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बचनदूतम्
मोहोद्भूतं परिहर पितः ! मद्गतं प्रीतिजालम् याचेऽहं त्वां पुनरपि पुन में क्षमस्वापराधम् सेवा ते वा जनक ! मयाऽभूत्र मे दुःखमस्ति मद्दीक्षातः सफलमभवत् ते गृहस्थाश्रमोऽयम् ॥८०॥
દર
अर्थ- (पितः ) है तात ! (मोहोतं मद्गतं प्रीतिजालं परिहर) मोह से उत्पन्न जो मेरे कार आपका प्रीतिजाल है उसे श्राप अब दूर कर दें। ( महं पुनः पुनः त्वां याचे) मैं बार २ मापसे यही याचना करती हूं। ( मे अपराध क्षमस्व ) प्राप मेरी गल्तियों की मुझे क्षमा दें। (जनक) हे जनक ( ते सेवा ममका न प्रभूद् आपकी सेवा कुछ भी मुझ से नहीं हो सकी ( मे दुःखं श्रस्ति ) इसका मुझे स्वयं को दुःख है । ( मद्दी आत: श्रयं ते गृहस्थाश्रमः सफलं श्रभवत् ) मेरी दीक्षा से श्रापका यह गृहस्थाश्रम सफल हो गया है ।
भावार्थ — दे तात ! अब आप मेरे प्रति रहे हुए अनुराग का परित्याग कर दें. क्योंकि मैं दीक्षित होने वाली हूं । में हुए अपराधों की पुनः पुनः आपसे क्षमा चाहती हूं। मुझे एक बात का अवश्य दुःख है कि मेरे द्वारा आपकी जरा सी भो सेवा नहीं हुई । परन्तु इस बात की खुशी है कि मेरी दीक्षा से श्रापका गृहस्थाश्रम सफल हो गया।
मुझे परम सौभाग्य उदय से राजमहल में जन्म मिला । पुत्री बनी श्रापकी ही में अनुपम मुझे दुलार मिला पाल पोष कर मुझे अपने सब प्रकार से बड़ा किया देवों को भी दुर्लभ ऐसे सुख साधन से किया तुष्ट समय समय पर सभी तरह से मेरा योगक्षेम हुना
सूर्य उदय कब हुआ, हुआ कळ प्रस्त, न इसका भान हुआ पिता ! श्रापके हो प्रभाव से मैं इस लायक हो पायी हेया हेय विवेचक प्रज्ञा जगी नेमि लख ठकुराई इतना है उपकार आपका तात ! बड़ा भारी मुझ पर उससे उरण न हो पायी मैं दुःख इसी का मन ऊपर पर मेरी दीक्षा से सफलित हुआ गृहस्थाश्रम पाचन
वात! आपका अलः दीजिये दीक्षा की प्राज्ञा पावन 11८० ॥
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