________________
वचनदूतम्
साथी के नहीं होने के
(लाम्) आपको (संस्पृ
f
अभ्वय अर्थ (शविकला सा) रक्षक जीवन कारण आकुलपाकुल हुई हे नाथ! वह मेरी राजुल स्पर्श करके ( श्रागतैः शीतवातैः) प्रागत शीतल पवनों से ( नितरां ) इकदम (वश्वासाभवति) कर लेती है। वह बिचारी उनका आलिङ्गन करके ( षु एवं क्व प्रसि) इनमें आप कहां पर है सो (अन्वेषणे) आपकी तलाश करने में (दस दृष्टि तरन्ना भवनि) अपनी दृष्टि को दौड़ानी हैजमाती है | इस प्रकार चंचल चित्त बनी हुई वह (मुम्बा) भोली भाली वहां (स्वाम्) तुम्हें (मप्राप्य) न पाकर (पुनः द्विगुणितमनस्तापदग्धा) फिर से द्विगुप्ति मन स्वाप से दग्ध (अस्ति) होने लग जाती है ।
४७
भावार्थ - हे नाथ ! आपको लकरके आई वायु जब उसे छूती है तो उसे बड़ी शांति मिलती है, सो वह मुग्धा उतावली होकर उनमें आपको तलाश करने लगती है, पर जब वह वहीं आपको नहीं पाती है तो हताश होकर वह द्विगुरित मनस्वाप से संतप्त होने लगती है ।
छू के भाई पवन तुमको नाथ ! छूती उसे है,
लब्धाश्वासा बनकर सखी खोजती व्हां तुम्हें है । पाती वो हा । जब नहि वहां आपको तो दुखी हो
निदाग
कर कर स्वयं की प्रशान्ता बने हैं ||३७||
साथ ! प्रायको छूकर पायी वायु उसे जब छूती है, तो वह अति प्रसन्न हो करके उसमें तुम्हें बूंकती है । पर यह मुग्धा नाथ ! नहीं जब तुम्हें वहां पर पाती है, तो वह द्विगुणितमनस्ताप से हाय द हो जाती है३७॥
मुग्धे ! कि स्वं मलिनववमा सांप्रतं संवृताऽसि,
सीस्वं तु प्रियपतिहिता विस्मृतं कि वयेवम् । कुच्छारला नो वदति च यदा ता वपस्था बदन्ति, कच्चतुः स्मरसि रसिके ! एवं हि तस्य प्रियेति ॥ ३८ ॥
:
अभ्वय अर्थ - हे नाथ ! जब सखिजन उसे मलिन मुख देखता है तो उसमे पूछने लगता है कि ( मुग्धे) हे मुग्ने ! (साम्प्रतम् ) इस समय (त्व) तुम (मलिन