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वचनद्रूतम् नारीजन्माधमभिवमहं मंगलं संविधास्ये,
नारोलिङ्ग विविधतपसा कर्मणामावलि च । छित्वा भिस्वा विलितभवाऽहं भविष्यामि सात !
श्रेयःकायें निजहितारो गर तन्पति विनम्
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प्रत्यय-प्रयं--(तात) पिताजी (प्रधमम इदं नारीजन्म मह भंगलं संविधाम्ये) अधम इस नारीजन्म को मैं मंगल रूप बनाऊँगी और (विविधतफ्सा) अनेक तपस्याओं से (नारीलिङ्ग, कर्मणाम् प्रालि च छित्त्वा भिस्वा) नारी लिङ्ग को और कमों को छेद भेद करके (विगलिल भवा अहं भविष्यामि) अपने संसार को मैं नष्ट करूंगी, अतः (निजहितविदः श्रेयःकार्ये विघ्नं न तन्वन्ति) जो अपने हित को जानते हैं वे मांगलिक कार्यों में विध्न नहीं करते हैं।
भावार्थ हे जनक ! मै इस अधम स्त्री पर्याय को मंगलमय बनाऊंगी और नारीलिङ्ग को एवं कमों को अनेक प्रकार के तपों का याचरण करके नष्ट भ्रष्ट करूंगी. ताकि इस संसार में मुझे फिर से भ्रमण नहीं करना पड़े, जो अपना हितकल्याण-करना जानते हैं. वे मांगलिक कार्यों में रुकावट पसन्द नहीं करते हैं ।
नारी का यह जन्म अधम है, पराधीन है, दुलकर है, पद पद पर अपमानित होकर जीवन जीने का घर हैं मात-सात की चिन्ता का यह बड़ा विकट विषम स्थल है क्षण क्षण में शंकाओं का यह बनता शीघ बबन्डर है पर की है यह एक धरोहर जिसे रखाते रहते हैं समय समय पर घर भर के जन जिसे संभाले रहते है जिसमे परिचय नहीं, प्रीति नहिं, रीति न जिसकी ज्ञात सही प्रकृति, स्वभाव, अपरिचित जिसका उसे सौंप दी जाल कहीं ऐसे इस नारी जीवन को तात ! करूगी मैं अब तो मंगलमय, एवं तप द्वारा भस्म करूगी विधिवन को नारीलिङ्ग छेद करके मैं अजर अमर पद पाऊंगी धीरे धीरे मैमिपिया से मुक्तिमांहि मिल जाऊंगी ।।८।।