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1. आत्मा का अस्तित्व
जैन दर्शन तात्त्विक दृष्टि से विश्व का वर्गीकरण इस प्रकार करता है - 'जीवा चैव अजीवा य एस लोए वियाहिए ।'
उत्तराध्ययन अध्ययन 36 गाथा 2
अर्थात् लोक में जीव और अजीव ये दो ही मुख्य तत्त्व हैं। विश्व की समस्त वस्तुएँ और रचनाएँ इन्हीं दो तत्त्वों व इनके पारस्परिक मेल के विविध रूपों का परिणाम है । विज्ञान के क्षेत्र में इन दो तत्त्वों में से अजीव तत्त्व को तो प्रारम्भिक काल में ही स्पष्ट स्वीकार कर लिया गया था, परंतु जीव या आत्मा के विषय में कोई निश्चित व निर्णीत मत व्यक्त नहीं किया गया था। आज से कुछ दशाब्दी पूर्व तक विज्ञान आत्मा के अस्तित्व का विरोधी था। विज्ञान जगत् में इस मान्यता की प्रधानता थी कि जीव भौतिक तत्त्वों के गुणात्मक परिवर्तन का ही परिणाम है, अलग से कोई मौलिक तत्त्व नहीं है। परंतु जैसे-जैसे विज्ञान का विकास होता जा रहा है, वैसे ही उत्तरोत्तर यह मान्यता शिथिल होती जा रही है और लगता है कि अब वह दिन दूर नहीं है जब वैज्ञानिक क्षेत्र में आत्मा को एक स्वतंत्र तत्त्व के रूप में असंदिग्ध स्थान मिल जायेगा । वैज्ञानिक शोधों के परिणामस्वरूप दिन प्रतिदिन आत्म- अस्तित्व की स्वीकृति के आश्चर्यजनक तथ्य सामने आ रहे हैं।
विद्वान् सुलियन आत्म- अस्तित्व की ओर संकेत करते हुए अपने