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________________ वचनदूतम् मामुज्झित्वा भवति च भवान् मुक्तिकान्तानुरागी, रागद्वेषौ भवति भवतो नाथ ! वृत्त्याऽनया सु तत्सद्भावे कथमिव भवेर्मु किनार्याऽभिलाष्यः, इत्यारेक मलिनितां ज्ञापय त्वं निरस्य ॥ २६॥ अन्वय- श्रर्य – हे नाथ ! ( भवान् ) ग्राम ( माम् उरित्वा) मुर्भ लोड़कर ( मुक्तिकान्तानुरागी भवति) मुक्तिकान्ता में अनुरागशाली बन गये है (अनया वृत्त्या भवति रागद्वेषौ भवतः ) तो आपमें ऐसी प्रवृत्ति से रागद्वेष स्पष्ट जाहिर हो रहे हैं। (तत्सद्भावे) इन दोनों के सदभाव में साधक श्राप (मुक्तिनार्या अभिलाप्यः कथमित्र भवेः ) मुक्तिरूपी कान्ता के द्वारा अभिलाष्य कैसे हो सकते हो ( मनसि निहिता इत्यारेकां) मेरे मन में खचित इस प्रकार की शंका को (त्वं निरस्य) श्राप दूरकर के मुझे (ज्ञाय ) समझावें । ३५ भावार्थ – हे नाथ ! साथ में उसने यह भी निवेदन किया है कि मुझे छोड़कर जो आप मुक्तिस्त्री की चाहना में पड़ गये हैं, सो इस प्रकार की विचारधारा श्राप में राग और द्वेष की साधक हो रही है। अतः मुझे यह संदेह हो रहा है कि मुस्ि आपको कैसे प्राप्त हो सकेगी, क्योंकि वह तो रागद्वेष के सर्वधा प्रभाव वाले साधक को ही प्राप्त होती है। तो आप आकर मेरी इस शंका का समाधान करने की कृपा करें । ज्यों देती है तज निधि नरी दुर्भगा को, तजी त्यों, स्वामिन् ! हा ! हा ! विन कुछ कहे आपने भी मुझे है । सो चिन्ता की यह नहि प्रभो ! बात है कोइ किञ्चित्, चिन्ता की तो बस वह यही है कि जो मुक्तिस्त्री मेंस्वामिन्! रागी तुम बन गये, बीतरागी रहे ना, सोरागी को बह नहि विभो ! स्वप्न में चाहती हूं ऐसी शंका मम हृदय में नाथ ! जो आ गई है मेटो उस्को सब तरह से हो प्रबोधप्रदाता ||२६|| J मुझ को तजकर नाथ ! आपने बड़ी कौनसी बाल करी, मुक्तिस्त्री के चुंगल में जो श्राप फँस गये उसी घरी,
SR No.090527
Book TitleVachandutam Uttarardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Shastri
PublisherPrabandh Karini Committee Jaipur
Publication Year
Total Pages115
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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