________________ व्यक्तिधर्म करनेके मुख्य साधन तीन हैं—जातिस्मरण, धर्मश्रवण और वेदनाभिभव / भवनत्रिक और कल्योपपन्न देव प्रथमादि तीन नरक तक ही जाते हैं। कोई कुतूहलवश जाते हैं, कोई अपने पूर्व भवके वैरका बदला लेने जाते हैं और कोई अनुरागवश जाते हैं। उनमें से बहुतसे देव नरकोंके दारुण दुखको देख कर दयार्द्र हो उठते हैं और उन्हें धर्मका उपदेश देने लगते हैं। इसलिये तीसरे नरक तक सम्यग्दर्शन उत्पन्न करनेके ये तीनों साधन पाये जाते हैं / किन्तु चौथे आदि नरकोंमें देवोंका जाना सम्भव न होनेसे वहाँ जातिस्मरण और वेदनाभिभव मात्र ये दो साधन उपलब्ध होते हैं। यहाँ कृत्रिम या अकृत्रिम जिन चैत्यालय न होनेसे तथा तीर्थङ्करोंके गर्भादि कल्याणक न होनेसे जिन-बिम्बदर्शन यां जिनमहिमदर्शन नामक साधन नहीं उपलब्ध होता। . तिर्यञ्चोंमें सम्यग्दर्शनको उत्पन्न करनेके ये तीन साधन हैं-जातिस्मरण, धर्मश्रवण और जिनबिम्बदर्शन / यह तो स्पष्ट है कि संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यञ्चोंका वास मध्यलोकमें है। उनमेंसे जो तिर्यञ्च ढाई द्वीपमें वास करते हैं उनमेंसे किन्होंको साक्षात् तीर्थङ्करोंके मुखारविन्दसे, किन्हींको गुरुओंके मुखसे और किन्हींको अन्य मनुष्यों या देवों के मुखसे धर्मोपदेश मिलना सम्भव है / जैन-साहित्यमें ऐसे अनेक कथानक आये हैं जिनमें अनेक तिर्यञ्चोंके धर्मोपदेश सुन कर सम्यक्त्व लाभको घटनाओंका 'उल्लेख है। ढाई द्वीपके बाहर ऋद्धिसम्पन्न मनुष्योंका भी गमन नहीं होता, इसलिए वहाँ पर निवास करनेवाले तिर्यञ्चोंको एकमात्र देवोंके निमित्तसे ही धर्मोपदेश मिल सकता है। इस प्रकार इन तिर्यञ्चोंमेंसे किन्होंको जातिस्मरणसे और किन्हींको धर्मश्रवणसे सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति होती है। साथ हो ऐसे भी बहुतसे तिर्यञ्च हैं जिन्हें जिनबिम्बदर्शनसे भी इसकी उत्पत्ति होती हुई देखी जाती है, क्योंकि जिन तिर्यञ्चोंको पूर्वभवका संस्कार बना हुआ है या वर्तमान समयमें धर्मोपदेशका लाभ हुआ है उनके कृत्रिम या अकृत्रिम निन चैत्यालयमें प्रवेश कर जिन प्रतिमाके