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________________ वचनदूतम् अपरा काचित्स्वाभिप्रायमित्थं प्रकटयति दोलाय ताः प्रमदवनिता जानसक्ता यदा स्यु स्तस्मिन् काले बिरहजनितं गानमाश्रुत्य तासाम् free से स्वास्थमव विभो ! ध्यानमग्नं ततस्त्वं मुत्तवा शोध गिरिवरभुवं साम्प्रतं सौधमेहि ॥६०॥ अन्वय-यं – (विभो ) नाथ ! ( दोलायां झूलों पर बैठी हुई ) (वा प्रमदवनिता ) वे प्रमदवनिताएँ (यदा) जब गानसक्ताः स्युः) गीतों में मग्नचित्तवाली बनेंगी (तस्मिन् काले ) उस समय ( बिरहजनित सासी मानं आधुत्य) उनके विरह गीतों को सुनकर ते चिर्च कथमिद ध्यानमम्वं स्यात् भाषका चित्त ध्यान करने में कैसे लगेगा 1 ततः श्वम् ) इस कारण आप (साम्प्रतम् ) इस समय ( शीघ्रम् ) जल्दी से जल्दी (मिविरभवं मुक्तवा) पर्वतीय प्रदेश को छोड़कर (सौषं एहि ) सखी के महल में पधारो ७ भाषायें – स्वामिन्! सावन का यह महिना है प्रमदवनिताएँ भूलों पर भूलती हुई विरह के गीत गायेंगी उन गीतों को सुनकर आपका चित्त स्थिर नहीं रहेगा । श्रवः ध्यान की स्थिरता के निमित्त प्राप इस स्थान को छोड़कर सखी के भवन पर पधारें । है सावन का सुभग महिना ये सलोना, भलो ना प्रोषितभर्तृक युवतिजन को, क्योंकि ये कष्ट देता सो हे स्वामिन्! इस समय में आप प्यारी सखी केजाओ घर पे क्यों शिखर पे आप बैठे अकेले साधन है जब सब कुछ वहां कष्ट क्यों सह रहे हो उद्यानों में हर जगह में नाथ ! झूला पड़े हैं दोनों भूलो हिलमिल प्रभो ! श्रावणोत्सव मनाओ हाथों में श्री चरणतल में मेंहदी को रचा के भूलेंगी जब प्रमदवनिता गीत गाती विरह के कैसे होगा सुथिर स्वामिन् ! ध्यान उन गायनों कोसुनते ही, सरे गिरि तज अभी ध्यानसिद्धयर्थं जानो
SR No.090527
Book TitleVachandutam Uttarardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Shastri
PublisherPrabandh Karini Committee Jaipur
Publication Year
Total Pages115
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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