म) यन्त्र जंत नपुं. (यन्त्र) यहाँ अत्थ, एत्थ अ. (अत्र) युद्ध जुद्ध नपुं. (युद्ध) युवानी जोवण नपं. (यौवन) योगी जोगि पुं. (योगिन्) योद्धा, सैनिक भड पुं. (भट) __ वीर पुं. (वीर)
लक्षण लक्खण नपुं. (लक्षण) लक्ष्मण लक्खण पुं. (लक्ष्मण) लक्ष्मी लच्छी स्त्री. (लक्ष्मी) लड़का बाल पुं. (बाल) लड़की बाला स्त्री. (बाला) लता लया स्त्री. (लता) लेख लेह पुं. (लेख) लोक लोग, लोअ पुं. (लोक)
जण पुं. (जन)
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लोभ लोह पुं. (लोभ)
विधाता धायार, धाउ पुं. (विधातृ) लोभी लोद्धअ पुं. (लुब्धक) विधि विहि पुं. (विधि)
विनय विणय पुं. (विनय) . व
विपरीत विवरीअ, विवरिअ वि. वक्त समय पुं. (समय)
(विपरीत) काल पुं. (काल)
विमान विमाण पुं. नपुं. (विमान) वगैरह आइ पुं. (आदि)
वियोग विओग पं. (वियोग) वचन वयण पुं. नपुं. (वचन) विरुद्ध विरुद्ध वि. (विरुद्ध) वडील, बड़ा गुरु, गुरुअ वि. (गुरु) वन रण्ण, अरण्ण नपुं. (अरण्य) विष विस पं नपं. (विष) वण नपुं. (वन)
विह्वल विब्भल, विहल वि. (विह्वल) वनस्पति वणस्सइ, वणप्फइ स्त्री. वीतराग वीयराग पुं. (वीतराग) (वनस्पति)
वीर वीर पुं. (वीर) वर्ष वरिस, वास पुं. नपुं. (वर्ष)
वृद्धावस्था वुड्ढत्तण नपुं. (वृद्धत्व) वर्षधर वासहर पुं. (वर्षधर) वेदना वेयणा, वियणा स्त्री. (वेदना) वसन्त ऋतु वसंत पुं. (वसंत)
वेश्या वेसा स्त्री. (वेश्या) वसंतरिउ स्त्री. (वसन्त-ऋतु) वैद्य वेज्ज पुं. (वैद्य) वसति वसहि, वसइ स्त्री. (वसति) वैयावच्च वेआवच्च नपुं. (वैयावृत्त्य) वस्त्र वत्थ नपुं. (वस्त्र)
वैराग्य वेरग्ग पुं. (वैराग्य) वही सच्चिअ, तं चिय अ. (स एव, वैसा तारिस वि. (तादृश) तदेव)
व्याकरण वागरण, वायरण, वारण वहाँ तहिं, तहि, तह, तत्थ अ. (तत्र)
नपुं. (व्याकरण) वाघ वग्घ पुं. (व्याघ्र)
व्याख्यान वक्खाण नपुं. (व्याख्यान) वाचाल मुहर वि. (मुखर)
व्याधि वाहि पुं. (व्याधि) वाणी वाणी स्त्री. (वाणी)
व्यापार वावार पुं. (व्यापार) वाया स्त्री. (वाच्-वाचा)
व्रत वय पुं. नपुं. (व्रत) वात्सल्य वच्छल्ल नपुं. (वात्सल्य) वासुदेव वासुदेव पुं. (वासुदेव) विद्याधर विज्जाहर पुं. (विद्याधर) विद्यार्थी विज्जस्थि पं (विद्यार्थिनी- शत्रु सत्तु पु. (शत्रु) विद्वान विउस वि. (विद्वस्)
. रिउ पुं. (रिपु) शब्द सद्द पुं. (शब्द)
.
.
-
२८५
LR
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________________
शयन सज्जा, सेज्जा स्त्री. (शय्या) सब सयल वि. (सकल) शरण सरण नपुं. (शरण)
सव्व वि. (सर्व) शरीर सरीर नपुं. (शरीर).. - सब से बड़ा जेट्ट, जिट्ठ वि. (ज्येष्ठ) देह पुं. नपुं. (देह)
सभा सहा स्त्री. (सभा) शस्त्र सत्य नपुं. (शस्त्र)
समर्थ समत्थ वि. (समर्थ) शान्ति (जिन) संति स्त्री. (शान्ति) समवसरण समोसरण, समवसरण शिखर सिहर नपुं. (शिखर) .. नपुं. (समवसरण) शिष्य सीस पुं. (शिष्य)
समाधि समाहि स्त्री. (समाधि) शील सील नपुं. (शील)
समान समाण वि. (समान), शुभकर्म सुह नपुं. (शुभ)
सरिस वि. (सदृश). श्मशान सुसाण, मसाण नपुं. सरिच्छ, सरिक्ख वि. (सदृक्ष) (श्मशान)
समुदाय विंद, बुंद पुं. (वृन्द) श्रद्धा सद्धा, सड्ढा स्त्री. (श्रद्धा) वग्ग पुं. (वर्ग) श्रवण सवण नपुं. (श्रवण) समुद्र समुद्द पुं. (समुद्र) सुनना
सागर पुं. (सागर) श्रावक सावग पुं. (श्रावक) सम्यक्त्व सम्मत्त नपुं. (सम्यक्त्व) श्रेष्ठ मह, महंत वि. (महत्)
दंसण नपुं. (दर्शन)
सरस्वती सरस्सई स्त्री. (सरस्वती) स
सरोवर सर पुं. नपुं. (सरस्) संघ संघ पुं. (सङ्घ)
सर्प सप्प पं. (सर्प) संतोष संतोस पुं. (सन्तोष)
सर्वज्ञ सवण्णु वि. (सर्वज्ञ) संयम संजम पुं. (संयम)
सर्वत्र, सब जगह सव्वत्थ, सवहि, संसार संसार पुं. (संसार)
सव्वह अ. (सर्वत्र) संसारचक्र संसारचवक नपं सहेली, सखी, सही स्त्री (सखी) (संसारचक्र)
साक्षात् पच्चक्ख वि. (प्रत्यक्ष) सज्जन सज्जण पुं. (सज्जन)
सक्खं अ. (साक्षात्) सत्य सच्च नपुं. (सत्य)
साथ में सह अ. (सह) सत्यमार्ग सच्चमग्ग पुं. (सत्यमार्ग) . सद्धिं अ. (सार्धम्) सत्यवादी सच्चवय वि. (सत्यवद) साधर्मिक साहम्मिअ वि. (साधर्मिक) सफल सहल, सभल वि. (सफल) साधु साहु पुं. (साधु)
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( भिक्खु पुं. (भिक्षु)
सुविण पुं. नपुं. (स्वप्न) जइ पुं. (यति)
स्वर्ग सग्ग पं. (स्वर्ग) ( समण पुं. (श्रमण)
