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________________ वचनदूतम् ये है मेरा अशुभकरता ये मुझे शान्ति देता होती ऐसो नहि तनिक भी कल्पना स्वप्न में भी होती वृत्ति स्वपरकरुणाशील साधुजनों की सच्चे त्यागो परजनदुखी देखते आई चित हो जाते हैं-पर नहिं विभो ! पाप में आता है ऐसे कैसे तब प्रभु ! तुम्हें मुक्तिरानी बरेगी ॥५४।। स्वपरभेद से रिक्त सदा मुनिजन मन होता द्विविधा का सद्भाव नहीं वहां मिलता सोता शशु मिष सम्माद यहा सोडा करता नहीं विषमताभाव वहां अपना पद रखता हो इससे विपरीत वृत्ति वह साधु नहीं है वह है मक्ष्य प्रलुब्ध स्वादु पर बञ्चक ही है त्यागी होते दयाशील पर दुख में दुःखी । पर सुख में हों सुखी यही उनकी सत्ती ।।५४।। शोभा ते स्यारजगति च यथा स्वा तथाऽहं बोमि स्वस्था सा वा भवति यया तं विधि चापि वलिम। गत्या तर प्रथममनुरागात्त्वया सा समीक्या पृष्टव्या तत्कुशलवचन मंस्तके स्पर्शनीया ॥५५॥ - - अन्वय-प्रयं—हे नाथ ! ( जगति ) संसार में ( यथा ) जिस प्रकार से ( ते) मापकी शोभा-श्रेष्ठता हो सकती है ( अहम् ) मैं ( त्वां ) प्रापको ( तथा बीमि ) उस उपाय को कहती हूं. और ( यया ) जिस प्रकार ( सा वा स्वस्था भवति । बह स्वस्थ हो सकती ( तं विधि वापि ) उस विधि को भी मैं ( चमि ) आपमे कहती हूं ( त्वया ) माप (प्रथमम् ) पहले ( तव ) वहां पर ( गस्वा) जाकर के ( अनुरागात् ) बड़े अनुराग से ( सा समीक्ष्या ) उसे देखें. पश्चात् ( तस्कुशलवचनः) उससे उसके कुशाल समाचार पूछे । और फिर उसके ( मस्तके स्यगनीया) मस्तक पर हाथ फेरें। भावार्थ-हे नाथ ! राजुल का परित्याग करने पर भी मापी संसार में कौनि बनी रहे, लोग पापको नाम न रखें-इसका उपाय मैं बताती है और साथ में यह
SR No.090527
Book TitleVachandutam Uttarardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Shastri
PublisherPrabandh Karini Committee Jaipur
Publication Year
Total Pages115
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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