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श्री महावोर ग्रंयमाला-२२ वा पुष्प
वचनदूतम् ( उत्तरार्द्ध)
रचयिता ५० मूलचन्द शास्त्री श्रीमहावीरजी (राज.)
प्रस्तावना डा० रामचन्द्र द्विवेदी प्रोफेसर एवं निदेशक
जैन अनुशीलन केन्द्र राज. विश्वविद्यालय, जयपुर
प्रकाशक
मन्त्री प्रबन्ध कारिणो कमेटी दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी
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प्रकाशकीय
___ वचनदूतम् उत्तराद्ध को पाठक के हाथों में देते हुए हमें प्रतीय
है। इसका पूर्वा :: क्षेत्र में हा शो पर पीर REE में प्रकाशित किया गया था जिसकी विद्वज्जनों ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की
संस्कृत भाषा के इस दूत सज्ञक काध्य को निबद्ध करने का श्रेय पं. मूलचन्दी वीबी महावीर जी को है 1 शास्त्रीजी संस्कृत के उद्भट विद्वान हैं और संस्कृत काम रखना में मत्यधिक रुचि लेते हैं। इसी वर्ष अप्रेल, १६८१ में महावीर
अली के अवसर पर श्री महावीर क्षेत्र की मोर से वार्षिक मेले पर भापको ...म्मानित भी किया गया था। हमें प्रसन्नता है कि राजस्थान संस्कृत साहित्य
सोलन की पोर से भी इस वर्ष माप सम्मानित किये गये हैं ।
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प्रतुत काव्य क्षेत्र कमेटी के प्रकाशन का २२ वा पुष्प है। हमारे २१ वें BAR काम "पाहुबली" खण्ड काम्य [श्री अनूपचन्द न्यायतीर्थ द्वारा रचित का
मोचन भगवान बाहुबली प्रतिष्ठापना सहस्राब्दि समारोह एवं महामस्तकाभिषेक महोत्सव के पुनीत अवसर पर श्रवणबेलगोसा में परम पूज्य १०८ एलापार्य भी विधानन्य जी महाराज के कर कमलों द्वारा सम्पन्न हुमा था। इस के पूर्व विभाग के २० प्रकासनों में राजस्थान के जैन मंडारों की ग्रंथ सूचियों के पांच भाग, राजस्थान के जैन सन्त, महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व, गिणपत चरित, प्रद्युम्न चरित, जैन शोध और समीक्षा, पं. चैनसुखदास न्यायवीर्ष
स्मृति ग्रंथ मादि के नाम उल्लेखनीय है । .. भविष्य में साहित्य प्रकाशन के कार्य को प्राधिक गतिशील बनाने की दिशा मैं हम प्रयत्नशील है।
हमें यह सूचित करसे या प्रसन्नता होती है कि योग विषय की एक प्रत्यन्त महत्वपूर्ण कृति "योगानुशीलन" जिकके लेखक श्री कैलाशचन्द्र जी बारदार हैं, का मुद्रण कार्य चल रहा है मोर हमें महावीर जयन्ती तक उसके प्रकाशित होने की पूर्ण प्राशा है।
दिगम्बर जैन प्रतिषम नेत्र श्री महावीर जी की प्रबन्ध कारिणी कमेटी का | ".. कार्य क्षेत्र सिर्फ श्री महावीर जी दर्शनार्थ प्राने वाले यात्रियों को प्रावास प्रादि
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की सुख सुविधा सुलभ कराने तक ही सीमित नहीं है अपितु धार्मिक, साहित्यिक शौक्षणिक, छात्रवृत्ति, चिकित्सा, असमर्थ व्यक्तियों की सहायता, ग्राम्य विकास प्रादि अनेक लोक कल्याणकारी, सामाजिक व सार्वजनिक गतिविधियां भी प्रयास कारणी कमेटी द्वारा संचालित हैं।
जैन वा मय के अन्वेषण, प्रकाशन तथा नवीन साहित्य के निर्मामा की दिशा में भी क्षेत्र द्वारा महत्वपूर्ण कार्य किया जा रहा है।
प्रस्तुत काव्य की महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना लिखने के लिए हम प्रोफेसर हा. रामचन्द्र जी द्विवेदी मध्यक्ष, जैन अनुशीलन केन्द्र राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर के प्रत्यधिक आभारी हैं जिन्होंने हमारे निवेदन को स्वीकार कर प्रस्तावना लिस्बमे की महती कुपा की है।
हम पं. मूलचन्द जी शास्त्री के प्रति भी कृलमता प्रगट करते हैं जिनने संस्कृत साहित्य की इस काव्य रचना के प्रकाशन की हमें स्वीकृति प्रदान की। इस प्रकाशन के प्रूफ देखने में पं. अनुपचन्द जी न्यायतीर्थ ने काकी श्रम किया है ये भी धन्यबाद के पात्र हैं।
कपूरचय पाटनी
म मन्त्री
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आय वक्तव्य
प्राज मैं अपने विश पाठकों के कर कमलों में विरप्रतीक्षित 'उसराई वचनदूतम्" को समर्पित करता हुमा अपने प्राप में मानन्दातिरेक का अनुभव कर रहा हूँ । सन् १९२६ से जबकि मैं अपना विद्यार्थी जीवन समाप्त कर सामाजिक कार्य क्षेत्र में उतरा तब से प्राजीविकोपार्जन के साधनों के जुटाने में रत तो रहा ही, पर सरस्वती माता की सेवा करने की मनोवृत्ति से विहीन भी नहीं हुमा । सब कुछ करते धरते भी महनिश चित्त में यही भावना भी रहती रही कि यदि गुरुदेव की परम भग' को प्रमागिता गोगगन पर पर गया है तो उसका सदुपयोग करता रहूँ अर्थात् सरस्वती माता के भंडार में अपनी भोर से पत्र पुष्प फलं सोपं कुछ न कुछ करता रहूँ। उसी भावना का प्रति फलस्वरूप यह 'उसरार्धवचन दूत' है । इस में राजुल के जनक ने एवं उसकी सखियों ने नेमि से प्यार अपना २ अभिप्राय प्रकट मिया, यह सब साहित्यिक भाषा से सज्जित कर प्रकट किया गया है। वचन बुन के निर्माण के सम्बन्ध में मैं पूर्वाद वचन दूत के माद्यवक्तव्य में अपना सब कुछ मभिगय प्रकट कर चूका हूँ प्रतः अब और इस सम्बन्ध में अधिक लिसना में उचित नहीं समझता हूँ। काव्य के अंत में जो प्रशस्ति लिखी गई है उस से भी पाठक गरग मेरे अभिप्राय को जान सकते हैं ।
जो अभी तक मैंने सरस्वती माता के मंडार को करीब ५० संस्कृत ग्रंथों का मनुवार एवं संस्कृत में कुछ मौलिक रचनाएँ देकर के यद किचित् वित किया है सो यह सब परम पूज्य विद्या-मुरुदेव का ही प्रभाव है। मेरा इसमें कुछ नहीं है मैं तो एक मालाकार मात्र हूँ।
इस उत्तरार्थ वचनदूत में कवि शिरोमणि कालिदास के उत्तराषं मेघदूत के प्रश्रय पाद की पूर्ति की गई है। त्रुटि के लिये क्षम्य हैं मोर उसे सूचित करने की अपने कृपासु पाठकों से प्रार्थना करता हूं ताकि आगे बह शुद्ध की जा सके।
__ यह मेरी स्वतंत्र रचना है। मंदाक्रांत एवं घाटक प्रादि छंद जो हिन्दी में लिखे गये हैं ये भी स्वोपज हैं । इनके द्वारा श्लोक का भाव कुछ मषिक स्पष्ट हो जाता है।
अंत में मैं क्षेत्र की प्रबन्धकारिणी कमेटी के अध्यक्ष श्रीमान् मानन्द्रजी
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सिन्दूका एवं मन्त्री श्री कपूरचन्द जी पाटनी और प्र. का. के सभी मान्य सदस्यों का बहुत अधिक प्रभारी हू कि जिन्होंने इस काव्य को प्रकाशित करा कर मेरे परिश्रम को सफल बनाया तथा सहयोगी डा. श्री कस्तूरचन्दजी कासलीवाल एवं पं. श्री धनूपचन्दजी सा. का भी बहुत प्रभारी हूँ कि जिन्होंने इसके प्रूफ प्रावि के संशोधन में अपना प्रमूल्य समय प्रदान किया ।
विनीत मूलधन्व शास्त्री
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प्रस्तावना
पं० मूलचन्द जी शास्त्री अपनी सारस्वत साधना के लिये विख्यात हैं। कर्कश सर्क एवं सुकुमार साहित्य, वा और कुसुम, दोनों ही उनकी लेखनी से प्रसूत ई। आज वे ७० वर्ष के हैं तथा प्रोस्टेट ग्रन्थि के प्रकोप से पीडित हैं। इस भवस्था और स्थिति में उन्होंने 'घवन दूतम्' का प्रणयन किया है । धन्य है संस्कृत का साहित्यकार जो सहस्राब्दियों से लक्ष्मी के कोप को निरन्तर सहता हुमा सरस्वती की पाराधना में अनवरत लगा हुआ है। वह राजकीय कृपापान्मूल प्रतिबद्धता से अनुप्राणित कविता नहीं लिखता न यह प्रतिदिन परिवर्तनशील काव्यफैशन का अनुकरण करता है । वह जो लिखता है वह निश्चित ही उसकी प्रपत्री भावमा प्रज्ञा एवं मनमें प्रतिष्ठित है वह अपनी आत्मा को अभिव्यक्त करता है नकि मोके हुए अनुभवों को अथवा मौसमी बौद्धिकता को 1 यही कारण है कि शास्त्रीजी ने जो काव्य लिखा है यह उनको प्राध्यात्मिक भावभूमि से प्रोद्भूत होकर चिरंतन काव्य परम्परा पर कालजयी बनने के लिये प्रतिष्ठित है । काव्य की प्रस्ताउज्ज्वल एवं प्रेरणादायक मानवीय रूप यह सभी प्रसंग 'वचनदूत' के अन्त में कित पद्मों से संग्रहीत हैं । अपनी पत्नी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए कवि कहता है कि उसी के सेवा बन्धन में बंधकर में यह काव्य लिख सका | साहित्यकार, विपन्न संस्कृत साहित्यकार की पत्नी का साहित्य सृष्टि में कितना हाथ होता है, इसकी निश्चल स्वीकृति साहित्य - सावना में निरत सभी साहित्यकारों की ओर से भारतीय पत्नी का एक ध्वन्यात्मक अभिनन्दन है । विपन्न माघ की पत्नी भी इसी प्रकार शुश्रूषा- परायण रही होगी । पत्नी के सेवा भाव ने ही गृहस्थाश्रम को स्वर्ग बनाया है, तभी तो 'बवनदूत' का कवि राजुल को वैराग्य-दीक्षा के लिये प्रवृत्त करता है किन्तु स्वयं अपने लिये और अपने साथियों के लिये यह घोषणा करता है
बना के पूर्व दो शब्द इस कवि के अत्यन्त का उल्लेखन करने के लिये आवश्यक हैं।
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ईशी गृहिणी भूयात् सर्वेषां सद् गृहाश्रमे । पसेवनात्स्वर्गो रहे चापि विजृम्भते ॥
कवि राजुल को राग छोड़कर विराग का उपदेश देता है किन्तु उसका मानव मन घर में स्वर्ग बनाने का आह्वान करता है | धन्यो गृहस्थाश्रमः । शास्त्रीजी भगवान् महावीर की पूजा में निरन्तर लगे रहें पर भाज ने पीड़ित है प्रोस्टेट ग्रन्थि
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की ब्याधि से । वे विवश होकर स्वीकार करते हैं कि भाग्य ही मेरे प्रतिकूल है पौर इस प्रतिकुलता की सहज स्वीकृति के साथ प्रार्थना करते हैं कि हे भाम्य तुम मेरे साथ कुछ भी भलाई नहीं करना चाहते हो. सो मत करो । न मुझे धन चाहिये न कीर्ति, न अपार सुख । बस एक ही प्रार्थना है कि इतनी मुझे शक्ति अवश्य दो ताकि तुम्हारे दिये हा सन लो महागि नीति बुहारीर भोग सके। मानवीय विवशता की यह सशक्त अभिव्यक्ति है
कत मे न शुभं भवेद् यदि विधे, वाश्या त्वदीयाऽधुना । मा कार्षीरसुमं कदाचिदपि मे विज्ञप्तिमतां शृण ।। याचे न द्रविणं न कीतिमतुलं सौस्ठा पर प्रार्थये ।
त्वत्कष्टकसहा भवेत्तनुरियं कुर्यादियन्मे बलम् ।।
मंतिम पंक्ति प्रत्यन्त मार्मिक है । संकट तो साहित्यकार का औरस बन्धु है, गुलाब कांटों के साथ पैदा होता है। पर क्याधि को सहने की शक्ति शास्त्रीजी चाहते है अपने भीतर बैठे कवि के लिये ताकि वह 'वचनबूतम्' को पूरा कर सके । प्राधि ध्याधि एवं जरा से संघर्ष करते हुए कवि ने जिस ललित एवं प्रसन्न पदों से पूर्ण नध्य काव्य का निर्माण किया है वह तर्क-घास से निकला हुमा दुग्ध मात्र न होकर काम्प्रदुग्ध से निस्सृत सरस नवनीत है जो सर्वदा सगुण होने के कारण निर्गुण (गुणातीत) है।
कविकुल के गुरु कालिदास का मेवदूत परवर्ती संदेशों काठमों का प्रादर्श है । मेघ की दक्षिण से उत्तर में हिमालय की प्रोर नैसगिक यात्रा को मानष की विरह भावना से सम्बन्धित कर कालिदास ने इस देश के सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थानों, नदियों, पहाड़ों एवं नगरों की भव्य झांकी प्रस्तुत की है । एक अोर वह ऋतु-कान्य है, दूसरी पोर विरह का गीत, तीसरी ओर वह वक्षिण-उत्तर, उत्तर-दक्षिा की प्राकृतिक तथा भावात्मक एकता का सन्देश-काव्य है तो चौथी प्रोर वह ग्राम, अरण्य, राजधानी यक्ष-नगरी प्रादि की भिन्न संस्कृति का अभिलेख है । अनन्त अर्यो कमनीय कल्पनाओं एवं रमणीय चित्रकलाओं के इस लघु काध्य ने जितना कवियों को अनुकरण के लिये प्रेरित किया है खतना कालिदास के किसी दूसरे काव्य या नाटक ने नहीं । संस्कृत के ही नहीं अपितु विभिन्न भारतीय भाषाओं के कवियों ने कषि-कुल-गुरु से निरन्तर शिक्षा दीक्षा पाई है
-विधांसस्तु भवन्त्येते संकटापनजीवना:
प्रकृत्या कंटकाकीर्णो जायते पाटलीसुमः ।। अन्त्य पद्य 26 2-उपयुक्त कथन कवि के अन्त्य पद्यों 3, 4, 11 का परिष्कार है।
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और पाते चले जा रहे हैं | भाज लगभग डेढ या दो हजार वर्ष बीत जाने पर भी मेघवूत की प्रेरणा कम नहीं हुई है। मेघदूत में श्रृंगार एवं वैराग्य का प्रत प्रतिष्ठित है। महाकाल मन्दिर में इन दोनों के प्रदेव का प्रत्यक्ष होता है अन्यत्र वह समझने पर निर्भर है। अनुकरण कितना भी कमनीय क्यों न हो उसमें मूल की महत्ता नहीं होती। यही कारण है कि कालिदासोसर सन्देश काव्यों में वह व्यापक दृष्टि श्रीर रसवला नहीं है जो कालिदास में है। यही नहीं, अनेक सन्देश काव्य केवल तकनीक की दृष्टि से ही मेघदूत का अनुकरण है। अभी कुछ वर्षों में जो नये संदेश काव्य मुझे देखने को मिले उनमें पुलिवति परमाचार्य का 'मरु सन्देश' 1963 तक के नव भारत के बन के द्वारा देश के प्राधुनिक स्वरूप और नगरादि का वर्णन है । श्री परमानन्द शास्त्री का 'गन्ध दूत' कमानी प्रणय भावना का काव्य है । इन दोनों में नव चेतना भी परिलक्षित होती है। इसी प्रकार हास के पांथ दूत, गंग दूत, मयूख दूत भादि भी कालिदास द्वारा प्रवर्तित दूत काव्य परम्परा की जीवन्तता और इस विधि को सता का खिनाद करने हैं। इसलिए एक पद्म में मैने लिखा था-
कालिदासेन कविना यवाग्वर्त्म निषेवितम् । सर्व सदेव सेवन्ते कवित्वं शाश्वतं पदम् ॥
शुक, कोकिल, चातक, भ्रमर, गरुड़, कोक, मयूर, हंस, उद्भव, विप्र, गंध मादि अनेक माध्यमों से वीं शताब्दि से अब तक इस काव्य की परम्परा निरन्तर चल रही है । यह संस्कृत की जीवन्तता और कालिदास की अमरता का एवं प्रमाण है। इस परम्परा की प्राणवता श्रौर महता को प्रतिष्ठित करने मैं जैन कवियों ने बहुत योगदान दिया है। आठवीं शताब्दि में प्रसिद्ध जैन कवि जिनसेन ने मेघदूत के प्रत्येक पाद को लेकर समस्या-पूति के रूप में पार्श्वनाथ के चरित्र-निरूपण के लिये 'पाश्वभ्युदय' लिखा । आपाततः श्रृंगार एवं लौकिक प्रवृत्तिको माध्यात्मिक चेतना को उपदेश द्वारा निवृत्तिमार्ग की ओर उन्मुख करने का यह अभिनव प्रवर्तन या । इसी प्रवर्तन की दूसरी कड़ी प्राचीन नेमिदूत है ।
श्री शास्त्रीजी का प्रस्तुत 'वचनदूत' प्रणय-भावना के उदय के अनन्तर गिरि नार पर्णत पर अविचल नेमिनाथ के प्रति वाग्दत्ता राजीमती (राजुल) की मानवीय अनुभूति का काव्य है । इसके पूर्वाद्ध में राहुल का मास्म निवेदन (वचन) है जिसका प्रकाशन: पहले हो चुका है और प्रस्तुत उत्तरार्द्ध में परिजनों के द्वारा राजुल की व्यथा का निवेदन (वचन) है । मानवीय हृश्य की, सुकुमार नारी हृदय की, विवाह की मंगल वेला पर निराशा का अनन्त पारावार इस काथ्य में उलसिद्ध है। केवल शान साध्य है पर राजुल का अपने भावी पति के प्रति स्वाभाविक प्रणय-भाव भी कम श्लाध्य नहीं । यही कविता का अन्तस्तस्य है। इसी सद् ग्रहस्य कवि को प्रेरित किया है।
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राजू ल की रागात्मकता, प्रसाय-भावना, निराशा एवं विफलता का कवि ने सका चित्रग कर उसे अन्त में प्राध्यात्मिकता की ज्योति-किरण से पालोकित किया है । इस प्रकार राम के उदय और विराग में अवसान का यह काम निश्चित ही स्तुत्य है । श्रृंगार का पर्यवसान शांत में है। महाकवि कालिदास की काव्य सृष्टि का यह स्वारस्य शास्त्रीजी की काव्य-साधना का भी मूलाधार है।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि समस्यापूत्ति में कल्पनाओं को बिठाना पड़ता है । मूल पद का अर्थ-परिवलन करना पड़ता है। इसलिये समस्या पूति का काव्य केवल प्रतिभा-साध्य न होकर व्युत्पत्तिसाध्य हो जाता है। इस सीमा के कारण शास्त्रीजी ने जहां तक सम्भव था वहीं तक, मेघदत के अन्तिम पद का प्रयोग किया है । ललितोचित-सत्रिदेश-रमणीय प्रसन्न पदावली उनके काम का गुण है। निराश रामुल की दुर्दशा के मिश्रण में कवि ने अत्यन्त भाषा काव्य का प्रणयन किया है। हिन्दी में अर्थ एवं पद्यानुवाद देकर इस वस्तु को अधिक उपयोगी बनाया है। शास्त्रीजी की अदभ्य सारस्वत साधना का सौरभ संदा संस्कृत साहित्य को सुरभित करता रहे । इसी मंगल कामना के साथ 'वपनदूत' काव्य के प्रास्वादन के लिये सहृदयों को आमंत्रित करता हूँ।
दि. १४-१२-८१
रामचन्द्र द्विवेदी
मधेः श्री मूलचन्द्रस्य, काम्यं भयं नणं तथा । कालिदासयथा याते, रागे वैराग्यमाथितम् ।। वाग्दत्तराजुलंबधूनां सांत्र भावनिवेदितम् । श्री नेमिनायवराग्यं स्यापयत् पूर्णतां गतम् ।। तबेलकमलं काय शान्तं हृद्यं गुणान्वितम् । विपत्रस्य कवे माद् यशसा सह मुक्तये ॥ गणेयन्तः श्रियं दीनी वाग्देवी मतिर श्रिताः। यावज्जीवमधीयांमाः कवयः संस्कृते श्रताः ।। तरेव साधितो धर्मः सप्रित्यपि प्रवर्तते । येन विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा सुरभारती ।।
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१. प्रकाशकीय
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४.
विषय-सूची
श्राद्य वक्तव्य
प्रस्तावना
वचन दूतम् (उत्तराद्धं )
HI-IV
V-VI
VII-X
१-१०४
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श्रीः
मूलचन्द जैन शास्त्रिरणा विरचितं
उत्सराद्धं पचनदूतम् ज्ञात्वं तज्जनक-जननी-बान्धवाश्चोर्जयन्तं,
____ गत्वा प्रोचुस्तपसि निरतं नेमिमित्यं स्वहार्दम् । प्रासीदेवं स्वाभिलषितं किं न पूर्व सयुक्तं,
सत्येवं नो भवति न विभो ! त्वत्कृता दुर्दशेयम् ॥१॥ अन्वय-अर्थ-(एवं ज्ञात्वा) हताश होकर राजमती भवन में आ गई हैं ऐसा जानकर (तज्जनक-जननी-बान्धवाः च) उसके माता, पिता और बन्धुजनों ने (उर्जयन्त गस्खा) गिरनार पर्वत पर जा करके (तपसि निरतं) तपस्या में- ध्यान में, मान हुए (नेमि) नेमिनाथ से (इत्थं) इस प्रकार का (स्वहार्दम्) अपना अभिप्राय (प्रोचुः) स्पष्ट रूप से कहा-(विभो) हे स्यामिन् ! यदि (एवं त्वदभिलषितं) एसा ही प्रापको अभिलषित था—करना इष्ट था तो (पूर्व) पहले से ही—अबकि प्रापका वाग्दान हो रहा था- तब ही--(तन फि न उक्तम्) मापने अपना बह अभिलषित-अभिप्राय-क्यों नहीं कहा, (एवं सति) यदि आप उसे कह देते तो (नः) हम लोगों को (त्वत्कृता) आपके निमित्त से (इयम्) यह (दुर्दशा) जो दुर्दशा (भवसि ) हो रही है (न) बह तो नहीं होती।
भावार्थ-राजुल जब नेमि के पास से हताश होकर वापिस अपने भवन में या गई और उसके आने की खबर जब उसके माता-पिता आदि हितचिन्तक जनों को पड़ी-तो ये सबके सब मिलकर गिरनार पर्वत पर पहुंचे । वहां पहुंच कर उन्होंने तपस्या में लीन हुए नेमिनाथ से बड़ी विनय के साथ कहा नाथ ! यदि आपको ऐसा ही करना इष्ट था तो जब प्रापका वाग्दान हो रहा था तब आपको अपना यह अभिप्राय स्पष्टरूप से फह देना चाहिए था, पर आपने नहीं कहा-यदि पाए अपना अभिप्राय प्रकट कर देते तो हम लोगों की ऐसी जो विवाद यह दुर्दपा आपके कारण हो रही है वह तो न होती ।
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वचनदूतम्
पद्यानुवार
मन्दाकान्ता छन्द-ज्यों ही जाना जनक-जननी ने समाचार सारा,
प्यारी बेटी रजमति सती का, गये शीघ्र त्यों ही । वे नेमी के निकट गिरि पै, साथ ले बन्धुओं को, बोले स्वामिन् ! अभिलषित था वेष ये जो धरा है। अच्छा होता प्रकट करते भाषना आप ऐसी, वाणी द्वारा प्रथम हमसे तो न होती हमारी । प्यारी बेटी रजमति सती की तथा बन्धुनों की, ऐसी जैसी अब बिकट ये दुर्दशा हो रही है ।।१।।
श्राटक छन्द–हो हताश राजुल गिरिवर से लौट भवन में आई है,
ऐसी. ज्यों ही मात सास ने खबर कर्णबाटु पाई है। स्यों ही चिन्तित, व्यथित हृदय में बंधुजनों से परिवृत हो, कल्पों जैसे संकल्पों से तजित मर्पित अदित हो । पहुँचे गिरि पर, गिरते पड़ते नेमि निकट, बोले उनसे, गद्गद् वाणी से यो स्वामिन् ! तुम्हें राग था मुनिपन से। सो हे नाध ! बना का बाना बना द्वार पर क्यों आये, और न पहिले से ही ऐसा निज मन्तव्य मता पाये । स्वामिन् ! वाग्दान से पहिले यदि मन्तब्य बता देते, तो हम भी सचेत हो जाते मोल न यह प्रापद लेते । होते श्राप न कारण इसके और न ऐसी ही होती, हम लोगों की विकट दुर्दपा। और न राजुल ही रोती ।।१।।
सा मे पुत्री व्यथितहृदया प्रत्यहं दुर्विकल्प---, __ स्वच्चिन्तोस्ः स्वपिति न मनाग निनिमेषाक्षिमुग्मा । वक्त्रं तस्या हिमकरनिभं त्वद्वियोगेऽस्तशोभम्, सूर्यापाये न खलु कमल पुष्यति स्वाभिस्याम् ॥२॥
अन्वय-अर्थ-हे नाथ ! (प्रत्यहं त्वञ्चिन्तीत्यीः) रात दिन प्रापको चिन्ता से उत्पन्न हुए (धिकल्पः) दुविकल्पों द्वारा (ब्यथितहृदया) जिसका हृदय व्यथित
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वचनदूतम्
पीड़ित हो रहा है ऐसी (सा) वह (मे पुत्री ) मेरी पुत्री (निर्निमेषा क्षियुग्मा ) श्रफलक नयन वाली हो गई है - और (मनाम् न स्वपिति) निद्रा भी उससे किनारा काट गई है । श्रतः (हिमकरनिभं ) चन्द्रमा के जैसा ( तस्यां वक्त्रं ) उसका मुख ( त्वद्वियोगे ) आपके वियोग में (अस्तोभम् ) शोभा विहीन हो गया है। ( खलु) सच है-- (सूर्यापाये) सूर्य के नहीं रहने पर ( कमल) कमल (स्वाम् अभियां ) अपनी शोभा को प्राप्त नहीं करता है ।
भागार्थ को स्वाभिम् !