स्वाध्याय सज्झाय पुं. (स्वाध्याय) सिंह सिंघ, सीह पुं. (सिंह) स्वामी सामि पुं. (स्वामिन्) सिद्ध सिद्ध पुं. (सिद्ध) सिद्धराज सिद्धराय पुं. (सिद्धराज) सिद्धहेम सिद्धहेम नपुं. (सिद्धहेम) हमेशा सइ, सया अ. (सदा) सिद्धाचल सेत्तुंज पुं. शत्रुअय हमारे जैसा अम्हारिस सर्व
सिद्धगिरि पुं. (सिद्धगिरि) (अस्मादृश) सिवा विणा अ. विना
हरण करना हरण नपुं. (हरण) सुन्दर सोहण वि. (शोभन)
हल्का लहु, लहुअ वि. (लघु) मणोज्ज-मणोण्ण वि. (मनोज्ञ)
तुच्छ वि. (तुच्छ) सुवर्ण सुवण्ण नपुं. (सुवर्ण)
हाथ हत्थ पुं. (हस्त) सुख सुह नपुं. (सुख)
हाथी हत्थि पुं. (हस्तिन्) सुखपूर्वक सुहेण तृ. एकव. (सुखेन) हार, माला हार पं. (हार) सुखी सुहि वि. (सुखिन्)
हित हिअ वि. (हित) सुनकर सुणिऊण संबं . भू. (श्रुत्वा) हृदय हिअय, हिअ नपुं. (हृदय) सूत्र सुत्त नपुं. (सूत्र)
हेमचंद्रसूरि हेमचन्द्रसूरि पुं. सुअ नपुं. (श्रुत)
(हेमचन्द्रसूरिन्) सत्थ नपुं. (शास्त्र)
होशियार, प्रवीण अहिण्णु वि. (अभिज्ञ) सेना सेणा स्त्री. (सेना)
निउण वि. (निपुण) सेवा सेवा स्त्री. (सेवा) सोनी सुवण्णगार पुं. (सुवर्णकार) सोना हेम नपुं. (हेमन्) स्तुति थुइ स्त्री (स्तुति) स्त्री इत्थी, थी स्त्री. (स्त्री) स्तोत्र थोत्त नपुं. (स्तोत्र) स्थिर थिर वि. (स्थिर) स्नेह नेह, सिणेह पुं. (स्नेह) स्वप्न सिमिण, सिविण, सुमिण,
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हिन्दी-प्राकृत धातुकोष
अ
... --- अब्भस् (अभ्यस्) अभ्यास करना अइक्कम् (अति + क्रम्) उल्लंघन सीखना करना
अब्भुद्धर् (अभि + उद् + धृ) उद्धार अइ + चर् (अति + चर) अतिचार करना। लगाना
. अभि + नंद् (अभि + नंद) प्रशंसा अइ + वाय् (अति + पात्) जीवहिंसा करना करनी
अभि + निक्खम् (अभि + निष् + क्रम्) अई-णी (गम्) जाना
संयम के लिए घर से निकलना अक्कम् (आ + क्रम्) दबाना, आक्रमण
अभि + सिंच (अभि + सिञ्च) अभिषेक
करना करना
अरिह (अर्ह) लायक होना, योग्य होना, अग्घ् (अर्घ) आदर करना, सम्मान
पूजा करना करना, किम्मत करना
अल्ली (आ + ली) आश्रय करना, अग्घ् (राज्) शोभा देना
आलिंगन करना, प्रवेश करना अच्च् (अर्च) पूजा करना
अव + गण (अव + गण) अनादर अच्छ् (आस्) बैठना
करना, अपमान करना अड्-अट्-(अट) अटन करना, अव + ने (अप + नी) दूर करना भटकना
अव + मन्न (अव + मन्य) अवज्ञा अणु + जाण् (अनु + ज्ञा) अनुमति करनी, अपमान करना देना, सम्मति देना
अव + लंब् (अव + लम्ब) आश्रय अणु + भव् (अनु + भू = भव्) जानना, लेना, सहारा लेना अनुभव करना
अविक्ख्-अवेक्ख् (अप + ईक्ष) अपेक्षा अणु + या-अणु + जा (अनु + या) रखनी, परवाह करना, इच्छा करनी अनुसरना
अवे (अव + इ) जानना अणु + सर (अनु + सर्) अनुसरना अवे (अप + इ) दूर होना, पीछे हटना अणु + सास् (अनु + शास) सीख अस् (अस्) होना। देना, उपदेश देना, आज्ञा करना, अहिज्ज् (अधि + इ) पढ़ना, अभ्यास शिक्षा करना
करना । अप्प्-पणाम् (अर्पय्) अर्पण करना, भेंट
अहि + लस् (अभि + लष्) इच्छा
करनी देना
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ॐ
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आ
उज्जम् (उद् + यम्) उद्यम करना, आइक्ख (आ + चक्ष) कहना, उपदेश प्रयत्न करना देना, समझाना
उज्झ् (उज्झ) त्याग करना, छोड़ना आइग्घ (आ + घ्रा) सूंघना
उट्ठ-उट्ठा (उत् + स्था.) उठना आ + गच्छ (आ + गम्) आना
उड्डे (उद् + डी) उड़ना आढा-आदर (आ + द) आदर करना. उदे (उद् + इ) उदय पाना मानना
उद्दाल-अच्छिंद् (आ + छिद्) छीन आ + णे (आ + नी) लाना
लेना आ + दिस (आ + दिश) आदेश उद्धर (उद् + धृ) उद्धार करना करना, फरमाना
उन्नाम्-उल्लाल् (उद् + नामय्) ऊँचा आ + भोय् (आ + भोगय) देखना, करना, ऊपर घुमाना विचारना, जानना
उप्पज्ज् (उत् + पद्य) उत्पन्न होना आ + रंभ-आरभ-आढव् (आ + रभ)
उम्मूल् (उद् + मूलय) मूल से प्रारम्भ करना, शुरू करना
उखेड़ना, उखेड़ना आ + राह (आ + राध) आराधना उल्लंघ् (उद् + लङ्घ) उल्लंघन करना, सेवा करना ।
करना आ + लोय् (आ + लोक्) देखना, उवज्ज् (उत्पद्य) उत्पन्न होना विलोकन करना
उव + दंस् (उप + दर्शय) दिखाना आ + लोय (आ + लोच) आलोचना उव + दिश् (उप + दिश) उपदेश करना, दिखाना, विचार करना
देना आ + सास् (आ + श्वासय्) आश्वासन
उव + भुंज् (उप + भुअ) उपभोग देना, सान्त्वन करना
करना, काम में लाना आ + हर् (आ + हृ) आहार करना
उव + यर् (उप + कृ) उपकार करना, उव + वज्ज् (उप + पद्य) उत्पन्न होना
