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वचनदूतम्
नाथ गये हैं जब से मुझको तत्र इतने दिन बीत गये, मुझ अभागिनी के अब सब ही हाय ! मनोरथ सूत्र गये, विरह दिनों की यह गिनती ही उसे व्यथित करती रहती, चैन न लेने देती उसको और रुलाती है रहती
रात दिवस वह ध्यान आपके में है मग्ना भूल गई - यी सूख गई
मनःशान्ति के हेतु जब कभी वह एकान्त में है जाती, विरह दिनों की यहाँ भी स्मृति से छाती उसकी भर भाती साथ नाथ का छूट गया बस ऐसी वह बातें कहती शिशिर मथित यह पद्मलता सी प्राकृति से बिरूप दिखती ॥ ७ ॥
अस्या नूनं प्रतिदिनभुनाऽऽक्रन्दनेनाथ नाथ !
नश्वितं हा ! गृहनिवसतां यते श्रोत्रगेन । श्रष्ठं कृष्णं भवति हृदयं बोध्य वीणं तथाऽऽस्यम् इन्दोग्यं त्ववनुसरण क्लिष्ट कान्तेविभति ॥८॥
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वय -- (नाथ) हे स्वामिन् ! ( प्रतिदिनना) प्रत्येक दिन के (अस्याः) इसके (योगेन) सुने गये (श्राक्रन्दनेन) वन से (गृहनिवसता) घर में रहने वाले (नः) हम सबका (हा चित्त दूयसे) मन दुःखित होता है। इसका (प्रोष्वं कृष्णम्) घरोष्ठ काला (अक्ष्य) देखकर (हृदयंदीर्णम्) हृदय फटा जाता है। तथा ( त्वदनुसरलष्टकान्तेः) आपके अनुसरण करने से फीकी कान्तिवाली (श्रास्यम्) इसका मुख (उदा: देrयं विभति) चन्द्रमा के जैसा दीनता को धारण कर रहा है ।
भावार्थ हे नाथ! प्रतिदिन के इसके श्राक्रन्दन से हम सब घर में रहने वालों का मन बहुत अधिक दुःखित होता है। कृष्ण हुए इसके अधरोष्ठ को देखकर हमारी छाती फटती है। तथा धनघटा के घिर आने से जिस प्रकार चन्द्रमंडन फीका पड़ जाता है, इसी प्रकार प्रति समय श्रापके स्मरण करते रहने से उसका मुखमंडल भी प्रभाविहीन हो गया है ।