उदभूत हुए चिन्ताजन्य दुर्विकल्पों मे मेरी पुत्री को रात दिन इतना अधिक परेशान कर रक्खा है कि कुछ कहते नहीं बनता, निद्रा उसकी चली गई है। केवल --- टकटकी लगाये हुए वह देखती रहती है । चन्द्र के जैसा सुहावना उसका मुख अब ऐसा हो गया है कि जैसा सूर्य के प्रभाव में मुरझाया हुआ कमल होता है ।
स्वामिन्! मेरी वह प्रियसुता भापके ध्यान से है, भारी दुःखी, निशदिन उसे सोच है आपका ही । चिन्ता से वो बस व्यथित है, खेदखिन्ना विकल्पों, द्वारा भारी, विगत उसकी नींद भी हो गई है । पूछें तो भी नहि स्वमन की बात वो है बताती,
आँखें उसकी अपलक हुईं सोच की तीव्रता से । चन्दा जैसा वदन उसका हो गया कान्ति हीन, हो जाता है रविविरह से कंज जैसा मलीन ||२ ||
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नाथ ! आपके महाविरह से मेरी पुत्री राजमती | व्यथित हृदय हो रात दिवस ही मन ही मन रोती रहती । समझाने पर मौर प्रषिक वह दुःखित हो क्लेशित होती, चिताजन्य विचारों से वह नहीं नींद भर भी सोती । अपलकलयन वदन शोभाविन उसकी धन्तज्वला को, विना कहे ही प्रकटित करता पतिविछोह की पीड़ा को । अतः इन्दुमण्डल सा उसका श्रीमण्डल से हीन हुआ, मुखमण्डल, रविमण्डल के विन कंज सहश भतिमलिन हुआ || २ ||
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वचनदूतम्
मुक्त्वेमा कु कृमिकुलवितां श्वापदाढ्यामयोग्याम्,
धीन होनः सप्तरसहितां रक्षकः रिक्तदेशाम् । हिस्र जो नवपरिवतो कान्त ! में कान्तमाह
पस्त्वं शस्त्यं सुजननिचितं द्वारपालः सुरक्षम् ।।३।। मन्वय-अर्थ---(कान्त) हे स्वामिन् ! (कृषिकुलचिताम्) कीड़ों के समूह से भरी, (श्वापदायाम् ) जंगली जानवरों से युक्त (अयोग्याम्) आपके रहने के अयोग्य (दीनः हीनः) दीन हीन मनुष्यों के लिये (सतनसहिताम्) सदा हितकारक और (रक्षक: रिक्तदेशाम्) रक्षक जहां एक भी जन नहीं है । ऐसी (इमां कुमुक्त्वा ) इस भूमि को-जगह-को-छोड़कर भाप (कान्तम् ) मनोहर (मे) मेरे (पस्त्य) घर परराजमंदिर में-जो कि (शस्त्यं, सुजान निचितम्) हर प्रकार की सुविधाजनक साधन सामग्री से युक्त होने के कारण पारामप्रद है और सुजनों से भरपूर है तथा (द्वारपाल: सुरक्षम्) द्वारपालों द्वारा सुरक्षित है (एहि) पधारो।
भावार्थ हे नाथ ! यह स्थान मैकड़ों प्रकार के विषैले डांस, मच्छर, कृमि प्रादि कों द्वारा भरपूर है, यहां शिकारी भयङ्कर जंगली जानवर रहते हैं । हीन दीन जन जो कि प्राक्रमणकारी जानवरों से प्रापकी रक्षा नहीं कर सकते निवास करते हैं । अतः ऐसे इस चित्तक्षोभी गिरिप्रदेश को छोड़कर मेरे राजभवन में जहां कि सुजनों से आपका सम्पर्क रहेगा. चित्त में वहां किसी भी प्रकार की अशान्ति नहीं रहेगी, चौबीस घन्टे जहां रक्षक-पहरेदार-प्रापकी सेवा में उपस्थित रहेंगे आप पधारो । स्वामिन् ! छोड़ो इस गिरि-मही को न ये बासयोग्य,
है, है क्योंकि प्रचुर इसमें कोटराशि विषैली । है चारों ही तरफ इसमें जंगली प्राणियों की
टोली, होगा नहि रजनि में प्रापका कोइ त्राता दीनों की है वसति दुखियों की यहां एक मात्र
जो है ऐसी नहिं कर सके आपकी देहरक्षा; सो मानों हे यदुकुलपते ! छोडके आप इस्को
प्रामो मेरे भवन सुजनों-रक्षकों से घिरा जो, नाथ ! आपका इस गिरी-ऊपर वास नहीं सुखप्रद जचता क्योंकि विर्घले कीड़ों का ब्रज यहां सदा फिरता रहता ।
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वचनद्रुतम्
कैसे धर्मध्यान सधेमा होगा मन अविचल कैसे, क्षरण क्षरण में वह रक्त पियेगा इस इस कर जब तन में से, sarvaकुल विकराल काल सा पद पद पर फिरता रहता, जीवघात करके जो अपना गह्वर-उदर भरा करता, दीनहीन तनक्षीण मलिनमुख जनता यहां पर रहती है हिंसक जीवों के घातों से रक्षाशक्त न दिखती है
अतः छोड़कर इस प्रदेश को राजमहल में श्राप चलो कान्त ! शान्त प्रातङ्क हीन उसमें निशङ्क वन ध्यान करो ।।३।।
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अद्रेः शृङ्गप्रियहुपते ! कंटकाकीर्णमेतत्
मुञ्चाशु एवं शवरदयिता वीक्ष्य नग्नं यतस्त्वाम्, ईषद्धास्या श्रवनतमुखा लज्जया निम्दयन्त्यः,
यास्यत्यस्मादविनययुता गहितां वाचमुक्त्वा ॥४॥
अन्य प्रयं - ( प्रियमपते ) हे प्रिययदुपते ! ( कंटकाकीर्णम्) कांटों से भरी हुई ( एतत् शृङ्ग) इस पर्वत की चोटी को (त्वम्) आप (आशु मुञ्च ) शीघ्र छोड़ दीजिये | ( यतः ) क्योंकि ( त्वाम् ) आपको (नग्न) नंगा ( वीक्ष्य) देखकर ( वरदयिताः ) भीलों की पत्नियां ( ईषद्धास्या) पहिले तो मुस्कायेंगी, फिर ( लज्जया ) लज्जा से ( श्रवनतमुखाः) वे अपना मुख नीचा कर लेंगी, बाद में (निन्द्रयन्त्यः )
)
आपकी निंदा करती हुई वे (महितां वाचम् उक्त्वा श्रविनययुताः अस्मात् ) प्रापके प्रति विनय न दिखाकर से ( यास्यन्ति ) निकल जायेंगी ।
अपशब्दों का प्रयोग करके आपके पास से होकर के यहां
भावार्थ हे यदुवंशियों के लाडलेलाल ! प्रापको यह पर्वत का शिखर जल्दी से जल्दी छोड़ देना चाहिये। क्योंकि यह नुकीले कांटो से भरा हुआ है और प्रापके कोमल चरणों में उनसे रक्षित होने का कोई साधन नहीं है। तथा यहीं से होकर भीलों की
स्त्रिया माती जाती रहती हैं। सो जब वे आपको रास्ते में नम्न स्थिति में बेठा हुप्रा देखेंगी तो लज्जा से उनका मुख नीचा हो जायेगा। वे प्रापकी प्रशंसा न कर प्रत्युत निंदा ही करेंगी और जो उनके मुख में आयेगा वही बकेंगी ।
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वचनदुतम्
छोड़ो छोड़ो प्रियदुपते ! आप ये शृङ्ग जल्दी,
ती काटो सहित क्षति है क्योंकि यहां की विषैली । भिल्लश्यामा प्रतिदिन यहीं से सभी नाथ ! होके,
आती जाती, लखकर तुम्हें मार्ग में नग्न बैठा, होवेगी ये अमित, घुंघटा से केंगी स्व आस्य
मुस्कायेंगी, निकल करके वे यहां से जहां भी, जायेंगी, व्हां खुलकर विभो ! श्रापकी वे करेंगी,
निदा भारी, सुनकर जिसे दुखः होगा हमें भी, तानें देंगी, हर तरह से गालियां भी बकेंगी,
स्वामिन् ! बोलो तब फिर यहाँ बैठना योग्य कैसेमाना जावे, उचित अब तो है यही नाथ ! मेरेरक्षाशाली घर पर चलो, है बड़ा वो प्रशस्त बाधा होगी नहीं तनिक भी आपको नाथ ! व्हां पे ||४||
कंटक - निकर सहित गिरिवर के तजो नाय शिखरस्थल को यदि चाहते शांति स्वान्त में और चाहते मंगल को नहीं समा ध्यान आपका यहां न मन सुस्थिर होगा क्योंकि यहां कारण हैं ऐसे जिनसे यह विचलित होगा गिरिवासी भीलों की प्रतिदिन श्यामा प्रोढा मुग्धाऐं सभी यहीं से आती जाती सधवा विधवा बालाएँ नग्न तुम्हें बैठा देखेंगी वे ज्यों ही शरमायेंगी हँसी करेंगी प्रोर गालियां भी अपार बरसावेंगी ताना देंगी नाना तुमको तुम्हें बुरा बतलायेंगी निंदा करती हुई अन्त में के तुमको घमकावेंगी कहो कौनसी शोभा इसमें नाथ ! आप भी तो सोचों राजपुत्र हो घृणा पात्र बन क्यों जीवन को यों दो।४
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वचनदूतम् नास्तीदं ते शिखरिशिखरं ध्यानयोग्यं यतस्त्वाम्,
दष्ट्वा वस्त्रव्यपगततनु, स्वीयकार्य विधातुम् । यान्तो भिल्लाह पथि गतं धर्ममार्गानभिज्ञाः,
विघ्नीभूतं विविविधिभिस्तायिष्यन्ति मत्त्वा ॥५॥ मन्वय-अर्य-हे नाय ! (इदं शिखरिशिखर) यह पर्वत प्रदेश (ते ध्यानयोग्य नास्ति) प्रापको ध्यान करने योग्य नहीं है । (यतः) स्योंकि (स्वीपकार्य) अपने कार्य को (विधातुम्) संपादित करने के लिये (यान्तः) जाते हए (भिल्लाः) भील लोग जो कि (धर्ममार्गानभिज्ञाः) धार्मिक मार्ग से अपरिचित होते हैं (इह पथि) इस पर्वतीय मार्ग पर (वस्त्रव्यपगततनु स्वाम् ) वस्त्रविहीनशरीर वाले नग्नआपको (दृष्ट्वा) देख कर (विघ्नीभूतं मत्वा) भौर अपने कार्य की सिद्धि में विघ्नरूप मान कर (विविविधिभिः) !- को अनेक से शामि , प्रा हिंड करेंगे।
भावार्थ- हे नाथ ! यह पर्वतीय प्रदेश मापके ध्यानयोग्य इसलिए भी नहीं है कि धार्मिक मर्मादा को नहीं जानने वाले शबरजन इसी मार्ग से होकर अपने कार्य के संपादनार्थ निकलते रहते हैं, अतः जब वे यहां से होकर निकलेंगे और आपको नग्न बैठा हुअा ज्यों ही देखेंगे तो अपने कार्य की सिद्धि में मापका दिखना विनरूप मानकर वे प्रापको अनेक प्रकार से प्रताडित करेंगे। स्वामिन् ! मानो यह गिरिमही है नहीं ध्यानयोग्य,
आते जाते प्रतिदिन यहीं से सभी भील क्योंकि, प्रातः होते प्रथम निजका कार्य संपादनार्थ
देखेंगे वे जब वसन से रिक्त नंगा तुम्हें तो मानेंगे वे अपशकुन सर आपको हा ! अधर्मी
सोचेंगे यों नहिं यब सधेगा जरा भी हमारा धारा कार्य, प्रधमकवले मक्षिका पात जैसा
नंगा बैठा यह दिख पड़ा, कार्य में विघ्न होगा सो ऐंठेंगे कुपित बनके पाप पैं, पापको वे
देंगे गाली, भय नहीं करेंगे बकेंगे यथेच्छ सा.गे वे हर तरह से प्रौ दयाहीन होकें।
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वचनदूतम्
पाषाणों से लकुट थपडों और शस्त्रों शरों से इस्से तो है सुभग ! यह ही श्रेष्ठ छोड़ो इसे, औ मेरे प्यारे सदन पर ही आप यहां से पधारो ॥ ५ ॥
नाथ ! नहीं है ध्यान योग्य यह अबलावल सोपद्रद है, वही चला है ध्यान योग्य तो होती जो निरुपद्रव है । हत्यारे भीलों की टोली क्योंकि यहीं से होकर के, अपने इष्ट कार्य संपादन हेतु निकलती सजधज के । प्रातः सो जब तुम्हें मार्ग में नंगा बैठा देखेगी, तो वह कार्यसिद्धि में तुमको विघ्नरूप हीं मानेगी । होगी रुष्ट ब्रुष्ट बनकर वह प्रभो ! तुम्हें धमकावेगी, ताड़ेगी, मारेगी श्री क्या ना जाने करवायेगी ॥ ५ ॥
अत्यांविर्मा,
शिष्ट: रितां गुलिगावरेस्स्यक्तवेशां दुराढ्याम् । मत्वा त्याज्यां सुजनसहितां सौधभूमि प्रयाहि,
यामध्यास्ते दिवस विगमे नीलकण्ठः सुहृद्धः ॥६॥
अन्वय अर्थ - हे नाथ ! (विषमविषमां ) प्रतिविषम, ( कठोराम ) कठोर, ( शिष्ट: रिक्ताम् ) शिष्ट जनों से विहीन, ( गुणिगरणवरैः त्यक्तदेशाम् ) गुणीजनों द्वारा सर्वधा हेय एवं (दुराद्वयाम्) दुःखों से भरपूर (त्यां एतां भूमिम् ) यहां की इस भूमि को स्थान को - ( त्याज्यां मत्वा) छोड़ने योग्य मानकर ( त्वं ) आप ( सुजनसहित सौभूमि प्रयाहि) अच्छे सेवाभावी जनों से परिपूर्ण ( साँधभूमि ) राजमन्दिर में (प्रमाहि) पधारों (याम् ) जिस पर ( दिवसविगमे ) सायंकाल के समय ( ब ) श्राप के जैसा हृवयवाला (नीलकण्ठः ) मयूर (अध्यास्ते) बैठता है ।
नीची ऊंची है, कठोर है,
भावार्थ -- हे स्वामिन् ! यहां की यह भूमि प्रत्यन्त एक भी शिष्टजन यहां रहता नहीं है । श्रेष्ठ गुणियों का यहां कष्टों के अतिरिक्त साता एक क्षण की भी नहीं है, छोड़कर राजमन्दिर की भूमि को अलंकृत करें। वहां श्रापको सज्जनों का सहवास
यहां सर्वथा प्रभाव है । अतः श्राप इस स्थान को
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वचनदूतम् मिलेगा और सायंकाल के समय भापके जैसा हृदयवाला पयर केकावारणी मनाकर आपका मनोरंजन करेगा।
देखो स्वामिन् ! अतिविषम है ये यहां की धरित्री
मिट्टी भी तो नहिं नरम है है बड़ी ये कठोर शिष्टों से भी रहित यह है बुद्ध ओं से भरी है
कष्टों से ही कण कण यहां का सना है, न साताकोई पाता रहकर यहां, है अतः त्याज्य ही ये
ज्ञानानंदी सुजन जिसमें तत्त्वचर्चा करे हैं सायं प्यारा सुहृद सम ज्यां बैठता नीलकण्ठ
केका द्वारा सुभग ! गुण गा गा तुम्हारी होगाचित्ताशांति, सुखित मन होगा प्रभो ! आपका, सो
मेरे प्यारे उस सदन में आप स्वामिन् ! पधारो देखो थोड़े समय रहकै कोइ बाधा न होगी ।।६।।
गिरिवर की यह मही विषम है, है कटोर, अरु भयप्रद हैहिंसक जीवों के निवास से, कण करण इसका दुखप्रद है, शिष्टों के दर्शन दुर्लभ हैं, है पशिष्ट ये पारण्यक, रक्षाशक्त न दिखता कोई, सबके सब है जन-वासक, । इसीलिये यहाँ का निवास है नहिं प्रातक विहीन, मुनो आपद मोल स्वयं क्यों लेते, कुछ तो मन में पाप गुनो, अतः प्रार्थना नाथ ! यही है इसे तजो, मम मन्दिर मेंचलो, न बैठो, मानो प्रब इस, गिरिवररूपी जंगल में सायं जहां सदन पर भाकर भोर शोर कर जो नचता मानों कर फैलाकर केका द्वारा तुमसे यों कहता पामो सखे ! न जाणो भन तुम मोर कहीं, बस रहो यहीं राजुल के सँग गृहस्थधर्म को पालो नैष्ठिक बनो सही ।।६॥
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वचनदूतम्
स्वय्यालोना विरहृदिवसास्तेऽधुना संस्मरन्ती,
स्काभूषा कुसुमशयने निस्पृहाऽस्वस्यचित्ता । गत्वेकान्तं प्रलपति भृशं रोदिति ब्रूत, इत्थम् -
जातां मन्ये शिशिरमथितां पद्मिनीं वाच्यस्वाम् ||७||
अन्वय अर्थ हे नाथ ! (त्वयि प्रालीना) आपके ध्यान में निमग्न हुई वह मेरी पुत्री (अधुना ) इस समय (ते विरहृदिवसान् ) आपके विरह के दिनों को (संस्म रन्ती) याद करती हुई (कुसुमशमने निस्पृहा) पुष्पों द्वारा रची गई सेज की भी चाहना से शून्य हो चुकी है। (त्यक्ता भूषा) प्राभूषणों को भी उसने छोड़ दिया है (अस्वस्थ - चित्ता) उसकी बाहरी चेतना चली गई है, वह (एकान्तं गरबा ) एकान्त में जाकर के ( प्रलपति) प्रलाप करती है और प्रलाप करते करते ( रोदिति) रोने लगती है । तथा (ते) जो मन में आता है वह कहने लगती है । (इत्थं जाताम् ) इस प्रकार की दशा में पहुंची हुई उसे (शिशिरमथिता) मैं शिशिर से मथित (प्रम्मरूपाम् ) श्रन्यरूपवाली (पतिवा) पद्मिनी की तरह (मन्ये) मान रहा हूं ।
मेरी पुत्री राजकर जिसे आप आये यहां हैं,
है वो दुःखी विरहदिवसों की सती याद से ही है संमग्ना बस वह प्रभो ! श्रापके ध्यान में हो,
सो पुष्पों की रचित उसको सेज है ना सुहाती । भूषा छोड़ा, अरु तज दिया भेष भी तो सलोना
चित्त ग्लानि प्रशम करने हेतु जाती जहां भी रोती है वो विरह दिवसों की बहां याद से ही
प्राता जी में बस वह वही बोलती व्यर्थ जैसा, छोड़ी स्वामिन् ! इकदम उसे आपने, हो गई सो
ऐसी जैसी शिशिरमथिता पद्मिनी हो विरूपा ॥७॥ ॥
त्यागी जब से नाथ ! आपने मेरी पुत्री राजमती. तब से तो वह विरह दुःख से हो गई भिन्नाकारवती । दूषण सम आभूषण उसने इकदम ही परित्यक्त किया, प्रग्नि जान पुष्पों की शय्या का भी तो परिद्वार किया
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वचनदूतम्
नाथ गये हैं जब से मुझको तत्र इतने दिन बीत गये, मुझ अभागिनी के अब सब ही हाय ! मनोरथ सूत्र गये, विरह दिनों की यह गिनती ही उसे व्यथित करती रहती, चैन न लेने देती उसको और रुलाती है रहती
रात दिवस वह ध्यान आपके में है मग्ना भूल गई - यी सूख गई
मनःशान्ति के हेतु जब कभी वह एकान्त में है जाती, विरह दिनों की यहाँ भी स्मृति से छाती उसकी भर भाती साथ नाथ का छूट गया बस ऐसी वह बातें कहती शिशिर मथित यह पद्मलता सी प्राकृति से बिरूप दिखती ॥ ७ ॥
अस्या नूनं प्रतिदिनभुनाऽऽक्रन्दनेनाथ नाथ !
नश्वितं हा ! गृहनिवसतां यते श्रोत्रगेन । श्रष्ठं कृष्णं भवति हृदयं बोध्य वीणं तथाऽऽस्यम् इन्दोग्यं त्ववनुसरण क्लिष्ट कान्तेविभति ॥८॥
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वय -- (नाथ) हे स्वामिन् ! ( प्रतिदिनना) प्रत्येक दिन के (अस्याः) इसके (योगेन) सुने गये (श्राक्रन्दनेन) वन से (गृहनिवसता) घर में रहने वाले (नः) हम सबका (हा चित्त दूयसे) मन दुःखित होता है। इसका (प्रोष्वं कृष्णम्) घरोष्ठ काला (अक्ष्य) देखकर (हृदयंदीर्णम्) हृदय फटा जाता है। तथा ( त्वदनुसरलष्टकान्तेः) आपके अनुसरण करने से फीकी कान्तिवाली (श्रास्यम्) इसका मुख (उदा: देrयं विभति) चन्द्रमा के जैसा दीनता को धारण कर रहा है ।
भावार्थ हे नाथ! प्रतिदिन के इसके श्राक्रन्दन से हम सब घर में रहने वालों का मन बहुत अधिक दुःखित होता है। कृष्ण हुए इसके अधरोष्ठ को देखकर हमारी छाती फटती है। तथा धनघटा के घिर आने से जिस प्रकार चन्द्रमंडन फीका पड़ जाता है, इसी प्रकार प्रति समय श्रापके स्मरण करते रहने से उसका मुखमंडल भी प्रभाविहीन हो गया है ।
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वचनदूतम् रोती है वो प्रतिदिन तुम्हें ध्यान में नाथ ! लेके,
सो होता है सुनकर हमें चित्त में दुःख भारी। कालर-काला अघर उसका देख छाती फटे है,
चन्दा जैसा वदन उसका हो गया नाथ ! ऐसा जैसा होला सघनधन से इन्दु का बिम्ब फीका
मानों स्वामिन् ! अब घर चलो कष्ट क्यों भोगते हो देखेगी वो रजमति सुता सम में आपको-तो
मानेगी वो सफल अपना जन्म पाके तुम्हें ही ॥८॥ नाथ ! प्रापकी स्मृति से ही यह प्रतिदिन है रोती रहती, उसके करुणाकन्दन को सुन चैन हमें भी नहिं पड़ती दीर्घ उष्ण बासों से उसका विद्रम जैसा लाल हुषा। अघर प्रोष्ठ कासा, पाला से मानों सरसिज दम्ध हुमा । प्रतिक्षण भाला सा यह करता हृदय विदीर्ण सभी का है। भनियो भने पर कोई कभी न रहता नीका है । उसका सुन्दर प्रानन तो प्रब ऊजड कानन सा लगता मेघों से प्रावृतमय के बिम्ब तुल्य निष्प्रभ दिखता ॥८॥
पान स्वां मुवितमनसा या पुराऽयेत्य नाथ,
स्वन्मुक्ता सा मवति विकला साम्प्रतं धैर्यमुक्ता। गच्छातस्त्वं सुलय सदयो वीक्ष्य केशास्तकान्ति,
तामुनिद्रामवनिशयनां सौधवातायनस्थः ।।६
भावार्थ---हे नाथ ! जिसने पापको अपना प्राणनाध मानकर प्रसन्नचित्त से पहिले पूजा की, आपने उसी का परित्याग किया, इसी कारण वह इस समय धैर्यरहित होकर बड़ी विकल हो रही है, अतः आप जाकर कम से कम उस केशास्तकान्तिवाली मेरी सुता को उसकी वासमबन की खिड़की से ही देखकर सृखित कीजिये । वह निद्राविहीन हुई जमीन पर ही बैठी हुई पापको दिखेगी। पूजा में जो रत नित रही अापकी, सो उसी को
छोड़ा स्वामिन् ! बिन कुछ कहे, आपने ये किया क्या?
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वचतदूतम्
देखो जाके विकल वह है, आपके त्याग से ही,
साता जैसा सुभग क्षण भी एक भी है न, उस्के । जी में, सो वो सब तरह से ही असाता-युता है,
होवेंगे वे अब नहिं कभी नाथ मेरे, न मैं भी हो पाऊँगी, अब कहिं कभी हन्त ! पत्नी उन्हों की,
कर्मों की ये अति सबलता हाय ! कैसो अनोखी, छीना मेरा सुपति जिसने देखते देखते ही
द्वारे आये पर नहिं थमे वे वहां नैक भी तो। जो वे जाते थम यदि वहां तो मना नाथ को मैं
लेती, लेती चरणरज को नाथ की माय 4 में । जाने देती फिर नहिं उन्हें रोक लेती अकेली,
हो जाता ये सफल भव प्रौ नाथहीना न होती, ऐसी ऐसी निजहृदय की वेदना की कथा को,
ज्यों ही धैर्यच्युत बन विभो ! वो सुनाती सभी को । तो कोई भी जन नहिं तुम्हें नाथ ! अच्छा बताता,
जायो देखो सदय उसको म्लान हैं केश जिस्केवेणी के, श्री नयनयुग भी नींद से है विहीन, __ स्वामिन् ! उसके यदि न शयनागार में जा सको तो। बारी से ही बस तुम उसे देखलो सौध की, वो
चिन्तामग्ना अवनितल प हाय ! बैठी दिखेगी। हो जावेगी लखकर तुम्हें वो अधीरा निहाल ।।६।।
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भरयौवन में दीक्षा लेकर मुझे नाथ ने है छोड़ी नोभव से जो चली प्रारही प्रीति उसे सहसा तोड़ी कारण कुछ भी कहा न मुझसे ध्यानमग्न हो गिरिब कैसे घेर्य धरू हे सजनी ! साजन ही जब यों रूठे 11 मेरी जैसी नहीं प्रभागिन इस जग में नारी होगी ग्रास हाथ का छीन जिसे विधि ने ठोकर यों दी होगी ऐसे ही विचार से मेरी सुता विकल नित रहती है। राजमहल में रहती हु निज भाग्य कोसती रहती है
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वचनदूतम् जिस पाशा के बल पर अबतक यह घर में रहती प्रामी उस प्राशा के तार बिखर गये उसे वेदना है छायी कान्तिहीन हो मुस्न पर विखरे जुडा के वे फीके केश विरह-वन्हि के मानों ये हैं उद्यत हुए धूम्र अवशेष जागो जाओ! सुखी करो मन सदय नाथ ! उस राजुल को काजलहीन नींबविन नयना जिसके तरसे स्वागत को नाथ मानकर विभो ! प्रापकी जो पूजा में रक्त रहीं उसे त्यागकर कहो आपने कौन कमाई भली करी पृथ्वी-शय्या पर जो बैठी बाट देखती रहती है जाकर ढाडस उसे बँधावो यही साधुता कहती है जान सको यदि शयनकक्ष में तो उसकी ही खिड़की से उसे देखलोगे तो होगी मुखी दृष्टि की वृष्टी से ||६||
याऽनषीत् त्वद्विविधकथयामा सखीभिनिषण्णा,
बौधों रात्रि क्षणमिव भुवा स्त्रीयसौभाग्यजुष्टा । तामेवोषण विरहमहतो मधु भिर्यापयन्ती,
तां क्लिन्नास्यां करतलागतागण्डपाली प्रपश्य ॥१०॥ अन्वय-अर्थ हे नाथ ! (सखीभिः प्रमा) अपनी सखियों के साथ (निपणा) बैठी हुई (या) जिसने (त्वद्विविधकथया) आपके सम्बन्ध की अनेक प्रकार की चर्चाओं को लेकर (मुद्रा) प्रसन्न मन से (दीत्रों रात्रिम्) लम्बी-लम्बी रात्रियों को (स्वीयसौभाग्यजुष्टा) अपने सौभाग्य से संतुष्ट बन कर (क्षणमिब) एक क्षरण की तरह (अनंषीत्) व्यतीत किया (ताम् एव) उन्हीं रात्रियों को जो क्रि (विरह महतीम) प्रापये विरह से उसे बहुत बड़ी लगती हैं प्रब (उपरणेः अश्वभिः ) गर्म-गर्म प्रभुत्रों के साथ (यापमन्तीम्) बह निकाल रही है । ऐसी (क्लिनास्याम्) प्रांसुरों से गीले मुखवाली और (कस्तलगतागण्डपालीम) चिन्ता के मारे जिसने अपने गाल को हथेली पर रख लिया है (ताम् ) मेरी उस मुला को आप जाकर (प्रपश्य) देखने की कृपा करें। . प्यारे-प्यारे तव गण-गुणों की कथा के सहारे
रातें जिसकी क्षरण सदृश ही चन से बीतती थीं।
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वचनद्वतम् बैठे-बैठे निजभवन में साथ में आलियों के, . वे ही रातें अब विरह की व्योम जैसी घनी सी। लम्बी-लम्बी बनकर उसे हैं सताती रुलाती, ___ काटे से भी नहिं विरह की बीतती वे निशाएँ । सो रोती है विकल बम के प्रासुनों को बहाती,
नेत्रों से वे विगलित हुए अश्व, गण्डस्थली पैं। हो जाते हैं स्थिर फिर उन्हें पोंछतो और रोती,
जैसे-तैसे इस तरह वो हा! विचारी अकेली। रात्रीयों को क्षपित करती गाल पें हाथ दे दे,
जामो-जाओ लखकर उसे धैर्य ही को बंधायो । होगा ऐसे सुजस जग में पुण्य का बन्ध होगा,
जो देता है दुखित जन को शांति है साधु वो ही ११०।।
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बैठ भवन में कथा मापकी से व्यतीत जो करती थीरजनी को सबनीमों के संग, सुख विभोर पो बनती थी, अमन चैन से हरी भरी वे रातें बातों-बातों में । क्षण सम होकर निकली जिसको सुल भरती थीं गातों में, पर हा ! अब के हो तो रातें उसको ही विलपाती हैं । कलपाती हैं डरपाती हैं जो को भौर जसाती हैं, • नभस्थली के तुल्य पसीमित लगती हैं वे बड़ी-बड़ी । मरी हुई को मार रहीं जो वे ही रावें घड़ी-बड़ी, निद्राभंगरूप में ताना देकर यों धमकाती हैं। "कहाँ गये के सेरे बालम कह, कह कर चमकाती हैं, पहिले के वे सभी मनोरथ देख कहाँ किस बाट पड़े । जिनके लिये सजाये तूने ये तन में शृङ्गार बई, सौ-सौ बाट ठाट सब हो गये नहीं एक भी दिखता है । नयन युग्म जिनके तकने को तेरा हाय तरसता है, ऐसे तानों से ही मानों उसके. नेत्र बरसते हैं। मथू नरी के मरमानों के रक्षकदल से बनते हैं,
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वचनदूतम् घरे गाल पर हाथ सोचती उनको मैं कैसे पाऊँ, धौर्य बंधात्री नाथ ! साधु हो तुमको, मैं क्या समझाऊँ ।।१०।। अस्माकं विश्वसिप्ति बचनं न त्वदीयं मनश्चेत्,
गत्वा तहि स्वनयनपुगेनाबलोक्या सतो सा। जानीमस्तां वयमतिजास्त्वनिमग्नेकनुद्धिम्,
साधेडलीव स्पलकमलिनी न प्रमुखां न सुम्साम ॥११॥
अन्वय अर्थ हे नाथ ! (चेत्) यदि (त्वदीयं मनः) आपका मन (अस्माकं वचनम्) हम लोगों की बात पर (न विश्वसिति) विश्वास नहीं करता हो (तर्हि)
तो (गत्वा) जा करके (सा) उसे पाए (स्वनयनयुगेन) अपनी आँखों से (अब..:: खोक्या) देख लें (वयं) हम लोग तो (अतिजड़ाः) बिलकुल मूर्ख हैं । सो (तां त्वनि....:, मग्नकबुद्धिम्) उसे "वह आप में ही दत्तचित्त है" ऐसा ही (जानीमः) जानते हैं ।
इसलिये (साभ्रे प्रन्हि) वह मेघ वाले दिनों में (स्थलकमलिनीम् इव) स्थलकमलिनी के समान (न प्रबुद्धां न सुप्ताम्) न सोती हे पोर न जगती है । उसकी तो कोई अपूर्व ही स्थिति है।
भावार्थ-हे स्वामिन् ! हो सकता है कि जो कुछ हमने अापसे राजुल की स्थिति के सम्बन्ध में प्रकट किया है उस पर प्रापको विश्वास न हो तो प्रार्थना सही हैं कि आप एकबार यहां पधार कर स्वयं अपनी आँखों से उसकी परिस्थिति का अध्ययन करें, हम तो सामान्यजन है और उसकी दयनीया दशा देखकर यही समझे हुए हैं कि उसकी इस प्रकार की दुर्दशा का कारण आपका विरह ही है । अतः मेघों से पाच्छादित दिवस में जैसे स्थलकमलिनी न प्रफुस्लित होती है और न मुकलित हो । वैसे ही वह न तो सचेत हैं और न अचेत ही; अपूर्व ही उसकी हालत है ।
स्वामिन् ! मेरे कथन में जो न विश्वास हो, तो,
जाके देखो नयन अपने से स्वयं नाथ ! उस्को । हे वो मग्ना बस इक तुम्हीं में यही जानते हैं,
देखोगे तो इस कथन में तथ्यता ज्ञात होगी। जैसी होती स्थलकमलिनी मेघ वाले दिनों में,
ऐसी ही है इस समय वो जागती है न सोती ॥११॥
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वचनदूतम् नाथ ! प्रापको मेरे कहने पर होता यदि नहिं विश्वास, तो जा करके स्वयं देख लें उस दुखिया को बनी उदास । हम तो अब तक यही समझते "बह अपने मनमन्दिर में, ६: बनम तुम्हें बिना पूर्ण कर में । प्रतः लीन वह दीन तुम्हीं में हैं सो विरह वेदना से । ऐसी प्राकुल व्याकुल है हम कह न सकें इस रसना से, दुदिन में होती है जैसी स्थलकमलिनी हा ! बेहाल । ठीक दशा वैसी है उसकी नहि प्रबुद्ध नहि सुप्त प्रबार, ॥११॥
इतस्तत्सखीनां निवेदनं प्रारभ्यते
एतासु काचित् तस्या अन्तर्वेदनां स्ववचनव्यनक्तिइस्थं तस्या व्यसनभरिसं वृत्तमावेश सम्यक,
तूष्णीभूते पितरि च तदा प्रोक्तमालीमिरेसत् । त्यक्ता राजीमतिरतिसती या स्वया कश्यमेतत्,
अश्लाघाहं जगलि भवतो वाच्यताभधायि जातम् ॥१२॥
अन्वय अर्थ -(इत्यं व्यसनभरित) इस प्रकार के कष्टों से भरे हुए (तस्याः दृतमावेध) राजुल के वृत्तान्त को सुनाकर--कह कर (पितरि तूष्णीमूने) उसके पिता जब चुप हो गये (तदा) तब (प्रालीभिः) राजुल की सखियों ने (एतत् प्रोकम्। यह कहा कि (अतिसती या राजमतिः त्वया त्वक्ता) जो अापने सनी-साध्वी राजुल का परित्याग किया है सो (एतत् कृत्यम्) यह काम {अश्लापाह) प्रापकी प्रशंसा के योग्य नहीं होकर (जाति) संसार में (भवतः वाच्यताधायि) उल्टी आपकी निदा कराने बाला ही (जात) हुआ है।
भावार्थ-जब राजुल की व्यथा कह कर उसके पिता चुप हो गये तब गजुल की सखियों ने नेमि से कहा कि प्रापने राजुल का त्याग कर जगत में अपना प्राइशं उपस्थित नहीं किया किन्तु इससे तो आप जगत के समक्ष निंदा के ही पान बने हैं।
दुम्प से भरित वृत्त राजुल का इस प्रकार से कह करके, चुप जब पिता हुए, सखियों ने अपना मौन भंग करके ।
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वचनतम्
कहा—नाथ ! नहि किया आपने यह कारज अभिशमा योग्य,
राजुल का परिहार बना है सिर्फ आपको निद्रा योग्य ।।१२।। स्वामिन् ! रात्र्या सह निवसनादेख चन्द्राधकास्ते,
भास्वरकानया रविरपि तथा सत्सडागोऽउजलवाया। एवं मर्त्यः शुभकुलजया धर्मपत्न्येति भत्मा, ___ तो स्वीकृत्याचर गहिवर्ष स्थास्ततस्त्वं मुनीन्द्रः ॥१३॥
अन्वय अर्य- (स्वामिन्) हे नाध ! (राम्या सह निवसनात् एव) रात्रि के साध रहने से ही (चन्द्रः) चन्द्रमा (चकास्ते) चमकता है. (भास्वत् कान्त्या सह निवसनात् एत्र) अपनी चमचमाती हुई क्रान्ति के साथ रहने से ही (रविः अपि तधा) सूर्य उद्दीपित होता है (सत्तडागः प्रजलक्ष्म्या सह निवसनात् एव) और सरोवर कमलनी के साथ रहने से ही सुहावना लगता है, (एव) इसी प्रकार (शुभकुलजया धर्मपत्न्या सह निवसनात् एत्र) अच्छे प्रशस्त कुल में उत्पन्न हुई धर्मपत्नी के साथ रहने से ही (मत्यः) मानब मोभित होता है (इति मत्वा) ऐमा मानकर (स्वं तां स्वीकृत्य गृहिवार आचर) पाप पहिले उस राजुल को स्वीकार करके गृहस्थ धर्म पालो (ततः मुनीन्द्रः स्याः) बाद में मुनि धर्म अंगीकार करो।
भावार्थ---हे स्वामिन् ! जिस प्रकार रात्रि के साथ रहने से चन्द्र मण्डल शोभित होता है, अपनी प्रखर कान्ति के साथ रहने से ही सूर्य प्राकाश में दमकता है
और पद्यश्री के साथ रहने से सरोवर सुहावना दिखता है उसी प्रकार सुकुल प्रसूत सद्गृहिणी के साथ रहने से मानव की शोभा होती है । अतः प्राप पहिले राजीमति के साथ रहकर गार्हस्थिक जीवन अपनाईये और फिर बाद में मुनि जीवन में उतरिये । -
स्वामिन् ! जैसे विधु चमकता राधि का योग पाके,
पूषा भी तो ज्वलित छवि के योग से दीप्त होता । होता शोभा सहित सर भी कंज की कान्ति से हो,
ऐसे ही है मनुज खिलता योग से सन्नरी के । सो हे स्वामिन् ! प्रथम बनिये आप गेही, गृहस्था
चारों का पालन कर बनों आप देशवती, सो....
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वचनदूतम् धीरे-धीरे अणुव्रत समाराधना-साधना से,
हो जायेगा अनुभव तुम्हें पूर्ण संयम निभानेका, सो रामा सजकर विभो ! प्राप होना मुनीन्द्र ।।१३।। नाथ ! योग पाकर क्षणदा का चन्द्र चमकता जस है, भास्वर कान्ति छटा से युक्त हो सूर्य दमकता जैसे है । सरवर जैसे कमलश्री से जनमन मोहक बनता है, बसे ही मत्पत्नी से ही मानव खुब निखरता है । सच तो है सत्पत्नी से ही युक्त चमकता मानध है, उसके सदाचार से बिलता नवजीवन का उपवन है । जीवन उसका मौलिक बनता धर्म चेतना के बल से, जन-मन-दुर्वलताएँ ढलती जाती उस ही सम्पल से 1 "मूल'' भूल से समय-समय पर वह सचेत करती रहती, स्वयं संभल कर चलती घर को खूब संभालकर है रखती। उसके धाभिक व्यवहारों से वातावरण मुघरता हैघर का- घर पाने वालों का धर्म-कर्म सब सधता है । तो फिर क्यों ठुकराते स्वामिन् ! ऐसी घर की लक्ष्मी को, जगत नहीं अच्छा कहता है क्यों महते बदनामी को । राजुल के संग रहकर घर पर अणुगत का साधन करके, घरो पूर्ण संयम को स्वामिन् ! राजुल को फिर तज करके ।।१३।।
रात्री रम्या न भवति यथा नाथ ! चन्द्रेण रिक्ता,
____ कासारधीः कमलरहिता नंव वा संविभाति । लक्ष्मीळा भवति च यथा दानकृत्येन हीना,
नारी मान्या भवति न तथा स्वामिना विप्रमुक्ता ।।१४।। अन्वय अयं-(नाय) हे नाथ ! (यया) जैसे (चन्द्रेण रिक्ता) चन्द्रमा विना की (रात्रिः) रात (रम्बा न भवति) सुहावनी नहीं लगती है, (कमलरहिता कासारधीः नव का संविभाति) कमलों से विहीन सरोवरधी जैसे मन को मुदित नहीं करती है, और (यथा) जैसे (दानकृत्येन हीना) दान से रहित (लक्ष्मीः व्यर्थी भवति) लक्ष्मी व्यर्थ
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अननदृतम्
होती है (तथा) उसी तरह (स्वामिना त्रिप्रमुक्का नाही मान्या न भवति) अपने प्राणनाथ के द्वारा छोड़ दी गई नारी-पत्नी-भी अच्छी नहीं मानी जाती है ।
भावार्थ – हे नाथ ! चन्द्र से बिहूनी रजनी जैसी सुहायनी नहीं लगती, कमल से विहीन तालाब की मनोरमता जैसी फीकी-फीकी लगती है एवं दान से रहित लक्ष्मी जैसी निंदित होती है उसी प्रकार पति से छोड़ दी गई स्त्री भी लोगों की दृष्टि में अच्छी नहीं मानी जाती है ।
स्वामिन्! जैसे विधु विन नहीं यामिनी है सुहाती ।
कासारश्री विन कमल के हैं न जी को लुभाती । लक्ष्मी भी तो वितरण बिना श्रेष्ठ मानी न जाती,
वैसे ही स्त्री न स्वपतिमुक्ता भाग्यवंती कहाती || १४ ||
जैसे नाथ ! रात चन्दा विन सूनी-सुनी लगती है, बिना कमल के सरवर शोभा फीकी- फीकी दिखती है । वितरण बिना इन्दरा की भी महिमा नहीं चमकती है, इसी तरह परिक्ता नारों की गरिमा न दमकती है ।। १४ ।।
सर्वोत्कृष्टं तब पुरिवं नाथ ! सौम्याऽऽकृतिस्ते
बेहे सरक्षं प्रबलसुभटेरप्यजम्यं व शौर्यम् । तस्यां स्वामिनपगतधृतौ त्वं भयेषैर्यधाता,
प्रायः सर्वो भवति करुणावृत्तिरार्द्रान्तरात्मा ॥ १५ ॥
अन्य --- (नाथ) हे स्वामिन् ! (इदं तव वयुः) यह आपका शरीर (सर्वोत्कृष्टम्) सब शरीरों को अपेक्षा उत्कृष्ट है (ते आकृतिः सौभ्या) आपकी प्राकृति सोम्य हैं (देहे सत्यं) देह में अपूर्व बल है, (प्रसतुभः अपि जयं च शौर्यम्) बलिष्ठ सुभट भी जिसका सामना नहीं कर सकते ऐसा आपका शौर्य है। अतः (स्वामिन् ) हे स्वामिन् (पगतधृतौ तस्यां वं धाता भव) धैर्य से सर्वथा रहित उस राजुल को क्योंकि ऐसा ही देखा जाता है कि (प्रायः) प्रायः ( सर्वो भवति करुणावृत्तिः आन्तरात्मा) समस्त साधुजन दयालु और सदा मृदुहृदय
आप धर्म बंधाने की कृपा करें
वाले ही होते हैं, कठोर हृदय वाले नहीं होते ।
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वचनदूतम् भावार्प--इस समय पाप साधुवृत्ति वाले हैं, अतः भापका अन्तःकरण दुःखित जीवों के ऊपर दयाशील होना ही चाहिये, इसलिये पाप धैर्य से सर्वथा विहीन हुई मेरी सती को ढांढस बंधाने की कृपा करें।
देहों में है अधिक सबसे अापकी देह श्रेष्ठ,
है संस्थान त्रिभुवनपते ! आपका सोम जैसा । शक्ति स्वामिन् ! प्रचुर तन में आपके है अनौखी,
योलामो से अविजित प्रभो ! शौर्य भी है अपूर्व । ऐसे-ऐसे अनुपम गुणों से विशिष्ट प्रभो! हो,
तो क्यों होते रजमति सखी पै कृपाहीन नाथ ! जो छोड़ा है इकदम उसे तो दया छोड़ते क्यों ?.