उव + सम् (उप + शम्) शांत होना इच्छ (इष्-इच्छ) इच्छा करना , चाहना
उवह (उद् + वह) पालन करना, धारण करना, उठाना
उविव् (उद् + विज) उद्वेग करना, उंघ (नि + द्रा) निद्रा, सोना उग्घाड् (उद् + घाटय) खोलना उवे (उप + इ) पास में जाना
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________________
ए
ए (इ) जाना, पाना
ए (आ + इ) आना एस् ( आ + इष्) खोजना, की खोज करना
शुद्ध भिक्षा
ओ
ओंघ् (नि + द्रा) सोना, नींद करना
क
कंख्-मह् (काड्क्ष्) चाहना कंप् (कम्प) काँपना, हिलना कढ् (क्वथ्) उबालना, तपाना कप्प् (क्लृप्) समर्थ होना, करना, छेदना
.कर् (कृ) करना
करिस्-कड्ढ्-(कृष्) खींचना, निकालना
कह (कथ्) कहना
किण् (क्री) खरीदना
कल्पना
ख
खंड् (खण्डय्) तोड़ना, टुकड़ा करना, विच्छेद करना
खण् (खन्) खोदना
खम् (क्षम्) क्षमा करना, माफी मांगना,
कीड्- कील (क्रीड) क्रीड़ा करनी कुज्झ (क्रुध् - क्रुध्य) क्रोध करना कुण् (कृ) करना
कुप्प् (कुप्-कुप्य) कोप करना
कुव्व् (कृ-कुर्व्) करना, बनाना
सहन करना
खल् (स्खल्) रोकना, अटकाना, गिरना, भूलना, टपकना
खा-खाय् (खाद्) भोजन करना, खाना, जीना
खिंस् (खिंस्) बुराई करना, गर्हा करना खिज्ज् (खिद्) अफसोस करना, खेद
करना
खिव् (क्षिप्) फेंकना
खुभ्- खुब्म् (शुभ) क्षोभ पाना, डरना
घबराना
ग
गंठ-गंथ् (ग्रन्थ्) गूँथना, रचना, बनाना
किम्म् (क्लम्) खिन्न होना, क्लान्त गच्छ् (गम्) गमन करना, जाना
होना
गण् (गण्) गिनना, आदर करना गम् (गमय्) ले जाना, गुजारना, पसार करना, व्यतीत करना गरिह् (गर्ह) निंदा करना, घृणा करना गल् (गल्) गलना, सड़ना, समाप्त होना
गवेस् ( गवेषय्) गवेषणा करना, खोजना गह (ग्रह) ग्रहण करना, लेना, जानना गा (गै) गाना,
आलापना
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गिज्झ् (गृध-गृध्य) आसक्त होना, लंपट चिण् (चि) इकट्ठा करना
होना
गिण्ह् (ग्रह) ग्रहण करना गिला (ग्लै) ग्लानि पाना, खिन्न टोना
मुरझाना.
घ
घोट्ट् (पा) पीना, पान करना
च
चक्कम्म् (भ्रम्) घूमना, भटकना, भ्रमण करना
चक्ख् ( आ + स्वाद् ) स्वाद लेना
चखना
करना, इलाज करना
चिंत्-परि + चिंत् (चिन्त्) चिन्ता करना, विचार करना
चिट्ट् (स्था + तिष्ठ्) बैठना, स्थिति
करना
चुक्क्-भुल्ल् (भ्रंश) चूकना, भूल करना, भ्रष्ट होना, रहित होना
चोप्पड्-मक्ख् (म्रक्ष) स्निग्ध करना, घी-तैल लगाना
चोर् (चोरय्) चोरी करना
छ
छड्ड् (मुच्) वमन करना, छोड़ना, त्याग करना
छज्ज् (राज्) शोभना, चमकना छिंद् (छिद्) छेदना छिव्- छिह (स्पृश्) स्पर्श करना, छूना
ज
चड्-आ-रोह् (आ + रूह ) चढ़ना, ऊपर बैठना, आरूढ़ होना चय् (त्यज्) त्याग करना चय्-तर्-सक्क् (शक्) समर्थ होना चर् (चर्) गमन करना, चलना, जाना, भक्षण करना, सेवना चल्-चल्ल् (चल्) चलना, गमन करना चव् (च्यु) मरना, जन्मान्तर में जाना चव् (कथ) कहेना बोलना
जंप् (कथ्, जल्प) कहना, बोलना जग्ग्-जागर् (जागृ) जागना, नींद से उठना
जण् (जनय्) उत्पन्न करना, पैदा
करना
जम्म् (जन्) उत्पन्न होना जय् (जि-जय्) जय पाना, जीतना चिइच्छ्-चिगिच्छ् (चिकित्स) दवा जय् (यत्) यत्न करना, मेहनत करना जर (ज) जीर्ण होना, पुराना होना, बूढ़ा होना
जव् (जप) जाप करना जा (जन्) उत्पन्न होना
जा (या) जाना, गमन करना जाण्- मुण् (ज्ञा) जानना
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जाय् (याच्) प्रार्थना करनी, मांगना जाव्- जव् (यापय्) गमन करना, गुजारना, शरीर का परिपालन करना जिण् (जि) जीतना
जिव् (जीव) जीना, प्राण धारण करना जीव् (जीव) जीना, प्राण धारण करना जीह (लज्ज्) शर्मिन्दा होना,
लज्जा
करना, शरमाना
जुंज्-जुज्झ् (युञ्ज्-युज्य) लड़ना, युद्ध
करना
जे (जि) जीतना, जय पाना जेम् (भुञ्ज्) भोजन करना जोय् (दृश्) देखना जोय् (द्योत्) प्रकाशना
झ
झड् (शद्) सड़ना, गिरना,
झपट मारना
झर् (क्षर्) झरना, टपकना झा (ध्यै) ध्यान करना
टपकना
ठ
ठव् ( स्थापय्) स्थापना करना ठा (स्था) खड़ा रहना
ड
डर्-तस् (त्रस्) डरना, भयभीत होना डंस्-डस् (दंश्) डसना, काटना डह (दह्) जलाना, दग्ध करना डे (डी) उड़ना
ढ
ढक्क्-छाय् (छादय्) ढकना ढिक्क् (गर्ज) सांड का गरजना
ण
णज्ज् (ज्ञा) जानना मिज्ज्-णुमज्ज् (नि + मज्ज्) डूबना णे (नी) ले जाना णी-णीण् (गम्) जाना, गमन करना
हव् (ण्हु) छुपाना
हा (स्ना) स्नान करना, नहाना त तच्छ्-छोल्ल् (तक्ष) छीलना, काटना तण् तड्ड् (तन्) विस्तार करना, बिछाना.
