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स्वाध्याय जैनशास्त्रों के पर्यालोचन से पता चलता है कि अध्यात्म जगत में स्वाध्याय भी अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है । इस की महिमा के परिचायक अनेकानेक पद जैनागमों में यत्र तत्र उपलब्ध होते हैं । आत्मिक ज्ञानज्योति को श्रावृत करने वाले संज्ञानावरणीय कर्म का इस को नाशक बता कर
आधिभौतिक, दैहिक तथा दैविक इन सभी दुःखों ** का इसे विमोक्ता बतलाया है । सारांश यह है कि स्वाध्याय की उपयोगिता एवं महानता को जैनागमों में विभिन्न पद्धतियों से वर्णित किया गया है।
यह ठीक है कि स्वाध्याय द्वारा मानव आत्मविकास कर सकता है और वह इस मानव को परम्परया जन्म मरण के भीषण दुःखजाल से छुटकारा दिलाकर परम साध्य निर्वाण पद को उपलब्ध करवा देता है, परन्तु यह (स्वाध्याय) विधिपूर्वक होना चाहिए, विधिपूर्वक किया हुआ स्वाध्याय ही इष्टसिद्धि का कारण बनता है । यदि विधिशून्य स्वाध्याय होगा तो वह ***अनिष्ट का कारण भी बन सकता है । इस लिए शास्त्रों का स्वाध्याय करने से पूर्व उस की विधि अर्थात् उस के पठनीय समय असमय का बोध अवश्य प्राप्त कर लेना चाहिए।
___श्री स्थानांगसूत्र में अस्वाध्यायकाल का बड़ा सुन्दर विवेचन किया गया है। वहां बत्तीम अस्वाध्याय लिखे हैं । दश आकाशसम्बन्धी, दश औदारिकसम्बन्धी, चार महा प्रतिपदा, चार महाप्रतिपदाओं के पूर्व की पूर्णिमाएं और चार सन्ध्याएं, ये ३२ अस्वाध्याय हैं। तात्पर्य यह है कि इन में शास्त्रों का स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । अन्य ग्रन्थों में अस्वाध्यायकाल के सम्बन्ध में कुछ मतभेद भी पाया जाता है परन्तु विस्तारभय से प्रस्तुत में उसका वर्णन नहीं किया जा रहा है। प्रस्तुत में तो हमें श्री स्थानांगसूत्र के आधार पर ही बत्तीस अस्वाध्यायों का विवेचन करना है। अस्तु, बत्तीम अस्वाध्यायों का नामनिर्देशपूर्वक संक्षिप्त परिचय निम्नोक्त है
(१) उल्कापात-आकाश से रेखा वाले तेजःपुञ्ज का गिरना, अथवा पीछे से रेखा एवं प्रकाश वाले तारे का टूटना उल्कापात कहलाता है । उल्कापात होने पर एक प्रहर तक सूत्र की अस्वाध्याय रहती है।
* सज्झाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? सज्माएणं जावे नाणावरणिज्ज कम्म खवेइ।
___ (उत्तराध्ययन सूत्र अ० २६, सूत्र १८) ** सज्झाए वा सव्वदुक्खविमोक्खणे-
(उत्तराध्ययनसूत्र अ० २६) *** अस्वाध्यायकाल में स्वाध्याय करने से होने वाली हानि को टीकाकार महानुभाव के शब्दों में-एतेषु स्वाध्यायं कुर्वतां चद्रदेवता छलनं करोति- इन शब्दों में कहा जा सकता है । इन शब्दों का भाव इतना ही है कि अस्वाध्यायकाल में स्वाध्याय करने से कोई नद्र देवता पढ़ने वाले को पीड़ित कर सकता है ।
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