ऐसा बाना सदय होता है जरा ध्यान तो दो । आके देखो विकल वह है, धैर्य भी खो चुकी है,
सो हे स्वामिन् ! चलकर उसे प्राप ढांढस बंधावो । कष्टों से जो व्यथित उनको संत देते सहारा, "क्योंकि"-- पारमा तो अधिकतर होते दयावृत्तिवाले ॥१५॥
नाथ ! आपका यह गरीर सब हो शरीर से उत्तम है, शांतिप्रद, प्राकृति में अनुपम तथा कान्ति में विघु सम है । है भंडार शक्ति का भी यह कमी नहीं किञ्चित् इसमें, शूरवीर भी जिससे मैं शौर्य भरा है नस-नस में । ऐसे-ऐसे निखिल गुणों से जब यह तन परिमंडित है, तो फिर मेरी प्राली को क्यों किया दया से वंचित है । अस्तु हुन्ना जो हुआ न अब भी सुनो नाय ! कुछ बिगड़ा है, गल्ती से सचेत होने पर रहता कहीं न झगड़ा है । पालो तको अब उसे विकल वह बड़ी न कल क्षणभर उसको, • निष्कारण को तजा आपने धीरज छोड़ गया उसको।
सो जैसे भी हो वैसे ही धीरज उसे अंधावो अब, मत विसरायो, भले न उसको पुन: नाथ ! अपनामा प्रब।
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वचनदूतम्
मो है भाई आत्मा वे हैं होते करूरता के बारी, अनुकम्पा से हीन न होता कभी सिद्धि का अधिकारी || १५||
त्वां सम्प्राप्तु ं विविध नियमान् पालयन्तीं सखी मे, चैतािंवरिएमा सम्पनन्दान् सिसन्तीम् । निन्दन्तीमशुभवचनश्चासकृत्सारयन्तीम्,
स्वां
गण्डायोगात्
द्रष्टे एवं गणितनियमः स्याः स्वयं तां कृशाङ्गीम्, स्यात्स्वस्थेयं कथमिति भवेत्ते विचारांवलिश्च । गत्मा क्षिप्रं व्यसनपतितां पश्य तामस्त निद्रा, माnirvat नयम ससिलोत्पीऽरुद्धावकाशम् ॥१७॥
कठिनविषमः कवेरणीं करेण ॥१६॥
अन्वय अर्थ हे नाथ ! ( त्वां सम्प्राप्तु ) आपको प्राप्त करने के लिये (नव्यनस्यान् विचिचनियमान् ) नये-नये अनेक प्रकार के नियमों को कि जिन्हें वह (परिगणनया दैनन्दिन्यां लिखन्ती) गिन गिन कर अपनी डायरी में लिखती रहती है, एवं (अशुभबचनैः स्वां निन्दन्तीम् ) प्रभवचनों से जो स्वयं की निन्दा करती रहती है और जो (असकृत् ) बार-बार (गण्डाभोगात् कठिनविषमां एकवेशीम् ) गालों के ऊपर से कठिन रुक्ष, एवं विषम अस्तव्यस्तबालों वाली वेपी को (करे) अपने हाथ से यथा स्थान करती रहती है ऐसी ( मे सखों पश्य) मेरी सखी को आप दर्शन दें-देखें (तां कुशाङ्गी दृष्टं व) उस कुश शरीर वाली मेरी सखी को देखकर हो ( एवं स्वयं गलित नियमः स्याः) श्राप अपने आचार-विचार से शिथिल हो जोंगे और (यं स्वस्था कथं भवेत् ) यह स्वस्थ कैसे हो यह (ते विचारावलिः च भवेत् ) आपके मन में विचार श्रा जायेगा । इसलिये ग्राप (क्षिप्रं गत्वा) शोध जा करके (व्यसनपलितां नयनसलिलो पीढरूद्धावकाशम् अस्तनिद्राम् ) कष्टपतित और रातदिन के रोने से गई हुई निद्रा की (कांक्षन्तीम् ) चाहना वाली (ताम् पश्य ) उस मेरी सभी को देखें ।
"
भावार्थ हे स्वामिन्! मेरी सखी आपको प्राप्त करने के निमिल अनेक नियमों के पालन करने में निरत है, इससे उसका शरीर बिलकुल कृश हो गया है ।
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बजनदूतम् कहीं नियमों को मैं भूल न जाऊं एतदर्थ वह उन्हें अपनी डायरी में अंकित कर लेती है । रात दिन वह अपनी मंदभाग्यता की निंदा करती हुई सपने मापको खोटे-खोटे शब्दों द्वारा कोसती रहती है । शारीरिक व्यवस्था के प्रति लापरवाही होने के कारण उसके जूड़ा के केश इधर-उधर मुख पर पड़े रहते हैं, रातदिन रोने के कारण उसकी निद्रा भंग हो गई है । अतः पाप चलकर कम से कम एकसार उसे देख तो लीजिये, देखने पर आपका चित्त स्वयं दया से दूषित हो जावेगा और फिर माप स्वयं ही ऐमी भावना बाले हो जावेंगे कि यह कैसे स्वस्थ हो ।
है वो मग्ना विविध नियमों के सखी पालने में,
ऐसी श्रद्धा धर कर मुझे प्राप्ति होगी पिया की । सो वो उन्हें गिन कर लिखे है स्वदैनन्दिनी में,
ऐसी प्यारी निधि नहिं मिली हूँ महामन्दभाग्या । ऐसी निदा प्रति समय में बो स्वयं को करे है,
देसी बांधे पर वह नहीं ठीक उस्से बंधे है। सो वे सारे खिसक पड़ते केश छ टे रहे जो,
सो गालों पं पड़कर उसे वे सखेदा करे हैं । सो बो ज्यों ही पकड़ करके हा ! उन्हें खोंसती हैं
वेणी में, त्यों खिसक पड़ते और भी शेष केश । जैसे-तैसे पुनरपि पुनः है उन्हें वो दबाती,
तैसे-तैसे कुपित बन वे गाल से घौट जाते । होती दुःखी तब वह बड़ी, स्वीय दुर्भाग्य की सो,
खोटी-खोटो वचनरचना से विनिन्दा करे है । शक्ति-क्षीरमा प्रतिदिन विभो ! को हुई जा रही है,
देखोगे तो लवकर उसे अापका सद्विचार । होगा ऐसा, नृपतिसनया स्वस्थ कैसे बने ये,
निद्रा-हीना वह विरह में, हो चुकी बन्दनों से 1 स्वामिन् ! ऐसी सुनकर दशा आप राजीमतो की
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बचनदुतम्
जाने में तो अब मत करो डोल घोड़ी, या भी -.. लामो ऐसे दुखित जन पै क्यों दयाहीन होते,
होगी स्वामिन् ! दरश करके ही विचारी अशोका। सो निद्रा जो विगत हुइ है वो उसे प्राप्त होगी ।।१६-१७।।
नाय ! मापके पाने के हित वह कटोरतर नियमों को, पालन करने में रत रहती छोड और सब कामों को, भूल न जाऊं कहीं इन्हें मैं दैनन्दिनी में लिखती है, अगर देखना चाहे कोई उसे न लखने देती है। कहती है वह नाय द्वार पर प्राये फिर भी नहीं मिले । वर का बाना छोड़, मोड़ मुख द्वारे से ही लोट गये, ऐसा मेरा किस भव का यह पाप उदय में पाया है, जिसने मेरे प्रारएनाथ को मुझ से हाय ! झुडाया है. जैसी थी वैसी ही रहती क्यों मैं ऐसी बनी बनी यह कैसी विधि की विडंबना संधवा रही न विधवा ही, न जाने मुझ पापिन ने किस भव में परपति विलग किया, जो इस भव में पति विछोह का विधि ने मुझको दुःख दिमा, मैं हूं कितनी दुर्भागिन जो हा ! स्वामी से श्यक्त हुई ऐसी अपनी निंदा करती प्रतिक्षण गदगद कंठ हुई, नाथ ! देखते ही कृश एवं क्षीरणशक्ति उस दुखिनी को, पत्थर मा कठोर दिल होगा मोम छोड़ निभ करनी को स्वयं विचारावलि तब होगी उदित मुदित यह कैसे हो. हो यह कैसे स्वस्थ दुःख से भी विहीन यह कैसे हो छोड़ी जब से नाथ आपने निद्रा ने भी उसे तजा ना जाने किस पुरव भत्र के पापों की पा रही सजा, सजे सजाये सभी ठाट नौ बाट हुए, कौतुक सारेइधर उधर फिर रहे विचारे मानों के मारे मारे नई बनापी डोली भी तो हाय ! धरी की धरी रही, मांग रह गई माली की सिन्दूर बिन्दु से बिना भरी
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वचनदूतम् अपनी बिखरी चोटी को वह कसकर बांध न सकती है, उलझी हुई लटों को भी वह हाय ! न सुरझा सकती है, होते बाप आप बिटिया के पता त्याग का पड़ जाता ऐसी स्थिति में न मन सा पिघल पिघल कर गल जाता मुस्न ऊपर वे पड़ी लटे गालों पर ऐसी दिखती है मानो विधुमंडल को उसने राहुरश्मियां मधली हैं गर दिवस यामान के सातों रे ही लंग हुई निद्रा, संद्रा इसीलिये हे स्वामिन् ! उसफी भंग हुई, दर्शन-प्रगद दान से निश्चित वह स्वस्थित हो जावेगी रोने से गत हुई नींद भी आकर उसे खिलावेगी ।।१६-१७।।
मध्ये त्यक्त्वा परिणयविस्तां समागास्त्वमत्र.
नेतच्छ लाध्यं चरितमभवत्ते यतो लोकर्मियम् । शुद्ध स्याच्वेद्भवति जगतस्तद्विरुख न सेव्यम्,
प्राजरायः कथमिति भवान् नीतिमेतां न वेसि ॥१८॥ अषय-अर्थ:-हे नाथ ! (त्वं परिणयविधे: मध्ये तां त्यक्त्वा) प्राप विवाह के बीच में उसे छोड़कर (प्रय समागा.) यहां पर पा गये सो (एतन ते चरित माध्य न अभवत) यह आपका कार्य प्रशंसा योग्य नहीं हुमा है। क्योंकि (लोकनिंद्यम् । रोमा कार्य लोक में निदा योग्य होता है । (शुद्ध स्यात्) जो कार्य अच्छा भी हो, पर (चेन् तत् जगतः विरुद्धम्) यदि वह जगत के विरुद्ध होता है तो वह (प्राज: प्रायः न सेच्यम्) बुद्धिशाली सायं पुरुषों के द्वारा सेवनीय नहीं होता है (इति) ऐसी जो (नौतिम्) यह नौति है उसे (कश्चम्) क्या (भवान् न वेत्ति) आप नहीं जानते हैं ?
भावार्थ- 'यद्यपि शुद्ध लोकविरुद्ध नो करणीयं नाचरणीयम्" जो काम शुद्ध भी हो पर मदि वह लोक के विरुद्ध है तो उसे नहीं करना चाहिये । ऐसी हम लौकिक नीति को हे नाथ !. आपने कैसे मुला दिया, प्रतः श्रापका यह राजुन का भर विवाह में छोड़ना लोकविरुद्ध होने के कारण प्रशंसनीय नहीं हुअा है 1 पाये स्वामिन् ! तजकर यहां बीच में जो विवाह,
सो ये अच्छा प्रभु ! नहीं हुआ कार्य है भाप द्वारा । .
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२६
वचनदूतम्
होवे अच्छा, पर वह नहीं लोक में मान्य हो, तो
प्राज्ञों द्वारा नहिं वह कभी सेव्य माना गया है || १८ ||
अव्याही राजुल को तजकर जो आये हो आप यहां लोकनिद्य यह किया आपने कार्य आर्यजन हेय कहा, नहीं छपी कार्य कभी यह सभा देने वाला है, उचित, लोक-विरुद्ध कार्य नहि कभी किसी को ताला है, हैं यह नीति कार्य अच्छा हो पर वह हो यदि लोकविरुद्ध, तो वह नहि कर्तव्य कोटि में आता माता सकल प्रबुद्ध, तो क्यों नाथ ! श्राप इस उत्तम नीति-रीति को भूल गये, और भलतं सबको विसार कर इस पहाड़ पर बैठ गये ।
चित्तक्षोभं शम्रयितुमियं राजपुत्री स्वकीयम्,
संस्थाध्यां तब प्रतिकृति पृच्छति त्वां स्यहार्दम् । ब्रू हिहि त्यजसि किमिमां नाथ ! मां निनिदानम्, प्रायेण रमण विरहेण्वंगमानां विनोदाः ॥१६॥
श्रन्वय अर्थ - हे नाथ ! (स्वकीयं चित्तक्षोमं शमम्) अपने वित्त के क्षोभ को शान्त करने के लिये ( इयं राजपुत्री) यह राजपुत्री - राजुल (तव प्रतिकृतिम् ) आप की फोटो को (संस्थाप्य) अपनी झोली में अच्छी तरह से रखकर (स्त्रां स्वहाई पृच्छति) आप से आपका अभिप्राय पूछती है कहती है- (ब्रू हि हि.) जल्दी से जल्दी बताओ (नाथ ! इमां मां निनिदानं किं त्यजसि ) नाथ ! इस मुझ-बुः खिनी को बिना कारण आप क्यों छोड़ रहे हो । सो (एते विनोदा: प्रायेण रमण विरहेषु अंगनानां " भवन्ति") ऐसे चित्त को शान्ति प्रदान करने वाले विनोद प्रायः अपने पतियों के त्रिकाल में नारीजनों के होते हैं ।
भावार्थ- नाथ ! जब राजुल के चित्त में जाती है तो वह उसके शमनार्थ आपकी प्रतिकृति आपके मनोभाव को पूछती है, कहती है हे नाथ कारण क्यों छोड़ रहे हैं। इस प्रकार के विनोदों से
!
यह तो बताओ आप मुझे बिना वह अपनी प्रशांति को दूर करती
रहती है ।
अशान्ति की मात्रा अधिक बढ़ को अपनी गोद में रखकर आपसे
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वचनदूतम् स्वामिन् ! मेरी वह प्रियसखी आप में लीनचित्ता
होने से है तब विरह में क्षुब्ध, सो क्षोभ को वो जैसे तसे शमन करने हेतु फोटो तुम्हारी,
अोली में ही रखकर प्रभो ! पूछती यों तुम्ही से छोड़ी स्वामिन् ! बिन कुछ कहे अापने क्यों मुझे है,
होते प्रायः पति विरह में नारियों के विनोदऐसे ही-सो मरणक्षण से वे उन्हें हैं बचाते ॥१६॥
नाथ ! माप ही में प्रसक्त है चित सखी राजीमति का, सो वह विरह प्रापके में है चना सग दुखसन्तति का, उसके प्रशमनहेतु आपकी वह प्राकृति को रखती हैअपनी गोदी में,-फिर उससे प्रश्न नाथ ! यों करती है, कारण बिना पिया ! क्यों मेरा तुमने यो परिहार किया, क्या मेरा अपराध हुअा-अब उसे बतानो खोल हिया, रभराशियों के रमणविरह में प्रायः ऐसे होते हैं । मनोभाव--जो मरणचाव से हरक्षण उन्हें बचाते हैं ।।१६।
चिसक्लान्ति शमयितुमसो वादयन्ती दिपञ्चों,
संस्मृत्या से मुहुरुपगतरभु भिः क्लिग्नगात्राम् । संमान्तो भवति नितरां सौम्यमुद्राप्यसौम्या,
भूयो भूयः स्वयमपि कृतां मूर्च्छनां विस्मरन्ती ॥२०॥
अन्वय-अर्थ-ई नाथ ! (चित्तक्लान्ति शमयितुम्) पित्त की वेचनी को दूर करने के लिये (प्रसौ} यह मेरी सती (विपश्ची वादयन्ती) जब वीणा को बजानी है, तब (ते संस्मृत्या) उसे प्रागकी याद आ जाती है, इससे (मुहुः उपगतः प्रश्रुभि) बार बार जमे यांना जाते हैं, सो उनसे (क्लिनगात्राम्) उसकी चीणा गीली हो जाती है, अतः उसे (संमार्जन्ती) वह साफ करती है सो इस स्थिति में वह (भूयः भूयः स्वयं अपि कृतां मूकई नां विस्मरन्ती) बार बार स्वयं की गई मूर्छना को भूल जाती है. इस कारण (सौम्य मुद्रा अपि नितरां प्रमौम्या भवति) वह सुन्दरमुढापाली होती हुई भी प्रमुहायनी दिखने लगती है।
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वचनदूतम् जैसे तैसे शमन करने चित्त के क्षोभ को वो,
वीणा लेके जब जब प्रभो ! बैठती है बजाने । त्यों पा जाती त्वरित गति से आपकी याद उस्को,
सो नेत्रो सं अविरल बड़ी प्रश्न की बिन्दुओं स हो जाती है सुभग ! उसको हाय ! वीणा सलोनी
गीली, सो वो सजनि अपनी छोर से शाटिका के ज्यों ही उस्को झटझट सखी पोंछती है विचारी
सो जाती है बिसर अपनी की गई मूर्छना को, हो जाती सो अतिशप दुखी सौम्यमुद्रावती वो,
राहुद्वारा ग्रसितविधु की चाँदनी सी दिखाती हो जाती है पति विरह में और की और नारी ।।२०।।
चित-अशान्ति के शमन हेतु बह वीणावादन करने को, होती ज्या सनद्ध भापकी याद सताती है उसको मोती जैसी प्रभुधार निर्गत हो वीणा पर गिरती बजती नहीं बजाने पर तब उसे साफ करने लगती
सो यह नाथ ! मूर्छना को ही भूल बिसर इकदम जाती चिन्तित, व्यथित, अममनी बनकर कर पर कर धर परताती अतः सौम्य मुद्रायुत भी वह बिरहताप से तपती है दीन, क्षीणतन, मलिनवदनयुत्त सो प्रसौम्य ही दिखती है ॥२०॥
प्रालिस्य त्वां गिरिवरगतं त्वत्पर्य स्प्रष्टकामा.
___ तावन्मूर्थापरिघृततमुविधुत्तिष्ठतीयम् । सल्या होना पतति भुवि सा छिन्नबालीय, वक्ति
करस्मिन् प न सहते संगम नौ कृतान्तः ॥२१॥ अन्वय-अर्थ .. हे नाथ ! (गिरिवरगतं त्वां आलिख्य) पहाड़ पर बैठे हुए रूप में आपको चित्रित करके (इयम्) यह मेरी सखी (त्वत्पदं स्प्रष्टुकामा प्रावत् उसिष्ठति) प्रापके चरणों को छूने की इच्छा से ही उठती है (तावत् मूपिरिमृततनुः) त्योंही इसका शरीर मूर्छा से आक्रान्त हो जाता है । सो (संख्या हीना छिन्नयल्लीन भुवि सा
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बचनद्रुतम्
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पति) सखी से हीन वह कटी हुई लया की तरह जमीन पर गिर पड़ती है । कहनी है— मेरा प्रशुभ्र कर्म कितना निर्देय है जो इस दशा में भी हम दोनों के मिलाप को सहन नहीं कर सकता है
भावार्थ – हे स्थामिन् ! मेरी सखी आपको पहाड़ पर बैठे हुए रूप में चित्रित करके ज्यों ही आपके चरणों को छूने के लिये खड़ी होती है कि उसी समय उसे मूर्धा श्रा जाती है और वह कटी हुई लला की तरह पृथ्वी पर गिर पड़ती है। कहती है देखो ! मेरा अशुभ कर्म कितना प्रबल है जो इस दशा में भी मुझे मेरे नाथ के चरणों को नहीं छूने दे रहा है 1
पट्ट पे वो गिरिगत प्रभो ! आपकी मूर्ति प्यारी रंगों द्वारा रचित करके श्री उसे लोचनों के आगे अच्छी तरह रखके आपके सिने
I
ही होती सी सी उसे स्थों, आजाती, सो पतित क्षिति में छिन्नमूला लता सीहो जाती वो, उस समय में नाथ ! ये ही कहे है देखो मेरा अक्ष्य कितना हाय ! दुर्देव है ये
ने देता नहिं चरण जो नाथ के हाथ से भो ऐसी कैसी विधि - सबलता मारती जो मरो को ||२१||
गिरि पर बैठे नाथ ! ग्रापको पहिले मन में चित्रित कर फिर अति वह तुमको करती पट्टे पर रंग भर भर कर रख कर लोचन के समक्ष वह चरणस्पर्शन करने को होती खड़ी कि श्रा जाती है मूर्च्छा वर्जन करने को
गिर पड़ती है हाय ! बिचारी विशलता सी भूपर बह श्री सत होकर यों कहती, कैसा विविविलास है यह जो प्रिय के पावन पग तक को मुझे न छूने देता है इतना क्या अपराध किया जो मुझ से यह मों कुढता है, ऐसी हालत में भी निर्दय यह मेरी विकराल विधि
हम दोनों के क्षणिक मिलन को भी सहता जो न कुधी ॥ २१ ॥
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वचनदूतम्
प्राषिक्षामा मलिनवसना केशसंस्कारहीना,
दुःलोकाविरससरसाऽऽहारतुल्याऽखला सा। त्वनाम्नद प्रमुदितमना वृत्तमेतद्गते स्यात्,
प्रत्यक्ष से निखिलमचिराद् भ्रातरक्त मया यत् ।।२२।।
प्रश्वम-प्र—(सा अबला) वह बलविहीन सखी राजुल (प्राधिक्षामा) मानसिक चिन्ता के कारण शारीरिक शक्ति से भी विहीन हो गई है, (मलिन बसना) मोड़ने पहिरने के कपड़े उसः पहिश हो गये हैं। शराहनाहीमा फैसों की सरकार करना उसने छोड़ दिया है । (दुःखोद्रेकात) दुःख की अधिकता को लेकर उसे सरस और नीरस आहार में भेद बुद्धि नहीं रही है, थोड़ी बहुत प्रसन्नता का कारण (स्वन्नाम्ना एव प्रमुदित मनाः) पदि उसे है तो वह पापका नाम ही है, (एतत् निखिल वृत्त) यह ममस्त उसका वृत्तान्त (भ्रासः यत् मया उक्तम्) हे नेमि भाई ! जो मैंने कहा है सो वह (गते) वहां पहुंचने पर (अचिरास्) स्पष्टरूप से शीघ्र ही (ते प्रत्यक्षं स्यात्) मापके जानने में मा जायगा।
भावार्थ:-हे नेमि भाई ! वह मेरी सम्झी राजुल "पति से त्यक्त होने पर नारी को क्या परिस्थिति होती है" इसकी साक्षात् भूर्ति बनी हुई है, मानसिक चिन्ता ने उसकी शरीरसंपत्ति को असमय में ही तहस नहस कर दिया है। उसके संस्कार विहीन केश और मलिन बस्त्र दूख के यादिश्य को उसमें प्रकट करसे हैं। जो सरस नीरस प्राहार उसे मिल जाता है उसे वह बिना कुछ कहे खा लेती है । हां ? अभी तक जो उसका इस हालत में भी जीवन टिका हुआ है उसका एकमात्र कारण प्रापका नाम ही है, जब वह आपका नाम सुनती है तो उसके चेहरे पर प्रसन्नता नाचने लगती है । अतः यह सब उस की हालत जो वही जा रही है है सत्य है भतिशयोक्ति पूर्ण नहीं है । यह सब यहां आपके पधारने पर प्रापको स्पष्टरूप से प्रसीति में आ जायेगा।
थी ना ऐसी बिल्कुल हमें स्वप्न में कल्पना भी,
"हो जायेगी विरहक्षण में यो सखी नाथ ! मेरी । चिन्ताम्लाना, विरससरसाहारतुल्या, अशक्ता,
पाधिक्षामा, मलिनवसना केशसंस्कारहीना"
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वचनदूतम्
हो जाती है मुदित जब वो आपके नाम से ही
तो जाना ही उचित लगता नाथ ! ऐसी दशा में हो जावेगा यह सब कहा वृत्त प्रत्यक्ष सारा
जाते ही व्हां फिर कुछ नहीं, ग्रापसे में कहूंगी ||२२||
बिना नाथ की हूं मैं कैसे अब सुहाग का भेष घरू, सुन्दर सेज बसन से कैसे इस शरीर को सुखित करू, इन चराले काले बालों को तेलों से चिकना कर क्यों अब इन्हें सजाऊं सजनी साजन बिन अपने शिर पर ऐसी ऐसी बातें कहकर फिर वह रोने लगती है
उसके रुदन श्रवण से सबकी खाती हा ! हा ! फटती है चिन्ता ने उसके शरीर को नाथ ! सुनो जर्जरित किया तिलों से रूख केशों ने मेलजोल को त्याग दिया दीन हीन तनक्षीण मृगी सौ बीरपावादन में तब नाम, यह सुनती तो मुदितचित्त हो इधर उधर तकती अविराम | सरस विरस भोजन का भन्तर उसे ज्ञात नहीं होता है, जाने पर ही उक्तवृत्त यह नाथ ! ज्ञात हो सकता है ||२२||
3
प्रस्याः कान्तं नयनयुगलं चिन्तया स्पन्दशून्यं, रुद्धायां चिकुरनिकरे रंजनन विलासः । हीनं मन्ये स्वदुपगमनात्तत्तदा स्वेष्टलाभात्, मीनक्षोभाच्चलकुवलयश्रीतुलामेष्यतीति ॥२३॥
३१
अवय- अर्थ - हे नाथ ! यद्यपि (यस्याः ) सखी का (कालम् ) सुहावना (नयनयुगलम् ) नेत्रयुगल ( चिन्तया स्पन्दशून्यम् ) चिन्ता से चंचलता विहीन हो गया है, उसकी ( चिकुरनिकरैः) बालों से भ्रू के बालों से कोरे बैंक गई हैं और (अंजनविलास: हीनम् ) वह अंजन एवं भ्र विलासों से रहित भी हो चुका है, तब भी (त्वदुप गमनात्) आपके वहां जाने पर (तत्) वह नयनयुगल ( तदा) उस समय (स्वेषुमाभात् ) स्वष्टलाभ हो जाने के कारण (मीनक्षोभात्) मीनों की चंचलता से क्षुभित हुए (चलकुवलयश्रीतुलां एष्यतीति मन्ये ) चंचलकमल के जैसी शोभा को धारण करेगा ऐसा में मानती हूँ ।
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वपनदूतम्
भावार्थ हे नाथ उसका मनोहर नयनयुगल मापकी फिकर के कारण निमेष विहीन हो गया है, म के बड़े-२ बालों से वह ढक गया है, अंजन और न के विलास उससे कभी की विदा ले चुका है। फिर भी आपके यहां पहुंचने पर वह उसका नयन युगल प्रापको देखते ही चञ्चलकमल के अंसा खिल उठेगा। ऐसी मेरी मान्यता है ।
चारू स्वामिन् ! नयन उसके हो गये स्पन्दशून्य
कोरों पे ही चिकुर सगरे हैं पड़े ही दिखाते, काले प्यारे मसूण सुरमे की न रेखा वहां है
दोनों भू भी इस समय में हैं विलासों विहीना, जाने से बे लवकर तुम्हें स्वेष्ट के लाभ से ही
मीतक्षोभप्रचलितपद्मश्रीतुला को धरेंगे।।२३ ।।
नाथ ! प्रापकी तरफ टकटकी सिर्फ लगाये बैठी है समझाते हैं पर न समझती प्रत्युत रोती कहती है "द्वारे भाये दूल्हा बनकर पर वे क्यों नहि मुझे मिले, खिले मनोरथ हाय ! न मेरे बिना खिले ही सूक चले जिन्हें संजोकर मनमन्दिर में हरदम मैंने रनखा है हाय ! आज उनने ही मुझको दिया अचानक धक्का है" काले छूटे केश मेत्र की कोरों पर बिखरे रहते जलती भीतर विरह वन्हि के घूमतुल्य जो हैं दिखते काजलहीन दीन नयनश्री उसकी यही बताती है इष्टविरह की व्यथा सती का काजल तक ले जाती है रहते और देखते इनने उन्हें न कुछ भी समझाया इसीलिये 5 के विलास ने आंखो को है ठुकराया सखी-मोह से प्रतः नाथ ! अब ऐसी आशा ही घरके पायी हूं मैं पास अापके लेने पाप कृपा करके शीघ्र पधारो राजभवन में सखी-नेत्र खिल जायेंगे तुम्हें निरख कर, झप से चञ्चल कंज थी को धारेंगे ।। २३॥
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वचनदूतम्
म्यभ्यर्णे राजीमत्या, प्रेषितं संदेशं प्रकटयति
सारंगार विपतरवं केवलं त्वं निशम्य,
मामत्याक्षीः, वरभिह परं जीवबाधां निरीक्ष्य । मी वस्त्वं विलकरुणाधार ! तां मुक्तिकान्तां, रवामुत्कंठा विरचितपदं मन्मुखेनेदमाह ॥ २४ ॥
अन्वय-अर्थ--- (त्यम्) हे नाथ ! श्रापने (केवलम् ) सिर्फ ( मारङ्गाणाम्। मृगों (विलपनरवम्) प्राक्रन्दन को ( निशम्य ) सुनकर ही (माम्) मुझे (प्रत्याक्षी छोड़ सौ (वरम्) अच्छा किया, (परम् ) परन्तु (इह) इस जगत में (जीवबाघां निरीक्ष्य) यों की मारण ताडन आदि रूप बाघा को अपनी प्रांखों से देवकर (विपुल - वार) हे परमदया के अवतार (त्वम् ) प्राप (तां मुक्ति) उपेयी
को (मा प्रमुषः ) मत छोड़ देना ( त्वां उत्कंठाविरचितपदं मन्मुखेन इदं ऐसा तुम्हें उत्कंठित पर्दों से रचित यह संदेशरूप बचन मेरे मुख के द्वारा पास उस सखी ने भेजा है ।
३३
भावार्थ-अपनी सखी के द्वारा राजुल ने जो संदेश अपने नेमि गिया के पास . भेजा है उसे प्रकट करती हुई सखी उनसे कहती है – करुणावतार हे नाथ ! 'दो मुझे केवल हिरणों की करुण आवाज को सुनने मात्र से ही छोड़ दिया जैन संसार के प्राणी नाना प्रकार की वेदनाओं से वध-बंधन मादि अनेक विश्व दुःखों रहते हैं, रोते और चिल्लाते रहते हैं । सो उनकी उन व्यथाओं और क् देखकर कहीं ऐसा न कर देना कि उस मुक्तिरूपी बधू को भी श्राप छोड़ दें 1
सारंगों के सुनकर प्रभो ! आपने क्रन्दनों को
जैसे छोड़ा इकदम मुझे छोड़ ऐसे न देनामुक्ति- स्त्री को, जगतजन की देख श्रापत्तियों को
ऐसा उत्कंठित पदयुता है पठाया संदेशा ||२४||
छोड़ा नाथ ! आपने मुझको हिरणों की सुन करुण पुकार जैसे-वैसे जगजीवों की बाधा लखकर अपरंपार छोड़ न देना मुक्तिस्त्री को क्योंकि भाप हो करुणाघार, ऐसा उद्बोधक संदेशा भेजा तुम्हें सखी ने हार ||२४||
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वचनदुतम्
धातुलला विविधघटनाघट्टनेऽस्ति प्रवीरणा,
द्रष्टाऽवाभ्यां स्वनधनभुवाइध्यक्षतः साम्प्रतं सा । एवं तं माटु तपसि निरतोऽभूनं बच्म्पत्र किञ्चित्,
कांक्षे वाञ्छा भवतु सफला सिद्धिकान्तां लभस्व ||२५||
J
अन्वय-अर्थ – हे नाथ ! (धातुः नीला) विधि - भाग्य की लीला विधान (विविघटनाने अनेक प्रकार की घटनाओं के निर्माण करने में (प्रवीणा अस्ति ) प्रवीण है (सा आवाभ्यां स्वनयनभुवा अध्यक्षतः साम्प्रतं द्रष्टा ) सो यह उसकी लीला हम दोनों ने अपनी आंखों से इस समय देखली है। (त्वं) आप (तं माष्ट्र) उस विधि को साफ करने के लिये विनष्ट करने के लिये - ( तपसि निरतः प्रभूतः ) नगस्या में लीन हुए हो, सो (अत्र ) इस विषय में (ञ्चित् न वहिम ) मैं आपसे कुछ नहीं कहती हूँ, (कांक्षे ) मैं तो यही चाहती हूं कि ( वाञ्छा ) आपकी इच्छा ( सफला भवतु ) सफल होने और आप (सिद्धिकान्तां लभस्व) सिद्धिकान्ता प्राप्त करें ।
भावार्थ - हे नाथ ! विधि का विधान अनेक प्रकार की अप्रत्याशित विलक्षताओं से प्रतप्रोत है, यह बात हमने और आपने आज प्रत्यक्ष देवली है । प्राप जो विधि को विनष्ट करने के लिये तपः साधना में लीन हुए हो सो यह बहुत हो सुन्दर कार्य आपने किया है, मैं तो यही प्रत्र चाहती हूं कि आपकी तपः साधना सफल होकर आपको सिद्धि कान्ता का वह पति बनाये ।
-
आंखों से ही विधिविलसता की भलां देखली हैं वे वे बातें नहि खबर थी स्वप्न में भी जिन्हों केहो जाने की अब तुम प्रभो ! सो उसे ही मिटाने, चैरागी होकर बस यहां से गये छोड़ नाता हो जाये वो तप सफल ये ही प्रभो ! चाहती हूं
मुक्तिस्त्री का झटिति जिससे आपको लाभ होने ॥ २५ ॥ विविधविधाओं से परिपूरित है-विधि का विधान न्यारा हम तुमने यह देख लिया है अपनी आंखों से साग विडंबना से सचेत हो आप हो गये वैरागी
मैं इस पर क्या कहूं आपसे, क्योंकि मैं हूं मन्दभागी मेरी अन्तिम यही कामना तस्तपस्विन्! सफल बनो - आत्मसाधना से न विधि को मुक्तिस्त्री के कन्नो ||२५||
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वचनदूतम्
मामुज्झित्वा भवति च भवान् मुक्तिकान्तानुरागी, रागद्वेषौ भवति भवतो नाथ ! वृत्त्याऽनया सु तत्सद्भावे कथमिव भवेर्मु किनार्याऽभिलाष्यः,
इत्यारेक मलिनितां ज्ञापय त्वं निरस्य ॥ २६॥
अन्वय- श्रर्य – हे नाथ ! ( भवान् ) ग्राम ( माम् उरित्वा) मुर्भ लोड़कर ( मुक्तिकान्तानुरागी भवति) मुक्तिकान्ता में अनुरागशाली बन गये है (अनया वृत्त्या भवति रागद्वेषौ भवतः ) तो आपमें ऐसी प्रवृत्ति से रागद्वेष स्पष्ट जाहिर हो रहे हैं। (तत्सद्भावे) इन दोनों के सदभाव में साधक श्राप (मुक्तिनार्या अभिलाप्यः कथमित्र भवेः ) मुक्तिरूपी कान्ता के द्वारा अभिलाष्य कैसे हो सकते हो ( मनसि निहिता इत्यारेकां) मेरे मन में खचित इस प्रकार की शंका को (त्वं निरस्य) श्राप दूरकर के मुझे (ज्ञाय ) समझावें ।
३५
भावार्थ – हे नाथ ! साथ में उसने यह भी निवेदन किया है कि मुझे छोड़कर जो आप मुक्तिस्त्री की चाहना में पड़ गये हैं, सो इस प्रकार की विचारधारा श्राप में राग और द्वेष की साधक हो रही है। अतः मुझे यह संदेह हो रहा है कि मुस्ि आपको कैसे प्राप्त हो सकेगी, क्योंकि वह तो रागद्वेष के सर्वधा प्रभाव वाले साधक को ही प्राप्त होती है। तो आप आकर मेरी इस शंका का समाधान करने की कृपा करें ।
ज्यों देती है तज निधि नरी दुर्भगा को, तजी त्यों,
स्वामिन् ! हा ! हा ! विन कुछ कहे आपने भी मुझे है । सो चिन्ता की यह नहि प्रभो ! बात है कोइ किञ्चित्,
चिन्ता की तो बस वह यही है कि जो मुक्तिस्त्री मेंस्वामिन्! रागी तुम बन गये, बीतरागी रहे ना,
सोरागी को बह नहि विभो ! स्वप्न में चाहती हूं ऐसी शंका मम हृदय में नाथ ! जो आ गई है
मेटो उस्को सब तरह से हो प्रबोधप्रदाता ||२६||
J
मुझ को तजकर नाथ ! आपने बड़ी कौनसी बाल करी, मुक्तिस्त्री के चुंगल में जो श्राप फँस गये उसी घरी,
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वचनदूतम्
गग-द्वेष से बचने को तो नाथ ! आपने मुझे तजा मुक्तिवधू की ममता से पर राग आपने कहां सजा, पर यह बात आप सच मानों रागी से यह भगती है, वैरागी पर ही वह अपने प्राण निम्बावर करती है, रागी होने से वह कैसे नाथ ! तुम्हें अपनाबेगी, ऐसी मेरी शंशा सुनापन हरू फैन हो पवियः प्रतः प्राप आकर के मेरी कम से कम इस शंका को समाधान कर करो तपस्या तज दूगी सव कांक्षा को ।।२६॥
मन्येऽहं स्वां गलितसुकृतां कुष्कृताव्यामधन्मां,
सेव्यो यस्त्वं न खलु भयकाऽऽराषितो यद्भवेऽस्मिन् । स्यासे रत्नत्रयमनुपमं पूर्णमाशु प्रशुद्ध,
काम्यां स्वीयां प्रकटयति सा स्वच्छु माकांक्षिणोत्पम्॥२७॥
प्रश्नय-मर्थ हे नाथ ! (अहम्) मैं (स्थाम्) अपने आपको (गलितसुकृताम्) पुण्य से सर्वथा बिहीन (दुष्कृतावघाम) एवं अत्यन्त पापिनी तथा (अवन्याम्) सर्व प्रकार से प्रयोग्य (मान्ये) मान रही हूं (मत्) क्योंकि (सेव्यः यः त्वम्) हर प्रकार से सेवनीय-आराधनीय-प्रापकी (मयका) मुझ प्रभागिन' ने (अस्मिन् भवे) इस भव में (न प्राराधितः) आराधना सेवा नहीं कर पायी है । (ते अनुपमं ररवयं आशु) पापका सर्वोत्कृष्ट रत्नत्रय परिन (प्रशुश) विशुद्ध होकर (पूर्णम्) पूर्ण हो (इत्थ) इस प्रकार की (त्वच्छुभाकांक्षिी ) आपके कल्याण की कामना करने वाली (सा) वह मेरी सखी (स्वीयां काम्यो प्रकटयति) अपनी भावना प्रकट कर रही है।
भावार्य हे नाथ ! जो मैं इस मद में आराधनीय ग्रापकी आराधना करने से वंचित हो रही हूं सो मैं अपने आपको पुण्यहीन पापिष्छा मान रही हूं। मेरी अब यही आपके प्रति मंगल कामना है कि आपका रत्नत्रय निर्मल होकर शीघ्र पूर्णता को प्राप्त हो।
पापिष्ठा हूं गलितसुकृता और हूं मैं अधन्या,
क्योंकि स्वामिन् ! नहि कर सकी आप आराध्य की जा,
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वचनदृतम्
सवा पूजा इस भय विषं, अस्तु हे कान्त ! ऐसी
इच्छा मेरी अब इक यही - श्रापकर शीघ्र होवे - सम्यक् रत्नत्रय गुणनिधे ! मुक्तिलक्ष्मी - प्रदाता पूरी-पूरी सफल जिससे साधना आपकी हो ॥२७॥
नाथ ! आपको सेवा से इस भव में मंचित रहने से, मान रही हूँ मैं अपने को भाग्यहीन पापिन इससे, जो बीती सो बीत चुकी वह इसका मन कुछ सोच नहीं, हो सुकुमार पलेगा फँसे तुमसे चारित सोच यही होवे पूर्ण आपका जल्दी धृतरत्नत्रय नाथ ! यही हार्दिक पुण्य कामना मेरी मिले मुक्ति की राज्यमही ||२७||
कच्चिद्रत्नत्रयमहरहो निर्मलं वर्तते ते,
निविघ्ना वा तपसि निरता तेऽस्ति कच्चिन्मुनीन्द्र | इत्येवं सा कुशलमवला पृष्छति त्वां मिरिस्थम्,
पूर्वाभाष्यं सुलभविपदां प्राणिनामेतदेव || २८ ॥
अश्वम-अर्थ- हे नाथ ! (ते) आपका ( अहरहः) प्रतिदिन ( रत्नत्रयम्) रत्नत्रय (चिव निर्मलम् वर्तते) तो निर्मल हो रहा न ? ( मुनीन्द्र) हे मुनीन्द्र ! (ते तपसि निरता निर्विघ्ना अस्ति कच्चित् ) श्रापकी तपस्या में लवलीनता तो निर्विघ्न संपादित हो रही न ? (इत्येवम्) इस प्रकार से (सा अबला ) वह अबला मेरी सखी राजुल (गिरिस्यम्) पर्वत पर बैठे हुए (त्वां कुशलं पृच्छति ) धापसे कुशल पूछ रही है। क्योंकि (सुलभविपदा प्राणिनां एतत् पूर्वाभाव्यं एवं ) सुलभ विपत्ति बालों की कुशल वार्ता सर्वप्रथम पूछना उचित है ।
३७
भावार्थ -- आप हे नाथ! पहाड़ पर विराजमान हैं अतः विपत्ति में पड़ जाना सुलभ और संभावित भी है इसीलिये उसने श्रापसे ऐसा पूछा है कि आपका रत्नत्रय तो निर्मलता की ओर बढ़ रहा है न ! मौर प्रापकी तपस्या में किसी प्रकार का विघ्न तो नहीं भा रहा है ?
