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यही है जिंदगी
१. किसी को समझाने से पहले उसे समझो
मध्यरात्रि का समय था। धर्मस्थान में नीरव शांति थी। पासवाले वृक्ष पर कभी-कभी पक्षियों का कलरव सुनाई देता था और दूर से कुछ यंत्रालयों की तालबद्ध ध्वनि आ रही थी... बाह्य वातावरण शांत-प्रशांत और आह्लादक था... परंतु निद्रा नहीं आ रही थी। क्योंकि मन कुछ मंथन कर रहा था... मन में प्रश्न था, उत्तर नहीं मिल रहा था! समस्या थी, समाधान नहीं मिल रहा था!
'बात अच्छी और सच्ची होने पर भी वह क्यों नहीं मान रहा है?' मन का ऐसा आग्रह प्रबल हो रहा था । 'मेरी बात अच्छी और सच्ची है - फिर भी वह क्यों स्वीकार नहीं करता? उसे स्वीकार करनी चाहिए।' __क्या मेरा मन ऐसे आग्रह से अशांत था? जहाँ आग्रह वहाँ अशांति । तत्क्षण मेरी विचार सृष्टि में श्रमण भगवान महावीर स्वामी की करुणामय मूर्ति उभर आयी... उन्होंने क्या जमाली मुनि को... जो उनके जामाता थे... जो उनके शिष्य थे... सच्ची बात समझाने का प्रयत्न नहीं किया था? जमाली मुनि नहीं मान रहे थे 'कडेमाणे कडे' का सिद्धांत | भगवान ने कई दिनों तक जमाली को सिद्धांत समझाया... सिद्धांत अच्छा था, सच्चा था, फिर भी जमाली ने नहीं माना। __ ऐसा कोई नियम (Rule) नहीं कि हर मनुष्य सच्चा और अच्छा माने ही। सत्य सबको अच्छा नहीं लगता! जो अच्छा लगता है... वह सब सच्चा ही हो - ऐसा भी नियम नहीं है। वे तो सर्वज्ञ वीतराग परमात्मा थे... न था उनको राग, न था उनको द्वेष! थी एक परम करुणा! जब अपने शिष्य ने सत्य को स्वीकार नहीं किया, कह दिया : 'जहा सुक्खं देवाणुप्पिया! - हे देवानुप्रिय! तुझे जैसे सुख हो, वैसा कर!'
मन के प्रश्न का उत्तर मिल गया! समस्या का समाधान मिल गया!
आनंद-आनंद हो गया... चित्त की अस्वस्थता दूर हो गयी... मन में संवादिता प्रवाहित होने लगी। ___ मुझे आग्रह छोड़ देना चाहिए, मन में भी आग्रह नहीं रखना चाहिए। दूसरों के लिए सत्य का आग्रह नहीं, स्वयं के लिए अवश्य! सत्य को प्रत्येक जीवात्मा स्वीकार नहीं कर सकता। सत्य-स्वीकार के लिए आत्मा की विशिष्ट योग्यता चाहिए। ऐसी योग्यता कुछ 'कर्मों के क्षयोपशम' से प्रकट होती है, कुछ 'कालपरिपाक' से प्राप्त होती है...।
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