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वचनदूतम् एतत्काव्यं मया दृब्धं द्विसहस्त्रे च वैक्रमे ! एकोनत्रिंशता युक्त शुक्ले मगसि च कातिके ।।२२।। यावद्वाजति शासन जिनपते विच्च गंगाजलम्, यावच्चंद्रदिवाकरौ वितनुतः स्वीयां गति चाम्बरे । तावद्वाजतु नव्यकाव्यमपि मे पापठ्यमानं जनैः, एतल्लन्यमा मरेत वह यर्छ यो गुरूनाश्रयेत् ।।२३।। गंगोत्तुङ्गतरङ्गसंगिसलिलप्रान्तस्थितो विश्रुतः श्रीस्याद्वादपदाङ्कितो भुवि जनै मन्यिोऽस्ति विद्यालयः । तत्राऽहं पठं गणेशगुरुणा संस्थापिते वणिना अम्बादासपदोपगूहिततनुमऽभूद्विशिष्टो गुरुः ।।२४।। मतिभ्रमोऽजायत एव पुसा बाक्यकाले जनवाद एषः मिथ्या, यतोऽहं न तथा बभूव, बभूव में प्रत्य त शेमुषीद्धा ।।२।।
विद्वांसस्तु भवन्त्येते संकटापन्न जीवनाः प्रकृत्या कंटकाकीर्णो जायते पाटली सुमः ।।२६।। एवं विचिन्त्य संतोषाज्जीवने यापयाम्यहम्, ध्रुवमतेद् ययापात्रं समुद्राल्लभते जलम् ।।२७।।
भावार्य—मैंने यह काव्य ७० वर्ष की अवस्था में गुम्फित किया है इसलिये इसमें यदि कोई त्रुटि हुई हो तो उसका संशोधन कर लेना चाहिये ||१|| राजस्थान प्रान्त में श्रीमहावीरजी नाम का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है वहाँ मैं पापिनत्य पद पर 'नियुक्त है। वहाँ रह कर मैंने इस नवीन काव्य की रचना की है ॥सा यह क्षेत्र दिगम्बर क्षेत्र है, बहुत प्राचीन है, समृद्ध और प्रतिशयशाली है। यहाँ देशान्तर से विशिष्ट विद्वान् भाते रहते हैं एवं भक्तिभाव से प्रोतप्रोत श्रावकनरण यहाँ पूजनादि कार्य करते रहते हैं ।।३।। यह क्षेत्र गम्भीर नदी के पश्चिम तट पर स्थित है । इस का नाम मूल नायक श्री महावीर प्रभु के नाम से 'श्री महावीर' ऐसा प्रचलित है । यहाँ भूगर्भ से निकली हुई श्री महावीर प्रमु की प्रतिमा है। इस क्षेत्र का सौन्दर्य भी अपूर्व ही है। यहाँ दान रूपी सलिल स्वयं इस क्षेत्र का सदा सिञ्चन करता रहता है ॥४॥ दिगम्बर माम्नाय के अनुसार ही यहां पूजा प्रतिष्ठादि कार्य सम्पन्न होते हैं । यह लोकजवोपकारी क्षेत्र है । सब ही दर्शन कर अपने पापको