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वचनलम्
अन्वय-अर्थ-हे नाथ ! (उष्णोळ्यासः) गरम गरम श्वासों से (अधरदशन- । च्छादनस्) अपने अधरोष्ठ को (कृष्णयन्ती) कृष्ण करती हुई, एवं (भूपीठस्थाम्) भूमिरूप आसन पर बैठी हुई उस मेरी सखी को (अचजनमनाम्) माप अनिमिषनेत्र हुई (द्रक्ष्यति) देखेंगे । (सा) वह चाइ) तुम्हें देखकर वह कनान पूर्स में भापकी प्राप्ति के निमित्त किये गये (विविधनियमान्) अनेक प्रकार के नियमों को (विस्मरन्ती) भूलती हुई (करुणविरुतम्) और करुणाजनक विलाप (कुर्वती) करती हुई (त्वत्पादाने) मायके चरणों के आगे (स्वाम क्षेप्स्यति) अपने आपको पतित-विसर्जित कर देगी। अर्थात् मापके पावन चरणों में गिर जायगी।
मगर जैसा अधर उसका उष्ण उच्छ बास द्वारा,
काला होकर प्रकट करता दुःख की तीव्रता को, ऐसी दुःखी वह प्रिय सखो पापको भूमि पै ही
बैठी रोसी सुथिरनयना देखने को मिलेगी, देखेगी वो जब सदन में प्राप आये हुए हैं
तो जावेगी विसर नियमों को किये गये सभी को, रोती रोती चरणयुग में आपके पा पड़ेगी
होगी धन्या, दिवस उसका साधना धन्य होगी ।
नाथ ! धधकती विरह अग्नि में प्रसिक्षण उसकी पत्रामों कोइतना उष्ण कर दिया जिनने कृष्ण कर दिवा प्रोडों को ऐसे सूखे काले होंठों से सनाथ वह नाथ ! सखी जिराकी तुमने सबर न अबतक ली, नहि जिसकी बात रखी कोमल, कान्त कामनाओं को जिसकी तुमने मसल दिया भो विराग धर करके प्राकर इस पहाड़ पर बास क्रिया अनिमिष दृग बह तड़प रही है नाथ ! प्रायके दर्शन को स्वागत, भावभक्ति करने को, करने चरणस्पर्शन को क्षोपीरूपी आसन ऊपर बैठी बह जब देखेगी प्रामा हुना मदन में तुमको, तो इकदम उठ बैठेगी "भूल" भूलकर वह नियमों को रोती रोती पावेगी मात्मसमर्पण हेतु प्रापके चरणों में गिर जायेगी।