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व्याकरण आदि से संस्कार नहीं पाया हुआ जगत् के सभी प्राणियों का स्वाभाविक वचन व्यापार प्रकृति कहलाता है । इस प्रकार की प्रकृति में हो उसे प्राकृत कहते है |
2) आरिसवयणे सिद्धं देवाणं अद्धमागहा वाणी इत्यादि-वचनाद् वा प्राक् पूर्वं कृतं प्राक्कृतम् ।
आर्ष वचन में सिद्ध देवो की अर्धमागधी भाषा होती है । इत्यादि वचन से प्राक्कृत प्राक्-पूर्व में किया हो, उसे प्राकृत कहते है ।
प्राकृत की अन्य भी व्युत्पत्ति मिलती है । 'प्रकृत्या स्वभावेन सिद्धं प्राकृतम्' अथवा प्रकृतीनां साधारणजनानामिदं प्राकृतम् । प्रकृतिस्वभाव से जो सिद्ध हो, उसे प्राकृत कहते है अथवा प्रकृति अर्थात् साधारण जन संबंधी भाषा को प्राकृत कहते है।
प्राकृत साहित्य की बहुलता :- जैनों के परम पवित्र आगम (उत्तराध्ययन आदि कालिकश्रुत, दशवैकालिक आदि उत्कालिक श्रुत तथा आचारांग आदि ग्यारह अंगों की रचना में भी प्राकृत भाषा को पसंद किया है । इस पसंदगी में भी विशेष लाभ देखा गया है ।
आगम में आप्त वचन है - मुत्तूण दिहिवायं कालिय-उक्कालिय सिद्धतं । थी-बालवायणत्थं पाइयमुइयं जिणवरेहिं ।।
अर्थ :- स्त्री जाति और क्षुल्लकवर्ग भी सरलता से वाचन का लाभ प्राप्त कर सके इस हेतु से दृष्टिवाद को छोडकर कालिक और उत्कालिक अंग रुप सिद्धांत, जिनेश्वर भगवंत ने प्राकृत में कहे है ।
'अद्धमागहाए भासाए भासति अरिहा' (औपपातिक सूत्र-5677)