Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

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Page 13
________________ वचनदूतम् पीड़ित हो रहा है ऐसी (सा) वह (मे पुत्री ) मेरी पुत्री (निर्निमेषा क्षियुग्मा ) श्रफलक नयन वाली हो गई है - और (मनाम् न स्वपिति) निद्रा भी उससे किनारा काट गई है । श्रतः (हिमकरनिभं ) चन्द्रमा के जैसा ( तस्यां वक्त्रं ) उसका मुख ( त्वद्वियोगे ) आपके वियोग में (अस्तोभम् ) शोभा विहीन हो गया है। ( खलु) सच है-- (सूर्यापाये) सूर्य के नहीं रहने पर ( कमल) कमल (स्वाम् अभियां ) अपनी शोभा को प्राप्त नहीं करता है । भागार्थ को स्वाभिम् ! उदभूत हुए चिन्ताजन्य दुर्विकल्पों मे मेरी पुत्री को रात दिन इतना अधिक परेशान कर रक्खा है कि कुछ कहते नहीं बनता, निद्रा उसकी चली गई है। केवल --- टकटकी लगाये हुए वह देखती रहती है । चन्द्र के जैसा सुहावना उसका मुख अब ऐसा हो गया है कि जैसा सूर्य के प्रभाव में मुरझाया हुआ कमल होता है । स्वामिन्! मेरी वह प्रियसुता भापके ध्यान से है, भारी दुःखी, निशदिन उसे सोच है आपका ही । चिन्ता से वो बस व्यथित है, खेदखिन्ना विकल्पों, द्वारा भारी, विगत उसकी नींद भी हो गई है । पूछें तो भी नहि स्वमन की बात वो है बताती, आँखें उसकी अपलक हुईं सोच की तीव्रता से । चन्दा जैसा वदन उसका हो गया कान्ति हीन, हो जाता है रविविरह से कंज जैसा मलीन ||२ || ३ नाथ ! आपके महाविरह से मेरी पुत्री राजमती | व्यथित हृदय हो रात दिवस ही मन ही मन रोती रहती । समझाने पर मौर प्रषिक वह दुःखित हो क्लेशित होती, चिताजन्य विचारों से वह नहीं नींद भर भी सोती । अपलकलयन वदन शोभाविन उसकी धन्तज्वला को, विना कहे ही प्रकटित करता पतिविछोह की पीड़ा को । अतः इन्दुमण्डल सा उसका श्रीमण्डल से हीन हुआ, मुखमण्डल, रविमण्डल के विन कंज सहश भतिमलिन हुआ || २ ||

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