है तो रत्नत्रय मनिपते ! प्रापका वर्षमान |
बाधा से तो रहित तप है मापका है तपस्विन्! |
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वचनदूतम् अायी तो है नहि शिथिलता आपके देह में, यों---
पूङ्ग हूं मैं यह इसलिये आप हैं पर्वतस्थ हो सकती है सुलभ विपदा अद्रिवासी जनों को ।।२८।।
नाध ! आपका रत्नषय ता सर्वप्रकार से है अम्लान ? किसी तरह की बाधा भी तो तप को नहि करती है म्लान ? देह प्रापकी में तो होता नहीं शिथिलता का कुछ मान, क्योंकि आप इस समय बनें हैं ऊर्जयन्त गिरि के महमान अतः विविध बाधाएं यहां पर हो सकती हैं विपत निदान इसीलिये मैं पूछ रही हूं सुखसाता तुमसे भगवान ।।१८।।
जन्मन्यस्मिन्नशुभविधिनाऽकारि नौ विप्रयोगः,
त्वं तत्कर्मक्षपणकरणे बद्धकक्षोऽसि जासः । पूर्वोदभूतः परमिह जने त्वद्गतो रागभावोऽ
नष्टो ज्ञातु प्रभवति मनो मे प्रभो! ते प्रवृत्तिम् ॥२६॥ अन्वय-अर्थ-हे नाथ ! (अस्मिन् जन्मनि) इम जन्म में (अशुभत्रिधिना) अशुभ कर्म ने ही (नो विप्रयोगः) हम दोनों का परस्पर में वियोग (मकारिं) करवाया है । सो (त्वं तु) आपतो (तत कर्मक्षपणकरण) उस अपकारक कर्म के विध्वंस करने में (बद्धकक्षोऽसि जातः) कमर कसकर तैयार हो गये हो, (पर) परन्तु (इहजने) मेरे भीतर जो (त्वदगतः पूर्वोद्भूतः रागभाषः) पहिले भत्रों में चला पाया हुअा अापके ऊपर राग है वह (अनष्टः) अभी तक नष्ट नहीं हुआ है, सो (मे मनः) मेरा अन्तरङ्ग (ते प्रवृत्ति ज्ञातु प्रभवति) अापकी प्रवृत्ति को कुशलवार्ता को-जानने के लिये लालायित हो रहा है ।
भावार्थ . है नाथ ! अशुभ कर्म ने ही इस जन्म में मेरा और प्रापका यह विछोह करवाया है, मो आप तो उ अपकारी के विनाश करने के लिये कटिबद्ध हो ही गये हो, परन्तु मैं जो अभी तक उसके नष्ट करने में तैयार नहीं हो पा रही हूं-उसका कारण आपके प्रति लगा हुआ मेरा पूर्वसंस्कारजन्य अनुराग है जो कि अभी तक कम नहीं हो रहा है, इसीलिये मेरा मन हर तरह से आपके कुशल वृत्त जानने के लिये उत्कंठित बना रहता है।
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बचतदूतम्
साथी दोनों हम तुम कई हैं भवों के, परन्तु
दुकर्मो ने इकदम इसी जन्म में है करायास्वामिन्! ऐसा विलग हमकों आपको क्या कहूं में, कर्मो के तो क्षपण करने हेतु, दैगम्बरी ये-दीक्षा ले के गिरि पर चढे आप तो तोड नाता,
स्वामिन् ! में हूं परभवगत स्नेह के ही अधोना सो रागी ये मन तुम विषे है अभी भी प्रसक्त
हो जाता है श्रवण करने आपकी क्षेमवार्ता ||२६||
अशुभ कर्म ने ही हम दोनों को इस भव में अलग किया 'उसके नाशन हेतु आपने तो मुर्तिवाना धार लिया पर परभव से चला श्रा रहा राग न श्रम तक अस्त हुआ, मेरा नाथ ! आपसे - सोमन कुशलक्षेम यह पूछ रहा ।। २६ ।।
मुक्त्वा मां त्वं ननु समभवः स्वार्थसिद्ध यं तपस्वी,
कृत्येऽस्मिंस्ते भवति महती वाच्यताऽतो ब्रवीमि । श्राशंसार्हं चरितमपि चेल्लोकदृष्ट्या विरुद्धम्,
सेव्यं तत्र भवति भवता मर्शरणीयं वचो मे ॥३०॥
३६
श्रन्वय अर्थ – नाथ ! ( मां मुक्त्वर) मुझे छोड़कर जो (त्वं तपस्वी समभवः) आप तपस्वी हुए हो सो (स्वार्थसिद्धये) अपने मतलब की सिद्धि के लिये हुए हो, इसलिये (अस्मिन् कृत्ये ) इस आपके कार्य में (ते) श्रापकी (महती वाच्यता) बड़ी निया हो रही है, (अतः ब्रवीमि ) सो इस सम्बन्ध में मेरा ऐसा कहना है कि (आगंमा मि चरितं लोकविरुद्ध चेत्) प्रशंसनीय भी चरित्र यदि लोक के विरुद्ध हो (तत् भवना सेव्यं नो भवति) बहू थापके द्वारा सेवनीय नहीं है। ऐसी ( मे वचः मरणीयम् ) मेरी को विचार करना चाहिये । बात का
छोडा स्वामिन्! स्वहित करने के लिये जो मुझे है । सो निंदा है इस विषय में आपकी नाथ ! भारी । देखो सोचो उचित कहती नाथ ! मैं तो यही हूं
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वचनदूतम्
अच्छा भी हो पर यदि पड़े लोक के वो विरुद्ध तो ऐसा भी वह नहि कहा कार्य संसेवनीय ॥ ३०॥
स्वार्थ सिद्ध करने के लालच से तुमने मुझको छोड़ा नहीं भलाई मिली बुराई से तुमने नाता जोड़ा असमय में अंगीकृत तप से नहि स्त्रसाधना सधती है, लोक विरुद्ध कार्य से स्वामिन् ! सिद्धि नहीं मिल सकती है । कार्य भले ही अच्छा हो हों लौकिकजन उसके प्रतिकूल तो असेव्य वह है उससे तो भाप श्रभी हो जावें दूर ||३०||
काचित् समये समये राजुलवेच्या सर्वां प्रत्युक्तं तद् वृत्तं निवेदयति-एवं सख्या निगदितमिमं सर्वसंदेश मुक्त्वा,
परवा से क्यथितमनसा यत्तयोक्त स्वसख्यं ।
यह विभो । त्वाम् प्रोक्तं स्वीयं वृहदपि यतो दुःखमल्पत्वमेति ॥ ३१॥
नाले काले
श्रन्वय अर्थ - ( एवं सख्या निगदितम् ) इस प्रकार अपनी सखी राजुल द्वारा कहे गये (इमं सर्व संदेशम् ) इस पूरे संदेश की (उक्त्वा) कहकर (पाते) फिर उसने कहा - (विभो ) हे नाथ ! (क्वथितमनसा तया) वेदविचित्त होकर उसने (स्वसस्यै काले काले यत् उक्तम्) अपनी सखियों से समय समय पर जो जो कहा है (तत् तन् अपि प्रहं स्वांश्रावयामि) वह सत्र भी मैं तुम्हें सुनाती हूं। (यतः) क्योंकि (बृहदपि प्रोक्त' स्वीयं दुस्खम्) दूसरों से कहा गया अपना बड़ा भी दुख: (अल्पत्वम् एति ) अल्पता को प्राप्त हो जाता है- सह्य हो जाता है ।
भावार्थ --- प्रेषित राजुल का सन्देश सुनाकर सखी पुनः श्री नेमिनाथ से कहने लगी कि हे नेमिनाथ ! समय समय पर राजुल ने जो अपनी सखियों से गदगद होकर कहा है उसे भी मैं अब आपको सुनाती हूं। क्योंकि कितना बड़ा भी असह्य दुःख क्यों न हो यदि वह दूसरो से कह दिया जाता है तो वह अल्प सह्य हो जाता है ।
जो संदेशा निजप्रिय सखी के सहारे पठाया,
श्री नेमी के निकट उसने जा उन्हें वो सुनाया ।
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वचनदूतम्
आलोयों से समयसमये जो कहीं थीं व्यथाएं
दुःखी होके रजमति सती की सभी यों सुनाई ।।३१।।
रामुल द्वारा प्रेषित ऐसा सब संदेशा कहकरके, फिर वह ही नगी नेहिले स्पषित हृदय प्रति हो करके । नाथ ! सुनो यो समय समय पर कह सखियां से कहती है, क्योंकि सुनाने से भी दुख की ज्याला तीन न जलती है ॥३१॥
नाथेनाहं मतकघटबहरतो विप्रमुक्ता,
यं बध्या हृषि सखि ! कर्म दोषयेयं कयं स्वाम् । पश्यन्त्या मे क्षण इव चिरापोषिताशा विनष्टा,
शुष्काः प्राणा अतिरपि गता प्रारणमाये प्रयाते ॥३२॥ प्रश्वय-प्र-(सखि) हे सखि ! (नाधेन) प्राणनाथ ने (महम्) मुझे (मृतकघटवत्) मुर्दे के घड़ा के समान (दूरतः) दूर से ही (विप्रभुक्ता) छोड़ दिया है । मो भब (हृदि) हृदय में (कथम्) कैसे (पर्य) धर्य को (दध्याम्) यह ौर (कयम्) कैसे (स्वाम्) अपने आपको-जी को- (बोधयम) समझाऊँ ? (चिरात्) चिरकास से (पोषिता में प्राणा) पोषी गई मेरी सब प्राशाएं--कामनाएँ-(पश्यन्त्या) मेरे देखते देखते ही रक्षण इव) एक श्रण की तरह (प्राणनाथे प्रयाते) प्राणनाथ के चले जाने पर (दिनप्टा) नष्ट हो गई है, (प्राणाः शुष्काः) प्राण शुष्क हो गये हैं और (धतिरपि गता) घयं भी छुट गया है।
भावार्य हे ससिजनो! जब मुझे मेरे प्राणनाथ ने ही श्मशानपतिन घड़ा के जैसा दूर से छोड़ दिमा है-तब मैं कैसे तो धैर्य धरू और कैसे अपने आप को समझाऊं। देखते देखते ही प्राणनाथ के चले जाने पर तो मेरा धर्य अट गया, सक भाशाएं नष्ट हो गई और मेरे प्राण तक भी सूक गये। प्रेतस्थानस्थित्तघटसमा मैं विमुक्ता हुई हूं
स्वामी-द्वारा, सस्सि ! अब कही धैर्य कैसे धरू में ? श्री जी को भी उन बिन कहो हाय ! कसे रमाऊं ?
कैसे खाऊं किसविध रहं क्या घरू क्या उठाऊं
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YR
वचनदूतम्
स्वामी मेरे क्षणम मुझे छोड़ के हो गये हैं
न्यारे, कैसे सफल अब हा ! संचिताशा बनेंगी ? जाते ही तो धृति गल गई प्रारण भी सुक ग्ये ये,
बोलो बोलो -सजनि ! अब मैं क्या करू, क्या कहूं में ? कैसे जिन्दा जन बिन हूं और जाऊं कहां में ||३२||
मृतकथड़ा के तुल्य नाथ ने मुझे दूर से छोड़ दिया, कडवे धागे के समान भव भय को नाता तोड़ दिया
कैसे धैर्य घरू है सजनी कैसे समझाऊँ खुद को कैसे चित रमाऊं कैसे और सजाऊँ इस लन को चिरपोषित प्रशाएँ मेरी सब की सब अब नष्ट हुई नष्ट हुए ये प्राण नाथ के जाते ही कृति भ्रष्ट हुई ।। ३२ ।। सौभाग्यं मे बिरह बहने कर्मणाऽलाय वग्धम्,
पश्येतन्मे
नाहं त्वेकं क्षणमपि विभोः पार्श्वमभ्येत्य तथाँ । विधिबिल सितंयन्मयीत्थं प्रबुसम्. ध्वस्सं ध्यातं व्रतमुपगतं कल्पितं यश्न चित्ते ॥ ३३॥
अन्वय अर्थ है सखियों ! (कर्मण) प्रशुभ कर्म ने (मे सौभाग्यम्) मेरा सौभाग्य-मुहाग- ( प्रन्हाय ) बहुत शीघ्र (विरह हने) विरह रूपी अग्नि में (दग्धम् ) भस्मसात् कर दिया है। क्योंकि (अहम् ) मैं (तु) तो (एक क्षरणम् अपि) एक क्षण भी (विभोः) प्राणनाथ के ( पार्श्वम् श्रभ्येत्य ) पास जा करके ( न तस्थौ ) नहीं बैठ सकी । ( मै एतत् ) मेरे इस (विधिबिलसितम् ) दुष्कर्म के विलास को तो ( पक्ष्य) देखो (यत्) जो ( मयि इत्यं प्रवृत्तम्) मेरे ऊपर – मेरे साथ इस प्रकार की चाल चल रहा है कि(व्यातं ध्वस्तम्) जिसका मैंने विचार किया था प्रर्थात् जो होने वाला था - बह तो हुआ नहीं और (चिते यत् न कल्पितम् ) वित्त में जिसकी कल्पना तक भी नहीं श्री जिसके होने की सम्भावना तक भी नहीं थी वह (दुतम् ) कदम (उपगतम्) हो गया है-सामने प्रकट हो गया है।
भावार्थ- सखियो ! मेरे दुष्कर्म की चेष्टा को तो देखो -- जो वह मेरे साथ कितनी मनमानी कर रहा है। मेरे सौभाग्य को वह फूटी आंखों से भी नहीं देख
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वचनदूतम्
पत्रा-क्षरण के क्षरा में कुछ से कुछ हो गया । नाथ द्वार पर भाये - एक मेकिण्ड भी उनके पास जाकर मैं खड़ी तक नहीं हो पाई, स्वप्न में भी जिसके घटित होने की माम्भावना नहीं थी वह तो हो गया और जो होना था वह नहीं हुआ।
देखो-देखो विधिविलसता ने करी हाय ! मेरी
कसी जल्दी इस तरह की दुर्दशा, नया कहूँ में 1 द्वारे प्राये पर न उनके पास में बैठ पायी,
छाया भी तो नहि पड़ सकी नाथ की दृष्टि की ही। माथे पै ही यदि पड़ गया नाथ का हाथ होता,
तो भी लेती कर सबर में हाय ! दुःखी न होती सोचा था जो वह नहि हुना वो हसा जो न मोचा ।।३।1
देला - मेरे इस सुहाग को विधि ने कसा. दग्ध कियाबिरहानल में.. इतनी जल्दी, नहीं पिया का प्यार दिया । रूदा बह यो क्यों मुझ से मेरा सब कुछ सूट सिया, मृझ विरहिणी करके उसने अपना क्या कस्याग किया।
मोचा था जो, . नहीं हुआ वह, हुआ नहीं जो मोचा था ।
मादृषकान्या भवति महिला दुःखिनो या स्त्रमा,
त्यक्ता तावत्परिणयविनिनिदान पुरस्तात् । दृष्टो द्रष्टा न. खलु स मया तेन बाहं न साक्षात्,
प्रायातोऽपि क्षण इव गतः सपनो द्वारदेशात् ।।३४॥
अन्वय अर्थ. -हे सखियो ! (या स्वभा परिणयविधेः तावत्पुरस्तान्। जिस प्राणनाथ ने विबाह के पहिले ही (निनिदानं त्यक्ता) बिना कारण के छोर दिया है। ऐसी (माह अन्या) मेरी जैसी दूसरी (का) कौन (दुःखिनी महिला) दुःग्विया महिला (भवति) होगी ? (मायातः अपि) बे माये तो, फिर भी (मपनः द्वारदेशात) महल के दरवाजे मे (क्षरण इव गतः) क्षण की तरह चले गये। प्रत्तः (माक्षास् सः मया न दृष्ट.) उन्हें मैंने नहीं देखा और (तेन प्रहं च न द्रष्टा) उन्होंने मुझ नहीं देखा ।
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वचनदूतम् __ भावार्य-सखियो ! इस संसार में मेरी जैसी दुःखिया महिला और कौन होगी कि जिसे भर विवाह में बिना कारण पति ने छोड़ दिया हो । बारात लेकर वे प्राये तो सही, पर महल के दरवाजे से ही के लौट गये, सो न वे मुझे देख सके प्रोर न मैं ही उन्हें देख सकी, यह मेरे कितने अधिक दुर्भाग्य का जीता जागता
मेरी जैसी दुखित महिला और कोई न होगी,
मत नही दम जिसे व्याह में छोड़ दी हो। द्वारे प्राये पर नहिं रुके है यही कर्मलीला,
देखा मैंने तब नहिं उन्हें, औ उन्होंने मुझे भी ॥३४।।
भर विवाह में जिसने अपनी पली को ही छोड़ दियाहोवे-, ऐसी घटना से सखि ! घड़के किसका नहीं हिया, मैं कितनी भमागिनी दुखिनी इस घटना की लक्ष्य बनी। बनी-वनी पर रही अनबनी लक्ष्य धनी की अन्य बनी, द्वारे पाये पर म रुके वे सरा--भर भी नहि खड़े रहे। सजे सजाये ठाट निराले सन के सब ही पड़े रहे, तका न उनने मुझे, न मैंने उन्हें तका, क्या मैं कहती। कैसे अपने मन की बातें उन्हें खोल कर समझाती ॥३४||
कंठे क्षेप्तु लजमहमिमा यावावाय सोधात्,
मायातायो जनमुखरवोऽश्रावि नेमिर्गतोऽस्मात् । त्यवरवा सर्वाभरणमुचितं ककरणं त्रोदायित्वा,
इत्थं जाते सखि ! बब कर्ष धैर्यषन्या भवेयम् ॥३५॥
अन्वय अयं हे (सखि) सखि ! (इमाम स्वत्रम्) इस मासा को (कण्ठे क्षेप्तुम्) उनके कण्ठ में प्रक्षिप्त करने के लिये (मादाय) लेकर (सौधात्) महल से (यावत्) जितने में (प्रधः चोभायाता) मैं न पायी कि इतने में (उचितम् सर्वाभरणम्) "उचित समस्त प्राभूसगों को (मुक्रया) उतार कर और (कङ्कणम् बोटमित्या) कंकरण को तोड़कर (अस्मात्) इस स्थान से---राजवार से—(नेमिः गतः) नेमिनाथ चले गये"
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धनबूतम् ऐगा (जनमुखरवः) मनुष्यों के द्वारा किया गया कोलाहल (प्रधादि) मैंने सुना । (इत्यम् जाते) ऐसी स्थिति हो जाने पर (क्द) है सखि ! तुम्हीं कहो (यंपन्या कथ भवेबम्) मैं धैर्यधग्पा-धर्य से धन्य-धीरज धारण करने वाली कैसे होती-कैसे धर्य धरती।
भावार्थ-हे सखि ! प्राणनाथ के गले में वर माला डालने के लिये ज्यों ही मैं उसे लेकर राजमहल से नीचे उतरी कि इनने में मैंने जनता के मुख से सुना कि नेमिनाथ तो वैवाहिक मांगलिक भाभूषणों को उतार कर और कंकरण को फेंक कर यहां से वापिस लौट गये हैं। तब कहीं सखि ! एसी हालत में मैं धैर्य कसे घरती?
ज्यों ही आयी भवन पर स माल्य ले हाथ में मैं
नीचे, त्यों ही जनरव सुना--नेमि देखो चले गये। छोड़े सर्वाभरण पहिरे और तोड़ा उन्होंने,
जाते जाते मरिणखचित को कंकणं भी सलोना । बोलो प्यारी परि सखिजनो ! धैर्य कसे धरु में,
मेरा प्यारा जब छिन गया हाथ-पाया खिलौना ।।३।।
बरमाला ले भवन में से प्राइ ज्यों ही सखी में, डालूगी अब प्रिय-पति गले में इसे प्रेम से में। खारे पायी जनरव सुना-"नेमि यहां से चले गये", सोड़ा कंक ग, पटक सगरे भूषणों को मही पर । विधि ने जिसका इस तरह से हाय ! सर्वस्व लढा,
कसे धीरज वह घर सके हे सखीमो ! बतायो ॥३॥ काचित् मेमि प्रायति
तस्संदेशं यरहमगवं चान्यवृत्तं तदीयम्,
श्रुत्वा प्रेष्या स्वकुसलमयो नाच | वार्ता स्वपापि । भौतिजस्तः प्रखरमतिभिरक्तमेतत्तवाहित
कान्सोवन्तः सुहपगतः संगमात् किञ्चिदूनः ॥३६॥
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बननदूतम्
प्रचय-अर्थ - (नाथ) हे नाथ ! (तत्संदेशम्. नदीयम् अभ्यवृत्त' च) अपनी सखी का संदेश और उसके अन्य समाचार (यत् अहम् अगदम्, जो मैंने कहे हैं यापको सुनाये हैं --सो । श्रुत्वा) सुनकर (त्वया अपि) प्रापको भी (स्वकुशलमयी) अपनी कुशलता की (वार्ता) खबर (प्रेप्या) उसके पास भेजना चाहिये (प्रग्जरमतिभिः) प्रखर बुद्धिशाली (नीनिः) नीतिविशारदों ने (एतत् उक्तम्) ऐसा ही कहा है कि (कानों दन्तः) वान्ता का कान्त को नौर कान्त का कान्ता को समाचार (मुहृदुपगतः) उसकी सखी तथा मित्रजन द्वारा मिल जाता है तो वह (संगमात् किञ्चित् ऊनः) आपस में मिलने के जैसा ही होता है ।
मैंने जो ये कथित उसका नाथ ! संदेश सारा,
चारणी द्वारा प्रकटित किया आप मे, और भी जो,..दुःखों से है अतिशय भरा वृत्त उस्का सुनाया,
नीतिज्ञाता इस पर यही नीति ऐसी बताते । भेजें प्रत्युत्तर कि उसको पाप भी, क्योंवि ऐसा
होने से है स्वजन मिलने के जिसा सौख्य होता ।।३७॥
नाथ ! प्रापको उसका भेजा जो संदेश सुनाया है, और साथ में उसको दुख का जो विवरण बतलाया है। प्रतः पाप भी प्रत्युत्तर में अपना समाचार उसको --- भेजें, ऐसा होने मे ही दूरदेशमूर्ती जन वो, प्रापस के मुग्व- दुख की बातों का सुबोध होता रहता । और परस्पर मिलने जैसा मुख-दुख का अनुभव रहता। नीति विशारद ऐसा ही तो अबतक कहते पाये हैं, इसे ध्यान में रखकर सुनने हाल मुनाने आये हैं ।।३६।।
काधिविस्य धीति
त्मां संस्पृश्याशरणविकला साऽगतः शीतयात--
. लम्धाभासा भवति नितरां तान् समालिङ्गय साध्वी । एषु मवासि त्वमिति तरलाइन्वेषणे दत्तष्टिः,
स्वामप्राप्य द्विगुणितमनस्तापदग्धाऽस्ति मुग्धा ॥३७।।
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वचनदूतम्
साथी के नहीं होने के
(लाम्) आपको (संस्पृ
f
अभ्वय अर्थ (शविकला सा) रक्षक जीवन कारण आकुलपाकुल हुई हे नाथ! वह मेरी राजुल स्पर्श करके ( श्रागतैः शीतवातैः) प्रागत शीतल पवनों से ( नितरां ) इकदम (वश्वासाभवति) कर लेती है। वह बिचारी उनका आलिङ्गन करके ( षु एवं क्व प्रसि) इनमें आप कहां पर है सो (अन्वेषणे) आपकी तलाश करने में (दस दृष्टि तरन्ना भवनि) अपनी दृष्टि को दौड़ानी हैजमाती है | इस प्रकार चंचल चित्त बनी हुई वह (मुम्बा) भोली भाली वहां (स्वाम्) तुम्हें (मप्राप्य) न पाकर (पुनः द्विगुणितमनस्तापदग्धा) फिर से द्विगुप्ति मन स्वाप से दग्ध (अस्ति) होने लग जाती है ।
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भावार्थ - हे नाथ ! आपको लकरके आई वायु जब उसे छूती है तो उसे बड़ी शांति मिलती है, सो वह मुग्धा उतावली होकर उनमें आपको तलाश करने लगती है, पर जब वह वहीं आपको नहीं पाती है तो हताश होकर वह द्विगुरित मनस्वाप से संतप्त होने लगती है ।
छू के भाई पवन तुमको नाथ ! छूती उसे है,
लब्धाश्वासा बनकर सखी खोजती व्हां तुम्हें है । पाती वो हा । जब नहि वहां आपको तो दुखी हो
निदाग
कर कर स्वयं की प्रशान्ता बने हैं ||३७||
साथ ! प्रायको छूकर पायी वायु उसे जब छूती है, तो वह अति प्रसन्न हो करके उसमें तुम्हें बूंकती है । पर यह मुग्धा नाथ ! नहीं जब तुम्हें वहां पर पाती है, तो वह द्विगुणितमनस्ताप से हाय द हो जाती है३७॥
मुग्धे ! कि स्वं मलिनववमा सांप्रतं संवृताऽसि,
सीस्वं तु प्रियपतिहिता विस्मृतं कि वयेवम् । कुच्छारला नो वदति च यदा ता वपस्था बदन्ति, कच्चतुः स्मरसि रसिके ! एवं हि तस्य प्रियेति ॥ ३८ ॥
:
अभ्वय अर्थ - हे नाथ ! जब सखिजन उसे मलिन मुख देखता है तो उसमे पूछने लगता है कि ( मुग्धे) हे मुग्ने ! (साम्प्रतम् ) इस समय (त्व) तुम (मलिन
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वचनदूतम्
बदना ) मलिन मुख ( कि संवृता प्रसि) क्यों हो रही हो ? (स्वम् तु प्रियपतिहितरता आसी) तुम तो अपने प्यारे पति के कल्याण में अनुरक्त थीं, सो(इदं ते किम् विस्मृतम्) इस बात को क्या तुम भूल गई हो ? (यदा कृच्छात्) जब कष्ट के मारे (सानो बदति) वह उत्तर नहीं देती है तब (तर: वयस्याः ) वे सखियां उससे ( वदन्ति ) कहने लगती हैं ( तस्य प्रिया इति ( मत्वा)) में उनकी प्रिया हूं. सो ऐसा मानकर (रसिके) हे रसिके ! ( कच्चित् त्वम् ) क्या तुम (भर्तुः स्मरसि) अपने भर्तार को याद कर रही हो ?
भाषार्थ - राजूल को मलिन उदासीन मुखवाली देखकर सखियाँ उससे मजाक के रूप में यहां पूछ रही हैं कि राजुल ! तेरा मुख मलिन क्यों हो रहा है ? क्या पतिदेव मुनि हो गये हैं इसलिये तो तुम्हीं तो पहिले कहा करती थी कि मुझे तो अपने पतिदेवता है फिर हो गया ? इस प्रकार पूछे जाने पर जब वह दुःख की अधिकता के मारे उन्हें जवाब नहीं देती हैं तो वे सखियां उससे हंसी मजाक के रूप में कहने लगती है कि तुम्ह तो अपने को नेमि की प्रेयसी मानती हो न ? तो इसलिये हे रसिके ? तुम अपने भर्तार की याद कर रही हो क्या ?
