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वचनदूतम्
मस्सौभाग्यं विरहबहने तात ! दग्धं सपल्या मुक्त्याsभुक्त विगलितमिदं नैव वाञ्छामि भूयः त्यक्ता तेनाहमपि च तथा तं त्यजामि त्रिव
क्षन्तव्येयं यदिह समभूत् तेऽपराधः प्रमादात् ॥७६॥
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अम्ब अर्थ - ( तात ) हे पिता ! ( श्रभुक्तम् ) इस पर्याय में प्रयुक्त हुए
( मी माग्य) मेरे सौभाग्य को ( सपत्न्या मुक्त्या ) मेरी सौत मुक्ति ने ( बिरहृदहने
दग्धम् ) बिरहरूपी अग्नि में भस्म कर दिया है. अतः (विगलितं इदं भूयः नैव वाञ्छामि मुझ से छूटे हुए इस सौभाग्य को में पुनः नहीं चाहती हूँ ( तेन त्यक्ता अहमपि च त्रिघा तथा एव तं त्यजामि ) अतः उनके द्वारा छोड़ी गई में भी मन वचन और काय से उसी प्रकार उन्हें छोडती हूं । (यदि ) यदि इस पर्याय में मेरे द्वारा (प्रमादात्) असावधानीवश ( ते अपराधः समभूत् ) आपका अपराध बन गया हो ( क्षन्तव्या) तो मुझे क्षमा करना ।
भावार्थ – पिताजी ! मेरा सौभाग्य तो मुक्तिलक्ष्मी को मिल चुका है, ग्रतः अब मैं उस सौभाग्य की श्राकांक्षिणी नहीं हूं। मुझे जिस प्रकार मेरे होने वाले नाथ ने छोड़ दी है मैं भी अब उसी प्रकार से मन वचन और काय से उनका परित्याग कर देती हूं । श्रापका इस दशा में वर्तमान मेरे द्वारा किसी भी तरह का प्रावधा fra कोई अपराध बन गया हो तो मैं उसकी क्षमा चाहती हूँ ।
मेरे सुख सुहाग को मुझ से मुक्तिमौत ने छीन लिया
पति को अपनी ओर खेंचकर मुझ को विरहिन बना दिया दिया मेरे सुहाग को पतिविरहानलज्वाला में कौन कहेगा मुझे सुहागिन बनी अभागिन बाला मैं इन प्रभुक्त श्रव भोगों को मेरी न भोगने की इच्छा इच्छा है तो एक यही है धरू यायिका को दीक्षा छोडी जैसी उनने मुझको में भी उन्हें छोडती हूं पाश्रित सब नातों को तात ! ग्राज से तोड़ती हूं
असावधानी मुझ से श्रव तक हुई गल्तियां हों उन्हें क्षमाकर देना मांगू हाथ जोड़कर भिक्षा यो ॥७९॥
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