तर् (तृ) तरना
तव् (तप्) तपना
ताड्-ताल् (ताडय्) ताड़न करना, पीटना
तुड्-तुट्ट् (त्रुट्-तुड) टूटना, अलग होना
तुवर् (त्वर्) त्वरा करना, शीघ्रता करना तूस् - तुस्स् (तुष्-तुष्य) संतोष पाना, खुश होना
थ
थक्क (स्था) रहना, बैठना, स्थिर
होना
थुण (स्तु) स्तुति करनी
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न दंड् (दण्डय) शिक्षा करनी, सजा नच्च् (नृत्-नृत्य) नाचना करना, निग्रह करना
नम्-नन् (नम्) नमन करना, नमस्कार दंस् (दंश्) डसना
करना दक्ख-दच्छ (दृश) देखना
नज्झ् (नह्य) बांधना दम् (दम्) दमन करना, निग्रह करना नट्ट (नट) नाचना. दरिस् (दृश्-दर्श) देखना
नस्स्-नास् नश् (नश्य) नष्ट होना दा-दे (दा) दान देना
नास-पलात्-नास् (नाशय) पलायन दा, दे (दा) दान देना, देना होना, भागना, नष्ट करना दाव्-दंस्-दक्ख-दरिस् (दर्शय) निअ-निअच्छ् (दृश्) देखना दिखाना, बताना
निंद् (निन्द्) बुराई करना दित्त (ददत्) देता हुआ
निगिण्ह-निग्गह (नि + ग्रह) पकड़ना दिप्प् (दीप) चमकना, तेज होना निग्रह करना, शिक्षा करना, अटकाना दुगुच्छ्-दुगुंछ-जुगुच्छ्र (जुगुप्स्) घृणा निज्जर् (नि + ) क्षय करना , नष्ट करना, निंदा करनी।
करना, कर्म का क्षय करना दुह-दोह् (दुह) दोहना
निज्झर् (क्षि) क्षीण होना दूम् (दू-दाव) दुःख देना, संताप निण्हव् (नि + हनु) अपलाप करना उत्पन्न करना
छुपाना दूस्-दुस्स् (दुष्-दुष्य) दोषित करना निद्दा (नि + द्रा) निद्रा लेना, नींद देख् (दृश्) देखना
करना
निप्पज्ज्-निप्फज्ज् (निष्पद्य) निपजना, ध
सिद्ध होना धर् (धृ) धारण करना, पकड़ना निम्माण निम्मन् (निर् + मा) बनाना, धरिस् (धृष्) प्रगल्भता करना, ढिठाई रचना करना, एकत्र होना
नि + वड् (नि + पत्) नीचे गिरना धा (धा) धारण करना
निवर्ट्स-निअट् (नि + वृत्) पीछे धा-धाय्-धात् (धाव्) दौड़ना, शुद्ध फिरना करना, धोना
निविज्ज् (निर् + विद्य) निर्वेद पाना , धुण-धुव् (धू) कँपाना, फेंकना
विरक्त होना नीसर्-निस्सर-निहर-नीहर् (निस् + सर) निकलना
-
-२९३
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नीसस्-निस्सस्-झंख् (निर् + श्वस्) प+ माय (प्र + मद्-माद्) प्रमाद करना, निश्वास लेना, श्वास को नीचा करना भूलना नीसार-निस्सार (निर् + सारय) बाहर पम्हस् (वि + स्मृ) भूलना, विस्मरण निकलना
करना ने (नी) ले जाना
पय् (पच्) पकाना, पाक करना पया (प्र + जनय) जन्म देना, उत्पन्न
करना पउस्स्-पउस् (प्र + द्विष) द्वेष करना प + यास् (प्र + काश्) चमकाना, पक्खिद् (प्र + क्षिप) डालना
प्रकाशित करना पज्जुवास (पर्युपास) सेवा-भक्ति करनी परावट् (परा + वृत्) आवृत्ति करना, पट्टव-पट्ठाव (प्र + स्थापय) भेजना, (बदलना, पलटना) परिवर्तन होना प्रस्थान करना, प्रारम्भ करना
- परिआल् (वेष्टय) लपेटना , वेष्टन करना पड् (पत्) गिरना, पतित होना परिक्ख्-परिच्छ (परि + ईक्ष) परीक्षा पटक पनि कम नवन टोना पडिक्कम् (प्रति + क्रम्) निवृत्त होना,
करना, परखना ...' पीछे हटना
परिचय-परिच्चय् (परि + त्यज्) पडिवज्ज (प्रति + पद्य) स्वीकार परित्याग करना करना, अंगीकार करना
परिचिंत् (परि + चिन्तय) चिन्तन करना । पद् (पठ) पढ़ना, अभ्यास करना परि + तप्प् (परि + तप्य) पश्चाताप पण्णव्-पन्न (प्र + ज्ञापय) प्ररूपणा करना, संतप्त होना, गरम होना करनी, उपदेश देना
परि + देव (परि + देव) विलाप करना पत्ति-पत्तिअ (प्रति + इ) विश्वास करना, परि + निव्वा (परि + निर् + वा) आश्रय करना
शान्त होना, सर्व कर्म रहित होना पत्तिआव् (प्रति + आयय) विश्वास परिबय् (परि + व्रज्) दीक्षा लेनी कराना, प्रतीति कराना
परिहर् (परि + हृ) त्याग करना पत्थ्-पच्छ (प्र + अर्थय) प्रार्थना करना परि + हा-परि + धा (परि + धा) प + भाव (प्र + भावय) प्रभावना करनी पहनना, धारण करना प + मज्ज् (प्र + मृज्) मार्जन करना पलान् (नाशय) भगाना, नष्ट करना साफ-सुथरा करना . पलोट् (प्र + लुट्) लोटना, करवट पमज्ज् (प्र + माद्य) प्रमाद करना लेना भूलना