मुग्धे ! क्यों तुम मलिनवदना इस समय हो रही हो,
तुम तो पहिले पतिहितप्रिया थीं इसे भूल गई क्या ? ऐसी बातें सुनकर दुखित चित्त हो वो न देती
प्रत्युत्तर, तो बस फिर उसे वै वयस्या चित्राती । यों कह करके "सखि | तुम" प्रिया नेमि की हूं "अतः क्या' बैठी बैठी स्वयं उनकी याद में रत बनी हो ||३८||
श्यं काचित्तस्या मनोवेदनां वक्ति---
अन्तस्तापं प्रशमितुमसौ नाथ ! सार्धं सखीभी, रम्याशमं व्रजति च यदा हन्त । तत्रापि तस्याः । सानिध्यात् सुखित शिखिनो वीक्ष्य दुःखातिरेकात्, मुक्तास्थूलास्तर किसलयेच्यश्रुलेशाः
पतन्ति १३६॥
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वनदूतम
अन्वय-अर्थ-(नाथ) हे नाथ ! (प्रसी) यह राजुल (यदा) जब (अन्नस्तापम्) अपने मनस्ताप को (प्रशमितुम्) शान्त करने के लिये (सखिभिः सार्धम्) अपनी सस्त्रियों के माथ (रम्याराम) मुन्दर-रमणीय बाग में (व्रर्जात) जाती है. -नब हिन्त) बढे दुःख की बात तो यह है कि (तत्रापि) बहां पर भी (त्वत्सान्निध्यात्) प्रापर्क पास से (सुवितशिखिनः) मुखी हुए मयूरों को (वीश्य) देखकरके (दुःखातिरेकात्} दुःख की अधिकता के कारगा (मुक्तास्यूलाः) मोतियों के जसे स्थूस (तस्याः प्रश्नुलेशाः) इसकी अांखों से प्रामू (तरुकिसलेषु) वृक्षों के पत्तों पर गिरने लगते है।
भावार्य - हे नाथ ! जब राजुल अपने मानसिक संताप को दूर करने के निमित्त किसी सुन्दर उद्यान में जाती है तो वहां पर वह आपके पास से मुम्बी होकर आये हुए जो देखो हसओ रह ५५iमय सी हो जाता है कि मैं भी उनके पास गयी थी. -मैं तो मुखी होकर नहीं आई हूं | अतः ऐसे ध्यान से मोती के जमे स्थूल प्रांसू उमकी आंखों से निकल कर पत्तों पर गिर पड़से हैं, इस प्रकार राग में जाने पर भी उसमें दुःख की अधिकता ही बढ़ती है, वहां पर भी उसे चैन नही मिलती।
चिन-प्रशान्ति के शमन हेतु जब वह उपबन में जाती है सखियों के सँग, फिर भी उसके मन में शांति न पाती है प्रत्युत दूना बढ़ जाता है उसका मन संताप तभी निकट माप के होकर पायें सुखित देखती शिखी जभी मैं भी पास गई थी उनके दुःखित होकर ही प्राई तो क्या मैं पशुओं से भी हूं, ओछी कृपा न घरमायो ? इस विचार के आते ही बस उसकी प्राग्वें भर पानी और बृक्ष के पत्तों पर वे अश्रुकणों को बरसाती ॥३९॥
तत्सान्त्वना दातुं स्वसणीवचनं राजपुत्री निषेधति-- कंजेष्वंग, हरिणनयने नेत्रसाम्यं विभोम्त्वं
मास्यच्छायां शशिभति शरत्पौर्णमास्या, तिरेफेकेशान् कृष्णान्, क्षितिभूति धृति, स्पष्टमीक्षस्व, साह
हसकस्मिन् क्वचिदपि न मरस्यामिसादृश्यमस्ति ॥४०॥
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वचनतम
अन्यय-नयं-हे नाथ ! राजुल की दुरवस्था देखकर उसकी सखियां जब उसे यों समझाती हैं - वि हे सत्य ! (त्वम्) तू (का) वामलों में विभोः अंगम्) अपने नानी के शरीर के सौन्दर्य को (हरिगानयने नेश्साम्यम्) मृगों के नयनों में उनके नेत्रों की समानता बो (शरलौर्णमास्या शशिभूति) शरत् की पूर्णिमा के चन्द्रमंडल में (प्रास्ययायाम्। उनके मुग्न की शोभा को (द्विरेफे कुषलान कत्रान्) भ्रमर में उनके काले केशों को और (क्षितिभूति तिम्) पर्वत में उनके धैर्य को (पष्टम् ईक्षस्व) स्पष्ट रूप से देख, तब (मा अाह) वह कहती है हिन्न ! क्वचिदपि एकस्मिन्। बड़े दुःख की बात तो यह है कि कहीं पर भी एक जगह (मत्स्वामिसाहश्यम् न अम्ति) मेरे स्वामी के अंगायिकों का साहश्य नहीं है. अतः धर्य कैसे धारण करू ।
गाध ! विरह से व्याधित हुई जब सखियां उसको लखती हैं "विरह अग्नि में जलती क्यों तू' नब उससे यों कहती हैं समझातीं वे धार २ हैं इस प्रकार के कथनों से उपमित करके नाथ ! आपके अंगों को उपमानी से राजुल ! तेरे भत्ता का है कमलतुल्य सुकुमार शरीर उसे निरखकर मन समझाले अपना, मत हो सखी ! अधीर हरिणों के नयनों जैसे हैं उनके दीरध अनिमारे नेत्र, निरखकर मन समझाले, क्यों उनही पर दम मारे. शरतकाल की राका के विधु जैसा है उनका मानन । उसे निरखकर मन समझाले दुःखित मत बन तू हर क्षण भ्रमर तुल्य हैं उनके काले केश, देखकर भ्रमरों का मन को तू अपने समझाले क्यों करती है फिकरों को, चले गये तो जाने दे दे, चिन्ता उनकी अब कैसी जो विरक्त हो गया सखी तो उसके प्रति रति क्यों ऐसी, वे तो अचल अचल से हैं, तू चंचलचित क्यों होती है उनकी चिन्ता में पड़कर क्यों जीवन अपना खोती है सुन करके सखियों की ऐसी सौख सयानी कहती है यह शोभा है यष्टिरूप में नहि समष्टि में दिखती है उनके जैसे वे ही हैं नहि उनसा कोई दिखता है दुर्लभ है सौभाग्य जगत में वह न हाट में बिक्रता है ।।४।।
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बचनदूतम
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घ्यनीति शानिरा प्रकटयति-- उक्त्ववं सा विगलितकृती रोदनक्लान्तचित्ता
दर्श दर्श तब प्रतिकृति दीर्घ निश्वासदग्धा स्मारं स्मारं भवभवगतं गत्वरप्रकृष्टानुरा
माहारं वा अलमपि विमो ! नव गृह्णाति सम्पक ॥४१॥ मन्दार-अर्थ- हे नाथ ! (एवम् स प्रकार कहकर (सा। वह (रोदनक्वान्नचिना) रो रोकर अपने चिल को मलिन बना लेती है। और (विगचितवृतिः) धैर्यबिहीन बन जाती है। (सव प्रतिकृति दर्श-दर्श) अापकी छवि को देख देख कर यह (दीनिश्यामदग्धा) लम्बी लम्बी सांसेवीचने लगती है और (भन भवमनं त्वत्प्रकृष्टानुगसम्) प्रत्येमा भय के आपके प्रकृष्ट अनुराग को (स्मारं स्मारम्) वारंबार माद करके वह (दिभो) हे स्वामिन् ! (पाहारं जलं अपि) पाहार को एवं पानी को भी (सम्यक) यच्छी तरह (नव गृहानि) नहीं ग्रहण करती है। स्वामिन् ! ऐसा कहकर सती धर्य खो बैठती है
. श्री रोती है दुखितचित हो, देखके आपकी यो। फोटो प्यारो, तुरत उसकी तीन हो श्वास जाती
बारंबार स्मरण करती आपकी पूर्वप्रीति सो वो अच्छी तरह भगवन् ! चैन से बैठती न
खाती पीती, अनमन बनी ही सदा बो रहे है "जाते जाते कुछ ना कहा क्यों हुए यों कठोर"
निर्मोही भी जब जब कहीं देश को हे क्यम्ये ! - जाता है तो खबर करता है सभी वन्धुओं को
देखो ऐसी यह स्वजन की है उपेक्षा मली क्या ? १४१॥ ऐसा कहकर ना ! सती वह वैयंगलित हो जाती है, रोने लगती क्लान्तचित्त हो श्रास बाल बढ़ जानी है बार २ दह नाथ ! आपकी प्रतिकृति को जब नवनी है को माने पर हाथ लगाकर भाग्य कोसने लगती है पूर्व भत्रों को स्नेहस्मृति से प्राकुल-व्याकुल बह होती सब कुछ भूल बिसर कर केवल मन ही मन रहनी गेनी,
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ननादूरम
कहती है वह एक बात यह "छोड मुझे दे चले गये पर मेरे मन से वे अबतक नहीं गये तो क्यों न गये ? जाना था तो हिलमिल करके जास' कुछ तो कह जाते, नहिं पाते तो नहि पाते पर कुछ तो धैर्य बंधा जात जाने वाले को सखि ! जग में हट से कोई न रोक सका गर्म लोह को मरम न नोहा जग में अबतक काट सका हा, ठंडी पैनी छनी ही जैसे उसे काट देनी सैसे मैं भी शीतल निजवचनों से उन्हें डाट लती ऐसी ऐसी बातें कहती यह, भोजन पानी तक भी ग्रहण न मनमाना करती है। क्षरा २ अकुलानी रहती कहती है-उन बिन मैं जैसी दुःखी हूं मुझ बिन वे होंगे. कहां बटते होंगे वे अरू क्या खाते पीते होंगे ।। ४१।।
द्रष्ट्वा तस्या विलपनपरां सामवस्था वयस्याः,
मुग्धे ! मैवं कुरु किमिति ते विस्मृता सा पापि । नारी रम्या भवति च यया बोधयन्तीत्यमेतत
सोदव्यं ते पतिविरह धैर्यमाधाय दुःखम् ॥४२॥
प्रथम अर्थ हे नाथ ! जब उसकी (वयस्याः) सखियां (विनफ्नपरांताम्। रोने धोने में ही तत्पर बनी हुई (तस्याः अवस्याम्) उसकी दशा को देखती हैं- तो (द्रप्ट्वा ) देखकर उसे (इत्यम् ) इस प्रकार से समझाती हैं-(मुग्धे ! ) हे मुग्धे ! (एवं मा कुक) तू ऐसा मत कर (किमिति ते सा त्रपा अपि विस्भृता) क्या तूने बह लज्जा भी भुला दी है कि (मया) जिससे (नारी रम्या भवति) नारी की शोभा होती है । प्रतः (पति-विरहज एतत् दुःखम्) पतिविरह से उत्पन्न हुआ यह दुख (धैर्यम् प्राधाय) धैर्य धारण कर (ते सोढव्यम्) तुझे सहन करना चाहिये। रोने में ही निरत उसकी देखके दुर्दशा को,
दुःखी होती सवय सस्त्रियां, यों उसे बोध देती। मुग्धे ! चिन्ताव्यथितचित हो क्यों दुखी हो रही हो,
नारीभूषा तज मत प्रपा, नेमि की क्यों कृपा नू
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बनाना ऐसो भोलो बनकर सखो चाहती है ? न वे हैं --
तेरे कोई अब समझले और तुभो न उनको कोई है. यों पतिविरह का दुःख क्यों मानती है
माने है तो सह अब उसे धर्य से हे सखी तू ।। ४२।।
नाथ ! आपके विरह जनित वह दुख से पीडित हो करके । रात दिवस है रोती रहती सब कुछ भूल बिसर करके सो हमसे देखी नहिं जाती उसकी ऐसी हालत को हृदय हमारा भर पाता है सो समझाती यो उसको चिन्ता किसकी तू करती है क्या उनमे तेरा नाता नाता तो अब छूट चुका है, झूठा क्यों रचती खाता नारी का भूषण लज्जा है, सो ऐसे व्यवहारों से प्राचरणों से प्रौर अनोखी ऐमी ऐसी बातों से होती है वह घराशायिनी प्रतः छोड़ इस ममता को पतिपत्नी का भाव ध्वस्त कर धरले सजनी ! समता को ।।१२।।
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सर्व मुक्त परमिह तया त्वं न मुक्तोऽसि नाथ !
वाक्यं मो नो परति हरये "नाथ ! कुत्रासि वक्ति" । बच्मः किञ्चिविरम सरसो भो दयासो! प्रोष्य,
तामिस्वाऽत्र त्वमनुचरतास्सर्वमा तपस्याम् ॥४३।।
अन्वय-अर्भ (नाथ) हे नाथ ! (इह) इस समय (तया सर्वम् मुक्तम्) उसने सब कुछ छोड़ दिया है (परम् त्वम् न मुक्तः असि) पर तुम्हें नहीं छोड़ा है (नः वाक्यम् । हम लोगों की बात को वह (हृदये नो घरति) चित्त में ही नहीं लेनी है । (नाथ ! कुत्र असि बक्ति) केवल हे नाथ ! तुम कहां हो यही कहती है । (बच्मः) अनः हम प्रापसे यही कहते हैं कि (किश्चत् तपसः विरम) कुछ समय तक तपस्या में प्राप विराम ले लें और (भो दयालो) हे दयालो! (ताम् प्रबोध्य) उसे समझाकर फिर (अत्र इत्वा) यहां आकर के (स्वम्) पाप (सर्वभद्राम्) सर्वमंगलकारिंगी (तपस्याम्) तपस्या की (अनुचरतात) पाराधना करें।
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वचनदूतम
भाषार्थ- हे नाथ ! यद्यपि तत्री राजुल ने इस ममय संब से मोह ममना छोड़ दी है, पर आपसे नहीं छोड़ी है । हम सत्र तरह गे उसे समझाने बुझाते हैं पर उसके चित्त में एक भी बात नहीं जमनी, वह जो एक ही रट लगाये रहती है कि हे नाथ ! म कहां हो? इसलिये हमारी तो प्रापसे प्रार्थना एक यही है कि कुछ समय के लिये आप तपःसाधना से विराम लेवार उसे समझाने 1 पश्चात् यहां आकर सर्व हितीि तपस्या में लवलीन हो जाते।
होड़ा स्वामिन् ! सब कुछ सखी ने तुम्हें पै न छोड़ा
मोहाधीना बन र तुम्हें चित्त में है बिठाया आ आ आके निशदिन उसे सर्व ही बान्धवादि
प्यारे बोधप्रदवचन से खूब संबोधते हैं तो भी हो हो वह अनमनी बोलती बोल ऐसे
हो जाता है सुनकर जिन्हें चित्त में क्षोभ भारी छोडा है क्यों ? तजकर लिया शाल का क्मों सहारा
___ क्या था मेरा प्रबाट करते दोष यों छोड़ देना . शोभा देता ? महि वह उन्हे" प्रार्थना है अतः ये
स्वामिन् ! जल्दी चलकर उसे आप संबोध दोगे तो ही होगा सुचित उसका, है न अन्य प्रयत्न
हो जावेगी वह सुचित सो बाद में श्राप व्हा ही आ जावें प्रौ तप बहु त सर्वकल्याणकारी ।।४३।।
नाय ! प्रापको छोड़ सखी ने सब कुछ अपना छोड़ दिया, समझाने पर नहीं समझती ऐसा निज को बना लिया, कहती है बस ! यही कि मुझको विन कारण क्यों छोड़ा है घर को छोड़ शैल से पाकर क्यों यह नाता जोड़ा है, ऐसी व्यथाभरी जब उसकी बातें हम सब सुनती हैं, तो मन टूक टूक हो जाता तब उपाय यह सुनतीं है पाप पधारे उसके मन्दिर और उसे समझा यावें फिर प्राकर के नाथ ! यहीं पर लीन सुनप में हो जावें ॥४३||
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वचनदूतम
चिन्तां त्यक्त्वा निजहृवि हले ! धैर्यमाधाय दुःखं, सोढव्यं से निपतितमिदं स्वामिवैराग्यजन्यम्
इत्थं तावद्युवतिततिभिर्बोधिताऽप्यस्तबुद्धिः कृत्वाssकन्दं पतति भुवि सा निः सहाया लतेव ॥। ४४ ।।
छोड़
में
अन्य अर्थ - हे नाथ ! जब उससे वहां की नव ब ऐसा कहती है कि () हे सखि ! (चिन्ता) किल्ला को (म् प्रावाय) धीरज धारा करके (स्वामिवैराग्यजन्यम्) स्वामी के वैराग्य हो जाने से उत्पन्न हुए (निपतितम्) आकस्मिक (इदम् दुःखम् ) इस दुःख को (ते गोढव्यम्) तुझे महता चाहिये, (इत्थम् ) इस प्रकार ( युवतिततिभिः बोधिता अपि) नवीन वधुनों के द्वारा समझाई गयी भी वह (श्रस्तबुद्धिः ) नासमझ की जैसी (प्राकन्दं कृत्वा) माक्रन्दन करके (निःसहाया लता हव) सहारे बिना की लता के समान (सा भुवि निपतति ) वह जमीन पर गिर पड़ती है ।
छोड़ो चिन्ता श्रव, हृदय में हे सखी ! धैर्य बांधों,
जैसे भी हो मु-सहन करो दुःख जो आपड़ा है "स्वामी ने है तजकर मुझे बीच में व्याह के ही
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भावार्थ- हे सखि ! श्रम तुम चिन्ता मत करो जो होना था वह तो हो ही गया है । र्यपूर्वक अकस्मात् प्राये हुए इस दुख को अब सहन किये बिना कोई चाह नहीं है। इस प्रकार से नवोद्वाभों द्वारा समझाये जाने पर भी वह नहीं ममभतीप्रत्युत दुःख की अधिकता के बढ जाने के कारण छिन्नलता सम सहारे बिना कीलता जैसी जमीन पर गिर पड़ती है ।
दीक्षा लेली नहि श्रत्र रही मैं कहीं को, कहूं क्या" सो यो चिन्ता तुम मत करो जो हुआ, भूल जाओ
आगे क्या है अब सु करना चित्त में ये विचारो ग्रच्छा होगा सब तरह से क्यों दुखी हो रही हो
जो हुआ है वह सब भले के लिये ही हुआ है ऐसी शिक्षानवयुवतियां ज्वों उसे हैं सुनाती
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त्यों ही वो तो क्षितिपतित हो - छिन मूलालता सो
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वचनदूतम हो जाती है, चलकर अतः आप सद्बोध देव
मेरी प्यारी उस सजनि को आपकी जो प्रिया थी ।। ४४।। नाथ ! नगर की नववधुएँ जब उसको यो समझाती हैं । गई वस्तु की चिन्ता छोडो निता पैन चुगती है। चिन्ता को कहते हैं ज्ञानी बड़ी चिता से भी बदतर चिता भस्म करती अजीव को यह सजीव को यह चितधर छोड़ो चिन्ता, धरो धर्य को अब मन में, तुम सहन करोस्वामी के वैराग्यजन्य इस दुख को, समताभाच धरो, जो कुछ हुप्रा भूल जावो तुम पागे क्या करना सोस्रो इस अमूल्य मानवजीवन को पर घिन्ता से मत दोचो ऐसी मंजुल मोटी वाणी से जब वे समझाती हैं नहीं समझती प्रत्युत वह तो रो रोकर गिर जाती हैछिन्नमूल व्रतती के जैसी--, नब म सब घबड़ाती हैं
ऐसी निकट दशा में भी क्यों तुम्हें दया नहीं आती है ।।४।। सखी नेमि प्रति तत्प्रतिबोधनोपायं प्रकटयति - गत्वा दोष्णा विरहमलिनं तन्मुख क्षालयित्वा,
तोयेन त्वं तवनुमुलुक: सतसं पाययित्वा कृत्वाऽऽश्वस्तां कुशलगदनापृच्छनायं विशिष्ट
वक्तु धीरः स्तनितवचनर्मानिनी प्रक्रमेयाः ।।४।। अन्धय-अर्थ-हे नाथ ! (त्वं) प्राप (गत्वा) यहां से जावें और जाकर के (तोयेन) शीतल जल में (विरमलिनम्) विरह में मलिन हुए (नामुखम्) उसके मुख को धोत्रे (क्षालयित्वा) धोकर फिर आप (तदनु) बाद में (चुलुकः) अपनी चुल्लमों से (सदस पायित्वा) उसे सुन्दर रस पिलावे. पिला करके (अाश्वस्ताम् वस्त्रा) उसे प्राश्वस्त करें-और आश्वस्त हो जाने पर (कुशलगदनापुच्छनाय : विशिष्ट स्तनितम्बचनैः) फिर प्राप कुशल कहने और पुछने आदि,श्राप विशिष्ट हृदयहारी वचनों से (धीरः) धीरज के साथ (मानिनी वक्तुम् प्रक्रमेथाः) उस मानिनी को समझायें ।
भावार्य हे नाथ ! मैं भापको उस अपनी टेक पर पड़ी हुई सखी को समझाने की प्रक्रिया बतलाती हूं-प्राप यहाँ में जाकर मवप्रथम निमल शीतल जल से
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वचनदूतम्
अपने हाथ से ही उसके विरह मलिन मुख को धोकर और चुल्लुओं द्वारा सेव नारंगी एवं अनार आदि फलों का रस पिलाकर उसे प्राश्वस्त करें -- फिर हृदयंगम वचनों द्वारा उनके कुशलतादि के समाचार पूछें ।
जाकर जल्दी घर पर विभो ! श्राप उसके, यहां से, देखें उसको, मलिन मुख ही श्रापको को दिखेगी पानी लेकर प्रथम उसका ग्रास्य धोना स्वयं ही, पीछे चुल्लू भर कर रसों को पिलाता प्रभो ? तुम, आश्वस्त हो जब इस तरह से विभो ! आप पीछे fâ vama bgunénsai --- करना, करते समय उसकी भावना जान लोगे ||४५ ||
नाथ ! यहां से आप शीघ्र ही श्वसुरसदन पर जाकर के बिरव्यथित विजयिताजनको अपना दर्शन देकरकेशान्त कीजिये, यह प्रशान्त है, यहीन वह बिलकुल है, जल दिन मीन तुल्य वह तुम बिन हाय ! हाय ! प्रतिब्याकुल है,
जाकर धैर्य बंघाश्री उसको, मैं उपाय बतलाती हूं, सुनो सुनो तुम उस उपाय को मैं तुमको समझाती हूं, जाकर पहिले जल लेकरके उसके विरह्मलिन मुख को अपने हाथों से धो देना, फिर चुल्लू भर भर रस को
धीरे धीरे उसे पिलाना और पूछना फिर उससे क्षेमकुशल, यों करने से ही होगा प्राश्वासन उसको तुम तो करुणा के श्रव हो दया योग्य है वह प्राणी सुख दायक बाशी कहने में कहो कौनसी हैं हानि ॥ ४५ ॥ उसोच्छ, वातैरधरदशनच्छादनं कृष्णयन्सों,
भूपीठस्थामचलनयनां द्रक्ष्यसि त्वां समीक्ष्य । सा स्वत्प्राप्य विविध नियमान् संस्कृतान् विस्मरन्सी,
स्वत्पादार्थ करुणविरुतं कुर्यती क्षेप्स्यति स्वाम् ॥४६॥
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वचनलम्
अन्वय-अर्थ-हे नाथ ! (उष्णोळ्यासः) गरम गरम श्वासों से (अधरदशन- । च्छादनस्) अपने अधरोष्ठ को (कृष्णयन्ती) कृष्ण करती हुई, एवं (भूपीठस्थाम्) भूमिरूप आसन पर बैठी हुई उस मेरी सखी को (अचजनमनाम्) माप अनिमिषनेत्र हुई (द्रक्ष्यति) देखेंगे । (सा) वह चाइ) तुम्हें देखकर वह कनान पूर्स में भापकी प्राप्ति के निमित्त किये गये (विविधनियमान्) अनेक प्रकार के नियमों को (विस्मरन्ती) भूलती हुई (करुणविरुतम्) और करुणाजनक विलाप (कुर्वती) करती हुई (त्वत्पादाने) मायके चरणों के आगे (स्वाम क्षेप्स्यति) अपने आपको पतित-विसर्जित कर देगी। अर्थात् मापके पावन चरणों में गिर जायगी।
मगर जैसा अधर उसका उष्ण उच्छ बास द्वारा,
काला होकर प्रकट करता दुःख की तीव्रता को, ऐसी दुःखी वह प्रिय सखो पापको भूमि पै ही
बैठी रोसी सुथिरनयना देखने को मिलेगी, देखेगी वो जब सदन में प्राप आये हुए हैं
तो जावेगी विसर नियमों को किये गये सभी को, रोती रोती चरणयुग में आपके पा पड़ेगी
होगी धन्या, दिवस उसका साधना धन्य होगी ।
नाथ ! धधकती विरह अग्नि में प्रसिक्षण उसकी पत्रामों कोइतना उष्ण कर दिया जिनने कृष्ण कर दिवा प्रोडों को ऐसे सूखे काले होंठों से सनाथ वह नाथ ! सखी जिराकी तुमने सबर न अबतक ली, नहि जिसकी बात रखी कोमल, कान्त कामनाओं को जिसकी तुमने मसल दिया भो विराग धर करके प्राकर इस पहाड़ पर बास क्रिया अनिमिष दृग बह तड़प रही है नाथ ! प्रायके दर्शन को स्वागत, भावभक्ति करने को, करने चरणस्पर्शन को क्षोपीरूपी आसन ऊपर बैठी बह जब देखेगी प्रामा हुना मदन में तुमको, तो इकदम उठ बैठेगी "भूल" भूलकर वह नियमों को रोती रोती पावेगी मात्मसमर्पण हेतु प्रापके चरणों में गिर जायेगी।
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वचनदूतम् श्यामा श्यामा विरह विकला दुःखदावाग्मिदग्या,
तन्वी तन्वी शिथिलगममा मन्दमन्वप्रजल्पा । खिमा खिन्ना पति वदनात कि स्वयाह प्रमुक्ता,
गस्वा शीघ्र कथयतु भवान् कारणं धर्जनस्य ॥४७॥ अन्वय-प्रर्य हे नाथ ! यद्यपि वह (श्यामा) यौवनवती है (विरहनिकला ) फिर भी बिरह से विकल, और ( दुःखदावाग्निदग्धा ) दुःस्वरूपी दावानल से दग्ध होने के कारण ( श्यामा ) काली हो गई है। ( तन्वी सन्धी) उसकी शारीरिक स्थिति इतनी अधिक कमजोर हो गई है ( शिथिलगमना कि बह ठीक तरह से चल फिर भी नहीं सकती है । (मन्दमन्वप्रजल्पा ) बोलती है तो बहुत ही धीमे स्वर में बोलती है । ( जिम्नाखिला ) अत्यन्त दुःखित हुई वह (किं स्वया अहम् प्रमुक्ता ) "तुमने मुझे क्या त्याग दिया है" ( वदनात् वहति । मुख से यही कहती है । अतः (भवान्) पाप (शीघ्रम् गत्वा) जल्दी से जल्दी जाकर ( बर्बनस्य कारणम् वथवतु) उसे छोड़ने का कारगा बतलाभो।
भावार्थ-हे नाथ ! आपके विरह जन्य दुःख की अधिकता के कारण वह नाली दिखने लगी हैं । कमजोर वह इतनी ज्यादा हो गई हैं कि उसे चलने फिरने में भी कष्ट होता है, बोलते समय उसकी आवाज स्पष्ट नहीं निकलती है। अत्यन विकल बनी हुई सिर्फ वह यही कहती है फि "विना कारण तुमने मुझे क्यों सजा" सो माप यहां से जाकर उसे छोड़ने का कारण बतावें ।
श्यामा श्यामा शिथिलगमना दुःखदावाग्निदग्या तन्वी तन्वो विरह-विकला मन्दमन्दप्रजल्पा खिन्नाखिन्ना वह बस यही बोलती है कि क्यों हेस्वामिन् ! त्यागा त्रुटि बिन मुझे दोष मेरा हुआ क्या ? जल्दी जाके अब तुम उसे त्यागने का निमित्त जैसे भी हो समय तप का नाथ ! थोड़ा बचा के संबोधो-तो इस तरह से नाथ ! वो स्वस्थचित्ता हो जावेगी, दुखित-दुख की है दवा एक ये ही ।।४।। विरह-दुःख ने मेरी प्राली कर दी काली काली है चिन्ताओं ने मथ मथ करके कृशशरीर कर डाली है विरहयदि उसके तन मन में प्रतिक्षरण जलती रहती है, उसकी भीषण ज्वाला से वह झुलसीझुलसी रहती है । खेद खिन्न हो कहती है वह "कारण विना पिया ने क्यों त्यागा मुझे" बतायो जाकर प्रिये ! त्याग का कारण यों 11I
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वचनदूतम्
सा स्वनामस्मरणसुधया सिक्तगात्रा सजीवा,
किन्तु स्वान्ते बिरहसपनरात्मनिष्ठत्व-शून्या । नत्त त्वद् या मवनसदृशं काड, क्षतेऽन्यं पुमांसम्,
संरक्ष्याऽतो भवति भवता नो खलपेक्षणीया ॥४॥ प्रन्यय-अर्थ-हे नाय ! ( त्वन्नामस्मरणसुधया सिक्तगात्रा ) आपके नाम के स्मरणरूप अमृत से उसका शरीर सिञ्चत होने से वह यद्यपि प्राण सहित है-मरी नहीं है (किन्तु) परन्तु ( स्थान्ते विरहतपनैः प्रात्मनिष्टत्वशून्या) फिर भी वह मन में अपने आपको मरी हुई-निर्जीव हुई-सी मान रही है—मैं सजीव हूं ऐसा नहीं समझ रही है । और (या) जो (त्वत् ऋते) आपके सिवाय ( मबनसदृशं अन्यं पुमांसं नो काङ्क्षते) मदन के जैसे किसी अन्य पुरुष की आकांक्षा नहीं कर रही है । ( अतः) इसलिये (भवता) आपके द्वारा बह ( संरक्ष्या ) रक्षा करने के योग्य है ( उपेक्षणीया नो) उपेक्षा करने के योग्य नहीं है ।
भावार्ष-हे नाथ ! बह आपका नाम स्मरण करती रहती है. इसी कारण वह अभी तक जीवित है, नहीं तो कभी की वह आपके वियोग में मृत्यु को प्राप्त हो जाती, आपके प्रति उसकी इतनी अधिक श्रद्धा है कि वह आपके सिवाय कामदेव जैसे सुन्दर मन्य किसी भी पुरुष को नहीं चाहती है, अतः जैसे भी हो पाप उसकी रक्षा करें, उपेक्षा न करें।
त्व नामस्मृत्यनुपम सुधा से प्रभो ! गात्र उस्का, पूरा पूरा बिलकुल हुअा है सना, सो इसी सेहै वो जिन्दा, पर विरह से नाथ ! हो गई मरी सी सद्यः होगी असुविरहिता देखने में लगे यों देखो तो है विधिगति विभो ! हाय ! कसी अनोखी ये जो राजीमति पर महादुःस्त्र की हैं घटाएँ आई जल्दी घिरकर, पड़े प्राण हैं संकटों में "नेमी ही हैं इस भव विर्ष नाथ मेरे सलोने होवे कोई मनसिज जिसा, मैं उसे भाई जैसामान हू, सो-इस तरह की है प्रतिज्ञा सखी की सो हे स्वामिन् ! अब उस सखी के सहारे तुम्हीं हो रक्षा के ही उचित वह है है उपेक्षा अयोग्य ॥४॥
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बचनद्रुतम्
नाथ ! प्रापके अनुपमनामामृत के सेवन करने से तन उसका अब तक रक्षित है कालकलेवा बनने से फिर भी तो वह मान रही है विरह-तपन के झोकों सेसंतापित होने के कारण भालों की ज्यों नौकों से भिदे हुए की तरह अभी तक हाय ! स्वयं को मरी हुई नाथ हीन कुररी के जैसी भूख प्यास से छीण हुई देखो विधि का दुविलास जो प्राप्त हुई को पा न सकीतुमसी निधि को, और न तुमसे प्राणनाथ को रिझा सकी सुन्दर था भवितव्य सखी का तुमसा उसको सुमन मिला अब कैसा यह बदल गया जो गिरि पर जाकर हाय ! खिला पोर परासापा: उसको कला छोड़ दिया तोड़ दिया कँगना को परिणय से भी मुख को मोड लिया क्या यों करना तुम्हें उचित था, कुछ भी तो सोचा होता शानी तो परपीडा कारक बीज कभी भी नहीं होता राजुल के मनमन्दिर के हो तुम्ही देवता एक विभो ! उसकी श्वासोच्छासों के हो तुम्ही एक अाधार प्रभो ! मदनतुल्य भी चाहे कोई और दूसरा जन, मन कोउसके, हरण न कर सकता है, क्योंकि किया अपने तन कोउसने तुम्हें समर्पित, सो अब उसके संरक्षण का मार नाथ ! प्राप पर ही निर्भर है, फिर अपना करना उद्धार ॥४॥
स्वीकारार्हा भवतु भवता साऽधुना नाथ ! मन्ये,
नो वेवस्या असुभिपतनं पातको स्यास्त्वमेव । स्वापेऽपि त्वां मनसि निहितं वक्ति कि माममुञ्चः,
न हि स्वामिन् ! कमिव मनाग्भाषसे सांप्रतं नो ॥४६॥
प्रत्यय-प्रयं-हे नाथ ! ( मन्ये ) मैं तो यही मानती हूं-कि ( सा ) उसे ( अधुना ) इस समय में (भवता) तो पापको (स्वीकाराही भवतु) स्वीकार कर लेना चाहिये ( नो चेत् ) यदि आप ऐसा नहीं करते हैं ( तहि ) तो ( अस्याः प्रसुनिषतनं
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वचनदूतम् स्यात् ) इसके मरण हो जाने की संभावना है । ( त्वम् एवं पातकी स्याः } जिसका तुम्हें ही पाप लगेगा ( स्वापे अपि ) निद्रा में भी (मनसि निहितम्) मन में रहे हुए { त्वाम् ) पाप से ( वक्ति ) कहती है-पूछती है कि ( माम् ) मुझे ( किम् अमुञ्चः) आपने क्यों छोड़ा है ( स्वामिन् ) हे स्वामिन् ! (अहि) बोलो-उत्तर दो. अरे ! ( कथमिव ) क्यों नहीं ( साम्प्रतम् ) इस समय माप ( मनाक भाषसे । मुझे थोड़ा सा भी उत्तर दे रहे हो ।
भावार्थ नाथ ! जब वह इस तरह की प्रशान्त स्थिति भोग रही है तो मेरी राय में उसे इस समय आपको अपना लेना चाहिये, ताकि उसे धैर्य बंध जाये. नहीं तो हो सकता है कि उसका अकाल मरण हो जावे और प्रापको दोष का पात्र बनना पड़े । प्रापके प्रति तो उसका इतना अधिक गहरा अनुराग है कि वह सोते समय में भी मन में समाये हुए मापसे यही पूछती है कि मुझे मापने क्यों छोड़ा ।
स्वामिन् ! है वो शुभम ति सती प्रापमें रक्त चित्ता,
सो त्याज्या है नहिं इस दशा में मुनो बात मेरी जो बीती सो प्रब तुम उसे भूल जाओ, सम्हारो
जाके राजीमति अति सती को, नहीं तो बनोगे जाते उस्के यदि विरह में प्राण हैं सो निमित्त
निद्रा में भी बस ! वह यही पापसे पूछती है छोडी क्यों है दयित ! तुमने प्रीति ऐसी लगाके
बोलो बोलो-त्रुप मत रहो, बात क्या थी कहो तो ।।४।।
नाय ! प्राप उसको प्रपमा कर उसके दुख को दूर करो । उसका मन तुममें विलीन है इसका भी तो ध्यान धरो पूर्व घटित घटना को विस्मृत करके उस पर दया करो प्रारण बचे जैसे भी उसके ऐसा ही अब यत्न करी यदि ऐसा नहिं पाप करेंगे तो यह निश्चय ही जानों प्रारण पखेरू उड़ जायेंगे असमय में उसके मानों क्यों निमित्त बनते हो ऐसे अशुभ कृस्य के आप अभी जनसा का मुख मन्द न होगा यही कहेंगे लोग सभी
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वचनदूतम्
हैं अपराधी नेमि,-अतः मत बनों आप इसके भागी इसाई यही शुभंकर नमीम हामी रागी पराकाष्ठासीत मोह है तुम पर उसका नाथ ! सुनो दे उलाहना सुपने में वो तुम्हें मनाती नाथ ! गुतो कहती है बस ! यही कि सुमने मेरा क्यों परिहार किया यदि ऐसा ही करना था क्यों मेरे मन में वास किया कारण बिना बताये स्वामिन् ! मन में से नहिं जा सकते बोलो-कुछ तो कहो-हृदय-पन l यों ही क्यों मुझ को तजते ।। ८६
उद्वाहे मे मगगरणवष: स्याक्तिीशोक्तिमात्रात
स्वं मां मुक्त्वा व्रतसमितिवान् हन्त ! जातोऽसि साघुः पृच्छामि स्वां मनुजकरुणा रूपकारुण्यहीना
चेदस्तीत्थं मनसि वव कि मानवे श्रेष्ठतोता ॥५०॥ अन्वय-अर्थ-( ईधा) हे नाथ ! ( मे उद्वाहे ) मेरे विवाह में ( मृगगणवधः स्यात् ) मृगपशुओं का वध होगा ( इति उक्तिमात्रात् । इस प्रकार के कहने मात्र से ( जम् ) अापने ( माम् ) मुझे छोड़ दिया और छोड़कर ( हन) बड़े हर्ष की बात है कि माप ( व्रतसमितिवान् ) व्रत और समितियों की आराधना करने वाल ( सावुः जातः असि ) साधु हो गये ( "तहि" ) तो मैं' (स्वाम् पृच्छामि ) प्रापसे पूछती हूँ कि ( मनुजकासा ) मानबदया ( रूमकारुपहीना ) पशुमों पर की गई दया से हीन है ? ( चेद इत्यम् अस्ति ) याद इस प्रकार से है तो ( यद ) कहो (मानवे श्रेष्ठता कि उक्ता) मनुष्यों में श्रेष्ठता क्यों कही गई है ?
