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आय वक्तव्य
प्राज मैं अपने विश पाठकों के कर कमलों में विरप्रतीक्षित 'उसराई वचनदूतम्" को समर्पित करता हुमा अपने प्राप में मानन्दातिरेक का अनुभव कर रहा हूँ । सन् १९२६ से जबकि मैं अपना विद्यार्थी जीवन समाप्त कर सामाजिक कार्य क्षेत्र में उतरा तब से प्राजीविकोपार्जन के साधनों के जुटाने में रत तो रहा ही, पर सरस्वती माता की सेवा करने की मनोवृत्ति से विहीन भी नहीं हुमा । सब कुछ करते धरते भी महनिश चित्त में यही भावना भी रहती रही कि यदि गुरुदेव की परम भग' को प्रमागिता गोगगन पर पर गया है तो उसका सदुपयोग करता रहूँ अर्थात् सरस्वती माता के भंडार में अपनी भोर से पत्र पुष्प फलं सोपं कुछ न कुछ करता रहूँ। उसी भावना का प्रति फलस्वरूप यह 'उसरार्धवचन दूत' है । इस में राजुल के जनक ने एवं उसकी सखियों ने नेमि से प्यार अपना २ अभिप्राय प्रकट मिया, यह सब साहित्यिक भाषा से सज्जित कर प्रकट किया गया है। वचन बुन के निर्माण के सम्बन्ध में मैं पूर्वाद वचन दूत के माद्यवक्तव्य में अपना सब कुछ मभिगय प्रकट कर चूका हूँ प्रतः अब और इस सम्बन्ध में अधिक लिसना में उचित नहीं समझता हूँ। काव्य के अंत में जो प्रशस्ति लिखी गई है उस से भी पाठक गरग मेरे अभिप्राय को जान सकते हैं ।
जो अभी तक मैंने सरस्वती माता के मंडार को करीब ५० संस्कृत ग्रंथों का मनुवार एवं संस्कृत में कुछ मौलिक रचनाएँ देकर के यद किचित् वित किया है सो यह सब परम पूज्य विद्या-मुरुदेव का ही प्रभाव है। मेरा इसमें कुछ नहीं है मैं तो एक मालाकार मात्र हूँ।
इस उत्तरार्थ वचनदूत में कवि शिरोमणि कालिदास के उत्तराषं मेघदूत के प्रश्रय पाद की पूर्ति की गई है। त्रुटि के लिये क्षम्य हैं मोर उसे सूचित करने की अपने कृपासु पाठकों से प्रार्थना करता हूं ताकि आगे बह शुद्ध की जा सके।
__ यह मेरी स्वतंत्र रचना है। मंदाक्रांत एवं घाटक प्रादि छंद जो हिन्दी में लिखे गये हैं ये भी स्वोपज हैं । इनके द्वारा श्लोक का भाव कुछ मषिक स्पष्ट हो जाता है।
अंत में मैं क्षेत्र की प्रबन्धकारिणी कमेटी के अध्यक्ष श्रीमान् मानन्द्रजी