पलोट्ट-पलट्-पल्हत्थ् (पर्यस्)
फेंकना, पलटना, विपरीत होना ... -२९४ -
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प + वज्ज् (प्र + पद्य) स्वीकार करना प + वट्ट्-प + यट्ट् (प्र + वृत्) प्रवृत्ति करनी
प + विस् (प्र + विश्) प्रवेश करना पव्वय् (प्र + व्रज्) प्रव्रज्या लेनी, दीक्षा लेनी
पव्वाव ( प्र + व्राजय्) दीक्षित करना, संन्यास देना
प + संस् (प्र + शंस्) प्रशंसा करना, श्लाघा करना
पूस् - पुस्स (पुष्- पुष्य) पोषण करना पेक्ख्-पिक्ख् - पेच्छ् (प्र + ईक्ष) देखना
फ
फाड्-फाल (पाटय्) फाड़ना, चीरना फास्-फरिस् (स्पृश्) स्पर्श करना फुट्ट फुड् (स्फुट्-भ्रंश) फूटना, टूटना, विकसना, खिलना
फेड् (स्फेटय्) विनाश करना, दूर
प + सम् (प्र + शम्) अत्यंत शान्ति करना प्रशान्ति
प + सव् (प्र + सू) जन्म देना, प्रसव
करना, उत्पन्न करना
प्रहर् ( प्र + ह) प्रहार करना पहुप्प् ( प्र + भू) समर्थ होना पा (पा) पीना, पान करना पाउब्भव् (प्रादुस् + भू) प्रकट होना पाल् (पालय्) पालन करना पालाव् प्रे. (पालय् ) पालन कराना. पाव् (प्र + आप ) प्राप्त करना पास-पस्स् (दृश्, पश्य) देखना पिव-पिज्ज् (पा-पिब) पीना पीड़-पील् (पीड) हैरान करना, दबाना, दुःख देना
पीण् (प्रीण्) खुश करना, प्रेम उपजाना पुच्छ् (पृच्छ) पूछना पुण् (पू) पवित्र करना पुलोअ-पुलअ (दृश्) देखना
ब
बंध् (बन्धु) बाँधना, नियंत्रण करना बव्-बुव् (ब्रू) बोलना, कहना बहुमाण् (बहुमानय्) सम्मान करना बाह (बाध) विरोध करना, रोकना, पीड़ा करना
बीह (भी) डरना, भय पाना बुक्क् (गर्ज) गरजना, गर्जना करना बुज्झ (बुध-बुध्य) जानना, समझना बुड्ड् (मस्ज्) डूबना
बुहुक्ख् (बुभुक्ष) खाने की इच्छा करना बोल्ल् (कथ्) बोलना
बोह (बोध) जानना, समझना, ज्ञान
करना
भ
पूज्-पूय्- (पूजय्) पूजा करना
भंज् (भञ्ज्) भाँगना, तोड़ना
पूर् (पूरय्) पूर्ण करना, भरना, पूर्ति भज्ज् (भ्रस्ज्) पकाना,
भूनना
करना
भण् (भण) कहना, बोलना,
करना
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प्रतिपादन
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भम्-भम्म् (भ्रम्) भ्रमण करना, घूमना मुज्झ् (मुह-मुख़्) मोह करना, घबराना भर् (भृ) भरना, धारण करना मुण् (ज्ञा) जानना भव् (भू) होना, प्राप्त करना . . ---मुबहइ (उद् + वहति) वह धारण भस्-बुक्क् (भष) भूकना , श्वान का बोलना करता है । भा (भा) चमकना, दीपना, प्रकाशना मेल् (मुच्) छोड़ना भाव् (भावय) चिंतन करना भास् (भाष) कहना, बोलना भास्-भिस् (भास्) शोभना, चमकना रंज (रअ) रंग लगाना, खशी करना भिंद (भिद) भेदना, चीरना, फाड़ना रक्ख (रक्ष) रक्षण करना, पालन करना भुंज (भुअ) खाना, जीमना
रम् (रम्) क्रीड़ा करना, आनन्द भुल्ल् (भ्रंश) भूलना, गिरना, च्युत होना मानना, संभोग करना। भूस् (भूषय) सजावट करना, शोभना
रक्खाव् प्रे. (रक्षय) पालन कराना. रय (रचय) बनाना, निर्माण करना
र (रु) शब्द करना, आवाज करना मंत् (मन्त्रय) विचार करना राय-वि + राय (राज्-वि + राज) नि + मंत् (निमन्त्रय) निमंत्रण करना, शोभना, चमकना बुलाना
रुध्-रुज्झ्-रुंभ (रुध्) रोकना , मंत पुं. नपुं. (मन्त्र) मन्त्र, विचार, अटकाना गुप्त बात
रुच्च्-रोय् (रुच्) रुचना, पसन्द मग्ग् (मार्गय) मांगना, ढूंढ़ना पड़ना मज्ज-मच्च् (मद्) अभिमान करना रुक्-रोव् (रुद्) रोना, रुदन करना मन्न् (मन्-मन्य) मानना, विचारना रुह-रोह (रुह) उगना, बढ़ना, उत्पन्न मर् (म) मरना
होना, चढ़ना मरिस् (मृश्) विचारना, सोचना रुस्-रुस्स्-(रुष्-रुष्य) क्रोध करना , रोष मरिस् (मृष्) सहन करना, क्षमा देना करना माण् (मानय्) सम्मान करना, आदर रेह (राज्) शोभना, सुन्दर लगना, करना
दीपना, चमकना मिला (म्लै) म्लान होना, निस्तेज रोमन्थ, वग्गोल (रोमन्थय्) पगुराना, होना
चबाई हुई चीज को पुनः चबाना, मुंच-मुय् (मुच्-मुञ्च) छोड़ना जुगाली करना.
