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प्रस्तावना
पं० मूलचन्द जी शास्त्री अपनी सारस्वत साधना के लिये विख्यात हैं। कर्कश सर्क एवं सुकुमार साहित्य, वा और कुसुम, दोनों ही उनकी लेखनी से प्रसूत ई। आज वे ७० वर्ष के हैं तथा प्रोस्टेट ग्रन्थि के प्रकोप से पीडित हैं। इस भवस्था और स्थिति में उन्होंने 'घवन दूतम्' का प्रणयन किया है । धन्य है संस्कृत का साहित्यकार जो सहस्राब्दियों से लक्ष्मी के कोप को निरन्तर सहता हुमा सरस्वती की पाराधना में अनवरत लगा हुआ है। वह राजकीय कृपापान्मूल प्रतिबद्धता से अनुप्राणित कविता नहीं लिखता न यह प्रतिदिन परिवर्तनशील काव्यफैशन का अनुकरण करता है । वह जो लिखता है वह निश्चित ही उसकी प्रपत्री भावमा प्रज्ञा एवं मनमें प्रतिष्ठित है वह अपनी आत्मा को अभिव्यक्त करता है नकि मोके हुए अनुभवों को अथवा मौसमी बौद्धिकता को 1 यही कारण है कि शास्त्रीजी ने जो काव्य लिखा है यह उनको प्राध्यात्मिक भावभूमि से प्रोद्भूत होकर चिरंतन काव्य परम्परा पर कालजयी बनने के लिये प्रतिष्ठित है । काव्य की प्रस्ताउज्ज्वल एवं प्रेरणादायक मानवीय रूप यह सभी प्रसंग 'वचनदूत' के अन्त में कित पद्मों से संग्रहीत हैं । अपनी पत्नी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए कवि कहता है कि उसी के सेवा बन्धन में बंधकर में यह काव्य लिख सका | साहित्यकार, विपन्न संस्कृत साहित्यकार की पत्नी का साहित्य सृष्टि में कितना हाथ होता है, इसकी निश्चल स्वीकृति साहित्य - सावना में निरत सभी साहित्यकारों की ओर से भारतीय पत्नी का एक ध्वन्यात्मक अभिनन्दन है । विपन्न माघ की पत्नी भी इसी प्रकार शुश्रूषा- परायण रही होगी । पत्नी के सेवा भाव ने ही गृहस्थाश्रम को स्वर्ग बनाया है, तभी तो 'बवनदूत' का कवि राजुल को वैराग्य-दीक्षा के लिये प्रवृत्त करता है किन्तु स्वयं अपने लिये और अपने साथियों के लिये यह घोषणा करता है
बना के पूर्व दो शब्द इस कवि के अत्यन्त का उल्लेखन करने के लिये आवश्यक हैं।
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ईशी गृहिणी भूयात् सर्वेषां सद् गृहाश्रमे । पसेवनात्स्वर्गो रहे चापि विजृम्भते ॥
कवि राजुल को राग छोड़कर विराग का उपदेश देता है किन्तु उसका मानव मन घर में स्वर्ग बनाने का आह्वान करता है | धन्यो गृहस्थाश्रमः । शास्त्रीजी भगवान् महावीर की पूजा में निरन्तर लगे रहें पर भाज ने पीड़ित है प्रोस्टेट ग्रन्थि