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वचनदूतम्
म्यभ्यर्णे राजीमत्या, प्रेषितं संदेशं प्रकटयति
सारंगार विपतरवं केवलं त्वं निशम्य,
मामत्याक्षीः, वरभिह परं जीवबाधां निरीक्ष्य । मी वस्त्वं विलकरुणाधार ! तां मुक्तिकान्तां, रवामुत्कंठा विरचितपदं मन्मुखेनेदमाह ॥ २४ ॥
अन्वय-अर्थ--- (त्यम्) हे नाथ ! श्रापने (केवलम् ) सिर्फ ( मारङ्गाणाम्। मृगों (विलपनरवम्) प्राक्रन्दन को ( निशम्य ) सुनकर ही (माम्) मुझे (प्रत्याक्षी छोड़ सौ (वरम्) अच्छा किया, (परम् ) परन्तु (इह) इस जगत में (जीवबाघां निरीक्ष्य) यों की मारण ताडन आदि रूप बाघा को अपनी प्रांखों से देवकर (विपुल - वार) हे परमदया के अवतार (त्वम् ) प्राप (तां मुक्ति) उपेयी
को (मा प्रमुषः ) मत छोड़ देना ( त्वां उत्कंठाविरचितपदं मन्मुखेन इदं ऐसा तुम्हें उत्कंठित पर्दों से रचित यह संदेशरूप बचन मेरे मुख के द्वारा पास उस सखी ने भेजा है ।
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भावार्थ-अपनी सखी के द्वारा राजुल ने जो संदेश अपने नेमि गिया के पास . भेजा है उसे प्रकट करती हुई सखी उनसे कहती है – करुणावतार हे नाथ ! 'दो मुझे केवल हिरणों की करुण आवाज को सुनने मात्र से ही छोड़ दिया जैन संसार के प्राणी नाना प्रकार की वेदनाओं से वध-बंधन मादि अनेक विश्व दुःखों रहते हैं, रोते और चिल्लाते रहते हैं । सो उनकी उन व्यथाओं और क् देखकर कहीं ऐसा न कर देना कि उस मुक्तिरूपी बधू को भी श्राप छोड़ दें 1
सारंगों के सुनकर प्रभो ! आपने क्रन्दनों को
जैसे छोड़ा इकदम मुझे छोड़ ऐसे न देनामुक्ति- स्त्री को, जगतजन की देख श्रापत्तियों को
ऐसा उत्कंठित पदयुता है पठाया संदेशा ||२४||
छोड़ा नाथ ! आपने मुझको हिरणों की सुन करुण पुकार जैसे-वैसे जगजीवों की बाधा लखकर अपरंपार छोड़ न देना मुक्तिस्त्री को क्योंकि भाप हो करुणाघार, ऐसा उद्बोधक संदेशा भेजा तुम्हें सखी ने हार ||२४||