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ल
ववस् (व्यवृ + सो) प्रयत्न करना, लज्ज् (लस्ज्-लज्ज) शर्मिन्दा होना,
चेष्टा करना, निर्णय करना शरमाना
वस् (वस्) वास करना, रहना लव् (लप्) बोलना, कहना
वसीकुण्-वसीकर (वशी + कृ) वश में लह-लम् (लभ) प्राप्त करना
करना लिंप् (लिप) लीपना, चुपड़ना
वह (वह) ले जाना, ढोना लिह (लिह) चाटना
वागर (वि + आ + कृ) प्रतिपादन लिह-लेह (लिख) लिखना
करना, कहना लुण् (लू) काटना
वाच् (वाचय) पढ़ना, पढ़ाना लडम (लभ्य) लोभ करना, आसक्ति वाहर (वि + आ + कृ) बालना कहना करना
बुलाना. लुह (मृज) धोना, साफ करना , पोंछना
वाया (वाच्-वा) वचन, वाणी विउव्व (वि + कृ) बनाना, करना, दिव्य सामर्थ्य से उत्पन्न करना
विक्किण्-विक्के (वि + क्री) बेचना वंच (वञ्च) ठगना
विज्ज् (विद्-विद्य) होना, अस्तित्व वद् (वन्द्) वदन करना, प्रणाम करना होना वक्खाण (व्याख्यानय्) विवरण करना,
विज्झ्-विंद्य् (व्यध-विध्य) बींधना भेदना कहना, स्पष्ट समझाना
विढ (अर्ज) उपार्जन करना, प्राप्त वच्च् (व्रज) जाना
करना वर्ज़ (वर्जय) त्याग करना
विणास् (वि + नाशय) नष्ट करना, वज्जर (कथ) कहना, बोलना
क्षय करना, विध्वंस करना वट् (वृत्-वर्त) बरतना, होना,
विण्णव् (वि + ज्ञपय) विनंति करनी, आचरण करना
प्रार्थना करनी वड्ढ् (वृध्-वर्ध) बढ़ना
वियस् (वि + कस्) विकास होना वण्ण-वन्न् (वर्णय) वर्णन करना विरम् (वि + रम्) अटकना, निवृत्त वय (वद्) बोलना, कहना
होना, विराम लेना वर (वृ-व) सगाई करना, संबन्ध करना, वि + राय (वि + राज) शोभना, पसन्द करना
चमकना वरिस् (वृष) वृष्टि करनी, बरसना विलव (वि + लव) विलाप करना, वलग्ग् (आ + रुह) चढ़ना, आरोहण रोना
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विलस् (वि + लस्) विलास करना सं+ जल् (सं + ज्वल्) जलना, क्रोध विवाह (वि + वाह्य) विवाह करना करना, आक्रोश करना वि + सीय (वि + सीद) खेद करना-सं + दिस् (सं + दिश्) संदेश देना,
समाचार पहुँचाना विहर (वि + हृ) विहार करना वि + हे (वि + धा) करना, बनाना
सं + ध-सं + धा (सं + धा) जोड़ना,
सांधना, अनुसंधान करना वीसम-विस्सम (वि + श्रम्) विश्रान्ति सं+ पज्ज (सम्पद्य) प्राप्त करना। लेना
सं + प + मज्ज् (सम् + प्र + मृज) वीसर्-विस्सर (वि + स्मृ) भूल जाना साफ करना निर्मल करना वीसस् (वि + श्वस्) विश्वास करना, सं + भर्-सम्हर् (सं + स्मृ) स्मरण भरोसा करना
करना, याद करना
संहर (सं + हृ) संहार करना, अपहरण दुक्क्-भस् (भष) भसना, भोंकना
करना, विनाश करना वेढ् (वेष्ट) लपेटना, वेष्टित करना।
सक्क् (शक्) समर्थ होना वेव् (वेप) कांपना, हिलना
सड् (सद्) खिन्न होना, क्षय होना वोल (गम्) जाना, गति करना, सद्दह (श्रद् + धा) श्रद्धान करना , उल्लंघन करना, अतिक्रमण करना विश्वास करना वोल् (अति + क्रम्) उल्लंघना, सन्नाम् (आ + दृ) आदर करना अतिक्रमण करना
समाण-समान् (सम् + आप्) समाप्त वोसिर् (वि + उत् + सृज) त्याग
करना, पूरा करना
समायर् (सम् + आ + चर्) करना, करना, छोड़ना
आचरण करना समारंभ (समा + रंभ) प्रारम्भ करना,
हिंसा करना संगच्छ (सम् + गम्) मिलना, स्वीकार
सर (स) सरकना, जाना, खिसक जाना करना
सर् (स्मृ) याद करना, सोचना, सं+ चिण (सं + चि) जमा करना स्मरण करना सं + जम् (सं + यम्) संयम लेना, सलह (श्लाघ) प्रशंसा करनी प्रयत्न करना, बाँधना
सव् (शप) शाप देना , आक्रोश करना सं + जय् (सं + यत्) अच्छी प्रवृत्ति सव (स) जन्म देना करना
स
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सह (सहू) सहन करना
सोल्ल् (पच्) पकाना सह (राज) शोभा देना
सोह (शोभ) शोभना, चमकना साह (कथ) कहना
सोह (शोधय) शुद्धि करनी, गवेषणा साह (साद्य) सिद्धकरना, बनाना, करनी आधीन करना सिंच (सिञ्च) सींचना , छिड़कना
हक्क् (नि + सिध्) निषेध करना सिक्ख् (शिक्ष) सीखना, पढ़ना
हण (हन्) मारना, वध करना, काटना सिज्ज् (स्विद्) पसीना होना
हर् (हृ) हरण करना, छीनना सिज्झ् (सिध्-सिध्य) सिद्ध होना,
हरिस् (हृष्-हर्ष) खुश होना, प्रसन्न निष्पन्न होना, बनना
होना सिढिल् (शिथिलय) शिथिल करना
हव् (ह) होम करना सिणिज्झ् (स्निह्य) स्नेह करना।
हव्-भव-हुव् (भू-भव) होना सिलाह (श्लाघ्) प्रशंसा करनी, स्तुति
हस्-(हस्) हँसना करनी
हिंड् (हिण्ड्) जाना, भ्रमण करना सिलेस् (टिलष) भेटना, आलिंगन करना
हिंस् (हिंस्) हिंसा करनी सिब्ब् (सीब) सीना, सिलाई करना
हील् (हेलय) तिरस्कार करना , निन्दा सिह (स्पृह) इच्छा करना, चाहना ।
करनी, अवज्ञा करना सीस्-सिस्स् (शिष्) हिंसा करना, वध करना, शेष करना, शेष रखना , भेद
हुण् (ह) होम करना