भावार्थ-हे नाथ ! प्रापने ऐसा सुनकर कि "इस विवाह में मृगादि मक प्राणियों का वध होगा'' यदि मुझे छोड़ दिया है और ये दिगम्बरी दीक्षा धारण करली है तो मैं आपसे यह पूछती हु कि क्या मनुष्य-दया से पाशु-दया बड़ी है ? यदि है तो फिर मनुष्य में श्रेष्ठता क्यों कही गई है ? उत्तर दीजियदेखो राजीमति ! इन बंधे दीन प्यारे मगों की,
होगी हत्या इस प्रणय के सूत्र में बन्धने से , सो छोड़ा है परिणय, सुनो नाथ ! ये छम ही था,
क्योंकि स्वामिन् ! मगहनन का था न कोई इरादा । कोई का भी, चिन समझ के, क्यों मुझे बीच में ही
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वचनदूतम् छोड़ा, मोड़ा बदन मझसे क्यों, कहो क्या करू मैं जाऊ काहां ! शरण किसकी, कौन मेरा यहाँ है
साथी, साथी तुम जनम के थे अकेले, कहो तो मेरी नैया तुम बिन विभो ! पार कैसे लगेगी,
सोचो-बोलो, चुप मत रहो, नाथ ! बोलो कहो तो तिर्यञ्चों में इस तरह की सत्कृपा की अपेक्षा
प्रोछी है क्या मनज करुणा, जो मुझे छोड़ दी है, हां, ऐसा है यदि तुम कहो तो बतायो मझे ये,
शास्त्रों में है कथन गरुनों ने भला क्यों किया यों "होती है ये मनु जतन की प्राप्ति पुण्योदयेन," मेरे परिणय बँधन से इन घिरे हुए पशुओं का नाश । राजुल ! होता, तो मैं कैसे इनका लग्न सकता था त्रास सो हे नाथ ! नहीं कुछ भी था यह तो केवल छलभर था तुम्हें विरागी करने को, यह रचा गया आडम्बर था मेरी पाशा की श्वासों को इकदम हाय ! कुचलने को चक्र चलाया गया नाथ ! ये मम सुहाग-सुख दलने को नाथ ! पूछती हूं मैं तुमसे, है पशुकरुणा से ओछी मानवतनधारी की फरुणा? तो यह बात भूठ सोची क्योंकि शास्त्र मानव सुयोनि को सर्वोत्तम बतलाता है मानव के प्रति मानव को उपग्रह का पाठ पढ़ाता है मानवतन मौलिकनिधि जग में बड़े पुण्य से मिलता है मुक्ति-महल में जाने का पथ शुद्ध यहीं से चलता है अतः अन्य गतियों से यह गति बड़ी अनर्घ्य बतायी है पशुमों पर तो दया करी, पर मुझ पर दया न आवी है ।।५।।
क्षुब्ध शान्तं भवति यदि ते वर्शनात्स्वान्तमस्याः
गन्तव्यं तत्सबनमधुना दुःखिभिः समाढ्यम् दृष्ट्या सा स्वां मनसि समतां धारयिष्यत्यननां
ननं कष्टापतितयिनां साधयोऽन्ते शरप्याः ॥५१॥ अन्वय-अर्थ-हे नाथ ! ( यदि ते दर्शनात् ) यदि आपके दर्शन से ( क्षुब्ध अस्याः स्वान्तम् ) क्षुब्ध इस मेरी सखी का मन (शान्तं भवति) शान्ति को प्राप्त कर
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वचनदूतम्
लेता है, तब (दुःखमा
कृति पर
एतत्सनम्) उसके निवास भवन पर ( अधुना ) इस समय (गन्तव्यम्) आपको जाना चाहिये, (स्त्वां दृष्ट्वा ) तुम्हें देखकर (सा) उसे ( मनसि ) मन में (अनूनां समताम् धारयिष्यति ) बहुत अधिक समता आ जावेगी (नूनम् ) यह तो निश्चित है कि (कष्टापतितमविनाम्) कष्ट में पड़े हुए प्राणियों के ( अ ) अन्त में (साधवः शरण्याः) साधुजन ही रक्षक होते हैं ।
भावार्थ - हे नाथ ! यदि आपके दर्शन पाकर सखी का क्षुब्ध हुझा मन शांति लाभ कर लेता है और उसमें समता श्रा जाती है तो आपको उसके निवास भवन पर जो कि दुःखित जनों से भरा हुआ है अवश्य जाना चाहिये, क्योंकि कष्ट में पड़े हुए मानव के रक्षक अन्त में साधुजन ही तो होते हैं ।
जो थी स्वामिन् ! तब हितरता नाथ ! छोड़ी उसे क्यों ? क्यों ये ऐसी दुखद घटना आप द्वारा घंटी है ? है वो साध्वी इस तरह की आपकी वृत्ति से ही -
क्षुब्धस्वान्ता इस समय में, सो प्रभो ! आपसे हैऐसी अर्जी - कि यदि उसका क्षुब्धस्वान्त प्रशान्त
हो जाता है-तव दरश से तो पधारें सखी के प्रासादों में सकल जिनमें बंधु दुःखी बने हैं
देखेगी वो जब प्रभु ! तुम्हें तो भगेगी अशान्ति जागेगी मधुर उसके चित्त में शान्ति शान्ति
होते कष्टापतितजन के कष्टहन्ता सुसन्त ||
६५.
जो थी शुभचिन्तक सदैव से जिसने अपना तुमको ही, सब कुछ समझा था स्वामिन्! क्यों छोड़ दिया है उसको हो विना विचारे किये कार्य से व्यर्थ कष्ट में डाल दिया
नाथ ! आपने उस अबला को असमय में जो त्याग दिया
श्रम कर्तव्य यही कहता है कम से कम उसको तो दो अपने दर्शन समता घर कर, ममता तज, करुरणा युत हो ऐसा करने से उसका मन शान्तभाव से युत होगा श्रीकंप हो करके तुमको विविध दुआएं ही देगा
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वचमदूराम
प्रतः पधारो नाथ ! कृपा कर दुखिया के उस मन्दिर में दुःखित बन्धुजनों से जो है परिवृत्त बाहर अन्दर में होगा भला भापका होगा जीवन उसका हराभरा कष्टापतित जनों का रक्षक होता जग में संत बरा ॥५१।।
अल्मायास भवति सुलभं यच्च तत्पूर्वमेत्र,
संप्राप्तव्यं विबुधजमता मोसिमा प्रवास्ति मुक्तिश्चेत्ते ननु प्रियतमा सा महडिस्तपोभि
हक्लेशविविविधिभिः कष्टसाध्यश्च लभ्या ।।५२॥ प्रश्वष-अर्य-हे नाथ ! (यत्) जो वस्तु (मल्पायासै:) थोडे से परिश्रम द्वारा (सुल में भवति) साध्व-प्राप्त होने योग्य होती है ( तत् पूर्वम् एव संप्राप्तव्यम् ) उसे पहले ही प्राप्त कर लेनी चाहिये ( एता नीति विजुषजनता प्रक्ति) इस नीति को प्राजजन कहते हैं. सो (चेत्) यदि (ते) प्रापको (मुक्तिः ननु प्रियतमा) मुक्ति ही अत्यन्त प्रिय है तो (सा) वह (देहक्लेशैः) शरीर को कष्टकारी (विविधविधिभिः) अनेक प्रकार की विधियों वाले ऐसे (कष्ट साध्यैः) कष्टसाध्य (महद्भिः तपोभिः) बड़े ६ तपों द्वारा (लभ्या) प्राप्त होती है ।
भावार्य हे नाथ ! जो प्राशजन हैं. वे तो ऐसा ही कहते हैं कि जो थोड़े से परिश्रम करने से प्राप्त होने योग्य हो तो उसे पहिले ले लेनी चाहिये । परन्तु प्राप तो उल्टा ही कार्य कर रहे हैं । देहक्लेशकारी कष्टसाध्य ऐसे तपों द्वारा जो बड़े परिश्रम से प्राप्त होने वाली है उसे भाप प्राप्त करने के लिये कटिबद्ध हो गये हैं मोर जो अल्पायास साध्य है उसे छोड़ रहे हैं, सो ऐसा नीतिविरुद्ध कार्य करना अापको शोभा नहीं देता है ।
स्वामिन् ! जो हो सुलभ अल्यायास से वह प्रथम हो
ले लेना ही उचित है यों नीतिवेत्ता बताते मुक्ति श्री है यदि प्रभु ! तुम्हें सर्व श्रेयस्करी तो
है वो ऐसी सुलभ नहिं जैसी सुलम्या सखी है वो तो नाना नियम ब्रत की साधना से सधे है
१ सब से श्रेष्ठ प्यारी (२) तो वो ऐसी सुलभ नहीं है है जिसी ये दुलारी
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बचनदूतम् होती जिससे विविध दुःखों की झडी प्रात्मा में। मानों परे ! हठ नारी जो कहा है विचारो,
सोचो सबका भला अपना ही भला क्यों सँभारो ।।१२।।
कंधिकालं नियस निलये सद्गृहीभूय, पश्चात्,
राजीमत्या सह यदुपते ! निविशेषजयन्तम् । मन्यस्व एवं सुवचनमिदं स्वाग्रहं मुख्य नाथ !
मोगं भुक्तवा न भवति गृही मुक्तिपात्रं न चतत् ॥५३॥
अन्वय-अर्थ हे नाथ ! (सद्गृहीभूय) सदगृहस्थ होकर पाप (कञ्चित्वालम्) कुछ समय तक ( निलये निवस ) घर पर रहो फिर ( यदुपते ) हे यदुपते ! प्राप (राजीमत्या मह) राजीमती के साथ (ऊर्जयन्तं निविशेः) इसी गिरनार पर भाजाना । (इदं सुवचनं मन्यस्व) आप मेरी इस बात को मानो (नाथ ! स्वाग्रहं मुडच) नाथ ! अाप प्राग्रह को छोड़ो, ( एतत् न ) ऐसा नहीं है कि (भोगमुक्त्वा) भोगों को भोग कर ( गृही मुक्तिपात्रं न भवति ) गृहस्थ मुक्ति का पात्र नहीं होता है ।
भावार्य--- हे नाभ ! भाप मेरी बात मानो और अपने आग्रह को छोड़ो पहिले आप कुछ समय तक सदगृहस्थ बनकर घर पर रहो बाद में राजीमती के साथ ही इसी गिरनार पर्वत पर आकर तपस्या करना । भौगों को भोगने के बाद भी गृहस्थ मुक्ति का पात्र बना रहता है ! -
है राजुल के नाथ ! रहो कुछ दिन तक घर में मत जामो घर छोड़ अभी इस नई उमर में
राजुल के ही साथ साथ रह कर व्रत पालो सदगृहस्थ बन संपम-दम-का मार्ग संभालो चारित' सुस्थिर बनें, राजमति के संग तब ही
धरो दिगम्बर वेष बनो निग्रंथ स्वयं ही (१) भोग मुक्त्वा न पुनरिदं मुक्तिपात्रं भवेत्रो ।।
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वचनदूतम्
करो समस्या नाथ ! इसी गिरि पर फिर दोनों ऐसे होगा शान्त सखी का स्यान्त सलोनो मानो मेरी बात तो यह प्राग्रह दुखकर परिचित होकर भोग छोड़ना होता सुखकर परम्परा से गृही व्रती बनकर होता है मुक्तिपात्र निःशल्य शास्त्र ऐसा कहता है ।। ५३ ।।
साधोश्चित्ते क्वचिदपि कदाप्यस्ति न वैधवत्तिः,
अद्वैतात्मा भवति स यतः शत्रुमित्रे समानः । नोचेन्नासौ गहितमनाः स्वानुनको जलुब्धः
सिद्ध र्धाम अजति न सकः स्वान्य कारुण्यहोनः ।।५।।
अन्वय अर्थ --हे नाथ ! ( साधोः चित्ते ) साधु के चित्त में (क्वचिदपि कदापि ) किसी भी समय में कभी भी { द्वे प्रवृत्तिः न भवति) वधवृत्ति नहीं होती है ( यतः ) क्योंकि (स) वह ( अद्वैतात्मा भवति । प्रहन स्वभाव वाला होता है. इसीलिवे ( शत्रुमित्र समानः ) शत्रु और मित्र उसकी दृष्टि में समान होते हैं। ( नो चैत ) यदि ऐसी दृष्टिवाला ( असो ) वह ( न ) नहीं है तो वह माधु नहीं है ( गहितमनाः ) किन्तु निदनीय विचार वाला ( स्वादुभक्ष्ये प्रलुब्धः ) यह सुस्वादुभोजन में प्रलुब्ध हुआ असाघु ही है 1 मौर ऐसा ( सकः ) वह प्रसाधु ( स्वान्यकारुष्य हीनः) अपनी और पर की दया से रहित हुप्रा (सिद्ध धाम ) मुक्तिस्थान में ( न ब्रजति ) नहीं पहुंचता है ।
भावार्थ—साधु कभी भी किसी भी जगह निज पर के भेद से विहीन होकर समदृष्टि बाला ही होता है । यदि बह ऐसी प्रवृत्ति वाला नहीं है तो वह साधु नहीं किन्तु भक्ष्य पदार्थ की लोलुपता वाला असा ही है. यह कभी भी संसार से पार नहीं हो सकता है।
स्वामिन् ! होता मुनिमन सदा एकसीवृत्तिवाला,
होता किञ्चित् नहि विषमता का अधिष्ठान उसमें ये है मेरा प्रियवर सखा ये न मेरा सखा है
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वचनदूतम् ये है मेरा अशुभकरता ये मुझे शान्ति देता होती ऐसो नहि तनिक भी कल्पना स्वप्न में भी
होती वृत्ति स्वपरकरुणाशील साधुजनों की सच्चे त्यागो परजनदुखी देखते आई चित
हो जाते हैं-पर नहिं विभो ! पाप में आता है ऐसे कैसे तब प्रभु ! तुम्हें मुक्तिरानी बरेगी ॥५४।।
स्वपरभेद से रिक्त सदा मुनिजन मन होता द्विविधा का सद्भाव नहीं वहां मिलता सोता शशु मिष सम्माद यहा सोडा करता नहीं विषमताभाव वहां अपना पद रखता हो इससे विपरीत वृत्ति वह साधु नहीं है वह है मक्ष्य प्रलुब्ध स्वादु पर बञ्चक ही है त्यागी होते दयाशील पर दुख में दुःखी । पर सुख में हों सुखी यही उनकी सत्ती ।।५४।।
शोभा ते स्यारजगति च यथा स्वा तथाऽहं बोमि
स्वस्था सा वा भवति यया तं विधि चापि वलिम। गत्या तर प्रथममनुरागात्त्वया सा समीक्या
पृष्टव्या तत्कुशलवचन मंस्तके स्पर्शनीया ॥५५॥
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अन्वय-प्रयं—हे नाथ ! ( जगति ) संसार में ( यथा ) जिस प्रकार से ( ते) मापकी शोभा-श्रेष्ठता हो सकती है ( अहम् ) मैं ( त्वां ) प्रापको ( तथा बीमि ) उस उपाय को कहती हूं. और ( यया ) जिस प्रकार ( सा वा स्वस्था भवति । बह स्वस्थ हो सकती ( तं विधि वापि ) उस विधि को भी मैं ( चमि ) आपमे कहती हूं ( त्वया ) माप (प्रथमम् ) पहले ( तव ) वहां पर ( गस्वा) जाकर के ( अनुरागात् ) बड़े अनुराग से ( सा समीक्ष्या ) उसे देखें. पश्चात् ( तस्कुशलवचनः) उससे उसके कुशाल समाचार पूछे । और फिर उसके ( मस्तके स्यगनीया) मस्तक पर हाथ फेरें।
भावार्थ-हे नाथ ! राजुल का परित्याग करने पर भी मापी संसार में कौनि बनी रहे, लोग पापको नाम न रखें-इसका उपाय मैं बताती है और साथ में यह
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वचनदूतम्
भी बताती है कि वह इस प्रकार से स्वस्थचित्त होगी ! प्राप यहां से उसके घर पर जावें, और सर्बप्रथम उसे प्रनुराग से देखें, बाद में प्राप उसकी उससे कुशलता पूछे भौर पूछकर फिर उसके मस्तक पर हाथ फेरें।
स्वामिन् ! शोभा अब जगत में आपकी यों बढ़ेगी
कोई भी तो नहिं घर सकेगा तुम्हें नाम नाथ ! हो जावेगी मम वह सखी स्वस्थ भी जो बनी है
अस्वस्था-है बस इक यही नाथ ! इसका उपाय जैसे, हो वो दुख विरहिता में उसे हूँ बताती
जावें पहले महल भीतर आप उसके, यहां से देखें उसको नयनभरके बाद में पाप पूछे
हो तो अच्छी तरह तुम क्यों सोच मेरा करो हो पाशा मेरी सजन बनने की तजो पो हमें दो--
प्राज्ञा दीक्षा ग्रहण करने की खुशी से दुखी क्यों-- होती, साथी नहिं जगत में कोई होता जनम का
छोड़ो छोड़ो बिलकुल लगा मोह ये पूर्व प्रव का ऐसा स्वामिन् ! कह कर उसे प्राप संबोध देना
प्रो माथे पं कर धर विदा साथ ही मांग लेना हो जावेगी बह नियम से स्वस्थचित्ता सलोनी मा जाना फिर मुद्रितचित हो आप स्वामिन् ! यहीं पै ।।५५।।
काचिरसखी तस्मिन्नेव समये घक्तीत्थम्
सर्वोत्कृष्टस्तव परिकरो देवमुद्रातिशायो,
देहस्तेऽयं त्रिभुवनपते ! वैभवं चास्त्यनत्पम चित्तालाबी परममहिमोपेतशक्तिः प्रभावः
सन्यिो भुवन विवितः किन्नु साध्यं तपोभिः ॥५६॥
अन्वय-अर्य--( त्रिभुवनपते ) हे त्रिभुवन के पति । ( तव परिकरः ) पाएका परिकर ( सर्वोत्कृष्टः ) संसार में सब से उत्सम है ( ते अयं देहः ) प्रापका यह
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वचनदूतम् यह शरीर ( देवमुद्रातिशायी ) देवों के शरीर को भी तिरस्कृत करता है. उनके शरीरसे भी बढ़कर है । ( वैभव अनरूपं मस्ति) बंभव भी प्रापका कम नहीं हैं ( चित्तालादी परममहिमोपेतशक्तिः ) समस्त जीवों के चित्त को लुभाने वाला मौर परममहिमा को गरिमा से विदि भक्ति से संपन ( भाष: ) आपका प्रभाव है तथा वह ( सर्वः मान्यः ) समस्त जीवों की शिरोधार्य एवं ( भुवनविदितः ) त्रिभुवन विदित है. ऐसी स्थिति में ( तपोभिः किन्नु साध्यम् ) प्रब और क्या तपस्या से भाप प्राप्त करना चाहते हैं ।
भावार्थ- हे त्रिभुवनपते ! जब कि प्रापके पास किसी भी वस्तु को कमी महीं है. आपका परिकर सब से बढचढ कर है. देवों की देह से भी उत्तम भापका शरीर है. वैभव की कमी नहीं, प्रभाद भी आपका प्रसाधारण है. तो फिर पाप हमें बत्तानो कि आप तपस्या करके और कौनसी प्रब वस्तु प्राप्त करना चाह रहे हो ।
सर्वोत्तम है परिकर प्रभो ! देह भी आपकी है,
देवों से भी अधिक उत्तम, और है आपका येवैभव भारी-कमी कुछ भी वस्तु की है न कोई
चित्तालादी परममहिमोपेत सामर्थ्यवाला सर्वप्राणी-महित ऐसा है अनोखा प्रभाव
स्वामिन् ! इससे अधिक अब तुम और क्या चाहते हो जिसके खातिर कठिनतर ये पादरी है तपस्या
मानों नेमे ! उठ घर चलो धैर्य सबको बँधायो ।। ५६।। अन्या काचित्तरसखो कथयति
इत्यं वाञ्छा श्रमणवर ! याऽभून्मदीवान हेतुः
निस्संगस्त्वं क्षितिभृति कथं वारिबिन्दूस्करोस्थाम् पोडा हा ! प्राषि रविमुषि क्षोभकृ झंझयाऽस्मिन्
युक्त बोढास्पनलवियुते सद्भ तस्याः प्रयाहि ॥५॥
अम्यय-अर्थ - ( भ्रमणवर ) हे श्रमणोत्तम ! ( इत्थं मदीया या वाञ्छा ) इस प्रकार के जो मेरी भाषना ( अभृत् ) हुई है सो ( अत्र हेतुः ) इसके होने में कारण है। और वह कारण ऐसा है कि ( त्वं निस्संगः ) पाप संग-परियइ-से रहित हो. ग्राः
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वचनद्भुतम्
( क्षितिभूति ) इस पहाड़ पर ( यारिबिन्दूस्करो त्याम् ) पानी की बिन्दुओं से उत्पन्न हुई पीडा को ( रविमुषि अस्मिन् प्रावृषि) सूर्य को ढक देने वाले इस अर्षाकाल में जो कि ( क्षोभया) क्षोम को उत्पन्न करने से ( युक्त ) सहित है. एवं (मनल वियुते ) अग्नि से भी विहीन है ( कयं ) ( वोढासि ) सहन करोगे. ( तस्याः सद्म प्रमाहि ) इसलिये श्राप उसके घर जायें ।
कैसे
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विशेषार्थ - देखो प्रभु -सावन का तो यह महिना है और आपका शरीर वस्त्र विहीन है. वर्षा के साथ २ जब झा बायु का प्रकोप होगा तो श्रापका शरीर उन ठंडी २ जलबिन्दुग्रों को कैसे सहन करेगा. सुखा ईंधन यहां मिलेगा नहीं कि जिसे जलाकर भाप शीत निवारण कर सकें । अतः उत्तम यही है, कि इस समय श्राप मेरी सखी के भवन पर ही खलकर विराजें ।
सावन का है समय, बरसा मूसलाधार होगी,
साधन भी तो कुछ नहि प्रभो ! पास में आपके है । होगा कैसे सहन तुम से कष्ट बरसात का थे,
स्वामिन्! भाषवन भी तो जोर जब २ करेगा । कैसे होगा सहन उसका वेग तब चंड ठंडा,
मेघों से भी गगनतल में सूर्य प्रावृत रहेगा । बाधा होगी नहि तनिक भी शीत की दूर, सोचो,
सूखा ईंधन जब नहि यहां तापने को मिलेगा कैसे होगी प्रकट तन में उष्णता नाथ ! सोचो
बाधाओं से बचकर प्रभो ! इष्ट है जो तपस्या तो है ये ही उचित प्रधुता आपको श्राप जायें बाधाओं से रहित सजनी के सदन में खुशी से ।। ७५ ।। काचिदमुना प्रकारेण स्वामिप्रायं ब्रूते
विद्यन्तं स्तनितमुखरं दर्दुरारावदुष्टम्
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कादम्बिन्याऽऽकुलित निखिलप्राशिचक्रं विषाढ्यम् श्यालयः कृमिकुलशतैः संपरीतं विभाथ्य
मासं ह्येवं त्यज गिरिवरं स तस्याः प्रयाहि ॥ ५८ ॥
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वचनदूतम् मन्मय-अर्थ-" हे नाथ ! ( विद्य द्वन्तम् ) इस सावन के महीने में पाकाश में बिजलियां चमकेंगी (स्तनितमुखरम् ) मेषों की गड़गड़ाहट होगी ( दद्रावदुष्टम् ) मेंढकों को चारों प्रोर टर्र टर्र कर्णकटुक प्राबाज़ होगी ( कादम्बिन्याकुलितनिखिलप्राणिपक्रम् ) मेघमाला प्रत्येक प्राणी को भाकुल म्याकुल करंगी ( श्यालः च्यालः कृमिकुलशतः ) श्यालों व्यालों एवं सैकडों कृमियों से भूमि व्याप्न रहेगी. सो ( एवं मासम् विभाव्य) इस प्रकार इस महिने का विचार कर ( गिरिवरं त्यज ) आप इस गिरि को छोड़ दें और ( तस्याः सब प्रयाहि ) सखी के भवन में पधारें।
भावार्थ-सावन का हे नाथ ! यह महिना चल रहा है-इसमें बिजलियां चमकेंगी, मेवों की गड़गड़ाहट भी होगी, मेंडक भी सब पोर बोलेंगे बरसात के कारण प्रत्येक प्राणी माकुल व्याकुल दिखाई देगा. अतः आपसे मेरी यही प्रार्थना है कि आप इस गिरि को छोड़कर निर्विघ्न रूप से धर्मध्यान करने के निमित्त सखी के भवन में पधारें।
सावन का है समय इसमें नाथ ! सौदामनीयां,
चमकेंगी जब सधन नभ में और आकाश में भी होगा भारी गर्जन, तुम्हें तब प्रभो ! भय लगेगा
पानी पानी सब तरफ ही जब भरा ही दिखेगा तो जानोगे फिर किधर को, पाप कुछ तो विचारो
श्यालों, व्यालों, कृमिकुलशतों से मही व्याप्त होगी तो बोलो तो क्यों कर विभो ! ध्यान में चित जमेगा ____ अच्छा तो है वस अब यही पाप ऐसे समय में
जावें राजीमति-भवन में छोड़ के नाथ ! गिरि को ॥५८।। पश्चादागता द्रवितान्तःकरणा काचित् सखी संदेशम् श्रावयति तस्याः
स्वामिन् ! देहस्तव विवसनो वर्ततेऽतः कथं स्वम्,
मेधेभ्य स्तानविरलगतीनिर्गतान वारिमिनून सावश्यायान् कमलमसृरणः शक्ष्यति प्राषषल्यान्
मुक्त्वा साधो ! गिरिवरभुवं साम्प्रतं सौधमेहि ॥५६॥
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वचनदूतम्
अम्बय-अर्थ – ( स्वामिन् ) हे प्रभो ! ( कमलमसृणः }
कमल के जैसा कोमल (सव देह विवसनः वर्तते ) आपका शरीर निर्वस्त्र वस्त्र धारण किये हुए नहीं है इसलिये वह (फिट हुई ( सावश्यायान्) ओलों से युक्त (तान् ) उन (अविरलगतीन् ) निरन्तर बरसने वाली (प्रावृषेण्यान् ) वरसाल की (वारिविन्दुन्) पानी की बूँदों (को कथं शक्ष्यति) कैसे सहन कर सकेगा ? प्रतः ( साभो) हे साधी ! (गिरिवरमुवं मुक्वा) इस पर्वतस्थली को छोड़कर (साम्प्रतम्) आप इस समय (सोधम् ) मेरे महल में (एहि ) मा जावें !
*
भावार्थ-स्वामिन्! ये वर्षाऋतु है । इसमें यविरलगति से पानी बरसेगा ही साथ में बोलों की भी वृष्टि होगी ही. अतः हमें ये चिन्ता है कि कमल जैसा कोमल आपका यह नग्न पारीर वर्षा कालीन इस स्थिति का सामना कैसे कर सकेगा । इसलिये अच्छा यही है कि आप इस समय यहां से मेरे भवन में पधारें ।
स्वामिन्! है ये सकलतन ही आपका बस्त्रहीन
र्षो का ओ समय यह है, दामिनी कामिनी सीचमकेगी, जब नभस्तल में सो चकाचौंध में क्या
भेगा, तब स्वयं सोचो चित्त चंचल बनेगा घिर आवेगो गगनभर में घनघटाएँ विकट जव
बरसायेंगी अथकगति से नीर झोले अधिक वे जाओगे तब किधर उठकर ठौर भी कौन देगा
होगी कोमल कमल जैसे देह की दुर्दशा ही ठंडी २ नगन तन पर बूंद जब २ पड़ेंगी
होगी कैसे सहन उनकी ठंड, तब याद घर क ग्रावेगी, सो बस अब यही प्रार्थना नाथ ! ये है,
मानो स्वामिन्! हठ मत करो घर सखी के पा छोड़ो गिरि को मिलकर वहां श्रावणोत्सव मनाओ ।। ५६ ।।
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वचनदूतम्
अपरा काचित्स्वाभिप्रायमित्थं प्रकटयति
दोलाय ताः प्रमदवनिता जानसक्ता यदा स्यु
स्तस्मिन् काले बिरहजनितं गानमाश्रुत्य तासाम् free से स्वास्थमव विभो ! ध्यानमग्नं ततस्त्वं मुत्तवा शोध गिरिवरभुवं साम्प्रतं सौधमेहि ॥६०॥
अन्वय-यं – (विभो ) नाथ ! ( दोलायां झूलों पर बैठी हुई ) (वा प्रमदवनिता ) वे प्रमदवनिताएँ (यदा) जब गानसक्ताः स्युः) गीतों में मग्नचित्तवाली बनेंगी (तस्मिन् काले ) उस समय ( बिरहजनित सासी मानं आधुत्य) उनके विरह गीतों को सुनकर ते चिर्च कथमिद ध्यानमम्वं स्यात् भाषका चित्त ध्यान करने में कैसे लगेगा 1 ततः श्वम् ) इस कारण आप (साम्प्रतम् ) इस समय ( शीघ्रम् ) जल्दी से जल्दी (मिविरभवं मुक्तवा) पर्वतीय प्रदेश को छोड़कर (सौषं एहि ) सखी के महल में पधारो
७
भाषायें – स्वामिन्! सावन का यह महिना है प्रमदवनिताएँ भूलों पर भूलती हुई विरह के गीत गायेंगी उन गीतों को सुनकर आपका चित्त स्थिर नहीं रहेगा । श्रवः ध्यान की स्थिरता के निमित्त प्राप इस स्थान को छोड़कर सखी के भवन पर पधारें ।
है सावन का सुभग महिना ये सलोना, भलो ना
प्रोषितभर्तृक युवतिजन को, क्योंकि ये कष्ट देता सो हे स्वामिन्! इस समय में आप प्यारी सखी केजाओ घर पे क्यों शिखर पे आप बैठे अकेले साधन है जब सब कुछ वहां कष्ट क्यों सह रहे हो उद्यानों में हर जगह में नाथ ! झूला पड़े हैं दोनों भूलो हिलमिल प्रभो ! श्रावणोत्सव मनाओ
हाथों में श्री चरणतल में मेंहदी को रचा के भूलेंगी जब प्रमदवनिता गीत गाती विरह के
कैसे होगा सुथिर स्वामिन् ! ध्यान उन गायनों कोसुनते ही, सरे गिरि तज अभी ध्यानसिद्धयर्थं जानो
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वचनदूतम्
आली के ही भवन, पश्चात् साधना रक्त होना ||६० ॥
अन्या काचित् तत्सखी इत्थं गदति
दोलारूढा नवयुवतयस्तारतारस्वरे,
गास्यन्ति त्वं विकलह्वयाः श्रोष्यसीह प्रयीतिम् लक्ष्यीकृत्य स्वरूपतिमनोवृत्तिमन्यत्र सत
मासेऽस्मिंस्तां कथमिह सुभीः स्या उपालम्भपूर्णाम् ॥ ६१ ॥ ।
अन्वय- श्रयं --- (दशेलारूढाः) भूलों पर भूलती हुई ( नवयुवतयः) तरुण स्त्रियां ( श्रस्मिन् मासे ) इस महिने में (स्वकपतिमनोवृत्तिम्) प्रपने २ पतियों की मनोवृतिको जो कि (अन्यत्र सक्ताम् ) अन्य स्त्रियों में यासक्त हो रही है (लक्ष्यीकृत्य ) लक्ष्य करके ( विकलहृदया) बिकल हृदय होकर ( तारतारस्वरेण ) जोर जोर से (उपलम्मपूर्ण प्रीतिम् ) उलाहनों से भरे हुए गीतों को ( गायन्ति ) जब गायी एवं सांस और वहां उन्हें सुनेंगे ( कथं सुधीः स्याः) तो आपकी
बुद्धि ठिकाने कैसे रहेगी ।
भावार्थ - हे नाथ ! नगर की नवोढाएं इस महिने में बञ्चलचित्तवाली होकर झूला झूलती हुई बड़े जोर २ से ऐसे गीत कि जिनमें अपने पतियों की अन्यत्र श्रासक्त मनोवृत्ति को उलाहना दिया गया है गावेंगी और उन्हें आप सुनेंगे, तो श्रापकी बुद्धि सुस्थिर कैसे रहेगी। अतः ध्यान की सिद्धि के लिये श्राप सखी के भवन में पधारें
भूलेंगी जब नवयुवतियां गायेंगी गीत नाना
ऊंचे ऊंचे स्वरसहित हो, आपके कान में बेआवेंगे, तब सुथिर कैसे आपका चित्त होगा
होंगे उनमें उस प्रिय सजन को उपालम्भ भारी जिनका अन्तःकरण रत हैं छोड़ के स्वप्रिया को
परनारी में, उचित है सो सद्म जावें सखी के कानों में तब यह ध्वनि नहीं प्रापके में पड़ेगी
होगी नहिं तव चित्त विकलता घ्यान सुस्थिर जमेगा || ६१ ॥ | अन्या काचिदित्थं पृच्छति -
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वचनदूतम् उक्त नालं परभविदुषस्ते पुरस्ताद, परं त्वं
स्वीयावास्याद्वदसि न मनागुत्तरं याच्यमानः पृच्छामस्स्वा वयमतिजडा ज्ञातपूर्व त्वयंतत्
तरिक भूत्वा स्वमिह सुवरो बन्धुभिः सामागाः ॥६२॥
अन्वय-पथं—(परमविदुषः ते पुरस्तात् उक्तेन प्रलम्) हे नाथ ! प्राप परमबिद्वान्-प्रदधि, मनःपर्य ज्ञान के धारी हो. प्रतः अब आपके समक्ष हम क्या कहें। इतना ही कहना काफी है । (उसरं याच्यमानः) हम प्रापसे जो कहा गया है केवल उसी के उत्तर की याचना कर रहे हैं. (परम्) परन्तु (स्त्रम्) प्राप (स्वीपात् प्रास्यान्) अपने मुख से (मनाक्) थोड़ा सा भी ( न वदसि) उत्तर नहीं दे रहे हैं. अनः { प्रतिजडाः) प्रत्यन्त मन्दबुद्धिवाले हम (स्वाम् पृच्छामः) आपसे पूछते हैं कि विया एतत् आतपूर्वम्) प्राप तो पहिले से यह सब जानते ही थे ( तत्किम् ) तो फिर क्यों (त्वम् इह) आप यहां (सुबरी मूत्त्वां) अच्छे वर-दूल्हा होकर ( बन्धुभिः सार्धम् ) बन्धुनों के साथ (आगा:) प्राये ।
भावार्थ -- हे नाथ आप तो अवधिज्ञानशाली थे। प्रतः पापसे कुछ भी छिपा नहीं था, फिर भी हम अज्ञानी होने के कारण पाप से यह पूछ रहे हैं कि जो ये घटना घटी है वह जब पहिले से ही प्रापको बात थी तो फिर दूल्हा बनकर प्राप यहां बरात लेकर क्यों प्राये ?
