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भाषा बोध के अभाव में प्रतिक्रमण आदि की क्रियाएं निरस बनती जा रही है । कहीं-कहीं क्रियाएं हो रही हैं, परंतु उसका आनंद चेहरे पर नजर नहीं आ रहा है।
। तीर्थंकर परमात्मा की वाणी स्वरुप ये सूत्र शाश्वत सत्यों का बोध करानेवाले होने पर भी भाषाबोध के अभाव में उन शाश्वत सत्यों के लाभ से वंचित रहे है।
। जैन दर्शन का मौलिक साहित्य संस्कृत और प्राकृत भाषा में हैं, अतः जैन दर्शन के मर्म को जानना समझना हो तो संस्कृत और प्राकृत भाषा का बोध होना ही चाहिये ।
कलिकाल सर्वज्ञ हेमचंद्राचार्यजी ने सिद्धहेमशब्दानुशासनम् के आठवे अध्याय के रुप में प्राकृत व्याकरण की रचना की है, परंतु उस व्याकरण को जानने के लिए संस्कृत भाषा का ज्ञान होना जरुरी है ।
। संस्कृत भाषा को जाननेवाला ही उस व्याकरण को समझ सकता है, उसी व्याकरण के आधार पर स्व. पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय कस्तुरसूरीश्वरजी महाराजा ने गुजराती माध्यम से प्राकृत भाषा सीखने के लिए 'प्राकृत विज्ञान पाठमाला' की रचना की थी । उस पुस्तक के आधार पर हजारों साधु-साध्वीजी भगवंतों ने प्राकृत भाषा का अभ्यास किया है।
गुजराती भाषा से अनभिज्ञ व्यक्ति भी प्राकृत भाषा सीख सके, इस लक्ष्य को ध्यान में रखकर ही 'प्राकृत विज्ञान पाठमाला' की यह हिन्दी आवृत्ति 'आओ ! प्राकृत सीखें' के नाम से प्रकाशित हो रही है।
प्राकृत भाषा में जैन धर्म का अमूल्य खजाना है, उस खजाने से लाभान्वित होने के लिए प्राकृत भाषा का अभ्यास खूब जरुरी है।
प्रस्तुत पुस्तक हिन्दी भाषी वर्ग को प्राकृत सीखने के लिए खूब उपयोगी बन सकेगी।
सभी भव्यात्माएँ प्राकृत भाषा का अध्ययनकर वीर प्रभु के बताएं शाश्वत सत्यों को अपने जीवन में आत्मसात् कर आत्मकल्याण के मार्ग में खूब खूब आगे बढे, इसी शुभ कामना के साथ ! निवेदक : सुमेरपूर (राज.)
अध्यात्मयोगी पूज्यपाद प्रतिष्ठा शुभदिन
पंन्यासप्रवर श्री भद्रंकरविजयजी दि. 4-5-2013 शनिवार गणिवर्य कृपाकांक्षी रत्नसेनसूरि