हो (भ) होना करना सीस् (कथय) कहना सुण्-हण् (श्रु) सुनना, श्रवण करना सुमर् (स्मृ) स्मरण करना, संभालना सुव्-सोव् (स्वप्) सोना, शयन करना विश्रान्ति लेनी सुह् (सुखय्) सुखी करना सूय् (सूचय) सूचना करनी सूस्-सुस्स् (शुष्-शुष्य) सूखना सेव् (सेव् सेवा करनी सोय्-सोच् (शुच्-शोच्) शोक करना सन्ताप करना
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हिन्दी प्राकृत धातुकोष
अ ... क्षय करना निज्जर् (निर् + ज़) अनुग्रह करना अणुगिण्ह, अणुग्गह . ख अनुसरना अणु + सर (अनु + सृ) खडे रहना ठा (स्था) अपमान करना अव + मन्न (अव + -
खाना भुंज (भुअ) मन्य)
खेड़ना करिस् (कृष्)
आ
ग्रहण करना गिण्ह, गह् (ग्रह) गूंथना गंथ्, गंट् (ग्रन्थ)
आनन्द उपजाना पीण् (प्रीण) आराधना करना आ + राह (आ + राध) आवृत्ति करनी परा + वट्ट (परा + वत्) आशा रखनी अविख्, अवेक्ख् (अप + ईक्ष)
चाहना इच्छ (इष्-इछ)
छिड़कना सिंच (सिञ्च) छीनना उद्दाल् (आ + छिद्) छोड़ना मुंच (मुञ्च)
उड़ना उड्डे (उद् + डी) उद्धार करना उद्धर् (उद् + धृ) उद्यम करना उज्जम् (उद् + यम्) उपदेश देना उव + दिस् (उप + दिश्) उल्लंघना अइक्कम् (अति + क्रम्)
जानना बोह, बुज्झ् (बुध-बुध्य) जलाना डह् (दह) जीतना जिण् (जि) जीना जीव् , जिव् (जीव)
क
झुकना नम्-नव् (नम्)
कँपना कंप् (कम्प) कमाना अज्ज्, विढव् (अर्जू) करना कर्, कुण् (कृ) काटना छिंद छिद् कोप करना कुप्प् (कुप्य)
डूबना णिमज्ज्, णुमज्ज् (नि + मस्ज्)
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डसना डस्, डह् (दंश) डालना पक्खिव् ( प्र + क्षिप् )
त
तपास करना मग्ग् (मार्गय्)
तरना तर् (त)
त्याग करना चय् (त्यज्)
द
दण्ड करना दंड् (दण्डय्)
दूर करना अव + णे (अप + नी) देखना पास्, पस्स (पश्य) दे (दा)
देना दा,
न
नमन करना, नम्-नव् (नम् ) झुकना नमस्कार करना नमस् (नमस्य) नष्ट होना नस्स्, नास् (नश्य) नाश करना नास् (नाशय्) निकलना निस्सर्, नीहर् (निस्सर) निन्दा करना निंद् (निन्द्) निर्वेद पाना निविज्ज् (निर् + विद्य)
परीक्षा करनी परिक्ख्, परिच्छ् (परि + ईक्ष)
पसन्द आना रुच्च्, रोच (रुच ) प्राप्तकरना पाव् ( प्र + आप ) पार पाना पारंगच्छ् (पारङ्गच्छ)
प
पढ़ना भण्, पढ् (भण्, पठ)
पालन करना पाल् (पालय्) पालन कराना रक्खाव, पालाव प्रे.
(रक्षय्, पालय्)
पीड़ना पील्, पीड् (पीडय्)
पीना पा, पिव् (पा-पिब्)
ध
धारण करना परि + हा, परि + धा
प्रवृत्ति करनी पवट्ट, पयट्ट (प्र + वर्त्)
(परि + धा)
धिक्कार होना धिद्धी अ. (धिक्-धिक्) प्रवेश करना प + विश् (प्र + विश्) धि अ. ( धिक् )
पूछना पुच्छ् (पृच्छ)
पूजा करना अच्च् (अर्च) पैदा करना अज्ज् (अर्ज)
फ
फाड़ना फाड्, फाल् (पाटय) फेंकना खिब् (क्षिप्)
ब
बचाना रक्ख् (रक्ष) बढ़ना वड्ढ् (वर्ध) बेचना विक्किण्, विक्के (वि + क्री) बैठना उव + विस् (उप + विश) बोध पाना बुज्झ (बुंध्य) बरसना वरिस् (वर्ष)
भ
भजना, जपना, सेव् (सेव)
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भटकना भम् (भ्रम) भय पाना बीह (भी) भरना भर् (भृ-भर्) भसना भस्, बुक्क (भष) भोजन करना भुंज (भुअ)
(वि + श्रम्) विश्वास रखना वीसस्, विस्सस् (वि + श्वस्) विहार करना वि + हर् (वि + हर) वृष्टि करनी वरिस् (वर्ष)
म
ल
मारना ताड्, ताल् (ताडय) शुरू करना आ + रंभ, आरभ्, आढव् मिलना लह (लभ)
(आ + रभ्) मुाना दुविधा में पड़ना मुज्झ् (मुरा) शोधना, खोजना मग्ग् (मार्गय्)
शोभना, सुन्दर लगना सोह (शोभ)
वि + राय (वि + राज) रक्षण करना रक्ख (रक्ष)
श्रद्धा रखनी सद्दह (श्रद् + धा) रचना, बनाना रय् (रचय) रहना वस् (वस्)
स रुचना, पसन्द आना रुच्च्, रोच् संचय करना सं + चिण् (सम् + चि)
सहन करना खम् (क्षम्) सह (सह) सिद्ध होना सिज्झ् (सिध्य)
सुनना सुण (श्रु) लज्जा आना लज्ज् (लज्ज)
सूंघना आइग्घ (आ + घ्रा) लड़ना जुज्झ् (युद्य्-युध्य)
सूखना सूस्, सुस्स् (शुष्य) लाना आ + णे (आ + नी)
स्तुति करनी थुण् (स्तु) ले जाना ने (नी) लोटना, लेटना पलोट्ट (प्र + लुट)
हनना, कत्ल करना हण् (हन्)
हुक्म करना आ + दिस् (आ + दिश्) वंदन करना वंद् (वन्द्) वध करना हिंस् (हिंस्) वर्जना वज्ज् (वर्ज) विचार करना मरिस् (मर्श) मंत् (मन्त्रय) विश्रान्ति लेनी वीसम्, विस्सम्