स्वामिन् ! थे तो तुम जनम मे ही अवधिबोधशाली
फिर क्यों ऐसी अघट घटना आप द्वारा घटी ये सोचा होता यदि प्रथम मे भूल ऐसी न होती
हैं अज्ञानी हम अन्न कहें आपसे क्या, कहा जो उसका भी तो तुम तनिक भी नाथ ! उत्तर न देते
हो-सी हम तो दस अव यही अापसे पूछते हैं ये घटना तो जब अवधि से आपको ज्ञात ही, थी।
तो क्यों ऐसी बहुत भारी प्राप से भूल हुइ जो
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वचनदूतम्
दूल्हा बन कर सज धज यहां बन्धुनों के समेत
आये, श्री क्यों श्रब कर चले रंग में भंग पूरा ।। ६२ ।।
अत्रत्यां किं सकलजनता एवं सदुःखां विधातु
श्रागाः, कि या बहुपरिचयात् पूर्वकालेऽनयमा भुक्त भोगे त्रुटि परिभवाज्जायमान दौर्मनस्यात् क्रुद्धो भूत्वा सुबरमिषाई रनिर्यातनार्थम् ॥६३ ।। अन्वय- अर्थ - हे नाथ ! (त्वम् ) आप (किम् ) क्या ( प्रवत्यां सकलजनता सदुःखाम् विधातुम् ) यहां की जूनागढ की समस्त जनता को दुःखित करने के लिये (वा) यथा ( पूर्वकाले बहुपरिचयात्) कई भवों से अधिक परिचय होने के कारण (नया श्रमा) इसके साथ (भुक्त भोगे) भोगे गये भोगों में (त्रुटि परिभवाज्जायमानदीनस्यात्) हुई त्रुटि या तिरस्कार के कारण उत्पन्न हुए दौर्मनस्य को लेकर के (क्रुद्धो भूत्वा क्रोध में श्राकर ( सुवरमिषात् ) पति के छल से (किम् वैर निर्यातनार्थम्) क्या उस वैर भाव को भेजाने के लिये (यागाः ) आये थे ?
भावार्थ - नाथ ! अवधि ज्ञान के द्वारा पहिले से ही इस प्रकार की घटना थापको ज्ञात तो थी ही, फिर भी आप बारात लेकर यहां जी आये और बिना विवाह किये ही आप यहां से चले गये। तो हमतो इसका कारण वही नमकते हैं कि आप इस प्रकार के व्यवहार से यहां की जनता को दुःखित करने के लिये या कई भवों के अति निकट के परिचय से भोगों के भोगने में राजुल द्वारा हुई त्रुटि से अन्य कोष को उससे चुकाने के लिये उसका बदला लेने के लिये ही पति के वेष में श्राये थे क्या ? जूनागढ़ की सकल जनता को दुखी नाथ ! करने
आये थे क्या यदुकुलपते ! आप कुछ तो बताओ ? दोनों की जो परस्पर में प्रीति थी कई मन्त्रों को
उसमें अन्तर क्यों पड़ गया, कौनसी भूल हुई है ऐसी जो है नहि वह क्षमायोग्य कुछ तो कहो, क्या
उसी का यह इस समय में आप बदला चुकाने दूल्हा के मित्र इस नगर में साथ लेकर बरात,
आये थे ? सोनहि उचित था खेलना खेल ऐसा ।। ६३ ।।
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NA
वचनदूतम् स्वाभिप्रायं तदुदितफथं तं निषेध व पश्चात्
ध्यानारुढ झविचलित धियं नेमिनाथं निरीक्ष्य । सख्यो बान्ये सहवयजना बान्धवा राजमस्याः प्रत्यायुत्य स्वभवनमिताः शोकसंतप्तचित्ताः ।।६४।।
अन्क्य-मर्थ-(सदुक्तिकार्य स्वाभिप्रायं तं (पति) निवेद्य) राजीमति की कथा वाले अपने २ अभिप्राय को (तं "प्रति") नेमिनाथ से (निवेद्य) कह करके (एव) ही (पश्चात) बाद में ( अविचलितधियम् ) प्रत्युत्तर नहीं देने वाले ऐसे ( नेमिनायम् ) नेमिनाथ को ( ध्यानारूढम् ) ध्यान में मग्न (निरीक्ष्य ) देखकर ( राजीमस्याः । राजीमती की (सल्याः) सखियां (अन्येबान्धवाः) अन्य बन्धुवर्ग (वा) तथा (महृदबजनाः शोकसंतप्तचित्ताः) सहृदय जन शोक से संतप्त चित्त होकर के (प्रत्यावृत्त्य) वहां से लौट कर (स्वभवनं इताः) अपने २ भयन में गये।
भावार्थ- इस प्रकार से अपना २ अभिप्राय राजुल की सखियों ने एवं अन्य बंधुजन आदिकों ने नेमिनाथ से कहा, पर नेमिनाथ ने उन्हें कुछ भी उत्तर नहीं दिया. धर्मध्यान में निमग्न उन्हें देखकर वे सबके सब वहां से वापिस होकर अपने २ भवन में आ गये ।
राजुल की सस्त्रियों ने एवं बन्धुजनों ने मिल करके राजुल की सब व्यथा-कथा को कहा नेमि से ढट करके सुन करके भी नमि न बोले स्रोले मोंठ न दो तक भी ध्यान मग्न वे अविचल मन ही बैठे रहे स्थिरासन ही सब कुछ उत्तर मिला नहीं तो वे सब के सब ही व्हां से लौट आये वापिस निज धर को होकर अतिभारी मन से ।। ६४1
स्वस्मिन् धैर्य वढतरमनाः स्वाभ्ययं सावधानः
हर्षे शोके परिभवपदे निष्कलङ्काङ्कचित्तः वीरंमन्या अपि च पुरुषा यत्र कामेन वधास्तस्यां नायर्या मदनविजयी संवतो नेमिनाथः ॥६५॥
अन्त में वे सब यो विचारते हैं - अन्य प्रध-(अयं स्वामी ये स्त्रामी (स्वस्मिन् धैर्य) अपने धैर्य में (दृढतर मनाः सावधानः ) इतरमन वाले हैं और सावधान है ! हर्षे शोके परिभवपदे निरुकल
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वचनदूतम्
का चित्तः ) हर्ष में, जोक में एवं पराभव में इनके शरीर में और वित्त में किसी प्रकार का विकार नहीं होता। अपने को (वीरमन्याः अपि च पुरुषाः) वीर मानने काले पुरुषों को भी (कामेन यत्र दग्धाः) कामदेव ने जहां नाकों बने चबवा दिये(तस्यां नाय नेमिनाथः मदन विजयी जातः) उसी नारी में ये नेमिनाथ भवन विजयी बन गये हैं ।
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भावार्थ – ये नेमिनाथ - समता के उपासक हैं और विकार से विहीनमन वाले हैं। जो अपने श्रापको सब से अधिक बलशाली मानते हैं ऐसे में वीराग्रणी भी जिस नारी के समक्ष कामदेव के द्वारा नतमस्तक कर दिये जाते हैं उसी नारी में ये महात्मा नेमिनाथ कामदेव को नतमस्तक कर रहे हैं ।
निज पथ पर हैं अडिग नेमिनाथ भगवान् सुनकर भी राजुल ब्यथा मन नहिं भयो म्लान उत्तर भी देते नहीं ये हैं ध्यानारूढ
हम इनसे अब क्या कहें जाने ये सब गूढ अविचल मन लख नेमि का रागविहीन प्रवीण लोट गये सब निजसदन बन कर वंदन मलीन ||१५||
——
पितृपुग्यो मिथः संभाषणम् राजीमध्या तविवर्माखलं नेम्युदन्तं निशम्य स्वाभिप्रायः स्वहित करणे पितृपार्श्वे प्रशान्त्या प्रोक्तः श्रुत्वा तमथ पितरों दुःखितौ सावभूताम्
ऊचाले तौ प्रियपतिपथे पुत्रि | यानं न योग्यम् ||६६ ||
श्रश्वय- अर्थ - ( राजीमत्या) राजीमती ने (अखिलं तदिम् नेम्युदन्तं निशम्य )
करके उसने (प्रशान्त्या )
जब पूरा का पूरा यह नेमिनाथ का वृत्तान्त सुना तो सुन बहुत अधिक शान्ति के साथ (पितृपा ) पिता माता के समक्ष ( स्वहित करणे ) आत्मकल्याण करने में ( स्वाभप्रियः ) अपना अभिप्राय प्रकट किया (अथ तं श्रुत्वा ) राजुल के अभिप्राय को सुनकर (तो पितरी दुःखितो प्रभूनाम् ) वे उसके माता-पिता दुःखित हुए और ( ऊचासे) कहने लगे ( पुत्रि ) हे बेटी ! (प्रियपतिपथे यानं न योग्यम् ) प्रिय पति के मार्ग का अनुसरण करना भभी तुझे योग्य नहीं है ।
भावार्थ- जब राजुल ने सखियों श्रादि के द्वारा नेमिनाथ का हाल-चाल सुना तो उसने बड़े विनम्र भाव से आत्मकल्याण के मार्ग में विचरण करने का अपना अभि
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वसात
प्राय माता-पिता से कहा 1 सुनकर वे दोनों दुःखित हुए और उन्होंने उससे ऐमा करना अभी उचित नहीं है ऐसा कहा
मुनी नेमि की जब निस्पृहता राजीमति तब पहुंची पास मात-पिता के–यों वह बोली पिता ! म अब तुम होउ उदास मैं भी प्रात्मसाधना के पथ पर विच मी तग गृहवास दुःस्विस होकर बोले वे "नहि अभी करो तुम व्रत की आश" ।।६।।
यातो नेमिस्त्वदभिलषितो यात्वसौ नैव शोच्यः
अन्यं श्रेष्ठं सुभगसुभगं त्वत्कृतेऽहं सतोऽपि अद्य श्वो वा नपतितनयं मायिष्यामि नूनं
का तस्य त्वं, भवति स च कस्ते स्वयं चिन्तयैतत् ।।६७।।
अन्वय-प्रयं. -हे बेटी ! (त्वदभिलषितः नेमिः यातः) तेरा मन पाहा नमि चला गया है (असो यातु, नव शोच्यः) तो इसे जाने दे, इसका क्या शोक, (त्वत्कृते अहं ततः अपि सुभगसुभगं श्रेष्ठ) तुम्हारे लिये मैं नेमि से भी अत्यन्त सुन्दर श्रेष्ठ (नपतितनयं प्रद्य प्रवः या नूनं मार्गमिष्यामि) राजपुश्त्र आज कल में तलाश करने वाला है। (एतत् स्वयं चिन्तय) ग्रह तुम स्वयं विचार करो कि (तस्य त्वं क:) उसकी तुम अब कौन होती हो पोर (ते स च कः) तेरा वह कौन (भवति) होता है
भावार्थ - बेटी तुमने जिसे अपना जीवन साथी चुना था यदि वह तुम्हें छोड़कर चला गया है तो जाने दे. इसको क्या चिन्ता. मैं तो आज कल में मेरे योग्य दूसरे राजपुत्र की जो कि नेमि से भी अधिक श्रेष्ठ हो खोज करने वाला हूं। तू उसकी कमा फिकर कर रही है । सोच तो सही-अब वह तेरा कौन है और नू' उसकी क्या है । पूर्व के नाते अब सब झूठ हो चुके हैं।
मन चाहा यदि तेरा स्वामी तुझे छोड़कर चला गया तो बेटी ! जाने दे उसको वर ठूलूगा और नया प्राज काल में जो हो उसम नेमी से भी प्रति गुग्णवान् राजपुत्र सुन्दर में सुन्दर हो तेरे जो योग्य महान् क्यों चिन्ता करती है उसकी जिसने तेरी नहीं करीथोड़ी सी भी चिन्ता, बेटी ! दुःखित मप्त हो घरी घरी
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वचनदुतम्
तू है कौन कौन वह तेरा अब संबंध गया है टूट भूल जाउ नाते पहिले के के अत्र हो गये हैं सब झूठ ।। ६७॥
तस्मिन् याते जहिहि हृदयोद्धे गदां शोकमालाम्
स्नाहि, स्वान्तं प्रशमय. नवं धत्स्व कासश्च, भुड्.श्व संसारेऽस्मिन भव भवगतः को न कस्य प्रियोऽभूत्
ज्ञात्वा, चित्तं धृतिविगलितं मा कुरुष्वात्मनीनम् ।।६।। अन्वय-अर्थ-हे बेटी ! (तस्मिन् यात) नेमी में चल जाने पर तुभ (हृदयोगदां शोकमालो जहिहि) हृदय को प्रशान्स अनाने वाली शोकमाला को छोडो, (स्त्रान्त प्रशमय) मन को शान्ति में लामो (स्नाहि) नहायो धोत्रो ( नवं वासः घरस्व) नवीन वस्त्र पहिलो और (भुरुक्ष्य) भोजन करो. (अस्मिन् संसारे भयभवगतः कः कस्य प्रियः न अभूत) यह तो संसार है. भव भव में कौन किसका यहां प्रिय नहीं हुआ (झाल्वा श्रात्मनीनं चितं धृतिविगलितं न कुरुष्व) ऐसा जानकर अपने चित्त को धर्य से रहित मत करो। इसी को शान्ति में प्रात्मा का--तुम्हारा-हित समाया हुना है।
भावार्थ-बेटी ! यह तो संसार है । हर एक जीव के हर एक जीबके साथ भच २ में नाते होते रहते हैं । कौन किसका प्रिय नहीं बना, कौन किसका शत्रु नहीं बना । अतः धैर्य धरो-नहामो घोमो और सुन्दर बस्त्र पहिरो और रुचि के अनुकुल खाना पीना करो. चित्त की शान्ति ही सब दुरखों को दूर करने वाली होती है।
गये हुए स्वामी की बेटी ! अब क्यों चिन्ता करती है चिन्ता बिता तुल्य है इससे चैन चित्तकी जलती है छोड़ इसे, यह समझ कि यहां पर कौन किसी का नहीं हुआ भब भर में प्यारा, पर न्यारा हो होकर के विदा हुना बीती वातों को न चितारो थे पायों के नातेपाते जाते रहते हैं, ये अणस्थायी, नहि टिक पाते सोच समझा कर यों निज मन में चित को म्लान बनायो ना रहो पूर्ववत् स्वस्थ नहानो धोयो खानो, रोम्रो ना ।।८।।
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वचनदृतम्
यस्याः सार्धं परिणयविधिः सप्तवासप्तपद्या संपद्मः स्यात् भवति स बरो नीतिरेषाऽऽगमोक्ता तेनामा चेत् कतिपयभवोद्भूतपत्नीत्व रामः
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पर्यायेऽस्मिन् भवति न सुते ! कार्यकारी स हेयः ||६६ ||
अस्य प्रथ- हे बेटी ! (वस्याः सार्धं परिणयविधिः सप्तवासप्तपद्या संपन्नः स्यात् ) जिसका जिसके साथ जैवाहिक संबंध सात प्रकार की सप्तपदी के द्वारा संपन हो गया होता है ( स वर ) वहीं उसका वर होता है ( एवा थागमोक्ता नीति:) ऐसी यह आगम में नीति कही गयी है, ( चेत् तेन श्रमा कतिपयभवोद्धतपत्नीत्वरागः ) यदि उसके साथ तेरा पूर्व के कई भवों से चला आ रहा जो पत्नीपने का संबंधरूप राग है ( सः अस्मिन् पर्याये सुते ! कार्यकारी न भवति-हेचः ) वह इस पर्याय में कार्यकारी नहीं होता है. अतः हे बेटी ! उसे तू छोड दे ।
भाषार्य - बेटी ! नेमी को तू अपना पति क्यों मानकर उनके विरह में दुःखित बन रही है. शास्त्रोक्तविधि के अनुसार जिसके साथ सप्तपदी हो जाती हैसात फेरे पड़ जाते हैं. वहीं उसका वर होता है ऐसा तो तेरा कुछ हुआ नहीं है. रही कितनेक पूर्वभवों में उनकी पत्नी होने की बात सो वह इस भव में कार्यकारी नहीं हो सकती । अतः यह पूर्वभवीय अनुराग तुम छोड़ो और पूर्व की तरह स्वस्थचित्त होकर घर में रहो ।
-
पंचों की साक्षी में जिसके सात हुए हों फेरे साथ धार्मिक विधि से मंडप नीचे जिसने पकड़ा होवे हाथ जीवन साथी वही कहाता । वहीं सुपति पद का भागी प्राणनाथ होता है वो ही । तद्भव का वो ही रागी ऐसी आगम की शिक्षा को बेटी ! क्यों तू भूल रही नो भव के साथी को अपना स्वामी गिन क्यों कूल रही वर्तमान के इस जीवन में भूतकाल का वह जीवन fभन्न भिन्न होने के कारण उपादेय होता नहि वो जन ।। ६६ ।।
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वचनदूतम्
जाते ! जातं समुचितमिदं गानामि मुक्ता
त्यक्तोढा चेज्जगति जनता भाग्यहीनां वदेत्त्वाम् श्रुत्वा ते तन्निगदितवचो मानसं बैकृतं स्यात्
दग्धे क्षारप्रपतनवत्तत् हार्दिक शं न दद्यात् ।।७।।
अग्नय-अर्थ-(जाते! ) हे बेटी (यत् अनूढा मुक्ता असि इदं समुचित जातम्) जो तुझे नेमि ने बिना विवाही छोड़ दिया है सो यह उन्होंने तेरे हित में बहुत उचिल-अचला किया है (चेत् ऊहा त्यक्ता) यदि वे विवाह करके तुझे छोड़ देते तो (जगति जनता त्वां भाग्यहीनां वदेव) संसार में जनता तुझे भाग्यहीन-मभागिनी कहती और (तस्निगदितवचः श्रुत्वा ते मानसं कृतं स्यास्) उसके कहे हुए उन वचनों को सुनकर तेरा मन अत्यन्त विकृति युक्त हो जाता और (दग्धे क्षारप्रपतनवत् तत् हार्दिक शं न मद्यास्) जले पर नमक छिड़कने के समान वे बचन तुझे हार्दिक शांति नहीं देते।
भावार्य-नेमि यदि तुझे बिना विबाही छोड़ करके चले गये हैं तो उन्होंने तेरे साय भलाई ही की है. यदि वे विवाह करके तुझे छोड़ देते तो जगत तुझे अभागिनी कहता और इससे तेरा दुःख जले पर नमक छिड़कने के समान विगुणित बनकर एक पल भी तुझे शान्ति नही लेने देता।
बिना विवाही छोड़ तुझे जो नैमि द्वार से लौट गये अनुचित हुअा बता क्या, तुझको उचित राह पर लगा गये वैवाहिक संबंध जोड़कर जो तुझ को वे तज देते तो अभागिनी की उपाधि से तुझे सभी कोसा करते उनके ताने सुन सुन करके देरा मन दुःम्बित होता जले हुए पर नमक छिड़कने के सम दूना दुग्न बोता ।।७।।
वाम्दानानो भवति रमणः कोऽपि कस्याश्च वाले !
एतज्ज्ञात्वा मनसि न कदा शोकवार्ता तदीया । श्रानेतन्या, यदि स गतवान् गच्स्तु वा यथेच्छम्
तस्मै मुक्त्वा परिणयविधि गच्छते का स्पहा ते ।।७।।
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बचनदुतम्
जाता है ( एतत्
अन्वय अर्थ – (बाले) हे बेटी ! (वाग्दानात् कः श्रपि कस्याः रमरणः न भवति) केवल सगाई हो जाने मात्र से कोई किसी का वर-पति नहीं बन ज्ञात्वा तदीया सोकवार्ता मनसि कदा न श्रानेवच्या ) यह समझ कर नेमि संबंधी शोक की बातें अब तुझें अपने मन में कभी नहीं लानी चाहिये। (यदि स गतवान् ) यदि वह चला गया है तो (यथेच्छम् गच्छतु) भले वह चला जावे ( उसे रोकता भी कौन है ) (परिणय विधि मध्ये मुम्बा) अरे भला जो व्यक्ति तुझे भर विवाह में बीच में ही छोड़कर चला गया है ( गच्छते तस्मै । उस जाने वाले को तुझे क्वा चाहना करनी ?
EX
भावार्थ-बेटी ! सगाई हो जाने मात्र से पति-पत्नी भाव नहीं होता है ऐसा जानकर तुझे नेमि के छोड़ जाने का जरा सा भी शोक नहीं करना चाहिए | यदि वह चला गया है तो भले चला जाये उसे रोकता भी अब कौन है । अरे भला, जो परिणयविधि को बीच में ही छोड़कर चला गया है उस जाने वाले की मव तुझे क्या चाहना करनी चाहिये ?
न हि सगाई हो जाने से ही कोई भर्ता बन जाता
सप्तपदी हो जाने पर पति-पत्नी भाव उभर प्राता ऐसा सोच समझ कर बेटी उसका शोक न अब कर तू चला गया वह तुझे छोड़कर तो जाने दे रोक न तू
जो विवाह को छोड़ गया हो उसकी क्या इच्छा करना अस्थिर चित्त मनुज का बेटी ! नहि विश्वास कभी करना ||७१
कोsहं के हृदि न गणितं येन किञ्चित् कथंचित्
का मे जातिः कुलमपि च किं मे सांप्रतं किं करोमि किं कर्तव्यं भवति च मया वाऽधुना नैव बुद्ध
तस्मै मुक्त्वा परिणयविधि गच्छते का स्पृहा ते ||७२ ||
अन्वय अर्थ - ( अहं कः इयं का येन किञ्चित् कथंचित् नगरितम् ) मैं कौन हूं यह कौन है, ऐसा जिसने कुछ भी किसी भी तरह से विचार नहीं किया और (मे का जातिः कि मे कुलं साम्प्रतं किं करोभि, मया अबुनाकर्तव्यं किं भवति देव
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वचनद्तम्
बुद्धम्) मेरी क्या जाति है ? मेरा कुल क्या है ? अवमैं क्या कर रहा हूं और मुझे क्या करना चाहिले था । ऐसा जिसने स्याल नहीं किया. हे बेटी ! (परिणयविधि मुक्त्वा गच्छते तस्म का स्पहा) वैवाहिक विधि को छोड़कर जाने वाले उम नेमि की त क्या चाहना करती है !
माषार्थ हे बेटी ! मै कौन हं, यह कौन है, मेरी जाति क्या है, क्या मेरा कुल है, मुझे क्या करना चाहिने धा और अब मैं क्या कर रहा हूं, ऐसा जिसने मोडा सा भी विचार नहीं किया और बीच में ही बवाहिक विधि का परित्माग करके जो चला गया है ऐसे उस नेमि के पीछे तू क्यों दुःखित हो रही है ।
मैं हूँ कौन कौन यह नारी कुल क्या, क्या मेरी जानि नही समझ में पायी जिसकी समझाने पर हर भांति क्या करने के योग्य मुझे था और कर रहा ाब में क्या ऐसा भी तो ख्याल किया नहिं जिसने अब बतलाऊं क्या जो विवाह को छोड गया हो उसकी क्या इच्छा करना अस्थिर चित्त हा प्राणी का नहिं विश्वारा कभी बरना ।।७२।।
अप्रायोग्यं यदपि च सुते ! कार्यमेतद्वभव
प्रागंसाह नहि सम्भवढे द्मि सभ्य क तथापि । वक्तन्याही जगति न च ते सन्ति ये-शक्तिमन्तः
कुर्वन्तस्तेऽकुशलमपि नो सन्त्युपालभनीयाः ।।७३।।
अन्वय-अर्थ-(सूते) हे बेटी (सम्यक वेथि) मै अच्छी तरह जानता हूं कि (एनन् कार्य अनायोग्यं बभूव) यह तेरा परिहार रूप कार्य अपने खान्दान के योग्य नहीं हुआ है। इसीलिये (प्राशंसाई न हि समभवद) बह प्रांग़नीय नहीं है (तथापि) तब भी (जगति ये शक्तिमन्तः सन्ति) संसार में जो शक्तिशाली होते हैं (ते बक्तब्धाहाः न) उनसे कोई कुछ नहीं कह सकता (ते अकुशलमपि कुर्वन्तः उपालम्भनीया न सन्ति) चाहे वे अकुशल भी कार्य करें तब भी उन्हें कोई उलाहना तक भी नहीं दे सकता ।
भावार्थ-बेटी ! "समरथ को नहि दोष गुसाई" इस नीति के अनुसार जो शक्तिशाली होते हैं वे अनुचित कार्य भी करें तो भी उनसे कोई कुछ नहीं कह
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वचनदृतम
सकता । यद्यपि मैं यह जानता हूं कि नेमी ने जो यह कार्य योग्य किया है, किसी ने भी इसको अच्छा नहीं कहा, होने से फिर भी उनके इस कार्य कर किसी ने भी विरोध तक भी नहीं किया ।
किया है वह उन्होंने परन्तु विशिष्टशक्तिसंपन्न
नेमीश्वर ने अनुचित किया कार्य यह मानता हूँ
दि भी वह नहि किसी ने किया जानता हूं पर जो होते जगतभर में पुण्य श्री शक्तिशाली सेवा में भी श्रमर जिनकी हों खड़े बन पुजारी ऐसे मानव उचित अनुचित जो करें सर्वं थोड़ा देकर ठपका स्वयं पग पर कौन मारे हथौंडा ॥ ७३ ॥
प्रायें नश्चरितमिह तो सेवितं तत्त्वया किम्
सेवित्वा हा ! यशसि विमले संभृतं दुर्बलत्वम् मुञ्चैत्वं यदुकूलभशो ! वाच्यताऽधायि वृत्तम्
८७
ब्रूयादित्यं न खलु नगरे विद्यते कोऽपि वोरः ॥७४॥
जय-मर्थ हे बेटी ! (नः श्रार्यः) हम लोगों के सार्य पुरुषों ने (इह) इस समय में यहां (यच्चरितं नो सेवितम् ) जिस श्राचरण का सेवन नहीं किया (हा ) सांस है कि ( वया सेवित्वा विमले यशसि दुर्बलत्वं कि संभृतम्) उस आचरण का सेवन करके आपने अपने यश में दुर्बलता-कुशता क्यों भरती है। अतः (यदुकुलमणे) हे यदुकुल के मणिस्वरूप ! (त्वम्) आप ( वाच्यता प्राधायि एतत् वृत्तं मुश्च ) निन्दा कराने वाले इस श्राचरा का परित्याग कर दें। (इत्यं ब्र ूयात्) ऐमी नेमी से कहै ऐसा (वीर) वीर (नगरे) इस नगर में (को-पि न विद्यते) कोई भी नहीं है।
भावार्थ हे बेटी नमी के निकट जाकर नगर में कोई नहीं दिखता कि हम लोगों के जीवन में नहीं उतारा उसे आपने क्यों उतारा है. व्यवहार ने श्राप के यथा को कृश कर दिया है. ग्रतः जिससे श्राप की निन्दा हो रही हो उस कृत्य को आप छोड दें
I
नाथ ! आपके आयंजनों से जिसे कभी वह अपनाया वर्तमान में उसे आपने अपना कर क्यों लगाया
उनसे ऐसा कहने वाला वीर इस बुजुर्गों ने जिस प्राचरण को अपने क्योंकि इस प्रकार के आचरित हुए
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म
बचनदृतम
राजुल को — इससे तब यश में दुर्बलता ही श्रामी है अतः छोड़ दें श्राप इसे इससे निन्दा ही पायी है ऐसा कहने वाला बेटी ! नहीं कोई अब दिखता है ---- बीरनगर में हरजन उनसे कहता है
संस्कारस्ते परिणय कृतो तेन सार्धं न कश्चित्
जातः कस्माद्गतिवति सुते ! शोकमग्नासि तस्मिन् रामः स्यात्वां प्रति यदि कथं स त्यजेत्वामकस्मात् तस्मात्तस्मिंस्त्वमपि सुभगे ! रागमावं जहीहि ॥ ७५ ॥ |
प्रत्यय - अर्थ - ( सुते तेन सार्धं परिणयकृतः ते कश्चित्संस्कारः न जातः) हे बेटी ! तेरा उसके साथ वैबाहिक कोई दस्तूर नहीं हुआ है तो (कस्मात् गतिवति तस्मिन् शोकमग्ना प्रसि) गये हुए उसके सम्बन्ध में फिर शोकमग्न क्यों हो रही है ? ( यदि त्वां प्रति रागः स्यात्) यदि तेरे प्रति उसका अनुराग होता तो ( स त्वाम् अकस्मात् कथं त्यजेत् ) वह तुझे बिना कारण के क्यों छोड़ता ? (तस्मात् ) इसलिये (सुभगे ) हे सुभगे ! ( तस्मिन् त्वम् अपि रागभावं जहीहि) उसके ऊपर से तू भी अपना राग-भाग दूर कर दे ।
भावार्थ - "जो आपको न चाहे ताके बाप को न चाहिये” इस नीति के अनुसार जब वह तुझे चाहता ही नहीं है तो तू उसके प्रति रागभाव क्यों रख रही
खोट इस रागभाव को, महू है कौन तेरा, तेरा उसका कोई वैवाहिक संस्कार तो हुम्रा नहीं है फिर क्यों उसे अपना मान रही है और उसके चले जाने पर शोकाकुलित हो रही है ।
तेरा उसका नहीं हुआ है वैवाहिक विधि के अनुसार संस्कार भी तो कोई, फिर अब क्यों होती हैं गम हार बड़ था तेरा कौन उसे तू अपना क्यों कर मान रही अपना होता तो अपनाता और बताता हाल सही उसके जाने पर क्यों होती शोकमग्न तू घरी घरी दूर भगा इस रागभाव को बात यही है खरी खरी अनचाहे पर राग न चढता चढता ऐसा क्यों होता
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बचनदूतम्
होता वही जो होना है अनहोना पुत्रि ! नहि होता ऐसा जान भूल जा उसको जैसा वह तुझ को भूला यों होगा तो सदा रहेगा चित तेरा फूला-फूला ।।७।।
श्रुत्वोक्ति साऽवनतवदनोवाच वाचं अगष्य
नेमि मुक्त्वाऽमरपतिनिभं नैव वाञ्छामि कान्तम् चिन्ता कार्या न मम भवता नेमिनाऽहं समदा
जातो वासौ मनसि च मया संवतो भतृ भावात् ।।७।।
अन्वय-प्रर्थ –(उक्ति श्रुत्वा) पिता की बात सुनकर (अवनतवदना सा उवाय) नीचा मह करके बह कहने लगी (वाचं श्रष्ष) पिता जी ! मेरी बात भाप मनी ( नेमि भुक्त्वा अमरपतिनिभं कान्तं नव वाञ्छामि) मै नेमी के सिवाय अमरपतिइन्द्र-तुल्य भी व्यक्ति को अपना पति बनाना नहीं चाहती हैं। (भवता मम चिन्ना न कार्या) पाप मेरी चिन्ता न करें (अहं नेमिना समुहा) मुझे नेमो ने करण कर लिया है और (असौ भत भावात मनसि मया संवृतः जातः) मैने भी उन्हें पतिरूप में अपने मन में वरमा कर लिया है।
भावार्थ-पिताश्री की बात मुक्कर सजाते हुए राजुल ने प्रत्युत्तर के रूप में उनसे कहा-पिता जी ! पाप मेरी प्रोर से निश्चिन्त रहें मैं नेमी की हो चुकी हैं
और नेमी मेरे हो चुके हैं । अब इन्द्रतुल्य भी मानव मेरे हृदयासन पर विराजमान नहीं हो सकता है।
मै अनाथ हूं नहि, सनाथ हूं, साथ नाथ ने नहीं दिया मुक्ति-रमा ने जादू करके मुझ से उनको छुड़ा लिया सात ! श्राप मत चिन्ता मेरी करो न मुझवो समझायो नाथ हृदय में बैठा मेरे मुझको अब मत भरमाप्रो वे हैं मेरे मैं हूं उनकी भले मुक्ति के चक्कर में फंस गये हैं वे पुनः मिलेंगे मुझे मुक्ति के ही घर में हम दोनों तब वहां रमेंगे अन्याबापसुखोदधि में नहि अवतार हमारा होगा इस निस्सार भवोदधि में तातवचन सुनकर राजुल ने अपना ऐसा हार्दिक भाव कहा तात से, और कहा फिर नय-विवाह का रहा न बाव ।।७।।
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वचनदूतम कल्ये दीक्षाममपि च पितः ! धारयिष्यामि ननम्
प्राज्ञां दत्वा सफलय मनोभावमेवं विदित्वा कार्या कार्य पितृपदसमाध्यासिना नात्र बाधा
__ शोक मोहं विगलय न मे, कोऽपि. कस्यापि नाहम् ।।७७॥
अन्वय-अर्थ-(पितः) हे लात ! (नूनं अहम् अपि कल्ये दीक्षां धारयिष्यामि) निश्चित रूप से मैं भी कल दीक्षा धारण करूंगी (एवं विदित्वा प्राज्ञां दत्वा मनो भावं सफलय) इस मेरे निश्चय को जानकर आप प्राज्ञा प्रदान करके मेरे मानसिक विचार को सफलित करें। (पितृपदाध्यासिना अस्मिन् कार्ये बाधा न कार्या) पिता के पद पर विराजमान हुए आपको मेरे इस काम में बाधा नहीं हालना चाहिये (शोक मोहं बिगलय) श्राप शोक एवं मोह को दूर कीजिये (में कोऽपि न प्रहं कस्पापि न) अब मेरा कोई भी नहीं है और मैं भी किसी की नहीं हूं।
भावार्थ-पिता जी मैं नियम से दीक्षा लगी. आप मुझे सहर्ष प्राज्ञा दे, और मेरे निश्चय को सफल करें. श्राप मेरे पिता है. इस नाते अाप को मेरा मोह छोड़कर इस कार्य में रुकावट नहीं करनी चाहिये. अब इस भव में न कोई मेरा है और न मैं किसी की हूं।
कल प्रातः मैं अब नियम से तात ! दीक्षा धरूंगो
__ घर छोडूगी स्वजन परजन को सभी को तगी ममता मेरी अब सब तजो और आज्ञा मुझे दो
धाराधन कर सफल हो जन्म मेरा तिया का मेरे मन के उदित भावों को घटायो न रोको
है पालन के रतनत्रय के योग्य यह तात ! मौका स्वामी के ही चरण पथ 4 में चलूगी खुशी से
___ आवेंगे जो विविध दुःख भी तो उन्हें मैं सहूंगी होऊंगी ना विचलित कभी स्वीयकर्तव्य से मैं
आयेंगी ना सुखद घर को याद रातें न बातें होंगे मेरे बनभवन में संगसाथी मृगादि ।
छोड़ो मेरी जनक ! ममता प्राप रोको न रोप्रो ।।७७।।
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वचनद्रूतम् नारीजन्माधमभिवमहं मंगलं संविधास्ये,
नारोलिङ्ग विविधतपसा कर्मणामावलि च । छित्वा भिस्वा विलितभवाऽहं भविष्यामि सात !