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________________ परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा. का हिन्दी साहित्य 1. वात्सल्य के महासागर 56. नवपद प्रवचन 110. प्रभो! मन-मंदिर पधारो 2. सामायिक सूत्र विवेचना 57.ऐतिहासिक कहानियाँ 111. सरस कहानियाँ 3. चैत्यवन्दन सूत्र विवेचना 58. तेजस्वी सितारें 112. महावीर वाणी 4. आलोचना सूत्र विवेचना 59. सन्नारी विशेषांक 113. सदगुरु-उपासना 5. श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र विवेचना 60.मिच्छामि दुक्कडम 114.चिंतन रत्न 6. कर्मन् की गत न्यारी 61.Panch Pratikraman Sootra 115. जैन पर्व-प्रवचन 7. आनन्दघन चौबीसी विवेचना 62. जीवन ने तुं जीवी जाण (गुजराती) 116. नींव के पत्थर 8. मानवता तब महक उठेगी 63. आवो ! वार्ता कहुं (गुजराती) 117. विखुरलेले प्रवचन मोती 9. मानवता के दीप जलाएं 64.अमृत की बुंदे 118.शंका-समाधान भाग-2 10.जिन्दगी जिन्दादिली का नाम है 65. श्रीपाल मयणा 119. श्रीमद् प्रेमसूरीश्वरजी 11. चेतन ! मोहनींद अब त्यागो 66.शंका और समाधान भाग-1 120. भाव-चैत्यवंदन 12. युवानो ! जागो 67. प्रवचनधारा 121. Youth will shine then 13.शांत सुधारस-हिन्दी विवेचना भाग-168.धरती तीरथ'री 122. नव तत्त्व-विवेचन 14.शांत सुधारस-हिन्दी विवेचना भाग-2 69.क्षमापना 123.जीव विचार विवेचन 15.रिमझिम रिमझिम अमृत बरसे 70. भगवान महावीर 124.भव आलोचना 16. मृत्यु की मंगल यात्रा 71.आओ ! पौषध करें 125.विविध-पूजाएँ 17.जीवन की मंगल यात्रा 72. प्रवचन मोती 126.गुणवान् बनों 18. महाभारत और हमारी संस्कृति-1 73. प्रतिक्रमण उपयोगी संग्रह 127.तीन-भाष्य 19.महाभारत और हमारी संस्कृति-2 74. श्रावक कर्तव्य-1 128.विविध-तपमाला 20. तब चमक उठेगी युवा पीढी 75.श्रावक कर्तव्य-2 129. महान् चरित्र 21. The Light of Humanity 76.कर्म नचाए नाच 130. आओ ! भावयात्रा करें 22. अंखियाँ प्रभुदर्शन की प्यासी 77.माता-पिता 131.मंगल-स्मरण 23. युवा चेतना 78. प्रवचन रत्न 132. भाव प्रतिक्रमण-1 24. तब आंसू भी मोती बन जाते है। 79. आओ! तत्वज्ञान सीखें 133.भाव प्रतिक्रमण-2 25.शीतल नहीं छाया रे.(गुजराती) 80. क्रोध आबाद तो जीवन बरबाद 134.श्रीपाल-रास और जीवन 26. युवा संदेश 81.जिनशासन के ज्योतिर्धर 135.दंडक-विवेचन 27.रामायण में संस्कृति का अमर सन्देश-1 82.आहार : क्यों और कैसे ? 136.आओ ! पर्युषण-प्रतिक्रमण करें 28. रामायण में संस्कृति का अमर सन्देश-2 83.महावीर प्रभु का सचित्र जीवन 137. सुखी जीवन की चाबियाँ 29. श्रावक जीवन-दर्शन 84. प्रभु दर्शन सुख संपदा 138. पांच प्रवचन 30.जीवन निर्माण 85. भाव श्रावक 139.सज्झायों का स्वाध्याय 31. The Message for the Youth 86.महान ज्योतिर्धर 140. वैराग्य शतक 32. यौवन-सुरक्षा विशेषांक 87.संतोषी नर-सदा सुखी 141.गुणानुवाद 33. आनन्द की शोध 88. आओ! पूजा पढाएँ! 142.सरल कहानियाँ 34.आग और पानी-भाग-1 89.शत्रुजय की गौरव गाथा 143. सुख की खोज 35.आग और पानी-भाग-2 90.चिंतन-मोती 144.आओ संस्कृत सीखें भाग-1 36.शत्रुजय यात्रा (द्वितीय आवृत्ति) 91. प्रेरक-कहानियाँ 145.आओ संस्कृत सीखें भाग-2 37. सवाल आपके जवाब हमारे 92. आई वडीलांचे उपकार 146.आध्यात्मिक पत्र 38.जैन विज्ञान 93.महासतियों का जीवन संदेश 147.शंका-समाधान (भाग-3) 39. आहार विज्ञान 94.श्रीमद् आनंदघनजी पद विवेचन 148.जीवन शणगार प्रवचन 40. How to live true life? 95. Duties towards Parents 149. प्रातः स्मरणीय महापुरुष (भाग-1) 41. भक्ति से मुक्ति (पांचवी आवृत्ति) 96.चौदह गुणस्थान 150. प्रातः स्मरणीय महापुरुष (भाग-2) 42. आओ ! प्रतिक्रमण करे (चौथी आवृत्ति) 97. पर्युषण अष्टाह्निका प्रवचन 151. प्रातः स्मरणीय महासतियाँ (भाग-1) 43.प्रिय कहानियाँ 98. मधुर कहानियाँ 152.प्रातः स्मरणीय महासतियाँ (भाग-2) 44. अध्यात्मयोगी पूज्य गुरुदेव 99. पारस प्यारो लागे 153.ध्यान साधना 45. आओ ! श्रावक बने 100. बीसवीं सदी के महान् योगी 154. श्रावक आचार दर्शक 46. गौतमस्वामी-जंबुस्वामी 101.बीसवीं सदी के महान् योगी 155. अध्यात्माचा सुगंध (मराठी) 47. जैनाचार विशेषांक की अमर-वाणी 156. इन्द्रिय पराजय शतक 48.हंस श्राद्ध व्रत दीपिका 102.कर्म विज्ञान 157. जैन-शब्द-कोष 49.कर्म को नहीं शर्म 103.प्रवचन के बिखरे फूल 158. नया दिन-नया संदेश 50.मनोहर कहानियाँ 104. कल्पसूत्र के हिन्दी प्रवचन 159. तीर्थ यात्रा 51. मृत्यु-महोत्सव 105.आदिनाथ-शांतिनाथ चरित्र 160. महामंत्र की साधना 52. Chaitya-Vandan Sootra 106. ब्रह्मचर्य 161. अजातशत्र अणगार 53. सफलता की सीढ़ियाँ 107. भाव सामायिक 162.प्रेरक प्रसंग 54. श्रमणाचार विशेषांक 108. राग म्हणजे आग (मराठी) 163. The way of Metaphysical Life 55. विविध-देववंदन (चतुर्थ आवृत्ति) 109. आओ ! उपधान-पौषध करें! 164. आओ ! प्राकृत सीखें भाग-1 UBHAY Cell: 9820530299 Tel.:022-65373779