श्रेयःकायें निजहितारो गर तन्पति विनम्
।
प्रत्यय-प्रयं--(तात) पिताजी (प्रधमम इदं नारीजन्म मह भंगलं संविधाम्ये) अधम इस नारीजन्म को मैं मंगल रूप बनाऊँगी और (विविधतफ्सा) अनेक तपस्याओं से (नारीलिङ्ग, कर्मणाम् प्रालि च छित्त्वा भिस्वा) नारी लिङ्ग को और कमों को छेद भेद करके (विगलिल भवा अहं भविष्यामि) अपने संसार को मैं नष्ट करूंगी, अतः (निजहितविदः श्रेयःकार्ये विघ्नं न तन्वन्ति) जो अपने हित को जानते हैं वे मांगलिक कार्यों में विध्न नहीं करते हैं।
भावार्थ हे जनक ! मै इस अधम स्त्री पर्याय को मंगलमय बनाऊंगी और नारीलिङ्ग को एवं कमों को अनेक प्रकार के तपों का याचरण करके नष्ट भ्रष्ट करूंगी. ताकि इस संसार में मुझे फिर से भ्रमण नहीं करना पड़े, जो अपना हितकल्याण-करना जानते हैं. वे मांगलिक कार्यों में रुकावट पसन्द नहीं करते हैं ।
नारी का यह जन्म अधम है, पराधीन है, दुलकर है, पद पद पर अपमानित होकर जीवन जीने का घर हैं मात-सात की चिन्ता का यह बड़ा विकट विषम स्थल है क्षण क्षण में शंकाओं का यह बनता शीघ बबन्डर है पर की है यह एक धरोहर जिसे रखाते रहते हैं समय समय पर घर भर के जन जिसे संभाले रहते है जिसमे परिचय नहीं, प्रीति नहिं, रीति न जिसकी ज्ञात सही प्रकृति, स्वभाव, अपरिचित जिसका उसे सौंप दी जाल कहीं ऐसे इस नारी जीवन को तात ! करूगी मैं अब तो मंगलमय, एवं तप द्वारा भस्म करूगी विधिवन को नारीलिङ्ग छेद करके मैं अजर अमर पद पाऊंगी धीरे धीरे मैमिपिया से मुक्तिमांहि मिल जाऊंगी ।।८।।
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वचनदूतम्
मस्सौभाग्यं विरहबहने तात ! दग्धं सपल्या मुक्त्याsभुक्त विगलितमिदं नैव वाञ्छामि भूयः त्यक्ता तेनाहमपि च तथा तं त्यजामि त्रिव
क्षन्तव्येयं यदिह समभूत् तेऽपराधः प्रमादात् ॥७६॥
·
अम्ब अर्थ - ( तात ) हे पिता ! ( श्रभुक्तम् ) इस पर्याय में प्रयुक्त हुए
( मी माग्य) मेरे सौभाग्य को ( सपत्न्या मुक्त्या ) मेरी सौत मुक्ति ने ( बिरहृदहने
दग्धम् ) बिरहरूपी अग्नि में भस्म कर दिया है. अतः (विगलितं इदं भूयः नैव वाञ्छामि मुझ से छूटे हुए इस सौभाग्य को में पुनः नहीं चाहती हूँ ( तेन त्यक्ता अहमपि च त्रिघा तथा एव तं त्यजामि ) अतः उनके द्वारा छोड़ी गई में भी मन वचन और काय से उसी प्रकार उन्हें छोडती हूं । (यदि ) यदि इस पर्याय में मेरे द्वारा (प्रमादात्) असावधानीवश ( ते अपराधः समभूत् ) आपका अपराध बन गया हो ( क्षन्तव्या) तो मुझे क्षमा करना ।
भावार्थ – पिताजी ! मेरा सौभाग्य तो मुक्तिलक्ष्मी को मिल चुका है, ग्रतः अब मैं उस सौभाग्य की श्राकांक्षिणी नहीं हूं। मुझे जिस प्रकार मेरे होने वाले नाथ ने छोड़ दी है मैं भी अब उसी प्रकार से मन वचन और काय से उनका परित्याग कर देती हूं । श्रापका इस दशा में वर्तमान मेरे द्वारा किसी भी तरह का प्रावधा fra कोई अपराध बन गया हो तो मैं उसकी क्षमा चाहती हूँ ।
मेरे सुख सुहाग को मुझ से मुक्तिमौत ने छीन लिया
पति को अपनी ओर खेंचकर मुझ को विरहिन बना दिया दिया मेरे सुहाग को पतिविरहानलज्वाला में कौन कहेगा मुझे सुहागिन बनी अभागिन बाला मैं इन प्रभुक्त श्रव भोगों को मेरी न भोगने की इच्छा इच्छा है तो एक यही है धरू यायिका को दीक्षा छोडी जैसी उनने मुझको में भी उन्हें छोडती हूं पाश्रित सब नातों को तात ! ग्राज से तोड़ती हूं
असावधानी मुझ से श्रव तक हुई गल्तियां हों उन्हें क्षमाकर देना मांगू हाथ जोड़कर भिक्षा यो ॥७९॥
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बचनदूतम्
मोहोद्भूतं परिहर पितः ! मद्गतं प्रीतिजालम् याचेऽहं त्वां पुनरपि पुन में क्षमस्वापराधम् सेवा ते वा जनक ! मयाऽभूत्र मे दुःखमस्ति मद्दीक्षातः सफलमभवत् ते गृहस्थाश्रमोऽयम् ॥८०॥
દર
अर्थ- (पितः ) है तात ! (मोहोतं मद्गतं प्रीतिजालं परिहर) मोह से उत्पन्न जो मेरे कार आपका प्रीतिजाल है उसे श्राप अब दूर कर दें। ( महं पुनः पुनः त्वां याचे) मैं बार २ मापसे यही याचना करती हूं। ( मे अपराध क्षमस्व ) प्राप मेरी गल्तियों की मुझे क्षमा दें। (जनक) हे जनक ( ते सेवा ममका न प्रभूद् आपकी सेवा कुछ भी मुझ से नहीं हो सकी ( मे दुःखं श्रस्ति ) इसका मुझे स्वयं को दुःख है । ( मद्दी आत: श्रयं ते गृहस्थाश्रमः सफलं श्रभवत् ) मेरी दीक्षा से श्रापका यह गृहस्थाश्रम सफल हो गया है ।
भावार्थ — दे तात ! अब आप मेरे प्रति रहे हुए अनुराग का परित्याग कर दें. क्योंकि मैं दीक्षित होने वाली हूं । में हुए अपराधों की पुनः पुनः आपसे क्षमा चाहती हूं। मुझे एक बात का अवश्य दुःख है कि मेरे द्वारा आपकी जरा सी भो सेवा नहीं हुई । परन्तु इस बात की खुशी है कि मेरी दीक्षा से श्रापका गृहस्थाश्रम सफल हो गया।
मुझे परम सौभाग्य उदय से राजमहल में जन्म मिला । पुत्री बनी श्रापकी ही में अनुपम मुझे दुलार मिला पाल पोष कर मुझे अपने सब प्रकार से बड़ा किया देवों को भी दुर्लभ ऐसे सुख साधन से किया तुष्ट समय समय पर सभी तरह से मेरा योगक्षेम हुना
सूर्य उदय कब हुआ, हुआ कळ प्रस्त, न इसका भान हुआ पिता ! श्रापके हो प्रभाव से मैं इस लायक हो पायी हेया हेय विवेचक प्रज्ञा जगी नेमि लख ठकुराई इतना है उपकार आपका तात ! बड़ा भारी मुझ पर उससे उरण न हो पायी मैं दुःख इसी का मन ऊपर पर मेरी दीक्षा से सफलित हुआ गृहस्थाश्रम पाचन
वात! आपका अलः दीजिये दीक्षा की प्राज्ञा पावन 11८० ॥
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वचनदूतम्
मोहोद्भूतां पुनरपि कथां कथ्यमाना व्यथायाः राजमतिरपि तथा तां निरस्यैवपूचे सर्वे ते जनक ! बहुशो जीव संबंधबंधाः
जाताः पूर्व भवति नितरां तत्र मग्नो विमुग्धः ॥८१॥
अन्वय-अर्थ-- राजुल के चेतावनी भरे वचनों को सुनकर उसके पिता उग्रसेन नरेश को बहुत वेदना हुई और उन्होंने उस अपनी वेदना को राजुल के मन को परिवर्तित करने के लिये कहा तब - ( मोहोन्द्र तां व्यधायाः कथ्यमानां कथा ) मोहजन्य अपनी ही गई व्यथा की कथा को सुन करके (राजोमातः अपि) राजुल ने भी (तथा तां निरस्य एवं ऊचे) उसी प्रकार से उसका निराकरण करके इस प्रकार से कहा (जनक) है तात ! (एते सर्वे जीवसंबंधबंधाः पूर्व बहुशः जाताः ) ये समस्त जीव के साथ हुए संबंघरूप बंधन पहिले कई बार हो चुके हैं (तत्र विमुग्धः मनो भवति) उनमें जो मोही प्रारणी होता है वही मग्न होता है ।
भावाथ — "किस किस को याद कीजिये किस किस को रोइये, ये सब अथिर जगजाल है निज हित को सोचिये" इसी नीति के अनुसार राजुल ने जब पिता द्वारा प्रकट की गई मोहजन्य व्यथा की कथा को सुना तो उसने पिता को संबोधित किया और कहा - पिताजी आप किस मोहममता के जाल में फँसे हुए हैं. ये सब सम्बन्ध तो अनादिकाल से होते चले आ रहे हैं. ये स्थिर नहीं हैं. सबः अस्थिर है. ज्ञानी जन इनमें मग्न नहीं होते हैं, मग्न तो मोहीजन ही होते हैं । अब मुझ से प्राप मोह को दूर कर दो ।
श्रत
राजुल की सुनकर कथा उग्रसेन भूपाल "बेटी दीक्षा का नहीं है यह तेरा काल" मोहजन्य मन की व्यथा प्रकट करी तस्काल तेरे बिन मेरा सुते ! होवेगर क्या हाल मोह भरे अरु व्यथा से सने सुने उद्गार राजुल ने जब जनक के, बोली समता बार ये जग के नाते अथिर हुए प्रमंती बार धिर इनमें कोई नहीं रहा यही संसार यह दुर्गम घाटी बड़ी, ज्ञान, विबेक, विचार ये ही साधन जीवको करते उससे पार ।। ८१ ।।
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वचनदूतम् पाशा लध्वा प्रमुवितमना मातृपादारविन्द
नस्वा साध्वी निकटमगमन्मोहजालं विमुच्य प्रार्यादीक्षा स्वकुशलमयीं प्राप्य सस्या तयाऽथ
गत्वा नुस्खा गतभवपति ने मिनाथो ववन्दे ॥२॥
अन्वय-अर्थ-(प्राज्ञां लब्ध्वा) पिता को प्राज्ञा पाकर राजुन ( प्रमुदितमनाः ) बहुत प्रसन्न चित्त हुई (मातृपादारविन्दं नत्वा) और माता के चरण कमलों को नमन करके एवं (मोहजालं विमुच्य) मोहजाल को छोड़ करकं वह ( साध्वानिकट अंगमन् । प्रार्यिका माता के पास गई. वहां उसने(स्वकुशलममी आर्यादीक्षा प्राप्य)अपनी कुशलता कारक प्राधिका की दीक्षा धारण करली(प्रथ) इसके बाद (तया सत्या) उस सती ने (गत्वा नुत्वा) जाकर के और स्तुति करके (गत भत्रपतिः) पूर्वभवों के पतिदेव (नेमिनाथः) नेमिनाथ की (ववन्दे) वन्दना की।
भावार्थ--पिता की आज्ञा प्राप्त कर प्रसन्न चित्त हुई राजुल ने माता की भी प्राज्ञा प्राप्त की और उन्हें प्रणाम करके फिर वह सब से मोहपरि शक्ति हटाकर एक साध्वी माता के निकट पहुंची वहां पहुंच कर अपने भर को सुधारने वाली प्रायिका दीक्षा धारण करली और प्रन्त में उसने नेमिनाथ की स्तुतिपूर्वक वन्दना की।
भात तात को पाशा पाकर राजुल मन में मुक्ति हुई जाते समय मातृपदपंकज की रज से घूमरित हुई मोहजाल को वमनतुल्य नज पहुंची वह साध्वी के पास भवभव कुशल विधायक दीक्षा धरी प्रायिका की सोल्लास दीक्षित होकर फिर वह साध्वी नेमिनाथ के निकट गयी कर संस्तवन नमन कर शत शत उनको फिर वह तृप्त भयो ।।
धम्या माताऽवनिलिरसाधु प्रसेतोऽपि धन्यः
प्राचीदिग्धज्जगति महिता सा शिवा धन्यधन्या धन्यस्तातो नरपतिमरिणः सस्समुद्राभिधानः
धन्या राजीमतिरपि तथाऽमाविनी धर्मपत्नी ।।३।।
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वचनदूतम्
अन्वय- अर्थ - ( माता धन्या) राजुल की माता धन्य है (असौ उग्रसेनः प्रबनिपत्तिः अपि धन्यः) उग्रसेन भूषाल भी धन्य है. जो (जगति प्राचीदिग्वत् महिला) संसार में पूर्व दिशा की तरह पूज्य हुई ऐसी (सा शिवा धन्यधन्या) बहु नेमिनाथ की माता शिया देवी अत्यन्त धन्य है (सः नरपतिमरिणः समुद्राभिधानः तातः धन्यः) वे नरपतिमूर्धन्य समुद्रविजय पिता भी धन्य हैं (तथा प्रभाविनी धर्मपत्नी ) तथा जिसे अब धर्मपत्नी का पद प्राप्त ही नहीं होना है ऐसी ( राजीमतिः ग्रगि) राजुल भी ( धन्या) धन्य है ।
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भावार्थ
- स्पष्ट है ।
माता धन्या, अवनिपति ने धन्य हैं उग्रसेन प्राचीदिद् जगतभर में जो हुई पूज्यपूज्या ऐसी माता वह सति शिवा धन्य है, धन्य तातवे नेमी के समुदविजय श्रीमती राजपुत्री भन्या है वो राजमति सती, जो न होगी किसी की— आगे पत्नी- इन सबन को है नमस्कार मेरा || २३ ||
राजीमत्या विरहसमये तस्सली - तातपाइँ
नेम्यम्य वचनमलिलं प्रोक्तमानाय दृष्धम् एतस्काध्यं कविकुलम रणेः का लिवासस्य काव्यात् पादं चान्त्यं समुचिश्पदान्मेघवृताद्गृहीत्वा ॥ ६४ ॥
अन्वय- अर्थ - ( राजीमत्वा च तत्सखी - तातपादैः विरहसमये) राजुल ने और उसकी सखियों ने एवं उसके पिता ने विरह के समय (नैम्यम्य रखें) नमि के निकट (प्रोक्त' प्रति वचनं श्रादाय ) जो वचन कहे उन सबको लेकर के मैंने ( एतत् काव्यं हब्धम् ) इस काव्य की रचना की है. इसमें (कविकुलमणेः कालिदासस्य समुचितपदात् ) कविकुलमणि कालिदास के समुचित पदवाले (मेघदूतात् काव्यान् ) मेघदूत काव्य से ( अन्त्यं पाद) अन्तिम पाद को (गृहीत्वा ) ग्रहण करके इस काव्य का निर्माण किया है।
भावार्थ — नेमिनाथ अब राजुल का भर विवाह में परित्याग कर गिरनार पर्वत पर दिगम्बर मुद्रा में विराजमान हो गये उस समय राजसुता राजमति की सब
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नमनदूतम्
प्राशाओं पर पानी फिर गया. वह उनके पीछे २ गिरती पडती गिरनार पर पहुंची उनके निकट अपनी हार्दिक व्यथा जिस रूप में उसने प्रकट की वह “पूर्व वचन दूत" में अङ्कित की गई है । इस "उत्तर वचनदूत' में नेमि के निकट राजुल को सनियों ने
और उसके जनक ने जो कुछ कहा वह प्राङ्कित किया गया है । कवि कुलभूष्ठ कालिदास ने जो मेघदूत की रचना की है, उसके अन्तिम पाद को लेकर उसे इस वचनदूत की कथावस्तु के साथ जोडा गया है ।
राजल ने उसकी सखियों ने और पिताश्री ने उसके गिरि पर जाकर नेमिनाथ से कहे भाव जो थे मन में साहित्यिक भाषा में उनको सजा-सजाकर यहां किया भलित, कल्पित हुए उन्हों को "वचनदूत" यह नाम दिया कालिदास के मेवदूत से अन्त्यपाद को लेकर के करी समस्या पूर्ति यथामति मैंने "बचनदूत" रच के ।।८।।
धन्यास्ते गुरवः पान्तु येषां सत्कृपया मया । लब्धबोधेन संदृब्धं नव्यं काव्यमिदं मुदा ।।१।।
अम्बादिदासान्तपदोपगूढान् विद्यागरुन् नौमि भृशं सुभक्त्या । येषां पवित्राश्चरणारविन्दान् संसेव्य मे धी रभवत् पवित्रा ॥२॥
शुष्कघासनिभं शास्त्रं तख्यिं परिशीलितम्, मद् गवाक्षीरवच्चतत्काव्यं नव्यं तयोद्गतम् ।।३।।
कायनिमणिकर्तृत्व केवलं मयि युज्यते सगुणं निगुगं बैतत् विद्भिः परीक्ष्यताम् ।।४।।
साध्वी प्रकृत्या मनधाभिधाना परनी मदीयाऽस्ति मनोऽनुकुला। शुश्रूषया तत्कृतयैव सम्यग्वद्धोऽप्यहं काव्य मिदं चकार ।।५।।
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वचनदूतम् धन्यवादालि चास्य तद्गुणाकृष्टमानसः । तदुपकारशुद्ध यथं प्रयच्छामि पुनः पुनः ।।६।।
ईदृशी गृहिणी भूयात् सर्वेषां सद्गृहाश्रमे । यद्धर्मसेवनात्स्वर्गः गृहे चापि विज़म्भते ॥७॥
भावार्थ-जिनके परम अनुग्रह से ज्ञान प्राप्त करके मैंने इस नवीन काव्य की रचना की है ऐसे वे गुरुजन मेरी सदा रक्षा करते रहें ।।१।। जिसके पवित्र चरणारविन्दों की सेट कर मेरी बुद्धि प्रतिवन निद्या तुम इम्बादास जी" को मैं भक्तिपूर्वक बार बार प्रणाम करता हूं।।२।। मेरी गो ने (वारणी एवं बुद्धि ने) शुष्कघास के जैसे तर्क शास्त्र का परिशीलन किया है सो उससे दुग्ध के जैसा बट्ट नवीन काव्य निःसृत हुआ है ।। ३।। काव्य का निर्माण कर्तृत्व तो मुझ में प्राता है पर यह सगुण है कि निर्गुण है इसकी परीक्षा विद्वानों के हाथ में है । [४३ प्रकृति से साच्ची मेरी वर्भपत्नी “मनवा" न मुझे इस वृद्धावस्था में भी मेरी अच्छी सरह सेवा करके इस काव्य के निर्माण के लायक बल प्रदान किया |५|| अतः मैं उसके इस सद्गुण से आकृष्ट होकर उसे बार २ धन्यवाद देता हूं ।।६।। ऐसी गृहिणी सब के घर में होवे कि-जिसके धर्म सेवन के प्रभाव से प्रत्येक गृहस्थ के घर में भी स्वर्गीय प्रानन्द बरसता रहता है ।।७।।
कतु : प्रशस्ति:मस्ततिवर्षायषि में चिकीर्षया प्रेरितस्य णे नुष्या विहिते स्मिम् खनु काव्ये भवेत्त्रुटि कापि संशोध्या ।।१।।
राजस्थानप्रान्त वसता क्षेत्र मया महावीरे ।
पाण्डित्यपदे, नव्यं काव्यं दब्धं स्वरुच्यतत् ।।३।। दिगम्बरक्षेत्रमिदं प्रसिद्ध पुरातन सातिशयं समृद्धम् । देशान्तरायातविशिष्ट विशै भक्त्यान्वितैः श्राद्धचयैश्च सेव्यम् ।। ३ ।।
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वत्तनदूतम्
गंभीरासरितस्तटस्थितमिदं क्षेत्रं महाविस्तृतम् । श्रीदैगम्बर मूलनायक महावीराख्यथा विश्रुतम् । भूगर्भोत्थितवीरबिम्वललितं लालित्यतोऽनूपमम् । अस्योत्कर्षमवेक्ष्य दानसलिल प्रश्वत्स्वयं वर्षति || ४ ||
दिगम्बराम्नायत एव सर्व पूजाप्रतिष्ठादि व धर्म्यनृत्यम् । संपद्यते — लोकजनोपकारि क्षेत्र प्रसिद्ध जगतीतलेऽस्मिन् ।। ५ 1
दिगम्बराचार्यमुनीन्द्रचन्द्रश्री कुन्दकुन्दान मतानुसारात् दैगम्बरेऽस्मिन् खलु क्षेत्रवर्ये संघीयते धार्मिककार्यजातम् ।। ६ ।।
भक्तिकेन्द्रस्य पूर्णाऽस्य व्यवस्था संविधीयते । निर्वाचनपद्धत्या जंपुरीय दिगम्बरैः ॥ ७ ॥
क्षेत्र प्रबन्धकारियां व्यवस्थासंविधायिनः । कर्मठा: ः कुशला विज्ञाः सभ्या जायन्त एवते ॥ ८॥
मंत्रिपदे नियुक्तोऽत्र “श्री कपूरेन्दुपाटनी " "खिन्दुका - ज्ञानचंद्रो ऽस्ति सभापतिपदस्थितः ॥ ३ ॥
अष्टसहस्त्रीभावं येनादायैव चाप्तमीमांसा । अपरं युक्त्यनुशासन मनूदितं भाषया हिन्दया || १० ||
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तेनं वेदं रचितं काव्य नव्यं मनोहरैः पादैः । विद्वन्मनोमुस्याहार्दिक भावोऽस्ति मे वायम् ॥ ११ ॥
सल्लोमातृभवेन येन रचितं श्रन्यायरत्नं महत्, टीकाभिस्तिभितं गुणिजनामोदप्रदं तोषदं । स्वान्तप्रेरणया च काव्यमितरच्छाहान्तलोकाभिवम् तेनेदं रचितं स्वकल्पितपदै विद्वन्मनोमोदकैः ||१२||
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चन्चनदूतम्
पूर्वस्मान्मेघदूताच्च पादानन्त्यान् मया मुदा । गृहीत्वा पूरितास्तेऽत्र क्षम्याससंगतिः ॥१२॥
उत्तरमेघदूतस्याः पादा प्रत्याश्च केचन । भूरिता अवशिष्टापत्र त्यक्ता अनुपयोगिनः || १४ |
सातत्येन प्रमुदितमना मूलचन्द्राभिधानः कश्चिद् व्यक्ति मुनिवरशुभाशंसिवादप्रभावात् काव्यं नव्यं श्रमपरिगतः शारदाराधनायां चक्रे भूयाद् गुणमणिभृतां तोपकृत्पण्डितानाम् ॥१५॥
वृषसेवायां निरतः प्रोस्टेड ग्रन्थिनादितो जातः । दैव ! त्वत्प्रतिकूलाचरणादेवाधुना मन्ये ॥१६॥
तु मे न शुभं भवेद्यदि विधे ! वाञ्छा त्वदीयाना मा कार्षीरशुभं कदाचिदपि मे विज्ञप्तिमेतां शृणु । याचे न द्रविणं न कीर्तिमतुलं सौख्यं परं प्रार्थये, त्वत्कष्टैकसहा भवेत्तनुरियं कुर्यादियन्मे बलम् ॥ १७॥ इत्थं प्रार्थनया प्रसन्नमनसा देवेन दत्तं बलम्, वार्धक्येऽपि मया सदाश्रयवाद दृव्यं मनोरंजकम् काव्यं नव्यमिदं यदीयपठनाच्चिते भवेन्नेकशः, विज्ञानां महतां च पाठकनृणां वाञ्छा पुन र्वा पठेन ॥१८
शास्वन्ति ते किन्तु परिश्रमं मे दोषैक्षणाकृत्य निवद्भकक्षाः रविप्रकाशो भवतीति कीदृग् जानन्ति नो सत्यमुलुकपोताः ।। १६ ।।
सागर मण्डलाधीतो विवन्मंडलमण्डितः । मालयनाभियो ग्रामो रम्योऽस्ति जनसंकुलः ॥२०॥ तत्रास्मि लब्धजन्माऽहं परवारकुलोद्भवः ।
सल्लो माता पिता मे श्री सटालेलालनामकः ||२१||
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वचनदूतम् एतत्काव्यं मया दृब्धं द्विसहस्त्रे च वैक्रमे ! एकोनत्रिंशता युक्त शुक्ले मगसि च कातिके ।।२२।। यावद्वाजति शासन जिनपते विच्च गंगाजलम्, यावच्चंद्रदिवाकरौ वितनुतः स्वीयां गति चाम्बरे । तावद्वाजतु नव्यकाव्यमपि मे पापठ्यमानं जनैः, एतल्लन्यमा मरेत वह यर्छ यो गुरूनाश्रयेत् ।।२३।। गंगोत्तुङ्गतरङ्गसंगिसलिलप्रान्तस्थितो विश्रुतः श्रीस्याद्वादपदाङ्कितो भुवि जनै मन्यिोऽस्ति विद्यालयः । तत्राऽहं पठं गणेशगुरुणा संस्थापिते वणिना अम्बादासपदोपगूहिततनुमऽभूद्विशिष्टो गुरुः ।।२४।। मतिभ्रमोऽजायत एव पुसा बाक्यकाले जनवाद एषः मिथ्या, यतोऽहं न तथा बभूव, बभूव में प्रत्य त शेमुषीद्धा ।।२।।
विद्वांसस्तु भवन्त्येते संकटापन्न जीवनाः प्रकृत्या कंटकाकीर्णो जायते पाटली सुमः ।।२६।। एवं विचिन्त्य संतोषाज्जीवने यापयाम्यहम्, ध्रुवमतेद् ययापात्रं समुद्राल्लभते जलम् ।।२७।।
भावार्य—मैंने यह काव्य ७० वर्ष की अवस्था में गुम्फित किया है इसलिये इसमें यदि कोई त्रुटि हुई हो तो उसका संशोधन कर लेना चाहिये ||१|| राजस्थान प्रान्त में श्रीमहावीरजी नाम का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है वहाँ मैं पापिनत्य पद पर 'नियुक्त है। वहाँ रह कर मैंने इस नवीन काव्य की रचना की है ॥सा यह क्षेत्र दिगम्बर क्षेत्र है, बहुत प्राचीन है, समृद्ध और प्रतिशयशाली है। यहाँ देशान्तर से विशिष्ट विद्वान् भाते रहते हैं एवं भक्तिभाव से प्रोतप्रोत श्रावकनरण यहाँ पूजनादि कार्य करते रहते हैं ।।३।। यह क्षेत्र गम्भीर नदी के पश्चिम तट पर स्थित है । इस का नाम मूल नायक श्री महावीर प्रभु के नाम से 'श्री महावीर' ऐसा प्रचलित है । यहाँ भूगर्भ से निकली हुई श्री महावीर प्रमु की प्रतिमा है। इस क्षेत्र का सौन्दर्य भी अपूर्व ही है। यहाँ दान रूपी सलिल स्वयं इस क्षेत्र का सदा सिञ्चन करता रहता है ॥४॥ दिगम्बर माम्नाय के अनुसार ही यहां पूजा प्रतिष्ठादि कार्य सम्पन्न होते हैं । यह लोकजवोपकारी क्षेत्र है । सब ही दर्शन कर अपने पापको
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वचनदूतम्
भाग्यशाली मानते हैं ॥५॥ दिगम्बराचार्य श्री कुदकुद की मान्यता के अनुसार ही इस दिगम्बर क्षेत्र पर समय-समय पर धार्मिक कार्य होते रहते हैं ||६|| भक्ति के केन्द्ररूप इस क्षेत्र की पूर्ण व्यवस्था निर्यापनपद्धति से चुने गये जयपुर के दिगम्बर जनजन करते रहते हैं ||७|| क्षेत्र की प्रबन्धकारिणी कमेटी में चुने गये सदस्य कर्मठ, कुशल और चतुर होते हैं—में क्षेत्र की सेवा निस्पृह भाव से करते रहते हैं |८|| इस समय क्षेत्रीय मंत्री-पद पर श्री 'कपूरचन्द पाटनी' महोदम हैं पौर सभापति पद पर सिन्दूका श्री 'ज्ञानचन्द्रजी' हैं ।।६।।
जिसने प्रष्टसहस्री के भाव को लेकर 'प्राप्तमीमांसा' का एवं 'युक्त्यनुशासन' नथ का हिन्दी में अनुवाद किया है उसी ने इस नवीन काव्य की रचना की है। यह विद्वज्जन मनोमोहक बने यही मेरी मांगलिक कामना है ॥१०-११॥
सल्लो-माता के सुपुत्र मैंने "न्यायरल" नामक सूत्रग्रन्थ रचा और संस्कृत में उस पर तीन टीकाएं भी रची, जो बिजनों को मान्य हुई हैं तथा स्थान्त सुखाय और भी दूसरे काव्य एवं “लोंकाणाह" नामक एक १४ सगीत्मक महाकाव्य भी निर्मित किया । इस वचन दूत की जो रचना की है वह विद्वन्मनोमोदक स्वकल्पनारचित पदों से की है। पूर्व मेघदूत के अन्तिम पाद को लेकर पूर्ववचनदूत की रचना हुई है. उममें जो प्रसंगति प्रतीत हो उसके लिये मैं क्षम्य हूं। उत्तरववनदूत में उत्तरमेघदूत के अन्तिम पादों की समस्या पूर्ति हुई है, पर जिनकी संगति हो सकी है उनकी ही संगति इस उसर वचनदूत की कथावस्तु के साथ बैठायी गई है, सब अन्तिमपादों की नहीं ।। १२-१४॥
मुझ मूलचंद्र नामक साधारण व्यक्ति ने मुनिवर विद्यानन्द महाराज केगुभाशीर्वाद के प्रभाव से इस नवीन काव्य की रचना की है, मेरा अधिकांश समय सरस्वती माता की आराधना में ही व्यतीत होता है । गुणों में अनुराग रखने वाले विवजनों को मेरा यह काम संतोषप्रद होगा ऐसा प्रात्म विश्वास है ॥१५॥
धार्मिक कार्यों के संपादन में निरन्तर निरत होने पर भी मुझे देव की प्रतिकूलता से प्रोस्टेडग्रन्थि की बाधा हो गई है ।।१६।। अतः मैंने उसकी अनुकूलता
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वचनदूतम्
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संपादनार्थ जो स्तुति की उससे मुझे इस बृद्धावस्था में बल मिला । स्तुति में मैंने देव में यही याचना की कि मैं तुम से न धन चाहता हूं, न कीति की कामना करता हूं और न अतुल सुख चाहता हूं | मैं तो केवल यही चाहता हूं कि तुम्हारे द्वारा दिये गये इस कष्ट को मेरा यह शरीर सह सके इतना दल मुझे प्रदान करो ॥१७॥
इस प्रकार की प्रार्थना से प्रसन्न हुए देव ने मुझे इस ग्रन्थ के निर्माण करने लायक बल दिया, जिससे मैं इस नवीन ग्रन्थ को निर्माण कर विन्न पाठकों के सम्मुख उपस्थित करने में समर्थ हो सका हूं। यह पाठकों के मन को रंजित करेगा भौर एक बार भी पन लेने पर पुनः उन्हें यह बार बार पढने को उत्कंठित बनावेगा। ॥१८॥
जो दूसरों के दोषों को देखने के शौकीन हैं वे मेरे इसके निर्माण करने के परिश्रम की कीमत नहीं कर सकते हैं। क्योंकि रवि का प्रकाश कैसा होता है इस बात को उल्ल का बच्चा नहीं जानता है ।।१४
___मेरी जन्मभूमि मालीन नामक कस्बा है । यह सागर जिले में वर्तमान है । मेरी माता का नाम सल्लो और पिता का नाम श्रीसटोलेलाल है। जाति का मैं परवार हूं । यह काव्य मैंने वि० संवत् २०२६ में रचा है । वह समय कार्तिक मास का शुल्क पक्ष का था ।।२०-२२।।
___ जब तक जिनेन्द्र का शासन भूमण्डल में चमकता रहे, गंगा का जल बहता रहे और प्राकाश मण्डल को चन्द्र और सूर्य प्रकाशित करते रहे, तब तक इस काव्य को जनता अच्छी तरह से पढ़ती रहे । इससे मिलने वाला श्रेय मेरे गुरुजनों को प्राप्त हो ऐसी मेरी मांगलिक भावना है ॥२३॥
मेरा अध्ययन बनारसस्थ स्याद्वाद महाविद्यालय में हुमा है, यह भदैनी घाट पर स्थित है, जनता इसे श्रद्धा की दृष्टि से देखती है, उसके प्रति जनता का बहुत पादर भाव है । इसकी स्थापना श्रीपूज्य गणेशप्रसाद जी बर्णी ने की है। वहां मेरे प्रधान विद्यागुरु श्रीमान् अम्बादास जी शास्त्री थे ।।२४।।
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वचनदूतम् "वृसाधना में गतिजा हो जाता है ऐसा जो जनवाद-लोकोक्ति है-उसे मैं मिथ्या इसलिये मानता हूं कि इस अवस्था में मेरी बुद्धि में विकास हुआ है ।।२५।।
विद्वज्जन तो संकटापन्न जीवन वाले ही होते चले माये हैं। हमने देखा है कि गुलाब का फूल कांटों में ही विकसित होता है ।।२।।
ऐसी बात सोचकर ही मेरा जीवन संतोष से निकल रहा है। बात तो यह सच है कि समुद्र के पास बैठा हुमा व्यक्ति मपने पात्र के अनुसार ही उसमें में जल प्राप्त कर सकता है ॥२७॥
अमाप्तमिदं स्मनदूतमुत्तरायम्
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________________ क्षेत्र के साहित्य शोध विभाग द्वारा प्रकाशित महत्त्वपूर्ण साहित्य (1-2) राजस्थान के जैन शास्त्र मंडारों की ग्रंथ सूची- प्रथम भाग एवं द्वितीय भाग (अप्राप्य) (3-5) राजस्थान के जन शास्त्र मंडारों को ग्रंथ सूची-तृतीय भाग, चतुर्थ भाग सम्पादक- डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल एवं एवं पंचम भाग अनूपचन्द न्यायतीर्थ मूल्य 170) रु० (6) जैन ग्रंथ भंडार्स इन राजस्थान (शोध प्रबन्ध अंग्रेजी में) लेखक-डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल मूल्य 50) रु. (7) प्रशस्ति संग्रह-सम्पादक -डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल मूल्म 14) 20 (8) राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व: लेखक-डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल मूल्य 20) क. (E) महाकवि दौलतराम मानवान : ति: एक कृषि लेखक-हा कस्तूरचन्द कासलीवाल मूल्य 20) रु. (10) जैन शोध और समीक्षा-लेखक-डा० प्रेमसागर जैन मूल्य 20) 20 (11) जिणदत्त चरित–सम्पादक-सा० माताप्रसाद गुप्त एवं पा० कासलीवाल मूल्य 12) 20 (12) प्रद्युम्नचरित-सम्पादक-पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ एवं डा० कासलीवान मूल्य 12) 20 (13) हिन्दी पद संग्रह–सम्पादक-डा कस्तूरचन्द कासलीवाल मूल्य 10) रु. (14) सर्वार्थ सिद्धि सार--सम्प दक-५० चैनसुखदास म्यायतीथं मूल्य 10) रु. (15) चम्पा शतक–सम्पादक-डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल मूल्य 6) 10 (16) तामिल भाषा का जैन साहित्य-सम्पादक-पं० भंवरलाल पोल्याका मूल्य 1) रु. (17) वचनतम्-लेखक-पं० मूलचन्द शास्त्री मूल्य 10) 10 (18) तीर्थंकर वर्धमान महावीर-लेखक 50 पदमचन्द्र शास्त्री मूल्म 10) रु. (16) A Key to Happiness (अप्राप्य) (20) पं० चैनसुख दास न्यायतीर्थ स्मृति ग्रंथ मूल्य 50) 10 (21) बाहुबली-खण्डकाव्य अनूपश्चन्द न्यायतीर्थ भूल्य 10) रु. (22) वचनदूतम् उत्तरार्द्ध मूल्य 10) 20 (23) योगानुशीलन (प्रेस में) पुस्तक प्राप्ति स्थानमंत्री कार्यालय मैनेजर कार्यालय दि. जैन प्र. क्षेत्र श्री महावीरजी दि. जैन अ.क्षेत्र श्री महावीरजी सवाई मानसिंह हाई वे श्री महावीरजी जयपुर-३ (राजस्थान) (राजस्थान)